टेड पर श्री डेविड आर डो का सम्बोधन सुन रहा था, वह टेक्सास में एक वकील हैं और मृत्युदण्ड प्राप्त व्यक्तियों के मुक़दमे लड़ते हैं। जिन व्यक्तियों ने जघन्यतम अपराध किये होते हैं, जिन व्यक्तियों को न्यायालय ने किसी भी स्थिति में जीने योग्य नहीं पाया और जिनको सारी क्षमा-प्रक्रियाओं में भी जीने योग्य नहीं समझा गया, डेविड उन अपराधियों के मृत्युदण्ड को मानवीय आधार पर कम करवाने का प्रयास करते हैं। मृत्यु के निकट पहुँच कर दुर्दान्त अपराधी का भी सत्य बाहर आ जाता है, ऐसे कितने ही सत्यों का अनुभव है उनके पास।
उनके अनुसार ८० प्रतिशत की कहानी एक ही है, बस नाम बदल जाते हैं, स्थान बदल जाते हैं, यात्रा वही है, अन्त वही है। सबका बचपन त्यक्त रहता है, जीवन रुद्ध रहता है, सबके बीज बचपन में ही पड़ जाते हैं। जिन घटनाओं को हम सोचते कि वे प्रभाव नहीं छोड़ेंगी, उनका भी बालमन पर बहुत ही गहरा प्रभाव पड़ता है। यदि आपको यह लगता है कि ४-५ वर्ष का बच्चा घटनाओं को स्पष्ट रूप से याद नहीं रख पायेगा, तो संभवतः आप अंधकार में जी रहे हैं। पति पत्नी का तनावपूर्ण व्यवहार बच्चे के मन में उसी रूप में और उतनी ही मात्रा में उतर आता है। पारिवारिक सुलझाव और सौहार्द्र बच्चे के मन को सशक्त बनाता है, उसे सकारात्मकता की ओर प्रेरित करता है। यदि किसी कारणवश बच्चे का मन परिवार से उचाट हो गया तो समाज के लिये उसे सम्हाल पाना और भी कठिन हो जाता है। समाज में युवा के व्यवहार के सूत्र कई वर्ष पहले परिवार के व्यवहार से पड़ चुके होते हैं। बच्चों के मानसिक भटकाव को बचपन में नियन्त्रित करना उतना कठिन नहीं होता है जितना बाद में हो जाता है।
यही कहना श्री डो का भी है। असहाय पड़े और मृत्युदण्ड की राह देखते उन अपराधियों के जीवन को वापस देखने पर, अब तक पार किये सारे मोड़ों को देखने पर, यदि कहीं पर कुछ संभावना दिखती है तो वह है परिवार। ऐसा नहीं है कि बाद में नियन्त्रण के सारे आसार समाप्त हो जाते हैं पर बाद में इसी कार्य में लगा श्रम, धन और समय कहीं अधिक होता है, कहीं कष्टकर होता है। समाजशास्त्रियों का ही नहीं, स्वयं अपराधियों का भी यही कहना है। उन्हें लगता है कि काश बचपन तनिक और ममतामयी होता, पिता के स्नेहिल आश्रय के कुछ और वर्ष जीवन में आ गये होते। उस समय तो दोष उनका न था, पर मन उचाट होने के साथ ही साथ नियन्त्रण की आखिरी आस भी समाप्त हो गयी उनके जीवन से। किसी का कोई मोह न रहा, जिधर मन ने कहा, उधर चल पड़ा जीवन, और अन्त निष्प्रभ, मृत्युदण्ड।
दुखान्त देख कर हमें उनके उनके दुखद बचपन की चिन्ता हो सकती है, पर किसी का दुखद बचपन देखकर क्यों नहीं झंकृत होते हमारी संवेदनाओं के तन्तु। क्या तब हमें वह कहानी याद नहीं आती जो अपराधिक भविष्य की ८० प्रतिशत कहानियों में बदल जाने की संभावना पाले हुये है। बचपन में किये लघु प्रयास न जाने कितने युवाओं को अपराध के अन्धकूप से बचा लेंगे।
पाश्चात्य जगत में परिवार की स्थिरता का हृास, एकल परिवारों में पालन या संकर परिवारों का चलन, कई ऐसी ही परिस्थितियाँ हैं, उससे संबद्ध घटनायें हैं जो एक स्थायी प्रभाव छोड़ जाती हैं, बच्चों की मानसिकता पर। यद्यपि हर अस्थिरता का प्रभाव उतना गहरा नहीं होता है कि बच्चा अपराधों की ओर मुड़ जाये पर माता-पिता में किसी एक का न होना उसे त्यक्त या अर्धपालन का भाव अवश्य देता होगा। उसका भला क्या दोष जो विवाह करने वाले माता पिता निभा न पाये। यदि पाश्चात्य जगत में पारिवारिक उथलपुथल की परिणिति तलाक के रूप में होती है और उसका बच्चों पर कुप्रभाव पड़ता है, तो भारतीय समाज के उन परिवारों की स्थिति भी अच्छी नहीं है जहाँ खटपट तो बनी रहती है पर सामाजिक दबाव में तलाक नहीं होता है। भले ही माता पिता साथ रहें पर उनके बीच के विवाद बच्चों के मन में गहरे उतरते हैं। उनके बीच का व्यवहार यदि समझने योग्य और सहज न हुआ तो उसकी छाप बच्चे के मन में कोई न कोई विकार लेकर अवश्य आयेगी।
परिवार सुधार कार्यक्रम आशातीत सफल रहे या न रहें, पर बच्चों को असहाय नहीं छोड़ा जा सकता। इस तरह के असंबद्ध और उचाट बच्चों की त्वरित पहचान और उनके लिये छात्रावास और पढ़ाई की व्यवस्था, यह सरकार का कर्तव्य हो जाता है। जो बच्चे अपराध में प्रवृत्त हो चुके हैं और पकड़े जा चुके हैं, उनके लिये बालकारागारों में ही सतत सुधार के लिये पढ़ाई और वैकल्पिक व्यावसायिक प्रशिक्षण की व्यवस्था, यह उन्हें रोकने का अगला चरण है। जो बच्चे खो जाते हैं, उन पर क्या बीतती होगी या उनको किन राहों पर ढेला जाता होगा? दिल्ली में ही प्रतिदिन १३ बच्चे खोते हैं, उन्हें ढूढ़ना प्राथमिकताओं में हो। इसके बाद भी यदि अपराध पर नियन्त्रण न किया जा सके तो अपवादों से निपटने के लिये कानून को उसका कार्य करने दिया जाये। बिना प्रयास ही सबको अपराध में प्रवृत्त होने देना तो निश्चय ही समाज के लिये अति घातक होगा।
जितना धन कानून व्यवस्था बनाये रखने में, अपराध के अन्वेषण करने में और न्याय व्यवस्था की लम्बी प्रक्रिया में लगता है, उसके एक चौथाई में ही हम वह तन्त्र सुचारु रूप से चला पायेंगे, जिसमें बच्चों को अपराधों की ओर प्रवृत्त होने से रोका जा सके। श्री डो तो यहाँ तक कहते हैं कि जो परिवार अपनी समस्यायें सुलझाने में असहाय हों, उनके बच्चों को उस परिवेश से हटाकर उन्हें छात्रावास में डालने का अधिकार हो सरकार के पास।
भारत में ये विचार असंभव से दिखते हैं। बच्चों का उत्तरदायित्व मुख्यतः परिवारों के पास ही है, उनके प्रभाव से वह अलग नहीं है। उनके अतिरिक्त जो परिवारों से असंबद्ध हैं, बालश्रम में लगे हैं, वर्षों से लापता है, शोषण का जीवन जी रहे हैं, उनकी पहचान करना और उन्हें सम्मानित और आशान्वित जीवन जीने की ओर ले जाना सरकार की प्राथमिकताओं में हो। जब तक यह नहीं सुनिश्चित किया जायेगा, तब तक अपराध की राह का एक कपाट हम अपने समाज की ओर खोल कर रखे रहेंगे। उनका बचपन त्यक्त न बीते, उनका जीवन रुद्ध न बीते।
...बचपन का ही सँभाल ज़रूरी है ।
ReplyDeleteतभी तो कहा गया है न कि Child is the father of man
ReplyDeleteबचपन में माता-पिता का प्रेम मिलना और नहीं मिलना भी एक तथ्य भर है क्योंकि आज के पचास वर्ष पूर्व पिता तो बच्चों की तरफ देखता भी नहीं था और माँ को फुर्सत नहीं थी। बच्चे परिवारजनों के साथ ही बड़े होते थे। इसलिए उनकी अपेक्षाएं केवल माता-पिता नहीं थे। केवल माता-पिता के साथ बचपन ही शायद समग्र विकास को रोकता है।
ReplyDeleteAisa sochna to achcha lagta h. Par badti population se vishamta bad rhi h. Aur effort kam pad rhe h.
ReplyDeleteAisa sochna to achcha lagta h. Par badti population se vishamta bad rhi h. Aur effort kam pad rhe h.
ReplyDeleteबचपन बचाना बहुत जरूरी है।
ReplyDeleteज़रूरी है बचपन को सहेजना ..... पूरी सामाजिक पारिवारिक व्यवस्था की साझी जिम्मेदारी है ये ....
ReplyDeleteउनके अतिरिक्त जो परिवारों से असंबद्ध हैं, बालश्रम में लगे हैं, वर्षों से लापता है, शोषण का जीवन जी रहे हैं, उनकी पहचान करना और उन्हें सम्मानित और आशान्वित जीवन जीने की ओर ले जाना सरकार की प्राथमिकताओं में हो।
ReplyDeleteसार्थक चिंतन ...और उपयोगी आलेख ....!!हमारे देश में ऐसी योजनाओं की बहुत कमी है और सरकार को जगाना आसान भी नहीं ...लोगों में ही जागरूकता लानी चाहिए ....इस ओर आपका आलेख एक अच्छा कदम है !
सरस्वती पूजा की शुभकामनायें ।
That life is what Garud Puran describe as hell.
ReplyDeleteWe can only hope ( or do?) something.
because I dont see any change ( in general) in behavior of people because they had a difficult childhood. In fact either they are confused or ignorant or least bothered.
बहुत ही बेहतरीन पोस्ट |वाकई किसी को अपराधी बनाने में घर -परिवार माता -पिता [विखंडित परिवार या रिश्ते सामाजिक परिवेश तमाम कारक जिम्मेदार होते हैं |कहीं कहीं तो न्याय प्रशासन और पुलिस के रवैये से भी लोग अपराधी बन जाते हैं |आभार आपका
ReplyDeletecriminals are made, not born..
ReplyDeleteहम अक्सर बचपन पर समुचित ध्यान न देने के दोषी होते हैं ...
ReplyDeleteबहुत ही सही आलेख है
ReplyDeleteमृत्यु दण्ड के विरोधियों का मुख्य विरोध इसी बात पर है कि किसी भी व्यक्ति के किसी भी कृत्य का ज़िम्मेदार अकेला वह व्यक्ति नहीं होता, पूरा परिवेश होता है. हमने गृह विज्ञान विषय के अन्तर्गत बाल मनोविज्ञान की पढ़ाई की थी, जिसमें बताया गया था कि किसी भी बच्चे के व्यक्तित्व का निर्माण छः वर्ष की अवस्था तक हो जाता है. उसके बाद उसका विकास होता है. उतनी अवस्था तक बच्चा मुख्यतः घर में ही रहता है, इसलिए परिवार की ज़िम्मेदारी है कि वह बच्चों के व्यक्तित्व के लिए पूर्ण रूप से स्वस्थ वातावरण उपलब्ध कराये. यदि परिवार ऐसा नहीं कर पाता तो ये जिम्मेदारी सरकार को उठानी चाहिए, जैसा कि अनेक विकसित देशों में होता भी है.
ReplyDeleteज्यादातर माँ-बाप सम्बन्ध अच्छे न होते हुए भी ये सोचकर अलग नहीं होते कि बच्चों पर बुरा प्रभाव पड़ेगा, जबकि बच्चों पर बुरा प्रभाव पति-पत्नी के बीच तनावपूर्ण सम्बन्धों से ज्यादा पड़ता है, जैसा कि आपने कहा "तो भारतीय समाज के उन परिवारों की स्थिति भी अच्छी नहीं है जहाँ खटपट तो बनी रहती है पर सामाजिक दबाव में तलाक नहीं होता है। " मैंने अक्सर ये देखा है कि जो बच्चे एक अभिभावक के साथ बड़े होते हैं, वे अपेक्षाकृत अधिक सुलझे व्यक्तित्व के होते हैं, उन बच्चों की तुलना में जो तनावपूर्ण माहौल में बड़े होते हैं.
बच्चे के व्यक्तित्व के विकास में परिवार की बड़ी ज़िम्मेदारी है ... सार्थक चिंतन ।
ReplyDeleteबच्चे के परवरिश एक स्वाभाविक माहौल में होनी चाहिये लेकिन आज इन बातों के लिये किसी के पास समय ही नही है. सब "दो दूनी चार, चार दूनी चोसठ" के फ़ेर में उलझे हैं. ईश्वर ही जाने आगे क्या होगा.
ReplyDeleteरामराम.
बिना प्रयास ही सबको अपराध में प्रवृत्त होने देना तो निश्चय ही समाज के लिये अति घातक होगा।.......................यह वाक्य समझ नहीं आया।
ReplyDeleteबिना सुसंस्कृत, संयुक्त परिवार के कुछ नहीं हो सकता।
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ReplyDeleteमुझे तो सिर्फ यही लगता है कि अगर अभिभावक बच्चों को उचित समय दें तभी एक स्वस्थ समाज की कल्पना की जा सकती है .......
ReplyDeleteबिल्कुल सही कहा आपने ... सार्थकता लिये सशक्त लेखन
ReplyDeleteआभार
बच्चों के मानसिक भटकाव को रोकने के लिए बचपन में ही उसे नियन्त्रित करना जरूरी है,,,
ReplyDeleterecent post: बसंती रंग छा गया
बेहतरीन पोस्ट ...
ReplyDeleteपरिवार पहली पाठशाला होती है।
ReplyDeleteसचमुच यह हम सभी की साझा जिम्मेदारी है,बच्चों का बचपन कहीं खो न जाय !
ReplyDeleteसार्थक चिंतन..
ReplyDeleteसुन्दर तार्किक विश्लेषण। आप कहॉं नौकरी के चक्कर में पड गए। आपकी उपयोगिता तो इससे कहीं अधिक है।
ReplyDeleteमाता-पिता का संरक्षण और सही सामाजिक परिवेश,दोनों का महत्व है!
ReplyDeleteसर जी हर स्तर के क्षिक्षा को सरकारी करना जरुरी है जो हर परिवार को चिंतामुक्त करेगा |
ReplyDeleteभारत में तो इस समय सोचना ही मुश्किल है कि इस तरह की कोई योजना शुरू भी हो सकती है.
ReplyDeleteलेकिन ख्याल बहुत अच्छा है अगर ऐसा हो जाए तो देश के भविष्य को भी नयी दिशा मिलेगी.
.बढ़िया प्रस्तुति .आभार आपकी टिपण्णी का .
ReplyDeleteनिचोड़ लिए है यह अंश पूरे आलेख का .बाल श्रम में पिसते बच्चों से हम रोज़ दो चार होतें हैं .घर होटलों में खपते बहादुर पैसा जिनकी पगार का सीधे उनके गाँव भेजा जाता है .अपराध को होने न दिया
जाए ,प्रिवेंटिव क्राइम का हमारे यहाँ कोन्सेप्ट ही नहीं है .और जहां पति पत्नी के बीच सामंजस्य नहीं है वहां बच्चे डरे डरे खंडित मस्थिति में ही रहते हैं .अन्यमंस्क्ता के बेशक 10-12%आनुवंशिक
कारण भी रहते हैं लेकिन टूटा हुआ आधा अधूरा घर एक ट्रिगर बन जाता है शिजोफ्रेनिक व्यवहार के प्रगटीकरण में .बहुत सटीक जनुपयोगी विचारणीय आलेख .
बिल्कुल सही है व्यक्ति के निर्माण में बचपन के दिन सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं । इसलिये बचपन की सुरक्षा व सही शिक्षा सबसे ज्यादा जरूरी काम है । लेकिन बचपन का वास्ता देकर या मनोविज्ञान के आधार पर किसी संगीन अपराध को अनदेखा नही किया जासकता ।
ReplyDeleteबच्चों के मनोविज्ञान और समाज को उनका नजरिया समझाते हुए समस्या के मूल की विवेचना स्पष्ट होती है आलेख में !
ReplyDeleteउद्वेलित करता हुआ आलेख..
ReplyDeleteअपराध रोग का उन्मूलन बचपन में ही आवश्यक है।
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ReplyDeleteभारत में ये विचार असंभव से दिखते हैं। बच्चों का उत्तरदायित्व मुख्यतः परिवारों के पास ही है, उनके प्रभाव से वह अलग नहीं है। उनके अतिरिक्त जो परिवारों से असंबद्ध हैं, बालश्रम में लगे हैं, वर्षों से लापता है, शोषण का जीवन जी रहे हैं, उनकी पहचान करना और उन्हें सम्मानित और आशान्वित जीवन जीने की ओर ले जाना सरकार की प्राथमिकताओं में हो। जब तक यह नहीं सुनिश्चित किया जायेगा, तब तक अपराध की राह का एक कपाट हम अपने समाज की ओर खोल कर रखे रहेंगे। उनका बचपन त्यक्त न बीते, उनका जीवन रुद्ध न बीते।
कचरा बीनते हाथ कब बाल अपराध का सिरमोर बन जाएँ इसका कोई निश्चय नहीं सरकारें आँखें मूँद कर नहीं बैठ सकतीं .
Very thoughtful article.
ReplyDeleteबैरागी जी सही कहते हैं
ReplyDeleteपरिवार का दायित्व तो है ही । संयुक्त परिवार ना भी हो जो आज कल नही होता तो भी मातापिता क अपने बच्चों के साथ समय बिताना जरूरी है । माँ बच्चों की पढाई किचन में करवा सकती है । मेरे यहां खाना बनाने वाली मालती कुद पढना लिखना नही जानती पर पढाई का महत्व समझती है और बच्चों के पढते वक्त उनके साथ बैठ कर अपना काम करती है । प्यार ही वह भावना है जो बच्चे को सुरक्षित महसूस कराती है ।
ReplyDeleteबाल सुधार गृहों में भी सुधार लाना अति आवश्यक है ।