शीर्षक पढ़कर थोड़ा सा अटपटा अवश्य लगा होगा। स्वाभाविक ही है क्योंकि समाचार के साथ संश्लेषण शब्द प्रयुक्त ही नहीं होता है। संश्लेषण का अर्थ है, भिन्न से प्रतीत होने वाले कई विचारों, तथ्यों या वस्तुओं को एकरूपता से प्रस्तुत करना। समाचार तो एक तथ्य है, एक तथ्य में भिन्नता कहाँ से और यदि भिन्नता नहीं तो उसका संश्लेषण कैसा? यदि समाचार के साथ कुछ किया जा सकता है तो वह है उसका विश्लेषण, समाचार विश्लेषण एक सुना हुआ शब्द भी है। समाचार को कई पहलुओं में विभक्त कर उसके कारणों और निष्कर्षों की विवेचना ही उसका विश्लेषण हुआ। विश्लेषण में मत भिन्न हो सकते हैं पर समाचार का तथ्य अभिन्न रहता है।
विकास जब अँगड़ाई लेता है तो जम्हाई के कई स्वर उसमें समाहित हो जाते हैं, जितनी बार अँगड़ाई लेता है उतने ही नये स्वर आ जाते हैं। दूसरी प्रकार से कहें तो जब कोई नया खिलौना बच्चे के हाथ लगता है तो उससे सम्बन्धित नये खेल ढूढ़ लेता है, रचना कर डालता है। जब पहली बार गेंद बनी होगी तो जमीन पर लुढ़का कर खेलने वाला कोई खेल बना होगा, कुछ बॉउलिंग जैसा। धीरे धीरे पिठ्ठू जैसे खेल की अवधारणा बनी होगी। हॉकी, फुटबाल, बॉस्केटबॉल, हैण्डबॉल, टेबलटेनिस, कंचे और न जाने क्या क्या खेल, हाँ हाँ, क्रिकेट भी, बिना उसके खेलों की परिभाषा कहाँ पूरी होगी भला? बॉल के आकार प्रकार के आधार पर खेल बने होंगे, उनके नियम बने होंगे। जब तक बॉल का स्वरूप उस प्रकार का बना रहता है, वह खेल होता रहता है, आनन्द आता रहता है।
यही विकासक्रम समाचारों पर भी लागू होता है, पहले दूतों के माध्यम से एक आध समाचार आते थे पड़ोसी देशों के, उससे अधिक खेल और छेड़छाड़ नहीं हो पाती थी। स्थानीय समाचार शाम के जमने वाली पंचायतों या बैठकों में चर्चा में लिये जाते होंगे, पर अधिक तो वे भी नहीं होते होंगे। स्थानीय समाचारों में सम्बन्धित व्यक्ति या घटना की जानकारी पहले से ही रहती होगी अतः उसमें भी अधिक छेड़छाड़ की संभावना नहीं रहती होगी। सीमित संवादों से बढ़कर स्थिति समाचारपत्रों और चैनलों तक आ पहुँची है। देश भर के समाचार देखने के लिये पूरा देश ही बैठा है। समाचार भी वही उठाये जाने लगे हैं जो मन में तरंग संचारित कर दें। हर कोई ऐसे ही समाचारों को प्राथमिकता देने लगा, एक होड़ लगी है कि किस तरह प्रतियोगिता जीती जाये, अधिक दर्शक जुटा लेने की।
अब यदि गेंद की तुलना समाचार से करें, तो गेंद के आकार प्रकार से कुछ विशेष तरह के ही खेल खेले जा सकते हैं। उदाहरण स्वरूप, बॉस्केटबॉल से आप लॉनटेनिस नहीं खेल सकते हैं। इसी प्रकार समाचार की प्रकृति के आधार पर आप उसे कुछ विशेष प्रकार से ही व्यक्त कर सकते हैं। यदि आप भिन्न प्रकार की गेंद से भिन्न खेल खेलें तो बॉल का जो हाल होता है, वही हाल चैनल समाचारों का कर रहे हैं। यही नहीं, एक समाचार को इतना अधिक दिखा डालते हैं कि यह पता ही नहीं चलता है कि उसका प्रारम्भिक या मूल स्वरूप क्या था? ठीक उसी प्रकार जैसे किसी एक बॉल को इतना पीटा जाये कि वह चीथड़े चीथड़े हो जाये।
समाचारों की तुलना गेंद से करने का उद्देश्य, किसी समाचार को नीचा दिखाना नहीं। अब कोई घटना हो गयी तो वह पिसेगी ही चैनलों की चक्की में, पिस कर क्या निकलेगी, क्या मालूम? दोष तो घटना का ही है कि वह क्यों हो गयी? मेरी समस्या उन सभी लोगों की समस्या है जिनके पास इतना समय नहीं रहता कि किसी एक समाचार को दो तीन दिनों तक देखें। यदि प्रारम्भ छूट जाता है तो वह समाचार बहुत आगे तक निकल जाता है, बीच में देखने में कुछ समझ भी नहीं आता है। यदि समझने के लिये दूसरा चैनल खोलें तो वही समाचार किसी दूसरी दिशा में भागा जाता हुआ दिखता है। तीसरे चैनल पर वही समाचार तब तक इतना धुन दिया जाता है कि उसकी विषयवस्तु को संयोजित करने में घंटों लग जाते हैं। यदि संशय दूर करने के लिये आप किसी से कुछ पूछ बैठे तो वह भी हँसने लगता है कि घंटे भर बैठने के बाद भी श्रीमानजी को समझ नहीं आ रहा है। उसे भी कहाँ फुर्सत, उसे तो उस समाचार के आगत व्याख्या भी देखनी है, कहीं ध्यान भंग हुआ तो उसे सारे सूत्र पुनः जोड़ने पड़ेंगे।
जहाँ एक समाचार का सागर व्याप्त है, उसके भिन्न स्तरों पर प्रस्तुत पक्ष उपस्थित हैं, इतना अधिक मंथन हो जाने के बाद के विष अमृत जैसे फल उपस्थित हैं, और हम हताश से कुछ न समझ पायें, यह समाचार का कम, हमारी समझ का अधिक अपमान है। यही कारण रहा होगा कि अपनी कमी छिपाने के लिये हम लोगों ने एक नयी विद्या विकसित कर ली है, समाचार संश्लेषण की। निश्चय ही पुराने जन्मों का प्रताप है कि पाँच मिनट में आठ चैनल देखते ही हमें समाचार पूरा समझ में आ जाता है। कहीं थोड़ा कम आता है, कहीं थोड़ा अधिक।
संश्लेषण अच्छा कर सकने के लिये आप को कुछ मूलभूत तथ्य जानने आवश्यक हैं। पहला तो सारे चैनलों की गति जानना आवश्यक है, उस चैनल पर एक समाचार कितना फैल चुका है, यह देखकर ही आप बता देंगे कि घटना कब हुयी थी? दूसरा, इन चैनलों की निष्ठायें समझना आवश्यक है, ऐसा करने से आप उन समाचारों को किस ओर कितना मोड़ कर स्वीकार करना है, यह पता चल जाता है। तीसरा है चैनलों की नये तथ्य खोजने और पुराने तथ्यों को खोदने की सामर्थ्य, इससे आपको विषय की गहराई विधिवत पता चल जायेगी।
इतना विशेष ज्ञान होने के बाद ही आप में वह सक्षमता विकसित हो पायेगी जिससे आप किसी समाचार का संश्लेषण कर पायेंगे। इन गुणों के अभाव में कितना ज्ञान आपके हाथ से रेत जैसा निकल जायेगा, उसका अनुमान लगाना ही कठिन है। एक समाचार पर हर चैनल का पुराना शोध उपस्थित है और नया शोध प्रतिपल उत्पन्न हो रहा है, विवेकानन्दजी की तरह पन्ने पलटकर सब समझ लेने की क्षमता विकसित करनी होगी अन्यथा समाचार के युग में असमाचारी ही रह जायेंगे।
आश्चर्य होता है कि संश्लेषण की इतनी विशिष्ट और ज्ञानपरक विधियाँ विद्यालयों में नहीं पढ़ायी जाती, नागरिकों को उनकी मेधा के अनुसार अस्तव्यस्त सीखने को विवश किया जाता है। आचार विचार से नयी पीढ़ी भले ही वंचित रह जाये, समाचार से जुड़े रहने का मानवाधिकार उससे नहीं छीना जा सकता है। आश्चर्य है, देश महाक्षति की ओर भागा जा रहा है और रास्ते में कोई मोमबत्ती भी नहीं जल रही है?
विकास जब अँगड़ाई लेता है तो जम्हाई के कई स्वर उसमें समाहित हो जाते हैं, जितनी बार अँगड़ाई लेता है उतने ही नये स्वर आ जाते हैं। दूसरी प्रकार से कहें तो जब कोई नया खिलौना बच्चे के हाथ लगता है तो उससे सम्बन्धित नये खेल ढूढ़ लेता है, रचना कर डालता है। जब पहली बार गेंद बनी होगी तो जमीन पर लुढ़का कर खेलने वाला कोई खेल बना होगा, कुछ बॉउलिंग जैसा। धीरे धीरे पिठ्ठू जैसे खेल की अवधारणा बनी होगी। हॉकी, फुटबाल, बॉस्केटबॉल, हैण्डबॉल, टेबलटेनिस, कंचे और न जाने क्या क्या खेल, हाँ हाँ, क्रिकेट भी, बिना उसके खेलों की परिभाषा कहाँ पूरी होगी भला? बॉल के आकार प्रकार के आधार पर खेल बने होंगे, उनके नियम बने होंगे। जब तक बॉल का स्वरूप उस प्रकार का बना रहता है, वह खेल होता रहता है, आनन्द आता रहता है।
अब यदि गेंद की तुलना समाचार से करें, तो गेंद के आकार प्रकार से कुछ विशेष तरह के ही खेल खेले जा सकते हैं। उदाहरण स्वरूप, बॉस्केटबॉल से आप लॉनटेनिस नहीं खेल सकते हैं। इसी प्रकार समाचार की प्रकृति के आधार पर आप उसे कुछ विशेष प्रकार से ही व्यक्त कर सकते हैं। यदि आप भिन्न प्रकार की गेंद से भिन्न खेल खेलें तो बॉल का जो हाल होता है, वही हाल चैनल समाचारों का कर रहे हैं। यही नहीं, एक समाचार को इतना अधिक दिखा डालते हैं कि यह पता ही नहीं चलता है कि उसका प्रारम्भिक या मूल स्वरूप क्या था? ठीक उसी प्रकार जैसे किसी एक बॉल को इतना पीटा जाये कि वह चीथड़े चीथड़े हो जाये।
समाचारों की तुलना गेंद से करने का उद्देश्य, किसी समाचार को नीचा दिखाना नहीं। अब कोई घटना हो गयी तो वह पिसेगी ही चैनलों की चक्की में, पिस कर क्या निकलेगी, क्या मालूम? दोष तो घटना का ही है कि वह क्यों हो गयी? मेरी समस्या उन सभी लोगों की समस्या है जिनके पास इतना समय नहीं रहता कि किसी एक समाचार को दो तीन दिनों तक देखें। यदि प्रारम्भ छूट जाता है तो वह समाचार बहुत आगे तक निकल जाता है, बीच में देखने में कुछ समझ भी नहीं आता है। यदि समझने के लिये दूसरा चैनल खोलें तो वही समाचार किसी दूसरी दिशा में भागा जाता हुआ दिखता है। तीसरे चैनल पर वही समाचार तब तक इतना धुन दिया जाता है कि उसकी विषयवस्तु को संयोजित करने में घंटों लग जाते हैं। यदि संशय दूर करने के लिये आप किसी से कुछ पूछ बैठे तो वह भी हँसने लगता है कि घंटे भर बैठने के बाद भी श्रीमानजी को समझ नहीं आ रहा है। उसे भी कहाँ फुर्सत, उसे तो उस समाचार के आगत व्याख्या भी देखनी है, कहीं ध्यान भंग हुआ तो उसे सारे सूत्र पुनः जोड़ने पड़ेंगे।
जहाँ एक समाचार का सागर व्याप्त है, उसके भिन्न स्तरों पर प्रस्तुत पक्ष उपस्थित हैं, इतना अधिक मंथन हो जाने के बाद के विष अमृत जैसे फल उपस्थित हैं, और हम हताश से कुछ न समझ पायें, यह समाचार का कम, हमारी समझ का अधिक अपमान है। यही कारण रहा होगा कि अपनी कमी छिपाने के लिये हम लोगों ने एक नयी विद्या विकसित कर ली है, समाचार संश्लेषण की। निश्चय ही पुराने जन्मों का प्रताप है कि पाँच मिनट में आठ चैनल देखते ही हमें समाचार पूरा समझ में आ जाता है। कहीं थोड़ा कम आता है, कहीं थोड़ा अधिक।
संश्लेषण अच्छा कर सकने के लिये आप को कुछ मूलभूत तथ्य जानने आवश्यक हैं। पहला तो सारे चैनलों की गति जानना आवश्यक है, उस चैनल पर एक समाचार कितना फैल चुका है, यह देखकर ही आप बता देंगे कि घटना कब हुयी थी? दूसरा, इन चैनलों की निष्ठायें समझना आवश्यक है, ऐसा करने से आप उन समाचारों को किस ओर कितना मोड़ कर स्वीकार करना है, यह पता चल जाता है। तीसरा है चैनलों की नये तथ्य खोजने और पुराने तथ्यों को खोदने की सामर्थ्य, इससे आपको विषय की गहराई विधिवत पता चल जायेगी।
इतना विशेष ज्ञान होने के बाद ही आप में वह सक्षमता विकसित हो पायेगी जिससे आप किसी समाचार का संश्लेषण कर पायेंगे। इन गुणों के अभाव में कितना ज्ञान आपके हाथ से रेत जैसा निकल जायेगा, उसका अनुमान लगाना ही कठिन है। एक समाचार पर हर चैनल का पुराना शोध उपस्थित है और नया शोध प्रतिपल उत्पन्न हो रहा है, विवेकानन्दजी की तरह पन्ने पलटकर सब समझ लेने की क्षमता विकसित करनी होगी अन्यथा समाचार के युग में असमाचारी ही रह जायेंगे।
आश्चर्य होता है कि संश्लेषण की इतनी विशिष्ट और ज्ञानपरक विधियाँ विद्यालयों में नहीं पढ़ायी जाती, नागरिकों को उनकी मेधा के अनुसार अस्तव्यस्त सीखने को विवश किया जाता है। आचार विचार से नयी पीढ़ी भले ही वंचित रह जाये, समाचार से जुड़े रहने का मानवाधिकार उससे नहीं छीना जा सकता है। आश्चर्य है, देश महाक्षति की ओर भागा जा रहा है और रास्ते में कोई मोमबत्ती भी नहीं जल रही है?
खबरिया चैनलों की अच्छी ख़बर लेती पोस्ट |सजग दृष्टि से समाचार देखने और सुनने का समय आ गया है |सर इस पोस्ट से आम पाठकों को एक नवीन दृष्टि मिलेगी |आभार |
ReplyDeleteआपसे एक अनुरोध है की आप अपने व्यापक अनुभवों को समेटकर एक अच्छा उपन्यास ,एक अच्छा संस्मरण ,या यात्रा वृतांत चाहे रेलवे पर ही क्यों न हो लिखने का कष्ट करें |आपका गद्य ,भाषा शैली ,विश्लेषण की क्षमता अतुलनीय है |हम इन्तजार करेंगे |
ReplyDeleteबड़े हुनर का काम है समाचारों की कलाबाजी समझना।
ReplyDeleteआश्चर्य है, देश महाक्षति की ओर भागा जा रहा है और रास्ते में कोई मोमबत्ती भी नहीं जल रही है?
ReplyDeleteआश्चर्यजनक भी और दुखद भी | पूरे समाज को दिशाहीन किया जा रहा है |
अपने हित बल्कि स्वार्थों की पूर्ति करिये, यही सबसे अच्छा सिद्धान्त है भारतवासियों के लिये. जिन्होंने देश की चिन्ता की, उन्हें क्या मिला.
ReplyDelete"निश्चय ही पुराने जन्मों का प्रताप है कि पाँच मिनट में आठ चैनल देखते ही हमें समाचार पूरा समझ में आ जाता है। कहीं थोड़ा कम आता है, कहीं थोड़ा अधिक।"
ReplyDeleteकाफी भाग्यशाली निकले हम तो जो हमें ऐसे खबरिया चैनल मिले :)
एक समाचार को इतना अधिक दिखा डालते हैं कि यह पता ही नहीं चलता है कि उसका प्रारम्भिक या मूल स्वरूप क्या था? ठीक उसी प्रकार जैसे किसी एक बॉल को इतना पीटा जाये कि वह चीथड़े चीथड़े हो जाये।...हा हा!!.... एकदम सटीक कहा!!
ReplyDeleteसमाचारों की तुलना गेंद से करने का उद्देश्य, किसी समाचार को नीचा दिखाना नहीं।...ये और क्या पाताल में जाकर आप मानेंगे कि नीचा दिखाने की कोशिश है :)
चैनलों की गति जानना ...इसमें तो आजतक स्वयंभू विजेता है...आजतक सबसे तेज ..
ReplyDeleteयहाँ तो तात्विक तौर पर विश्लेषण और संश्लेषण में मुझे तो कोई फरक ही नज़र नहीं आ रहा है :-)
ReplyDeleteसमाचार देखने की इच्छा ही नहीं करती , बेहद घटिया और चालू स्तर है ...
ReplyDelete...सच में समाचारों का कचूमर निकाला जा रहा है आजकल !
ReplyDeleteसार्थकता लिये बेहद उत्कृष्ट पोस्ट ...
ReplyDeleteआभार
संश्लेषण हो या विश्लेषण ....... समाचार चुस्त दुरुस्त घटिया माध्यम हो गया है
ReplyDeleteघटिया पसारण के कारण समाचार देखने की इच्छा ही नहीं करती विश्लेषण हो या संश्लेषण,मुझे तो कोई फरक ही नज़र नहीं आता,,,,
ReplyDeleterecent post : बस्तर-बाला,,,
हमें तो कई बार समझ ही नहीं आ पाता की दरअसल ये चैनल कहना क्या चाहते हैं ... इतना लपेट लेते हैं की कुछ दिखाई ही अहि दे पाता ...
ReplyDeleteइतना विशेष ज्ञान होने के बाद ही आप में वह सक्षमता विकसित हो पायेगी जिससे आप किसी समाचार का संश्लेषण कर पायेंगे। इन गुणों के आभाव।।।।।।।।(अभाव )........ में कितना ज्ञान आपके हाथ से रेत जैसा निकल जायेगा, उसका अनुमान लगाना ही कठिन है। एक समाचार पर हर चैनल का पुराना शोध उपस्थित है और नया शोध प्रतिपल उत्पन्न हो रहा है, विवेकानन्दजी की तरह पन्ने पलटकर सब समझ लेने की क्षमता विकसित करनी होगी अन्यथा समाचार के युग में असमाचारी ही रह जायेंगे।
ReplyDelete18 घंटा चलाता है एक समाचार बीच बीच में बहुरूपा नौटंकी समाचार के नाम पे कुछ भी ,चैनल पे मलयुद्ध देखिये एक दुसरे के मुंह पे मल ही फैंकते हैं गुफ़्त्गुइये .बढ़िया संश्लेषण चैनलियों का .
श्री जयकृष्ण राय तुषार की दूसरी टिप्पणी पर अवश्य ध्यान दीजिएगा। मैं भाग्यशाली हूं कि बेवकूफ बक्शा घर में नहीं है। तीन-चार वर्ष पूर्व तक आपकी व्यक्त की गई चिंता से अत्यन्त प्रताड़ित था। तब से शांति है।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteआपकी पोस्ट के लिंक की चर्चा कल रविवार (20-01-2013) के चर्चा मंच-1130 (आप भी रस्मी टिप्पणी करते हैं...!) पर भी होगी!
सूचनार्थ... सादर!
सुन्दर और सार्थक विवेचना। आपको बहुत-बहुत बधाई।
ReplyDeleteसार्थक आलेख
ReplyDeleteबहुत सही प्रवीण जी. अब टीवी समाचार सुनना समय बरबाद करने जैसा लगता है.
ReplyDeleteएक ही पंक्ति इस तरह रिपीट होती है जैसे कोई बहुत बडा भूचाल आगया हो और बस यह खबर उसी चेनल के हाथ लगी हो. कौन समय जाया करे इन चैनलों को देखने में?
ReplyDeleteरामराम
ReplyDeleteबढ़िया विश्लेषण .किस चैनल पर कौन सी खबर बढ़त बनाए हुए है ,उससे उसकी राजनीतिक प्रतिबद्धता का स्वत :खुलासा हो जाता है .कोर्पोरेतिकरण से आगे निकल गए हैं ये चैनल .जैसे अखबारों में
आजकल न्यूज़ इम्प्लांट किये जाते हैं वैसे ही चैनल में पहली खबर के पैसे लगते हैं .अलबत्ता कुछ ख़बरें खुद अपना स्थान ढूंढ लेती हैं .जन आक्रोश भी अब स्थान पाने लगा है .
सिर्फ समाचार तक सीमित हों तो भी ठीक है किन्तु ये तो विज्ञापन/ब्रेक चैनल बन कर रह गये हैं।
ReplyDeleteखबर को लम्बा खींचना तो एक बहाना है,
ReplyDeleteअसल तो TRP में नंबर एक पाना है,
कहीं इस खेल में न रह जाएँ पीछे,
यही सोच के तो खबर को लंबा खींचते जाना है |
बिलकुल सत्य कहा है आपने ये सब trp का ही खेल है
Deleteबात तो उचित है. लेकिन आखिर २४ घंटे चैनेल्स चलाना है. तो एक समाचार इतने लंबा हो जाता है कि उसे सुनकर हम खुद ही पक जाते हैं.
ReplyDeleteअच्छा है और सच्चा है।
ReplyDeleteआजकल बस पकाने वाले समाचार ही होते है एक छोटी सी बात को लेकर घंटो तक उस पर बताया जाता है , आजकल समाचार चेनल देखना समय की बर्बादी सी है...
ReplyDeleteअपना-अंतर्जाल
एचटीएमएल हिन्दी में
behad sarthak lekh.....
ReplyDeleteसमाचार देखने के लिए टीवी तो छोड़ना ही पड़ गया अब ख़बरों के मामले में सिर्फ अख़बारों व नेट पर ही निर्भर है |
ReplyDeleteआज का समाचार ...अचार सा ही
ReplyDeleteमैं एक पत्रकारिता का विद्यार्था रहा हुं तो अपने क्लासरूम में समाचार की प्रकृति और विषयवस्तु पर बहुत मंथन किया है पर जो समाचार संश्लेषण आपने किया है वह मेरे लिए एकदम नया है...सुन्दर प्रस्तुति। आभार आपका।
ReplyDeleteबहुत सही कहा..सुन्दर और सार्थक विवेचना
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