पिछले कई दिनों से पढ़ रहा हूँ, बहुत पढ़ रहा हूँ, कई पुस्तकें पूरी पढ़ी, कई आधी अधूरी चल रही हैं। रात में बच्चों के सोने के बाद पढ़ना प्रारम्भ करता हूँ तो कब घड़ी को दोनों सुईयाँ तारों की दिशा दिखाने लगती हैं, पता ही नहीं चलता है। सुबह शीघ्र उठने में कठिन परिश्रम करना पड़ता है, दिनचर्या अलसायी सी प्रारम्भ होती है तब।
माताजी पिताजी घर आये हैं, पिताजी आज भी सुबह ५ बजे उठ जाते हैं और योग भी करते हैं। पृथु अपने बाबा के प्रिय हैं, सुबह उठने से लेकर रात कहानी सुनने तक साथ लगे रहते हैं। तो स्वाभाविक है कि पृथु भी सुबह योग करते हैं और उसके बाद पढ़ने भी बैठ जाते हैं। एक पीढ़ी ऊपर और एक पीढ़ी नीचे, दोनों ही हमें अधिक सोने वाला और आलसी समझते हैं और उसी दृष्टि से देखते भी हैं। 'उठने का समय मिल गया पापा को', कौन भला यह कटाक्ष झेल पायेगा। सारांश यह है कि हम नित ही अंक खोते जा रहे हैं, पता नहीं कि बाद में पृथु को अनुशासित रख पाने का अधिकार भी रख पायेंगे या नहीं।
बाजी हाथ से फिसल रही है, तेजी से, पर उसका अधिक हानिबोध नहीं है। असली समस्या यह है कि अधिक पढ़ने के क्रम में लिखना भी कम हुआ जा रहा है, सप्ताह में दो पोस्ट भी लिखने में इतना जूझना पड़ रहा है कि लिखा हुआ एक एक शब्द लाखों का लगता है। चेहरे से बच्चों को पता लग जाता है कि बुधवार या शनिवार आने वाला है और पापा ने अपनी पोस्ट लिखी नहीं है। ऐसा दिखने पर हमें बहुधा उस उल्लास और कार्यक्रम में सम्मिलित नहीं किया जाता है जो घर के शेष लोगों ने बनाया होता है। लिखना भी नहीं हो पाता है, मन ललचाता भी रहता है, एक विशिष्ट रूप लेता जा रहा है हमारा जीवनक्रम।
ऐसा पहली बार नहीं हैं कि लिखने और पढ़ने को साथ साथ चलने में समस्या न आयी हो। जब लिखना अधिक होता है तो पढ़ना पूरी तरह रुक सा जाता है, महीनों कोई पुस्तक उठाने का मन नहीं करता है। अब जब पुस्तकों को महीनों का शेष चुकाने बैठे हैं तो लिखने का मन नहीं हो रहा है। समय की कमी एक कारण अवश्य होगा, होना भी चाहिये, आप कितने भी विशिष्ट समझ लें स्वयं को, घंटे तो २४ ही मिलेंगे एक दिन में। चाह कर भी एक मिनट अधिक नहीं मिलेगा। यदि अधिक कर सकने के लिये अपनी कार्य क्षमता बढ़ाने का उपाय करना चाहूँ तो वह भी नहीं हो पा रहा है, क्योंकि मन की माने तो सुबह उठकर योग करने के लिये भी समय चाहिये। अब समस्या इतनी गहरा गयी है कि बिना गोता मारे उपाय निकलेगा भी नहीं।
धीरे धीरे मन को मनाने से दिनचर्या की समस्या तो हल हो भी जायेगी, पर एक और बौद्धिक समस्या सामने दिखती है जो लिखने में रोड़ा अटका रही है। सतही देखा जाये तो समस्या है, गहरे देखा जाये तो संभावना है। यदि आप कोई अच्छी पुस्तक पढ़ते हैं तो उस लेखक से संवाद करते हैं। पुस्तक जितनी रोचक होती है, संवाद उतना गहरा होता है, उतना ही अन्दर आप उतर जाते हैं। पुस्तक पढ़ने के बीच जो समय मिलता है, उसमें आप उसी संवाद पर मनन करते हैं। पहले तो पठन औऱ फिर उसी पर मनन, इसी में सारा समय निकल जाता है, कुछ समय ही नहीं बचता कुछ संघनित करके बरसाने के लिये। इतना समेट लेने की व्यग्रता रहती है कि कुछ निकालने का समय ही नहीं रहता है। हाँ, यह बात तो है कि जो भी संवाद होता है, वह कभी न कभी तो बाहर आयेगा, कई बार गुनने के बाद, बस यही संभावना है, बस यही सान्त्वना है।
न लिख पाने का एक और कारण भी समझ में आता है, पढ़ने और लिखने का स्तर एक सा न होना। अच्छे लेखक को पढ़ने में बौद्धिक स्तर इतना ऊँचा उठ जाता है कि तब नीचे उतर कर लिखने का साहस नहीं हो पाता है, अपनी लेखकीय योग्यता पर संशय होने लगता है। जब पकवानों की उपस्थिति आप के घर में हो तो आपकी अधकच्ची, अधपकी और चौकोर रोटी कौन सुस्वादु खा पायेगा? यही संशय तब धड़कन में धक धक करता रहता है और आप उसकी थाप को अपने ध्यान से हटा नहीं पाते हैं। जब साहित्य और सृजनता मंद मंद बयार के रूप में बह रही हो, तब अपने मन के अंधकार को टटोलने का मन किसका करेगा, विस्तार के आनन्द से सहसा संकुचित हो जाना किसको भायेगा भला?
यह समस्या मेरी ही नहीं है, कई मित्र हैं मेरे, जब वे अच्छा पढ़ने बैठते हैं तो लिखना बन्द कर देते हैं। बहुत से ब्लॉगर ऐसे हैं जिन्होंने लिखना कम कर दिया है। उनका लिखा पढ़ने को कम मिल रहा है, उसका दुख तो है, पर इस बात की प्रसन्नता है कि वे निश्चय ही बहुत ही अच्छा पढ़ रहे होंगे और भविष्य में और धमाके के साथ लिखना पुनः प्रारम्भ करेंगे। डर पर इस बात का है कि कहीं अच्छा पढ़ने की लत में वे लिखना न भूल जायें। सारा ज्ञान स्वयं समा लें, सारा आनन्द स्वयं ही गटक जायें और हम वंचितों के आस भरे नेत्रों को प्यासे रहने के लिये छोड़ दें।
तो प्रश्न बड़ा मौलिक उठता है, कि यदि इतना स्तरीय और गुणवत्तापूर्ण लिखा जा चुका है तो उसी को पढ़कर उसका आनन्द उठाया जाये, क्यों समय व्यर्थ कर लिखा जाये और औरों का समय व्यर्थ कर पढ़ाया जाये। कई लोग इस बौद्धिक गुणवत्ता और पवित्रता को बनाये रखना चाहते हैं और पुरातन और शास्त्रीय साहित्य पढ़ते रहने में ही अपना समय बिताते हैं। अपने एक वरिष्ठ अधिकारी को जानता हूँ, उनका अध्ययन गहन और व्यापक है। उन्हें जब कुछ ब्लॉग आदि लिखने के लिये उकसाया तो बड़ा ही स्पष्ट उत्तर दिया। कहा, प्रवीण, जो भी जानने योग्य है, वह सब इन पुस्तकों में है, यदि कुछ लिखा जायेगा तो वह इसी ज्ञान के आधार पर ही लिखा जायेगा। हम तो इसी के आनन्द में डूबे रहते हैं।
वहीं दूसरी ओर हम हैं कि अपनी समझ को भाँति भाँति प्रकार से समझाने के प्रयास में लगे रहते हैं। जिस प्रकार समझते हैं, अधकचरा या अपरिपक्व, उसी प्रकार व्यक्त करने बैठ जाते हैं। दोष हमारा भी नहीं है, अभिव्यक्ति में व्यक्ति छिपा हुआ है, यह स्वभाव भी है। अभिव्यक्ति कभी कभी इतनी तरल और सरल हो जाती है कि मर्म तक उतर जाती है। मुझे बहुधा यह भी लगता है कि किसी विषय को व्यक्त करने के क्रम में वह हमारे मन में और भी स्पष्ट हो जाता है।
यह दोनों पक्ष इतने सशक्त हैं कि निर्दलीय बने रहना कठिन हो जाता है, पढ़ना आवश्यक है और पढ़ते पढ़ते लिखना भी। यह समस्या हमारी भी है और आपकी भी, उत्तर आप भी ढूढ़ रहे होंगे और हम भी। पर पढ़ते रहने के क्रम में अनुशासन का बाजा नहीं बजने देना है, कल उठना है समय से और पिता और पुत्र दोनों के ही साथ योग भी करना है और ध्यान भी, यह जानने के लिये कि पढ़ते पढ़ते लिखना कैसे सीखा जाये।
मुझे बहुधा यह भी लगता है कि किसी विषय को व्यक्त करने के क्रम में वह हमारे मन में और भी स्पष्ट हो जाता है।..........अत्यंत समानुभव है।
ReplyDeleteआप अपनी भावनाएं सुन्दर प्रकार से प्रकट करते हैं।
लिखने के लिए भी पढ़ते रहना जरुरी है :)
ReplyDeleteबहुत ही सारगर्भित आत्मकथ्य |हर समय अच्छी मनः स्थिति और अच्छे विचार मन में नहीं रहते इसलिए हर समय बहुत अच्छा नहीं लिखा जा सकता है |यह दुनिया के नामचीन लेखकों और कवियों के साथ भी होता है |और बहुत से लोग अच्छा लिखते तो हैं लेकिन घर -परिवार का कोई दायित्व पूरा नहीं करते हैं |ऐसे में आप जैसे लोग अधिक महान हैं जो सरकारी दायित्व और पारिवारिक दायित्व जिम्मेदारी से निभाते हुए लेखन करते हैं |एक लेखक अगर अपने से योग्य अपनी संतानों को बना पाता है तो यह भी एक महत्वपूर्ण कृति से कम नहीं है |महाराजा जनक को सबसे अच्छा योगी माना जाता है क्योंकि राज्य का संचालन करते हुए ,प्रजा का लालन -पालन करते हुए वह एक सन्यासी का जीवन व्यतीत करते रहे |
ReplyDelete“जो भी जानने योग्य है, वह सब इन पुस्तकों में है, यदि कुछ लिखा जायेगा तो वह इसी ज्ञान के आधार पर ही लिखा जायेगा।” मैं असहमत हूँ इस धारणा से कि पुराना ही बहुत है पढ़ने को तो नया क्या लिखा जाय।
ReplyDeleteयदि कबीर और तुलसी ने ऐसा सोचा होता तो आज हमारे पास क्या वह अनमोल निधि होती जो वे छोड़ गये। तुलसी ने तो बाकायदा घोषित किया था कि वे कुछ नया नहीं कह रहे हैं। कबीर ने इसके उलट यह कह दिया था कि “मसि कागद छुयौ नहीं कलम गही नहिं हाथ”
दरअसल विद्या अथवा ज्ञान का अर्जन करना अलग बात है और कुछ सर्जन करना बिल्कुल अलग। मनुष्य का मस्तिष्क एक प्रोसेसर का काम तो करता ही है किन्तु इसमें नये विचार और नयी धारणाएँ जन्म भी लेती हैं। दुनिया में साहित्य, संगीत, कला इत्यादि के क्षेत्र में जो बड़े रचनाकार हुए हैं वे एक प्रकार से गिफ़्टेड हैं कि उनके मस्तिष्क में नयी रचना जन्म लेती रहती है। यह एक अद्भुत प्रक्रिया है। प्रकृति ने कम या अधिक मात्रा में प्रायः सभी मस्तिष्कों में यह रचनात्मक प्रवृत्ति या शक्ति (potential) दे रखी है। अनुकूल वातावरण पाकर इसका विकास हो जाता है। यहाँ एक अच्छे गुरू की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है लेकिन अनिवार्य नहीं।
और हाँ, आप अच्छा लिखते है इसलिए बहाने मत बनाइए। बिन्दास लिखते रहिए। :)
अच्छा कमेंट पढ़कर अच्छा लगा।
Delete...त्रिपाठी जी,जय हो !
Deleteहर बार कीबोर्ड में कुछ लिखना प्रारम्भ करते है तो यही लगता है कि पाठकों को समझाने के लिये लिख रहे हैं या स्वयं समझने के लिये
Deleteमेरे ख्याल से तो जब आप लिखने बैठते हैं तो आप एक पाठक की तरह होते हैं, वो इसलिए की जब आप लिखते हैं तो आपके मन कहीं न कहीं ये आभास या विचार होता है, की जो आप लिख रहे हैं, क्या वो दूसरे व्यक्ति (दूसरे व्यक्ति से भाव है वो व्यक्ति या वो शख्स जो आप का लिखा पढ़ता है) आसानी से समझ पाएंगे, बस यही विचार लिखते हुए ही आप निरंतर लिखते जाते हैं | इसी लिखने की चाह में जब आप लिखते चले जाते हैं, वो भी तब जब आप मन में ये सोच रखते हुए की मेरा लिखा सभी को समझ में आना चाहिए तो यही अहसास ही वो अहसास होता है की हम दूसरो को समझाने के लिए बेहतर प्रयत्न कर रहे है | ये प्रयास हो आपको ऊँचाइयों की और ले जाता है | तो श्रीमान लिखना भी न छोड़ें | पढने के साथ लेखन भी जरूरी है | यदि कोई लिखेगा ही नहीं तो कोई पढ़ेगा कैसे ? इस पर मंथन जरूर कीजिऐ |
Delete..अच्छा है पढ़ते रहिए ...लिखने के बारे में ज्यादा मत सोचिये, जब अंदर से उबालना आएगा तो लिख जाएगा !
ReplyDeleteउबालना =उबाल
Deleteकभी कभी तो ज्ञान चक्षु खुलने से रहा सहा उबाल भी शमित हो जाता है
Delete....और पक जाते हैं विचार !
Deleteस्वयं को अभिव्यक्त करना , पढ़ कर या अपने अनुभवों से ही लेखन है ...गुणवत्ता अवश्य बेहतर पढने से आती है .
ReplyDeleteहम सभी बेचैनी में जीने वाले लोग हैं। वृत्ति और प्रवृत्ति की खाई जितनी चौड़ी होती जाती है आदमी उतना ही बेचैन होता जाता है। हमने बेचैनी अपना ली है तो यह दंश हमे झेलना ही पड़ेगा। जीविका के साथ-साथ जीवन जीना भी पड़ेगा। कुछ पकड़ने में कुछ छूट जाता है। कभी कभी घर, कभी शहर रूठ जाता है। हम सुविधानुसार लिखने वाले लोग हैं। जिनको आप पढ़ते हैं उनमे अधिकांश महान लेखक वे हुए जिन्होने सुविधाओं की चिंता नहीं की लिखा और बस लिखा। तुलसी, कबीर, गालिब, निराला..ऐसे ही जाने कितने महान लेखक हुए जो भूख सहते थे यहाँ। घर-परिवार छोड़कर निरंतर सत्य की खोज में, साहित्य साधना में लगे रहे। हम भूख क्या, थोड़ी असुविधा भी बर्दाश्त नहीं कर पाते। लेकिन एक खुशी है कि जीवन भले मनमर्जी से न जी पाते हों लेकिन जीवन को देखते, महसूस करते और अपने सामर्थ्य के अनुरूप अभिव्यक्त तो करते ही रहते हैं। संसार अच्छा हो इसकी दुआ करते हैं और सुना है, दुआओं का असर होता है । सरस्वती कब, किससे, क्या लिखवा दें! कुछ नहीं कहा जा सकता। इसलिए पढ़ते रहें और लिखते रहें...
ReplyDeleteगज़ब !
Delete़लिख देने से, मन की बात किसी से कह देने का संतोष मिल जाता है। अन्यथा प्रकृति की कलाकारी समझना तो हम सबकी क्षमता के बाहर की ही बात है।
Deleteहमसे पिछले दिनों लिखना न हुआ। पढ़ना भी नहीं।
ReplyDeleteलगता है, कुछ लिखते रहने के लिए बहुत कुछ पढ़ते रहना भी ज़रूरी है।
लेखकों के लिए लेखन एक भूख की तरह है जैसे भोजन से पेट की भूख शांत होती है लेखन से कलम और दिमाग दोनों की भूख शांत होती है और वो चक्र चलता रहता है किन्तु लेखन के लिए ज्ञान का विस्तार भी जरूरी है तो पढना भी पड़ता है अब दोनों में तो तालमेल बैठाना ही पड़ेगा किन्तु अति हर चीज की खराब होती है इस लिए सभी बातों पर ध्यान देना होता है ,बहुत विचारणीय पोस्ट है सभी को सोचने को मजबूर करेगी
ReplyDeleteपढ़ने के साथ - साथ लेखन ... सहज़ - सरल शब्दों में एक समझाइश सा लगा यह आलेख ..
ReplyDeleteआभार सहित
सादर
मित्रों!
ReplyDelete13 दिसम्बर से 16 दिसम्बर तक देहरादून में प्रवास पर हूँ!
इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (16-12-2012) के चर्चा मंच (भारत बहुत महान) पर भी होगी!
सूचनार्थ!
मैं आपके वरिष्ठ अधिकारी से सहमत नहीं हूँ लिखना हमारा निजी अनुभव है हमारे अंतस का प्रकटीकरण है और यह ईश्वर को भी जस्टीफाई करता है जो कभी नकल नहीं करते तो हमारा लेखन कितना भी मीडियाकर ही सही, एक अद्वितीय मनुष्य के उसके विशिष्ट परिवेश के अनुभवों को व्यक्त करता है। बीते कई सालों से मैं ये ही सोच रहा था लेकिन अंत में मैंने पाया कि मुझे मुक्ति मिलेगी अपनी लेखनी में।
ReplyDeleteलेकिन सचमुच अपने अंतस का ईमानदार प्रकटीकरण हम तभी कर पाएंगे और उसे प्रभावी रूप से संप्रेषित तभी कर पाएंगे जब हम अपने महान लेखकों को पढ़ेगे। आपने बिल्कुल सच कहा कि लिखना और पढ़ना हमें दोनों साथ रखकर चलना होगा जहाँ संतुलन बिगड़ा, वहाँ इस आनंद से हम फिसल जाएंगे इसलिए पढ़ते पढ़ते लिखना सीखना होगा।
और लिखते-लिखते इस जुदा सा 'खुद' को लिख जाओ..
ReplyDeleteपढ़ना आवश्यक है और पढ़ते पढ़ते लिखना भी। कभी कभी लगता है कि समय कम है और बहुत कुछ करना बाकी है...
ReplyDeleteconvey my 'Pranam' to mom and dad.
ReplyDeleteजब भी लेखक से संवाद स्थापित हो तभी लिखिए।
ReplyDeleteHaan...yebhee thek hai!
ReplyDeletePoora lekh aur tippaniya aur prati-tippaniya ... Udvelit kar rahi hain man ko ...
ReplyDeleteAapka anubhav saajha mahsoos kar raha hun ...
पढ़ना तो लेखन के लिए आवश्यक है ही .....पढ़ते जाइए ....लेखन स्वयं अपनी राह बना लेगा ...
ReplyDeleteउलझन सुलझे न...
ReplyDeleteपढ़ना तो लेखन के लिए आवश्यक है ही .....पढ़ते जाइए लेखन स्वयं अपनी राह बना लेगा ...
ReplyDeleteसादर आमंत्रण,
ReplyDeleteहम हिंदी के श्रेष्ठ ब्लॉग 'हिंदी चिट्ठा संकलक' पर एकत्र कर रहे हैं,
कृपया अपना ब्लॉग शामिल कीजिए - http://goo.gl/7mRhq
पढ़ने के साथ साथ लिखना कैसे हो .... तो जब विचार बनेंगे तो यह प्रक्रिया स्वयं ही हो जाएगी .... बहुत कुछ नहीं सोचना होगा ... लेख हमेशा की तरह गहन विचार प्रस्तुत कर रहा है ।
ReplyDeleteजो चार शब्द लिख कर अपने अहम् का पहाड़ कडा करने में लग जाते हों, उन्हें अवश्य लिखना बंद कर देना चाहिए(क्योंकि वह अहम् को विसर्जित करने के काम से उलटा कर रहा है) परंतु जो बड़े सरोकारों को लेकर लिख रहा हो उसे और और लिखना चाहिए। इसीलिए सरोकारों की व्यापकता ही किसी भी लेखक का कद और किसी भी लेखक का औचित्य भी प्रमाणित करती है। दूसरे, प्रत्येक के अनुभव और अनुभूति भिन्न होती है... उसकी अभिव्यक्त भी भिन्न ही होगी।
ReplyDeleteजो चार शब्द लिख कर अपने अहम् का पहाड़ खड़ा करने में लग जाते हों, उन्हें अवश्य लिखना बंद कर देना चाहिए(क्योंकि वह अहम् को विसर्जित करने के काम से उलटा कर रहा है) परंतु जो बड़े सरोकारों को लेकर लिख रहा हो उसे और और लिखना चाहिए। इसीलिए सरोकारों की व्यापकता ही किसी भी लेखक का कद और किसी भी लेखक का औचित्य भी प्रमाणित करती है। दूसरे, प्रत्येक के अनुभव और अनुभूति भिन्न होती है... उसकी अभिव्यक्त भी भिन्न ही होगी। इसलिए ऐसा कभी नहीं होगा कि लिखने के विषय चुक गए सो, अब बस !
ReplyDeleteबच्चों को पढ़ाते-लिखाते और दफ्तर के बीच फुर्सत मिलती तो हम भी किताबें पढ़ पाते लेकिन क्या करें न लिखने का समय न पढने के ..कभी कभी सोचते यही सब सब लिख दे आप बीते लेकिन अपने ब्लॉगर साथी कहीं इससे बोर हो गए तो फिर क्या होगा ...
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लगा ..अभी बच्चों की परीक्षा से फुर्सत हुयी कुई है देखते हैं क्या लिख पाते हैं ...
अच्छी सामग्री पढ़कर ही अच्छा लेखन किया जा सकता है । धन्यवाद
ReplyDeleteलिखना और पढना दोनों बराबर की मात्रा और गुणवत्ता में एक साथ संभव नहीं है -पठन पाठन के अधीन अध्ययन और लेखन दोनों अलग अलग उपक्रम हैं ,पंडित नेहरु पढ़ते समय पढ़ने की गति को कम रखने के लिए एक नोटबुक रखते थे और क्रमशः नोट बनाते रहते थे जो बाद में खुद उनके लेखन का आधार बनता था -मगर यह बहुत ही श्रम और कष्टप्रद है!
ReplyDeleteye badi behtareen baat batayee aapne:)
Deleteआपके वरिष्ठ अधिकारीजी ने सौ टका सही कहा है। नया और मौलिक लिखने के लिए अब कहीं, कुछ नहीं है। जो भी लिखा जा रहा है, वह दुहराव भर ही है।
ReplyDeleteदो काम एक साथ करने में, दोनों के ही खराब होने की आाशंका रहेगी -
एके साधे सब सधे, सब साधे,सब जाय।
जो तू सींचै मूल को, फूले, फले, अघाय।।
अच्छा कुछ पढ़ लेने के बाद कई दिन के लिए लिखना स्थगित हो जाता है.
ReplyDeleteयह काम का विमर्श है....बहुत दिनों से अपना लिखना भी रूका हुआ है।
ReplyDeleteआप के विचारों से काफी हद तक सहमत.
ReplyDeleteयक़ीनन पढ़ना भी एक नशा है!
लेकिन हर अच्छा पाठक अपने विचारों को लिख कर अभिव्यक्त कर सकता हो यह ज़रुरी नहीं .
मुझे लगता है ,पढ़ने के बाद जो धारणा बनती है वह लेखन में अपने कथ्य के संदर्भ में व्यक्त हो जाती है -लेखन की एकांगिता भंग करने को ज़रूरी है पढ़ना.
ReplyDeleteइस पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है...
ReplyDeletehttp://merecomment.blogspot.in/2012/12/blog-post_16.html
्पढना विचारबोध पैदा करता है और जो मनन किया है वो किसी दिन स्वंय भावों के साथ उतरता है इसलिये जद्दोजहद किसलिये …………जो होगा स्वंय होगा हाँ एक आकुलता जरूर उपजती है कुछ कहने की तो वो रोके नहीं रुक सकती जिस दिन चरम पर होगी हजार काम छोड कर भी लिखने को व्याकुल करेगी ही…………इसलिये जीवन जिस दिशा मे बहता जाये बह जाइये लेखन पठन और मनन इसी का एक क्रम है ।
ReplyDeleteसर जी आप ने बिलकुल सही उधृत की है | मै पढ़ना चाहता हूँ , ब्लॉग लिखने के लिए काफी विषय है मेरे पास , तो दूसरी तरफ -लोको पायलट की ड्यूटी / ट्रेड यूनियन में सहभागिता और सहपाठियों के समस्यायों को देखना | समय निकलना काफी जटिल हो गया है | चाह कर भी सभी को पढ़ नहीं सकता | काश २४ घंटे नहीं और ज्यादा के दिन होते |फिर भी इन जतिलाताओ में कुछ समय निकाल कर कुछ बोनस कर लेना भी बहादुरी ही है | अब देखिये न कई बार बंगलुरु आया , लेकिन आप से नहीं मिल पाया और अब चांस कम ही लगता है |बहुत सुन्दर मर्मस्पर्शी लेख |
ReplyDeleteAll the great discoveries are being made ,was once an illusion of a great scientist of his time ,it was before the advent of the electron ,today pravin ji said almost a
ReplyDeleteparallel thing .Read 100 pages if you write one said one of a great Hindi author ,.Reading enhances the vocabulary too, constantly informs a person .All our write ups
are based upon reading and scanning ,both have their significance .We address different strata of society when we write .I address the Hindi readers by constantly
writing things in Hindi and explaining the definitions which are often missing in the original write ups in english .My audience is different .It is a matter of addiction and
hooking whether you are binge writer or reader .
अच्छा विमर्श हुआ आपको पढ़के ,आपके पढ़ने के घनत्व और तीव्रता को देख कर .लिखने का अपना सुख है पढने का अपना .अभिव्यक्त होने के आनंद का कहना ही क्या .
सुंदर विश्लेषण.
ReplyDeleteअति सुन्दर और मनोहर प्रस्तुति . अब तक जो महान आविष्कार होने थे वह हो चुके अब 20वीं शती में नया कुछ नहीं होना है .19 वीं शती के आखिरी चरण में यह उदगार उस वक्त के एक महान
ReplyDeleteके थे .
यह वक्तव्य इलेक्त्रों के जन्म पूर्व का है .यह कितना बोदा था अब समझाने के ज़रुरत है ?
अति सुन्दर और मनोहर प्रस्तुति . अब तक जो महान आविष्कार होने थे वह हो चुके अब 20वीं शती में नया कुछ नहीं होना है .19 वीं शती के आखिरी चरण में यह उदगार उस वक्त के एक महान
ReplyDeleteके थे .
यह वक्तव्य इलेक्त्रों के जन्म पूर्व का है .यह कितना बोदा था अब समझाने के ज़रुरत है ?
@ किसी विषय को व्यक्त करने के क्रम में वह हमारे मन में और भी स्पष्ट हो जाता है।
ReplyDeleteयही सार है
पढने और लिखने के बीच की रस्साकस्सी तो बहुत दुःख देती है और इसमें अगर पेंटिंग भी शामिल हो जाए तो फिर अपराध बोध में ही डूबे रहना पड़ता है। दिन में घंटे तो चौबीस ही हैं और अपने लिए थोड़े से निकाले गए समय में या तो पढ़ लो, लिख लो या फिर पेंटिंग कर लो
ब्लॉग जगत में इतने पढ़ाकू कम ही हैं। :)
ReplyDeleteहालाँकि लेखक सभी हैं। लेकिन अच्छा पढने को मिले तो छोड़ना नहीं चाहिए।
आपका लिखा तो हमें एक विचार प्रक्रिया की तरह ही लगता है। सरल, सहज और प्रवाहमय, कभी लगता ही नहीं कि जैसे आप प्रयत्नपूर्वक कुछ लिखते हों।
ReplyDeleteआपके विचारों से पूर्णतया सहमत हूँ.
ReplyDeleteआप तो जो भी पढ़ो बस लिख दिया करो ...
ReplyDeleteशब्दशः सत्य|बहुत अच्छा पढने के बाद शब्दों का चयन उत्कृष्ट अवश्य हो जाता है , मूल में भाव तो वही रहते हैं |
ReplyDeleteअभी पढ़ना तो (क्षमा सहित) टॉयलेट तक सीमित रह गया है.. लिखना नौकरी ने प्रतिबंधित कर रखा है!! मगर वास्तव में चिंतनीय!!
ReplyDelete
ReplyDeleteहर काल का अपना साहित्य होता है देशकाल के अनुरूप .कालजई रचनाएं भी .उनका स्वरूप और प्रासंगिकता सार्वकालिक हो भी सकती है नहीं भी .मसलन अब के एल सहगल के गीत कम सुने जातें हैं .
लिखना और पढ़ना एक ही सिक्के के दो पहलु हैं दोनों का अपना रस है .
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteकमाल हैं...आप सवाल उठाते हैं..फिर उसका उत्तर देते हैं..हम लोग क्या उतर देंगे आपको। लिखना और पढ़ना चलता रहता है। आफके मन को पता है कि कब पढ़ना है औऱ कब लिखना..इसलिए आप बेफ्रिक रहिए..जो पढ़ा जा रहा है उससे सवाल बनते हैं तो उन सवाल के जवाब तो लिखने होंगे न..बस इतनी सी तो बात है....फिर भ्रम कैसा? आप प्रवाहमान और बेहतर लिखने वाले हैं ..बताइए तो जरा आप जैसा लिखने वाले कितने हैं यहां?
ReplyDeleteबहुत सारगर्भित आलेख..पढ़िए जब तक पढ़ना चाहें और जब भाव लिखने को मज़बूर कर दें तो अवश्य लिखिए..
ReplyDeleteAll art is imitation but that imitation should look original .
ReplyDeleteपढ़ना और लिखना दोनों ही अन्वेषण करना है लेखकीय दृष्टि का खुद को तलाशने का .
"न लिख पाने का एक और कारण भी समझ में आता है, पढ़ने और लिखने का स्तर एक सा न होना। अच्छे लेखक को पढ़ने में बौद्धिक स्तर इतना ऊँचा उठ जाता है कि तब नीचे उतर कर लिखने का साहस नहीं हो पाता है, अपनी लेखकीय योग्यता पर संशय होने लगता है।"
ReplyDeleteबहुत सारगर्भित बात लिखी आपने, शुभकामनाएं.
रामराम
इसमें कोई शक नही कि पढने से विचारों का विस्तार होता है लिखने की शैली का परिमार्जन होता है । मैं कम लिख पाती हूँ या कि लिखने का दायरा सीमित है तो इसमें एक कारण बहुत ही सीमित मात्रा में साहित्य पढना भी है । हालांकि उसके बडे कारण दूसरे हैं पर पढने से निश्चित ही दिशा तो मिलती ही है विचारों का दायरा भी बढता है ।
ReplyDeletehar mahine 8 ke avarage se post likh lena aur vah bhi itni utkrisht, aapke sahi time management ko dikhata hai.... umeed hai aage bhi aisa hi milta rahega.
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ReplyDeleteपढ़ना मतलब भाषा का परिमार्जन ,नए शब्द सीखना .हम जो एक बार पढ़ लेते हैं ,शब्द प्रयोग शुरू कर देते हैं कालान्तर में वह शब्द हमारा हो जाता है .भाषा का अनुसंधान करते हैं कुछ लोग .उनका लिखा पढने का स्वाद ही और रहा है .इसी श्रेणी में थे प्रभाष जोशी जी (पूर्व ब्यूरो प्रमुख ,सम्पादकीय सलाहकार ,जन सत्ता ,इंडियन एक्स्प्रे समूह ).आपने 20 -20 के लिए बीसम बीस ,लड्डू कैच ,बर्फ बारी जैसे अनेक शब्द गढ़े .हमारे वागीश मेहता जी भी इसी पात में हैं जिन्होनें भकुवा ,भकुवे ,रक्तरंगी (लेफ्टिए ),बौद्धिक बंधुवा जैसे अनेक शब्द चलायें हैं ,प्रवीण जी भी उसी पांत में हैं ....
सबसे पहले तो माताजी और पिताजी के साथ रहने का जो सुख आपको मिल रहा है, उसके लिए बधाई स्वीकार करें।
ReplyDeleteपढने और लिखने के स्तर का एक सा न होना को आपने न लिखने का एक कारन बताया है, जिससे सहमत नहीं हुआ जा सकता। आखिर स्तर का क्या पैमाना है, और इस तर्क के आधार पर तो जो सर्वश्रेष्ठ हो उसके अलावा किसी को लिखना ही नहीं चाहिए। यानि, तानसेन के अलावा और किसी को गाना ही नहीं चाहिए। सच तो यह है कि विकास लगन, प्रतिभा और सतत प्रयासों का नतीजा होता है और यह भी कि उसकी कोई सीमा या छोर नहीं है। किसी का भी विकास एक दिन में नहीं होता। जिंदगी नए दायित्व और चुनौतियां लेकर आती है और इसके बीच संतुलन बिठाना आप बखूबी जानते हैं। जिस सर्जनात्मक ऊर्जा के साथ आप शब्द साधना कर रहे हैं, वह सराहनीय है। लगे रहिये, पूरी लगन के साथ क्योंकि कबीर के शब्दों में लगन बिन जागे न निर्मोही।
कल उठाने औए पिता पुत्र के साथ योग-ध्यान करने का आपका संकल्प पूरा हुआ या नहीं?
ReplyDeleteआपने जो कुछ कहा उसमें सारांश हैं लेकिन लिखना लोगों को शांत रखता है ,अभिव्यक्ति जितना बड़ा सुख होता है उससे बड़ी शब्दों की मार होती है .लिखना विरेचन करता है भाव का अभाव का .
आपकी रिकमेंडेशन पर ’Immortals of Meluha' पढ़ने शुरू कर दी है।
ReplyDeleteकहते हैं जैसा पढ़ोगे वैसा ही लिखोगे, तो अच्छा पढ़िये और अच्छा-अच्छा लिखिए :)
ReplyDeleteआप सही कह रहे हैं कि जब हम अच्छे लेखकों को पढते हैं तो हमारा अपना लिखा हमें कम भाता है और हम कम लिखते हैं । परंतु अच्छे लेखकों का हम पर और हमारे लेखन पर प्रभाव धनात्मक ही होता है । अब आपसे और भी अच्छे लेख आयेंगे ।
ReplyDeleteaapko padhte pahte bhi likhna seekh rahe hain...
ReplyDeleteलिखना तो पढ़ने से भी ज्यादा ज़रुरी है...सुंदर आलेख
ReplyDelete'सुबोपलि' के सूत्रानुसार पढ़ने के बाद ही लिखा जाना चाहिए. कुछ नया लिखने की हरसंभव कोशिश होनी चाहिए ताकि नई -नई बातें सामने आ सकें.
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