जब गैंग्स ऑफ वासेपुर देखी थी तो बहुत ही नये तरह के गाने सुनने मिले थे, अन्य फिल्मों से सर्वथा भिन्न। मैं कोई फिल्म समीक्षक नहीं पर तीन विशेषतायें उसके संगीत में दिखी थीं। पहला, संगीत की धुनें स्थानीय थीं। दूसरा, उसमें बोलचाल की भाषा हिन्दी अंग्रेजी की खिचड़ी के रूप में थी। तीसरा, उसका अर्थ फिल्म में व आज के समाज में व्याप्त भावों को बहुत स्पष्ट रूप से चित्रित करता हुआ था। दिल छीछालेदर उसी फिल्म का एक गाना है।
सभ्य समाज की दृष्टि से देखा जाये तो गैंग्स ऑफ वासेपुर अव्यवस्था और असभ्य आचरण की पराकाष्ठा था, उसमें रहने वालों के मन को टटोले तो वह जीवन के संघर्ष का अनियन्त्रित पथ। जब अव्यवस्था हो तो हर वस्तु और हर विचार के लिये संघर्ष होता है। बिना व्यवस्था विकास नहीं, बिना विकास पुनः संघर्ष, वह भी अनियन्त्रित। गैंग ऑफ वासेपुर में, हो सकता है कि घटनाओं को अतिरंजित और महिमामंडित कर के चित्रित किया गया हो, पर किसी भी स्थान के यथार्थ में स्थिति बहुत अधिक दूर नहीं होगी, कालचक्र देर सबेर वहाँ पहुँचा ही देगा।
जो लोग यथार्थ के इस पक्ष से साक्षात्कार करने से वंचित रह गये हों, उन्हें इस फिल्म का भावार्थ बताया जा सकता है। लूट-खसोट की पर्याप्त संभावनाओं में बाहुबलियों का उदय, हत्या आदि से उत्पन्न किये भय के माध्यम से वर्चस्व की होड़, क्षेत्रों के अतिक्रमणों में संघर्ष और अन्त में सर्वनाश। ये चक्र पुनः उदय होते हैं, कभी छोटे, कभी बड़े, भिन्न भिन्न नामों से, भिन्न भिन्न रूपों से। ये छोटे छोटे उन ब्लैक होलों जैसे होते हैं जो आस पास की सभी चीजों को उदरस्थ कर जाते हैं, विकास को, शिक्षा को, नैतिकता को, संस्कृति को, सहजीवन को। यही नहीं, इनके अन्दर जाकर समय भी अपना अस्तित्व खो देता है, अंघायुग भला और क्या होता होगा, जब काल भी अंधकार में डूब जाये।
अभी कुछ दिन पहले सब टीवी में एक धारावाहिक चिड़ियाघर देख रहा था, एक वाक्य बड़ा प्रासंगिक लगा। 'जब विनाश होता है तो बहुत शोर होता है, निर्माण चुपचाप होता रहता है'। सच ही है, पेड़ एक बीज के आकार से महाकाय हो जाता है, बिना हल्ला किये, धीरे धीरे अपने अवयव धरा से और आसमान से ग्रहण करते हुये बढ़ता रहता है। पर जब वही वृक्ष गिरता है तो तुमुल नाद सुनायी पड़ता है, चारों ओर। संस्कार धीरे धीरे व्यक्तित्व बनाते हैं, कई वर्षों तक, पर जब वह चरित्र टूटता है, मन चीत्कार कर उठता है। अब शोर चाहे गैंग्स ऑफ वासेपुर की हिंसा का हो या वर्तमान की घटनाओं से उपजे जनमानस के आक्रोश का, कुछ न कुछ विनाश की ओर अग्रसर है। जो भी टूटेगा, वह कोई एक दिन में तैयार नहीं हुआ होगा, वह कई दिनों से बन रहा होगा, कई दिनों से धीरे धीरे मन में घर कर रहा होगा।
समाज की गति बहुधा दिखती नहीं है, उसकी गति का अनुमान हम लक्षणों से ही लगाते हैं। लक्षण जब घातक होते हैं, हम उपचार का सोचते हैं, हर तरह के संबद्ध और असंबद्ध कारणों पर दोष मढ़ना प्रारम्भ कर देते हैं, हल्ला मचने लगता है। अभी देखें तो हल्ला नहीं, वरन छीछालेदर मची हुयी। मनीषजी के ब्लॉग पर 'दिल छीछीलेदर' गाने को देखा तो सारा घटनाक्रम इस फिल्म से अनुनादित होता हुआ सा लगने लगा।
यह छीछालेदर कहाँ से प्रारम्भ हुयी होगी? बचपन में एक कहानी सुनी थी। एक लड़का कहीं से कुछ चोरी करके लाया, उसकी माँ ने रोका नहीं। धीरे धीरे उसकी हिम्मत और बढ़ गयी, बड़ी बड़ी चोरियाँ करने लग गया, कालान्तर में पूर्ण विकसित डकैत बन गया। पकड़ा गया, फाँसी के पहले अन्तिम इच्छा पूछी गयी तो माँ के कान में कुछ कहना चाहा। कहने के बहाने माँ का कान काट खाया, पूछने पर बताया कि यदि बचपन में माँ ने पहली चोरी पर ही रोक दिया होता तो यह स्थिति न आती। कहीं न कहीं तो आँख मूँदी गयी होंगी, कई बार जानकर भी कुछ नहीं बोला गया होगा, कई बार किसी कठिनाई में पड़ने पर बचाया भी गया होगा। नकारात्मकता एक दिन में तो विकसित नहीं होती है, कई लोगों का हाथ रहा होगा, कई घटनाओं का हाथ रहा होगा।
समाज में परिवर्तन की गति बहुत धीमी होती है, यही कारण है कि छीछालेदर दिखायी नहीं पड़ती है, वीभत्स नहीं लगती है, पर अन्दर ही अन्दर होती रहती है। विरोध तभी होता है जब असहनीय हो जाता है। यदि छोटी छोटी बातों को गम्भीरता से लिया जायेगा तभी यह सम्भव हो सकेगा कि कोई बड़ी छीछालेदर न फैले। निश्चय ही कानून व्यवस्था अपना कार्य करती है, अपवादों को चिन्हित करती है और उन्हे दण्डित करा के एक उदाहरण स्थापित करती है कि भविष्य में यह न फैले। पर अव्यवस्था का परिमाण इतना अधिक हो चुका है कि उसके लिये छीछालेदर से अधिक उपयुक्त कोई शब्द नहीं। कानून और न्याय व्यवस्था निश्चय ही इतना सब समेटने में सक्षम नहीं, उसकी भी अपनी सीमायें हैं, उसमें भी वही लोग हैं जो समाज का ही अंग हैं, उनके अन्दर भी वही गुण दोष हैं जो समाज में व्याप्त हैं, उनके अन्दर भी वही मूल्य हैं जो समाज के सम्मिलित मूल्य हैं।
छीछालेदर पर बहुत तेजी से फैलती है, संक्रमित होती है। इस अवस्था में सर्वाधिक हानि उनकी होती है जो सज्जन होते हैं, उनके अन्दर वह प्रतिरोधक क्षमता नहीं विकसित हो पाती है जिससे वे स्वयं को बचा सकें। अपवाद बनने से अच्छा है कि समाज की धार में बह चलें, एक आध दोष स्वीकार्य होने लगते हैं, एक आध दोष इंगित करने से छोड़ दिये जाते हैं, अपनत्व दोषों से अधिक महत्व पा जाता है, दोष शक्ति का पर्याय बनने लगते हैं, शक्ति दूषित होने लगती है।
संस्कृतियों पर कटाक्ष समाधान नहीं है, समाज एक प्रक्रिया से होकर निकला है, छीछालेदर एक दिन में नहीं फैली है, दशकों ने इसे सहारा दिया है। जब प्रक्रिया से दोष उपजे हैं तो प्रक्रिया से दूर भी होंगे, प्रक्रिया लम्बी होगी, प्रक्रिया पीड़ायुक्त होगी, प्रक्रिया प्रतीक्षा करवायेगी। तीस दिन में अंग्रेजी सिखाने वालों की तरह समाधान देने वालों के वक्तव्य बड़े सीमित दृष्टिकोण के दोष से ग्रसित हैं। तीस दिन सब ठीक हो जाने की आस रखने वाले अतिआशावादी हैं। दिल छीछालेदर है तो आनन्द छीछालेदरी में ही आयेगा। छीछालेदर समेटने में बहुत श्रम लगेगा, साथ ही साथ यह भी तो निश्चित करना होगा कि कोई और कहीं पर भविष्य के लिये छीछालेदर फैला तो नहीं रहा है? समाज का छीछालेदर आज से ही समेटना प्रारम्भ कर दीजिये। हो सकता है कि आज सड़क पर छीछालेदर पड़ा हो, कल हवा चलेगी तो आपके यहाँ भी उड़कर आ जायेगा यह छीछालेदर।
छोड़िये वह सब, आप गैंग्स ऑफ वासेपुर की ही छीछालेदर सुन लीजिये।
गैंग्स ऑफ वासेपुर की छीछालेदर की छीछालेदर :)
ReplyDeleteऐसी छिछालेदर हम खुद कराते है,बाद मे चिल्लाते है .
ReplyDeleteसभ्यता की छीछालेदर शनै शनै प्रसारित होती रहती है.
ReplyDeleteडरा दिया आपकी छीछालेदर ने :))
ReplyDeleteसोंचते हैं ...वैसे सोंच तो न जाने कब से रहे हैं !!
सत्य से रूबरू कराती एक बेहतरीन समीक्षा |आभार
ReplyDeleteबढ़िया है आदरणीय ||
ReplyDeleteyahi ho raha hai
ReplyDeleteबहुत संयोजित ढंग से ये आलेख आपने प्रस्तुत किया है !
ReplyDeleteआपकी बात से सहमत हूँ मैं !
(ये फिल्म हमने देखी नहीं ! )
~सादर!!!
समाज का सत्य तो यही है ... पर हम सबका सत्य ही यही है ... जरूरतानुसार सब आँखें मूंदते हैं ...
ReplyDeleteअच्छी छीछालेदर की है आपने ...
जो सामने है वह पिछले 65 साल की करनी है हमारी !
ReplyDeleteगैंग ऑफ वासेपुर में दिखाई गई घटनाओं के बारे में वहां के स्थानीय लोगों का कहना है कि वह एकदम सही हैं.
ReplyDeleteफिल्म के एक गाने से लेकर समाज में हो रही छीछालेदारी तक सार्थक चिंतन.
प्रसंग पर सुसंगत शोधनीय विचार-प्रवाह........आपके सुझावों के व्यवह्रत होने की शुभकामनाएं।
ReplyDeleteहाँ अब यह छीछालेदर क्या करके जाता है यह देखना बाकी है.. कुछ तो होने वाला है..
ReplyDeleteये छीछालेदर तो आज का फैशन बन गया है ..
ReplyDeleteजब शिक्षा में संस्कार की बात कही गयी तो शिक्षा के भगवाकरण का दोष मढ दिया गया। अब जहां भी नैतिक संस्कार हो उसी की शिक्षा दो, लेकिन दो तो सही।
ReplyDeleteआजकल बस यही तो रह गया है.
ReplyDeleteरामराम.
दुखद यह कि हम यह सब जानते समझते हैं पर विनाश होने तक , वो शोर मचने तक स्वयं शांति से बैठे रहते हैं.......सार्थक लेख जो चिंतित करता है हमारी सामाजिक अव्यवस्था को लेकर
ReplyDeleteइस तरह की फ़िल्में तो सच ही दिखाती हैं। बस हम ही अनदेखा कर देते हैं।
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट की चर्चा 10-01-2013 के चर्चा मंच पर है
ReplyDeleteकृपया पधारें और अपने बहुमूल्य विचारों से अवगत करवाएं
तस्मात् युध्यस्व भारत - ब्लॉग बुलेटिन आज की ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteनिर्माण सहस्रों वर्ष का समय लेता है किन्तु विनाश क्षण भर में।
ReplyDeleteबेहतरीन आलेख। बड़ा सही आकलन किया है आपने इस सामाजिक छीछालेदर का।
ReplyDeleteअच्छा ही हुआ जो फिल्म नहीं देखी। देख ली होती तो इस छीछालेदारी का आनन्द शायद ही मिल पाता।
ReplyDeletebahut satik.....aabhar
ReplyDeleteपरिणाम कुछ तो हो
ReplyDeleteऐसी फ़िल्में सच्चाई दिखाती हैं ये अलग बात है कि दिखाने से ज्यादा ये नकारात्मकता को ग्लोरीफ़ाई कर जाती हैं।
ReplyDeletesundar samiksha
ReplyDeleteसूक्ष्म समीक्षा...
ReplyDeleteसोच ही रहे हैं , किस तरह नासूर हुआ !
ReplyDeleteआपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 10 -01 -2013 को यहाँ भी है
ReplyDelete....
सड़कों पर आन्दोलन सही पर देहरी के भीतर भी झांकें.... आज की हलचल में.... संगीता स्वरूप. .
विचारणीय प्रस्तुति .छोटा अपराध ही बड़े को जन्म देता है बस आप छोटे अपराध की अनदेखी कर दीजिये .एक लड़का लड़की के पीछे गाता आ रहा है .आप कहते हैं गाना ही तो गा रहा है मनचला
ReplyDeleteहै क्या मनचला होना छिछोरे पन का सड़कों पे प्रदर्शन करना संविधान स्वीकृत है कल को यही यही लड़का पीछे से कपड़े फाड़ेगा ,परसों .....जीरो टोलरेंस ज़रूरी है अपराध के प्रति अनदेखी
घातक
सिद्ध होती है .
विचारणीय प्रस्तुति .छोटा अपराध ही बड़े को जन्म देता है बस आप छोटे अपराध की अनदेखी कर दीजिये .एक लड़का लड़की के पीछे गाता आ रहा है .आप कहते हैं गाना ही तो गा रहा है मनचला
ReplyDeleteहै क्या मनचला होना छिछोरे पन का सड़कों पे प्रदर्शन करना संविधान स्वीकृत है कल को यही यही लड़का पीछे से कपड़े फाड़ेगा ,परसों .....जीरो टोलरेंस ज़रूरी है अपराध के प्रति अनदेखी
घातक
सिद्ध होती है .
दिल छीछालेदर है तो आनन्द छीछालेदरी में ही आयेगा। छीछालेदर समेटने में बहुत श्रम लगेगा, साथ ही साथ यह भी तो निश्चित करना होगा कि कोई और कहीं पर भविष्य के लिये छीछालेदर फैला तो नहीं रहा है? समाज का छीछालेदर आज से ही समेटना प्रारम्भ कर दीजिये। हो सकता है कि आज सड़क पर छीछालेदर पड़ा हो, कल हवा चलेगी तो आपके यहाँ भी उड़कर आ जायेगा यह छीछालेदर।
ReplyDeleteबहुत सार्थक चिंतन .... सच है ये परिवर्तन धीरे धीरे होता है जिसका एहसास नहीं होता ..... विचारणीय लेख
Once again goof one
ReplyDeleteसार्थकता लिये सशक्त लेखन ... आभार
ReplyDeleteसशक्त आलेख,सही आकलन किया है सामाजिक छीछालेदर का,,,,,,
ReplyDeleterecent post : जन-जन का सहयोग चाहिए...
bahut khub
ReplyDelete६५ साल में जो समाज में परिवर्तन हुआ हुआ..उसका बस विस्फोट होना बाकी है ..[उस में भी देर नहीं है]तब ही धमाके की आवाज़ से समझ पायेंगे कि क्या पाया, क्या खोया इस समाज ने !.
ReplyDeleteआप तो छिछालेदरी भी सलीके से करते हैं .....वाह ।
ReplyDelete
ReplyDeleteपरिवेश प्रधान फ़िल्में अपने समय से संवाद करतीं हैं तीसरी कसम हो या वासेपुर .......बढ़िया प्रस्तुति .
gangs of vasepur ke dono part dekhe ...aapki baat se sahmat hu jad kahi gahrai me hoti hai
ReplyDeleteसार्थक चिंतन के साथ बहुत बढ़िया समीक्षा
ReplyDeleteचाह को सही रास्ता मिलना चाहिए, नहीं तो वह गलत रास्तों पर ले जाएगी। आत्म केन्द्रित होकर जीने की चाह का दौर है। सब कुछ अभी चाहिए, सिर्फ मुझे चाहिए की मानसिकता से उबरना होगा। नहीं तो हम विनाश की ओर ही बढ़ रहे हैं।
ReplyDeleteफिल्म का गीत अच्छा नहीं लगा।
आप भी तारीफ कर रहे हैं तो ये फिल्म देखनी ही पड़ेगी।
ReplyDeleteफिल्म को तो हमने भी देखा पर आपने तो उसके एक गाने पर ही एक विचारपूर्ण निबन्ध ही लिख दिया ।
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