आलोक का कहना है कि यदि एक वर्ष के लिये शिक्षा व्यवस्था को विराम दे दिया जाये, सारे विद्यालय बन्द कर दिये जायें तो विश्व के स्वास्थ्य पर कोई अन्तर पड़ने वाला नहीं है, यह भी संभव है कि कुछ उत्साहपूर्ण निष्कर्ष सामने आ जायें। आलोक चित्रकार हैं और सृजन और मुक्ति के मार्ग के उपासक हैं, उनके लिये बच्चों पर कुछ भी थोपना उनके सम्मान और अधिकार पर कैंची चलाने जैसा है। एक सीमा तक मैं भी उनसे सहमत हूँ, अर्थतन्त्र से प्रभावित शिक्षातन्त्र की बाध्यतायें हमारी राह सीमित कर देती हैं, लगता है कि हम हाँके जा रहे हैं, हम उस राह जाना चाहें, न चाहें। यदि किसी बच्चे को अपनी प्रतिभानुसार व्यवसाय या कार्य चुनने और उसके माध्यम से सम्मानित जीवन जीने के अवसर ही न हों तो कहानी वहीं समाप्त हो जाती है। इस अवस्था को परिभाषित करने के लिये बाजार प्रभावित जीवकों को कोई सम्मानपूर्ण शब्द भले ही मिल जाये, पर ठेठ भाषा में उसे हाँकना ही कहा जायेगा।
शिक्षा पद्धति पर आलोक के चरम विचारों का कारण वर्तमान शिक्षा में विद्यमान वे तत्व हैं जो सृजनात्मकता को कुंठित करते हैं और बच्चों को अर्थव्यवस्था में प्रयुक्त ईंधन के रूप में झोंक देने के लिये तत्पर बैठे हैं। निश्चय ही यह व्याप्त निराशा का बड़ा कारण है, पर मेरे लिये और भी कारण हैं जिन पर विशेषकर हमारे देश को ध्यान देने की महत आवश्यकता है। चलिये शिक्षा के तीनों उद्देश्यों की दशा देख लें अपने देश में।
पहले उद्देश्य को ही लें, प्रकृति के रहस्यों को समझना और नये तन्त्रों का सृजन। भारतीयों की गिनती विश्व के सर्वश्रेष्ठ मस्तिष्कों में होती है, अनुसंधान और शोध का एक सुदृढ़ तन्त्र भर स्थापित करना था, प्रतिभा पलायन रुक जाता। जहाँ पर प्रतिभाओं को समुचित सामाजिक और आर्थिक सम्मान नहीं मिलता है, उन्हें रोकना कठिन हो जाता है। यद्यपि कई क्षेत्रों में हमें लाभ मिल रहा है पर तकनीक के वे अग्रतम क्षेत्र जो अर्थतन्त्र को प्रभावित कर रहे हैं, वहाँ हम एक देश के रूप में शून्य हैं। हमने प्रतिभायें तो दे दीं, उनके योग्य वातावरण न बना पाये देश में।
दूसरे उद्देश्य को देखें, स्थापित तन्त्रों को साधना। स्थापित तन्त्रों की बात करें तो स्थिति और भी भयावह है। विकास के आधारभूत अवयव हम तैयार ही नहीं कर पाये, जो तन्त्र हमें साधने थे, उन्हें कैसे क्रियान्वित किया जाये, यह जानने के लिये हम प्रथम अवसर पाते ही विदेशयात्रा कर आते हैं, उनके प्रयोगों की अधकचरी नकल उतारने के लिये। सड़क, बिजली, संचार, न जाने कितने ही क्षेत्र हैं जो, न तो देश के हर भाग में स्थापित कर पाये हैं और न ही समग्र रूप से स्थापित करने की योजना ही है। विकास के मानक बस कुछ गिने चुने नगरों में स्थापित कर हम विजयोत्सव मनाने बैठ गये। शिक्षित जन और शिक्षा की दिशा, उजाड़ हुये शेष देश को क्यों नहीं सुखद स्वरूप दे पा रहे हैं?
तीसरा उद्देश्य है स्वयं को समझना और समाज में सहजीवन और आनन्द को प्रेरित करना। पहले जब शिक्षित लोग कहीं पहुँचते थे तो लगता था कि अब व्यवस्था भी आ जायेगी, बातें समझदारी की होंगी और समस्या को कोई न कोई समाधान मिल जायेगा। पढ़े लिखे का तात्पर्य होता था कि जो सबको साथ लेकर चले, जो सबके अन्दर स्थापित अन्तरों को स्वीकार कर उनमें अन्तर्निहित की समानता को साथ ला सके। जो भी कारण रहा हो, जो भी बाध्यतायें रही हों, शिक्षित का वह स्वरूप नहीं दिखता है। शिक्षित वर्तमान में उस आर्थिक आत्मनिर्भरता का पर्याय बन गया है जिसे समाज में किसी से कोई संवाद स्थापित करने का मन नहीं है, थोड़े ठेठ शब्दों में कहा जाये तो स्वार्थपरक भविष्य का एक माध्यम बन गयी है शिक्षा। यदि यह प्रभाव पड़ रहा है शिक्षा का समाज पर तो शिक्षा निश्चय ही अपनी राह से भटकी है।
अध्यात्म की अपेक्षा करना, कुछ अधिक ही हो जायेगा शिक्षातन्त्र के लिये। निरपेक्ष घोषित हो चुके देश में सांस्कृतिक शिक्षा भी भिन्न भिन्न रंगों में रंगी हैं और पाठ्यक्रम का अंग नहीं है। फिर भी एक ऐसी शिक्षा की आशा करना जिससे समाज सधे और व्यक्ति प्रसन्न रहना सीखे, एक शिक्षातन्त्र के लिये प्रारम्भिक पग है। जब वह भी न मिले और समाज विघटन की ओर अग्रसर हो तो शिक्षातन्त्र पर प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है।
मैं यह नहीं कहता कि समाज के सब दोषों के लिये शिक्षातन्त्र ही दोषी है, बहुत कारक हैं, समाज की गतिमयता में आये विकार का ठीकरा शिक्षा पर ही नहीं फोड़ा जा सकता है। जो भी कारण हो, जितने भी कारण हों, सबको शिक्षा के माध्यम से सुधारा अवश्य जा सकता है। इसलिये वर्तमान में यदि स्तर गिरता जा रहा है तो इसका तात्पर्य यह अवश्य है कि कम से कम शिक्षा से सुधार के स्वर नहीं उठ रहे हैं। यह एक निर्विवाद तथ्य है कि कोई भी तन्त्र यदि अपने आप पर छोड़ दिया जाये तो उसमें विकार आने लगते हैं, यही मनुष्यों में भी लागू होती है, यह बस ज्ञान का अंश है जो उसे साधे रहता है। ज्ञान ही वह एकल सूत्र है जो तन्त्रों का क्षय रोकता है।
समाज में भी आत्मसंशोधन के गुण होते हैं, जब कोई विकार समाज में प्रवेश पाता है, कहीं दूसरी और एक संशोधनात्मक प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है जो अन्ततः उस विकार को ठीक करती है। कभी कभी समाज का सम्मिलित ज्ञान उस विकार को समझ लेता है, कभी उसे स्पष्ट रूप से समझाने के लिये किसी समाज सुधारक या महापुरुष को जन्म लेना पड़ता है। शिक्षित समाजों में यह संशोधन स्वतः होता रहता है। समाज को साधने और पुनः उसे निर्मल रुप में लाने के लिये शिक्षा सदा ही एक आधारभूत उपहार रहा है मानवता के लिये।
कहीं कुछ गहरा रिक्त स्थान है जो भरा जाना शेष है, समझा जाना शेष है। आलोक का प्रस्ताव मुझे मेरे उस डॉक्टर की याद दिलाता है, जिन्होने एक एलर्जी का कारण पता लगाने के लिये न जाने कितने प्रकार के खाने पर रोक लगा दी थी। मेरे प्रकरण में एलर्जी पता चल गयी थी, निदान भी हो गया था। शिक्षा में क्या यह संभव है?
पहले उद्देश्य को ही लें, प्रकृति के रहस्यों को समझना और नये तन्त्रों का सृजन। भारतीयों की गिनती विश्व के सर्वश्रेष्ठ मस्तिष्कों में होती है, अनुसंधान और शोध का एक सुदृढ़ तन्त्र भर स्थापित करना था, प्रतिभा पलायन रुक जाता। जहाँ पर प्रतिभाओं को समुचित सामाजिक और आर्थिक सम्मान नहीं मिलता है, उन्हें रोकना कठिन हो जाता है। यद्यपि कई क्षेत्रों में हमें लाभ मिल रहा है पर तकनीक के वे अग्रतम क्षेत्र जो अर्थतन्त्र को प्रभावित कर रहे हैं, वहाँ हम एक देश के रूप में शून्य हैं। हमने प्रतिभायें तो दे दीं, उनके योग्य वातावरण न बना पाये देश में।
दूसरे उद्देश्य को देखें, स्थापित तन्त्रों को साधना। स्थापित तन्त्रों की बात करें तो स्थिति और भी भयावह है। विकास के आधारभूत अवयव हम तैयार ही नहीं कर पाये, जो तन्त्र हमें साधने थे, उन्हें कैसे क्रियान्वित किया जाये, यह जानने के लिये हम प्रथम अवसर पाते ही विदेशयात्रा कर आते हैं, उनके प्रयोगों की अधकचरी नकल उतारने के लिये। सड़क, बिजली, संचार, न जाने कितने ही क्षेत्र हैं जो, न तो देश के हर भाग में स्थापित कर पाये हैं और न ही समग्र रूप से स्थापित करने की योजना ही है। विकास के मानक बस कुछ गिने चुने नगरों में स्थापित कर हम विजयोत्सव मनाने बैठ गये। शिक्षित जन और शिक्षा की दिशा, उजाड़ हुये शेष देश को क्यों नहीं सुखद स्वरूप दे पा रहे हैं?
तीसरा उद्देश्य है स्वयं को समझना और समाज में सहजीवन और आनन्द को प्रेरित करना। पहले जब शिक्षित लोग कहीं पहुँचते थे तो लगता था कि अब व्यवस्था भी आ जायेगी, बातें समझदारी की होंगी और समस्या को कोई न कोई समाधान मिल जायेगा। पढ़े लिखे का तात्पर्य होता था कि जो सबको साथ लेकर चले, जो सबके अन्दर स्थापित अन्तरों को स्वीकार कर उनमें अन्तर्निहित की समानता को साथ ला सके। जो भी कारण रहा हो, जो भी बाध्यतायें रही हों, शिक्षित का वह स्वरूप नहीं दिखता है। शिक्षित वर्तमान में उस आर्थिक आत्मनिर्भरता का पर्याय बन गया है जिसे समाज में किसी से कोई संवाद स्थापित करने का मन नहीं है, थोड़े ठेठ शब्दों में कहा जाये तो स्वार्थपरक भविष्य का एक माध्यम बन गयी है शिक्षा। यदि यह प्रभाव पड़ रहा है शिक्षा का समाज पर तो शिक्षा निश्चय ही अपनी राह से भटकी है।
अध्यात्म की अपेक्षा करना, कुछ अधिक ही हो जायेगा शिक्षातन्त्र के लिये। निरपेक्ष घोषित हो चुके देश में सांस्कृतिक शिक्षा भी भिन्न भिन्न रंगों में रंगी हैं और पाठ्यक्रम का अंग नहीं है। फिर भी एक ऐसी शिक्षा की आशा करना जिससे समाज सधे और व्यक्ति प्रसन्न रहना सीखे, एक शिक्षातन्त्र के लिये प्रारम्भिक पग है। जब वह भी न मिले और समाज विघटन की ओर अग्रसर हो तो शिक्षातन्त्र पर प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है।
मैं यह नहीं कहता कि समाज के सब दोषों के लिये शिक्षातन्त्र ही दोषी है, बहुत कारक हैं, समाज की गतिमयता में आये विकार का ठीकरा शिक्षा पर ही नहीं फोड़ा जा सकता है। जो भी कारण हो, जितने भी कारण हों, सबको शिक्षा के माध्यम से सुधारा अवश्य जा सकता है। इसलिये वर्तमान में यदि स्तर गिरता जा रहा है तो इसका तात्पर्य यह अवश्य है कि कम से कम शिक्षा से सुधार के स्वर नहीं उठ रहे हैं। यह एक निर्विवाद तथ्य है कि कोई भी तन्त्र यदि अपने आप पर छोड़ दिया जाये तो उसमें विकार आने लगते हैं, यही मनुष्यों में भी लागू होती है, यह बस ज्ञान का अंश है जो उसे साधे रहता है। ज्ञान ही वह एकल सूत्र है जो तन्त्रों का क्षय रोकता है।
समाज में भी आत्मसंशोधन के गुण होते हैं, जब कोई विकार समाज में प्रवेश पाता है, कहीं दूसरी और एक संशोधनात्मक प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है जो अन्ततः उस विकार को ठीक करती है। कभी कभी समाज का सम्मिलित ज्ञान उस विकार को समझ लेता है, कभी उसे स्पष्ट रूप से समझाने के लिये किसी समाज सुधारक या महापुरुष को जन्म लेना पड़ता है। शिक्षित समाजों में यह संशोधन स्वतः होता रहता है। समाज को साधने और पुनः उसे निर्मल रुप में लाने के लिये शिक्षा सदा ही एक आधारभूत उपहार रहा है मानवता के लिये।
कहीं कुछ गहरा रिक्त स्थान है जो भरा जाना शेष है, समझा जाना शेष है। आलोक का प्रस्ताव मुझे मेरे उस डॉक्टर की याद दिलाता है, जिन्होने एक एलर्जी का कारण पता लगाने के लिये न जाने कितने प्रकार के खाने पर रोक लगा दी थी। मेरे प्रकरण में एलर्जी पता चल गयी थी, निदान भी हो गया था। शिक्षा में क्या यह संभव है?
ज़रूरी हो तो विकल्प आजमाए जा सकते हैं....।
ReplyDeleteऐसा हो सकेगा यह संभव नहीं लगता, अपनी पढ़ाई अधबिच में कोई नहीं छोडेगा,सारी व्यवस्था बाधित हो जायेगी और फिर अनेक विद्वान एक मत हो सके हैं कभी ?- मुंडेमुंडे मतिर्भिन्ना.
ReplyDeleteHamari shaley shiksha paddhatee me badlaaw behad zarooree hai...ye shiksha paddhatee behad dakiyanoosee aur bachhon me padhayi se chidh paida karnewali ho gayi hai.
ReplyDelete
ReplyDeleteकल 25/11/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
बात शिक्षा की हो और ऐसे अनूठे विचार न आयें यह कैसे संभव है!
ReplyDeleteबढिया जानकारी
ReplyDeleteआभार आपकी सद्य टिप्पणियों का .
ReplyDeleteजहां तक मुझे याद है लाइनस पौलिंग ने एक किताब लिखी थी -The de-schooling society .उसमें यही अवधारणा थी कमसे कम एक दशक तब सभी मदरसे ,शिक्षा केंद्र मूँद दिए जाएँ .
शिक्षा और सेहत स्वायत्त नहीं हैं उत्पाद हैं इस भ्रष्ट तंत्र के जिन्हें प्राथमिकताओं के हाशिये पर रखा गया है .शिक्षा व्यवस्था हमारे पर्यावरण हवा ,पानी सी गंधाने लगी है .बदलाव ज़रूरी हैं .
शिक्षित समाजों में यह संशोधन स्वतः होता रहता है। समाज को साधने और पुनः उसे निर्मल रुप में लाने के लिये शिक्षा सदा ही एक आधारभूत उपहार रहा है मानवता के लिये। बिल्कुल सही कहा आपने ... बेहद सशक्त लेखन आभार आपका
ReplyDelete" जीरो सेशन ", क्या बात ,मैं बचपन में ऐसा सोचता था कि एक वर्ष के लिए सारी पढ़ाई रोक दी जाए और जिस बच्चे का जो मन हो वह करे | फिर उसके रुझान के अनुसार शिक्षा दी जाए | आज बहुत बरसों के बाद उसी बात की पुनरावृत्ति हो गई | सारगर्भित लेख सदैव की तरह |
ReplyDeleteआलोक का कहना है कि यदि एक वर्ष के लिये शिक्षा व्यवस्था को विराम दे दिया जाये ...
ReplyDeleteगांवों में तो सारकारी शिक्षा व्यवस्था बंद ही है, साल भर की क्या बात...
पिछली कडिया पढने से रह गई है , पढ़ के आता हूँ. वैसे आलोक ने बात तो मेरे मन की भी कही है .
ReplyDeleteबहुत सार्थक और सारगर्भित चिंतन...
ReplyDeleteजो भी कारण हो, जितने भी कारण हों, सबको शिक्षा के माध्यम से सुधारा अवश्य जा सकता है
ReplyDeleteI have strong reservation on this.
It is act which can get replicated and not the fact.
यह संभव नही है!हाँ शिक्षा के माध्यम से सुधारा जा सकता है,
ReplyDeleterecent post : प्यार न भूले,,,
सुंदर विश्लेषण। परंतु यह तथ्य ध्यान में रखकर कि किसी बदलाव की बात की जा सकती है कि सामाजिक सोच, मूल्य व इसके मापदंड व शिक्षा की दिशा व दशा एक दूसरे के पूरक हैं, और आर्थिक यूग में जहाँ सामाजिक सोच में व्यक्तिवाद व व्यक्तिगत भौतिक सुख का गहरा प्रभाव व प्रधानता है, ऐसे में शिक्षा के माध्यम से समाज व व्यक्तियों में कोई चमत्कारी मूल्य स्थापित करने की अपेक्षा एक यूटोपियन परिकल्पना ही सिद्ध होगा। ऐसे में माता-पिता का निजी आचरण,उनका उदाहरणीय व नैतिकतापूर्ण जीवन बच्चों में अच्छे मूल्यों की स्थापना में प्रभावी भूमिका निभाता है। हालाँकि यह बात भी पूर्ण नहीं है क्योंकि समस्या बहुआयामी है।
ReplyDeleteसादर-
देवेंद्र
मेरी नयी पोस्ट - विचार बनायें जीवन.....
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ReplyDelete.
.
चाहे एक वर्ष के लिये शिक्षा व्यवस्था को विराम दिया जाये या दस वर्षों के लिये, फर्क कुछ नहीं पड़ने वाला... जो शिक्षा का सही अर्थ समझते हों व शिक्षक होने की काबलियत रखते हों, ऐसे शिक्षकों का नितान्त अभाव है हमारे देश में... 'रट्टा मार सिकंदर' भरे पड़े हैं शिक्षा क्षेत्र में और वह अपने जैसे ही 'रट्टा मार सिकंदरों' को ही पैदा करते रहेंगे...'तकनीक के वे अग्रतम क्षेत्र जो अर्थतन्त्र को प्रभावित कर रहे हैं, वहाँ हम एक देश के रूप में शून्य हैं।'...और हम ऐसे ही रहने वाले हैं... हाँ इन अग्रतम क्षेत्रों की मजूरी बड़े अच्छे से बजायेगी हमारे 'रट्टा मार सिकंदरों' की फौज... आपका बेंगालुरू गवाह है... :(
...
ReplyDeleteअंतर राष्ट्रीय फलक पर तो अब हमारे भारतीय प्रोद्योगिकी संस्थान भी शीर्ष 100 में जगह नहीं बना पा
रहने हैं .दिशा और दशा सोच की दोनों पंगु हो रही हैं .शुक्रिया आपकी निरंतर टिप्पणियों का .
ReplyDeleteअंतर राष्ट्रीय फलक पर तो अब हमारे भारतीय प्रोद्योगिकी संस्थान भी शीर्ष 100 में जगह नहीं बना पा
रहने हैं .दिशा और दशा सोच की दोनों पंगु हो रही हैं .शुक्रिया आपकी निरंतर टिप्पणियों का .
ReplyDeleteअंतर राष्ट्रीय फलक पर तो अब हमारे भारतीय प्रोद्योगिकी संस्थान भी शीर्ष 100 में जगह नहीं बना पा
रहने हैं .दिशा और दशा सोच की दोनों पंगु हो रही हैं .शुक्रिया आपकी निरंतर टिप्पणियों का .
शिक्षा तंत्र में बदलाव ज़रूरी है , लेकिन यह कैसे संभव होगा ...यही सोचना है ... विचारणीय लेख
ReplyDeleteब्रेक वास्तव में बहुत काम की चीज होते हैं। इनसे दुर्घटनाएं बचती हैं और सफर सुरक्षित बना रहता है। अवश्य आजमाने चाहिए।
ReplyDeleteमाननीय प्रवीण जी ,"मधुमेह के लिए हफ्तावार ली जाने वाली दवाएं "पर आपकी हमारे लिए बेशकीमती
ReplyDeleteटिपण्णी पोस्ट का संशोधित रूप प्रकाशित करने की प्रक्रिया में हम से हट गई .दुःख और खेद दोनों
औपचारिक तौर पर प्रगट करतें हैं हम .आप अन्यथा न लें और हमारी आत्मा के शान्ति के लिए दोबारा
टिपण्णी कर दें .
ये सब हमारी आधी अधूरी कम्प्यूटरी जानकारी का ही नतीजा है काश हम भी आपकी तरह प्रवीण
होते कम्यूटर प्रवीण .
शिक्षा प्रणाली पर आपकी निर्मम समीक्षा बड़ी सटीक जा रही है .दुष्यंत कुमारजी की पंक्तियाँ यहाँ भी फिट
होतीं हैं -
अब तो शिक्षा व्यवस्था का औपचारिक पाठ्य क्रम बदल दो ,
भोले भाले नौनिहाल कुम्हलाने लगे हैं ,
बोझ से बसते के बिलबिलाने लगे हैं .
आज की शिक्षा व्यक्तिवादी बना रही है, वह दूसरों को साथ लेकर नहीं चलती।
ReplyDeleteमाननीय प्रवीण जी ,एक तदर्थ वाद बरपा है शिक्षा व्यवस्था पर .इस शती के पहले दशक में एक शोशा
ReplyDeleteविश्व विद्यालय अनुदान आयोग ने छोड़ा था ,कोलिज ,विश्वविद्यालय इस संस्था द्वारा मनोनीत समिति
से प्रत्यायन अधिकृत मान्यता accreditation हासिल करें .
जिस कथित इंजीनियरिंग संस्था के पास लेब में कुछ नहीं था उसने इधर उधर से सामान जुटाके समिति को
दिखला दिया .आव भगत कर दी समिति की .बस ग्रेड मिल गया .
हर तीन से पांच बरस बाद यही मूल्यांकन होना था .पता नहीं कहाँ बिला गई यह व्यवस्था .यहाँ तदर्थ वाद
कुछ होनें ही नहीं देता है .नितांत अभाव है औडियो विज्युअल टीचिंग एड्स का .
निचले स्तर पर नौनिहालों का बसते के बोझ से पैदा होने वाला कुब्ब निकल आया है .कमाल देखिये अंतर
राष्ट्रीय उड़ानों में पोर्टर के हिसाब से बैगेज का वजन तय किया गया है और यहाँ स्कूल के कमीशन से यह
वजन बसते का तय होता है .निजी स्कूल हर साल किताब बदल कर देतें हैं ताकि पुरानी किताबें रद्दी हो जाएँ
.यह अपव्यय नहीं है तो क्या है .आपकी टिपण्णी की पुनर प्राप्ति से कुछ तनाव और अपराध बोध दोनों ही
कम हुए .
हम तो कुंजियाँ भी पुरानी खरीद के पढ़ लेते थे ,किताबें भी .
अनेकानेक पहलुओं पर सोचने को विवश करती पोस्ट ....
ReplyDeleteविकास के मानक बस कुछ गिने चुने नगरों में स्थापित कर हम विजयोत्सव मनाने बैठ गये। शिक्षित जन और शिक्षा की दिशा, उजाड़ हुये शेष देश को क्यों नहीं सुखद स्वरूप दे पा रहे हैं?
ReplyDeleteनिदा फ़ाज़ली की पंक्तियाँ याद आ गईं
जो मरा क्यों मरा
जो लुटा क्यों लुटा
जो हुआ क्यों हुआ…
मुद्दतों से हैं गुम
इन सवालों के हल
जो हुआ सो हुआ …
सिर्फ किताबी शिक्षा के सहारे कुछ हासिल नहीं होने वाला। और वैसे भी आजकल शिक्षा तो एक बिज़नस इंडस्ट्रीज़ बनकर रह गई है ।
ReplyDeleteशायद कुछ समय के लिए अवकाश जरुरी है| शायद यह सोचने के लिए कि हमने जो सिखा अमल कर रहे या नहीं |...
ReplyDeleteबहुत वजनदार लेख प्रवीण जी ..आपके द्वारा बयाँ तीनो उद्देश्य सही हैं ....
ReplyDeleteसार्थक पोस्ट
ReplyDeleteeducation should aim at teaching students abt how to think.. n proceed
ReplyDeletebut not what to think and where to proceed and sadly that's what our system does.
समवर्ती सूची में पड़ी हुई है शिक्षा .प्रजातंत्र को अल्पसंख्यक अपढ़ चाहिए पढ़ जन नहीं इसीलिए नियोजित
ReplyDeleteतरीके से शिक्षा को कथित नव सुधारों में स्थान नहीं दिया गया है .
सर्वप्रथम आलोक जी के सुंदर चित्र देखे ....उनको बधाई और आभार आपको ...बहुत सुंदर पेंटिंग्स हैं ....कलर मिक्सिंग बहुत ही सुंदर है ....!!
ReplyDelete''कहीं कुछ गहरा रिक्त स्थान है जो भरा जाना शेष है, समझा जाना शेष है।''
सारगर्भित आलेख है ......बहुत गुंजाइश है अभी हमारी शिक्षा पद्धति में सुधार की ....कुछ ही बच्चे ऐसे होते हैं जो चयन कर पाते हैं अपनी रुचि के अनुसार अपने व्यवसाय का .....!!
bachho ke man ki khushi aur hoton ki muskarahat na jane kahan is nambaron vali shiksha vyavastha men gum ho gayee..... bahut hi achchha lekh.
ReplyDeleteशिक्षा ने सूचनाओं का भण्डार भर दिया है मस्तिष्क में.. ज्ञान तो तभी आएगा जब शिष्य ही नहीं शिक्षक की भी योग्यता जाँची-परखी हो!!
ReplyDeleteवर्तमान शिक्षा प्रणाली में नयी चुनौतियों के लिए स्थान लाना आवश्यक है .
ReplyDeleteआप के इस कथन .."शिक्षित वर्तमान में उस आर्थिक आत्मनिर्भरता का पर्याय बन गया है........." से पूरी तरह सहमत .
ReplyDeleteस्कूल स्तर पर शिक्षा में बड़ी अनियमितताएं हैं :
स्कूल हैं जर्जर शिक्षक नहीं हैं .
हैं तो नियमित आते नहीं हैं .
स्कूल में कोई रेस्ट रूम लड़कियों के लिए नहीं है .
टीचर हैं तो कमरे नहीं हैं पेड़ के नीचे लगतें हैं स्कूल ,अपना टाट साथ लातें हैं बच्चे ......
कई मर्तबा हरियाणा के स्कूल (ओं )में जाके पोलिंग बूथ बने स्कूल में चुनाव भुगताये स्कूल फटे हाल देखे
विधवा के पैर की बिवाई से .
उत्तम शिक्षा माध्यम बान .....
ReplyDeleteमास्साहब की कुर्सी भी टूटी फूटी देखी .
बहुत सुंदर लेख ....पढ़कर मज़ा आया भाई ब्रेक जरुरी हैं ...निष्कर्ष तो पोजिटिव ज्यादा आएगा ...अयोग्य वेवकूफ शिक्षक / मास्टर्स तो कुछ दिन निगेटिव प्रोग्रम्मिंग नही करेंगे..हा हा .अच्छा लेख |http://drakyadav.blogspot.in/
ReplyDeleteइतनी असामान्यताएँ हैं इस शिक्षा तंत्र में ,एक प्रबंध लिखा जाए इसी से रिसन ज्यादा है ऊपर से आरक्षण
ReplyDeleteका विष जो इस तंत्र की नस नाड़ी में फैलने लगा है .
शिक्षा तो जीवन को उदात्त होने की सीमा तक ले जाने का उपकरण होता है जिसे 'नौकरी पाने' के औजार में बदल दिया गया है। 'अध्यात्म' की बात करना 'बहुत अधिक' भले ही हो किन्तु उसके बिना हमारा उध्दार नहीं। शिक्षा का वर्तमान स्वरूप हमें 'वट वृक्ष' के स्थान पर 'अमर बेल' में बदल रहा है।
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ReplyDeleteप्रिय ब्लॉगर मित्र,
हमें आपको यह बताते हुए प्रसन्नता हो रही है साथ ही संकोच भी – विशेषकर उन ब्लॉगर्स को यह बताने में जिनके ब्लॉग इतने उच्च स्तर के हैं कि उन्हें किसी भी सूची में सम्मिलित करने से उस सूची का सम्मान बढ़ता है न कि उस ब्लॉग का – कि ITB की सर्वश्रेष्ठ हिन्दी ब्लॉगों की डाइरैक्टरी अब प्रकाशित हो चुकी है और आपका ब्लॉग उसमें सम्मिलित है।
शुभकामनाओं सहित,
ITB टीम
पुनश्च:
1. हम कुछेक लोकप्रिय ब्लॉग्स को डाइरैक्टरी में शामिल नहीं कर पाए क्योंकि उनके कंटैंट तथा/या डिज़ाइन फूहड़ / निम्न-स्तरीय / खिजाने वाले हैं। दो-एक ब्लॉगर्स ने अपने एक ब्लॉग की सामग्री दूसरे ब्लॉग्स में डुप्लिकेट करने में डिज़ाइन की ऐसी तैसी कर रखी है। कुछ ब्लॉगर्स अपने मुँह मिया मिट्ठू बनते रहते हैं, लेकिन इस संकलन में हमने उनके ब्लॉग्स ले रखे हैं बशर्ते उनमें स्तरीय कंटैंट हो। डाइरैक्टरी में शामिल किए / नहीं किए गए ब्लॉग्स के बारे में आपके विचारों का इंतज़ार रहेगा।
2. ITB के लोग ब्लॉग्स पर बहुत कम कमेंट कर पाते हैं और कमेंट तभी करते हैं जब विषय-वस्तु के प्रसंग में कुछ कहना होता है। यह कमेंट हमने यहाँ इसलिए किया क्योंकि हमें आपका ईमेल ब्लॉग में नहीं मिला। [यह भी हो सकता है कि हम ठीक से ईमेल ढूंढ नहीं पाए।] बिना प्रसंग के इस कमेंट के लिए क्षमा कीजिएगा।
शिक्षा के दबाव ने मौलिकता से ही विमुख कर दिया है जो घातक परिणाम के चरम पर जा पहुंची है .
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