पहले ही स्पष्ट कर दूँ कि यह लेख पूर्णतया व्यक्तिगत अनुभवों और लेखक की सीमित बौद्धिक क्षमताओं के आधार पर ही लिखा गया है। जीवन में संस्कार, संस्कृति, शिक्षा, सामाजिकता आदि के अंश समुचित रूप से विद्यमान रहते हैं अतः विचार प्रक्रिया में उनका उपस्थित रहना स्वाभाविक है। विचार पद्धतियों के मत भिन्न हो सकते हैं, एक छोर पर बैठे व्यक्ति को दूसरा छोर स्पष्ट न दिखता हो, पर बिना दोनों छोरों को समाहित किये कोई संगठित सूत्र निकलना कठिन होता है। दूसरे तथ्यों और सत्यों की उपस्थिति हीन सिद्ध कर देना भले ही बौद्धिक धरातल पर विजय ले आये पर वह विजय समाज की विजय नहीं हो सकती। जीवन एकान्त या घर्षण में नहीं जिया जा सकता है, एक राह निकलनी ही होती है, सबके चलने के लिये। एकरंगी आदर्श की तुलना में बहुरंगी यथार्थ ही सबको भाता है, वही समाज की भी राह होती है।
बहुत दिनों से इस विषय पर लिखना चाह रहा था, पर पिछले माह हुये घटनाक्रम और सामाजिक परिवेश में मचे हाहाकार ने इस विषय पर चिन्तन के सारे कपाट बन्द कर दिये। लगा कहीं कुछ भी ऐसा लिख दिया जो परोक्ष रूप से भी हाहाकार के स्वर में नहीं हुआ तो हमारी मानसिकता को दोषी मान उसे भी कटघरे में खड़ा कर दिया जायेगा। एक पक्षीय संवेदनशीलता को दूसरी ओर से संवेदनहीनता घोषित कर दिया जायेगा। वादी, विवादी, संवादी, न जाने कितने स्वर उठ खड़े होंगे। भिन्न वादों के बादल धीरे धीरे छट रहे हैं, विवादों के स्वर मंद पड़ रहे हैं, संभवतः यही समय है कि विगत विचारों को संघनित कर एक सार्थक संवाद किया जाये, उन समस्याओं पर जो हमें व्यथित किये हैं, उस मूलभूत माध्यम से जो हम सबको छूकर निकलता है।
पुरुषों के प्रति अपराध और महिलाओं द्वारा महिलाओं के प्रति किये अपराध विषयक्षेत्र से बाहर रखे गये हैं। यह लेख मात्र पुरुषों के द्वारा महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराधों पर ही केन्द्रित है और उसी में ही सीमित रहेगा। यद्यपि तीनों प्रकार के अपराध समाज में विद्यमान है और एक दूसरे से प्रभावित भी, पर पुरुषों के द्वारा महिलाओं के प्रति किये गये अपराध कहीं अधिक मात्रा में हैं और कहीं अधिक संवेदनहीन हैं। यदि मात्र उनके कारणों की विवेचना व निदान कर लिया जाये तो शेष दो स्वयं ही सध जायेंगे।
समाज परिवारों से बनता है, परिवार संबंधों से बनते हैं, संबंध व्यक्तियों के बीच पल्लवित होते हैं। यदि समाज के किसी विकार का विश्लेषण करना हो तो चिन्तनपथ संबंधों से होकर जायेगा। मेरी वर्तमान स्थिति में वह प्रमुखतः ४ संबंधों से होकर निकलता है, माँ, बहन, पत्नी और बेटी। कई लोगों के लिये यह चारों संबंध भले ही उपस्थित न हों, पर हमारा अस्तित्व माँ के संबंध और उपकार का ही प्रतिफल है। यह एक विमा तो बनी ही रहेगी, जन्म हुआ है तो संबंध भी बना है। प्रस्तुत लेख में मेरा आग्रह और विचारदिशा बस यही दिखाने की रहेगी कि यदि इन चार संबंधों की संवेदनशीलता को जिया जाये और उसे सदा याद रखा जाये तो उपस्थित समस्या का सहज निदान ढूढ़ा जा सकता है।
माँ की महानता को उजागर करता हुआ पूरा का पूरा साहित्य है, पूरा का पूरा भावनात्मक पक्ष है। जीवन देने से लेकर लालन पालन तक माँ के ममत्व का कोई मोल नहीं, बस उसे एक पक्षीय अहैतुक कृपा ही मानी जायेगी। ममत्व बड़ा ही प्राकृतिक है, हर जीव में विद्यमान है, सब जानते हैं कि किस तरह अपनी संतानों की रक्षा करनी है। यदि किसी भी वस्तु के प्रति कृतज्ञता प्रथम वरीयता में खड़ी है तो वह है माँ की ममता। ऐसा नहीं है कि एक पुत्र इस तथ्य को नहीं जानता है, कोई भी औसत बुद्धि वाले के लिये यह निष्कर्ष निकालना कठिन नहीं है और पुत्र की मौलिक विचारप्रवाहों में इसका महत्व रहता भी है। तब कुछ लोगों में महिलाओं के प्रति आदर क्षीण कैसे होता है, यहाँ तक कि कैसे अपनी ही वृद्ध माताओं को उनके पुत्र ध्यान नहीं देते। उत्तर संभवतः उनके परिवार में ही छिपा रहता है। बच्चे अपने माँ और पिता के संबंधों को ही देख कर सीखते हैं, उन्हें ही अपना आदर्श मानते हैं। उनका आपसी व्यवहार पुत्र के लिये बहुत महत्वपूर्ण होता है।
अब जिन परिवारों में पत्नी को प्यार व सम्मान नहीं मिलेगा, वहाँ के बच्चे क्या देखेंगे और क्या सीखेंगे? जीवन की प्रथम शिक्षा ही यदि महिलाओं के प्रति अनादर की हुयी तो कहाँ तक माँ का किया उपकार बच्चों के मस्तिष्क में सर्वोपरि बना रहेगा। उसे भी लगने लगेगा कि ममता आदि सब भावनात्मक विषय हैं पर पारिवारिक परिस्थितियों में महिलाओं की यही स्थिति है, यही सम्मान है। माता पिता के बीच सामञ्जस्य के आभाव में दो तरह की मानसिकता ही विकसित होती है, या तो पुत्र पिता की तरह रुक्ष व असंवेदनशील हो जाता है या माँ के प्रति अपने उपकार से बद्ध अतिसंवेदनशील हो जाता है, भावुक हो जाता है। दोनों ही परिस्थितियाँ संतुलित विकास में अवरोध हैं। महिलाओं के प्रति हमारे व्यवहार के प्रथम बीज हमारे माता पिता ने ही बोये होते हैं। यदि किसी व्यक्ति ने महिला के प्रति कोई अपराध किया है तो प्रथम प्रश्न माता पिता पर उठना चाहिये, संभावना बहुत है कि उत्तर वहीं मिल जायेगा।
महिलायें आधी आबादी हैं, यदि उनके साथ निभा कर जीना नहीं आ पाया तो हम अर्धजगत से विलग ही अनुभव पा पायेंगे, अर्धशिक्षित ही रह जायेंगे। अनुभव की दूसरी शिक्षा बहन के माध्यम से आती है। हर घर में बहन होनी आवश्यक है, यदि घर में बहन नहीं होगी तो ममता के द्वारा प्राप्त महिलाओं के प्रति संवेदनशीलता भी घुल जाने का भय है तब। एक निकट संबंधी के परिवार को जानता हूँ, सारे पुत्र ही हैं, उनके घर का वातावरण काटने को दौड़ता है, किस समय वहाँ क्या बोल दिया जायेगा, पता नहीं चलता है। ऐसा नहीं है कि सारे परिवार ऐसे ही होते हैं पर बहन का घर में होना पुत्र को महिलाओं के प्रति और संवेदनशील बनाता है। मैं बुंदेलखण्ड से आता हूँ और वहाँ की एक मान्यता मुझे सदा आशा की किरण दिखाती है। वहाँ माँ की कोख तब तक शुद्ध नहीं मानी जाती जब तक वह किसी बिटिया को जन्म न दे दे। संभवतः मेरे घर में भी तीसरी सन्तान के रूप में मेरी छोटी बहन को आना इसी मान्यता की पुकार रही होगी। अत्यधिक पुत्रमोह और पुत्रियों को गर्भ में ही समाप्त कर देने की प्रथा न जाने कहाँ जन्मी, न जाने क्यों जन्मी, कहना कठिन है। पर वही प्रारम्भिक अपराध है, महिलाओं को प्रति और उनका बहनों के रूप में परिवार में न आना एक और कारण है, भाईयों के अन्दर वह संवेदनशीलता न उत्पन्न होने का, जो पुत्रों को संतुलित रूप से विकसित करने के लिये आवश्यक है।
तीसरा और महत्वपूर्ण पड़ाव पत्नी के रूप में आता है। इस पड़ाव में ही पुरुष की समझ और संवेदनशीलता विकसित और परिपक्व होती है, उसे साथ में मिलकर कार्य करने वाला साथी मिलता है। अब तक वह परिवार का अंग रहता था, पत्नी के आने के बाद उस पर परिवार चलाने का उत्तरदायित्व भी आ जाता है। जब मिलकर किसी एक ध्येय के लिये दो लोग कार्य करते हैं, एक दूसरे को समझने के लिये उससे अच्छा माध्यम नहीं हो सकता है। परिवार के माध्यम से समाज से जुड़ना, दूसरे पक्ष के संबंधियों से जुड़ना, समाज को और अधिक समझ पाना, ये सब उस प्रक्रिया का अंग है जो हमें समाज के रूप में रहना सिखाती है। बच्चों को एक प्रभावी नागरिक के रूप में विकसित करना और उन्हें समाज और विशेषकर महिलाओं के प्रति संवेदनशील बनाना, परिवार का ही कार्य है। एक प्रसन्न परिवार संवेदनाओं का केन्द्र होता है, यही वह केन्द्र है जिसका सुचारु और अधिकारपूर्ण संचालन महिलाओं के प्रति अपराधों पर सशक्त नियन्त्रण रख सकता है।
चौथा और सर्वाधिक मधुर संबंध बिटिया का होता है। प्रथम तीन संबंधों में तो पुरुष ने केवल कुछ ग्रहण ही किया होता है, यह वह समय होता है जब कुछ देने की स्थिति में होते हैं हम। किसी बिटिया को पालना और बड़े होते देखना ही महिलाओं की संवेदना समुचित समझने का माध्यम है। व्यक्तिगत अनुभव से ही कह सकता हूँ कि पुरुष के दायित्वबोध का निष्पादन बिटिया के लालन पालन में ही उभर कर आता है, पुरुष के रुक्ष भाव उसी समय अपनी गाँठ खोल देते हैं, पितृत्व के निर्वाह में ही पूर्णता पाता है पुरुष का अस्तित्व। जब आप एक के प्रति लालन पालन का भाव लेकर जी रहे होते हैं तो किसी अन्य के प्रति अपराध का भाव भी कैसे ला सकते हैं।
जो इन चारों संबंधों को पर्याप्त मान देता है, वह सहायक होता है सुख में, समृद्धि में, वह सहायक होता है सभ्यता को उत्कृष्ट स्थान पर पहुँचाने के लिये, वह सहायक होता है ऐसी मानसिकता फैलाने में जहाँ सबका समुचित सम्मान हो, सबका समुचित आदर हो। फिर भी ऐसे तत्व बने रहेंगे जो सधा सधाया संतुलन बिगाड़ने का प्रयत्न करेंगे। कानून व्यवस्था ऐसे ही अपवादों से निपटने के लिये बनी है, सामाजिक व्यवस्था को यथा रूप चलने देने के लिये। वृहद बदलाव पर अन्दर से आता है, भव्यता का प्रकटीकरण पहले हृदय के अन्दर होता है तब कहीं वह वास्तविकता में ढलता है। जो चार संबंध हमें सर्वाधिक प्रिय हैं, उन्हीं में हमारी सामाजिक स्थिरता व संतुलन के बीज छिपे हैं। उन्हीं को साधने से सब सध जायेगा, शेष साधने के लिये तन्त्र उपस्थित हैं।
मुझे बड़ा ही आश्चर्य लगा कि अब तक मचे हाहाकार में कठिनतम दण्ड की बात तो सबने की, जो निसंदेह आवश्यक भी है, पर संबंधों के जिन सशक्त तन्तुओं से एक सार्वजनिक चेतना का विकास संभव था, उस पर सब मौन रहे। अधिकारों की लड़ाई खिंचती है, तनाव लाती है। संबंधों की उपासना जोड़ती है, आनन्द लाती है। हमारे सामूहिक कलंक के मुक्ति का मार्ग संभवतः यही है कि हम सब अपने इन चार संबंधों को प्रगाढ़ करें, और संवेदनशील करें।