आज से पहले अपना इतना विस्तृत परिचय किसी को नहीं दिया है। रश्मि प्रभाजी का आदेश आया तो सोच में पड़ गया, उन्हें कुछ कविताओं के साथ मेरा परिचय व चित्र चाहिये था। किसी भी लेखक को लग सकता है कि उनका लेखन ही उनकी अभिव्यक्ति है, वही उनका परिचय है। सच है भी क्योंकि लेखन में उतरी विचार प्रक्रिया व्यक्तित्व का ही तो अनुनाद होती है। जो शब्दों में बहता है वह लेखक के व्यक्तित्व से ही तो पिघल कर निकलता है। यद्यपि मैं लेखक होने का दम्भ नहीं भर सकता, पर प्रयास तो यही करता रहता हूँ कि जो कहूँ वह तथ्य से अधिक व्यक्तित्व का प्रक्षेपण हो। यदि व्यक्तित्व पूरा न उभरे तो कम से कम उसका आभास या सारांश तो बता सके।
फिर लगा कि लेखन के अतिरिक्त कुछ और भी तथ्य हैं जो परिचय के आधारभूत स्तम्भ होते हैं। महादेवी वर्मा का परिचय माने तो हृदय विदीर्ण करने वाली पंक्तियाँ याद आ जाती हैं, मैं नीर भरी दुख की बदली, परिचय इतना इतिहास यही, उमड़ी कल थी, मिट आज चली। मिटना हम सबको है, परिचय संक्षिप्त दें तो बहुत कुछ इसी तरह का भाव निकलेगा, कुछ के लिये भले दुख इतना संघनित न हो। फिर भी वर्षों के विस्तृत समय काल में कुछ ऐसी बातें निकल आती हैं जिन्हें आप महत्वपूर्ण मानते हैं और उनका आधार बनाकर अपने परिचय का संसार गढ़ना चाहते हैं। इसी को मानक मान कर जितना संभव हो सका, स्वयं को स्वरचित शब्दों के दर्पण में देखने का प्रयास करता हूँ।
जब परिचय लिखने का सोचता हूँ तो सोच में पड़ जाता हूँ कि क्या लिखूँ और क्या छोड़ दूँ। एक अजब सी दुविधा आ जाती है। न जाने कितनी उपाधियाँ जुड़ी हैं, इस शरीर के साथ, कुछ जन्म से, कुछ परिवेश से, कुछ क्षेत्र से, कुछ परिवार से, कुछ धर्म से। थोड़ा और बढ़े तो संस्कृति की छाँह मिली, संस्कारों की श्रंखला मिली, परिचय में मढ़ता गया, जीवन में तनिक और गढ़ता गया। युवावस्था में लगा कि आगत परिचय अनिश्चितता से परिभाषित है, न जाने कितनी उमंगें थीं, न जाने कितनी ऊर्जा थी, क्या न कर जायें, क्या न बन जायें? शिक्षा पूरी हुयी, नौकरी और फिर विवाह। परिवार बढ़ा, अनुभव के नये पक्ष उद्घाटित हुये, स्थिरता आयी और धीरे धीरे परिचय का विस्तार ठहर गया। जहाँ हर वर्ष परिचय बदलता था, हर वर्ष उपाधि मिलती थी, अब वर्ष क्रियाहीन निकलने लगे। प्रौढ़ता की स्थिरता परिचय की स्थिरता बन गयी, अब कुछ ठहरा ठहरा सा लगता है।
इसी प्रकार न जाने कितनी घटनायें जुड़ी हैं, न जाने कितने और व्यक्तित्व जुड़े हैं, जिन्होनें जीवन पर स्पष्ट प्रभाव छोड़ा है। किसको याद रखूँ, किसको गौड़ मानू, समझ नहीं आता। किसको परिचय का अंग बनाऊँ, किसे छोड़ दूँ, समझ नहीं आता। द्वन्द्व भरा व्यक्तित्व है, मन में दो विरोधी विचार साथ साथ सहज भाव से रह लेते हैं, किसको अपना मानकर कह दूँ और किससे नाता तोड़ दूँ? या दोनों बताने का साहस हो तो कौन सा पक्ष पहले बताऊँ? इसी पशोपेश में कुछ न बताऊँ तो भी न चल पायेगा। कुछ सामाजिक तथ्य बता देता हूँ, मन खोलने बैठूँगा तो यात्रा अन्तहीन हो जायेगी।
जन्म सन १९७२ हमीरपुर उप्र में, पिछड़ा क्षेत्र, पर परिवार में शिक्षा के महत्व पर किसी को संदेह नहीं रहा। अच्छे विद्यालय के आभाव में कक्षा ६ से कानपुर आकर छात्रावास में रह कर पढ़ाई की। छात्रावास ने स्वतन्त्र चिन्तन और निर्भयता का अमूल्य उपहार दिया। आईआईटी कानपुर से १९९३ में बी टेक, मैकेनिकल इन्जीनियरिंग से। साल भर की नौकरी, तत्पश्चात १९९६ में आईआईटी कानपुर से ही एम टेक। १९९६ में सिविल सेवा में चयन, रेलवे की यातायात सेवा में। पिछले १७ वर्षों की आनन्दभरी यात्रा में पूरा देशभ्रमण हो चुका है, बस पश्चिमी भारत छूटा है। रेलवे की कार्यप्रणाली ने लगन और सक्षमता के न जाने कितने ही अध्याय सिखाये हैं, अभिभूत हूँ।
१९८५ में पहली कविता, एक वर्ष बाद ही पहला नाटक जो कि व्यवस्था के विरुद्ध होने के कारण चोरी चला गया, सृजन का यूँ चोरी हो जाना अभी भी मन में दुखद स्मृति के रूप में विद्यमान है। उसके पश्चात सृजन मन्थर, निरुत्साहित और मदमय रहा। रेल यात्रा और रेल सेवा, व्यक्तित्वों व समाज के अनगिन अध्यायों से परिचय करा गयी। उन अनुभवों को पुनः खो देने का भय मन मे सदा ही गहराता रहा, एक गहरी सी ललक सदा ही बनी रही, उन्हें लिपिबद्ध कर देने की। विद्यालय से विरासत में प्राप्त हिन्दी प्रेम और निपुणता, पुस्तकों से आत्मीयता और अनुभवों की लम्बी डोर, सबने बहुत उकसाया, लिखने के लिये। ब्लॉग के रूप में एक माध्यम मिला और जिसने पुनः प्रेरित किया, स्थिर किया और अब लगभग चपेट में ले लिया है, निकलना असम्भव है। लिखता गया, दृष्टि और गहराती गयी, निकलना चाहूँ भी, तो मेरे ब्लॉग का शीर्षक ही मुझे रोक लेता है।
तकनीक से अगाध व अबाध प्रेम है, उसे सामाजिक निर्वाण का साधन मानता हूँ मैं। पर मेरी तकनीक जटिल दिशा में कभी नहीं जा पाती है। जब भी मेरी तकनीक की दिशा भटक जाती है, मैं उसे वहीं छोड़कर स्वयं में सिमट जाता हूँ, नयी दिशा खोजता हूँ। मेरी तकनीक पुराने सन्तों के अपरिग्रह के मार्ग से अनुप्राणित है, जो भी आवश्यकता से अधिक है, वह भार है, उसे हम व्यर्थ ही ढो रहे हैं, वह त्याज्य है। संग्रहण न्यून हो पर सर्वश्रेष्ठ हो, उसे पाने में सतत प्रयासरत। प्रयोगधर्मिता के प्रति यही ललक मन में बालमना ऊर्जा बनाये रखती है।
जहाँ जीवन का अग्रछोर तकनीक ने सम्हाला है, वहीं पार्श्व में वह संस्कृति के सिद्धान्तों के सशक्त स्तम्भों पर टिकी है। मुझे अपने प्रश्नों के उत्तर बड़े स्पष्ट दिखते हैं यहाँ। उस पर अपार श्रद्धा जीवन का सर्वाधिक प्रवाहमय स्रोत है मेरे लिये, ऊर्जा का, सृजनता का, दर्शन का। जब भी मन भरमाता है, वहीं से सहारा आता है। प्राचीन और नवीन के बीच यह साम्य सदा ही बना रहेगा, परिचय का सुदृढ़ अंग बना रहेगा।
परिवार केन्द्रित सामाजिक जीवन भाता है और कार्यालय के बाद का पूरा समय घर पर ही देता हूँ। बच्चों के साथ बतियाने का आनन्द रूखी पार्टियों से कहीं अधिक है मेरे लिये। उन्हें आजकल सिखा कम रहा हूँ, उनके द्वारा सिखाया अधिक जा रहा हूँ। वात्सल्य का यह निर्झर भला कौन छोड़कर जा सकता है। यदा कदा खेलकूद और संगीत पर भी अभिरुचि बनी रहती है, आलस्य गति कम करता है पर जब भी अवसर मिलता है, शरीर और मन ऊर्जान्वित बनाये रखता हूँ।
पता नहीं, परिचय के जिन पक्षों पर केन्द्रित करना था, वे कहीं अनुत्तरित तो नहीं रह गये हैं? आत्ममुग्धता और आत्मप्रशंसा के आक्षेप का कड़वा घूँट पीकर ही आत्मपरिचय लिखने बैठा हूँ। मन की कह देने से न केवल मन हल्का हो जाता है वरन निश्चय कुछ और गहरा जाते हैं, परिचय स्वयं से भी हो जाता है।
फिर लगा कि लेखन के अतिरिक्त कुछ और भी तथ्य हैं जो परिचय के आधारभूत स्तम्भ होते हैं। महादेवी वर्मा का परिचय माने तो हृदय विदीर्ण करने वाली पंक्तियाँ याद आ जाती हैं, मैं नीर भरी दुख की बदली, परिचय इतना इतिहास यही, उमड़ी कल थी, मिट आज चली। मिटना हम सबको है, परिचय संक्षिप्त दें तो बहुत कुछ इसी तरह का भाव निकलेगा, कुछ के लिये भले दुख इतना संघनित न हो। फिर भी वर्षों के विस्तृत समय काल में कुछ ऐसी बातें निकल आती हैं जिन्हें आप महत्वपूर्ण मानते हैं और उनका आधार बनाकर अपने परिचय का संसार गढ़ना चाहते हैं। इसी को मानक मान कर जितना संभव हो सका, स्वयं को स्वरचित शब्दों के दर्पण में देखने का प्रयास करता हूँ।
इसी प्रकार न जाने कितनी घटनायें जुड़ी हैं, न जाने कितने और व्यक्तित्व जुड़े हैं, जिन्होनें जीवन पर स्पष्ट प्रभाव छोड़ा है। किसको याद रखूँ, किसको गौड़ मानू, समझ नहीं आता। किसको परिचय का अंग बनाऊँ, किसे छोड़ दूँ, समझ नहीं आता। द्वन्द्व भरा व्यक्तित्व है, मन में दो विरोधी विचार साथ साथ सहज भाव से रह लेते हैं, किसको अपना मानकर कह दूँ और किससे नाता तोड़ दूँ? या दोनों बताने का साहस हो तो कौन सा पक्ष पहले बताऊँ? इसी पशोपेश में कुछ न बताऊँ तो भी न चल पायेगा। कुछ सामाजिक तथ्य बता देता हूँ, मन खोलने बैठूँगा तो यात्रा अन्तहीन हो जायेगी।
जन्म सन १९७२ हमीरपुर उप्र में, पिछड़ा क्षेत्र, पर परिवार में शिक्षा के महत्व पर किसी को संदेह नहीं रहा। अच्छे विद्यालय के आभाव में कक्षा ६ से कानपुर आकर छात्रावास में रह कर पढ़ाई की। छात्रावास ने स्वतन्त्र चिन्तन और निर्भयता का अमूल्य उपहार दिया। आईआईटी कानपुर से १९९३ में बी टेक, मैकेनिकल इन्जीनियरिंग से। साल भर की नौकरी, तत्पश्चात १९९६ में आईआईटी कानपुर से ही एम टेक। १९९६ में सिविल सेवा में चयन, रेलवे की यातायात सेवा में। पिछले १७ वर्षों की आनन्दभरी यात्रा में पूरा देशभ्रमण हो चुका है, बस पश्चिमी भारत छूटा है। रेलवे की कार्यप्रणाली ने लगन और सक्षमता के न जाने कितने ही अध्याय सिखाये हैं, अभिभूत हूँ।
१९८५ में पहली कविता, एक वर्ष बाद ही पहला नाटक जो कि व्यवस्था के विरुद्ध होने के कारण चोरी चला गया, सृजन का यूँ चोरी हो जाना अभी भी मन में दुखद स्मृति के रूप में विद्यमान है। उसके पश्चात सृजन मन्थर, निरुत्साहित और मदमय रहा। रेल यात्रा और रेल सेवा, व्यक्तित्वों व समाज के अनगिन अध्यायों से परिचय करा गयी। उन अनुभवों को पुनः खो देने का भय मन मे सदा ही गहराता रहा, एक गहरी सी ललक सदा ही बनी रही, उन्हें लिपिबद्ध कर देने की। विद्यालय से विरासत में प्राप्त हिन्दी प्रेम और निपुणता, पुस्तकों से आत्मीयता और अनुभवों की लम्बी डोर, सबने बहुत उकसाया, लिखने के लिये। ब्लॉग के रूप में एक माध्यम मिला और जिसने पुनः प्रेरित किया, स्थिर किया और अब लगभग चपेट में ले लिया है, निकलना असम्भव है। लिखता गया, दृष्टि और गहराती गयी, निकलना चाहूँ भी, तो मेरे ब्लॉग का शीर्षक ही मुझे रोक लेता है।
तकनीक से अगाध व अबाध प्रेम है, उसे सामाजिक निर्वाण का साधन मानता हूँ मैं। पर मेरी तकनीक जटिल दिशा में कभी नहीं जा पाती है। जब भी मेरी तकनीक की दिशा भटक जाती है, मैं उसे वहीं छोड़कर स्वयं में सिमट जाता हूँ, नयी दिशा खोजता हूँ। मेरी तकनीक पुराने सन्तों के अपरिग्रह के मार्ग से अनुप्राणित है, जो भी आवश्यकता से अधिक है, वह भार है, उसे हम व्यर्थ ही ढो रहे हैं, वह त्याज्य है। संग्रहण न्यून हो पर सर्वश्रेष्ठ हो, उसे पाने में सतत प्रयासरत। प्रयोगधर्मिता के प्रति यही ललक मन में बालमना ऊर्जा बनाये रखती है।
जहाँ जीवन का अग्रछोर तकनीक ने सम्हाला है, वहीं पार्श्व में वह संस्कृति के सिद्धान्तों के सशक्त स्तम्भों पर टिकी है। मुझे अपने प्रश्नों के उत्तर बड़े स्पष्ट दिखते हैं यहाँ। उस पर अपार श्रद्धा जीवन का सर्वाधिक प्रवाहमय स्रोत है मेरे लिये, ऊर्जा का, सृजनता का, दर्शन का। जब भी मन भरमाता है, वहीं से सहारा आता है। प्राचीन और नवीन के बीच यह साम्य सदा ही बना रहेगा, परिचय का सुदृढ़ अंग बना रहेगा।
परिवार केन्द्रित सामाजिक जीवन भाता है और कार्यालय के बाद का पूरा समय घर पर ही देता हूँ। बच्चों के साथ बतियाने का आनन्द रूखी पार्टियों से कहीं अधिक है मेरे लिये। उन्हें आजकल सिखा कम रहा हूँ, उनके द्वारा सिखाया अधिक जा रहा हूँ। वात्सल्य का यह निर्झर भला कौन छोड़कर जा सकता है। यदा कदा खेलकूद और संगीत पर भी अभिरुचि बनी रहती है, आलस्य गति कम करता है पर जब भी अवसर मिलता है, शरीर और मन ऊर्जान्वित बनाये रखता हूँ।
पता नहीं, परिचय के जिन पक्षों पर केन्द्रित करना था, वे कहीं अनुत्तरित तो नहीं रह गये हैं? आत्ममुग्धता और आत्मप्रशंसा के आक्षेप का कड़वा घूँट पीकर ही आत्मपरिचय लिखने बैठा हूँ। मन की कह देने से न केवल मन हल्का हो जाता है वरन निश्चय कुछ और गहरा जाते हैं, परिचय स्वयं से भी हो जाता है।