मानव अपनी जड़ों से जुड़ना चाहता है, उसे अच्छा लगता है कि वह अपने इतिहास को जाने, उसे अच्छा लगता है यह जानना कि अपने पूर्वजों की तुलना में उनका जीवन कैसे बीत रहा है। हो सकता है कि इतिहास का कोई प्रायोगिक उपयोग न हो, हो सकता है कि इतिहास केवल तथ्यात्मक हो और उससे भविष्य में कोई लाभ न मिले। जो भी हो हमें फिर भी उनके बारे में जानना अच्छा लगता है, रोचकता भी रहती है।
बड़ा स्वाभाविक भी है यह व्यवहार, हम सब कुछ ऐसा करना चाहते हैं कि हमारे न रहने पर भी हमारा नाम यहाँ बना रहे। यह चाह न केवल हमें कुछ विशिष्ट करने को उकसाती है, वरन अपनी गतिविधियों को लिपिबद्ध करने को प्रेरित करती है। हम अपने बारे में सूचनायें न केवल लिखित रूप में संरक्षित करते हैं, वरन भवनों, किलों, सिक्कों आदि के रूप में भी छोड़ जाते हैं। घटनायें होती हैं, उनके कारण होते हैं, कहानियाँ बनती हैं, उनके कई पक्ष उद्धाटित होते हैं। इन सबका सम्मिलित स्वरूप इतिहास का निर्माण करते हैं। विशिष्ट लोग या विशिष्ट घटनायें या विशिष्ट शिक्षा, बस यही शेष रह जाता है, अन्यथा सारे जनों की सारी घटनायें कौन लिखेगा और कौन पढ़ेगा?
जहाँ एक ओर इतिहास गढ़ने की स्वाभाविक इच्छा हमारे अन्दर है, वहीं दूसरी ओर इतिहास पढ़ने की भी इच्छा सतत बनी रहती है। इतिहास के माध्यम से हम उन स्वाभाविक समानताओं को ढूढ़ने का प्रयास करते हैं जो हमें अपने पूर्वजों से जोड़े रहती है। यही वो सूत्र हैं जो संस्कृति का निर्माण करते हैं। ये सूत्र आचार, विचार, प्रतीकों के रूप में हो सकते हैं। ये सूत्र जितने गाढ़े होते हैं हम अपने आधार से उतना ही जुड़ा पाते हैं, अपने जीवन को उतना ही सार्थक मानते हैं।
हम भारतीय बहुत भाग्यवान है कि हमारे पीछे संस्कृति के इतने विशाल आधार हैं, ज्ञात इतिहास की पचासों शताब्दियाँ हैं। इतिहास की सत्यता पर भले ही संशय के कितने ही बादल छाये हों पर फिर भी एक वृहद इतिहास उपस्थित तो है। देर सबेर संशय के बादल छट जायेंगे और हम सत्य स्पष्ट देख पायेंगे। तब तक विशाल संस्कृति की उपस्थिति ही हमारे लिये गर्व का विषय है।
प्राचीन इतिहास को समझने में अभी और समय लगेगा, अभी और प्रयास लगेंगे, पर यह एक स्थापित सत्य है कि अंग्रेजों ने भारतीयों पर अपना शासन अधिक समय तक बनाये रखने के लिये बहुत ही कुटिल नीति के अन्तर्गत कार्य किया। सामरिक श्रेष्ठता ही पर्याप्त नहीं होती है शासन के लिये, उसमें सदा ही विद्रोह की संभावना बनी रहती है। सांस्कृतिक श्रेष्ठता ही लम्बे शासन का आधार हो सकती है। अंग्रेजों ने यहाँ की जीवनशैली देखकर यह तो बहुत शीघ्र ही समझ लिया था कि स्वयं को सांस्कृतिक रूप से श्रेष्ठ सिद्ध कर पाना उनकी रचनात्मक क्षमताओं के बस की बात नहीं थी। तब केवल एक ही हल था, विध्वंसात्मक, वह भी शासित की संस्कृति के लिये।
फिर क्या था, शासित और शापित भारतीय समाज की संस्कृति पर चौतरफा प्रहार प्रारम्भ हो गये। इतिहास को हर ओर से कुतरा गया, राम और कृष्ण के चरित्रों को कपोल कल्पना बताना प्रारम्भ किया गया और वेद आदि ग्रन्थों को चरवाहों का गाना। अपने आक्रमण को सही ठहराने के लिये आर्यों के आक्रमण के सिद्धान्त को प्रतिपादित किया गया। आर्य और द्रविड के दो रूप दिखा भिन्नताओं को भारतीय समाज को छिन्न करने का आधार बनाये जाना लगा। जो भी कारक हो सकते थे फूट डालने के, भिन्नतायें उजागर करने के, सबको बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत किया गया। पर्याप्त सफल भी रहे अंग्रेज, अपने अन्धभक्त तैयार करने में, अंग्रेजों के द्वारा रचित इतिहास हम भारतीय बहुत दिनों तक सच मानते भी रहे।
स्वतन्त्रता मिलने के पश्चात हम अपने उस अस्तित्व को स्वस्थ करने में व्यस्त हो गये जो अंग्रेजों की अधाधुंध लूट और फूट के कारण खोखला हो चुका था। संस्कृति के विषय पर बहुत अधिक मनन करने का अवसर ही नहीं मिला हमें। संस्कृति के बीज भले ही कुछ समय के लिये दबा दिये जायें पर उनके स्वयं पनप उठने की अपार शक्ति होती है। जिन सूत्रों ने पचासों शताब्दियों का इतिहास देखा हो, न जाने कितनी सभ्यताओं को अपने में समाहित होते देखा हो, वे स्वयं को सुस्थापित करने की क्षमता भी रखते हैं।
पिछले दो वर्षों से मुझे भारतीय बौद्धिकता इस दिशा में जाती हुयी दिखायी भी पड़ रही है। पाश्चात्य की चकाचौंध तो सबके जीवन में आती है, प्रभावित करती है पर बहुत अधिक दिनों तक टिक नहीं पाती है, अन्ततः व्यक्ति अपनी जड़ों की ओर लौट कर आता है। हिन्दी के बारे में तो ठीक से नहीं कह सकता हूँ पर पिछले दो वर्षों में न जाने कितनी ही अंग्रेजी पुस्तकें देख रहा हूँ, जो भारतीय लेखकों ने लिखी हैं और सब की सब अपनी जड़ों को खोजने का प्रयास करती हुयी। न केवल वे मौलिक शोध कर रहे हैं, वरन यथासंभव वैज्ञानिक विधियों का आधार भी ले रहे हैं।
मैं पुस्तकें देखने नियमित जाता हूँ, वहीं से मुझे बौद्धिकता की दिशा समझने में सरलता भी होती है, हर सप्ताह कौन सी नयी पुस्तकें आयी हैं, यह जानने की उत्सुकता बनी रहती है। चाहे अश्विन सांघी की 'चाणक्या चैंट' या 'कृष्णा की' हो, अमीष त्रिपाठी की 'इम्मोर्टल ऑफ मेलुहा' या 'सीक्रेट ऑफ नागाज़' हो, रजत पिल्लई की 'चन्द्रगुप्त' हो, नीलान्जन चौधरी की 'बाली एण्ड द ओसियन ऑफ मिल्क' हो, अशोक बन्कर की 'सन्स ऑफ सीता' हो, आनन्द नीलकण्ठन की 'असुरा' हो, स्टीफेन नैप की 'सीक्रेट टीचिंग ऑफ वेदा' हो, सारी की सारी पुस्तकें संस्कृति के किसी न किसी पक्ष को खोजती है।
ये सारी पुस्तकें पढ़ने की प्रक्रिया में हूँ, ये रोचक भी हैं और तथ्यात्मक भी। आप भी पढ़िये, तनिक ध्यान से सुनिये भी, संस्कृति बुलाती है।
प्रवीण जी, आपका हर लेख गजब का होता हो। मुझे लगता है आपकी उंगलियोँ मेँ जादू है। संस्क्रति के सूत्र की आपने जो व्याख्या की वह अतुलनीय है।
ReplyDeletenamaskaar praveen ji ,
Deletebahut sarthak lekh , dhara pravah , shilp .umda aaj aapko padhne ka mauka mila , bahut baar aapka blog try kiya nahi pahuch saki , bahut anand aaya pahne me , sarthak lekhan ke liye aapko badhai .
kripaya yadi mail se subscibr kar sake ya link de jahan se ham aapko aasani se padh sake , aisa lekhan sadaiv padhne ki chahat hai .
mai apna mail deti hoon --aap hamari vinati swikaren
shashipurwar@gmail.com ----
ya apna link hamen bheje . abhar aapka ,
हर व्यक्ति अपने इतिहास व संस्कृति की जड़ों से जुड़ा रहना चाहता है| जो लोग अपने इतिहास, संस्कृति से दूर गए मैंने उनमें अपनी संस्कृति और ऐतिहासिक जड़ों से वापस जुड़ने की व्यग्रता देखि है|
ReplyDeleteख़ूब मन से पढ़ा-आभार !
ReplyDelete....संस्कृति को बचाने का संघर्ष जारी है !
ReplyDeleteप्रिय पांडे जी ,बड़ा ही रोचक प्रकरण का आगाज किया है ,साधुवाद |मूलतः संस्कृति कहाँ से है कहाँ तक है निर्दिष्ट नहीं है ,हो भी नहीं सकती | हमारी मंसानुरूप या सिमित अर्थों में सरोकार के निहितार्थ जब छिद्रान्वेषण का कार्य प्रारंभ करते हैं तब कहीं हम भूल रहे होते हैं की संस्कृति का विकास एकांगी नहीं बहुआयामी हुआ करता है,समस्त दृष्टिकोणों की एकाग्रता संस्कृति की पूर्णता व परिपक्वता को दर्शित करती है,संस्कृति बुलाती है निहितार्थ की हम किस संस्कृति का उपार्जन करने जा रहे हैं ......उलझाने व भ्रम भरे मिथक,सुखानुभूति दे सकते हैं,तथ्य नहीं ,जिसके आज आवश्यकता है |
ReplyDeleteजडेँ मनोयोग से सिंची जा रही है, वट्वृक्ष वही बहार आने को है. संस्कृति की पदचाप आपने सुनी और उजागर की.
ReplyDeleteबेहतरीन लेख ! आभार ।
ReplyDeleteअच्छी पुस्तके अच्छे साथी की तरह हैं। अध्ययन हमें आनन्द तो प्रदान करता ही है, अलंकृत भी करता है और योग्य भी बनाता है।
ReplyDeleteअच्छा लेख।
ReplyDeleteअपनी संस्कृति से जुड़ा रहना आत्मीय अनुभूति का कारक होता है . जहर व्यक्ति अपनी जड़ो से जुड़ा रहना चाहता है . हर्ष का विषय है की , विरासत को खोजती पुस्तके हमे इसमें सहायता करेगी.
ReplyDeleteइतिहास के सापेक्ष वर्तमान को ( संस्कृति के सन्दर्भ में ) परिष्कृत करने की भी आवश्यकता है अन्यथा संस्कृति का जो वर्तमान स्वरूप है उससे भय है कहीं ' इति हास्य ' न हो जाए |
ReplyDeleteहरा भरा लहलहाता हुआ वृक्ष भी अपनी जड़ों की ओर ही झुकता है ...!अपनी विरासत को बचाना अब हमारी ही ज़िम्मेदारी है |सार्थक आलेख ...!!
ReplyDelete
ReplyDeleteवृक्ष की शाखाएं कितने भी ऊँची ना हो जाए , धरती में जड़ ना हुई तो सूख जायेंगी .
अपनी मिटटी की और लौटते क़दमों को महसूस किया जा रहा है इन दिनों !
्हमारी संस्कृति हमारी विरासत ऐसे ही नही कहा गया………बढिया आलेख
ReplyDelete"देर सबेर संशय के बादल छट जायेंगे और हम सत्य स्पष्ट देख पायेंगे। "
ReplyDeleteUmmeed Baaki hai !
संस्कृति बुलाती है ... शब्दश: सही कहा है आपने ... उत्कृष्ट लेखन
ReplyDeleteआभार आपका
अच्छी पोस्ट |इतनी उम्दा जानकारी देने हेतु आभार |
ReplyDeleteसंस्कृति के बीज भले ही कुछ समय के लिये दबा दिये जायें पर उनके स्वयं पनप उठने की अपार शक्ति होती है। जिन सूत्रों ने पचासों शताब्दियों का इतिहास देखा हो, न जाने कितनी सभ्यताओं को अपने में समाहित होते देखा हो, वे स्वयं को सुस्थापित करने की क्षमता भी रखते हैं।
ReplyDeleteसार्थक लेख!
जड़ से जुड़ा रहना ज़रूरी है .... बहुत अच्छा लेख ......
ReplyDeleteएक बार इम्मोर्टल आफ मेलूहा एक छोटी सी मोबाइल शॉप में मिली, मैंने देखने के लिए माँगी। उस दुकान के मालिक ने कहा जरूर पढ़िये। सचमुच संस्कृति को जानने के लिए इसकी सबसे पुरानी जड़ों तक पहुँचना जरूरी है।
ReplyDeleteखड़े रहना है तो अपने जड़ से तो जुड़ना ही होगा..सार्थक पोस्ट आभार..
ReplyDeleteपुस्तकों में ज्ञान का भंडार भरा पड़ा है. बस पढने वाला चाहिए. आपकी लगन सराहनीय है.
ReplyDeleteसंस्कृति को बचाने के लिए संघर्ष हम सभी को करना ही पड़ेगा,...
ReplyDeleteउम्दा आलेख,,,
सम्मोहन पैदा करता है आपका लेखन .विश्लेषण से कहानी आगे निकल जाता है .इतिहास को आत्मसात किए है हर हरफ आपका .
ReplyDeleteसम्मोहन पैदा करता है आपका लेखन .विश्लेषण से कहानी आगे निकल जाता है .इतिहास को आत्मसात किए है हर हरफ आपका .
ReplyDeleteram ram bhai
मुखपृष्ठ
बुधवार, 5 दिसम्बर 2012
आरोग्य समाचार आज
जिसने अपनी संस्कृति छोड़ दी उसका कुछ नहीं हो सकता।
ReplyDeleteआपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 06-12 -2012 को यहाँ भी है
ReplyDelete....
सफ़ेद चादर ..... डर मत मन ... आज की नयी पुरानी हलचल में ....संगीता स्वरूप
. .
''संस्कृति के बीज भले ही कुछ समय के लिये दबा दिये जायें पर उनके स्वयं पनप उठने की अपार शक्ति होती है।''
ReplyDelete--बहुत सही लिखा है आप ने.
और पढ़ने की भूख और नया कुछ जानने की लालसा इंसान को कुछ न कुछ नया सिखाती रहती है ..नयी पुस्तकें पढ़ने की प्रक्रिया जारी रहे.
संस्कृति की सम्मोहकता मनुष्य को आबद्ध किये रहती है ,जड़ों से जोड़े रहती है -यहाँ तक कि व्यक्ति को अमरता का वरदान भी देती है चाहाहे उसकी यशः काया के रूप में या फिर उसकी वंशावली के रूप में -उसकी कृतियों ,निर्माणों के रूप में -किन्तु फिर भी न जाने क्यों कुछ अभागे अपनी संस्कृति से कट कहीं और भटक जाते हैं ,,
ReplyDeleteविचारपरक!
sukhad ....... sarahniya.......
ReplyDeletepranam.
बेहद सशक्त विचारों का प्रवाह , सही कहा आपने पुस्तकों में हमारी संस्कृति लिपटी हुई है ज़रुरत हमे उन्हें हांथों में उठाने की है और उनके भावों को ग्रहण करने की !
ReplyDeleteआपके अद्भुत लेखन को नमन,बहुत सराहनीय प्रस्तुति.बहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी ...बेह्तरीन अभिव्यक्ति !शुभकामनायें.
आपका ब्लॉग देखा मैने और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.
आजकल पुस्तकों को पढ़ने का शौक खत्म-सा हो रहा है...पढ़ने से ज्ञान बढ़ता है. इसलिए खूब पढ़ना चाहिए...
ReplyDeleteबहुत बढ़िया आलेख....
सार्थकता लिए हुए .....वक्त के साथ साथ सब कुछ बदल रहा है
ReplyDeleteआपका यह आलेख आज के दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित है। अच्छा आलेख।
ReplyDeleteपुस्तकों को पढ़ने का शौक बहुत अच्छा है.
ReplyDeleteअंत में एक बहुत ही सार्थक एवं सुंदर बात कह गए आप जो सीधा दिल को छु गयी की ज़रा ध्यान से सुनो संस्कृति बुलाती भी है।
ReplyDeleteसुदृढ़ संस्कृति के कारण ही मनुष्य का भवितव्य अटल है . अत्यंत प्रभावी आलेख..
ReplyDeleteजड़ों की वंशवेळ की शिनाख्त होना ज़रूरी है .हम कौन सी परम्परा के किस देश के वासी है जानना ज़रूरी है .
ReplyDeleteजैसे इंसान को अपना बचपन बुलाता है अपना वो घर बुलाता है जहाँ की मिटटी में खेलकर आप बड़े हुए उसी तरह आपकी सभ्यता संस्कृति आपको बुलाती है अगर आप विदेश में हैं तो आप अपनी संस्कृति का तुलनात्मक विश्लेषण करने लगते हैं और उसकी जड़ों तक पहुचना चाहते हैं बहुत सुन्दर सार्थक आलेख हमेशा की तरह प्रभावित करता ,इसी लिए आपकी कोई भी पोस्ट मिस नहीं करना चाहती देर सबेर जरूर पढ़ती हूँ एक बार एक ब्लोगर ने ही चैट करते हुए पूछा था की किस ब्लोगर को आप सबसे पहले पढना चाहती हैं या उसका लेखन पसंद करती हैं सबसे पहले आपका नाम लिया आप विषय भी बेहतरीन चुनते हैं और उसकी विवेचना भी सराहनीय करते हैं पढने में दिलचस्पी बनी रहती है
ReplyDeleteहम अपनी संस्कृति और जड़ों से दूर रह कर कितनी देर रह सकते हैं. अंत में हमें वहीं वापिस आना होगा.
ReplyDeleteअपने इतिहास इतिहास को प्यार करना कोई अमरीकियों से सीखें .फोर्ड म्यूजियम तो है ही मिशिगन ,पास ही एक हेनरी फोर्ड विलेज है जिसमें लोग उसी समय की जीवन शैली अपनाए हुए हैं .वैसा ही पैर हन ,वैसी ही परिवहन व्यवस्था वैसा ही गाँव इन्हें सरकार पैसे देती है इसे कायम रखने के यह एक लाइव म्यूजियम है .
ReplyDeleteशहरी भागमभाग से जूझते मध्यवर्ग को ज़रूरत है कि सांस्कृतिक धरोहर आगे ले जाने की जिम्मेदारी केवल स्कूलों और टीवी-कंप्यूटर के ही हवाले न छोड़ दे
ReplyDeleteभड़का दिया है आपने, अभी ओर्डर करते हैं फ़्लिपकार्ट पर।
ReplyDeleteश्रेष्ठ आलेख। कुछ विद्वानों का मानना है कि रामायण की कथा रावण-वध और राम के पुन: अयोध्या आने तक ही है। सीता की अग्नि-परीक्षा और उत्तर रामायण राम को बदनाम करने के लिए बाद में जोड़ा गया अंश है।
ReplyDeletekal se kamaleshwar ka "kitne Pakistan" padh raha hun..aaj aapko padhne ke baad main use bhi isi silsile se jod kar dekh raha hun to ekdam sateek taur pe utar raha hai... :) :)
ReplyDeleteअपनी प्रिय पुस्तकों में थोडा सा स्थान हिंदी की पुस्तकों के लिए भी बनाये और बचाए रखिए। इनके आभाव में इस देश की संस्कृति को समझ पाना संभव नहीं होगा और हम अपनी जड़ों तक नहीं पहुँच पाएंगे।
ReplyDeleteसंस्कृति बुलाती है....
ReplyDeleteI also agreed with Mr. Santosh Pandey's Comments.
जिस बात ने सबसे अधिक आनन्दित किया ,वो है कुछ और पठनीय पुस्तकों के नाम मिल गये ...:)
ReplyDeleteसंस्कृति संसकृति संस्कृति हाँ यह संस्कृति ही तो है जो व्यक्ति के गुणों को विस्तार देती है समाज में लोग जैसे परिवेश में रहते हैं वे गुण ही तो वे आत्मसात कर लेते हैं तभी तो कई बार कहा जाता है कि जैसा होगा देश वैसा ही हो जाएगा आपका भेष और दोनो को मिला कर वन जाएगा परिवेश।तभी तो इतनी उथल पुथल व इस्लामी क्रान्ति के बावजूद भी फारसी संस्कृति कहीं न कहीं फारस की खाड़ी के आसपास अभी भी जिन्दा है जवकि पारसियों को समाप्त हुए अरसा गुजर चुका है।विल्कुल सही बात है कि चमक दमक का मुल्म्मा जब उतर जाता है तो वास्तविकता दिखाई देने लगती है।
ReplyDeleteमुझे आपका ब्लाग अच्छा लगा और तुरन्त ही में आपका फोलोअर भी हो गया हूँ कृपया आप व प्रिय पाठक वन्धु मेरे ब्लागों पर पधारे तथा अगर अच्छा पाऐं तो एक एक टिप्पणी अवश्य करें।http://ayurvedlight.blogspot.in/
ReplyDeletehttp://gyankusum.blogspot.in/
http://rastradharm.blogspot.in/और अगर भारतीय संस्कृति वहुत प्यारी लगती है तथा आप उस पर गर्व भी करते है तो कृपया एक राष्ट्रबादी व्लाग एग्रीगेटर वन रहा है इसमें अपने आप को शामिल कराने के लिए राष्ट्रधर्म की पोस्टों पर टिप्पणी दें