27.2.13

वह कविता है

मन की कह दे, वह कविता है,
सब की कह दे, वह कविता है,
निकसे कुछ कुछ अलसायी सी,
अपने में ही सकुचायी सी,
शब्द थाप बन आप खनकती,
रस सी ढलके, वह कविता है।

अपनों का अपनापन जाने,
शब्द-समुच्चय साथ निभाने,
मन गढ़ जाती, सब पढ़ जाती,
क्षत-हत-रत पथ साथ निभाती,
तप्त तवा, बन बूँद छनकती,
भाप बने घन, वह कविता है।

सजती, तन इठलायी, लजती,
लचक उचक बच पग पग धरती,
भावों के घूँघट में छिप कर,
यथाशक्ति अपने में रुक कर,
ओढ़े अद्भुत कान्ति कनक सी,
श्रंगारित तन, वह कविता है।

रोष-कोष, आग्रह अतिरंजित,
दावानल, मन पूर्ण प्रभंजित,
क्रोध सनी, शिव-कंठ बनी वह,
विष धारे, पीड़ा धमनी सह,
शब्द शब्द बस ध्वंस विरचती,
कंपन प्रहसन, वह कविता है।

काल खंड, कंकाल समेटे,
कितने मायाजाल लपेटे,
स्मृति क्षति करती अवरोधित,
भूत भविष्यत सम आरोपित,
पा भावों की छाँह पनपती,
हर क्षण दर्पण, वह कविता है।

एक तरंग रही जो छिटकी,
पथ की संगी, पथ से भटकी,
शब्द धरे, स्थूल हो गयी,
औरों के अनुकूल हो गयी,
मन से निकली, मन की कहती,
शाश्वत विचरण, वह कविता है।

23.2.13

अनिश्चितता का सिद्धान्त

कोई आपसे पूछे कि आप किसी विशेष समय कहाँ पर थे, स्मृति पर जोर अवश्य डालना पड़ेगा पर आप बता अवश्य देंगे। आप यदि स्वयं याद नहीं रखना चाहते तो मोबाइल का जीपीएस आपका पूरा भूगोल आपको बता देगा, कब कहाँ पर थे और कितने समय के लिये थे। हर हिलने डुलने योग्य वस्तुओं में हमने ट्रैकर लगा रखा है, पार्सेल, ट्रेन, सैटेलाइट, ग्रह, हर किसी की वर्तमान स्थिति हमें पता चल जाती है, वह भी पूरी निश्चितता से।

विज्ञान ने जहाँ निश्चितता की ओर इतनी लम्बी छलांग मारी है, तो आप भी शीर्षक पर आश्चर्य करेंगे। जैसे जैसे हम स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ते हैं, अनिश्चितता बढ़ती जाती है। एक ग्रह की स्थिति हम सैकड़ों वर्ष पीछे से लेकर सैकड़ों वर्ष आगे तक बता सकते हैं पर सूक्ष्मतम कण की स्थिति बताने में अनिश्चितता आ जाती है।

वस्तुओं की भौतिक स्थिति पता करने में दो साधनों का योगदान रहता है, एक यन्त्र जिससे हम नापते हैं और दूसरा प्रकाश जिसके माध्यम से हम उस वस्तु को देखते हैं। यन्त्र की क्षमता हमारी सीमा निश्चित कर देती है, एक फुटा जिसमें मिलीमीटर तक के खाँचे बने हों उससे आप माइक्रॉन स्तर के आकारों को नहीं माप सकते हैं। इसी प्रकार जिस वस्तु पर आप प्रकाश या कोई और तरंग नहीं भेज सकते, उसकी स्थिति भी नहीं मापी जा सकती है। यन्त्र की भौतिक माप एक सीमा तक ही साथ देती है, उसके बाद तरंगों और अन्य भौतिक सिद्धान्तों का ही सहारा रहता है, किसी भी वस्तु की स्थिति मापने में।

प्रकाश भी एक प्रकार के सूक्ष्मकणों से बना है, जिन्हें फोटॉन कहते हैं। ये भारहीन कण हैं और इनमें केवल ऊर्जा ही होती है। ये जहाँ भी गिरते हैं, अपनी ऊर्जा स्थानान्तरित कर नष्ट हो जाते हैं। उस ऊर्जा से एक दृश्य तरंग उत्पन्न होती है जिसकी सहायता से हम उस वस्तु को देख पाते हैं। वही ऊर्जा ऊष्मा में भी परिवर्तित हो उस वस्तु का तापमान भी बढ़ा देती है। अन्य सूक्ष्मकण, जैसे इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन आदि का आकार इतना कम होता है कि वे फोटॉन के समकक्ष हो जाते हैं। जैसे ही फोटॉन उन पर पड़ते हैं, उनकी स्थिति तो पता चल जाती है पर ऊर्जा स्थानान्तरित हो जाने के कारण उसका संवेग (गति का मापक) बदल जाता है।

अब समस्या यहीं आती है, जब दृष्टा दृश्य को प्रभावित करने लग जाये तो निष्पक्षता विलीन हो जाती है। जिस फोटॉन से हम किसी की स्थिति जान पाते थे, वही स्थिति को बदल देते हैं। इस स्थिति से बचने के लिये बड़े बड़े पार्टिकल एक्सेलेटर बनाये गये, जिसमें चुम्बकीय क्षेत्रों के माध्यम से इन कणों को नियन्त्रित किया गया और उनका अध्ययन किया गया। इस तकनीक से दृश्य को प्रभावित करने की संभावनायें न्यूनतम हो गयीं। फिर भी देखा गया कि इन कणों को नापने में अनिश्चितता कम नहीं हुयी। क्वांटम भौतिकी में इस तथ्य को अनिश्चितता का सिद्धान्त कहा जाता है और इसके गणितीय रूप को प्रतिपादित करने का श्रेय श्री हाइजनवर्ग को जाता है। इसका कारण कण के मूल में उपस्थित एक विशेष गहनता है। पर यदि सहज रूप में समझा जाये तो इसके पीछे एक द्वन्द्व छिपा है, अणु और तरंग का, कभी वह अणु हो जाता है और कभी सुविधानुसार तरंग। उसके कुछ गुण अणु से संबद्ध हैं और कुछ गुण तरंग से। अनिश्चितता का प्रमुख आधार यही द्वन्द्व प्रकृति है।

कुछ सिद्धान्त सार्वभौमिक होते हैं, अनिश्चितता का सिद्धान्त भी उनमें से एक है। एक छोटे से कण से लेकर यह पूर्ण प्रकृति पर आच्छादित है। यदि वृहत्तर दृष्टिकोण से देखा जाये तो कोई भी अनिश्चितता उपरिलिखित तीन कारणों से ही आती है, सीमित क्षमता के कारण, तन्त्र में संलिप्तता के कारण और द्वन्द्व के कारण। निर्णय इन तीनों अनिश्चितताओं से प्रभावित होते हैं और बहुधा उल्टे हो जाते हैं। किसी के बारे में समुचित ज्ञान होने के बाद भी हमारे निर्णयों में स्पष्टता इसीलिये नहीं आ पाती क्योंकि हम स्वयं भी उसमें लिप्त होते हैं। हमारा लिप्त होना निष्कर्षों को वैसे ही बदल देता है जैसे कि फोटॉन किसी कण का संवेग। निर्लिप्त होकर निर्णय लेना तो तब हो पायेगा जब हमें ज्ञात होगा कि हमें निर्लिप्त होकर निर्णय लेना होगा अन्यथा उसमें अनिश्चितता आने का भय है। एक बार निर्लिप्त हो भी गये पर किस घटना को तथ्यात्मक रूप में लें, किसे भावनात्मक रूप में लें, किसे भौतिकता से नापे किसे आध्यात्मिकता से नापें। किसी भी घटना को उठा कर देख लें, किसी भी निर्णय को परख लें, अनिश्चितता के तीन स्तरों पर उसमें कुछ न कुछ शेष रहा होगा।

अनिश्चितता घातक क्यों है? यह तब तक घातक नहीं है, जब तक हम निश्चित हैं कि हमारी समझ में अनिश्चितता है। यह घातक तब हो जाती है जब हमारा विश्वास अनिश्चितता को मानने से मना कर दे। निश्चितता का विश्वास दंभ जगाता है और उसी में हम डूबे रहते हैं, बिना कारण जाने। जब ज्ञात होता है कि हम अनिश्चितता की परिधि में हैं तो बदलाव की संभावना भी बनी रहती है, वह लचक भी बनी रहती है जो जीवन जीने के लिये आवश्यक है।

तीन प्रश्न बहुत ही सहज उठ सकते हैं। पहला यह कि यदि किसी विषय में हमें पूर्ण ज्ञान नहीं है या हमारी क्षमता नहीं है कि पूर्ण ज्ञान जाना जा सके, तो क्या उस विषय में निर्णय लेना या चिन्तन करना बन्द कर दिया जाये। बिल्कुल ही नहीं, जिस समय जितना ज्ञान आगे बढ़ने को पर्याप्त है, उसी आधार पर बढ़ा जा सकता है पर इस मुक्त मानसिकता से कि राह में जो भी अनुभव मिलेगा उसे हम संचित ज्ञान का अंग बनायेंगे। संभवतः यही कारण है कि लोग अन्त तक भी सीखने की लालसा में बने रहते हैं, क्योंकि पूर्णज्ञान तो कहीं है भी नहीं। यदि ऐसा है तो कपाट बन्द कर जीवन क्यों जिया जाये?

दूसरा प्रश्न यह कि यदि निर्लिप्त भाव में जीने लगें तो किसी विषय का चिन्तन ही क्यों करें या उससे संबंधित निर्णय ही क्यों लें? अपने लिये नहीं पर दूसरों के लिये निर्लिप्त होने का लाभ है। बहुधा देखा गया है कि लोग दूसरों से सलाह लेते हैं, उनकी राय जानना चाहते हैं। यह संभवतः उसलिये कि और लोग आपकी समस्या में उतने लिप्त नहीं होंगे जितने आप स्वयं। कोई न कोई ऐसा क्षेत्र रह जाता है जिस पर प्रकाश नहीं डाला जा सकता, ठीक वैसे ही जैसे दिया के नीचे का स्थान अन्धकार में रहता है। निर्लिप्त होने को सदा ही एक गुण माना गया है क्योंकि इससे सत्य और अधिक परिमार्जित होकर सामने आता है।

तीसरा यह कि कब पता चले कि हमें भौतिकता में जीना है या कब आध्यात्मिकता में? कब कल्पना में जियें और कब उसे शब्दों में उतार दें? जो निर्णय स्वयं को शरीर मानकर लिये हैं, मानसिक और बौद्धिक स्तर में उनका क्या प्रभाव होगा? यह प्रश्न हर स्तर पर उठता है कि हम क्या हैं, स्थूल या तरंग? स्वयं को एक ओर मानने से दूसरी ओर पथच्युत हो जाने का भय बना रहता है। यह अनिश्चितता तो सदा ही बनी रहेगी, प्रकृति ने हमें बनाया ही ऐसा है। हम उड़ना चाहते हैं तो याद आता है कि हममें भार है, सुख में अधिक डूब जाते हैं तो पता चलता है कि अपने दुख का कारण भी साथ लिये डूबे हैं। यही तो जीवन का द्वन्द्व है, यही अनिश्चितता है, यही प्रकृति की गति है और उसमें बिद्ध यही हमारी मति है।

हमें तो अपनी अनिश्चितता में डोलने में भी सुख मिलता है, आप कहीं ऐंठे तो नहीं बैठे हैं?

20.2.13

शरीर से मिली शिक्षा

बसन्त बाबा के त्योहार पर सब मदनोत्सव में डूबे थे, कुछ पक्ष में, कुछ विपक्ष में और कुछ निष्पक्ष ही डूबे थे। बसन्त के आगमन ने एक खुमारी चढ़ा दी, सब आनन्द में थे। हमने भी शरीर से तनिक हिलने को कहा तो एक टका सा उत्तर मिल गया, श्रीमानजी बिस्तर पर ही पड़े रहिये, आपका खुमार यदि न उतरा हो तो सुन लीजिये कि आप बुखार में हैं। अब जब बिना हिले डुले ही शरीर गरमाया हुआ था तो व्यर्थ का श्रम कौन करे। हम पड़े रहे, छत की सफेदी निहारते रहे और परिवेश से आ रही बहुधा न सुनी जाने वाली ध्वनियों को सुनते रहे।

एक दिन पहले निरीक्षण से वापस आते ही शरीर ने हल्की सी कँपकपी के साथ यह संकेत दे दिया था कि किसी वायरस महोदय ने किला भेद दिया है, बुखार आने वाला है। रात अनिद्रा में बीती। अगले दिन एक महत्वपूर्ण बैठक में भाग लेने के लिये कार्यालय निकल तो गये पर अपराह्न लौटने पर शरीर ने झटका दे बिस्तर पर गिरा दिया। सब मदन के खुमार में और हम बदन के बुखार में, सब मस्त और हम पस्त।

दवाई दी गयी, वायरस से लड़ने के लिये एक एण्टीबायोटिक, बुखार कम करने के लिये पैरासीटामाल, एक एलर्जी कम करने की और एक एसिडिटी कम करने की। एण्टीबायोटिक प्राथमिक दवा और शेष सहयोगी। डॉक्टर साहब ने कहा कि तीन दिन तो लग ही जायेंगे, अच्छा है उसमें दो दिन सप्ताहान्त के हैं, कार्य की अधिक हानि नहीं होगी। हमने कहा हमारा तो परिचालन का कार्य है, सातों दिन चलता है, हाँ ये बात है कि सप्ताहान्त में घर से ही चल जाता है, वह अवश्य बन्द हो जायेगा। पता नहीं, वायरसों को सप्ताहान्त की कुछ कम समझ है या सरकारी अधिकारियों से कुछ अधिक शत्रुता। अब ले देकर वही दो दिन मिलते हैं जब घर के सभी सदस्य सूची बनाये बैठे होते हैं और आपको सुपरमैन बन सब कार्य निपटाने होते हैं।

सबने भरपूर सहयोग किया, कनिष्ठों ने सारा कार्यभार अपने ऊपर ले लिया। तन्त्र का होना और चलना कितना भला लगता है, विशेषकर जब आप स्वयं ही बिस्तर पर पस्त पड़े हों। घर में भी मेज पर एक थर्मामीटर, पानी की बोतल, बॉम और दवाइयाँ सजा दी गयीं। तीन दिन के लिये शरीर तैयार था लड़ने के लिये, वायरस से। हम तैयार थे, उस लड़ाई की पीड़ा झेलने के लिये।

शरीर का तन्त्र अत्यधिक विकसित होता है, उसे ज्ञात रहता है कि कौन उसे हानि पहुँचाता है और कौन उसके लिये लाभकारी है। शरीर स्वयं सक्षम है लड़ने में और शरीर का बढ़ा हुआ तापमान एक लक्षण है इस बात का कि शरीर अपने कार्य में लगा हुआ है। वायरस के प्रारम्भिक हमले में ही कँपकपी के लक्षण होना उस बढ़े तापमान के संकेत होते हैं। यह लड़ाई कोशिकाओं के सूक्ष्म स्तर पर होती है। ऐसा नहीं है कि यह लड़ाई अचानक ही हो जाये और कोई भी कोशिका लड़ने पहुँच जाये। एक विशेष प्रकार की कोशिकायें जिन्हें पॉलीमार्फोन्यूक्लियर ल्यूकोसाइट्स कहते हैं, वे ही सबसे पहले पहुँचती हैं और अधिक मात्रा में ऑक्सीडेशन कर, हाइड्रोजन पराक्साइड और हाइड्रॉक्सिल रेडिकल बनाती हैं और अन्ततः आक्रान्ताओं को मारती हैं। अब किसी भी ऑक्सीडेशन प्रक्रिया में ऊष्मा निकलना स्वाभाविक है, इसीलिये हमें बुखार आता है, हमारा तापमान बढ़ता है।

बात भी सही है, शरीर में कहीं घमासान मचा हो और हमें पता भी न चले, यह तो बहुत अन्याय होता। तापमान को अनदेखा नहीं करना चाहिये। बचपन में बुखार आता था तो कम्बल ओढ़कर लेट जाते थे, थोड़ी देर में पसीना आता था और बुखार उड़नछू। तब समझ नहीं आता था कि पसीना आ जाने से बुखार उतरने का क्या संबंध? अब लगता है, संभवतः अन्दर से लड़ाकू कोशिकाओं की गर्मी और बाहर से कम्बल की गर्मी, इसमें ही आक्रान्ता वायरस अदि के प्राण पखेरू हो जाते होंगे। धीरे धीरे बड़े हुये तो बचपन की विधि को उतना कारगर नहीं पाया, तब किसी ने एण्टीबायोटिक की महिमा बतायी। ये महाशय अच्छे बुरे, सभी प्रकार के बैक्टीरिया को बढ़ने से रोक देते हैं और विकार को सीमित कर देते हैं, जिससे आपकी लड़ाकू कोशिकाओं को अधिक श्रम न करना पड़े। पर देखा जाये तो अन्ततः आपकी अपनी कोशिकायें ही लड़ती हैं, शेष सब सहयोगी की भूमिका में ही रहते हैं।

इन तीन दिनों में कई बार तापमान बढ़ा, यदि नींद में रहे तो कोई बात नहीं पर यदि आँख खुली रही तो थर्मामीटर से तापमान अवश्य माप लेते थे। डॉक्टर की सलाह थी कि जब तापमान अधिक हो तो उसे कम करने के लिये पैरासीटामॉल ली जा सकती है। अब कितने अधिक को अधिक की श्रेणी में रखा जाये, यह समस्या थी। कहते हैं कि १०२ डिग्री के ऊपर का तापमान मस्तिष्क के लिये घातक होता है, उस समय तापमान कम करना अत्यावश्यक हो जाता है। पहले दिन हमारा अधिकतम तापमान १०१.५ डिग्री तक ही गया और मस्तिष्क भी दुरुस्त रहा, लगा कि लड़ाई तगड़ी चल रही है। थोड़ा देखे, फिर पैरासीटामॉल खा कर सो गये, उठे तो तापमान कम था, सोचा लड़ाई का क्या हुआ, ठीक से चल रही है कि मंदी पड़ गयी? उत्तर उस समय तो पता नहीं चला पर छह-सात घंटे बाद पुनः तापमान बढ़ आया, लगभग उतने समय बाद ही, जब तक पैरासीटामॉल का प्रभाव रहा। अगले दो दिनों में तापमान ९९-१०० के बीच में ही रहा, पैरासीटामाल नहीं खायी, बस पानी अधिक पिया और विश्राम किया।

शरीर तो स्थिर हो गया पर एक स्वाभाविक संशय मन में आया कि जब पैरासीटामाल ली थी, क्या उस समय लड़ाकू कोशिकायें युद्धरत थीं या वो भी ठंडी पड़ गयी थीं, जैसे रुस की सर्दियों में जर्मनी की सेनायें। उत्तर के लिये जब संबंधित मेडिकल साहित्य पढ़ा तो तीन प्रमुख बातें पता लगीं। विज्ञ इस पर अधिक प्रकाश डाल पायेंगे पर उल्लेख प्रासंगिक है। पहला, शरीर का बढ़ा तापमान स्वस्थ संकेत हैं और जब तक १०२ के नीचे रहे और अधिक समय के लिये न रहे, पैरासीटामॉल के उपयोग की आवश्यकता नहीं है। दूसरा, पैरासीटामॉल लड़ाकू कोशिकाओं के कार्य को बाधित करता है, बैक्टीरिया को मारने वाले अवयव के उत्पादन की प्रक्रिया क्षीण करता है, या संक्षेप में कहें कि शरीर की प्राकृतिक रक्षा पद्धति में हस्तक्षेप करता है। तीसरा, बढ़ा हुआ तापमान आक्रान्ता की शक्ति को कम करता है, पैरासीटीमॉल से यह तापमान कम होते ही उन्हें और बल मिलता है और बीमारी की अवधि कम होने के स्थान पर बढ़ जाती है।

अब शोधकर्ता और विशेषज्ञ चाहे जो कहें, हमें अधिक तापमान सहन नहीं हो पाता है। हम तो तुरन्त ही पैरासीटामॉल खाकर युद्धविराम का संकेत दे देते हैं, अब इस समय का उपयोग शत्रुपक्ष सशक्त होने में लगाये या उसके लिये हमारा सुरक्षा तन्त्र कितना हल्ला मचाये। ध्यान से देखिये तो न जाने कितने सामाजिक, राष्ट्रीय और वैश्विक संदर्भों में हम यही तो कर रहे हैं, गले के नीचे पैरासीटामॉल उतार लिये हैं और आँख बन्द कर सो गये हैं, उन स्थितियों में भी, जहाँ तापमान सहन करना हमारी क्षमता की सीमाओं में था।

16.2.13

त्यक्त बचपन, रुद्ध जीवन

टेड पर श्री डेविड आर डो का सम्बोधन सुन रहा था, वह टेक्सास में एक वकील हैं और मृत्युदण्ड प्राप्त व्यक्तियों के मुक़दमे लड़ते हैं। जिन व्यक्तियों ने जघन्यतम अपराध किये होते हैं, जिन व्यक्तियों को न्यायालय ने किसी भी स्थिति में जीने योग्य नहीं पाया और जिनको सारी क्षमा-प्रक्रियाओं में भी जीने योग्य नहीं समझा गया, डेविड उन अपराधियों के मृत्युदण्ड को मानवीय आधार पर कम करवाने का प्रयास करते हैं। मृत्यु के निकट पहुँच कर दुर्दान्त अपराधी का भी सत्य बाहर आ जाता है, ऐसे कितने ही सत्यों का अनुभव है उनके पास।

उनके अनुसार ८० प्रतिशत की कहानी एक ही है, बस नाम बदल जाते हैं, स्थान बदल जाते हैं, यात्रा वही है, अन्त वही है। सबका बचपन त्यक्त रहता है, जीवन रुद्ध रहता है, सबके बीज बचपन में ही पड़ जाते हैं। जिन घटनाओं को हम सोचते कि वे प्रभाव नहीं छोड़ेंगी, उनका भी बालमन पर बहुत ही गहरा प्रभाव पड़ता है। यदि आपको यह लगता है कि ४-५ वर्ष का बच्चा घटनाओं को स्पष्ट रूप से याद नहीं रख पायेगा, तो संभवतः आप अंधकार में जी रहे हैं। पति पत्नी का तनावपूर्ण व्यवहार बच्चे के मन में उसी रूप में और उतनी ही मात्रा में उतर आता है। पारिवारिक सुलझाव और सौहार्द्र बच्चे के मन को सशक्त बनाता है, उसे सकारात्मकता की ओर प्रेरित करता है। यदि किसी कारणवश बच्चे का मन परिवार से उचाट हो गया तो समाज के लिये उसे सम्हाल पाना और भी कठिन हो जाता है। समाज में युवा के व्यवहार के सूत्र कई वर्ष पहले परिवार के व्यवहार से पड़ चुके होते हैं। बच्चों के मानसिक भटकाव को बचपन में नियन्त्रित करना उतना कठिन नहीं होता है जितना बाद में हो जाता है।

यही कहना श्री डो का भी है। असहाय पड़े और मृत्युदण्ड की राह देखते उन अपराधियों के जीवन को वापस देखने पर, अब तक पार किये सारे मोड़ों को देखने पर, यदि कहीं पर कुछ संभावना दिखती है तो वह है परिवार। ऐसा नहीं है कि बाद में नियन्त्रण के सारे आसार समाप्त हो जाते हैं पर बाद में इसी कार्य में लगा श्रम, धन और समय कहीं अधिक होता है, कहीं कष्टकर होता है। समाजशास्त्रियों का ही नहीं, स्वयं अपराधियों का भी यही कहना है। उन्हें लगता है कि काश बचपन तनिक और ममतामयी होता, पिता के स्नेहिल आश्रय के कुछ और वर्ष जीवन में आ गये होते। उस समय तो दोष उनका न था, पर मन उचाट होने के साथ ही साथ नियन्त्रण की आखिरी आस भी समाप्त हो गयी उनके जीवन से। किसी का कोई मोह न रहा, जिधर मन ने कहा, उधर चल पड़ा जीवन, और अन्त निष्प्रभ, मृत्युदण्ड।

दुखान्त देख कर हमें उनके उनके दुखद बचपन की चिन्ता हो सकती है, पर किसी का दुखद बचपन देखकर क्यों नहीं झंकृत होते हमारी संवेदनाओं के तन्तु। क्या तब हमें वह कहानी याद नहीं आती जो अपराधिक भविष्य की ८० प्रतिशत कहानियों में बदल जाने की संभावना पाले हुये है। बचपन में किये लघु प्रयास न जाने कितने युवाओं को अपराध के अन्धकूप से बचा लेंगे।

पाश्चात्य जगत में परिवार की स्थिरता का हृास, एकल परिवारों में पालन या संकर परिवारों का चलन, कई ऐसी ही परिस्थितियाँ हैं, उससे संबद्ध घटनायें हैं जो एक स्थायी प्रभाव छोड़ जाती हैं, बच्चों की मानसिकता पर। यद्यपि हर अस्थिरता का प्रभाव उतना गहरा नहीं होता है कि बच्चा अपराधों की ओर मुड़ जाये पर माता-पिता में किसी एक का न होना उसे त्यक्त या अर्धपालन का भाव अवश्य देता होगा। उसका भला क्या दोष जो विवाह करने वाले माता पिता निभा न पाये। यदि पाश्चात्य जगत में पारिवारिक उथलपुथल की परिणिति तलाक के रूप में होती है और उसका बच्चों पर कुप्रभाव पड़ता है, तो भारतीय समाज के उन परिवारों की स्थिति भी अच्छी नहीं है जहाँ खटपट तो बनी रहती है पर सामाजिक दबाव में तलाक नहीं होता है। भले ही माता पिता साथ रहें पर उनके बीच के विवाद बच्चों के मन में गहरे उतरते हैं। उनके बीच का व्यवहार यदि समझने योग्य और सहज न हुआ तो उसकी छाप बच्चे के मन में कोई न कोई विकार लेकर अवश्य आयेगी।

परिवार सुधार कार्यक्रम आशातीत सफल रहे या न रहें, पर बच्चों को असहाय नहीं छोड़ा जा सकता। इस तरह के असंबद्ध और उचाट बच्चों की त्वरित पहचान और उनके लिये छात्रावास और पढ़ाई की व्यवस्था, यह सरकार का कर्तव्य हो जाता है। जो बच्चे अपराध में प्रवृत्त हो चुके हैं और पकड़े जा चुके हैं, उनके लिये बालकारागारों में ही सतत सुधार के लिये पढ़ाई और वैकल्पिक व्यावसायिक प्रशिक्षण की व्यवस्था, यह उन्हें रोकने का अगला चरण है। जो बच्चे खो जाते हैं, उन पर क्या बीतती होगी या उनको किन राहों पर ढेला जाता होगा? दिल्ली में ही प्रतिदिन १३ बच्चे खोते हैं, उन्हें ढूढ़ना प्राथमिकताओं में हो। इसके बाद भी यदि अपराध पर नियन्त्रण न किया जा सके तो अपवादों से निपटने के लिये कानून को उसका कार्य करने दिया जाये। बिना प्रयास ही सबको अपराध में प्रवृत्त होने देना तो निश्चय ही समाज के लिये अति घातक होगा।

जितना धन कानून व्यवस्था बनाये रखने में, अपराध के अन्वेषण करने में और न्याय व्यवस्था की लम्बी प्रक्रिया में लगता है, उसके एक चौथाई में ही हम वह तन्त्र सुचारु रूप से चला पायेंगे, जिसमें बच्चों को अपराधों की ओर प्रवृत्त होने से रोका जा सके। श्री डो तो यहाँ तक कहते हैं कि जो परिवार अपनी समस्यायें सुलझाने में असहाय हों, उनके बच्चों को उस परिवेश से हटाकर उन्हें छात्रावास में डालने का अधिकार हो सरकार के पास।

भारत में ये विचार असंभव से दिखते हैं। बच्चों का उत्तरदायित्व मुख्यतः परिवारों के पास ही है, उनके प्रभाव से वह अलग नहीं है। उनके अतिरिक्त जो परिवारों से असंबद्ध हैं, बालश्रम में लगे हैं, वर्षों से लापता है, शोषण का जीवन जी रहे हैं, उनकी पहचान करना और उन्हें सम्मानित और आशान्वित जीवन जीने की ओर ले जाना सरकार की प्राथमिकताओं में हो। जब तक यह नहीं सुनिश्चित किया जायेगा, तब तक अपराध की राह का एक कपाट हम अपने समाज की ओर खोल कर रखे रहेंगे। उनका बचपन त्यक्त न बीते, उनका जीवन रुद्ध न बीते।

13.2.13

काम कैसे होगा?

ज्ञानदत्तजी ने एक फेसबुक लिंक लगाया, एनीडू नामक एप्स का, साथ में आशान्वित उद्गार भी थे कि अब संभवतः कार्य हो जाया करेंगे। ऐसे ढेरों एप्स हम भी देख कर प्रसन्न होते रहते हैं, इस आस में कि अब हमारे रुके हुये कार्य होने लगेंगे, हमें सब समय से याद आने लगेगा, हमारे आलस्य प्रधान व्यवहार के लिये एक रामबाण आ गया है।

बहुत वर्ष हुये, हमें अपनी स्मृति पर बड़ा भरोसा हुआ करता था। तब कनिष्ठ अधिकारी थे, कार्य भी अधिक नहीं दिये जाते थे, कोई एक कार्य दे दिन भर उस पर दृष्टि रखने को कहा जाता था, थोड़े बहुत निर्णय और सायं उन निर्णयों के बारे में अपने वरिष्ठ अधिकारी से छोटी सी चर्चा। दिन का भार दिन में ही उतार कर भरी पूरी नींद और पुनः अगले दिन की दिहाड़ी। न स्मृति पर बोझ था और न ही हम पर, सिखाने के क्रम में एक पक्ष एक बार ग्रहण किया जाता था, समुचित निर्वाह हो जाता था।

वर्ष बीतने लगे, दायित्व बढ़ता गया, एक कार्य तक सीमित रहने वाला दिन हर घंटे एक नया कार्य सुझाने लगा, कार्य भी अलग अलग अवधि के, कुछ उसी दिन, कुछ साप्ताहिक, कुछ मासिक, कुछ अनियमित। स्मृति जहाँ तक सम्हाल सकती थी, सम्हाला, जब कई बार कार्य भूले जाने लगे, तब समझ में आ गया कि अब याद रखने से काम नहीं चलेगा, लिखकर रखना पड़ेगा। कार्यक्षेत्र से अधिक कार्य गृहक्षेत्र में बढ़ने लगे, पहले जो कार्य श्रीमतीजी को प्रसन्न करने में किये जाते, बच्चे होने के बाद उनकी भी संख्या तिगुनी हो गयी, समान दण्डधारा, किसी के भी कार्य को भूलने का दण्ड बराबर।

कार्य लिखे जाने लगे, एक पुस्तिका सी थी, जो बोला जाता था, झट से लिख लेते थे, तेज चलने वाले बॉलपेन से। हर क्षेत्र से सम्बन्धित कार्य अलग अलग। कई कार्य उसी दिन हो जाते तो उन्हें लम्बी लाइन से काट देते, आधे हुये कार्य का आधा भाग काट देते। रात्रि सोने के पहले दो पेजों की घिचपिच समझने में बड़ा कष्ट होता पर सोने के पहले यह अभिमान भी होता कि कितनी तोप चला कर आ रहे हैं, दिन सफल हो गया। जो कार्य उस दिन कट न सके, उन्हें सुन्दर ढंग से आगे के पेज पर सजा देते थे, इस आस में कि कब निशा बीते, दिन चढ़े और हम भी चढ़ बैठें कर्मरथ पर। कई दिन बीत जाने के बाद भी बहुत कार्य ऐसे होते थे जो अपने लिखे जाने का अर्धशतक बना लेते थे। कुछ बुलबुले की तरह होते थे, उसी दिन उत्पन्न हुये और उसी दिन नष्ट हो गये।

जब प्रबन्धन की विमायें और बढ़ीं तो कार्यों की जटिलता भी बढ़ने लगी। एक बड़ा कार्य जो कई छोटे कार्यों से मिलकर बनता है, अपने लिखे जाने का विशेष आकार माँगने लगा, किसे उन लघु कार्यों का उत्तरदायित्व दिया जाना है, किस समय सीमा में वह कार्य पूरा करना है, प्रारम्भ में सोचे कार्य कालान्तर में किस तरह अपनी समय सीमा है, सब प्रकार की सूचना कार्य के सम्मुख लिखने का भार आ गया। पेड़ की डालों की तरह कार्य की जटिलता बढ़ती जा रही थी और हम तने जैसे तने खड़े थे। यही नहीं कई नये कार्य आपको सोचने भी होते हैं जिससे कार्यक्षेत्र में गतिशीलता बनी रहे, गृहक्षेत्र में प्रेमशीलता बनी रहे। नये कार्य, पुराने कार्य, लम्बे कार्य, छोटे कार्य, आवश्यक कार्य, अनावश्यक कार्य, कार्यों के न जाने कितने विशेषण पनपने लगे। कार्यों का कारवाँ बढ़ता जा रहा था, गुजरता जा रहा था और हम खड़े खड़े गुबार देखे जा रहे थे।

तकनीक पर बड़ा भरोसा रहा है हमें, जहाँ भी लगा तकनीक कुछ श्रम और कुछ भ्रम कम कर देगी, तुरन्त उसे अपना लिये हम। सबसे पहले तो कार्यों को डिजिटल रूप में लिखना प्रारम्भ किया, इससे एक लाभ यह हुआ कि किसी कार्य को दुबारा लिखने का श्रम समाप्त हो गया। जो कार्य हो गया उसे उड़ा देते, शेष कार्य सूची में यथावत बने रहते। आउटलुक में कार्यों में टैग लगाने की भी व्यवस्था थी, किस विषय से सम्बन्धित कार्य है, किस व्यक्ति को दिया कार्य है और प्राथमिकता क्या है, तीन तरह के टैग लगा कर निश्चिन्त हो जाते थे। किसी पर्यवेक्षक को बुला उसके सारे कार्यों की वर्तमान स्थिति और उसे सम्पन्न कर पाने की नयी समय सीमा, सब का सब उसमें लिख देते थे। पर्यवेक्षक भी सकते में रहते कि जो भी बोलेंगे वह लिख लिया जायेगा, नियत दिन पर बुलावा पुनः आ जायेगा। झाँसी के पर्यवेक्षक तो यहाँ तक कहने लगे कि सर तो अच्छे हैं, ये कम्प्यूटर ही डाँट पड़वा देता है।

कुछ पर्यवेक्षकों ने कहा कि सर आप तो सब लिख लेते हैं पर हम लोग तो अभी भी कागज कलम पर हैं, आपसे गति मिला कर नहीं चल पाते हैं और डाँट खा जाते हैं, हमें भी डिजिटल किया जाये। संयोगवश उस समय तक गूगलडाक्स आ चुका था, सबके एकाउन्ट गूगल पर खोले और सम्बन्धित कार्यसूची उनसे साझा कर ली। साथ ही साथ एक कार्य और बढ़ा दिया कि कार्य में जो भी प्रगति हो, वह उसी में लिख दिया करें, तब नियमित बैठक बन्द और केवल अपवाद स्वरूप ही आपको बुलावा भेजा जायेगा। यह प्रयोग भी बड़ा सफल रहा। सरकारी नौकरी के वेतन में पर्यवेक्षक बहुराष्ट्रीय कम्पनी के आनन्द ले रहे थे, हमारा कार्य भी कम हो रहा था, योजना आदि के लिये समय बहुत मिल रहा था।

जब कार्यसूची और बढ़ने लगी, पर्यवेक्षकों की संख्या बढ़ने लगी, उत्तरदायित्व के क्षेत्र बढ़ने लगे, समन्वय के कार्य मुख्य हो गये, तो उस समय एक तरफ से सारे कार्यों की समीक्षा करने का भी समय नहीं रह गया। आवश्यकता आ पड़ी कि हर छोटे बड़े कार्य में अनुस्मारक लगा लिया जाये। यह प्रयोग अधिक सफल नहीं रहा, जो समय निर्धारित करते थे, उस समय कोई बैठक या कोई कार्य निकल आता था, हर कार्य सदा ही स्नूज़ पर लगा रहता, कभी कुछ घंटे, कभी कुछ दिन। कार्य का बढ़ता आकार और विस्तार, प्रबन्धन भरभराने लगा।

भटकों को तकनीक ही राह दिखाती है, इण्टरनेट पर ढूढ़ा तो सैकड़ों एप्स निकल आये जो कार्य को करवाने का ही कार्य करते हैं। कुछ भी आप अपनायें, आपको उनके अनुसार स्वयं को ढालना होगा। कुछ तो इतने जटिल कि उन्हें यदि साध लिया तो आप तब कोई भी कार्य साध सकते हैं। यही वह उहापोह का समय था जब कार्य के क्षेत्र पर दर्शन ने जन्म लिया। कार्य सरल होते हैं, कठिन होते हैं, पर उनका प्रबन्धन हम जितना जटिल करते जायेंगे, कार्य होने की संभावना उतनी ही कम हो जायेगी। प्रबन्धन जितना सरलतम रखा जाये उतना ही अधिक प्रभावी कार्यों का निस्तारण हो जाता है। कार्य करने भर की इच्छाशक्ति हो, होने और उसे लिखने का कोई भी मार्ग सही हो जाता है।

कार्य प्रबन्धन की विधियों के शिखर पर खड़ा इस समय नीचे देख रहा हूँ कि कहाँ पर समतल है, कहाँ वह स्थान छोड़ आया हूँ जहाँ पुनः स्थिरता मिलेगी? यदि एप्स सरलता के स्थान पर जटिलता उड़ेल रहे हैं तो मान लीजिये कि तकनीक अपना कार्य नहीं कर रही है। या ऐसा भी हो सकता है कि आपके लिये कार्य निष्पादित करने की विधि बदलने का समय आ गया है, उपने उत्तरदायित्व को अधीनस्थों पर अधिक मात्रा में छोड़ देने का समय आ गया है, समीक्षा भी न्यूनतम करने का संकेत आ गया है। भ्रम काल्पनिक नहीं वास्तविक है, कार्य मात्र प्रबन्धन की नयी विधियों से सम्पादित नहीं होते हैं, परिवेश और समूह पर भी निर्भर करते हैं। इच्छाशक्ति बनी रहे तो मार्ग निकल आयेगा, एप्स तो हिसाब रखने के लिये हैं, समय तो पूरा ही देना पड़ेगा, अकेले नहीं पूरे समूह को मिलकर जूझना होगा।

रिक्त भाग दिख रहे हैं, पर मुक्ति बाहर पड़े किसी एप्स में नहीं है, समस्या और समूह पर आधारित साधन निकलेगा, समाधान निकलेगा। कार्य करने की सर्वोत्तम विधि ढूढ़ना भी तो एक कार्य है।

9.2.13

आईआईटी - एक आनन्द यात्रा

मेरे लिये तो आईआईटी किसी भी छात्र के विकास के लिये विश्व के सर्वश्रेष्ठ संस्थानों में एक है, विशेषकर उस छात्र के लिये जो अपने जीवन के महत्वपूर्ण पड़ाव में पाँव धरने जा रहा है। मैं कभी सोचता हूँ कि मैं क्यों गया वहाँ, और लोग भी क्यों जाते हैं वहाँ? मैंने वहाँ चार वर्षों में तीन तरह के लोग देखे। पहले वे जो यह सोच कर आये कि यहाँ आने से नौकरी पक्की हो गयी, लगभग ७५ प्रतिशत, ये लोग किसी तरह चार साल तक ग्रेडों और एसाइनमेन्ट से जूझ कर निकल जाते हैं, नौकरी मिलती है और उनकी आईआईटी यात्रा का ध्येय पूरा हो जाता है। हो सकता है मैं भी कई दिनों तक इसी मानसिकता में रहा हूँ पर वहाँ उपस्थित संभावनाओं ने मुझे शीघ्र ही दूसरी श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया। ये श्रेणी अपनी बौद्धिक क्षमता को पैना करने और उसे सबके सामने सिद्ध करने यहाँ आती है। संभवतः उसे ज्ञात रहता है कि नौकरी तो मिल ही जानी है, आईआईटी की संभावनायें एक नौकरी से कहीं अधिक हैं। सघन बौद्धिक वातावरण फिर कहाँ मिलेगा भला, उसका उपयोग करना अधिक आवश्यक है, किसी क्षेत्र में अनुसंधान कर पैनापन प्राप्त करना यहाँ आने की सार्थकता होगी। इस श्रेणी में लगभग २४ प्रतिशत लोग आगे हैं।

मेरे आशाओं की धारा उन १ प्रतिशत पर आकर बाँध बनाने लगती है, जिन्हें न नौकरी की चाह होती है, न किसी विषय विशेष में अपनी बौद्धिक श्रेष्ठता सिद्ध करने की चाह। जो यहाँ आते हैं, अद्भुत बौद्धिक स्थिति में, अल्पप्रयास में ही विषय की बाधायें पार कर लेते हैं, जो अच्छा लगता है वही पढ़ते हैं और संस्थान को छोड़ देते हैं। वे यहाँ आर्थिक और बौद्धिक यात्रा में सहायता लेने नहीं आते, वे आते हैं बस अपना आत्मविश्वास व्यक्त करने, अपने आप में। सर्वश्रेष्ठ संस्थान, सर्वश्रेष्ठ शिक्षा, सबका थोड़ा सा अंश लेकर कुछ अपने ही स्वप्न साकार करने चल देते हैं, चार सालों बाद। उसे मानसिक उन्मुक्तता बोलें या आध्यात्मिक आवारगी, अजब श्रेणी में आते हैं ये लोग, बहुत कम ही पैसे या अपने विषय में स्थिर रहते हैं। इस श्रेणी की असीम संभावनाओं की चर्चा आगे करेंगे, क्योंकि ये ही बदलाव के सूत्रधार बनने की क्षमता रखते हैं।

जैसे जैसे जीविका के साधनों की कमी हुयी है, नौकरी की निश्चितता प्रदान करने वाले संस्थान की माँग इतनी बढ़ चुकी है कि प्रतियोगी छात्र येन केन प्रकारेण इसमें आना चाहते हैं। कई वर्ष पहले से तैयारी, यान्त्रिक तैयारी, प्रश्नों और उनके उत्तरों के अस्त्र शस्त्रों से सज्जित, युद्ध सा व्यवहार। एक बार अन्दर आने के बाद वही प्रतियोगी मानसिकता, वहाँ भी आने निकलने की होड़, चार साल इसी उठापटक में निकल जाते हैं। आईआईटी एक फैक्टरी बन कर रह जाता है, कमाऊ पूत वहाँ की गयी प्रतियोगिता को अपना वैशिष्ट्य समझते हैं, जगत रण में जूझने को तैयार। हतभागा आईआईटी अपना माथा पीटकर रह जाता है, एक प्रश्न हर वर्ष पूछता है, क्या यही उसकी संभावनायें थीं। निश्चय ही ये उसके ७५ प्रतिशत उत्पाद अवश्य हैं, पर ये उसके श्रेष्ठ उत्पाद तो कदापि नहीं हैं।

अंकों की प्रतियोगिता एक आवश्यकता है यहाँ, पर वही सब कुछ नहीं। निश्चय ही अच्छे ग्रेड की चाह सबको रहती है, पर उसी में सर्वस्व समय न्योछावर कर दिया तो रीते हाथ ही बाहर आयेंगे। सीखने के लिये कितना कुछ है, आँखों से रथ में हाँके घोड़े के पट्टे हटाकर देखें तो। वहाँ के पुस्तकालय में विज्ञान विषय के अतिरिक्त कितना ज्ञान छिपा है। वहाँ के गहन बौद्धिक परिवेश में ज्ञान की कितनी और शाखायें अपना स्वरूप ले रही हैं। खेल, रुचियाँ, चर्चायें, संस्कृति और न जाने कितने अध्याय लिखे जाते हैं वहाँ, हम तनिक प्रतियोगिता से बाहर आकर उन पर दृष्टि तो डालें। जो सबसे अधिक महत्वपूर्ण योगदान इस संस्थान का मानता हूँ, वह है देश के श्रेष्ठ मस्तिष्कों को एक साथ आने का सुयोग और मुझे उनके बीच रहने का मिला सौभाग्य। यहाँ आकर पहली बार आश्चर्य होना प्रारम्भ हुआ कि जिन समस्याओं का समाधान हम एकमार्गी माने बैठे रहते हैं, उनके मार्ग हर चर्चा के साथ चौराहे में बदलते जाते हैं। विज्ञान और तकनीक में उलझ जाने से हम उन मस्तिष्कों और उनकी क्षमताओं को भूल बैठते हैं जिनसे हमारी वर्तमान समस्याओं के सभी हल मिलना नियत हैं।

व्यक्तित्व विकास की असीम संभावना से भरे इस संस्थान में दबावमुक्त वातावरण की वकालत नहीं कर रहा हूँ मैं, दबाव आवश्यक है अपने आलस्य को तज कुछ नया ढूढ़ने के लिये, दबाव आवश्यक है अपनी क्षमताओं को उभारने के लिये, दबाव आवश्यक है सतत सोचने के लिये और नये मार्ग निकालने के लिये और दबाव निश्चय ही आवश्यक है हमें उस कठोर सत्य के प्रति तैयार करने के लिये जिसका सामना यहाँ से तुरन्त बाहर निकलने के बाद होने वाला है। असंभव जैसे शब्द पर विजय पाने के लिये हमें उन छोटे छोटे कठिन कार्यों को सिद्ध करना होता है, जिससे एक बड़े असंभव का निर्माण होता है। वहीं पर यह आत्मविश्वास हमें मिला, जिसने किसी भी कार्य के लिये हमें न कहना सिखाया ही नहीं।

वेतन के आगे लगे शून्य गिने जायें और उसके आधार पर संस्थान की श्रेष्ठता निर्धारित की जाये तो, यहाँ से निकलने वाले स्नातकों के वेतन में शून्य की संख्या निसंदेह सर्वाधिक होगी। पर क्या वही सब कुछ है? वेतन को एकमात्र मानक और कर्मफल मान बैठे स्नातकों की संख्या क्या कभी ७५ प्रतिशत से घटकर २५ प्रतिशत तक आ पायेगी? आईआईटी को यदि अपनी पूरी क्षमता में जीना है, विश्वस्तरीय मानक तय करने हैं, तक्षशिला और नालन्दा से अपना स्तरीय साम्य स्थापित करना है तो यह प्रतिशत हर वर्ष गिरना होगा, वह भी ५ प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से। अगले १० वर्षों में जब यह २५ प्रतिशत तक ही रह जायेगा तब कहीं जाकर आईआईटी अपनी ७५ प्रतिशत सार्थकता सिद्ध कर पायेगा। वेतन के आगे शून्य तब भी रहेंगे, उतने ही रहेंगे, तब भविष्य तनिक अलग होगा, तब भविष्य केवल कल्पना में नहीं जियेगा, साक्षात अनुभव किया जा सकेगा।

श्रेष्ठ संस्थानों से श्रेष्ठ की अपेक्षा यदि देश नहीं करेगा तो अपनी मुक्ति का मार्ग ढूढ़ने किसके द्वारे जाकर भिक्षापात्र फैलायेगा? श्रेष्ठ मस्तिष्क यदि अतिशय आत्मसंशय में पड़े रहे, भविष्य की पीढ़ियों के लिये धन जुटाते रहे तो वर्तमान पीढ़ियों को लुप्त होने की कगार से कौन बचायेगा? अपेक्षायें अधिक नहीं हैं पर स्पष्ट हैं। मस्तिष्कों का श्रेष्ठ समूह केवल धन कमाने की मशीन बनकर नहीं रह सकता, उसे ऊँचे ध्येय रचने और साधने होंगे। समाज के प्रति योगदान की दृष्टि किसी व्यक्तिगत त्याग के पथ से होकर नहीं जाती है, बस तनिक ऊँचा सोचने की आवश्यकता है, और अधिक भयरहित होने की आवश्यकता है। व्यक्तिगत धन कमाने से अधिक हमारा ध्यान उन तन्त्रों और व्यवस्थाओं को स्थापित करने में हो जो न केवल हजारों को जीविका दे सकें, वरन दस गुना धन कमा कर सम्मिलित सुख स्थापित कर सके। इस प्रयास में व्यक्तिगत रूप से भी हम वर्तमान से कहीं अधिक धन कमा पायेंगें, पर स्वयं को पुरुषार्थ के पथ पर स्थापित करने के बाद। मेरे कई मित्र हैं जो इसका महत्व समझते हैं और जिनके अन्दर यह क्षमता भी है, कई इस कार्य में लग चुके हैं और कई अपना मन बना रहे हैं।

बौद्धिक नेतृत्व के साथ आध्यात्मिक संतुष्टि का भावना दौड़ी चली आती है। समाज से एक बार जुड़ कर देखने की परिणिति उसके प्रति सतत कुछ करते रहने में होती है। एक बार लत लगने की देर है, तब जो आनन्द सम्मिलित विकास में आता है, सम्मिलित सुख में आता है, उसके समक्ष शेष व्यक्तिगत सुख बौना पड़ने लगता है।

आईआईटी में प्रवेश आपको एक राजमार्ग की संभावना देता है, यदि आप स्वार्थ की पगडंडी में त्यक्त से चले जायेंगे और अपनी जीविका में संतुष्ट हो जायेंगे तो संभवतः न आपको अपनी क्षमता पर तनिक विश्वास है और न ही संस्थान के वातावरण पर। जहाँ पर देश के श्रेष्ठ मस्तिष्क साथ बैठकर चार वर्ष निकाल देते हैं, वहाँ यदि एक वर्ष में चार टाटा-बिड़ला, चार नोबल विजेता, चार राजनेता और चार समाज सुधारक न निकलें तो श्रेष्ठ समूह का क्या प्रायोजन? जो समाज, देश, विज्ञान, राजनीति, अर्थव्यवस्था को दिशा दिखाने के लिये बने हैं, उन्हें चार वर्ष प्रतियोगिता के परिवेश में हाँक दिया जाये और जिनमें सागर लाँघ जाने की क्षमता है, वे भी हनुमान की तरह अपनी क्षमताओं को भुला बैठें, तो किसके सहारे देश अपने उत्कर्ष की आस लगायेगा? जामवन्त भला कब तक याद दिलाते रहेंगे, संस्थानों को अपनी श्रेष्ठता और सामाजिक अपेक्षायें की स्मृति कब आयेगी? कब मेरा आईआईटी एक आनन्द यात्रा में चल पड़ेगा?


(आईआईटी कानपुर में विनीत सिंह के साथ एक कमरे में तीन वर्ष बिताये हैं, आईआईटी के बारे में उनके ये विचार मेरे चिन्तन पथ पर बेधड़क अपनी छाप छोड़ गये, बस अनुवाद और कुछ शब्द मेरे हैं। विनीत अभी टाटा स्टील में महत्वपूर्ण पद पर हैं।)

6.2.13

गरीबी देना तो तमिलनाडु में

भारतीय रेलवे में एक व्यवस्था है, महाप्रबन्धक के वार्षिक निरीक्षण की। इसकी तैयारियों के क्रम में उस रेलखण्ड के लगभग सारे स्टेशनों का विस्तृत निरीक्षण हो जाता है। यह एक बहुत पुरानी परम्परा है और हर दृष्टि से अत्यन्त लाभदायक भी। इस प्रकार चार-पाँच वर्ष में पूरे मण्डल का निरीक्षण हो जाता है, स्टेशनों का कायाकल्प हो जाता है, भावी योजनाओं को बल मिलता है, परिचालन और अनुरक्षण संबंधी समस्यायें समाधान पाती हैं, यात्रियों की बढ़ती माँगों को एक सीमा तक निपटाने की प्राथमिकतायें उजागर होती हैं। वर्ष में एक माह उस रेलखण्ड के अतिरिक्त किसी को कुछ और सूझता भी नहीं है। रेलवे में गुणवत्ता और प्रगतिशीलता का एक स्थिर प्रतिमान है, महाप्रबन्धक का वार्षिक निरीक्षण।

इस वर्ष का रेलखण्ड था बंगलोर से सेलम का, २०० किमी लम्बा, ४० किमी कर्नाटक में, शेष १६० किमी तमिलनाडु में। दो बार ट्रेन के निरीक्षण कोच से और दो बार सड़क यात्रा से सारे स्टेशनों और प्रमुख समपार फाटकों को देखा। जनवरी माह तमिलनाडु में ठंड का मौसम होता है, और ठंड भी बसन्त जैसी मध्यम। दिसम्बर में ही यहाँ बारिश भी होती है तो दृश्य भी हरे भरे ही दिखते हैं। पहाड़ों, घाटियों, जंगल और तालों के बीच से निकलते इस रेलखण्ड का निरीक्षण तनिक भी थकान नहीं लाता है, वरन मन को पूर्णतया स्फूर्त कर देता है।

नियमित निरीक्षण के अतिरिक्त पर्याप्त समय रहता है, स्टेशनों के बाहर टहलने के लिये। जन, जीवन, जल, भोजन, बिजली, विद्यालय, जीविका आदि के बारे में पूछने पर स्टेशन मास्टर आदि आश्चर्यचकित अवश्य होते हैं पर साथ ही साथ सहज भी हो जाते हैं। संभवतः ऐसे प्रश्न संकेत होते हैं कि औपचारिक निरीक्षण पूरा हुआ अब बातें अनौपचारिक होंगी। उनके बच्चों की संख्या, उनका स्वास्थ्य, उनकी शिक्षा, परिवेश की स्थिति, समाज का सहयोग, ये सब ऐसे प्रश्न हैं जो अभी तक थोड़ा सचेत रहे स्टेशन मास्टर को सहज कर देते हैं। उनके चेहरे पर तनिक मुस्कान आ जाती है और स्वर में आत्मीयता।

एक ओर से ट्रेन व दूसरी ओर से वाहन से निरीक्षण करने में पूरा रेलखण्ड एक दिन में ही देखा जा सकता है। रेलखण्ड लम्बा हो या सड़क अच्छी न हो तो यह करना कठिन होता है। रेलखण्ड लम्बा था और १५ से अधिक स्टेशन देखने थे, फिर भी सड़क अच्छी होने के कारण हमने एक दिन में पूरा निरीक्षण करने का निश्चय कर लिया।

स्टेशन से बाहर आकर वाहन में बैठने ही जा रहे थे तो पेड़ के नीचे बैठे दो छात्रों पर दृष्टि पड़ी। पर्यवेक्षक महोदय ने बताया कि वेशभूषा से दोनों ही सरकारी विद्यालय के छात्र लग रहे हैं। खाली समय में उन्हें पढ़ते देखकर बड़ा अच्छा लगा, लगा कि कम से कम यहाँ से देश का भविष्य सुरक्षित है। दोनों ही लालरंग के पैंट पहने थे, पता चला कि यहाँ पर सारे विद्यार्थियों को एक वर्ष में तीन शर्ट और पैंट निशुल्क मिलते हैं। यही नहीं निशुल्क पाठ्यपुस्तकें, एक साइकिल, ट्रेन व बस का पास, छात्रावास में रहने की सुविधा और दिन का भोजन। इतना सब होने पर कोई अभागा ही होगा जो अपनी शिक्षा पूरी न करे। एक और बात जो पर्यवेक्षक महोदय ने सगर्व बतायी कि सारा उत्तरदायित्व प्राध्यापक का ही है और उनके द्वारा बच्चों को आवंटित धन खा जाने की घटनायें नगण्य हैं, अपने बच्चों से बेईमानी का विचार भी आना उनके लिये घोर अपमान का विषय है।

कुछ किलोमीटर आगे बढ़ कर दूसरे गाँव की परिधि में पहुँचे तो राशन की दुकान के बाहर भीड़ खड़ी दिखी। पोंगल का त्योहार चल रहा था, राज्य सरकार इस उत्सव पर एक साड़ी, एक धोती, ५०० रु नगद और अतिरिक्त राशन देती है। ये सारी योजनायें ग़रीबी रेखा से नीचे रहने वालों के लिये ही हैं। दो रुपये किलो चावल तो सतत चलने वाली योजना है ही, साथ ही साथ अन्य आवश्यक सामान भी राशन की दुकानों पर उपलब्ध है। व्यवस्था अच्छी है, यद्यपि दो रुपये किलो वाले चावल की कालाबाज़ारी की ख़बरें सुनने में आती हैं, लोग कहते हैं कि ट्रेन के रास्ते चावल बैंगलोर पहुँचता है और मुख्यतः इडली बनाने में प्रयुक्त होता है, पर फिर भी यहाँ के स्थानीय निवासियों को राशन व्यवस्था से कोई समस्या नहीं है। बताते चलें कि तमिलनाडु उन राज्यों में एक है जिसने बैंकों में सीधे सब्सिडी का पैसा पहुँचाने का विरोध किया है, इसमें तमिलनाडु को पुराने सधे सधाये तन्त्र में घोर अव्यवस्था पनप आने का भय लगता है।

थोड़ा और आगे बढ़े तो एक ही तरह के कई मकान बने दिखे, दो कमरे के होंगे संभवतः। जिज्ञासा हुयी कि यहाँ पर किस सरकारी कम्पनी के मकान हो सकते हैं भला। पर्यवेक्षक पुनः बताने लगे कि सर ये भी राज्य सरकार ने ही बनवाये हैं, नक़्शा पहले से पारित रहता है, ठेकेदार जल्दी ही मकान बना देते हैं, बस घर के अन्दर मुख्यमंत्री का चित्र लगाना पड़ता है। यह भी ग़रीबी रेखा से नीचे के व्यक्तियों के लिये। सामाजिक विषयों में रुचि जगती देखकर एक और पर्यवेक्षक स्वयं ही बताने लगे कि यही नहीं, यहाँ पर लड़कियों की शिक्षा, जीविका, विवाह, प्रसव और संभावित हर कठिन परिस्थिति के लिये आर्थिक सहायता की व्यवस्था है। शारीरिक रूप से अक्षम और सामाजिक रूप से पिछड़े लोगों के लिये भी दसियों योजनायें चल रही हैं यहाँ, धन की कमी नहीं है यहाँ पर किसी प्रकार की रिक्तता के भरने के लिये।

न जाने कितनी योजनायें यहाँ चल रही हैं जो किसी ग़रीब को ग़रीबी का भाव तक ही नहीं आने देती हैं। पर्यवेक्षक जी बताते जा रहे थे पर मेरा मन सारा देश घूमने में व्यस्त था, लगभग १० राज्यों को इतनी निकटता से देखा है, कहीं पर भी इतनी सक्रिय योजनायें नहीं थीं। यहाँ न केवल योजनायें हैं, वरन सुचारु रूप से चल भी रही हैं। अपने राज्य में देखता हूँ तो ग़रीबी रेखा के ऊपर वाले कई लोग जो निम्न मध्यम वर्ग में आते हैं, यहाँ के ग़रीबों से भी निम्नतर जीवन बिता रहे हैं।

पता नहीं इन योजनाओं को प्रारम्भ करते समय नियन्ताओं का उद्देश्य समाज कल्याण रहा होगा या राजनैतिक, पर वर्तमान में ये पूर्णतया राजनीति की पहुँच के बाहर जा चुकी हैं। इस समय इन्हें वापस लेना या इनकी उपलब्धता कम कर देना किसी के बस की बात नहीं है, ये ऐसे ही चलती रहेंगी, सरकार के खजाने पर कितना ही बोझ पड़े, लाभान्वित लोग चाहें किसी को ही वोट दें।

अन्य राज्यों के निर्धन नागरिकों ने क्या अपराध किया है? दुर्भाग्य ही है, गरीब पैदा हुये, भारत में भी पैदा हुये, क्या अन्तर पड़ता कि एक राज्य के स्थान पर तमिलनाडु आवंटित कर देते ईश्वर उन्हें। उन्हें क्या था, एक भाषा की स्थान पर दूसरी भाषा सीख लेते, गरीबी में अस्तित्व ही तो सम्हालना था, साहित्य, कला, संगीत या भाषा का गौरव स्थापित तो नहीं करना था। एक राज्य जब इतना कर सकता है तो अन्य राज्य क्यों नहीं? दो राज्यों या क्षेत्रों के बीच गरीबों के सुख की तुलना करने में यद्यपि संवेदनशीलता तार तार हो जाती है, पर क्या करें ये अन्तर दृष्टिगत होते ही हैं। न केवल दृष्टिगत ही होते हैं, वरन सरलता से हजम भी नहीं होते हैं। देश की इस असहाय स्थिति में सभी को ईश्वर से यही प्रार्थना करने की सलाह दूँगा कि हे भगवन यदि कुछ क्रोधित हो और निश्चय कर लिया हो कि अगले जनम में गरीबी देना है, तो कृपा कर तमिलनाडु ही आवंटित करना, वहाँ कम से कम सर उठा कर जीवन के अस्तित्व को बचा ले जाने की व्यवस्था कर रखी है राज्य सरकार ने।

2.2.13

बस, बीस मिनट

यदि आपके पास बीस मिनट का समय हो, तो आप क्या करेंगे? बड़ा ही अटपटा प्रश्न है और उत्तर इस बात पर निर्भर करेगा कि कहाँ पर हैं और किस मनस्थिति में हैं। बहुत संभव हो कि आप कुछ न करें, बीस मिनट में भला किया भी क्या जा सकता है? ऐसे बीस मिनट के बहुत से अवसर आते हैं, प्रत्येक दिन, जीवनपर्यन्त। आप कार्यालय के लिये तैयार तो हो गये हैं पर निकलने में बीस मिनट है। आप फिल्म जाने को तैयार हैं, आपकी श्रीमतीजी को श्रंगार में बीस मिनट और लगेगा। भोजन करने बैठे हैं, पर सलाद कटने में बीस मिनट और लग जायेगा। बैठक बीस मिनट देरी से प्रारम्भ होने वाली है, आप स्टेशन बीस मिनट पहले पहुँच गये। इस तरह के न जाने कितने अवसर निकल आते हैं जो आपने सोचे नहीं होते हैं पर आपके पास बीस मिनट उपस्थित रहते हैं। आप क्या करते हैं, या क्या करेंगे?

देखा जाये तो ऐसे बीस मिनटों का जीवन में बड़ा महत्व है। एक दिन में तीन भी बार ऐसा संयोग हो जाये तो मान कर चलिये कि दिन में एक घंटा अधिक मिल गया आपको। बड़ी ही रोचक बात है कि अलग अलग देखा जाये तो उस समय की क्या उत्पादकता? बहुत से लोगों के लिये आगत की तैयारी में या विगत के चिन्तन में यह समय निकल जाता है। आप यदि कुछ नहीं करेंगे तो विचार तो वैसे भी समय को रिक्त नहीं रहने देंगे, कुछ न कुछ लाकर भर ही देंगे।

कहने के लिये बीस मिनट बहुत कम होते हैं पर कहने को कहा जाये तो बहुत अधिक हो जाते हैं। कोई एक विषय देकर कहा जाये कि इस पर बीस मिनट बोलना है तो आधे के बाद ही साँस फूलने लगती है, विषय के छोर नहीं सूझते हैं तब। हँसी हल्ला में तो घंटों निकल जाते हैं पर पिछले दो घंटों में क्या चर्चा हुयी, इस पर बोलने को कहा जाये तो सर भनभनाने लगता है। एक घटना याद आती है, किसी चालक दल ने इंजन का कार्यभार लेने में पाँच के स्थान पर दस मिनट लिये। जब वरिष्ठ अधिकारी ने बुलाया और इस देरी का कारण पूछा तो उत्तर देने में चालक दल ने यह संकेत देने का प्रयास किया कि पाँच अतिरिक्त मिनट कोई अधिक नहीं होते। वरिष्ठ अधिकारी ने बड़े शान्त भाव से उन्हें सुना और कहा कि बस पाँच मिनट तक वे सामने लगी घड़ी को देखते रहें और उसके बाद अपने मन की बात बता कर चले जायें, कोई आरोप नहीं लगेंगे। पाँच मिनट बाद चालक दल स्वयं ही भविष्य में उस भूल को न दुहराने का आश्वासन देकर चले गये।

कभी कभी समस्या भिन्न प्रकार से आती है, यदि आप किसी विषय के विशेषज्ञ हों, आपने जीवन के न जाने कितने वर्ष उस विषय को दिये हों, न जाने कितने शोधपत्र छाप दिये हों, आपने कोई ऐसा नया कार्य किया हो जिसने विज्ञान, विकास, अर्थ, समाज आदि की दिशा बदल दी हो, और तब आपसे कहा जाये कि सार केवल बीस मिनट में प्रस्तुत करें। आपके सामने उस विषय को सामान्य रूप से समझने वाले श्रोतागण बैठे हैं, आपको इतने विस्तार को समेट कर उसका निचोड़ बीस मिनट में प्रस्तुत करना है। यह समस्या लगभग उसी प्रकार से हुयी कि आपसे कहा जाये कि आपको अपने सामानों में केवल बीस को ले जाने की अनुमति है, तो आप कौन से ले जायेंगे। तब जितना श्रम आपको बीस वस्तुओं को निर्धारित करने में लगेगा उससे कहीं अधिक श्रम आपको अपने जीवन की विशेषज्ञविधा को बीस मिनट में समेटने में लगेगा।

आप क्या करेंगे यदि आपको भी यही कहा जाये? संभवतः मर्म को सर्वाधिक महत्व देंगे, उसके चारों ओर जो भी अनावश्यक या कम आवश्यक है उसे उन बीस मिनटों की परिधि के बाहर रखेंगे। जब कहने को सीमित समय हो और कम तथ्य हों तो संवाद की कुशलता सीधे हृदय उतरती है। संवाद कुशल व्यक्ति यह जानते हैं कि श्रोताओं के हृदय में उतरने का मार्ग विषय को सरल ढंग से प्रस्तुत करने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। विषय को सरल ढंग से व्यक्त करने के लिये और अधिक श्रम करना पड़ता है और यह कार्य केवल विशेषज्ञ और मर्मज्ञ ही कर सकते हैं।

ऐसा ही कुछ अनुप्रयोग आजकल मुझे आकर्षित कर रहा है और मैं इधर उधर पड़े अपने बीस मिनटों को वही सुनने में लगा रहा हूँ। दिन में तीन और पिछले एक माह से, लगभग ८०-९० वार्तायें सुन चुका हूँ। शिक्षा, विज्ञान, समाज, संगीत, देश और न जाने कितने ही विषय, सारे के सारे उनके विशेषज्ञों द्वारा, हर वार्ता बस बीस मिनट की। रहस्य को और अधिक नहीं खीचूँगा, यह वार्तायें टेड (TED - Technology Entertainment and Design) के नाम से आयोजित की जाती हैं और इनका ध्येय वाक्य है, प्रसारयोग्य विचार (Ideas worth spreading)। विधि भी बड़ी सरल अपना रखी है, अपने आईपैड मिनी पर चुनी हुयी ढेरों वार्तायें डाउनलोड करके रखता हूँ और जब भी १५-२० मिनट की संभावना मिलती है, सुनना प्रारम्भ कर देता हूँ। कार्यालय जाते समय, निरीक्षण के बीच मिले अन्तराल में, किसी बैठक के प्रारम्भ होने की प्रतीक्षा में और कभी कभी सोने के पहले भी, एक बार में बस बीस मिनट निकालने से कार्य चल जाता है।

इस कार्य में रोचकता कई कारणों से आती है और अब तो यह एक खेल जैसा भी लगने लगा है। पहला तो बीस मिनट निकालना कोई कठिन कार्य नहीं है, ईश्वर ऐसे अवसर बहुतायत में भेंट कर देता है। दूसरा, आपके बीस मिनट किसी विशेषज्ञ से उसके किये हुये कार्य के वर्णन व प्रभाव सुनने में निकलते हैं, विचारों को प्रवाह सदा ही गतिमय और विविधता से भरा होता है। तीसरा, आपकी सृजनात्मकता सदा ही उत्कृष्टता और नवीनता से पोषित होती है। अपने क्षेत्र में विशिष्टतम कार्य करने वालों के ही मुख से उनका अनुभव व उद्गार सुनना, समय का इससे अच्छा उपयोग क्या हो सकता है भला? इसमें हजार से ऊपर वार्तायें हैं जोकि एक अरब से भी अधिक बार सुनी जा चुकी हैं, ये संख्यायें इसकी रोचकता को स्पष्ट रूप से व्यक्त करती हैं।

लेखन यात्रा में बहुधा लगता है कि घट खाली हुआ जा रहा है, समय रहता है पर सूझता नहीं कि क्या लिखा जाये? विचार मानसून की भविष्यवाणी की तरह ही आते हैं और आश्वासन देकर चले जाते हैं। जब कुछ देने की स्थिति में नहीं होता है जीवन तो याचक के रूप में आकर कुछ ग्रहण कर लेना रोचक भी लगता है और आवश्यक भी। पता नहीं घट कब तक भरेगा? कभी कभी तो लगता है कि इतने अच्छे और उत्कृष्ट विचार सुनने के क्रम में हम अपनी प्यास और बढ़ा बैठे हैं, जितना सुनते हैं, उतने प्यासे और रह जाते हैं। लगने लगता है कि कितना नहीं आता है अभी, कितना सीखना शेष है अभी।

सुनना व्यर्थ न जायेगा, कुछ न कुछ नये विचार सूत्र अवश्य निकलेंगे, कुछ श्रंखलायें अवश्य बनेगी जिनमें सबको प्रभावित कर जाने की क्षमता होगी, कुछ दर्शन उभरेगा जिसमें हम अपने उत्तर पाने की दिशा में बढ़ने लगेंगे। कुछ नया सीखने या जानने का मन हो तो आप क्या करेंगे? विशेषज्ञों से अच्छा भला और कौन बता पायेगा आपको, वह भी बस बीस मिनट में।