हृदय भरता रोष हम किसको सुनायें,
ढूढ़ती हैं छाँह, मन की भावनायें ।।
स्वप्न भर टिकते, पुनः से उड़ चले जाते हैं सारे,
आस के बादल हृदय में, वृष्टि वाञ्छित, सुख कहाँ है ।।
लहर भीषण, विष उफनती, क्रोध में डसने किनारे,
सोचकर क्या हो गयी नत, पुनः बह आयी जलधि में ।।
क्यों नहीं मन शान्त जैसे लहर है स्थित गहन में,
क्यों नहीं मिलता हृदय को एक ऐसा ही किनारा ।।
विकलता अवरोध की बन रोष बढ़ती जा रही है,
काल का निर्णय, नदी को किस दिशा में पंथ प्रस्तुत ।।
जानता, होगा समय का चक्र भी मेरी परिधि में,
नहीं यदि, सुख की असीमित आग फिर किसने जलायी ।।
कोई तो है थपथपाता, व्यग्र हो थकते मनस को,
कोई मन में जीवनी का मार्ग बन कर प्रस्फुरित है ।।
वही बनकर छाँह मन की, रोष नद को पंथ देगा,
बिन सुने ही वेदना को पूर्णतः पहचान लेगा ।।
सघनतम भावनाओं की सुघर अभिव्यक्ति |एक अच्छी कविता |
ReplyDeleteप्रवाहमयी सार्थक कविता विचारों को उद्वेलित करती हुयी अपने उद्देश्य में सफल है ....
ReplyDeleteमन मंथन करते उद्दगार अंततः आशावादी हो उठते हैं आशा की लौ उसी एक अद्रश्य ,अगोचर सर्वशक्तिमान परम पिता परमेश्वर के ध्यान से प्रज्ज्वलित हो उठती है ,बहुत सार्थक ,अनुपम प्रस्तुति नव वर्ष की बधाइयां
ReplyDeleteचिरंतन सत्य की प्यास।
ReplyDeleteईश्वर से प्रार्थना है की यह प्यास सघन हो। ताकि हम मृत्यु से अमृत की ओर बढ़ें।
चिरंतन सत्य की प्यास।
ReplyDeleteईश्वर से प्रार्थना है की यह प्यास सघन हो। ताकि हम मृत्यु से अमृत की ओर बढ़ें।
ह्रदय आत्मप्रलाप करता है - कोई तो सुनता है, वरना रास्ते घुप्प लगते
ReplyDeleteमन की व्यग्रता और रोष को शब्द दिये हैं .... गहन प्रस्तुति
ReplyDeleteभाव और अर्थ की सुन्दर अन्विति सशक्त अभिव्यक्ति .
ReplyDeleteबढिया।
ReplyDeleteअत्यन्त आहलादित करती भावपूर्ण कविताजंलि।
ReplyDeleteउसी थपथपाहट की... जो समझ ले वेदना मन की ... आस है हर दिल में...
ReplyDelete~सादर!!!
अतिशय मन का उद्वेलन अन्ततः शान्त हो ही जाता है।
ReplyDeleteकभी कभी मन को थपथपाने की जरुरत होती है..सकून के लिए..
ReplyDeleteउत्कृष्ट .....मन की व्यग्रता की गहरी अभिव्यक्ति
ReplyDeleteप्रस्तुत कविता में काव्य क्षेत्र के विभिन्न शब्दों को असंगत तरीके से प्रयुक्त किया गया है .इन शब्दों से किसी भाव का उद्बोधन नहीं होता .हो सकता है कवि की पीड़ा और विषाद अपने अपने स्तर
ReplyDeleteपर
प्रामाणिक हों किन्तु उनकी प्रामाणिकता अनुपयुक्त शब्दों से धूमिल हो गई है .
.
12.1.13
रोष-नद
हृदय भरता रोष हम किसको सुनायें,
ढूढ़ती हैं छाँह, मन की भावनायें ।।
हृदय में रोष नहीं ज़ज्बात होने चाहिए .भाव अनुभाव होने चाहिए .रोष दिल का दौरा लाएगा।
सही कहा शर्मा जी ...कुछ अस्पष्ट से भाव, कथ्य एवं कथ्यांकन , तथ्यांकन हैं ...शब्दों व उनके अर्थों व भावों में उचित संयोजन नहीं है....
Deleteहृदय भरता रोष हम किसको सुनायें,
ढूढ़ती हैं छाँह, मन की भावनायें ।।
--- यदि ह्रदय में रोष है तो सुनाने में गुरेज़ नहीं होना चाहिए ..रोष है तो मन की भावनाएं छाँह क्यों ढूंढ रही हैं ...मन में रोष भरने का अर्थ ही है कि अब वह सुनाये बिना नहीं रहना चाहिए ..अन्यथा रोष का कोइ अर्थ नहीं ...
-- कविता के किसी भी जेनर या खांचे में फिट न होने के वावजूद भी...हाँ ह्रदय के संवेदना पूर्ण भावों के शब्द चित्र तो हैं ही है ...
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♥सादर वंदे मातरम् !♥
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स्वप्न भर टिकते, पुनः से उड़ चले जाते हैं सारे,
आस के बादल हृदय में, वृष्टि वाञ्छित, सुख कहाँ है ।।
कोई तो है थपथपाता, व्यग्र हो थकते मनस को,
कोई मन में जीवनी का मार्ग बन कर प्रस्फुरित है ।।
वही बनकर छाँह मन की, रोष नद को पंथ देगा,
बिन सुने ही वेदना को पूर्णतः पहचान लेगा ।।
बहुत सुंदर ! मन को छूने वाली रचना !
आदरणीय प्रवीण पाण्डेय जी
सायास तुकबंदी के बिना शानदार लय और प्रवाह का निर्वहन हुआ है ...
बहुत बहुत बधाई इस गीत के लिए !
हार्दिक मंगलकामनाएं …
लोहड़ी एवं मकर संक्रांति के शुभ अवसर पर !
राजेन्द्र स्वर्णकार
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बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (13-12-2013) को (मोटे अनाज हमेशा अच्छे) चर्चा मंच-1123 पर भी होगी!
सूचनार्थ!
वही बनकर छाँह मन की, रोष नद को पंथ देगा,
ReplyDeleteबिन सुने ही वेदना को पूर्णतः पहचान लेगा ।।
बहुत सुंदर ! मन को छूती रचना !
recent post : जन-जन का सहयोग चाहिए...
मन का सहज द्वंद और व्यग्रता को सशक्तता से व्यक्त किया है, बहुत शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
क्यों नहीं मन शान्त जैसे लहर है स्थित गहन में,
ReplyDeleteक्यों नहीं मिलता हृदय को एक ऐसा ही किनारा ।।
...मन की गहन भावनाओं की बहुत उत्कृष्ट और सशक्त अभिव्यक्ति...
great
ReplyDeleteअनेक विषमताओं के बीच बहते जीवन-प्रवाह की उथल-पुथल में एक सम की खोज निरंतर चलती है-उसे ही पाने की
ReplyDeleteचाह अनायास व्यक्त हो जाती है.
कोई तो सुनता होगा , यही विश्वास जीवनचक्र को बनाये रखता है !
ReplyDeleteबिना तुकांत पदों के सुंदर प्रवाहमयी रोष नद
ReplyDeleteलहर भीषण, विष उफनती, क्रोध में डसने किनारे,
ReplyDeleteसोचकर क्या हो गयी नत, पुनः बह आयी जलधि में ।।
व्यथित मन का निनाद. बहुत सुंदर.
...रोष का नद कभी तो नाद बनकर सुनाई देगा !
ReplyDeletebottle up all in your head..
ReplyDeleten explode it here :)
#Writing, the best venting machine !!
किनारे की तरफ छलांगे मारते भाव ... लहरों का नाद ...
ReplyDeleteकोई तो है थपथपाता, व्यग्र हो थकते मनस को,
ReplyDeleteकोई मन में जीवनी का मार्ग बन कर प्रस्फुरित है ।।
वही बनकर छाँह मन की, रोष नद को पंथ देगा,
बिन सुने ही वेदना को पूर्णतः पहचान लेगा ।।
बहुत सुन्दर !
New post : दो शहीद
New post: कुछ पता नहीं !!!
लोहड़ी और मकर संक्रांति मुबारक .आभार आपकी सद्य टिप्पणियों का .आभार प्रस्तुत रचना के लिए जहां मन की पीड़ा की सांद्रता काव्य क्षेत्र के तमाम शब्दों से आगे निकल गई है .वेदना आगे है
ReplyDeleteशब्द पीछे अनुगामी से .
लोहड़ी औऱ मकर संक्रांति कि शुभकानाएं.....कविता अच्छी है
ReplyDeleteबहुत सुन्दर लिखा है... जीवन की उथलपुथल,व्यग्र नद, अवरोधित मार्ग .. और एक सुकून की चाह... आह .. काश की शांति की थपथपाहट मिल जाए जैसे माँ की लोरियाँ ... आपको मकरसक्रांति पर हार्दिक शुभकामनाएं ...
ReplyDeleteवाह... उम्दा, बेहतरीन अभिव्यक्ति...बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteसुन्दर भाव !!!
ReplyDeleteसर जी |असीमित इच्छाएं |आप को मकर संक्रांति की शुभकामनाएं |
ReplyDeleteमुबारक मकर संक्रांति पर्व .है यह रचना नया रूपकात्मक भेष भरे है , .बढिया बिम्ब
ReplyDelete,सशक्त अभिव्यक्ति अर्थ और विचार की
. संक्रांति की मुबारकबाद .आपकी सद्य टिप्पणियों के लिए
आभार .
...कुछ अस्पष्ट से भाव, कथ्य एवं कथ्यांकन , तथ्यांकन हैं ...शब्दों व उनके अर्थों व भावों में उचित संयोजन नहीं है....
ReplyDeleteहृदय भरता रोष हम किसको सुनायें,
ढूढ़ती हैं छाँह, मन की भावनायें ।।
--- यदि ह्रदय में रोष है तो सुनाने में गुरेज़ नहीं होना चाहिए ..रोष है तो मन की भावनाएं छाँह क्यों ढूंढ रही हैं ...मन में रोष भरने का अर्थ ही है कि अब वह सुनाये बिना नहीं रहना चाहिए ..अन्यथा रोष का कोइ अर्थ नहीं ...
-- कविता के किसी भी जेनर या खांचे में फिट न होने के वावजूद भी...हाँ ह्रदय के संवेदना पूर्ण भावों के शब्द चित्र तो हैं ही है ...
क्यों नहीं मन शान्त जैसे लहर है स्थित गहन में,
ReplyDeleteक्यों नहीं मिलता हृदय को एक ऐसा ही किनारा ।।
बेचैनियां ...ओह
बाहर से थाप और अन्दर सहलाए कोई...
ReplyDeleteभावमय -कोई गाता मैं सो जाता ...याद आयी पंक्तियाँ
ReplyDeleteमन में मच रही उथल-पुथल को अपने सही अभिव्यक्ति दी है।
ReplyDeleteसर जी मछली जब कांटे में आ जाती है तब वह पानी में ही होती है .कांटे से मुक्त होने के लिए वह मचलती ज़रूर है लेकिन जहां तक पीड़ा का सवाल है निरपेक्ष बनी रहती है मौन सिंह की तरह .मछली के
ReplyDeleteपास प्राणमय कोष और अन्न मय कोष तो है ,मनो मय कोष नहीं है .पीड़ा केंद्र नहीं हैं .हलचल तो है चेतना नहीं है दर्द का एहसास नहीं है .शुक्रिया ज़नाब की टिपण्णी के लिए .
मंगल मय हो संक्रांति पर्व .देश भी संक्रमण की स्थिति में है .सरकार की हर स्तर पर नालायकी ने देश को इकठ्ठा कर दिया है .शुक्रिया आपकी सद्य टिपण्णी का .
Quite an emotional, heartfelt and intense read.
ReplyDelete’कोई तो है थपथपाता-------वेदना को पूर्णतय पहचान लेगा’
ReplyDeleteयही विश्वास सभी अंधेरों को मिटात है.मन के ज्वार-भाटे
जीवन के तटों पर सर पटक कर शांत हो ही जाते हैं,नियति है.
उफनती नदी सा वेग लिए सुन्दर रचना ..
ReplyDeletevery appealing creation..
ReplyDeleteVERY NICE CREATION
ReplyDeleteऐसी इच है ये ज़िन्दगी मौसम के मिजाज़ सी .कब किस करवट बैठे कोई निश्चय नहीं .आभार आपकी सद्य टिप्पणियों का .आप कहाँ ढूंढ रहें हैं जीवन के बुनियादी सवालों के ज़वाब ?रोष भरे मन में .
ReplyDeleteगहरी अभिव्यक्ति मन की व्यग्रता की....आप को मकर संक्रांति की शुभकामनाएं |
ReplyDeleteभाव तो निस्सन्देह सुन्दर हैं किन्तु छन्द शैली में ऐसी अतुकान्त रचना सम्भवत: पहली ही बार देख/पढ रहा हूँ।
ReplyDeleteउद्वेलित अन्तर्द्वन्द का परिचायक बन गयी आपकी ये रचना ......
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