मन फिर है, जीवन के संग, कुछ गुपचुप बातें कर लूँ ।
बैठ मिटाऊँ क्लेश, रहा जो शेष, सहजता भर लूँ ।।
देखो तो दिनभर, दिनकर संग दौड़ रही,
यश प्रचण्ड बन, छा जाने की होड़ रही,
स्वयं धधक, अनवरत ऊष्मा बिखरा कर,
प्रगति-प्रशस्था, प्रायोजन में जोड़ रही ।
अस्ताचल में सूर्य अस्त, अब निशा समान पसर लूँ ।
मन फिर है, जीवन के संग, कुछ गुपचुप बातें कर लूँ ।।१।।
निशा बताये, दीपक कितना जल पाया है,
स्मृतियों में डूब, निरन्तर अकुलाया है,
इस आँगन में एक जगह तो छूटी फिर भी,
दिया तले जो तम है, अपनी ही छाया है ।
वाह्य-प्रतिष्ठा पूर्ण, हृदयगत निष्ठा मधुरिम भर लूँ ।
मन फिर है, जीवन के संग, कुछ गुपचुप बातें कर लूँ ।।२।।
प्रश्न साधते मौन, नहीं प्रिय कोई उपस्थित,
प्रगति-दम्भ मद, मत्सरवश जन, सभी अपरिचित,
आपाधापी इस प्रयत्न की व्यर्थ दिख रही,
आश्रय, प्रेम-प्रणेतों का ही भूल गया हित,
प्रगति-नगर तज गाँव चलूँ, मैं अपनी ठाँव ठहर लूँ ।
मन फिर है, जीवन के संग, कुछ गुपचुप बातें कर लूँ ।।३।।
मद-नद-प्लावित, बच्चों की किलकारी भूला,
चकाचौंधवश, मैं आँगन की क्यारी भूला,
माँ का बेटा, कनक-पंथ पर बढ़ते बढ़ते,
माँ का आँचल, प्रिय की आँखें प्यारी भूला,
प्रगति-जनित सम्मोहन घातक, रहूँ सचेत, उबर लूँ ।
मन फिर है, जीवन के संग, कुछ गुपचुप बातें कर लूँ ।।४।।
मन-आँगन में एक पूरा संसार बसा है,
भाव, विचार, दिशाओं का विस्तार बसा है,
कठिन पंथ कर सहज दिखाती, मूर्त सृजनता,
साम्य, संतुलित एक भविष्य आकार बसा है ।
शान्ति कुटी में बैठ, हृदयगत पीड़ायें सब हर लूँ ।
मन फिर है, जीवन के संग, कुछ गुपचुप बातें कर लूँ ।।५।।
जितनी गहरी जड़ें, पेड़ भी उतना ऊँचा,
पोषित जिनपर, टिका हुआ अस्तित्व समूचा,
निश्चय ही मैं, कर्म क्षितिज पर पहुँच गया पर,
किस आँगन की महक, हवा ने रुककर पूँछा ।
घर, समाज की प्रेम-समाहित, सोंधी माटी भर लूँ ।
मन फिर है, जीवन के संग, कुछ गुपचुप बातें कर लूँ ।।६।।
स्पर्धा की दौड़, हृदय में स्वप्न समाया,
सार्थक करता आशाओं को, बढ़ता आया,
मिली चेतना, हर प्रकार से पालित, पोषित,
जिन गलियों में खेला, उनको क्या दे पाया ।
लाखों आँखें बाट जोहतीं, आओ तनिक ठहर लूँ ।
मन फिर है, जीवन के संग, कुछ गुपचुप बातें कर लूँ ।।७।।
वाह वाह....मजबूत शिल्प से बँधा गीत !
ReplyDeleteपूरी कविता अतुलनीय है और जिन पक्तियोँ ने मन की छुआ वे-
ReplyDeleteजितनी गहरी जड़ेँ हैँ... ...सोँधी माटी भर लूँ
समय के सच को उजागर करती एक अच्छी कविता |
ReplyDeleteअतुलनीय उम्दा रचना
ReplyDeleteबहुत सुन्दर मन ...
ReplyDeleteसार्थक चिंतन प्रस्तुत करती सुघड़ कविता ।
ReplyDeleteमन तो बार बार लौटकर वहीं अस्तित्वनीड़ में ही पहुँच जाता है।पर यह सारा उहापोह भी शायद इस जीवन यात्रा का अपरिहार्य हिस्सा है,जो संग मिला, सो जी लेते है,जो छूट गया स्मृत करते है । बहुत सुंदर व भावप्रद।
ReplyDeleteसादर- देवेंद्र
मेरी नयी पोस्ट- कागज की कुछ नाव बनाकर उनको रोज बहा देता हूँ........
Awesome! बहुत खुबसूरत।
ReplyDeleteदिया तले जो तम है, अपनी ही छाया है ।
प्रगति-जनित सम्मोहन घातक, रहूँ सचेत, उबर लूँ ।
लाखों आँखें बाट जोहतीं, आओ तनिक ठहर लूँ ।
--आदमी देना भूल गया हैं, और यही सबसे बड़ी समसामयिक समस्या हैं चाहे वो किसी भी व्यवसाय की बात की जाये।
बहुत खुबसूरत। प्रवीन भाई।
बेहद लाजवाब कविता ... जिन शब्दों ने मन को छु लिया वो ...
ReplyDeleteदिया तले जो तम है, अपनी ही छाया है ।
मेरी नयी पोस्ट पर आपका स्वागत है
http://rohitasghorela.blogspot.in/2012/12/blog-post.html
निश्चय ही मैं, कर्म क्षितिज पर पहुँच गया पर,
ReplyDeleteकिस आँगन की महक, हवा ने रुककर पूँछा ।
घर, समाज की प्रेम-समाहित, सोंधी माटी भर लूँ ।
मन फिर है, जीवन के संग, कुछ गुपचुप बातें कर लूँ
..............बेहद प्रभावशाली पंक्तियाँ गहन अभिव्यक्ति !
वाह और बस वाह ...
ReplyDeleteआप कितने कुशल सर्जक और शब्द शिल्पी हैं बयान नहीं कर पा रहा।।।।
शब्द नाकाफी हैं।।।।।
मनुष्य अपने एक बेहद वैयक्तिक अंतर्मन के संसार में क्या क्या सोचता है आपने कितने ही भावपूर्ण शब्दों में ढाल दिया है .
फिर कहूँगा इन कविताओं का कोई संग्रह प्रकाशित हो तो मैं खरीद कर अपने संकलन में रखना चाहूँगा !
अपने काव्य कला से यशस्वी और कालजयी बनें -यही कामना है !
गुपचुप बातें करना ही सार्थक चिंतन है .... बहुत गहन भावों से सजी सुंदर रचना ...
ReplyDeleteमन-आँगन में एक पूरा संसार बसा है,
ReplyDeleteभाव, विचार, दिशाओं का विस्तार बसा है,
कठिन पंथ कर सहज दिखाती, मूर्त सृजनता,
साम्य, संतुलित एक भविष्य आकार बसा है ।
शान्ति कुटी में बैठ, हृदयगत पीड़ायें सब हर लूँ ।
- इस घातक सम्मोहन के बीच मन की पुकार सुन पाना भी बड़ी बात है ऍ
'एकांत मन' की पराकाष्ठा की परिणति मन के भीतर संजोई भीड़ से साक्षात्कार के रूप में होती है |
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ReplyDeleteअविस्मरणीय, अद़्भुत।
Deleteमन-आँगन में एक पूरा संसार बसा है,
ReplyDeleteभाव, विचार, दिशाओं का विस्तार बसा है,
कठिन पंथ कर सहज दिखाती, मूर्त सृजनता,
साम्य, संतुलित एक भविष्य आकार बसा है ।
शान्ति कुटी में बैठ, हृदयगत पीड़ायें सब हर लूँ ।
मन फिर है, जीवन के संग, कुछ गुपचुप बातें कर लूँ ।।५।।
उम्दा भाव
'दिया तले जो तम है, अपनी ही छाया है '
ReplyDeleteवाह! बहुत उम्दा प्रस्तुति.
bhav aur shilp donon hi atulaniya . prashansa ke liye shabd kam pad rahe hain praveen ji .
ReplyDeleteस्पर्धा की दौड़, हृदय में स्वप्न समाया,
ReplyDeleteसार्थक करता आशाओं को, बढ़ता आया
kya baat hai pandey jee jeewan kee sarthakta to aashaon kee purnata me hee hai
बहुत ही सुन्दर ... आशा ओर विश्वास लिए उमंग का एहसास लिए ... मोहक काव्य ...
ReplyDeleteउत्कृष्ट लेखन !!
ReplyDeleteआपका लेखन सदैव उत्कृष्ट रहता है।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (09-12-2012) के चर्चा मंच-१०८८ (आइए कुछ बातें करें!) पर भी होगी!
सूचनार्थ...!
यह गीत एक सार्थक चिंतन का मार्ग दिखाता है, बहुत शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
निश्चय ही मैं, कर्म क्षितिज पर पहुँच गया पर,
ReplyDeleteकिस आँगन की महक, हवा ने रुककर पूँछा ।
घर, समाज की प्रेम-समाहित, सोंधी माटी भर लूँ ।
मन फिर है, जीवन के संग, कुछ गुपचुप बातें कर लूँ,,,,
सार्थक चिंतन कराता सुंदर गीत,,,,बधाई स्वीकारें प्रवीण जी,,,,
तनिक नहीं.. पूरी बातें करिये..
ReplyDeleteजीवन की आपाधापी में सबसे महत्वपूर्ण काम ही छूट जाता है, खुद से बातें करना..
बहुत सुन्दर रचना..
bahut sundar v sarthak prastuti .aabhar
ReplyDeleteहम हिंदी चिट्ठाकार हैं
बहुत सुंदर!
ReplyDeleteवाह आपका ये अंदाज़ तो हमने पहली बार देखा है जी , सच में ही मन की गुपचुप बातें तो दिल को छू गई।
ReplyDeleteग्राम यात्रा : कुछ यादें , तस्वीरों में
मन फिर है, जीवन के संग, कुछ गुपचुप बातें कर लूँ.
ReplyDeleteअपने अंदर ई उहा पोह को समझने का प्रयत्न जरूर रंग लाता है.
बहुत सुन्दर चिंतन !
ReplyDeleteप्रवीण जी, इस उत्कृष्ट कृति के लिए बधाई स्वीकार करें. हर शब्द दिल को लुभा गए.
ReplyDeleteप्रगति-नगर तज गाँव चलूँ, मैं अपनी ठाँव ठहर लूँ ।
मन फिर है, जीवन के संग, कुछ गुपचुप बातें कर लूँ
यह बिलकुल एक सच्ची अनुभूति है. बहुत सारी कमियों के बावजूद जो सुकून उस मिटटी में है वो इस धरा पर कही नहीं.
ठहरने का मन होना सौभाग्य का सूचक है। ठहरे बिना, स्थिर हुए बिना मन के पार नहीं जाया जा सकता।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति आभार आत्महत्या-प्रयास सफल तो आज़ाद असफल तो अपराध [कानूनी ज्ञान ]पर और [कौशल ]पर शोध -माननीय कुलाधिपति जी पहले अवलोकन तो किया होता
ReplyDeleteमनमोहक काव्य-कृति..
ReplyDelete
ReplyDeleteकल 10/12/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत है .
धन्यवाद!
मन फिर है, जीवन के संग, कुछ गुपचुप बातें कर लूँ ।
ReplyDeleteबैठ मिटाऊँ क्लेश, रहा जो शेष, सहजता भर लूँ ।।
गीतकार का भाव बोध ,गीत का विधान ,शब्द आयोजन ,भाव अर्थ सबसे बड़ा है इस गीत में .कहीं कहीं सायास प्रयास भी हैं पर भावना का निश्छल आवेग प्रबल है .
मन फिर है, जीवन के संग, कुछ गुपचुप बातें कर लूँ ..कवि मन की आंतरिक इच्छा...कि मन का अब कुछ करूं..जीवन जीने का संदेश देता है...शब्द चयन बहुत उत्कृष्ट हैं..बधाई
ReplyDeleteजितनी गहरी जड़ें, पेड़ भी उतना ऊँचा,
ReplyDeleteपोषित जिनपर, टिका हुआ अस्तित्व समूचा,
निश्चय ही मैं, कर्म क्षितिज पर पहुँच गया पर,
किस आँगन की महक, हवा ने रुककर पूँछा ।
घर, समाज की प्रेम-समाहित, सोंधी माटी भर लूँ ।
मन फिर है, जीवन के संग, कुछ गुपचुप बातें कर लूँ ।
सुंदर रचना ...
जितनी गहरी जड़ें, पेड़ भी उतना ऊँचा,
ReplyDeleteपोषित जिनपर, टिका हुआ अस्तित्व समूचा,
निश्चय ही मैं, कर्म क्षितिज पर पहुँच गया पर,
किस आँगन की महक, हवा ने रुककर पूँछा ।
घर, समाज की प्रेम-समाहित, सोंधी माटी भर लूँ ।
मन फिर है, जीवन के संग, कुछ गुपचुप बातें कर लूँ ।
सुंदर रचना ...
वाह... उम्दा, बेहतरीन अभिव्यक्ति...बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteबहुत ही बेहतरीन रचना है..बधाई स्वीकारें।
ReplyDeleteक्या बात है...वाह!! शुभकामनाएँ.
ReplyDeleteहम पोस्टों को आंकते नहीं , बांटते भर हैं , सो आज भी बांटी हैं कुछ पोस्टें , एक आपकी भी है , लिंक पर चटका लगा दें आप पहुंच जाएंगे , आज की बुलेटिन पोस्ट पर
ReplyDeleteनिश्चय ही मैं, कर्म क्षितिज पर पहुँच गया पर,
ReplyDeleteकिस आँगन की महक, हवा ने रुककर पूँछा ।
घर, समाज की प्रेम-समाहित, सोंधी माटी भर लूँ ।
मन फिर है, जीवन के संग, कुछ गुपचुप बातें कर लूँ ...
यह भाव हमेशा मन के साथ-साथ रहता है ...
अनुपम भावों का संगम है यह अभिव्यक्ति
सादर
ReplyDeleteजीवन के संग, कुछ गुपचुप बातें कर लूँ ।
बैठ मिटाऊँ क्लेश, रहा जो शेष, सहजता भर लूँ ।।
भाव और भाषा के उत्तम संगम ने रचना को चार चाँद लगा दिए ... सुन्दर और सार्थक रचना के लिए बधाई ....
अति सुन्दर रचना...
ReplyDelete:-)
स्वगत कथन सी आपकी यह रचना अनु -गुंजित होती है रिवार्बरेट करती है देर तक .काटजू उवाच पर आपकी टिपण्णी के सन्दर्भ में इतना ही -बेशक 90 फीसद समाज जाति ,धर्म से आगे सोच नहीं पाता फिर भी उसके लिए अपभाषा का इस्तेमाल करना अच्छा नहीं है .
ReplyDeleteनिशा बताये, दीपक कितना जल पाया है,
स्मृतियों में डूब, निरन्तर अकुलाया है,
इस आँगन में एक जगह तो छूटी फिर भी,
दिया तले जो तम है, अपनी ही छाया है ।
वाह्य-प्रतिष्ठा पूर्ण, हृदयगत निष्ठा मधुरिम भर लूँ ।
मन फिर है, जीवन के संग, कुछ गुपचुप बातें कर लूँ ।।२।।
प्रत्येक छन्द अपने आप में स्वतन्त्र शब्द-चित्र लगता है।
ReplyDeleteबेहतरीन कविता....दो क्षण की जरुरत है बस..मगर वो मिले तो सही
ReplyDeleteबहुत ही बेहतरीन रचना है
Delete-- vivj2000.blogspot.com
रुक रुक कर मन कुछ बातें कर लें !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर !
नज़्म बहुत ही सुडौल शिल्प में है, मुझे उतनी समझ नहीं लेकिन पद्य के जानकार ज़रूर बता पाएंगे.... :)
ReplyDeletebehatarin rachna...
ReplyDeleteमन है, तनिक ठहर लूँ
ReplyDeleteमन फिर है, जीवन के संग, कुछ गुपचुप बातें कर लूँ ।
बैठ मिटाऊँ क्लेश, रहा जो शेष, सहजता भर लूँ ।।
खुद से साक्षात्कार कर लूं ,तो चलूँ
रुकूँ पल भर फिर आगे बढ़ूँ
बढ़िया आत्मालोचन करती खुद को तलाशती पूर्णता की तलाश में निकली रचना है यह .
बेहतरीन ......आपको पहली बार पढ़ा बढ़िया लगा ...आप भी पधारो मेरे घर पता है ....
ReplyDeletehttp://pankajkrsah.blogspot.com
आपका स्वागत है
खुद से खुद की बातें ,बहुत अच्छी लगीं ......
ReplyDeleteबेहतर लेखन !!!
ReplyDeleteजितनी गहरी जड़ें, पेड़ भी उतना ऊँचा,
ReplyDeleteपोषित जिनपर, टिका हुआ अस्तित्व समूचा,
निश्चय ही मैं, कर्म क्षितिज पर पहुँच गया पर,
किस आँगन की महक, हवा ने रुककर पूँछा ।
घर, समाज की प्रेम-समाहित, सोंधी माटी भर लूँ ।
मन फिर है, जीवन के संग, कुछ गुपचुप बातें कर लूँ ।।६।।
....लाज़वाब! निशब्द करते भाव...
बहुत खुबसूरती से आत्मालोचन किया है आप ने प्रवीण जी..बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDelete--
adbhut rachna..
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ReplyDeleteशुक्रिया प्रवीण भाई आपकी उपस्तिथि तथा स्पीड हमें भी अतिरिक्त उत्साह से भर देती है .
बाँध लेने वाले गीत के लिए अभिनंदन!
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