आलोक - मुझे छुट्टी के समय पर बच्चों को गृहकार्य से लादने की बात समझ ही नहीं आती है। क्या विद्यालयों और शिक्षकों को ज्ञात भी है कि छुट्टियों का अर्थ और महत्व क्या होता है? यदि बच्चे छुट्टियों में इस तरह जूझते रहेंगे, तो वे कभी कार्य को उस अवस्था से अलग करके नहीं देख पायेंगे जिसमें वे इस तनाव वाली पढ़ाई से उन्मुक्त होकर प्रकृति देखें, मित्रों और सम्बन्धियों से मिलें और उन सब चीजों को जाने जो इतना गृहकार्य देने वाले विद्यालयों में नहीं पढ़ायी जाती हैं। यह चित्र मुझे बहुत पीड़ा दे रहा है, पुस्तक पर रखा पेपरवेट मानो उनकी उन्मुक्तता पर रखा एक बड़ा सा भार है। यह सब होते हुये भी वे सबकी अपेक्षाओं के प्रति समर्पित हैं।
प्रवीण - मैं पूरी तरह से समहत हूँ, क्या बच्चों को इस तरह तनाव में रखने की आवश्यकता थी? कल रात तक ये धमाचौकड़ी मचा रहे थे। इन्होंने कल रावण बनाया, उसे रंगा, उसमें पटाखे भरे और यह सब मोहल्ले के सब बच्चों के साथ किया। आज सुबह से ये बिल्कुल बदले दिख रहे हैं, इनकी छुट्टियाँ समाप्त होने से पहले ही समाप्त हो गयी हैं।
आलोक - प्रवीण, यह सच में दुख की बात है और मुझे क्रोधित भी करती है। कुछ दिन पहले एक डॉकूमेन्ट्ररी बनाने वाले युगल ने मुझसे पूछा था कि मेरे अनुसार क्रूरतम हिंसा क्या है? "एक बच्चे की बात न सुनना, उसके कुछ बोलने का आदर न करना, यही हिंसा का क्रूरतम स्वरूप है।" मैंने कहा। तब उन्होने मुझसे शिक्षातन्त्र के बारे में पूछा। मेरा उत्तर इस प्रकार था "मुझे यह सोचकर आश्चर्य होता है कि क्या होगा यदि सारे विद्यालय एक वर्ष के लिये बन्द कर दिये जायें। यदि विश्व तब भी यदि चलता रहता है तो हमें विद्यालयों की आवश्यकता ही नहीं है। तब अधिक उन्मुक्त और बुद्धिमान होंगे। बस अभी और आज ही बन्द कर देते हैं सारे विद्यालय, स्थिति भयावह है।"
प्रवीण - सच है, इस शिक्षातन्त्र को नहीं ज्ञात है कि वे कितने स्टीव जाब्स, बिल गेट्स, रामानुजम और आइन्स्टीन का गला बचपन में ही घोंट दे रहे हैं।
दीप्ति - यह चर्चा बहुत अच्छी है पर मैं तनिक अलग सोचती हूँ। कल्पना करें कि यदि आप दोनों ने पढ़ाई नहीं की होती तो आज क्या कर रहे होते? मुझे तो कुछ भी सम्मानजनक व्यवसाय नहीं दिखता है, सिवाय व्यापार के। और व्यापार में भी यदि आप अम्बानी नहीं हैं तो आपको कोई नहीं पूछता है। निश्चय ही हमारे समय में परवरिश के आयाम बदल रहे हैं पर मुझे फिर भी संशय है कि ऐसी परिस्थितियों में भी हम अपने माता पिता से भिन्न कोई निर्णय लेते।
प्रवीण - दीप्ति, यह एक वृहद विषय है और आलोक के कथन को एक बड़े परिप्रेक्ष्य में लेना होगा। बच्चों के लिये सीखना किसी ने मना नहीं किया, श्रेष्ठता प्राप्त करना भी मना नहीं है। सर्वाधिक चिन्ता का विषय है वह पद्धति जिसके माध्यम से शिक्षा दी जाती है। यह प्राकृतिक विकास और सीखना बाधित करती है।
मोहित - मेरा अनुभव दोनों तरह का रहा है, पश्चिमी भी और भारतीय भी। कक्षा ५ तक कान्वेन्ट में पढ़ा हूँ। जिस कक्षा में पढ़ते थे, एक सप्ताह में वहाँ उतने ही घंटों का गृहकार्य दिया जाता था। जैसे कक्षा ४ में केवल ४ घंटा। सप्ताह में ५ दिन पढ़ाई, अर्थात दिन में ४८ मिनट। सप्ताहान्त में कोई गृहकार्य नहीं। ६ से १२ तक स्थानीय विद्यालय में पढ़ा, अंक और स्थान आ जाने से प्रतियोगिता बढ़ गयी, अधिक पढ़ना पड़ा। अब लग रहा है कि प्रतियोगिता प्राइमरी में भी पहुँच गयी है, जिसने बच्चों के ऊपर बोझ बढ़ा दिया है। फिर भी विश्व फलक पर विश्वास से कह सकता हूँ कि हमारे विद्यार्थी कहीं अच्छे हैं।
आलोक - मोहित, तुम्हारे अवलोकनों से मैं पूर्णतया सहमत हूँ। हमें संतुलन बनाना होता है। हम इतनी तेजी से बदल रहे हैं, हमारे बच्चे न जाने कितने स्रोतों से जान रहे हैं, हमसे अच्छा जान रहे हैं। तो क्या हम उस अनुसार पढ़ाने की अपनी पद्धतियाँ बदल रहे हैं या तीन दशक पुराना पाठ्यक्रम पढ़ाकर उसमें ही जूझने को कहते रहते हैं। मुझे पढ़ाने का जितना भी अनुभव मिला, मैनें अभिभावकों से पूछा कि वे किसका स्वप्न जी रहे हैं? बच्चों से भी यही प्रश्न पूछा, पर उत्तर में सदा ही निराशा हाथ लगी। विडम्बना ही है कि जो बच्चे अपना स्वप्न जीना चाहते हैं तो सब उन्हें विद्रोही और नालायक कहने लगते हैं। उससे भी बड़ी बिडम्बना पर यह है कि जब वही बच्चे अच्छा कर स्वयं को स्थापित करते हैं तो सारा श्रेय वही माता पिता ले लेते हैं। यही हमारे जीवनचरित्र को उजागर करता है। बदलाव के साथ बदलते रहना सबको आता भी नहीं है। हो सकता है कि मैं कुछ अधिक कह गया हूँ, पर यह भावावेश व्यक्त करना आवश्यक था।
प्रवीण - हमारे शिक्षातन्त्र में बहुत कुछ करने की आवश्यकता है। मोहित को दोनों पद्धतियों का श्रेष्ठ मिला है, मैं कई उदाहरण जानता हूँ जिनको दोनों पद्धतियों के दोष ही मिले। शिक्षा एक हवाई जहाज की उड़ान जैसी हो, पर्याप्त ईंधन भी रहे ऊँचाई पर जाने के लिये और कोई अतिरिक्त भार भी न रहे ढोने के लिये, उन्मुक्त उड़ाने हों।
यहाँ वार्तालाप भले ही विश्राम पा गया हो पर विचार आयाम में आ गये, प्रवाह बहने लगा। स्वाभाविक भी है, कई प्रवाह मिलेंगे तो कुछ सार्थक धार आयेगी, नदी बनेगी, आने वाली पीढ़ियों रूपी खेतों को लहलहायेगी।
सार्थक वार्तालाप। हालाँकि मैं जहाँ रहता हूँ, वहां छुट्टियों के समय किसी होमवर्क का प्रावधान नहीं है .. यह बच्चों के लिए अच्छा मन जाता है। किताबी शिक्षा के अलावा भी कई सारी बातें हैं हैं बच्चों को सीखने के लिए, जो कि सामाजिक क्रियाकलापों में हिस्सा लेकर ही प्राप्त किया जा सकता है .. भारत की वर्तमान स्कूलिय-प्रणाली हमें बस मशीन बब्ने को उकसा रही है, जिसके सामाजिक परिणाम अछे नहीं आ रहे।
ReplyDeleteहम भी ऐसी उन्मुक्त शिक्षा के प्रवेश का इंतजार कर रहे हैं, जैसे कि भारत में पुरातनकाल से होता आ रहा है, समय के अनुसार शिक्षा का रूप बदल दिया गया, जब लगा कि अब यह शिक्षा पाठ्यक्रम में बदलाव होना चाहिये, तब किया गया और उसके अनुरूप अच्छे परिणाम भी मिले, अब हम अंग्रेजों की शिक्षा पद्धति का बोझ उठाये हुए हैं, जो १०० वर्षों से कहीं ज्यादा पुरानी हो चुकी है।
ReplyDeleteशिक्षा को व्यापार की श्रेणी कब हटाया जायेगा, जिससे हरेक व्यक्ति शिक्षा ले पाये ।
सार्थक पोस्ट |
ReplyDeleteगंभीर विमर्श ||
बधाई आदरणीय -
कई बार ऐसा लगता है कि हम समुद्र को लोटे से मापने का प्रयास करते हैं। फिर भा एक बात तो तय है और इसके अनकों भूत व वर्तमान उदाहरण भी हैं कि जीवन में रचनात्मक शिक्षा व दृष्टिकोण से सही व सार्थक विकास संभव है बजाय कि एक बंद डिब्बे वाली व्यवस्था।समस्या यह है कि जहाँ रचनात्मकता उन्मुक्त आकाश के खुलेपन की अपेक्षा रखती है वहीं हमारे द्वारा अमल में लायी जानी वाली व्यवस्था,इसमें शिक्षा व्यवस्था भी शामिल है, एक बंद डिब्बे की तरह होती है।अतः सार्थक विकल्प तो यही नजर आता है कि हम एक संतुलित दृष्टिकोण अपनायें जहाँ जीवन के आर्थिक ,सामाजिक,राजनीतिक,बौद्धिक कमोवेश सभी पक्षों के उचित विकास हेतु तालमेल व उचित पर्यावरण उपलब्ध हो।
ReplyDeleteमैंने तो अपने आलेख में यही लिखा है कि केरियर के चक्कर में हमने बच्चों को केवल घुड़दौड़ का घोड़ा बना दिया है और इसकारण घर-परिवार सब छूट गए हैं। वे केवल पैसा कमाने की मशीनभर रह गए हैं। उन्हें जीवन के वास्तविक आनन्द का पता ही नहीं। वे प्रकृति से दूर हो चले हैं, इसीकारण संवेदनाओं से भी दूर चले गए हैं। अच्छी चर्चा।
ReplyDeleteबच्चे हों या बड़े, संतुलन तो ज़रूरी है। इसलिए छुट्टियों में होमवर्क होना चाहिए। लेकिन इतना नहीं कि यह बोझ बन जाये।
ReplyDeleteबड़े प्यारे बच्चे हैं। काम करते हुए और भी अच्छे लग रहे हैं। स्नेहाशीष।
ReplyDeleteप्रवीण - हमारे शिक्षातन्त्र में बहुत कुछ करने की आवश्यकता है। मोहित को दोनों पद्धतियों का श्रेष्ठ मिला है, मैं कई उदाहरण जानता हूँ जिनको दोनों पद्धतियों के दोष ही मिले। शिक्षा एक हवाई जहाज की उड़ान जैसी हो, पर्याप्त ईंधन भी रहे ऊँचाई पर जाने के लिये और कोई अतिरिक्त भार भी न रहे ढोने के लिये, उन्मुक्त उड़ाने हों।
सहमत आपसे .छुट्टियों की अवधारणा मौज मस्ती अब सिरे से गायब हैं अब अवकाशीय कैम्प
लगतें हैं .ये होबी वो होबी फलां करा रहा है तू भी कर .फलां मर रहा है तू भी मर .
सागर विश्वविद्यालय में चार बरस पढ़ाई की महीना भर की छुट्टियां दशहरा से दिवाली बीच में ही
आ जाती थी .रिजरवेशन के लिए कंसेसन फॉर्म भरते थे .छुट्टियों का मतलब होता था सुबह सवेरे
गंग नहर तक की सैर ,नहर में उन्मुक्त तैरना .शाम को मलका (विक्टोरिया पार्क बाद में राजे बाबू
पार्क ,हाँ अंग्रेजों की बीवियां मलका ही कहलाती हैं आज भी दिल्ली में मलका गंज है )में टहल
कदमी ,पिक्चर देखना काले आम और जगदीश टाकीज पर .गजक रेवड़ी मूंग फली ख़ास दूकान
की दो मील चलके लाना .किशोर पन की मस्ती खिल उठती थी अवकाश के दिनों में (1963-
67)स्वर्ण युग था .उम्र सिर्फ 19.5 साल .एमएससी संपन्न खेल खत्म पैसा हजम .
बीस साल की उम्र से अध्यापन कार्य शुरू .दिवाली के एक दिन की छुट्टी ,दशहरे की एक दिन
.आटम ब्रेक 10 दिन का विंटर ब्रेक इतना ही .हो गई छुट्टी छुट्टी की कर लो बुलन्दशहर की सैर
छुट्टियों में .भागो हरियाणा छोड़ के .भागम भाग ,भागम भाग , इधर भाग ,उधर भाग ,हर विषय
की ट्यूशन के पीछे छात्रों को नौवें दशक से भागते देखा बे -तहाशा .छुट्टियों की मुकम्मिल छुट्टी
.हम बचे रहे अपना समय कभी नहीं बेचा ट्यूशन खोरी में लगे रहे स्वाध्याय में ट्यूशन इसी
स्वाध्याय के पंख कुतर रहा है .अवकाश के क्षणों को लील रहा है .
प्रवीण जी शिक्षा पद्धति बदलाव मांगती है जरूरी नही हर बच्चे पर हर विषय का बोझ डाला हीजाये बल्कि बचपन से ही ये जानने की कोशिश की जानी चाहिये कि बच्चे की किस चीज़ मे रुचि है और उसके अनुसार उसी लाइन मे उसे आगे बढने को प्रेरित किया जाना चाहिये ताकि वो अपना सौ प्रतिशत दे सके मगर हमारे यहाँ तो मनपसन्द विषय चुनना भी बच्चों के विशेषाधिकार का हनन बन गया है क्योंकि आज भी माता पिता तय करते हैं बच्चों के विषय यही सबसे बडी विडम्बना है हमारे समाज और शिक्षा तन्त्र की कि उन्हें स्वावलम्बी बनाने की बजाय हम परतन्त्र बनाते हैं जिससे वो अपने निर्णय स्वंय नही ले पाते।
ReplyDeleteआज की शिक्षा प्रणाली पूरी तरह से व्यर्थ है ..यहाँ पढ़ाई लेकर उत्साह नहीं रह जाता बस एक तरह का भय घेरे रहता है ..पीछे छूटने का भय
ReplyDeleteमां बाप को आज भी बच्चे, डाक्टर इंजीनियर ही बनाने हैं ( नहीं बने तो सी.ए. वकील बनाने का विकल्प ) तो काहे माथा फोड़ी की जाए शिक्षा-विक्षा पर. ये पेड़ तो जड़ से ही काट कर दोबारा लगाने की ज़रूरत है, छंटाई से कुछ नहीं होने का
ReplyDeleteचिंतन अच्चा है मगर यथार्थ ..... आज ही एक खबर पढ़ रहा था की एल केजी के दाखिले के लिए 17 लाख . माँ-बाप भी क्या करें !
ReplyDeleteअच्छा विचार-विमर्ष चल रहा है -देकें कब तक समाधान मिलता है १
ReplyDeleteमेरा तो यही मानना है की पढ़ाई जरूरी है लेकिन ज़बरदस्ती का बोझ ज्ञान नहीं दे सकता. दूसरी बात यह भी है की अगर बच्चे का रुझान किसी और तरफ हो (संगीत या खेल ) तो उसे भी प्रोत्साहित करना चाहिए जो कि अधिकांश अभिभावक नहीं करते हैं.
ReplyDeleteजब तक बड़े स्वस्थ (शारीरिक के साथ मानसिक भी ), सहज, नहीं होंगे तब तक बच्चों की दुनिया में सार्थक धार नहीं आ सकती। हमने जो पेड़ लगाये हैं आनेवाली नस्लें उन्ही का फल पाएंगी। निश्चित ही शिक्षा प्रणाली में सुधार की जरूरत है , लेकिन उससे भी कहीं ज्यादा उस परिवेश को बदलने की जरूरत है , जहाँ से बच्चे ज्यादा सीखते हैं।
ReplyDeleteसार्थक वार्तालाप है ..अपनी तरफ से इतना कहूँगी मुझे भी भारतीय और पाश्चात्य दोनों शिक्षा का अनुभव है और इस आधार पर मेरा मानना है कि भारतीय व्यवस्था के अंतर्गत स्कूल, बच्चों का बचपन छीन लेते हैं. पाश्चात्य शिक्षा व्यवस्था में कक्षा ८ तक तो छुट्टियों में खासकर कोई गृहकार्य नहीं दिया जाता बल्कि खासतौर पर कहा जाता है बस छुट्टियाँ एन्जॉय कीजिये पढाई बिलकुल नहीं.
ReplyDeleteमत पूछों हम तो पागल हो जाते हैं बच्चों के होमवर्क और प्रोजेक्ट वर्क करते करते .....अब करें भी क्या सबके अपने अपने ढंग हैं पढाने के .... आपकी वार्ता बहुत सार्थक लगी ..आभार
ReplyDeleteदुर्जेय दुविधा के लिए संतुलन ही अंतिम आश्रय है.
ReplyDeleteछुट्टियों के दौरान स्कूल का काम करना तो हमें भी कभी पसंद नहीं आया ... पर क्या करें करना तो पड़ता ही था ... अब वही सब इन बच्चों को भी झेलना पड़ता है !
ReplyDeleteनानक नाम चढ़दी कला, तेरे भाने सरबत दा भला - ब्लॉग बुलेटिन "आज गुरु नानक देव जी का प्रकाश पर्व और कार्तिक पूर्णिमा है , आप सब को मेरी और पूरी ब्लॉग बुलेटिन टीम की ओर से गुरुपर्व की और कार्तिक पूर्णिमा की बहुत बहुत हार्दिक बधाइयाँ और मंगलकामनाएँ !”आज की ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
होमवर्क जरूरी है लेकिन इतना नहीं कि यह बोझ बन जाये।
ReplyDeleteresent post : तड़प,,,
kai bar teachers sach me homework nahi dena chahte hai lekin unhe bhi upar se aadesh aa jata hai..
ReplyDeletesach tyoharo ki chhutti me ya week end par home work dena bahut bura agta hai..
lekin iska record rakhana hota hai isliye dena bhi padta hai..
सार्थक वार्ता
ReplyDeleteआजकल की शिक्षा पद्धति वाकई बच्चों के प्रति एक क्रूरतम हिंसा ही है
सार्थक चिंतन ......होमवर्क तो ज़रूरी है तभी छुट्टियों में भी घर का वातावरण एक साम्य लिए हुए रहता है...
ReplyDeleteवर्त्तमान शिक्षा पद्धति पर चिंतन और बदलाव की आवश्यकता महसूस की जा रही है इन दिनों ...
ReplyDeleteसटीक विश्लेषण !
ReplyDeleteकल 30/11/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
...कुछ सार्थक ज़रूर निकलेगा इस वार्तालाप से !
ReplyDeleteबहुत सार्थक वार्तालाप है सबी बातें अपनी अपनी जगह सही हैं संतुलन सिर्फ पढ़ाई में ही नहीं और क्षेत्र में भी जरूरी है चाहे बच्चे या बड़े सभी के लिए होना चाहिए बच्चों को छुट्टियां एन्जॉय भी करनी चाहिए होमवर्क भी थोडा होना चाहिए इतना जिससे बच्चा उसे खेल खेल में पूरा का सके प्रेशर बच्चे के लिए घातक होता है अतः शिक्षा पद्दति में कुछ बदलाव तो होने चाहिए एक सार्थक सोच वाली प्रस्तुति को शेयर करने पर बहुत बहुत बधाई बच्चे बहुत प्यारे हैं मेरी शुभ कामनाएं
ReplyDeleteहोम वर्क स्कूल में ही करवाया जाए .घर का मतलब घर हो .फील्ड ट्रिप्स होनी चाहिए फस्ट हेंड जानकारी के
ReplyDeleteलिए अधिकाधिक .पढ़ाई लिखाई के साथ सांस्कृतिक परिमारजन ज़रूरी है .डांस /पी टी /आदि का पीरियड
भी नियमित होना चाहिए .तन और मन दोनों की संभाल करे शिक्षा सिर्फ परीक्षा में प्राप्त अंकों की नहीं
.किसी भी काम को बेहतर ढंग से करना सिखाये शिक्षा .उत्कृष्टता की ओर ले जाए तो बात बनें .उठना
बैठना अपने आपको शालीनता से केरी करना भी तो सिखाये शिक्षा सिर्फ तोते पैदा न करे दिग्विजय से वक्र
मुखी कटु वचन बोलने वाले दुर्मुख न पैदा करे शिक्षा .
बच्चों के लिये सीखना किसी ने मना नहीं किया, श्रेष्ठता प्राप्त करना भी मना नहीं है। सर्वाधिक चिन्ता का विषय है वह पद्धति जिसके माध्यम से शिक्षा दी जाती है। यह प्राकृतिक विकास और सीखना बाधित करती है।
ReplyDeleteबहुत सही बात की है...शिक्षा में बुराई नहीं पुरातन काल में कौनसे विश्व विद्ध्यालय थे या स्कूल कालेज थे ? उसके बावजूद उस ज़माने में जो काम हुए उसकी कल्पना भी आज हम नहीं कर सकते...बड़े बड़े महल अट्टालिकाएं शहर बसाये गए बनाये गए तब किसी ने आर्किटेचर के पढाई नहीं की थी...जिन्होंने वेद पुराण रचे उन्होंने कौनसी डिग्री हासिल की थी? आज शिक्षा का खौफ बढ़ गया है उसका हव्वा बना दिया है बच्चे बच्चे नहीं रहे...समाज होड़ को बढ़ावा दे रहा है और होड़ में जीवन का आनंद खो गया है.
नीरज
बहुत ही बढ़िया पोस्ट ।
ReplyDeleteमेरी नयी पोस्ट "10 रुपये के नोट नहीं , अब 10 रुपये के सिक्के" को भी एक बार अवश्य पढ़े ।
मेरा ब्लॉग पता है :- harshprachar.blogspot.com
अच्छा लगा...वार्तालाप मोड में गहराई में जाना!!
ReplyDeleteHomework not the key to scoring better grades (JUST A WASTE OF TIME?)
ReplyDeleteHomework a waste of time ?According to a new study ,more homework assignments do not translate into better grades .
Researchers looked at transcripts and data of more than 18,000 tenth grade students ,in a study carried out to find what difference extra study at home makes .They found homework doesn't necessarily help children to get more grades ,but may help them achieve better standardized test scores ,the 'Daily Mail'reported.
The findings by researchers from the University of Virginia in Charlottesville ,US ,show more homework assignments did n't transform into better grades."The more time students spend on homework ,it's not clear that they are getting better grades or better test scores ,"co -author of the study Robert Tai ,said.
"What we are concerned with is that homework is just being assigned rather than being used to integrate what's going on in the classroom .The study isn't suggesting all homework is bad ,specially when it comes to maths ."When it comes to maths what we found is that there is a bit of sweet spot ,"Tai said .Tai said that students who spend about a half an hour on maths homework reported that their grades and test scores were actually better.
लिखने के लिये तो कोई गृहकार्य ही न हो, यदि कुछ कराना ही है तो किसी भी तन्त्र या व्यवस्था या स्थान को समझ कर आने को कहा जाये। पर प्रश्न उठता है कि यह भी कैसे सुनिश्चित किया जायेगा, जब एक शिक्षक के पास ५० से अधिक विद्यार्थी होते हैं।
Deleteबहुत ही सार्थक चिंतन और विमर्श रहा। मुझे लगता है अगर वाकई हमने इस विषय पर इतना सोचा है तो क्यों ना कुछ प्रयासों से इसे सार्थक भी करें। एक चिन्तक की भांति मै ये तो नहीं जानता की कैसे पर इतना आश्वस्त हूँ की आप सभी अग्रजों के प्रयासों से कुछ तो शुरुवात होगी ही। तो फिर मेरा तो यही सोचना है की चीजों पर बैठकर केवल बात करना पंचायत है। असली काम उसे करना है,उसे साकार करना है। इस मुद्दे को यूँ ही हवा में नहीं उडाना चाहिए। आखिर किसी को तो शुरुवात करनी ही होगी,तो क्यों ना इस बदलाव की नींव यही से रखी जाए। हमारी आने वाली पीढ़ी को कुछ तो ऐसा दें जिस पर हम सबको गर्व हो।
ReplyDeleteगहन वार्तालाप रही शिक्षा प्रणाली पर ..
ReplyDeleteबहुत ज्यादा ज़रूरी है कि बदलते समय और विज्ञान की उड़ान के साथ इस पद्धति को भी बदलना होगा ..
मेरा काम विद्यालयों से जुड़ा है और यह बात देखने को मिल रही है कि शिक्षा के साथ साथ अब माता-पिता खेल-कूद में भी रूचि दिखा रहे हैं ..
यह सब बदलाव ही है और सही दिशा की ओर ..
दिशा भी मिले पर एक चिन्तन में पगी हो वह दिशा, अभी तो ज्ञात ही नहीं कि कहाँ जा रहे हैं हम?
Deletebahut hee achchaa mudaa uthaayaa hai lekhan ke is maadhym se .
ReplyDeleteयह वार्तालाप, वार्तालाप से कही आगे निकल जाता है। इसमें अनेक ऐसे सूत्र हैं जो अपने आप में, विमर्श का स्वतन्त्र विषय बनते हैं। इसे यूँ कहा जा सकता है कि हमारी वर्तमानशिक्षा पध्दति के विशद् विश्लेषण की आधार भूमि तैयार करता है यह वार्तालाप।
ReplyDeleteविचार परक वार्ता -हमारी शिक्षा पद्धति सचमुच बहुत दोषपूर्ण है -विश्व के कई अन्य देशों के भी थी मगर उन्होंने सुधार लिया !
ReplyDeleteशिक्षा पर सार्थक चर्चा ...वास्तव में होम वर्क में रचनात्मक ,चिंतन को बढ़ावा देने वाले कार्य दिए जाने चाहिए लेकिन रचनात्मकता उत्पन्न करने के लिए अध्यापकों की जितनी मेहनत करनी चाहिए वो नहीं हो पाने से बच्चों पर बोझ बढ़ जाता है
ReplyDeleteमेरे पुत्र को द्वितीय कक्षा के दीपावली अवकाश में जो गृहकार्य मिला उसे हममें से किसी ने भी बोझ या बंधन की तरह नहीं लिया।
ReplyDeleteगणित में पहाड़ों का लिखकर अभ्यास करना था और यही एकमात्र थोड़ा नीरस कार्य था।
अन्य कार्य इस प्रकार से थे:
-- दीपावली में उपयोग होने वाली वस्तुओं के चित्र समाचार पत्रों से काटकर एकत्र करना
-- अपना वंशवृक्ष बनाकर सभी लोगों के चित्र लगाना व उनके बारे में लिखना
-- अपने पसंदीदा त्यौहार के बारे में लिखना
-- रेलवे-स्टेशन भ्रमण के बारे में लिखना
-- अपने जन्मदिन समारोह के बारे में लिखना
-- मिट्टी का उपयोग करके कुछ बनाना और उसे सजाना
अभी मैंने लिखा तो अधिक लगा पर यह सब कब हो गया, पता भी नहीं चला।
तीन सप्ताह का अवकाश था, एक सप्ताह तो हम घूम ही रहे थे और दीपावली भी थी जिसका पूरा लुत्फ़ उठाया गया।
अवकाश के समय फ़िल्म और टेलीविज़न भी खूब चला, फिर भी बिना किसी विशेष समस्या के कार्य पूर्ण हो गया क्योंकि वह सभी सामान्य जीवन का हिस्सा था ।
बस हम जहाँ भी गये, जो भी किया, ध्यान से किया और छोटी छोटी चीज़ों के बारे मैं भी विस्तार से चर्चा की।
अत्यंत रोचक
ReplyDeleteइस तरह की छुट्टी ,ढेर सारे गृहकार्य के साथ ,तो एक खानापूरी सी लगती है ......
ReplyDeleteHamare jamane men to itana gruhkary nahee hota tha han alag tarah ka gruh kary jaroor hota tha. Tyaharon par saf safai imali se peetal ke bartan chamaka kar saf karna. pakwan baanane men man kee madad karna ityadi. aap ka wartalp three idiots film kee yad dila gaya. Apne potiyon ko dekhti hoon tab home work aur scool bag doo hee unhe coolie banate dikte hain.
ReplyDeleteHamare jamane men to itana gruhkary nahee hota tha han alag tarah ka gruh kary jaroor hota tha. Tyaharon par saf safai imali se peetal ke bartan chamaka kar saf karna. pakwan baanane men man kee madad karna ityadi. aap ka wartalp three idiots film kee yad dila gaya. Apne potiyon ko dekhti hoon tab home work aur scool bag doo hee unhe coolie banate dikte hain.
ReplyDeleteअभिभावकों की अपेक्षा और दोषपूर्ण शिक्षा पद्धति बच्चों को एटीएम बनाने में लगे हैं. सार्थक वार्ता..
ReplyDeleteVery interesting post you have shared on education an great discussion.
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