एक साथी अधिकारी के कार्यालय में बैठे थे, किसी समन्वय के विषय पर बात चल रही थी। एक कर्मचारी आता है, एक बड़ी ग़लती के संदर्भ में, आरोप तय हो चुके थे, दण्ड के बारे में बख्श देने की बात कर रहा था। बातों से लग रहा था कि ग़लती हुयी नहीं है वरन की गयी थी और वह भी अक्षम्य थी। अधिकारी अपनी न्यायप्रियता के लिये जाने जाते थे, अच्छे कर्मचारियों के चहेते और ठीक से कार्य न करने वालों के लिये भयकारक। उनका उत्तर सुनकर मैं दंग रह गया। उन्होने कहा कि कैसे बख्श दें, बख्शा तो हमने खुद को भी नहीं है।
बात सच थी, मैं उन्हें जितना जानता था, स्वानुशासन में कसे किसी भी और व्यक्ति से अधिक अनुशासित, किसी भी समय हो, कैसी भी परिस्थिति हो, कार्य के प्रति और अनुशासन के प्रति कठोर। जो स्वयं के लिये कठिन मापदण्ड निश्चित करता है वही दूसरे के प्रति कठोरता भी दिखा सकता है। अनौपचारिक रूप से पूछने पर बताया कि यदि कर्मचारी का व्यवहार उनके प्रति व्यक्तिगत रूप से अप्रिय होता तो उसे क्षमा करने में उन्हें एक पल भी न लगता। आरोप ऐसा था जो रेलवे के प्रति अप्रिय था, उस दशा में क्षमा कर देना उनके अधिकार क्षेत्र के बाहर था। व्यक्तिगत जीवन में अत्यन्त सहनशील और अनुशासित व्यक्ति का प्रशासनिक रूप में इतना कठोर व्यवहार देख मन सोचने को विवश हो गया।
दण्ड के बारे में इतिहासों में न जाने कितने उदाहरण बिखरे पड़े हैं। दो छोर हैं, कम आरोप के लिये अधिक दण्ड और अधिक दण्ड को भी क्षमा कर देने का उदारहृदय। इन दोनों छोरों के बीच में सब प्रशासक अपने आप को पाते हैं। प्रशासनिक मानक सदा ही ज्ञात रहे हैं, किस आरोप के लिये कितना दण्ड हो यह बहुत कुछ नियत है, दण्ड कितने प्रकार के हों यह भी नियत है। मानवीय हस्तक्षेप दो ही रूप में आता है। पहला आरोपों को किस परिप्रेक्ष्य में लिया जाये, गलती अनजाने में हुयी या जानबूझ कर की गयी। दूसरा यह कि यदि उसका दण्ड कम रखा जाये तो भविष्य में पुनरावृत्ति की क्या संभावनायें हैं? इस क्षमा के लिये क्या वह कृतज्ञ रहेगा और भविष्य में अधिक मन लगा कर कार्य करेगा?
हर प्रशासक के लिये मानवीय हस्तक्षेप का अर्थ भिन्न होता है। यह दो कारकों पर निर्भर करता है। पहला कि प्रशासक के अन्दर अपने कर्मचारियों को लेकर कितनी आशावादिता शेष है, आशावादी प्रशासक सदा ही एक और अवसर देने को प्राथमिकता देते हैं। दूसरा कि प्रशासक अपने जीवन में स्वयं ही कितने अनुशासित हैं, अधिक अनुशासित उसी तरह का प्रशासन चाहते हैं जो उन्होंने स्वयं पर लागू कर रखा होता है। आशावादिता और अनुशासनप्रियता दोनों ही अलग विमायें हैं, एक प्रमुखतः सामाजिक है, दूसरी प्रमुखतः व्यक्तिगत, पर मानवीय हस्तक्षेप पर इनका प्रभाव मिलाजुला होता है।
अब मित्र अधिकारी का कठोर निर्णय उनकी क्षीण आशावादिता से अधिक प्रभावित था या अनुशासनप्रियता से, यह स्पष्ट कहना कठिन है। अधिक पूछने का अर्थ उनके अर्धन्यायिक अधिकारक्षेत्र में दखल देने जैसा था, पर इस विषय ने स्वयं के बारे में सोचने को प्रेरित अवश्य किया। मेरे कर्मचारी बहुधा जो पीठ पीछे चर्चा करते रहते हैं. वह परोक्ष रूप से देर सबेर पता ही चल जाती है। उनकी राय में मेरा चित्रण कार्य करवाने में कठोर पर कार्य के समय की गयी गलतियाँ क्षमा कर देने में सहदृय प्रशासक के रूप में किया जाता है। सुनकर बहुत अच्छा लगता है, यदि संस्था का कार्य सिद्ध हो रहा है तो दण्ड का क्या महत्व है? सबको ही कम दण्ड दिया है ऐसा भी नहीं है, कई कठोर उदाहरण भी हैं, पर मुख्यतः निर्णयप्रक्रिया में आशावादिता सर चढ़ बोली है।
मुझे ज्ञात है कि दण्ड के विषय में सहृदय हो जाना लगभग १५ प्रतिशत घटनाओं में उल्टा बैठा है या कहें कि क्षमा किये लोगों पर कोई सुधार नहीं हुया और उन्होंने गलतियाँ पुनः की। लगभग ५० प्रतिशत लोगों पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा, पर वे नकारात्मकता की ओर भी उद्धत नहीं हुये। पर जिन ३५ प्रतिशत लोगों ने क्षमा का महत्व समझा और अधिक श्रम कर अपनी पुरानी गलतियों को भर दिया, वे मेरे लिये दण्ड प्रक्रिया का आनन्द रहे हैं, दण्ड न देने से ही सुधरने वाले। अनुशासन के मार्ग पर मध्यम और आशावादिता के मार्ग पर उच्च विश्वास सदा ही मेरी निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित करते रहे हैं।
आशावादिता के निष्कर्ष कई लोगों के लिये १५ प्रतिशत घटनाओं से कहीं अधिक नकारात्मक रहे होंगे। इस प्रतिशत का अधिक होने का अर्थ है, धीरे धीरे आशावादिता से विश्वास उठ जाना। यही सामाजिक और पारिवारिक क्षेत्र में भी लागू होता है, नकारात्मकता की एक घटना किन स्थानों पर किस रूप में सामने खड़ी हो जायेगी, कहना कठिन होता है। किसी घटना को लेकर समाज के स्वर इन्हीें विमाओं के सतरंगे स्वरूप होते हैं, संदर्भों के परिप्रेक्ष्य में सभी अपने अपने स्थान पर सच भी होते हैं। किसी अपराध के लिये कोई मृत्युदण्ड माँगता है, कोई उन्हें सुधरने देना चाहता है, बिना यह जाने कि उन दोनों का का अर्थ है अपराधी के लिये। अपराधी के लिये इन सब माँगों में सब अपने मन को व्यक्त करते हैं, कि यदि अपराध उनने किया होता तो क्या दण्ड मिलना चाहिये?
बड़े महान होते हैं वे जो स्वयं के लिये तो बड़े कठिन मापदण्ड बनाते हैं पर अन्य को क्षमा करने में बड़े उदार हो जाते हैं, ऐसे लोग उदाहरण प्रस्तुत करते हैं उनके लिये जिन्हें उन्होने क्षमा किया है। वहीं दूसरी ओर बड़े ही धूर्त होते हैं वे लोग जो स्वयं के लिये तो रीढ़विहीन मापदण्ड बनाते हैं पर दूसरों को कठिनतम दण्ड देने के लिये सदा उद्धत रहते हैं। दूसरी प्रकार के लोग दण्डप्रक्रिया में नकारात्मकता भरने का कार्य बड़ी शीघ्रता से कर डालते हैं, भययुक्त वातावरण बनने में देर नहीं होती तब।
पता नहीं मैं ठीक करता या नहीं, पर संभवतः उस दिन कर्मचारी को क्षमा कर के एक और अवसर देता, कुछ अच्छा करने के लिये, जिससे उसका ग्लानिभाव कम हो जाये। आरोप व दण्ड का भारीपन जीवन में नकारात्मकता न ले आये, उसमें तनिक सहायक बनने का कार्य करता। उस कर्मचारी के आरोप के आधार पर संभावना अवश्य थी कि भविष्य में मेरा निर्णय सही नहीं ठहराया जाता, फिर भी उत्कट आशावादिता से बच पाना कठिन है मेरे लिये भी।
सर बहुत ही सुन्दर और सहेजने लायक पोस्ट |दण्ड के आशावादी दृष्टिकोण से मैं भी सहमत हूँ |आपके अन्दर एक चिंतक और एक कवि /लेखक हृदय है इसलिए आपका दृष्टिकोण सकारात्मक और मानवीय है |आभार
ReplyDeleteइस विषय पर हर व्यक्ति के अपने विचार होते हैं। अपने तर्क होते हैं। गलती करने पर नियम के अनुसार दण्ड देना तो अच्छी बात है लेकिन अगर व्यवस्था इस तरह की बनी हुयी है कि गलती करने के अवसर बने हुये हैं, व्यवस्था इस तरह की है लोग गलती करने में सफ़ल होते जा रहे हैं तो यह व्यवस्था की देखभाल करने वाले का दोष है। उनको कौन दण्ड देगा?
ReplyDelete... कुछ दण्ड निश्चित ही क्षमायोग्य नहीं होते,ख़ासकर जब मसला व्यक्तिगत न हो ।
ReplyDeleteकुछ भयानक अपराधों के सिवा आशावादी दंड उचित ही है !
ReplyDeleteअपराध बोध के साथ कार्यशीलता प्रभावित होती ही है . अक्षम्य अपराध में मानवीय दंड अपरिहार्य होने ही चहिये . भय बिनु होई न प्रीति .
ReplyDeleteएक अछूते से विषय पर मार्गदर्शी चिंतन -ऐसा ही पढने हम यहाँ आते हैं -यह उहापोह सचमुच बहुत बड़ा है !
ReplyDeleteहम रोज दो चार होते हैं ......हमारे आर्ष ग्रन्थ भी हमारी कुछ मदद नहीं करते -हमें खुद अपने विवेक को आजमाने को छोड़ देते हैं ...
एक और आदिदेव शंकर तक कह उठते हैं -ज्यों नहिं दंड करऊं खल तोरा भ्रष्ट होई श्रुति मारग मोरा ......दूसरी गीता क्षमाशीलता को गौरव देती है -वैश्विक चिंतन में 'गुड टू फार्गिव, बेस्ट तो फारगेट " की भी वकालत है ....... प्राचीन काल में दंड इतना महिमामंडित था कि कितने संत उसके प्रतीक स्वरुप एक दंड ही धारण किये रहते थे -आज भी दंडी स्वामियों की परम्परा है!
आपके विचार सकारात्मक दृष्टिकोण लिए हैं | अगर ऐसे मानवीय कदम उठाकर ही सुधार हो सके तो अच्छा ही है | लेकिन कुछ मामलों में दण्डित किया जाना आवश्यक भी है ..........
ReplyDeleteमुण्डे मुण्डे मतिभिन्न:
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteवरिष्ठ गणतन्त्रदिवस की अग्रिम शुभकामनाएँ और नेता जी सुभाष को नमन!
मुझे इस संबंध में प्रत्येक प्रकरण को दो अलग-अलग परिप्रेक्ष्य में रखना उचित लगता है। एक इस सिद्धान्त पर कि गलती करना मानवसुलभ है और दूसरा कि जो जैसा करेगा वैसा भरेगा। यदि किया गया अपकृत्य मानवसुलभ गलती पर आधारित है तो उदारता बरतना उचित है लेकिन यदि पूरे होशोहवास में ऐसा कार्य किया गया है जिसका निश्चित स्वरूप और परिणाम पता है अर्थात यदि जानबूझकर नियमों का उल्लंघन किया गया है और इसमें निहित स्वार्थ की सिद्धि परिलक्षित होती है तो कत्तई नहीं बख्शा जाना चाहिए अन्यथा दूसरों के सामने गलत उदाहरण प्रस्तुत हो जाएगा।
ReplyDeleteज्ञानवर्धक आलेख
ReplyDeleteमेरे हिसाब से परिस्थितियों के अनुरूप दण्डित करना या न करना दोनों ही अपनी-अपने जगह उचित हैं किन्तु ऊपर के अधिकारियों द्वारा अपने आप को बचाने के लिए अकारण अधीनस्थ को दण्डित किये जाने की प्रक्रिया पर विराम लगना चाहिए, यह इस देश के ब्योरोक्रेसी में सबसे बड़ी बीमारी है।
ReplyDeleteसही कहा है..सुधरने का एक मौका तो हरेक को मिलना ही चाहिए, पर बार-बार नहीं.
ReplyDeleteसार्थक विश्लेषण. क्षमा अच्छी है पर कितनी बार ??? दंड ठीक है पर अपराधी का स्वभाव जानकार. आशावादी दृष्टिकोण अच्छा लगा.
ReplyDeleteअपराधी के लिए क्षमा नहीं है, माफी तो सभी मांगते हैं।
ReplyDeleteक्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो .... यह तो हम सब जानते हैं
ReplyDeleteअनापेक्षित गलती पर दण्ड तो अवश्य किन्तु सुधार की अपेक्षा के लिये, दण्ड को सीमित किया जा सकता है। लाठी भी रह जाये और सांप भी मर जाय।
ReplyDeleteमैंने अपने पिताजी को देखा है, उन्होंने हमें कभी भी कोई दंड नहीं दिया. वरन हमें हमारी गलती का अहसास कराया. अब पीछे जाकर इतने सालों का हिसाब लगाता हूँ तो पाता हूँ कि वह इससे बेहतर हमारे लिए कुछ कर ही नहीं सकते थे.
ReplyDeleteश्रीमान उत्कट आशावादिता का भाव वे भी पाले हुए थे, जो अपराधियों के आक्रमण से मृत्यु को प्राप्त हुए। मुद्रा, प्रलेख एवं भाव आधारित गलतियां करनेवालों के लिए कठोर एवं नरम होने पर विमर्श हो सकता है। परन्तु निर्दोष की जान लेनेवालों पर, वो भी साक्ष्य मिल जाने पर, नरम रुख अपनाना, विचारणीय बने रहना, ठीक नहीं है।
ReplyDeleteसंदर्भित मामले में आपके साथी अधिकारी का दृष्टिकोण मुझे तो सही लगा। व्यवहार में उदारता होनी चाहिए लेकिन गलती और अपराध में डिफ़रेन्शिएट करने का विवेक हो तो अपराध के लिए दण्ड उचित ही है। जैसा आपने कहा कि वो खुद पर भी कठोर हैं, उनका निर्णय मान्य लगता है।
ReplyDeleteअपने आप एक नियमबद्ध व्यक्ति अधिकांशतः दूसरों से भी वैसे ही व्यवहार की आशा करता है, लेकिन दंड हमेशा अपराध की प्रवृति एवं उसके पीछे की भावना को ध्यान में रख कर दिया जाना चाहिए. लेकिन कुछ गलतियाँ ऐसी होती हैं, जिन्हें व्यक्ति में सुधार की आशा होने पर भी माफ़ करना प्रशासनिक द्रष्टि से उचित नहीं लगता, विशेषकर जब वह व्यक्ति भ्रष्टाचार, फ्रॉड, घोर दुराचार जैसे अपराधों का बिना किसी शक के दोषी हो.
ReplyDeleteआपकी पोस्ट की चर्चा 24- 01- 2013 के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
ReplyDeleteकृपया पधारें ।
बहुत सही बात कही है आपने .सार्थक अभिव्यक्ति करें अभिनन्दन आगे बढ़कर जब वह समक्ष उपस्थित हो .
ReplyDeleteआप भी जाने कई ब्लोगर्स भी फंस सकते हैं मानहानि में .......
गलती करने वाले को सुधरने का अवसर तो देना चाहिए। परफेक्शनिस्ट होना एक ओबसेशन की निशानी है। एक संतुलन बनाये रखना आवश्यक है।
ReplyDeleteअवसर देना तो ठीक है परंतु वर्तमान समय में शायद इसका बेजा फ़ायदा अधिक उठाया जाता है. फ़िर भी इसका फ़ैसला समय और अवसर अनुसार या कहें कि अपने स्वभाव अनुसार ही लिया जाता है.
ReplyDeleteआपकी बात से याद आया कि हमारे यहां एक बिजली विभाग के अधिकारी थे जो पिछले साल ही रिटायर हुये हैं उन्होनें बडी ईमानदारी से बिजली चोरी के मामले पकडॆ, दंड जुर्माना भी खूब वसूला. उपभोक्ताओं में उनके नाम की दहशत समाई थी.
यही अधिकारी अपनी बहन के लडके की शादी में गये थे इसी शहर में, वहां लडकी वालों ने खूब लक दक बिजली की साज सज्जा कर रखी थी, इन महाराज ने जाते ही पूछा - बिजली का टेंपरेरी कनेक्शन लिया या नही? कितने लोड का लिया? अब किसी ने लिया हो तो जवाब देता...इन अधिकारी महोदय ने तुरंत अपने सहायकों को बुलवाकर बिजली चोरी का केस बनवाया और तीस चालीस हजार का जुर्माना वसूला.
अब बताईये इसे क्या कहें?
रामराम.
यह सच है कि ' आशावादिता और अनुशासनप्रियता दोनों ही अलग विमायें हैं'
ReplyDeleteमेरे विचार में एक प्रशासक को अनुशासन और आशावाद के बीच में कहीं संतुलन कर के रहना होता है तभी वह किसी की गलती पर दंड देने न देने का सही निर्णय ले पायेगा.
सीखना चाहें तो कार्यक्षेत्र के अनुभव ही आप को काफी कुछ सिखा देते हैं.
शुक्रिया भाई साहब आपकी सद्य टिपण्णी का .बढ़िया चिंतन सबके अपने अपने मानदंड अलबत्ता अपराध ,यदि व्यक्ति के सुधरने की संभावना है तो व्यक्ति से बड़ा नहीं होता .गलती आदमी से ही
ReplyDeleteहोती है .कोशिश सुधार की हो .अदबदाकर किया गया अपराध धृष्टत़ा है ,शिंदे मिसाल हैं .ऐसे लोगों को छोड़ा न जाए .
ReplyDeleteआपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 24-01-2013 को यहाँ भी है
....
बंद करके मैंने जुगनुओं को .... वो सीख चुकी है जीना ..... आज की हलचल में..... संगीता स्वरूप
.. ....संगीता स्वरूप
. .
विचारों की सकारात्मक अभिव्यक्ति,,,,
ReplyDeleterecent post: गुलामी का असर,,,
जानबूझ कर किया गया गलत काम अपराध की श्रेणी में आता है ,अनुशासन बनाए रखना भी आवश्यक है.ऐसी स्थिति में स्व-विवेक से ही निर्णय करना होगा .
ReplyDeleteअवसर मिलने पर लोग अक्सर नाजायज़ फायदा उठाते हैं , क्षमा को वे अपना अधिकार मान सकते हैं , उस स्थिति में संवेदनशील अधिकारी अक्सर ठगा सा महसूस करेगा !
ReplyDeleteशुभकामनायें प्रवीण भाई ...
सर जी यदि अधिकारी इमानदार , अनुशासनप्रिय हो और कार्यभार संभालते ही इस वृक्ष को रोप दें , तो सजा और न्याय की अर्जी से दूर रहेगा |वैसे अफसर के नियत को कर्मचारियों को समझने में काफी देर हो जाती है और सब कुछ बर्बाद हो चूका होता है |इस स्थिति में असमंजस ही दशा स्वाभाविक है |
ReplyDelete"'दण्ड के बारे में इतिहासों में न जाने कितने उदाहरण बिखरे पड़े हैं। दो छोर हैं, कम आरोप के लिये अधिक दण्ड और अधिक दण्ड को भी क्षमा कर देने का उदारहृदय। "' ज्यादा प्रचालन में है |प्राकृतिक न्याय नहीं मिल पाती है |हमने न्याय और दंड की प्रक्रिया बहुत ही नजदीक से देखी है क्योकि मामला आते ही रहते है |वैसे एक दिल से निकली व्यथा के साथ ,विचारणीय लेख | वैसे दोनों तरफ - जैसा बोयेंगे , वैसा ही काटेंगे ..प्राकृतिक है |
गहन चिंतन की ओर इंगित कराती पोस्ट बहुत महतवपूर्ण लगी । मैं अनूप कुमार शुक्ल जी से सहमत हूँ ।
ReplyDeleteबहुत अच्छा और रोचक आलेख है सर!कभी कभी दंड देना आवश्यक भी होता है।
ReplyDeleteआज के हिंदुस्तान मे भी आपके इस आलेख का अंश प्रकाशित है।
सादर
शुक्रिया आपकी टिपण्णी का .शिंदे जहां भी मिलें छोड़ना न भैया .
ReplyDelete
ReplyDeleteभारतीय जनता पार्टी (भाजपा) नेता सुषमा स्वराज ने गुरुवार को कहा कि केंद्रीय गृह मंत्री सुशीलकुमार शिंदे को हिंदू आतंकवाद पर उनकी टिप्पणी के बाद केंद्रीय मंत्रिमंडल से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाना चाहिए क्योंकि इससे राष्ट्रीय हितों को चोट पहुंची है। सुषमा ने शिंदे को अपनी सीमाएं न लांघने की हिदायत देते हुए कहा कि कांग्रेस को लाभ पहुंचाने या भाजपा को नुकसान पहुंचाने की हद तक राजनीति की जा सकती है लेकिन इसे उस स्तर पर नहीं ले जाया जा सकता, जहां इससे राष्ट्रीय हित प्रभावित हों।
लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा यहां जंतर मंतर पर एक विरोध रैली को सम्बोधित कर रही थीं। उन्होंने कहा कि उनकी पार्टी चाहती है कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी इस मुद्दे पर माफी मांगें। उन्होंने कहा, "सोनिया गांधी को देश से माफी मांगनी चाहिए और शिंदे को बाहर का रास्ता दिखाना चाहिए।" सुषमा ने शिंदे के सम्बंध में कहा, "आपने ऐसे समय में राष्ट्रीय हितों को चोट पहुंचाई है, जब पाकिस्तान की ओर से हमारे सैनिकों के सिर कलम किए गए हैं। आप पाकिस्तान पर हमला नहीं कर रहे हैं लेकिन मुख्य विपक्षी दल पर हमला कर रहे हैं।"
उन्होंने कहा, "आप दुनिया से क्या कहना चाहते हैं? क्या आप कहना चाहते हैं कि पाकिस्तान में आतंकवादी शिविर हो सकते हैं लेकिन यहां मुख्य विपक्षी दल आतंकवादी शिविर चला रहा है! क्या आप कहना चाहते हैं कि आतंकवादी संसद में बैठे हैं? लोकसभा में विपक्ष की नेता एक आतंकवादी संगठन चला रही हैं?" गौरतलब है कि शिंदे ने जयपुर में कांग्रेस के चिंतन शिविर के दौरान रविवार को कहा था, "भाजपा हो या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) उनके प्रशिक्षण शिविर हिंदू आतंकवाद को बढ़ावा दे रहे हैं।" शिंदे की इस टिप्पणी के खिलाफ भाजपा गुरुवार को देशव्यापी विरोध-प्रदर्शन कर रही है।
यह तो शुरुआत है प्रदर्शन ज़ारी रहेंगे .इस देश का स्वाभिमान मरा नहीं है अंधा राजा ,गूंगी रानी ,दिल्ली की अब यही कहानी .बदली जायेगी ये कहानी .
आखिर बदजुबानी की भी कोई इन्तहा होती होगी अदबदा के कोई इस देश की मेधा का अपमान कैसे कर सकता है .अनुशानहीनता सभी स्तर पर बुरी .न छोड़ें अपराधी को .
शुक्रिया आपकी टिपण्णी का .शिंदे जहां भी मिलें छोड़ना न भैया .
ReplyDeleteविचार को काबिल-ए-गौर है। ऐसे विचारों पर अमल करके उसका परिणाम देखना चाहिए। शुक्रिया।
ReplyDeleteयदि जानबूझ कर गलती कि गयी हो तो दंड मिलना ही चाहिए ... अंजाने मेन कि गयी गलती को नज़रअंदाज़ कर क्षमा किया जा सकता है । मनुष्य का स्वभाव आसानी से नहीं बदलता .... कई बार सकारात्मक सोचते हुये क्षमा करने पर हानी ज्यादा हो जाती है ।
ReplyDeleteइस तरह के आशावादी दॄष्टिकोण से हमने अधिकतर सुधार ही होते पाया है।
ReplyDeleteछोटी और पहली बार की गई गलतियों में इस तरह आशावादी दंड का चांस ले सकते हैं ,आपकी बात भी सही है इस तरह सही इंसान अपने आप को कई बार सुधार लेता है ये सकारात्मक सोच ही बदलाव लाती है किन्तु कुछ गलतियां जो समाज के लिए खतरा हैं क्षमा योग्य नहीं होती किसको कितना कहाँ दंड मिलना चाहिए सब नियत है बस किसी बेगुनाह को दंड ना मिले इसका ख्याल हर क्षेत्र में रखा जाना चाहिए ।बहुत बढ़िया एक नए विषय पर आलेख बहुत अच्छा लगा बधाई आपको|
ReplyDeleteकुछ प्रतिमान कार्यस्थल पे प्रतिबद्ध हो कम करने के उन्हें बनाए रखने टूटने न देने के बनाए रखना बड़ा काम है ,आज इसमें जबकि जोखिम भी है ,कहाँ से राजनीतिक दवाब चला आये कोई निश्चय
ReplyDeleteनहीं .बधाई। नियम कायदे पे चलने प्रतिबद्ध रहने वाले लोग ही इस देश में गोचर व्यवस्था को बनाये हुए हैं शेष ....खोर हैं . ईद मिलादुल नबी और गणतन्त्र दिवस की शुभकामनाएं .
मुझे ज्ञात है कि दण्ड के विषय में सहृदय हो जाना लगभग १५ प्रतिशत घटनाओं में उल्टा बैठा है या कहें कि क्षमा किये लोगों पर कोई सुधार नहीं हुया और उन्होंने गलतियाँ पुनः की। लगभग ५० प्रतिशत लोगों पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा, पर वे नकारात्मकता की ओर भी उद्धत नहीं हुये। पर जिन ३५ प्रतिशत लोगों ने क्षमा का महत्व समझा और अधिक श्रम कर अपनी पुरानी गलतियों को भर दिया, वे मेरे लिये दण्ड प्रक्रिया का आनन्द रहे हैं, दण्ड न देने से ही सुधरने वाले। अनुशासन के मार्ग पर मध्यम और आशावादिता के मार्ग पर उच्च विश्वास सदा ही मेरी निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित करते रहे हैं।
ReplyDeleteTo err is human ,to forgive, divine.One should also see error oh his ways.Good post sirji .
जी मेरा भी यही माना है गलतियां सभी से होती हैं ...
ReplyDeleteउन्हें सही राह दिखाना हमारा फ़र्ज़ है .....
.क्या हमने कभी गलती नहीं की ....?
जमाना "दो आंखें बारह हाथ" फिल्म का नहीं रह गया है जहां अपराधी ओपन सेल में रखकर सुधारे जांय......उतनी उन्मुक्तता पर भी वे जेलर को मारने के लिये तैयार हो गये थे.
ReplyDeleteNice post
ReplyDeletewww.nayafanda.blogspot.com
सटीक आलेख...बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteमुबारक ईद मिलादुल नबी ,गणतंत्र दिवस जैसा भी है है तो हमारा हम बदलें इसके निजाम को न रहें तमाशाई .
ReplyDeleteto forgive needs a big heart.. not everyone can do it. But, we all deserve a second chance. Don't we ?.. with few exceptions :)
ReplyDeleteक्षमा , आशावादिता आदि ही तो वह प्रबल भाव है जो मनुष्यता को चरम पर रखता है .बस सामने वाला खुद में ईमानदार हो .
ReplyDeletePunishment should be there, it keeps a check on our behavior. Or else, people or majority of us will not behave properly.
ReplyDeleteप्रवीण जी दो तरह के लोग अब बहुत ही कम हैं एक वे कथित महान लोग और दूसरे सिद्धान्तों के पक्के नियम पालन में हानि लाभ के गणित से परे । अगर आपके अधिकारी इनमें से एक है तो बहुत अच्छी बात है । वरना आजकल तो कठोरता या उदारता स्वार्थ के हिसाब से बरती जाती है । बहुत अच्छा विश्लेषण ।
ReplyDeleteयह सूरज की ध्रिस्टता नहीं है की वह छिप जाता है उसके रास्ते में आने वाले बदलो की विवेचना भी होनी चाहिए। इंसानी प्रविर्तिया ही आम और खास का भेद शायद बनाती है।अपने बनाये हुए उच्च आयामों की अपेक्छा शायद सभी से करना अनुचित हो सकता है ही किन्तु आशावादिता की किरण तो देखना अनुचित नहीं होगा।कठोरता हमेसा प्रेरक नहीं हो सकता भीर भी निर्णय लेने वाले को ही यह अधिकार है की भिविष्य की पुन्राब्रिती की कितनी संभाबना मौजूद है। एक सहज और प्रेरणादायक लेख।धन्यवाद
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