ज्ञानदत्तजी ने एक फेसबुक लिंक लगाया, एनीडू नामक एप्स का, साथ में आशान्वित उद्गार भी थे कि अब संभवतः कार्य हो जाया करेंगे। ऐसे ढेरों एप्स हम भी देख कर प्रसन्न होते रहते हैं, इस आस में कि अब हमारे रुके हुये कार्य होने लगेंगे, हमें सब समय से याद आने लगेगा, हमारे आलस्य प्रधान व्यवहार के लिये एक रामबाण आ गया है।
बहुत वर्ष हुये, हमें अपनी स्मृति पर बड़ा भरोसा हुआ करता था। तब कनिष्ठ अधिकारी थे, कार्य भी अधिक नहीं दिये जाते थे, कोई एक कार्य दे दिन भर उस पर दृष्टि रखने को कहा जाता था, थोड़े बहुत निर्णय और सायं उन निर्णयों के बारे में अपने वरिष्ठ अधिकारी से छोटी सी चर्चा। दिन का भार दिन में ही उतार कर भरी पूरी नींद और पुनः अगले दिन की दिहाड़ी। न स्मृति पर बोझ था और न ही हम पर, सिखाने के क्रम में एक पक्ष एक बार ग्रहण किया जाता था, समुचित निर्वाह हो जाता था।
वर्ष बीतने लगे, दायित्व बढ़ता गया, एक कार्य तक सीमित रहने वाला दिन हर घंटे एक नया कार्य सुझाने लगा, कार्य भी अलग अलग अवधि के, कुछ उसी दिन, कुछ साप्ताहिक, कुछ मासिक, कुछ अनियमित। स्मृति जहाँ तक सम्हाल सकती थी, सम्हाला, जब कई बार कार्य भूले जाने लगे, तब समझ में आ गया कि अब याद रखने से काम नहीं चलेगा, लिखकर रखना पड़ेगा। कार्यक्षेत्र से अधिक कार्य गृहक्षेत्र में बढ़ने लगे, पहले जो कार्य श्रीमतीजी को प्रसन्न करने में किये जाते, बच्चे होने के बाद उनकी भी संख्या तिगुनी हो गयी, समान दण्डधारा, किसी के भी कार्य को भूलने का दण्ड बराबर।
कार्य लिखे जाने लगे, एक पुस्तिका सी थी, जो बोला जाता था, झट से लिख लेते थे, तेज चलने वाले बॉलपेन से। हर क्षेत्र से सम्बन्धित कार्य अलग अलग। कई कार्य उसी दिन हो जाते तो उन्हें लम्बी लाइन से काट देते, आधे हुये कार्य का आधा भाग काट देते। रात्रि सोने के पहले दो पेजों की घिचपिच समझने में बड़ा कष्ट होता पर सोने के पहले यह अभिमान भी होता कि कितनी तोप चला कर आ रहे हैं, दिन सफल हो गया। जो कार्य उस दिन कट न सके, उन्हें सुन्दर ढंग से आगे के पेज पर सजा देते थे, इस आस में कि कब निशा बीते, दिन चढ़े और हम भी चढ़ बैठें कर्मरथ पर। कई दिन बीत जाने के बाद भी बहुत कार्य ऐसे होते थे जो अपने लिखे जाने का अर्धशतक बना लेते थे। कुछ बुलबुले की तरह होते थे, उसी दिन उत्पन्न हुये और उसी दिन नष्ट हो गये।
जब प्रबन्धन की विमायें और बढ़ीं तो कार्यों की जटिलता भी बढ़ने लगी। एक बड़ा कार्य जो कई छोटे कार्यों से मिलकर बनता है, अपने लिखे जाने का विशेष आकार माँगने लगा, किसे उन लघु कार्यों का उत्तरदायित्व दिया जाना है, किस समय सीमा में वह कार्य पूरा करना है, प्रारम्भ में सोचे कार्य कालान्तर में किस तरह अपनी समय सीमा है, सब प्रकार की सूचना कार्य के सम्मुख लिखने का भार आ गया। पेड़ की डालों की तरह कार्य की जटिलता बढ़ती जा रही थी और हम तने जैसे तने खड़े थे। यही नहीं कई नये कार्य आपको सोचने भी होते हैं जिससे कार्यक्षेत्र में गतिशीलता बनी रहे, गृहक्षेत्र में प्रेमशीलता बनी रहे। नये कार्य, पुराने कार्य, लम्बे कार्य, छोटे कार्य, आवश्यक कार्य, अनावश्यक कार्य, कार्यों के न जाने कितने विशेषण पनपने लगे। कार्यों का कारवाँ बढ़ता जा रहा था, गुजरता जा रहा था और हम खड़े खड़े गुबार देखे जा रहे थे।
तकनीक पर बड़ा भरोसा रहा है हमें, जहाँ भी लगा तकनीक कुछ श्रम और कुछ भ्रम कम कर देगी, तुरन्त उसे अपना लिये हम। सबसे पहले तो कार्यों को डिजिटल रूप में लिखना प्रारम्भ किया, इससे एक लाभ यह हुआ कि किसी कार्य को दुबारा लिखने का श्रम समाप्त हो गया। जो कार्य हो गया उसे उड़ा देते, शेष कार्य सूची में यथावत बने रहते। आउटलुक में कार्यों में टैग लगाने की भी व्यवस्था थी, किस विषय से सम्बन्धित कार्य है, किस व्यक्ति को दिया कार्य है और प्राथमिकता क्या है, तीन तरह के टैग लगा कर निश्चिन्त हो जाते थे। किसी पर्यवेक्षक को बुला उसके सारे कार्यों की वर्तमान स्थिति और उसे सम्पन्न कर पाने की नयी समय सीमा, सब का सब उसमें लिख देते थे। पर्यवेक्षक भी सकते में रहते कि जो भी बोलेंगे वह लिख लिया जायेगा, नियत दिन पर बुलावा पुनः आ जायेगा। झाँसी के पर्यवेक्षक तो यहाँ तक कहने लगे कि सर तो अच्छे हैं, ये कम्प्यूटर ही डाँट पड़वा देता है।
कुछ पर्यवेक्षकों ने कहा कि सर आप तो सब लिख लेते हैं पर हम लोग तो अभी भी कागज कलम पर हैं, आपसे गति मिला कर नहीं चल पाते हैं और डाँट खा जाते हैं, हमें भी डिजिटल किया जाये। संयोगवश उस समय तक गूगलडाक्स आ चुका था, सबके एकाउन्ट गूगल पर खोले और सम्बन्धित कार्यसूची उनसे साझा कर ली। साथ ही साथ एक कार्य और बढ़ा दिया कि कार्य में जो भी प्रगति हो, वह उसी में लिख दिया करें, तब नियमित बैठक बन्द और केवल अपवाद स्वरूप ही आपको बुलावा भेजा जायेगा। यह प्रयोग भी बड़ा सफल रहा। सरकारी नौकरी के वेतन में पर्यवेक्षक बहुराष्ट्रीय कम्पनी के आनन्द ले रहे थे, हमारा कार्य भी कम हो रहा था, योजना आदि के लिये समय बहुत मिल रहा था।
जब कार्यसूची और बढ़ने लगी, पर्यवेक्षकों की संख्या बढ़ने लगी, उत्तरदायित्व के क्षेत्र बढ़ने लगे, समन्वय के कार्य मुख्य हो गये, तो उस समय एक तरफ से सारे कार्यों की समीक्षा करने का भी समय नहीं रह गया। आवश्यकता आ पड़ी कि हर छोटे बड़े कार्य में अनुस्मारक लगा लिया जाये। यह प्रयोग अधिक सफल नहीं रहा, जो समय निर्धारित करते थे, उस समय कोई बैठक या कोई कार्य निकल आता था, हर कार्य सदा ही स्नूज़ पर लगा रहता, कभी कुछ घंटे, कभी कुछ दिन। कार्य का बढ़ता आकार और विस्तार, प्रबन्धन भरभराने लगा।
भटकों को तकनीक ही राह दिखाती है, इण्टरनेट पर ढूढ़ा तो सैकड़ों एप्स निकल आये जो कार्य को करवाने का ही कार्य करते हैं। कुछ भी आप अपनायें, आपको उनके अनुसार स्वयं को ढालना होगा। कुछ तो इतने जटिल कि उन्हें यदि साध लिया तो आप तब कोई भी कार्य साध सकते हैं। यही वह उहापोह का समय था जब कार्य के क्षेत्र पर दर्शन ने जन्म लिया। कार्य सरल होते हैं, कठिन होते हैं, पर उनका प्रबन्धन हम जितना जटिल करते जायेंगे, कार्य होने की संभावना उतनी ही कम हो जायेगी। प्रबन्धन जितना सरलतम रखा जाये उतना ही अधिक प्रभावी कार्यों का निस्तारण हो जाता है। कार्य करने भर की इच्छाशक्ति हो, होने और उसे लिखने का कोई भी मार्ग सही हो जाता है।
कार्य प्रबन्धन की विधियों के शिखर पर खड़ा इस समय नीचे देख रहा हूँ कि कहाँ पर समतल है, कहाँ वह स्थान छोड़ आया हूँ जहाँ पुनः स्थिरता मिलेगी? यदि एप्स सरलता के स्थान पर जटिलता उड़ेल रहे हैं तो मान लीजिये कि तकनीक अपना कार्य नहीं कर रही है। या ऐसा भी हो सकता है कि आपके लिये कार्य निष्पादित करने की विधि बदलने का समय आ गया है, उपने उत्तरदायित्व को अधीनस्थों पर अधिक मात्रा में छोड़ देने का समय आ गया है, समीक्षा भी न्यूनतम करने का संकेत आ गया है। भ्रम काल्पनिक नहीं वास्तविक है, कार्य मात्र प्रबन्धन की नयी विधियों से सम्पादित नहीं होते हैं, परिवेश और समूह पर भी निर्भर करते हैं। इच्छाशक्ति बनी रहे तो मार्ग निकल आयेगा, एप्स तो हिसाब रखने के लिये हैं, समय तो पूरा ही देना पड़ेगा, अकेले नहीं पूरे समूह को मिलकर जूझना होगा।
रिक्त भाग दिख रहे हैं, पर मुक्ति बाहर पड़े किसी एप्स में नहीं है, समस्या और समूह पर आधारित साधन निकलेगा, समाधान निकलेगा। कार्य करने की सर्वोत्तम विधि ढूढ़ना भी तो एक कार्य है।
कार्य करने की सर्वोत्तम विधि ढूढ़ना भी तो एक कार्य है।
ReplyDelete@ सत्य वचन
कार्य सम्पादन की दृढ़ इच्छाशक्ति से गुरुतर कार्य भी सम्पादित हो जाते हैं, और उन्हें करने की राह भी सूझने लगती है। एप्स काम करें न करें, मनीषा यह कार्य ज़रूर करा देती है।
ReplyDeleteप्रबंधन सरल हो-यह भी बहुत आवश्यक है। आलेख का आभार।
अरे भाई काम को भी जिन्दा रहने का हक है।
ReplyDeleteदिमाग़ की हार्ड-डिस्क खाली रखना सर्वोत्तम है. काहे एनीडू-फेनीडूबाज़ी करना.
ReplyDeleteज़िंदगी और दुनिया हमारे परेशान हुए बिना भी आराम से चलते ही रहने वाले हैं
तकनीक का सही प्रयोग कार्यक्षमता में वृद्धि करता है , मातहतों के लिए प्रसन्नता और दुखी होने का भी एक सबब :)
ReplyDeleteअनूप भाई पर गौर किया जाये ...
ReplyDeletewhat to do n what not to...
ReplyDeletehow to and when... questions never cease to die..
apps do make life easy.. :)
बिल्कुल, कार्य केवल प्रबंधन पर नहीं परिवेश पर भी निर्भर करता है | कार्य करने की उचित विधि ढूँढने के प्रयासों और उनकी सफलता को भी परिवेश प्रभावित तो करता ही है
ReplyDeleteएप्स के सहारे तो नही रहा जा सकता हां उनसे कार्य की सुगमता के लिये मदद अवश्य ली जा सकती है. अपनी हार्ड डिस्क (दिमाग) ही खपानी पडती है आखिर में. शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
देश के तमाम सरकारी अधिकारी यदि परिपाटी पर चले तो देश का तो बेडा .... :)
ReplyDeleteये सब तो ऊपरी चीज़े हैं डायरी-पेन से लेकर कंप्यूटर और तमाम नई टेक्नीकें.ऊपर के सारे संयोजन तो अपनी कोशिश और दिमाग़ ही करेगा न!
ReplyDeleteतो बस हारिये न हिम्मत,बिसारिये न राम !
तकनीकी उत्पाद सहायता ही कर सकते हैं , बाकी तो स्वयं ही संतुलन करना होगा
ReplyDeleteइच्छाशक्ति बनी रहे तो मार्ग निकल आयेगा, एप्स तो हिसाब रखने के लिये हैं, समय तो पूरा ही देना पड़ेगा, अकेले नहीं पूरे समूह को मिलकर जूझना होगा।
ReplyDeleteअगर आप स्वयं कर्मठ हैं तो परिवेश आपके हिसाब का हो ही जाता है ....technology helps in multitasking ...!!
. एकदम सही बात कही है आपने अफज़ल गुरु आतंकवादी था कश्मीरी या कोई और नहीं ..... आप भी जाने संवैधानिक मर्यादाओं का पालन करें कैग
ReplyDeleteवाह.. आप तो गुरु हैं हमारे. हम भी आउटलुक में सारे कार्य नोट करके रखते हैं.. अब आपसे और भी सीखना होगा. :)
ReplyDeleteइंसान अपने अपने सुविधानुसार ढूंढ की लेता है ... कार्य भी कर लेता है ... पर अगर ज्ञान कहीं से मिल जाए तो जरूर अपनाना चाहिए ...
ReplyDeleteलगता है सब सरकारी कर्मचारी एप्स का सहारा ले रहा है ऊपर से नीचे, अपने दिमाग को सरकारी काम में कष्ट नहीं देते
ReplyDeleteLatest post हे माँ वीणा वादिनी शारदे !
THINGS TO DO TODAY...........प्रभावी।
ReplyDeleteकार्य के सम्पादन के लिए इच्छाशक्ति का बहुत होना जरूरी है अन्यथा तरीका चाहे जैसा निकाले समय पर कार्य सम्पादित होना मुश्किल हो जाता हैं
ReplyDeleteRECENT POST... नवगीत,
ये भी इंसान का दिमाग ही है जो नित नए तरीके ढूंढ लेता है :).
ReplyDeleteबढ़िया रूपकात्मक अभिव्यक्ति कार्य निष्पादन के क्षेत्र में भी प्रोद्योगिकी चली आई है लेकिन सीमाएं तो सबकी हैं .बढ़िया प्रस्तुति .मुबराक मदनोत्सव /प्रेम दिवस /माई वेलेंटाइन मिस्टर प्रवीण भाई .
ReplyDeleteतीव्रतर चाह ही राह बना देती है जिस पर कोई चल पड़ता है तो कोई दौड़ने लगता है .
ReplyDeleteआपकी पोस्ट 14 - 02- 2013 के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
ReplyDeleteकृपया पधारें ।
स्वयं को प्रबन्धित करो तो कार्य स्वतः होने लगते हैं।
ReplyDeleteअनुकरणीय समय प्रबंधन आलेख
ReplyDelete....थोड़ा ही प्रबंधन ठीक है,वरना आलस्य घर कर जाता है !
ReplyDeletewaah..bahut badhiya lekh
ReplyDeleteआपके अनुभव लोगों के पथ प्रदर्शक बनें!
ReplyDeleteहम सब भी सिस्टम के 'एप्स' हो कर रह गये हैं ।
ReplyDeleteकार्य करने की सर्वोत्तम विधि ढूढ़ना भी तो एक कार्य है।
ReplyDeleteबिल्कुल सच कहा आपने ...बहुत ही अच्छी प्रस्तुति
आभार
तकनीक प्रबंधन भी अब एक नै विधा बनके उभरेगी .बी माई वेलेंटाइन .
ReplyDeleteकितने भी एप्स आ जाएँ तकनीकी आ जाए दिमाग तो फिर भी लगाना ही पड़ेगा इस लिए दिमाग नाम का कंप्यूटर सबसे बढ़िया है पर हर चीज में बैलेंस तो बनाना ही पड़ता है कार्य भी जिंदगी भर सामने उचक उचक कर आते ही रहते हैं ,बहुत अच्छी पोस्ट हमेशा की तरह
ReplyDeleteहर समस्या का है समाधान। जहॉं चाह, वहॉं राह।
ReplyDeleteकुशल प्रबंधन आसान काम नहीं है .नए एप्स का सही तरह से उपयोग सीखना भी सब के बस की बात नहीं.आप ने अपने अनुभव बांटे और कुशल कार्य निर्वाहन के तरीके सुझाए.
ReplyDeleteतकनीकी ज्ञान होना और उस का अपने काम को आसान बनने के लिए इस्तमाल कर पाना आज के 'भागते ' समय की ज़रूरत है.
बड़े लोगों की बड़ी बाते, हमारे पास तो इतना ही काम है जिसे हम स्मरणशक्ति में रख लेते हैं।
ReplyDeleteएकदम सही बात कही है आपने....
ReplyDeleteकार्य सुविचारित रूप से कर पाना सबसे बड़ा कार्य है ,इसके लिए सबसे आवश्यक है दृढ़ इच्छाशक्ति .....
ReplyDeleteइसके लिए सबसे आवश्यक है दृढ़ इच्छाशक्ति .....
ReplyDeleteअपन भी Any.Do ही प्रयोग कर रहे हैं जब से यह उपलब्ध हुई है, अन्य किसी टु-डू एप्प के मुकाबले इसका इंटरफेस साफ़ सुथरा लगा। बाकी यह है कि यह अपने गूगल टास्क और गूगल कैलेण्डर से संपर्क बना के रखती है तो वह सहूलियत अलग है। साथ ही फोन पर कोई कॉल नहीं उठाते तो पूछती है कि इग्नोर करना है या कॉलबैक करना है, या फिर बाद के लिए रिमाईण्डर लगाना है! :)
ReplyDeleteरिमाइन्डर और नोट्स, इन्हीं दो के साथ अभी कार्यों को बाँधे हुये हैं। नये एप्स को पूरी तरह से समझ कर अपने तन्त्र में उतार पाना अपने आप में बड़ा कार्य है।
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