रेलवे स्टेशन पर हुयी एक चित्रकला प्रदर्शनी के चित्रों को निहार रहा था, एक चित्र ने सहसा ध्यान आकर्षित कर लिया। चित्र में दो क़ुली बैठकर सुस्ता रहे हैं और शीर्षक है, द साइलेन्स बेटवीन डिपार्चर एण्ड एराइवल, जाने व आने के बीच की शान्ति। चित्रकार हैं श्री पी सम्पत कुमार।
जब चित्र देखा तो रेलवे स्टेशन पर घटने वाली सामान्य घटना का चित्रण लगा वह, एक ट्रेन जा चुकी है, दूसरी आने वाली है, कुलियों के लिये यह विश्राम का समय है। सामान्य यात्रियों को यह दृश्य नहीं दिखते हैं, ट्रेन के आते और जाते समय कुलीगण व्यस्त ही रहते हैं। हाँ, कभी ट्रेन के समय के बहुत पहले पहुँचना हो, किसी कारणवश स्टेशन पर अधिक रुकना पड़ जाये या विश्रामालय में कभी रुके हों और भोजनोपरान्त प्लेटफ़ार्म पर टहलना हो, तभी इस तरह के दृश्य दिखते हैं। हम रेलसेवकों के लिये यह दृश्य नियमित दिनचर्या का अंग है।
हम सबके लिये यह दृश्य भले ही सामान्य हो, पर चित्र को ध्यान से देखें, चेहरे के भाव पढ़ें और शीर्षक पर विचार करें तो यह दृश्य सामान्य नहीं रह जाता है। जीवन के संदर्भों में इस चित्र का दार्शनिक पक्ष बड़ा ही सशक्त है। कुलियों के शरीर तनिक शिथिल हैं, विगत श्रम का परिणाम हो सकता है, कुछ संवाद चल रहा है, संभवतः कार्य से संबंधित वार्तालाप हो या हो सकता है घर परिवार या गाँव का विषय हो। ठेले पर बैठना, श्रम और विश्राम का साधन एक होने की ओर संकेत कर रहे हैं। चित्र मानसिक स्तर पर जो कुछ भी संप्रेषित कर सकने में सक्षम है, वह व्यक्त सा दिख रहा है। रेलवे के बारे में जितना ज्ञान मनस पटल पर होगा, उतने संबद्ध अर्थ दे जायेगा यह चित्र।
दार्शनिक स्तर पर इस चित्र का शीर्षक बहुत कुछ कह जाता है। किसी युवा के लिये सप्ताह के कार्यदिवस सप्ताहान्तों के आनन्द के बीच की शान्ति है, उसका सारा मन इसी बात के लिये लगा रहता है कि कब पुनः सप्ताहान्त आये और वह आनन्दमय हो जाये। किसी कर्मशील के लिये सप्ताहान्त एक शान्ति के रूप में आता है। किसी विरहणा के लिये प्रियतम के जाने और आने की बीच की प्रतीक्षामयी शान्ति, किसान के लिये वर्षा के जाने और आने की बीच की शान्ति, विद्यार्थी के लिये परीक्षाओं के बीच की शान्ति, श्रमिक के लिये रात का विश्राम दो संघर्षरत दिवसों के बीच की शान्ति है, अनुशासित पति के लिये पत्नी के मायके जाने और वापस आने के बीच की शान्ति, राजनेता के लिये एक समस्या के जाने और दूसरी के आने के बीच की शान्ति। हर एक के कर्मक्षेत्र में इस तरह के शान्तितत्वों की उपस्थिति रहती है, जो एक कार्य और दूसरे कार्य के बीच होती है।
लोग प्रकृति को गतिमय मानते हैं, जब गति नहीं रहती है तो उसे शान्ति समझते हैं। थोड़ा गहरे सोचा जाये तो शान्ति ही मूल है, कोई विक्षेप या हलचल उत्पन्न होती है, बढ़ती है और ढल जाती है। शरीर को ही देखें, रात भर पूरा का पूरा तन्त्र लगा रहता है, थकान स्वरूप टूटे और बिखरे तन्तुओं को जोड़ने के लिये ताकि सुबह पुनः ऊर्जस्वित हो जाये, ऊर्जा वह भी स्थिर, बहने को तैयार। एक परमाणु के अन्दर परमाणु बम की ऊर्जा विद्यमान होती है पर वह भी शान्तिप्रियता में रमा रहता है, क्रियाशीलता आने पर ही विस्फोट करता है। समाज के सारे तन्त्र देखें तो वे भी शान्ति में बने रहना चाहते हैं, बिना हिलाये हिलते ही नहीं, उपयोगी हो, अनुपयोगी हों। हमारी क्रियाशीलता प्रकृति की शान्तिप्रिय मन्थर गति से कहीं अधिक होती है, हम विश्व को गतिमय करते हैं और मूल रूप से उपस्थित शान्ति को गतिमयता से उत्पन्न अन्तराल मान लेते हैं।
ऊष्मागतिकी (Thermodynamics) के द्वितीय नियम को देखें तो वह भी वही इंगित करती है। उथल पुथल का एक मानक होता है, एन्ट्रॉपी, किसी भी तन्त्र के अन्दर उपस्थित ऊर्जा के प्रवाह का मानक। यदि किसी भी तन्त्र को प्रकृति के भरोसे छोड़ दिया जाये, उससे छेड़ छाड़ न किया जाये तो उसकी एन्ट्रॉपी स्वतः कम होती रहती है और अपने न्यूनतम स्तर पर पहुँच जाती है। न्यूनतम स्तर की एन्ट्रॉपी शान्ति का परिचायक है, शान्ति मूल है, प्रकृति शान्तिप्रिय है, हम सृष्टि चलाने के क्रम में उसे गतिमय कर देते हैं, उसे उस स्थिति में छोड़ देने से वह स्वतः ही अपने मूलतत्व में समा जाती है।
बचपन में एक शान्तिपाठ पढ़ते थे, जिसमें प्रकृति के सब तत्वों को शान्ति की ओर जाने का उद्बोधन होता था, हर कार्य के पश्चात, हर यज्ञ के पश्चात। तब तनिक आश्चर्य होता था कि कार्य कर रहे हैं तो शान्ति की प्रार्थना क्यों, प्रकृति तत्वों से शान्ति का उद्बोधन क्यों? तब यह तथ्य समझ नहीं आता था कि प्रकृति का मूल तत्व शान्ति है, हमारा कोई भी उद्योग उसमें विध्न डाल रहा है, पर क्या करें, करना आवश्यक है। शान्तिपाठ प्रकृतिअंगों से उस मूलतत्व में पुनः बसने का आग्रह मात्र है। तो क्या हमारे पूर्वजों के उपक्रम न्यूनतम उथल पुथल पर केन्द्रित थे, यम नियम, जीवनशैली अधिक श्रमसाध्य न हो प्रकृति से ताल मिलाकर चलने वाली थी। ध्यान, समाधि, आत्मचिन्तन, शाकाहार, अपरिग्रह, सब के सब प्रकृति के नियमों से प्रेरित थे, ऊष्मागतिकी के द्वितीय नियम की दिशा में थे। प्रश्न कई हैं, दर्शन गहन है, उत्तर एक दिन में मिलने वाले नहीं, उत्तर बिना अनुभव मिलने वाले नहीं। स्थिर हो जाने की अदम्य चाह कहीं सार्वभौमिक तो नहीं, हम जीवों में।
गतिमयता को सफलता स्वीकार करने वाले, शान्ति के इस अन्तराल को अधिक महत्व नहीं देंगे, उनके मन में तो पुनः आने वाले कार्य के लिये उथल पुथल मची है, उनके लिये तो यह समय भी कार्यतुल्य है। अधिक कर जाने की चाह सफलता का मानक हो जाये तो वह सुख कहाँ से आयेगा जो कुछ न होने की शान्ति से आता है, जो मुक्तिपथ से आता है। बहुतों को लगता है कि उनका जीवन निष्प्रयोजन में ही निकला जा रहा है, उन्हें जाने और आने के बीच की शान्ति की आवश्यकता ही नहीं है। ऐसे कर्मशीलों ने जहाँ एक ओर मानवता को कई उपहार दिये हैं, वहीं दूसरी ओर उन्होने प्रतियोगिता को उन्मादित कर अन्य के लिये विश्व को एक कठिन स्थान बना दिया है। वहीं दूसरी ओर कुछ लोग प्रकृति के सहज उपासना के भ्रम में न्यूनतम से भी कम कर आलस्यविहार में बैठे रहते हैं। कर्महीन नर पावत नाहीं, पर कर्मशील भी सुख को न जान पाये, इस द्वन्द्व में विश्व सदा ही गतिमान बना रहता है।
आप इस अन्तराल को किस प्रकार लेते हैं, यह एक बड़ा प्रश्न है। यह सभ्यताओं के उत्थान और पतन का प्रश्न है, यह प्रश्न संस्कृतियों के वैशिष्ट्य का प्रश्न है, यह प्रश्न संसाधनों के संदोहन का प्रश्न है और यही तन्त्रों के सरलीकरण का प्रश्न भी है। कभी कभी कुछ न होता हुआ दिखना, बहुत कुछ हो चुके होने का प्रतीक होता है, मानवविहीन संयन्त्रों को बनाने के पीछे कितनी मेधाओं का श्रम छिपा है, यह प्रत्यक्ष से कहाँ पता चलता है? सुव्यवस्थित नगर को चलाने के उपक्रम में नेपथ्य में कितना कार्य हुआ होगा, क्या पता? कई क्षेत्रों और देशों में मची उथल पुथल, अव्यवस्था और अशांति, कर्मशीलता के मानक तो नहीं हो सकते। हमारा श्रम व्यवस्था का प्रेरक हो, व्यवस्था शान्ति लाये, यही है मेरे लिये जाने और आने के बीच की शान्ति।
चित्र भले शांत दिख रहा हो पर चेहरे देखने से साफ़ लगता है कि मन मष्तिष्क शांत नहीं है कोई गहन संवाद हो रहा है|
ReplyDeleteएक दम सही पहचान की है चित्र की भाषा की -शेखावत जी... यह शान्ति नहीं बातचीत है , विचार विमर्श है.... नियमित सांसारिक आपा-धापी कर्म के बीच फुर्सत का संवाद भी होसकता है...समस्या पर विमर्श भी ...तात्कालिक कर्म-विश्राम या परिवर्तन से भी मानसिक ---> शारीरिक---.मानसिक विश्रांति भी प्राप्त होती है.....
Deleteलय का लयात्मक अंतराल.
ReplyDeleteअधिक कर जाने की चाह सफलता का मानक हो जाये तो वह सुख कहाँ से आयेगा जो कुछ न होने की शान्ति से आता है, जो मुक्तिपथ से आता है।एक कार्य सम्पादित होने बाद अगले कार्य को और अच्छा करने की ललक भी शायद बीच की शान्ति को भंग करती है।सुन्दरआलेख।सुन्दर विषय।कोटि-कोटि नमन।
ReplyDeleteगहन दार्शनिक विवेचना.शान्ति के ये पल अनुभव करने का ,आज की अँधाधुंध दौड़ में, कितनों को अवकाश मिलता होगा !
ReplyDeleteपढ़िया लगा यह आलेख।
ReplyDeleteमेरे विचार से.. जिसे आप शांति कह रहे हैं वस्तुतः वही बेचैनी है। ट्रेन आ गई तो तो तन व्यस्त हुआ मस्तिष्क को सोचने की फुर्सत कहाँ है? वह तो वही सोचता है जिससे झटपट काम खतम हो जाय। बेचैनी तो ट्रेन के आने से पहले रहती है। चित्र के इस शीर्षक को मैं व्यंग्य की तरह ले रहा हूँ। इसमें एक विस्मयादिबोधक चिन्ह होता तो गज़ब हो जाता। ये दो बुजुर्गों के शांति के पल नहीं, मृत्यु से पहले की चिंता है। शांति तो तब होगी जब मृत्यु की गोद में सो जायेंगे। ...
..फिर आऊँगा..शांति के समय..अभी तो दफ्तर पहुँचने की बेचैनी है।
प्रतियोगिता को उन्मादित कर अन्य के लिये विश्व को एक कठिन स्थान बना दिया है।
ReplyDeleteकर्महीन नर पावत नाहीं, पर कर्मशील भी सुख को न जान पाये, इस द्वन्द्व में विश्व सदा ही गतिमान बना रहता है।
आजकल सभी इस गतिशीलता की भी गति बढ़ने में ही जुटे रहते हैं । सच, भीतर की शांति सुकून के विषय में सोचने का समय ही नहीं ।
आने और जाने के बीच का समय। यही तो जीवन है। श्रम और विश्राम के बीच का समय ही तो संतुलन लाता है। श्रम नहीं करेंगे तो विश्राम भी मुश्किल होगा।
ReplyDeleteचित्र तो लाखों हैं, लेकिन हम कहा देख पाते हैं। प्रकृति और जीवन के कितने सारे रंग बिखरे पड़े हैं, हमारे आस-पास।
आपकी दृष्टि सराहनीय है। आपके भीतर छिपे दृष्ट को नमन।
इस भागा दौड भरी जिन्दगी मे कुछ भी सोचने समझने की लोगों को समय कहाँ..? बहुत ही गहन दार्शनिक विवेचना...आभार
ReplyDeleteएक थकान को दूर करने की चेष्टा और कई चिंताएं थके चेहरे पर
ReplyDeleteहमारा श्रम व्यवस्था का प्रेरक हो, व्यवस्था शान्ति लाये, यही है मेरे लिये जाने और आने के बीच की शान्ति।
ReplyDeleteहमेशा की तरह एक और उत्कृष्ट पोस्ट
आभार
....जीवन का आवश्यक तत्व है शान्ति ।
ReplyDeleteसार्थक श्रम के बाद ही मन को शांती और तन को सकून मिलता है,,
ReplyDeleterecent post: मातृभूमि,
बहुत गहन सारगर्भित विवेचन...
ReplyDeleteओउम शांति शांति शांति ...यही लाभ है ब्लॉग का एकदम मौलिक दर्शन और विवेचना पढ़ने को मिलती है.सुन्दर आलेख है.
ReplyDeleteशांतिपाठ मन्त्र के विपरीत चल रहा है संसार। प्रत्येक व्यवस्था की पृष्ठभूमि में सम्मिलित मानसिक और शारीरिक श्रम की अनदेखी तथा फूहड़ और निरर्थक कार्य करनेवालों की चर्चा, उनको बढ़ावा एवं प्रोत्साहन.....यह है आज की सांसारिक पेंटिंग। इसी से व्यथित होकर निकले आपके विचार अत्यन्त विवेचनीय हैं। बहुत संचेतक विमर्श। भावी शुभकामनाएं।
ReplyDeleteशान्ति जैसे भी मिल सके... मनुष्य को प्रयत्न करना चाहिये..
ReplyDeleteविश्राम से कर्म और कर्म के बाद समुचित विश्राम की ओर जाया जाये..यही प्रेरणा देती सार्थक पोस्ट !
ReplyDeleteशान्ति ही मूल है जीवन का, प्रकृति का। इसी लक्ष्य को लेकर सभी अशान्त रहते हैं।
ReplyDeleteसार्थक विवेचन
ReplyDeleteमानव मन !
ReplyDelete
ReplyDeleteशान्ति की ओर मार्च -
पृथ्वी की तापीय मृत्यु हो जायेगी जब इसकी एंट्रोपी न्यूनतम हो जायेगी .तापान्तर समाप्त हो जायेंगे .उत्क्रम माप (ENTROPY), ,एनट्रपि ,ऍनाट्रोपि का मतलब है कार्यार्थ (कार्य शील
,कार्य समर्थ )अनुपलब्ध ऊर्जा का माप . ,बोले तो अन -अव्लेबिल एनर्जी फॉर यूजफुल वर्क .एंट्रोपी का मतलब है अव्यवस्था ,इसके अधिकतम होने का मतलब है भारत बोले तो घोर अव्यवस्था .
एन्ट्रापी इज ए मेज़र आफ डिसऑर्डर .भारत में सब जगह सरकार है सरकार बोले तो अर्थव्यवस्था .पुलिस भी सरकार है शिक्षा भी सेहत भी .पिने का पानी भी शौचालय भी .सर्वयापी है सरकार
.अधिकतम है एंट्रोपी का मान .
शांति कैसी शान्ति ?भारत और शांत ?
हरेक तंत्र अपनी पोटेंशियल एनर्जी मिनिमम होने पर न्यूनतम ऊर्जा की स्थिति में आ जाता है हालाकि ऊर्जा शून्य कभी नहीं होती .आन्दोलन रहता है न्यूनतम तापमानों पर भी अणुओं का जिसे
कहते हैं जीरो पाइंट एनर्जी .आज युवा अशांत है उसकी उपयोगी ऊर्जा का क्षय हो रहा है एंट्रोपी बढ़ रही है .न्यूनतम हो तो शान्ति हो .व्यवस्था फिर से कायम हो .प्रजा तंत्र पटरी पर आये .
काश ऐसा हो कुलियों को विश्राम स्थल मिलें प्लेटफोर्म पर .सलीके की ज़िन्दगी मिले ,तो सुकून आये .
प्रवीण जी बढ़िया पोस्ट हमसे भी भौतिकी का पाठ पढ़वा लिया आपने .
एक प्रतिक्रिया ब्लॉग पोस्ट :
एक चित्र, चिन्तन का इतना विशद केनवास हो सकता है - यह अपने आप में एक चित्रांकर स्थिति है।
ReplyDeleteआप कहॉं रेलों के चक्कर में फँस गए।
कृपया 'चित्रांकर' को 'चित्रांकन' पढें।
Deleteवाकई शांति और अशांति एक पेंडुलम की तरह ही है ठीक वैसे ही जैसे ट्रैन के आने और जाने की बीच की शांति.
ReplyDeleteरामराम.
आपकी इस पोस्ट की चर्चा 17-01-2013 के चर्चा मंच पर है
ReplyDeleteकृपया पधारें और अपने बहुमूल्य विचारों से अवगत करवाएं
Great observation which turned into a great piece of writing :)
ReplyDeleteएंट्रापी अव्यवस्था की मापक है -श्रान्ति विश्रांति आह्लादकारी, प्रशंतिदायक अनुभव है!
ReplyDeleteचित्र बहुत कुछ दर्शा रहा है -चित्रकार की पकड़ बहुत सूक्ष्म है !
चित्र में दर्शित चेहरे पर भाव ..... विश्राम का समय ... और उससे प्रेरित सुंदर लेख .... लेख की अंतिम पंक्ति से सहमत ...
ReplyDeleteजीवन की आपा धापी में कब वक़्त मिला
ReplyDeleteकुछ देर कहीं पैर बैठ कभी ये सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना, उसमें क्या बुरा भला
--HVRB
Lovely article, Pravin bhai! Peace is need of the hour. And from that Peace, Something must come out. People are looking with the Hope!
bahut hii uttam alag tarah ka lekh.
ReplyDeleteचित्र के माध्यम से एक सुन्दर लेख लिखना संभव हुआ |लेकिन इसके भौतिक और आध्यात्मिक पक्षों का बहुत ही सुन्दर ढंग से अपने विश्लेषण किया है |आभार
ReplyDeleteसार्थक और सटीक विवेचना!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
अति सुन्दर "शान्ति" की व्याख्या
ReplyDeleteशान्ताकारं भुजगशयनम पद्मनाभं सुरेशं।
विश्वाधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभान्गम।।
लक्ष्मिकान्तं कमलनयनं योगिभिर्रध्यानगम्यं।
वन्देहं विष्णुं भव-भय हरणं सर्वलोकैक नाशनं।।
प्रभु की भी वंदना उनके शान्ताकार स्वरूप में
की जाती है ...शायद ....सुन्दर रचना के लिए आभार
उत्कृष्ट प्रस्तुति -
ReplyDeleteहरेक वस्तु ,चीज़ ,पिंड न्यूनतम स्थितिज ऊर्जा ,मिनिमम पोटेंशियल एनर्जी हासिल करना चाहता है .सबसे ज्यादा स्टेबल और शांत है यह स्थिति .गेंद एक बार उछालके छोड़ देने पर अपनी ऊंचाई
खोटी चली जाता है .स्टिल वाटर रन्स डीप .उठली नदी उछलती है .अधगगरी जल छलकत जाए .शान्ति स्वभाव है वस्तु का गति विक्षोभ है .विस्फोटों में मौन छिपा है .बढ़िया चिंतन सरजी .
फिलहाल तो इस शब्द व्यूह में अटके हैं ...
ReplyDeleteदर्द से या ख़ुशी से जो बोल उपजे , उन्ही को गीत बनाकर गा लेना !
यह भी एक रूप है ज़िंदगी का...
ReplyDeleteएक ऐसे बिंदु पर गहन अध्ययन करना और लिखना आपके बस की ही बात है गतिमय जीवन को पुनः उर्जा पाने के लिए विश्राम तो जरूर चाहिए उसी से शांति मिलती है और उसी शांति में दिन भर की बातें भी हिस्सा ले लेती हैं जो इस चित्र में उजागर है बहुत बढ़िया आलेख हमेशा की तरह दिलचस्प बधाई आपको हाँ पेंटिंग का भी जबाब नहीं
ReplyDeleteप्रभावी आलेख ..पर ये शांति है या जीजिविषा की जद्दोजहद ?
ReplyDeleteदिलचस्प चिंतन .शुक्रिया आपकी सद्य टिपण्णी का .
ReplyDeleteजीवनानुभूति का एक मार्मिक उल्लेख। बहुत दार्शनिक। ढेरों बधाईयां।
ReplyDeleteदार्शनिक पुट लिए बहुत सुन्दर प्रभावी प्रस्तुति ...
ReplyDeleteआप इस अन्तराल को किस प्रकार लेते हैं, यह एक बड़ा प्रश्न है। यह सभ्यताओं के उत्थान और पतन का प्रश्न है, यह प्रश्न संस्कृतियों के वैशिष्ट्य का प्रश्न है, यह प्रश्न संसाधनों के संदोहन का प्रश्न है और यही तन्त्रों के सरलीकरण का प्रश्न भी है। कभी कभी कुछ न होता हुआ दिखना, बहुत कुछ हो चुके होने का प्रतीक होता है, मानवविहीन संयन्त्रों को बनाने के पीछे कितनी मेधाओं का श्रम छिपा है, यह प्रत्यक्ष से कहाँ पता चलता है? सुव्यवस्थित नगर को चलाने के उपक्रम में नेपथ्य में कितना कार्य हुआ होगा, क्या पता? कई क्षेत्रों और देशों में मची उथल पुथल, अव्यवस्था और अशांति, कर्मशीलता के मानक तो नहीं हो सकते। हमारा श्रम व्यवस्था का प्रेरक हो, व्यवस्था शान्ति लाये, यही है मेरे लिये जाने और आने के बीच की शान्ति।
ReplyDeleteचित्र साभार - http://www.zazzle.com, http://www.indif.co
.शुक्रिया आपकी सद्य टिपण्णी का .
सुन्दर मनोहर .गगन चुम्बी है चिंतन की परवाज़ ऊंची और ऊंची होती हुई ,पढ़ो तो पढ़ते ही जाओ
shant chit me bhi chehre pr ashnati ke bhav dikh rahe hain .
ReplyDeletesunder lekh padhne ko mila
dhnyavad
rachana
ललित निबंधों का संग्रह हैं आपके ब्लॉग पोस्ट .बधाई उत्कृष्ट लेखन के लिए .
ReplyDeleteआपके विचार आपके लेख और प्रस्तुतीकरण अद्भुत और सराहनीय है... मुझे आपका ब्लॉग बहुत अच्छा लगता है... सादर
ReplyDeleteअन्तराल की शान्ति आवश्यक है।
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteबहुत विद्व एवं प्रेरणादायी आलेख। बधाई एवं मंगलकामनाएं।
ReplyDeleteInteresting piece of work, encompassing art, science and spirituality all in one.
ReplyDeleteI am thinking about weekend- am I more peaceful on weekend.? Any way this weekend I am on call so it is not counted!!!!
आने व जाने के बीच का समय उथल-पुथल भरा होता है । क्योंकि ये दोनों ही स्थितियाँ अनवरत हैं । न आना कभी रुकना है न जाना तो विश्राम कैसा । और गति ही जिनकी नियति है उन्हें विश्राम कहाँ । प्रवीण जी आप साधारण को भी असाधारण बना देते हैं अपने गहन चिन्तन से ।
ReplyDelete