पहले ही स्पष्ट कर दूँ कि यह लेख पूर्णतया व्यक्तिगत अनुभवों और लेखक की सीमित बौद्धिक क्षमताओं के आधार पर ही लिखा गया है। जीवन में संस्कार, संस्कृति, शिक्षा, सामाजिकता आदि के अंश समुचित रूप से विद्यमान रहते हैं अतः विचार प्रक्रिया में उनका उपस्थित रहना स्वाभाविक है। विचार पद्धतियों के मत भिन्न हो सकते हैं, एक छोर पर बैठे व्यक्ति को दूसरा छोर स्पष्ट न दिखता हो, पर बिना दोनों छोरों को समाहित किये कोई संगठित सूत्र निकलना कठिन होता है। दूसरे तथ्यों और सत्यों की उपस्थिति हीन सिद्ध कर देना भले ही बौद्धिक धरातल पर विजय ले आये पर वह विजय समाज की विजय नहीं हो सकती। जीवन एकान्त या घर्षण में नहीं जिया जा सकता है, एक राह निकलनी ही होती है, सबके चलने के लिये। एकरंगी आदर्श की तुलना में बहुरंगी यथार्थ ही सबको भाता है, वही समाज की भी राह होती है।
बहुत दिनों से इस विषय पर लिखना चाह रहा था, पर पिछले माह हुये घटनाक्रम और सामाजिक परिवेश में मचे हाहाकार ने इस विषय पर चिन्तन के सारे कपाट बन्द कर दिये। लगा कहीं कुछ भी ऐसा लिख दिया जो परोक्ष रूप से भी हाहाकार के स्वर में नहीं हुआ तो हमारी मानसिकता को दोषी मान उसे भी कटघरे में खड़ा कर दिया जायेगा। एक पक्षीय संवेदनशीलता को दूसरी ओर से संवेदनहीनता घोषित कर दिया जायेगा। वादी, विवादी, संवादी, न जाने कितने स्वर उठ खड़े होंगे। भिन्न वादों के बादल धीरे धीरे छट रहे हैं, विवादों के स्वर मंद पड़ रहे हैं, संभवतः यही समय है कि विगत विचारों को संघनित कर एक सार्थक संवाद किया जाये, उन समस्याओं पर जो हमें व्यथित किये हैं, उस मूलभूत माध्यम से जो हम सबको छूकर निकलता है।
पुरुषों के प्रति अपराध और महिलाओं द्वारा महिलाओं के प्रति किये अपराध विषयक्षेत्र से बाहर रखे गये हैं। यह लेख मात्र पुरुषों के द्वारा महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराधों पर ही केन्द्रित है और उसी में ही सीमित रहेगा। यद्यपि तीनों प्रकार के अपराध समाज में विद्यमान है और एक दूसरे से प्रभावित भी, पर पुरुषों के द्वारा महिलाओं के प्रति किये गये अपराध कहीं अधिक मात्रा में हैं और कहीं अधिक संवेदनहीन हैं। यदि मात्र उनके कारणों की विवेचना व निदान कर लिया जाये तो शेष दो स्वयं ही सध जायेंगे।
समाज परिवारों से बनता है, परिवार संबंधों से बनते हैं, संबंध व्यक्तियों के बीच पल्लवित होते हैं। यदि समाज के किसी विकार का विश्लेषण करना हो तो चिन्तनपथ संबंधों से होकर जायेगा। मेरी वर्तमान स्थिति में वह प्रमुखतः ४ संबंधों से होकर निकलता है, माँ, बहन, पत्नी और बेटी। कई लोगों के लिये यह चारों संबंध भले ही उपस्थित न हों, पर हमारा अस्तित्व माँ के संबंध और उपकार का ही प्रतिफल है। यह एक विमा तो बनी ही रहेगी, जन्म हुआ है तो संबंध भी बना है। प्रस्तुत लेख में मेरा आग्रह और विचारदिशा बस यही दिखाने की रहेगी कि यदि इन चार संबंधों की संवेदनशीलता को जिया जाये और उसे सदा याद रखा जाये तो उपस्थित समस्या का सहज निदान ढूढ़ा जा सकता है।
माँ की महानता को उजागर करता हुआ पूरा का पूरा साहित्य है, पूरा का पूरा भावनात्मक पक्ष है। जीवन देने से लेकर लालन पालन तक माँ के ममत्व का कोई मोल नहीं, बस उसे एक पक्षीय अहैतुक कृपा ही मानी जायेगी। ममत्व बड़ा ही प्राकृतिक है, हर जीव में विद्यमान है, सब जानते हैं कि किस तरह अपनी संतानों की रक्षा करनी है। यदि किसी भी वस्तु के प्रति कृतज्ञता प्रथम वरीयता में खड़ी है तो वह है माँ की ममता। ऐसा नहीं है कि एक पुत्र इस तथ्य को नहीं जानता है, कोई भी औसत बुद्धि वाले के लिये यह निष्कर्ष निकालना कठिन नहीं है और पुत्र की मौलिक विचारप्रवाहों में इसका महत्व रहता भी है। तब कुछ लोगों में महिलाओं के प्रति आदर क्षीण कैसे होता है, यहाँ तक कि कैसे अपनी ही वृद्ध माताओं को उनके पुत्र ध्यान नहीं देते। उत्तर संभवतः उनके परिवार में ही छिपा रहता है। बच्चे अपने माँ और पिता के संबंधों को ही देख कर सीखते हैं, उन्हें ही अपना आदर्श मानते हैं। उनका आपसी व्यवहार पुत्र के लिये बहुत महत्वपूर्ण होता है।
अब जिन परिवारों में पत्नी को प्यार व सम्मान नहीं मिलेगा, वहाँ के बच्चे क्या देखेंगे और क्या सीखेंगे? जीवन की प्रथम शिक्षा ही यदि महिलाओं के प्रति अनादर की हुयी तो कहाँ तक माँ का किया उपकार बच्चों के मस्तिष्क में सर्वोपरि बना रहेगा। उसे भी लगने लगेगा कि ममता आदि सब भावनात्मक विषय हैं पर पारिवारिक परिस्थितियों में महिलाओं की यही स्थिति है, यही सम्मान है। माता पिता के बीच सामञ्जस्य के आभाव में दो तरह की मानसिकता ही विकसित होती है, या तो पुत्र पिता की तरह रुक्ष व असंवेदनशील हो जाता है या माँ के प्रति अपने उपकार से बद्ध अतिसंवेदनशील हो जाता है, भावुक हो जाता है। दोनों ही परिस्थितियाँ संतुलित विकास में अवरोध हैं। महिलाओं के प्रति हमारे व्यवहार के प्रथम बीज हमारे माता पिता ने ही बोये होते हैं। यदि किसी व्यक्ति ने महिला के प्रति कोई अपराध किया है तो प्रथम प्रश्न माता पिता पर उठना चाहिये, संभावना बहुत है कि उत्तर वहीं मिल जायेगा।
महिलायें आधी आबादी हैं, यदि उनके साथ निभा कर जीना नहीं आ पाया तो हम अर्धजगत से विलग ही अनुभव पा पायेंगे, अर्धशिक्षित ही रह जायेंगे। अनुभव की दूसरी शिक्षा बहन के माध्यम से आती है। हर घर में बहन होनी आवश्यक है, यदि घर में बहन नहीं होगी तो ममता के द्वारा प्राप्त महिलाओं के प्रति संवेदनशीलता भी घुल जाने का भय है तब। एक निकट संबंधी के परिवार को जानता हूँ, सारे पुत्र ही हैं, उनके घर का वातावरण काटने को दौड़ता है, किस समय वहाँ क्या बोल दिया जायेगा, पता नहीं चलता है। ऐसा नहीं है कि सारे परिवार ऐसे ही होते हैं पर बहन का घर में होना पुत्र को महिलाओं के प्रति और संवेदनशील बनाता है। मैं बुंदेलखण्ड से आता हूँ और वहाँ की एक मान्यता मुझे सदा आशा की किरण दिखाती है। वहाँ माँ की कोख तब तक शुद्ध नहीं मानी जाती जब तक वह किसी बिटिया को जन्म न दे दे। संभवतः मेरे घर में भी तीसरी सन्तान के रूप में मेरी छोटी बहन को आना इसी मान्यता की पुकार रही होगी। अत्यधिक पुत्रमोह और पुत्रियों को गर्भ में ही समाप्त कर देने की प्रथा न जाने कहाँ जन्मी, न जाने क्यों जन्मी, कहना कठिन है। पर वही प्रारम्भिक अपराध है, महिलाओं को प्रति और उनका बहनों के रूप में परिवार में न आना एक और कारण है, भाईयों के अन्दर वह संवेदनशीलता न उत्पन्न होने का, जो पुत्रों को संतुलित रूप से विकसित करने के लिये आवश्यक है।
तीसरा और महत्वपूर्ण पड़ाव पत्नी के रूप में आता है। इस पड़ाव में ही पुरुष की समझ और संवेदनशीलता विकसित और परिपक्व होती है, उसे साथ में मिलकर कार्य करने वाला साथी मिलता है। अब तक वह परिवार का अंग रहता था, पत्नी के आने के बाद उस पर परिवार चलाने का उत्तरदायित्व भी आ जाता है। जब मिलकर किसी एक ध्येय के लिये दो लोग कार्य करते हैं, एक दूसरे को समझने के लिये उससे अच्छा माध्यम नहीं हो सकता है। परिवार के माध्यम से समाज से जुड़ना, दूसरे पक्ष के संबंधियों से जुड़ना, समाज को और अधिक समझ पाना, ये सब उस प्रक्रिया का अंग है जो हमें समाज के रूप में रहना सिखाती है। बच्चों को एक प्रभावी नागरिक के रूप में विकसित करना और उन्हें समाज और विशेषकर महिलाओं के प्रति संवेदनशील बनाना, परिवार का ही कार्य है। एक प्रसन्न परिवार संवेदनाओं का केन्द्र होता है, यही वह केन्द्र है जिसका सुचारु और अधिकारपूर्ण संचालन महिलाओं के प्रति अपराधों पर सशक्त नियन्त्रण रख सकता है।
चौथा और सर्वाधिक मधुर संबंध बिटिया का होता है। प्रथम तीन संबंधों में तो पुरुष ने केवल कुछ ग्रहण ही किया होता है, यह वह समय होता है जब कुछ देने की स्थिति में होते हैं हम। किसी बिटिया को पालना और बड़े होते देखना ही महिलाओं की संवेदना समुचित समझने का माध्यम है। व्यक्तिगत अनुभव से ही कह सकता हूँ कि पुरुष के दायित्वबोध का निष्पादन बिटिया के लालन पालन में ही उभर कर आता है, पुरुष के रुक्ष भाव उसी समय अपनी गाँठ खोल देते हैं, पितृत्व के निर्वाह में ही पूर्णता पाता है पुरुष का अस्तित्व। जब आप एक के प्रति लालन पालन का भाव लेकर जी रहे होते हैं तो किसी अन्य के प्रति अपराध का भाव भी कैसे ला सकते हैं।
जो इन चारों संबंधों को पर्याप्त मान देता है, वह सहायक होता है सुख में, समृद्धि में, वह सहायक होता है सभ्यता को उत्कृष्ट स्थान पर पहुँचाने के लिये, वह सहायक होता है ऐसी मानसिकता फैलाने में जहाँ सबका समुचित सम्मान हो, सबका समुचित आदर हो। फिर भी ऐसे तत्व बने रहेंगे जो सधा सधाया संतुलन बिगाड़ने का प्रयत्न करेंगे। कानून व्यवस्था ऐसे ही अपवादों से निपटने के लिये बनी है, सामाजिक व्यवस्था को यथा रूप चलने देने के लिये। वृहद बदलाव पर अन्दर से आता है, भव्यता का प्रकटीकरण पहले हृदय के अन्दर होता है तब कहीं वह वास्तविकता में ढलता है। जो चार संबंध हमें सर्वाधिक प्रिय हैं, उन्हीं में हमारी सामाजिक स्थिरता व संतुलन के बीज छिपे हैं। उन्हीं को साधने से सब सध जायेगा, शेष साधने के लिये तन्त्र उपस्थित हैं।
मुझे बड़ा ही आश्चर्य लगा कि अब तक मचे हाहाकार में कठिनतम दण्ड की बात तो सबने की, जो निसंदेह आवश्यक भी है, पर संबंधों के जिन सशक्त तन्तुओं से एक सार्वजनिक चेतना का विकास संभव था, उस पर सब मौन रहे। अधिकारों की लड़ाई खिंचती है, तनाव लाती है। संबंधों की उपासना जोड़ती है, आनन्द लाती है। हमारे सामूहिक कलंक के मुक्ति का मार्ग संभवतः यही है कि हम सब अपने इन चार संबंधों को प्रगाढ़ करें, और संवेदनशील करें।
सर इस सारगर्भित लेख के लिए और राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित होने के लिए आपको बहुत -बहुत बधाई |
ReplyDeleteहर बिंदु को रेखांकित करता सधा हुआ आलेख....... महिलाओं के प्रति सम्मान और संवेदनशीलता की सीख परिवार के रिश्ते नातों से ही मिल सकती है | जो निश्चित रूप से किसी भी कानून से ज्यादा प्रभावी और सार्थक सिद्ध होगी......
ReplyDelete...आपने यथार्थ के धरातल पर आधी आबादी और उससे संबंधों के बारे में कहा है ।
ReplyDeleteबड़ा ही सुन्दर और तार्किक विश्लेषण किया है. लेखन में भी भविष्य उज्जवल है. :)
ReplyDeleteमुझे बड़ा ही आश्चर्य लगा कि अब तक मचे हाहाकार में कठिनतम दण्ड की बात तो सबने की, जो निसंदेह आवश्यक भी है, पर संबंधों के जिन सशक्त तन्तुओं से एक सार्वजनिक चेतना का विकास संभव था, उस पर सब मौन रहे। अधिकारों की लड़ाई खिंचती है, तनाव लाती है। संबंधों की उपासना जोड़ती है, आनन्द लाती है। हमारे सामूहिक कलंक के मुक्ति का मार्ग संभवतः यही है कि हम सब अपने इन चार संबंधों को प्रगाढ़ करें, और संवेदनशील करें।
ReplyDeletein this world there are instances where a father a brother rapes the daughter / sister . i know of a family where the son tried to rape his mother
i know a family where a sister and brother have a sexual relationship and enjoy it too
its not about relationships its about criminality against woman
most people never harm a woman they are related to because she happens to be mother or sister or daughter or wife to them but the moment she is not related to them she becomes a WOMAN
such articles only try to focus on issues that have been talked often but they dont talk about issues where relationships dont come into picture
criminality against woman is just to show that "man still has a upper hand "
think about it praveen
इस दुनिया में एक पिता एक भाई अपनी पुत्री और बहिन का बलात्कार करता हैं , मै एक ऐसे परिवार को जानती हूँ जहां एक बेटे ने अपनी माँ का बलात्कार करने की कोशिश की और दुसरे परिवार में एक भाई बहिन पति पत्नी की तरह रहते हैं
Deleteये सब जो हुआ हैं वो नारी के प्रति हिंसा में आता हैं इसका रिश्तो और संबंधो से कोई लेना देना है ही नहीं
बहुत से लोग उन महिला के प्रति हिंसक नहीं होते जो रिश्ते में उनकी माँ , बहिन , बीवी या बेटी हैं लेकिन अगर रिश्ता नहीं हैं तो उनके लिये वो महज एक महिला हैं यानी एक शरीर मात्र
ऐसे आर्टिकल केवल उन विषयों पर बात करते हैं जिन पर बहुत बाते हो चुकी हैं बुत वो उन पर बात नहीं करते जहां कोई सम्बन्ध की बात ना हो
नारी के प्रति हिंसक होना केवल पुरुष का अपने को "बलवान " और " उच्च " सिद्ध करना होता हैं
यह विषय समाज शास्त्रियों का है , लाखों परिवार अलग अलग संस्कार और परिवेश में रहे हैं , इन सबके मुखिया अलग स्वभाव और व्यवहार रखते थे और घरों के मुखिया कहीं औरत और कहीं पुरुष रहे हैं ! हर एक से सभ्य और सर्वमान्य आचारण की आशा करना केवल मूर्खता ही है !
Deleteआदिम कालीन व्यवस्था आज भी आचरण में है ....
सच कहा -रचना जी ..यह एक सामान्य आलेख है जो किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचता ...यह सब तो सदियों से कहा-पढ़ा जाता रहा है ...प्रश्न है आज ऐसा क्या हुआ जो यह अति की स्थिति सामने आ रही है ---- वस्तुतः जो आप उदहारण आदि दे रही हैं वे सारे उदाहरण साक्षात आपके इंटरनेट, पुस्तकें,सीडी अदि पर कहानियों-ब्लू-फिल्मों आदि के रूप में खुले में मौजूद हैं हज़ारों विविधताओं के रूप में ..जो स्वस्थ मस्तिश्क को भी प्रदूषित करते हैं ...वही... खुलापन ही इन मामलों के बढ़ने की कारण हैं ....
Deleteमैं नहीं मानता कि खुलापन ही इन मामलों के बढ़ने के कारण हैं. खुलापन बढ़ने के कारण से ही ऐसे मामले भी खुलकर सामने आने लगे हैं. वरना पहले तो लोक-लाज का भय दिखा कर ऐसे मामलों को दबा दिया जाता था.
Deleteइस दामिनी प्रकरण के बाद ही अचानक से गैंग रेप के केस की बाढ़ क्यों आई? लोग खुलकर इसके विरोध में आये, इसलिए. नहीं तो क्या पहले गैंग रेप नहीं होते थे क्या?
महिलाओं के सम्मान के बिना समाज अधूरा है, इनकी सुरक्षा समाज का प्रथम दायित्व होना चाहिए ...
ReplyDeleteआभार एक अच्छे लेख के लिए !
और समाज कौन व क्या है सकसेना जी.....स्त्री-पुरुष दोनों ....
DeleteKya aadhi aabadi ka astitav kewal aur kewal maa beti bahin aur patni hi haen uskae itar unki suraksha nahin honi chahiyae
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Deleteक्या बात कही है ...सही ..रचना जी....अपनी माँ-बहन, माँ-बहन; दूसरे की माँ-बहन-बेटी ..भोग्या ...यह तो तमाम अच्छे-अच्छे परिवारों में देखा जाता है....
Delete--परन्तु आलेख में एक मूल भाव दिया गया है यदि परिवार में स्त्री का सम्मान है तो वह व्यक्ति भी वही भाव सीखेगा...यद्यपि यह सदैव आवश्यक नहीं होता, ( रावण जो अपनी बहन शूर्पणखा के लिए युद्ध छेड़ सकता है ,एक सप्तर्षि पुलस्त्य का नाती व महान ऋषि विश्रवा का पुत्र होते हुए भी एसा क्यों हुआ...शूर्पणखा रावण जैसे अति-विद्वान् भाई की बहन होते हुए भी राम-लक्ष्मण से एसा प्रस्ताव कैसे रख पाई )परन्तु अधिक चांस तो होते ही हैं......
---- पारिवारिक-सामाजिक परिस्थितियों के साथ ..अति-भौतिकता, अनीश्वर-वादिता, अहं,धनबल,सत्ताबल-मद के साथ सरलता से उपलब्धता भी एक विशेष कारण हैं ...
--- मानव-मात्र को एक समान समझना ही उपाय है..
'समानी अकूती समामस्तु वो मनो ...."
बस यही कहूंगा;
ReplyDeleteजाके पाँव न फटी बिवाई सो कत जाने पीर पराई।
जाके अंतर दरद न पाई।।
सह की सार सुहागनी जाने। तज अभिमान सुख रलीआ माने।
तन मन देइ न अंतर राखे। अवरा देखि न सुने अभाखे।।
दुखी दुहागनि दुइ पख हीनी। जिन नाह निरंतहि भगति न कीनी।
पुरसलात का पंथु दुहेला। संग न साथी गवनु इकेला।
हर व्यक्ति की अपनी एक सोच और विचारधारा होती है
ReplyDelete.आवश्यक नहीं की सभी एक जैसा ही महसूस करें या किसी बात को एक ही प्रकार समझें.ये सब कुछ हद तक तो प्रभावित करते हैं किन्तु और भी बातें प्रभावित करती हैं। इतना सहज ही नहीं सब शायद.रचना जी ने जो कहा है वो भी तो इसी समाज की बात है। क्या मानव पतन की दिशा में बढ़ रहा या ये कोई चक्र था की एक छोर दुसरे छोर को छूने जा रहा? पशुता की ओर ? क्या कारण है की समाज के सभ्य नियमों को तोड़ने वाला ग्लानि भी नहीं महसूस करता ?
--- सही कहा ...
Deleteसमाज के सभ्य नियमों को तोड़ने वाला---( तथाकथित सभ्य व्यक्ति भी )--- ग्लानि भी नहीं महसूस करता ?
भारतीय संस्कृति में मातृसत्तात्मक परिवार थे लेकिन वर्तमान में पत्नी सत्तात्मक परिवार बनते जा रहे हैं। इसी कारण माँ उपेक्षित हो जाती है और केवल पत्नी ही सर्वोपरी बन जाती है। इसका दुष्परिणाम समाज में भी दिखायी देता है जब हम परिवार को दरकिनार करते हुए केवल व्यक्ति रह जाते हैं। केवल स्त्री और पुरुष। ये ही सारे अपराधों की जड़ है।
ReplyDeleteसही कहा अजित जी...सहमत --
Deleteसुन्दर और तार्किक
ReplyDeleteविश्लेषण
@सामाजिक परिवेश में मचे हाहाकार ने इस
ReplyDeleteविषय पर चिन्तन के सारे कपाट बन्द कर
दिये। लगा कहीं कुछ भी ऐसा लिख
दिया जो परोक्ष रूप से भी हाहाकार के स्वर
में नहीं हुआ
तो हमारी मानसिकता को दोषी मान उसे
भी कटघरे में खड़ा कर दिया जायेगा। एक
पक्षीय संवेदनशीलता को दूसरी ओर से
संवेदनहीनता घोषित कर दिया जायेगा ye bhi ek samasya hai aur aisa kewal purushon ke saath nahin hota. par in baaton par dhayan dene ki bajaay sabhi ko apni baat kahni chahiye chahe wo purush ho ya mahila.
सब जानते हैं मगर मानते नहीं या मानना नहीं चाहते
ReplyDeleteसमस्या मात्र स्त्री शोषण की नहीं है ... सही स्त्री-पुरुष दम तोड़ रहे, कानून तो गलत के लिए सोने पे सुहागा है
ReplyDeleteबहुत सही बात कही है आपने .सार्थक भावनात्मक प्रस्तुति मानवाधिकार व् कानून :क्या अपराधियों के लिए ही बने हैं ? आप भी जाने इच्छा मृत्यु व् आत्महत्या :नियति व् मजबूरी
ReplyDeleteप्रसंग का इष्टतम विश्लेषण। पूर्णत: सहमत। हिन्दी भाषा आपको बहुत-बहुत धन्यवाद दे रही है।
ReplyDeleteआपने सही लिखा,,,,की अपने इन चार संबंधों को प्रगाढ़ करें, और संवेदनशील करें। तब शायद सामूहिक कलंक के मुक्ति का मार्ग संभवतः मिल जाए,,,,
ReplyDeleteबहुत ही सधा हुआ सुन्दर और तार्किक विश्लेषण .....बधाई
ReplyDeleteसार्थक विश्लेषण ...लेकिन यह सब काल्पनिक ही लगता है ।
ReplyDeleteहाँ संगीता जी सही कहा....परन्तु कल्पना को साकार बनाने का प्रयास तो किया ही जा सकता है...
Deleteदोनों ही पक्ष जरूरी है अपराधी को सजा देना भी और पारिवारिक संस्कार भी.
ReplyDeleteमैं इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ कि घर में पिता का माता के प्रति व्यवहार या परिवार में स्त्री का दर्जा ही काफी हद तक घर के बेटों का व्यक्तित्व बनाता या बिगाडता है.
आवश्यक नहीं बहुत से परिवारों में ..स्त्री का समुचित माँ होते हुए भी बच्चे गलत राह पर गए हैं... परिवार के साथ साथ वातावरण का प्रभाव बहुत आवश्यक होता है...शठ सुधरहिं सत-संगति पाई..... सभी जगह ..असत-संगती का बोल बाला है ''
Deleteसही दिशा बोध करता उत्तम आलेख . पुर्णतः सहमत .
ReplyDeleteएक बच्चे के लिए प्रथम स्कूल घर होता है जिस घर में स्त्री (उसमे माँ बहन बेटी पत्नी आती हैं )का सम्मान न हो तो भला बच्चा क्या सीखेगा बाहर की स्त्री का क्या सम्मान करेगा ,आपके आलेख का यही मर्म है जो बिलकुल सही और सार्थक है जो घर के माहौल में
ReplyDeleteयह शिक्षा प्राप्त नहीं करता तो उसके लिए तंत्र है जब तक ये दोनों मजबूत नहीं होंगे ये अपराध यूँ ही होते रहेंगे ,पुनः एक शानदार आलेख के लिए बधाई |
बिलकुल सही और सार्थक ..महिलाओं के सम्मान के बिना समाज अधूरा है,
ReplyDeleteआभार एक अच्छे लेख के लिए !
सम्मान तो उभयपक्षी होना चाहिए
ReplyDeleteहूँ...
Deleteकहा जाता है ना कि एक स्त्री अपने ही घर में सुरक्षित नहीं हैं तो बाहर क्या सुरक्षित रहेगी। आपने स्त्री के सम्मान में बहुत ही अच्छा लिखा..... आभार एक अच्छे लेख के लिए !
ReplyDeleteबहुत बढ़िया तार्किक विश्लेषण
ReplyDeleteआपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 31-01-2013 को यहाँ भी है
ReplyDelete....
आज की हलचल में.....मासूमियत के माप दंड / दामिनी नहीं मिलेगा तुम्हें न्याय ...
.. ....संगीता स्वरूप
. .
महिला सुरक्षा के मुद्दे को पूरी गंभीरता से उठाता और कारणों की पड़ताल करता लेख।
ReplyDeleteबहुत ही उत्तम कोटि का लेख और विचार हैं आपका यह लेख वाकई सहेजने लायक है !!
ReplyDeleteकाफी हद तक आपकी बात सही है ...
ReplyDeleteमगर ऐसे अपराध करने वाले लोगों की मानसिकता ही अलग क़िस्म की होती है ... विकृत होती है ... वो इतने frustrated होते हैं (अपने परिवार से, समाज से, अपनी आर्थिक स्थिति से ...या जिस भी माहौल से कहिये ...) कि उनके लिए ये सारी बातें कुछ मायने नहीं रखतीं ! अपराध करते समय उनमें सिर्फ गुस्सा ही भरा होता है ... जो शायद अपने से कमज़ोर पर निकाल कर वो खुद को ताक़तवर समझते हैं ... जो कि बहुत ही दुखभरी बात है .....
सादर !!!
"जिस घर में स्त्री (उसमे माँ बहन बेटी पत्नी आती हैं )का सम्मान न हो तो भला बच्चा क्या सीखेगा बाहर की स्त्री का क्या सम्मान करेगा ,--यही मर्म है परन्तु...
ReplyDeleteयह आवश्यक नहीं बहुत से परिवारों में ..स्त्री का समुचित मान होते हुए भी बच्चे गलत राह पर गए हैं... परिवार के साथ-साथ वातावरण का प्रभाव बहुत आवश्यक होता है...शठ सुधरहिं सत-संगति पाई..... सभी जगह ..असत-संगति का बोल बाला है जिसके दोषी...स्त्री-पुरुष दोनों ही हैं......
---- पारिवारिक-सामाजिक परिस्थितियों के साथ ..अति-भौतिकता, अनीश्वर-वादिता, अहं,धनबल,सत्ताबल-मद के साथ सरलता से उपलब्धता भी एक विशेष कारण हैं ...यही कारण है.
--- मानव-मात्र को एक समान समझना ही उपाय है..
'समानी अकूती समामस्तु वो मनो ...."
रचना जी का एक पक्ष है जो संस्कार के पल्लवन से ताल्लुक नहीं रखता .उनका सीधा सवाल है संबंधों से इतर महिला का अपना क्या वजूद है .प्रवीण जी अर्जित संस्कार की बात करते हैं जिसकी प्रथम
ReplyDeleteपाठशाला परिवार ही है यद्यपि आखिरी नहीं है .
आज बाहरी प्रभाव ज्यादा वजन लिए आ रहे हैं .बच्चे स्वतंत्र इकाई रूप बड़े होने लगें हैं किसी आया के हाथों ,किसी क्रेच में या आवासीय स्कूल में .संस्कार कौन सी पाठशाला में सिखाया जाता है ?
किसी को मालूम हो तो कृपया बतलाएं .यहाँ तो हर स्तर पर बच्चे को काबिल .अव्वल ,इम्तिहानी लाल बनाने की कवायद है .
महिला सम्मान और सुरक्षा आज का ज्वलंत प्रश्न है, एक सटीक आलेख के लिये बहुत आभार.
ReplyDeleteरामराम
जब तक दाम्पत्य-जीवन को सुकृत नहीं किया जाएगा तब तक महिलाओं का भविष्य असुरक्षित है .
ReplyDeleteसबकुछ आदमी की सोच पर निर्भर करता है ...
ReplyDeleteबहुत बढ़िया सारगर्भित आलेख ...
आभार...
बहुत सारगर्भित आलेख...अगर हम परिवार में माँ, पत्नी, बेटी और सभी स्त्रियों का सम्मान का भाव पैदा कर सकें तो यह नारी जाति के प्रति हिंसा को दूर करने में एक महत्वपूर्ण कदम होगा.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया आलेख...बधाई हो आपको
ReplyDeleteजीवन मूल्य बदल रहे हैं, बहुत कुछ बदल गया है और बहुत कुछ अभी बदलेगा।
ReplyDeleteवंशानुक्रम,जिसमें पारिवारिक संस्कार भी आते हैं, और वातावरण दोनों के प्रभाव व्यक्ति पर आते हैं .इसके सिवा संगत का असर भी.इन सब पर शुरू से ध्यान देना ही उचित है.
ReplyDeleteहै लेकिन अपराधी को दंड देना भी बहुत आवश्यक है
प्रवीण जी आपकी बात से पूर्णत: सहमत हूँ की बच्चों में स्त्री के प्रति सम्मान या असम्मान का भाव प्रस्फुटित करने में पारिवारिक वातावरण का बहुत बड़ा हाथ है ! आप ही के आलेख को आधार मान कर चंद सवाल करना चाहती हूँ आपसे ! जिस परिवार में पति अपनी पत्नी को समुचित सम्मान नहीं देता उस घर के बेटे भी अपनी माँ को सम्मान नहीं देते यही कहा ना आपने ?
ReplyDeleteदोष किसका है ? पति का या बेटों का या फिर अपमान के दंश झेलती उस स्त्री का ? यहाँ भी दोष उस परुष का है जो अपनी पत्नी को घर में सही स्थान और सम्मान नहीं देता ! बेटों की भूल को कुछ समय तक के लिए माफ़ किया जा सकता है जब तक वे मानसिक रूप से परिपक्व नहीं हैं लेकिन बड़े होने पर भी वे सही गलत का अंतर नहीं समझ पाते यह बात गले के नीचे नहीं उतरती !
शत्रु पक्ष के सैनिकों की आतातायी एवं आक्रामक वृत्तियों से अपने सतीत्व की रक्षा करने के उद्देश्य से ही मेवाड़ की स्त्रियों ने युद्ध के उपरान्त विधवा हो जाने पर जौहर करने की प्रथा को अपनाया था ! यहाँ भी स्त्रियों के इस तरह आत्मदाह करने के पीछे पुरुष का ही चेहरा सामने आता है !
बच्चियों को गर्भ में मार देने की मानसिकता के पीछे भी महिला के भयाक्रांत मन में निष्ठुर समाज की खराब रवायतों का खौफ ही ज़िम्मेदार होता है जिससे डर कर वह उस कन्या को जन्म देना नहीं चाहती जो संसार की सबसे खूबसूरत नियामत है ! और यह समाज पुरुषप्रधान है इस बात से तो आप भी इनकार नहीं करेंगे !
आवश्यकता इस बात की है कि पुरुष स्त्रियों के प्रति अपनी भोगवादी सोच को बदलें ! न्याय व्यवस्था में भी व्यापक सुधार एवं संशोधन होने चाहिए ! ऐसे जघन्य अपराधों के लिए सज़ा त्वरित और इतनी कठोर होनी चाहिए कि लोगों में भय का संचार हो और वे सपने में भी ऐसा कुछ करने से बचें !
सकारात्मकता की और प्रेरित करता आपका आलेख अच्छा लगा जिसने सही चिंतन को एक दिशा दी ! आभार आपका !
निश्चय ही कुछ न कुछ तो मानसिकता का प्रभाव है जो माता की इच्छा से तुरन्त वन चले वाले राम के देश के पुरुषों को हो गया है। मर्यादित आचरण तो दूर की बात, आपराधिक व्यवहार हावी होता जा रहा है। कहीं न कहीं तो आधार बनाना होगा, कहीं न कहीं तो आश्रय पाना होगा इस भटकाव को। निश्चय ही परिवार के संबंध प्रारम्भ हो सकते हैं इस बदलाव के।
Deleteसटीक आलेख एवं टिप्पणीविमर्श!!
ReplyDeleteपरिवार का विशुद्ध आचरण ही समाज को अपराध मुक्त करने में सहायक हो सकता है।
ReplyDeleteजीवन एकान्त या घर्षण में नहीं जिया जा सकता है, एक राह निकलनी ही होती है, सबके चलने के लिये। एकरंगी आदर्श की तुलना में बहुरंगी यथार्थ ही सबको भाता है, वही समाज की भी राह होती है...
ReplyDeleteबहुत सार्थक आलेख ....संस्कार तो परिवार से ही मिलते हैं .....और पति-पत्नी के आपसी रिश्तों की झलक बच्चों मे होती ही है ...!!
आपकी बात से पूर्णत: सहमत हूँ ... सार्थकता लिये सशक्त आलेख
ReplyDeleteआभार
स्कूल ,घर ,दफ्तर आज हर स्तर पर संस्कार के पल्लवन की बात चलाना ,चलाते रहना जरूरी हो गया है .अलबत्ता संस्कार की शुरुआत घर से ही होती है .विमर्श बढ़िया चल रहा है .एक बात ज़रूर
ReplyDeleteहै
जो कचोटती है मनको .आदमी (पुरुष )एक महिला को चाहे वह किसी भी उम्र की क्यों न हो ,जैसी भी वह है ,जो भी वह है ,जो कुछ भी वह पहने हुए है और जितना भी पहने हुए है ,उसे पचा नहीं पा
रहा
है .उसके निम्नान्गों से उच्चांगों की पैमाइश करता डोल रहा है .स्कूल कालिज और यूनिवर्सिटी भी इस बीमारी से मुक्त नहीं हैं .अभी कल ही एमएस यूनिवर्सिटी ,गुजरात के दीक्षांत समारोह के
मौके
पर आयजित एक कार्यक्रम में एक छात्रा को मिनी स्कर्ट में पश्चिमी नृत्य नहीं करने दिया गया .उसे जींस पहने के आने के लिए कहा गया तभी अनुमति मिली जब वह जींस पहनके आई . .एक
महिला कोलिज में (आदर्श
कोलिज
भिवानी )इतर भी ऐसे महाविद्यालय हैं जहां जींस टॉप पहन के आना वर्जित है .इस सबसे क्या सिद्ध होता है .औरत की देह का समाज अतिक्रमण नहीं कर पा रहा है .उसका चेहरा ,आत्म, अपने पे
भरोसा ,आत्मविश्वास नहीं देख पा रहा है .
परिधान का चलन बचपन से शुरू होता है .माँ क्या पैरहन चुनती है बेटी के लिए ,बेटी वही पहनती है। स्कर्ट की ऊंचाई तो आजकल स्कूल भी तय कर रहें हैं कई कोंवेंट स्कूल हैं जहां स्कर्ट घुटनों के
नीचे होने पर सजा मिलती है .यह सब क्या है ?क्यों है ?व्यापक कैनवास से जुड़ा है सवाल .अस्मिता और सम्मान से जुड़ा है महिला के .क़ानून की पालना से भी .इसकी शुरुआत भी घर से होनी
चाहिए .
आप शराब पीके गाड़ी चलातें हैं .घर में गाली गलौंच करते हैं .आपका बच्चा क्या सीखेगा .?
अनाटॉमी औरत की अलग है लेकिन भाई वह भी होमोसेपियन है .आपकी ही ज़मात है .जैसे मोर ,मोरनी ,मुर्गा मुर्गी ,की देहयष्टि अलग है वैसे ही औरत मर्द की भी है .इसे बदला नहीं जा सकता
.अनाटमी के आधार पर आप कैसे भेदभाव कर सकते हैं ?
कुछ शाश्वत मूल्य हैं :देह बल में अपने से कमज़ोर की रक्षा करना .महिलाओं को आदर देना .संकट में उनकी रक्षा करना .एक छोटा बच्चा भी बीस साल पहले अपनी किशोर बहन के साथ उसकी
ऊंगली पकड बाहर आता था ,तो युवती को अकेला नहीं समझा जाता था .वह नन्ना अघोषित नैतिक पहरेदार होता था बहन का .
इन्हीं मूल्यों की दरकार है आज भी .और शाश्वत मूल्यों का हमारे पैरहन से कोई ताल्लुक नहीं है .लिबास तो बदला करते हैं बदलें हैं प्रागेतिहासिक काल से अब तक यह होता आया है आगे भी होगा
लेकिन कुछ मूल्य सार्वकालिक सार्वत्रिक होते हैं इनकी अनुपालना होनी ही चाहिए हर स्तर पर .
अधिकारों और संबंधों का मुद्दा अलग है और बलात्कार का अलग
ReplyDeleteइन दोनों को जोड़ कर नहीं देखा जा सकता .....
महिलाओं के प्रति सम्मान और संवेदनशीलता की सीख परिवार के रिश्ते नातों से ही मिल सकती है| जिसे काफी हद तक सुधार लाया जा सकता है। सारगर्भित आलेख...
ReplyDeleteसधा हुवा लेख ... हर बिन्दु को बारीकी से उठता हुवा ...
ReplyDeleteआपकी बात से पूर्णत: सहमत हूँ ...
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