कुम्भ में कई श्रद्धालुओं को स्नान करते हुये देख रहा हूँ, शरीर से भाप का उठना स्पष्ट देखा जा रहा है। उधर ज्ञानदत्तजी के फेसबुक पर कोहरे और ठंड की व्यापक आख्या भी प्रस्तुत है। परिचितों और संबंधियों से फोन पर बात करते समय स्वर में ठंड के कंपन गूँज रहे हैं, शरीर पर कपड़ों की कई परतें चढ़ी हुयी हैं, उत्तर भारत का सारा कपड़ा अल्मारियों और दुकानों से बाहर आ कँपकपाते शरीरों को आश्वासन दे रहा है। सूर्य के अतिरिक्त जो वस्तु जैसे भी ऊष्मा दे सकती है, अपने कार्य में लगी हुयी है। ऐसे में टीवी पर कुम्भ स्नान के चित्र देखने से श्रद्धालुओं की श्रद्धा की जीवटता का अनुमान लगाने में किसी को भी सन्देह नहीं हो सकता है। एक दो नहीं, करोड़ों शरीर प्रचण्ड ठंड में अपनी शरीर की ऊष्मा आहुति स्वरुप गंगा मैया को चढ़ा रहे हैं, ठंड में भला इससे अधिक क्या आहुति हो सकती है। अब ईश्वर को विवश होकर ही सही, प्रसन्न तो होना ही पड़ेगा।
हम चाह कर भी अपने शरीर की ऊष्मा तज ईश्वर को प्रसन्न नहीं कर पा रहे हैं। क्या करें, यहाँ पर ठंड पड़ती ही नहीं है, ठंड तो क्या यहाँ पर गर्मी भी नहीं पड़ती। ईश्ववर को प्रसन्न करने के दोनों ही मार्ग बन्द हैं। यहाँ बंगलोर में ठंड के नाम पर पूरी बाँह की शर्ट ही पर्याप्त होती है, ठंड का आनन्द चाह कर भी नहीं मिल पाता है। वैसे तो सादे पानी से ही नहा लेते हैं पर कभी कभी विलासिता सूझती है तो गीज़र के गुनगुने पानी से नहा कर थकान दूर कर लेते हैं।
देखा जाये तो स्नान का पवित्रता से नाता है और पवित्रता का ईश्वर से, यही कारण है कि जब भी हम पूजा करने बैठते हैं तो नहा धोकर बैठते हैं। कलियुग में पापों की कमी नहीं रहेगी, चाहेंगे, न चाहेंगे, पाप हो ही जायेगा। प्रत्यक्ष से न होगा तो विचारों से ही हो जायेगा। पाप धुलने का कोई उपाय नहीं, जो हो गया सब खाते में लिख गया। बस पूजा और प्रार्थना ही उपाय बचता है लिखे हुये को धोने का। एक दिन में ही इतने पाप हो जाते हैं कि नियमित पूजा करना आवश्यक है। कभी आप सोच भी लें कि दो दिन में एक बार ही पूजा कर के काम चला लिया जाये तो आपको पिछले दिन के पाप याद ही नहीं आयेंगे, कलियुग में स्मरण शक्ति भी कम कर रखी है ईश्वर ने। ले देकर आप पाप करने को बाध्य हैं, पाप धोने के लिये नित पूजा करने को बाध्य हैं, पूजा करने के लिये नित स्नान करने को बाध्य हैं। ऐसा लगता है कि सारा कालचक्र हमें नित नहाने के लिये ही रचा गया है।
अब आपको लग सकता है कि यदि किसी तरह से पाप करने से बच जायें तो नित नहाने की बाध्यता भी समाप्त हो जायेगी। न पाप करेंगे, न पूजा करनी पड़ेगी और न ही स्नान करना पड़ेगा। विचार सशक्त है, पर ईश्वर ने उसका भी तोड़ निकाल रखा है। आप पाप नहीं करेंगे तो अति सज्जन हो जायेंगे, अति सज्जन होने के कारण आपकी अपने आस पास के लोंगों से पटेगी नहीं। आपके साथ कार्य करने वाले आपको अपने मार्ग का काँटा समझेंगे, आपके पड़ोसी आप पर हँसेंगे। साथी आप पर कुटिल चालों से आघात करेंगे, आपको झूठा ही फँसा देंगे। पड़ोसी आप पर व्यंग बाण छोड़ेंगे। जब आहत और बिंधे हुये घर आयेंगे तो घरवालों से भी पर्याप्त झिड़की खायेंगे। इतना सब होने के बाद आपका तन मन अशान्त हो जायेगा, आप वाह्य विश्व का मैल उतार फेंकना चाहेंगे। मानसिक अशान्ति के लिये पुनः पूजा और पूजा के लिये पुनः स्नान। कुछ भी कर लीजिये स्नान तो ईश्वर आपसे नित करवा के ही रहेंगे। गर्मी हो तो आनन्द से कीजिये, ठंड हो तो कष्ट में कीजिये, बरसात में तो वह स्वयं स्नान की व्यवस्था सम्हाले रहते हैं।
सर्वाधिक पुण्य कमाना हो तो ठंड में ठंडे पानी से ही स्नान करना चाहिये। जानकार कहते हैं कि चाहे आप ठंडे पानी से स्नान करें या गर्म पानी से कष्ट उतना ही होता है और आनन्द भी उतना ही आता है। गर्म पानी से स्नान करने में स्नान करते समय आनन्द आता है पर स्नान के बाद ऐसी कँपकपी छूटती है कि आप कई घंटों तक संयत नहीं हो पाते हैं। वहीं दूसरी ओर यदि आप ठंडे पानी से स्नान करें तो पहले दस सेकेण्ड का ही कष्ट रहता है। पहले दस सेकेण्ड के पश्चात शरीर इतनी ऊष्मा उत्सर्जित करता रहता है कि दिन भर ठण्ड नहीं लगती है। भयंकर से भयंकर ठंड हो, ठंडे पानी में किया स्नान अन्ततः हानि नहीं पहुँचाता है। प्रशिक्षण के समय उदयपुर में और जनवरी के माह में पूरे ३१ दिन तक ठंडे पानी में सुबह सुबह स्नान करने के अनुभव के आधार पर आपको बता रहा हूँ कि ऐसा करने से दिन भर चेतना अपने उत्कर्ष पर रहती है।
वैसे भी गर्म पानी से नहाना आपके लिये पूर्ण आध्यात्मिक शुद्धि लेकर नहीं आयेगा, तब आपको पूजा अधिक करनी पड़ेगी। पानी गर्म करने के लिये या तो आप कहीं से लकड़ी काटेंगे, गैस जलायेंगे या बिजली का प्रयोग करेंगे। इन तीनों ही दशाओं में आप प्रकृति को क्षति पहुँचा रहे हैं। यमराज के यहाँ खुले नये कार्यालय में आपको कार्बन डेबिट मिल जायेगा और आपके पापों पर सरचार्ज भी जुड़ जायेगा। कितना पाप और जुड़ेगा कुछ नहीं कह सकते। जिन्हें रिलायन्स के टेलीफ़ोन बिल चुकाने का अनुभव है, वे ही बता सकते हैं कि दिन भर के पापों से भी अधिक सरचार्ज लग सकता है, स्नान के बाद की गयी पूजा से भी अधिक का। अत श्रेयस्कर है कि स्नान न करें, पूजा न करें पर गर्म पानी से नहाने की सोचे भी नहीं। ईश्वर के नियम ठंड में ठंडे पानी से नहाने की ओर इंगित करते हैं, उनका उल्लंघन निश्चय ही प्रकृतिविरुद्ध है।
जब ईश्वर के नियम आपसे जबरिया स्नान करवाने के लिये बने हों तो क्यों न स्नान में आनन्द उठाया जाये। बचपन का सारा समय स्नान में आनन्द उठाने की स्मृतियों से भरा हुआ है। गर्मियों में नदी नहाने में घंटों निकल जाते थे, जितनी देर पानी के अन्दर रहे उतनी देर सूरज के क्रोध को ठेंगा दिखाते रहे, प्रकृति के एक अंग से दूसरे का सामना। गर्मियों में नहाना कष्ट नहीं है, न नहाना कष्ट है, फिर भी नहाने का आनन्द तो उठाना ही होता है। ठंड का स्नान भी बहुधा छत पर होता था, धूप में, कड़वे तेल से मालिश करने के बाद, गिन चुन कर उतना ही जितना शरीर भिगो कर धोने और सुखाने के लिये पर्याप्त हो। ठंड में स्नान करने के लिये मन बनाने, सामग्री एकत्र करने, पहला पानी का डब्बा उड़ेलने में ही घंटों समय लग जाता है, पहला डब्बा डालते ही शेष के सारे कार्य यन्त्रवत कुछ मिनटों में ही सम्पन्न हो जाते हैं। आप अब पूछ सकते हैं कि इसमें आनन्द कहाँ? असली आनन्द तब आता है जब दूसरे को ठंड में स्नान करते हुये देखते हैं और अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे होते हैं।
छात्रावास में भी स्नान करना अनिवार्य था, न नहाने वालों को विशेष संबोधनों से धोया जाता था। सुबह के समय ट्यूबवेल की धार बहती थी और हम बच्चे एक एक करके दस सेकेण्डों के लिये उस धार के नीचे खड़े हो जाते थे। धार से ही जितना मैल कट जाये उतना ही अच्छा, शेष हाथ से ही रगड़ कर साफ कर लेते थे। कुछ साहसी बच्चे ही साबुन लगा कर पुनः ट्यूबवेल के नीचे जाने की प्रतीक्षा का कष्ट उठा पाते थे। ट्यूबवेल का पानी तनिक गर्म होता है और उतना कष्टकारी नहीं लगता है स्नान। हाँ, स्नानागार से वापस कमरे तक जाने में लगभग ५० मी की दूरी तय करनी होती थी, किस गति से हम अपने कमरे पहुँच जाते थे पता ही नहीं चलता था। यदि वहीं दूरी १०० मी की कर दी जाती तो हमारे छात्रावास के कई कीर्तिमान हो जाते १०० मी फर्राटा दौड़ में।
भारतीय बच्चों को नित नहाने के लिये प्रेरित करने में हमारी माताओं का विशेष योगदान है। यदि मातायें खाना न देने की चेतावनी न दें तो संभव है बहुत से शीतभीरु बालक दो माह स्नान ही न करें। क्या करें, जाड़े में भूख भी तगड़ी लगती है, एक दो दिन उपवास में निकालना कठिन हो जाता है, अब ले देकर नहाना ही पड़ेगा। लीजिये, श्रीमतीजी भी पुकार रही हैं कि आप नहा लीजिये तो नाश्ता लगाया जाये। उठते हैं, नहा ही लेते हैं, कुंभ में इतने लोगों को नहाते देख कर अपनी ठंड तुच्छ ही लग रही है।
हर हर गंगे, सयत्न संचित शारीरिक ऊष्मा का तुच्छ भोग स्वीकार करो, माँ।
बहुत ही ज्यादा मनहिलोर पोस्ट !
ReplyDeleteट्यूबवेल के "घघ्घे" ने तो कई यादें ताजा कर दीं। वो भी क्या दिन थे। घर से चड्डी लेकर वहां पहुंचने तक कभी चड्डी को उंगलियों में फंसा चक्र की तरह घुमाया करते थे तो कभी सिर पर उल्टा कर पहन लेते थे। वहीं पेड़ की टहनी पर चड्डी लटकती रहती, इधर पूल के ऊपरी दीवार पर चढ़ गिनती होती रहती......एक दो तीन बुडुक। पूल में दो चार बुडुक्का हो जाने के बाद साबुन लगाते तो वह कुछ ज्यादा ही महकता। वैसे भी गाँव के खेतों में खुले माहौल में साबुन ज्यादा ही महकता है। पूल में कई बार पानी के भीतर आँखे खोलकर ताकते इस उम्मीद में कि आँखे साफ हो जाती हैं.....कई बार जान-बूझकर साबुन ट्यूबवेल के हौज में गिरा देते कि देखें कौन पाता है.....डांट भी पड़ती :)
इसी बीच बगल के खेत से तरबूज या ककड़ी तोड़कर वहीं ट्यूबवेल में धोकर नहाते नहाते खा भी लेते। नहाने के बाद लौटते वक्त फिर दूसरी चड्डी को चक्र बना लेते :)
शहरी स्नान में वो आनंद कहां :)
...पवित्रता स्नान में नहीं मन में होती है।
ReplyDelete.
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.वैसे अपन 1989 का महाकुंभ भोग चुके हैं,अविस्मरणीय अवसर था !
HAPPY REPUBLIC DAY
ReplyDeleteक्या खुब कही ये लोग ठंड मे भी बिना नहायेँ माननेवाले नही
ReplyDeleteकोई तर्क नहीं, आस्था को नमन.
ReplyDeleteयह मुझे अत्यंत प्रभावित करती है.
नहाकर शरीर तरोताजा हो जाता है, कुम्भ में गंगा में स्नान फ़िर भी आसान है, गौमुख या गंगौत्री में जाकर दस डुबकी(अच्छे-अच्छे एक डुबकी भी बीच में अधूरी छोड भाग खडे होते है।) लगाना इन करोडों भक्तों में से शायद सैकडो तक सिमट कर रह जायेगा।
ReplyDeleteसब पाप-पुण्य/जीवन मरण के चक्र से बचने का मामला ज्यादा है,
नहाने को लेकर अपने गहन चिंतन कर लिया.
ReplyDeleteवैसे यह सुअवसर है बेंगलुरु वासिओं के लिये कि वह ठंड का आनंद लेने हेतु कुम्भ स्नान हेतु संगम पधारे और पिछले १२ सालों के पाप एक साथ धो डालें और पर्वतीय स्थल की जैसी ठंड का आनन्द मैदानी जगाह में ही उठा लें.
आपको गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं.
आस्था की यह ऊष्मा सच में किसी भी तर्क से परे है |
ReplyDeleteव्यंग्य का पुट लिए शानदार पोस्ट
ReplyDeleteहमें भी छात्रावास में नहाने का दृश्य याद आ गया| सुबह होते ही ठन्डे पानी से सर्दियों में भी खुले में नहाना पड़ता था |
जो भी नहाने जाता साथियों को कहकर जाता -"अभी आया शहीद होकर" और नहाने के बाद कमरे में जाते हुए अक्सर साथी छात्र प्रश्न कर डालते कि -हो आये शहीद होकर ?
एक बगीचे में पानी की टंकी थी जिसमें इतना ठंडा पानी होता था कि नहाना तो दूर हाथ धोना भी भारी था| कई बार छात्रों में शर्त लगती कि इस टंकी के पानी से नहाने वाले को एक किलो दूध ईनाम ! बस फिर क्या था कई तैयार हो जाते| शरीर पर जहाँ पानी की धार बहती वहां नीला कर जाती पर एक किलो दूध के साथ जीत के आगे उसकी कौन परवाह करता !!
कुम्भ के बहाने एक अच्छी पोस्ट |
ReplyDeleteप्रभावी प्रस्तुति ||
ReplyDeleteगणतंत्र दिवस की शुभकामनायें-
नदी, तालाब, पम्प की धार में नहाये कई वर्ष हो गये. रामदेव जी को देखता हूं एक कपड़े में तो आश्चर्य होता है. हाँलाकि कहने वाले कुछ भी कहने लगते हैं, लेकिन शरीर को प्रकृति में रमाना अलग ही अनुभव है.
ReplyDeleteमैं भी गंगास्नान के लिए जा रहा हूँ , गर्म पानी के साथ :)
ReplyDeleteहर हर गंगे -कंपकपी छूट गयी पोस्ट पढ़कर!
ReplyDeleteधूप निकल आये, फ़िर पढ़ेंगे :)
ReplyDeleteहर हर गंगे ....
ReplyDeleteनहीं नहाने का कोई बहाना नहीं चलेगा................आनन्ददायक प्रस्तुति।
ReplyDeleteकडकडाती ठन्ड में नहाओ , तो और बात है
ReplyDeleteनहाते हुए भाप उठाओ , तो और बात है। :)
मंगलवार 29/01/2013को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं .... !!
ReplyDeleteआपके सुझावों का स्वागत है .... !!
धन्यवाद .... !!
हाहाहा...कितना अच्छा लगा पढ़ कर ... अब लग रहा है... एथिलेतिक्स की तैयारी करवाने के लिए स्नानागार की दुरी निश्चयतः एक बड़े अंतराल पर होनी चाहिए.. पूरा लेख जीवंत कर जाता है हर दृश्य को... कुम्भ स्नान श्रधालुवों का ठन्डे पानी में दुबकी..और ठण्ड से डरता एक घर में बच्चा ..माँ किस तरह नेहलाती है.. बच्चे का अनुभव ..वाह
ReplyDeleteठण्ड और गर्मी से भरपूर पोस्ट सर जी | मजा भी आया | इलाहबाद की यद् हमेश सताती रहेगी |
ReplyDeleteआनन्दमय उद्गार...। हास्य, व्यंग्य,दर्शन, विचार-विमर्श सब कुछ एक साथ । अनुभूति और अभिव्यक्ति पर आपका अधिकार बेजोड है ।
ReplyDeleteदेश के 64वें गणतन्त्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ!
ReplyDelete--
आपकी पोस्ट के लिंक की चर्चा कल रविवार (27-01-2013) के चर्चा मंच-1137 (सोन चिरैया अब कहाँ है…?) पर भी होगी!
सूचनार्थ... सादर!
एक जमाना बीत गया नदी और तालाब में नहाए हुए,,,,
ReplyDeleteगणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाए,,,
recent post: गुलामी का असर,,,
उम्दा प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत बधाई...६४वें गणतंत्र दिवस पर शुभकामनाएं...
ReplyDeleteस्नानमय पोस्ट है। अपनी प्राथमिक पाठशाला के दिन याद आते हैं। जो बच्चे नहाकर नहीं आते थे, हमारे मुख्याध्यापक जी उन्हें विद्यालय में ही नल के नीचे नहाने को बाध्य करते थे। सार्वजनिक रूप से अर्धनग्न/पूर्णनग्न नहाने की कोफ्त से बचने के लिये बच्चे नहाकर आना बेहतर समझते थे।
ReplyDeleteशरीर की उष्मा को समर्पित करने का पर्व, वाह क्या बात है?
ReplyDeleteआज दूसरी मर्तबा यह चूक हुई .प्रवीण जी की महत्वपूर्ण टिपण्णी हमारी पोस्ट 'क्या है पैराफीलिया बोले तो सेक्स एडिक्शन 'हमसे डिलीट हो गई .दरसल गए रात बारह बजे यह पोस्ट लगाईं थी सुबह उठके रिपोस्ट करते वक्त टिपण्णी वाले चरण में हमने टिपण्णी हटाएं गलती से दबा दिया .जिसका हमें खेद है .प्रवीण जी की टिपण्णी हमारे लिए अति महत्व पूर्ण है रहेगी .
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ReplyDeleteमाननीय गृह मंत्री जी को कुम्भ का स्नान करवाया जाए तो उन्हें सैफरन शब्द भगवा का मतलब समझ आ जाएगा .कुम्भिया बन जायेंगे वह .जिनका कार्बन फुट प्रिंट बे -तहाशा है वह भगवा आतंकवाद
की बात करते हैं .ज़बान चलाते हैं ये लोग .जन प्रवाह जन शक्ति का इन्हें इल्म नहीं हैं बजाएं गाल जितने बजाते हैं .घगवा जन समूह हिसाब मांगेगा इन सेकुलरों की अम्मा से भी 2014 में
अलबत्ता अगर दिल के मरीज़ हैं शिंदे साहब ,हम फिर भी उनपे रहम करते हुए बतला दें ,शरीर को बिला वजह ठंडा न करें आपकी सेकुलरिज्म भी खतरे में आ जायेगी .दिल भी .
अच्छी पोस्ट |
ReplyDeleteआशा
Happy repubic day Praveen Ji, is post aapki baat aur images dono hii shandaar hain.
ReplyDeleteकल-कल करता आलेख..
ReplyDeleteनहान की महिमा न्यारी
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ReplyDeleteलौकी अड़सठ तीरथ न्हाई,
कडुआपन तौहू नहीं जाई |
कोई कुछ भी कहे पर ब्रह्म मुहुर्त में कुंभ स्नान या किसी भी नदी का स्नान अलौलिक होता है. बारहों मास गर्म पानी से स्नान करने वाले भी इसे महसूस करते हैं. शायद ये हमारी परंपराओ की ही देन है.
ReplyDeleteऔर कुछ जैसा आपने कहा कि बिना नहाये मां भी खाना नही देती.:)
रामराम.
nice
ReplyDeletewww.nayafanda.blogspot.com
बेंगलोर के तो मोसम के ये हाल है की पूरे भारत में जब कपकपी छूट रही थी यहाँ पसीने की बुँदे थिरक रही थी फिर भी ठन्डे पानी से ही नहाना नहीं हो पता ।
ReplyDeleteनदी में नहाने का मजा कुछ ही होता है किन्तु नहाने के बाद सर पर धुले हुए कपड़ो की (टोकनी )तगारी रखकर भरी धुप में घर आना बड़ा कष्टमय होता था किन्तु दसरे दिन उसी उत्साह से फिर नदी की तरफ चल पड़ते थे क्योकि चूल्हे पर खाना बनाने से बच जाते थे गर्मी में ।
मजेदार सोंधी सोंधी पोस्ट ।
स्नान ध्यान भारतीय जनमानस में एक दूसरे से संपृक्त अनुगामी क्रियाओं के रूप में देखी गईं हैं .नदी नालों में और इनकी तीर्थ गंगा में स्नान खुले आसमान के नीचे एक तरफ हमें प्रकृति से जोड़ता
ReplyDeleteहै ,मन को मुक्त करता है तन और मन का व्यायाम है सूर्य स्नान है .विटामिन D के बनने की क्रिया को उत्प्रेरित करता है धूप स्नान .कुदरती टेनिंग करता है हमारी चमड़ी की कईयों को ताम्बई चमड़ी
पसंद है .
भारत एक ऐसा देश है जिसने गाय गंगा और जन्मभूमि भारत को माँ की संज्ञा दी है .उस माँ की गोद में निर्वसना हो उतरने का सुख साधू सन्यासी ही समझा सकते हैं आम आदमी उस आनंद की कूट
संकेतों को नहीं बूझ सकता है .
ये भगवा का स्पंदन है .भारत धर्मी समाज की आस्था है इसे भारतघाती समाज जितना जल्दी समझ ले बेहतर है .
विविध रंगों का समागम ....वैविध्य से भरा रोचक आलेख .....
ReplyDelete''ठंडे ठंडे पानी से नहाना चाहिए ....गाना आए या न आए गाना चाहिए ......''हमे तो ये ही याद आया आपकी पोस्ट पढ़कर, क्योंकि नहाने और गाने का भी गहरा संबंध है .......!!
स्नान को लेकर इतनी गंभीरता से शायद पहले किसी ने नहीं सोचा होगा...ठंडे-ठंडे पनि से नहाना चाहिए गाना आए या न आए गाना चाहिए ....:)
ReplyDeleteसर्दी में नहाना किसी सजा से कम नहीं होता.पहले दस-पंद्रह सेंकेंड तो पूछिए मत..पर कुंभ हो या माता वैष्णों देवी के दर्शन से पहले बर्फिले पानी से नहाना....मन मजबूत होकर इंसान नहा ही लेता है। जाहिर है कि मन कि पवित्रता तन की पवित्रता का मोहताज नहीं होती..पर ये भी सच है कि स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मष्तिस्क का वास माना गया है।
ReplyDeleteयाद आता है मुझे पुष्कर सरोवर का स्नान दिसम्बर के महीने में और ॠषिकेष में लक्ष्मण झूले के नीचे नदी स्नान। नाक बंद करके मारी गई डुबकी, हर गंगे हर गंगे :)
ReplyDeleteस्नान से मन नहीं तन पवित्र हो जाता है .... स्नान के ऊपर भी रोचक लिखा जा सकता है यह आपकी पोस्ट पढ़ कर जाना ...
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ReplyDeleteशीतल जल में प्रात :स्नान उपपाचन (मेटाबोलिज्म )को किक स्टार्ट करता है .फर्राटा बना देता है .और जन उत्सव के बीच गंगा के तीरे ,भगवा की आभा और नूर के बीच ,ये अरंडी की शक्ल धारी नहीं समझ पाएंगे ,रहेगा भरम इन्हें अपने सेकुलर होने का .
bade hi manoranjak tareeke se likhe......
ReplyDeleteYou presented the bathing ritual in a very beautiful narrative. Kumbh brings out the mystic in the mundane things.
ReplyDeleteमनभावन पोस्ट।
ReplyDeleteठण्डे या गर्म पानी से, लेकिन रोज नहायें स्वास्थ्य लाभ होगा। ये भी एक योगिक क्रिया है।
ReplyDeleteविषय कोई भी आपकी लेखनी ... अपना ओज हमेशा कायम रखती है ... यहां तो स्नान के साथ कुंभ की भी चर्चा हो गई और
ReplyDeleteमाँ की भी
सादर नमन
बेह्तरीन अभिव्यक्ति .सादर नमन
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