शिक्षा का नाम सुनते ही उससे संबद्ध न जाने कितने आकार आँखों के सामने घुमड़ने लगते हैं। कुछ को तो लगता होगा कि बिना शिक्षा सब निरर्थक है, कुछ को लगता होगा कि बिना लिखे पढ़े भी जीवन जिया जा सकता है। एक व्यक्ति बिना शिक्षा के भी समाज में बहुत सहज और उपयोगी बनकर रह लेता है, वहीं दूसरी ओर एक शिक्षित व्यक्ति भी अपने कृत्यों से सामाजिक चरित्र को नकारता सा लगता है। एक अजब सा द्वन्द्व है, प्रकृति का मौलिक गुण है यह द्वन्द्व, शिक्षा में भी दिखायी पड़ेगा। जब भी द्वन्द्व गहराता है, उत्तर या तो मूल में मिलता है या निष्कर्षों में। निष्कर्ष भविष्य की विषयवस्तु है और बहुधा ज्ञात नहीं होती है, पर मूल खोजा जा सकता है, मूल से विश्लेषण किया जा सकता है।
हमें प्राप्त ज्ञान के दो स्रोत हैं, पहला अनौपचारिक शिक्षा, दूसरा औपचारिक शिक्षा। अनौपचारिक शिक्षा हमें घर, समाज, मित्रों आदि से मिलती है और इसके लिये विद्यालय जाने की आवश्यकता नहीं है। दादी, नानी की कहानियों में, बड़ों के संवाद में, संस्कृति के अनुकरण में, त्योहारों में, संस्कारों में, मित्रों के साथ, भ्रमण के समय, यात्राओं में, न जाने कितना कुछ सीखते हैं हम सब। हिसाब लगाने बैठे तो लगेगा कि जितना भी ज्ञान हमारे पास है, वह अनौपचारिक शिक्षा की ही देन है। जहाँ के सामाजिक ढाँचे में प्रश्न पूछने को मर्यादा का उल्लंघन नहीं माना जाता है, जहाँ ज्ञान के लिये उन्मुक्त परिवेश है, वहाँ पर सामान्य व्यक्ति के लिये अनौपचारिक ज्ञान का प्रतिशत ९० से भी अधिक होता है। कपड़े पहनना, बाल काढ़ना, फीते बाँधना, चाय बना लेना आदि न जाने कितने ऐसे कार्य हैं जो हम विद्यालय जाकर नहीं सीखते हैं, देखते हैं और सीखते हैं। भाषा का प्राथमिक ज्ञान अनौपचारिक ही होता है, बच्चा देखता रहता है, सीखता रहता है।
जनसंख्या का बड़ा वर्ग ऐसा है जो कि कभी विद्यालय गया ही नहीं। यही अनौपचारिक शिक्षा है जिसके बल पर वह अपना जीवन ससम्मान व्यतीत कर रहा है। हम उन्हें अशिक्षित मानते हैं, पर वे अपना भला बुरा हमसे बेहतर समझते हैं, कहीं बेहतर, निश्चय ही इसी अनौपचारिक शिक्षा का प्रताप है। आज भी गाँव जाना होता है तो वहाँ के बुजुर्ग जिन्होने अपने पूर्वजों से रामचरितमानस सुनी थी, इतना सटीक दोहा उद्धृत कर बैठते हैं जो परिस्थितियों पर शत प्रतिशत सही बैठता है। एक परम्परा है गीता और रामचरितमानस के पाठ की, अनौपचारिक शिक्षा के वाहक हैं ये ग्रन्थ, सदियों से ज्ञान का प्रकाशपुंज वहाँ भी फैलाये हुये हैं, जहाँ पर शिक्षातन्त्र पूर्णतया ध्वस्त है।
औपचारिक शिक्षा फिर भी आवश्यक है। आज जो संस्कृति में सहज प्राप्त है, वह कभी न कभी तो औपचारिक शिक्षा का एक भाग रहा होगा। अनौपचारिक शिक्षा श्रुति के आधार पर चलती है, उसे यदि औपचारिक शिक्षा का सहयोग नहीं मिलेगा तो कालान्तर में वह विकृत होने लगेगी। न जाने कितने ऐसे चिकित्सीय उपाय हैं जो कार्य तो करते हैं पर उनका कारण लुप्त सा हो गया है, औपचारिक शिक्षा के अभाव में।
यदि सुचारु रूप से किसी भी विषय का अध्ययन नहीं किया जायेगा तो उसमें सन्निहित रहस्य खोजे जाने से रहे। विकास का प्रथम चरण है, रहस्यों को समझना। तत्पश्चात उसे ज्ञान के रूप में सहेज कर रखना औपचारिक शिक्षा का कार्य है। क्रमिक विकास के लिये अवलोकनों और निष्कर्षों को लिपिबद्ध करना आवश्यक है, इससे पढने में भी सरलता होती है और उस पर और कार्य करने में भी। किसी भी विषय का विधिवत ज्ञान देने के लिये विद्यालय आवश्यक हैं। कहने को तो मात्र १० प्रतिशत ही ज्ञान शेष रहता है पर इसमें विकास और भविष्य के वो तार जुड़े होते हैं जिन्हें नकारना भविष्य को नकारने जैसा है। औपचारिक शिक्षा भले ही मात्रा में अधिक न हो पर जीवन की गुणवत्ता साधने के लिये अनमोल है। सिद्धान्त समझ में आते ही घटनाओं का समझना और समझाना सरल हो जाता है, कारण और प्रभाव स्पष्ट से दिखने लगते हैं तब।
किसी भी समाज में औपचारिक और अनौपचारिक शिक्षा अलग राह नहीं चलती हैं। औपचारिक शिक्षा में शिक्षित परिवार के बच्चे कितनी ही चीजें अनौपचारिक रूप से सीख जाते हैं, पता ही नहीं चलता है, हर पीढ़ी ज्ञान का सामान्य स्तर बढ़ता रहता है। जिन परिवारों में कोई एक व्यवसाय कई पीढ़ियों से किया जा रहा है, उससे संबद्ध ज्ञान परिवार में इतनी प्रचुर मात्रा में आ जाता है कि उनके सामने औपचारिक शिक्षा में शिक्षित संस्थान भी कान्तिहीन रहते हैं। व्यापारी का पुत्र व्यापारी, राजनेता का पुत्र राजनेता, किसान का पुत्र किसान, यदि कोई अपना पैतृक व्यवसाय अपनाना चाहे तो उसे न जाने कितना ज्ञान अनौपचारिक रूप से मिल जाता है। पढ़ा लिखा समाज बनाने के लिये सदियों का सतत श्रम लगता है।
इस परिप्रेक्ष्य में शिक्षा के उद्देश्यों को शिक्षा के स्वरूप से जोड़कर सही तालमेल बिठा लेना ही अच्छे शिक्षातन्त्र का कार्य है। पद्धतियाँ भिन्न दिशाओं में न भागें, कुछ वर्षों में व्यर्थ न हो जायें, कुछ ऐसा न करें जिसकी आवश्यकता ही न हो और कुछ महत्वपूर्ण छूट भी न जाये। तो एक अच्छे शिक्षातन्त्र का सही आकलन करने के लिये, उन उद्देश्यों को भी समझना होगा, जिनके लिये शिक्षा आवश्यक है।
मुझे तो शिक्षा के बस तीन प्रमुख उद्देश्य समझ आते हैं। पहला तो प्रकृति के रहस्यों को समझना, उसके सिद्धान्तों का विश्लेषण करना और उस पर आधारित विज्ञान के माध्यम से जीवन को और अधिक सुख-सुविधायें प्रदान करना। इस वर्ग में शोध आदि प्रमुख हैं और सदा से होते भी आये हैं। विज्ञान के अविष्कार बहुधा चमत्कृत करने वाले होते हैं, हमारी कल्पनाशक्ति इस उद्देश्य के लिये राह निर्माण करती है, ऐसी राह जिसमें विश्व के प्रखरतम मस्तिष्क चलते हैं, ऐसी राह जो मानवता के लिये बहुत अधिक उपयोगी रही है, ऐसी राह जिससे लगभग सभी लोग लाभान्वित और प्रभावित होते हैं। पर इस राह में अग्रणी चलने वालों की संख्या बहुत कम होती है, लाखों में एक, ये लोग नये तन्त्र रचते हैं।
दूसरा उद्देश्य है विश्व के तन्त्र को साधे रहना। मानव को सहजीवन में बड़ा रस आया है, समाज का स्वरूप भिन्न भिन्न हो सकता है पर हर समाज में सहजीवन ही प्रधान है। प्रकृति ने भी यथासंभव सहयोग किया है, इस मानवीय प्रयास में। जीवन के लिये अन्न, जल आदि, उनका उत्पादन, रखरखाव व वितरण। वस्तुओं का व्यापार, नगरों का निर्माण, संचार के साधन, और जो कुछ भी आवश्यक है साथ रहने के लिये, सुख के साथ। तन्त्र को साधना सरल कार्य नहीं हैं, तकनीक और विशेष ज्ञान की आवश्यकता होती है इसमें, उसके लिये समुचित शिक्षा की। कालान्तर में नयी तकनीक और नये प्रयोगों से तन्त्र परिवर्धित और परिमार्जित होता है, जीवन चलता रहता है। इस वर्ग में कर्मठ व्यक्तित्वों की आवश्यकता होती है। इसमें ही सर्वाधिक लोग लगते हैं। संसाधनों और आय का वितरण किस प्रकार हो, किस व्यवसाय को कितनी प्राथमिकता मिले, यह बहस का विषय हो सकता है। इसमें शिक्षा का स्तर विशेष होता है और ये लोग तन्त्र साधते हैं।
तीसरा उद्देश्य है स्वयं को समझना। स्वयं को समझना सहजीवन के उन पहलुओं को समझने की प्रक्रिया है जो समाज के रूप में सबको जानना आवश्यक है। क्या हमें सुख देता है, क्या हमें दुख, कौन सा सुख शाश्वत है, कौन सा क्षणिक, ऐसे बहुत से प्रश्न हैं, जिसके लिये हमें स्वयं को जानना आवश्यक हो जाता है। आत्म का आकार समझने वाले तो यहाँ तक कहते हैं कि यदि स्वयं को जान लिया तो कुछ जानना शेष नहीं रहता है। साहित्य, संगीत, कला आदि ऐसे क्षेत्र हैं जो मानव को सुख देते हैं, इनका सृजन सुख देता है। इस वर्ग में सब लोग ही आते हैं, बिना इस शिक्षा के शान्ति और समृद्धि संभव नहीं है।
क्या अपेक्षित था, क्या हो रहा है? शिक्षा का स्वरूप और उद्देश्य क्या एक दूसरे को समझ पा रहे हैं? अर्थतन्त्र और शिक्षातन्त्र किस दिशा भाग रहे हैं, एक दूसरे साथ दे पा रहे हैं या नहीं, बहुत समझना शेष है, अगली पोस्ट में।
...आज भी अनौपचारिक शिक्षा ज़्यादा उपयोगी है ।
ReplyDeleteजीवन जीने का सबक अनौपचारिक शिक्षा में ही अधिक मिलता है। कईओं को तो आजीविका का भी !
ReplyDeleteसटीक विश्लेषण !
बढ़िया विश्लेषण |
ReplyDeleteआदरणीय बधाई स्वीकारें-
उत्कृष्ट प्रस्तुति रविवार के चर्चा मंच पर ।।
ReplyDeleteपहले गुरुकुल हुआ करते थे उसमे व्यवहारिक ज्ञान भी मिलता था और आज कल विद्यालयों में केवल किताबी ज्ञान मिलता हैं ...औपचारिक और अनौपचारिक शिक्षा के बिच में जो अंतर है वो चिंता जनक है। विचारणीय पोस्ट।
ReplyDeleteऔपचारिक शिक्षा भी अनौपचारिक शिक्षा के बिना अधूरी लगती है ....
ReplyDeleteचल रहे ढर्रे के बीच इस तरह ठिठक कर देखना जरूरी होता है.
ReplyDelete
ReplyDeleteकल 18/11/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
वर्तमान शिक्षा केवल रोजगार के लिए है, शेष ज्ञान तो हमें जीवन से ही मिलता है।
ReplyDeleteकाश हम शिक्षित भी कुछ शिक्षा पा सकें ....
ReplyDeleteऔपचारिक शिक्षा से मनुष्य का विकास होता है . अनौपचारिक शिक्षा मनुष्य को इन्सान बनाती है.
ReplyDeleteसही कहा -- इन्सान के विकास के लिए दोनों का होना ज़रूरी है.
सुन्दर व सटीक विश्लेषण......तीन उद्देश्य ...
ReplyDelete1-प्रकृति के रहस्यों को समझना, उसके सिद्धान्तों का विश्लेषण करना और उस पर आधारित विज्ञान के माध्यम से जीवन को और अधिक सुख-सुविधायें प्रदान करना।
2-विश्व के तन्त्र को साधे रहना
3-स्वयं को समझना...
------- वैदिक विज्ञान के अनुसार १ व २ ...सांसारिक ज्ञान अर्थात अविद्या में आता है एवं ३... विद्या में ... आत्म-ज्ञान अर्थात विद्या ऐसा तत्व है जो अविद्या अर्थात सांसारिक ज्ञान को सदुद्देश्य से प्राप्ति व प्रयोग के योग्य बनाता है जीवन की उत्तम सफलता हेतु ...इसलिए ईशोपनिषद में कहा गया---
"विद्यान्चाविद्या यस्तत वेदोभय सह
अविद्यया मृत्युम्तीर्त्वा विध्ययामृतमनुशते |
--- विद्या व अविद्या दोनों को साथ-साथ प्राप्त करना चाहिए ,भौतिक सांसारिक ज्ञान से मृत्यु को जीत कर (= जीवन को सफल बनाकर )विद्या से अमृतत्व (= शान्ति, सुख, मुक्ति ) प्राप्त करना चाहिए |
--- अतः व्यक्ति उपरोक्त १ व २ में से किसी भी कार्य में कृत हो उसे ३. को अवश्य ही जानना चाहिए...
बेहद सशक्त विश्लेषण किया है आपने ... आभार इस उत्कृष्ट पोस्ट के लिये
ReplyDeletesajag...sajiv...shabd-chitra ko abhivakti dete......is blog 'budhh'.....ko, mai
ReplyDeleteblog-pathak/balak....
charan-sparsh karta hoon....
शिक्षा के उद्देश्यों का सटीक विश्लेषण। हाँ, खुद को जाने बिना सारा ज्ञान व्यर्थ है।
ReplyDeleteविद्या वही जो बंधन खोले, मुक्त करे।
आज 17- 11 -12 को आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....
ReplyDelete.... आज की वार्ता में ..नमक इश्क़ का , एक पल कुन्दन कर देना ...ब्लॉग 4 वार्ता ...संगीता स्वरूप.
शिक्षा औपचारिक हो या अनौपचारिक दोनो का ही जीवन मे महत्त्व है।
ReplyDeleteविद्या ददाति विनियम ....पहले ऐसी विद्या का होना जरुरी है.
ReplyDeleteसार्थक आलेख.
sahi vidya se jivan ke arth milte hain ...
ReplyDeleteशिक्षा अनौपचारिक हो या औपचारिक हमेशा ही एक नयी दृष्टि प्रदान करती है।
ReplyDelete'"उर्वशी " जैसा दीर्घ हो गया आपका लेख "शिक्षा" पर | हाँ ! दोनों में समानता भी कितनी है | उत्कृष्ट चाहत दोनों की और प्राप्त होने पर दोनों अपना मायने खो देते हैं | पाने से अधिक रीतने का एहसास होता है और यह भी सिद्ध सा लगता है, इससे अधिक कहीं कुछ और भी है |
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रविष्टि वाह!
ReplyDeleteइसे भी अवश्य देखें!
चर्चामंच पर एक पोस्ट का लिंक देने से कुछ फ़िरकापरस्तों नें समस्त चर्चाकारों के ऊपर मूढमति और न जाने क्या क्या होने का आरोप लगाकर वह लिंक हटवा दिया तथा अतिनिम्न कोटि की टिप्पणियों से नवाज़ा आदरणीय ग़ाफ़िल जी को हम उस आलेख का लिंक तथा उन तथाकथित हिन्दूवादियों की टिप्पणयों यहां पोस्ट कर रहे हैं आप सभी से अपेक्षा है कि उस लिंक को भी पढ़ें जिस पर इन्होंने विवाद पैदा किया और इनकी प्रतिक्रियायें भी पढ़ें फिर अपनी ईमानदार प्रतिक्रिया दें कि कौन क्या है? सादर -रविकर
राणा तू इसकी रक्षा कर // यह सिंहासन अभिमानी है
कम से कम भारत में तो वर्तमान शिक्षा का स्वरूप और आपके बताये तीनों ही उद्देश्यों में असफल है|
ReplyDeleteBharatiy sandarbh me yadi es dhanche par shiksha ko fit karne ki koshish ki jayto hame nirasha hi hath lagegi
ReplyDeleteओपचारिक अनौपचारिक दोनों शिक्षा एक दूसरे के बिना अधूरी हैं विद्या ददाति विनयम -----सही बात विनय कहाँ से आता है ??अपनी अनौपचारिक शिक्षा से व्यवहार से जो हम अपने बुजुर्गों से जींस से पाते हैं कई बार अशिक्षित मानव वो मसला हल कर देता है जिसमे शिक्षित उलझा रहता है पर बहुमुखी विकास के लिए दोनों का होना जरूरी है यही इस आलेख का सार है बहुत सुन्दरता से विश्लेषण किया है बहुत बहुत बधाई आपको प्रवीण जी
ReplyDeleteऔपचारिक और अनौपचारिक शिक्षा दोनों ही ज़रूरी हैं .... संस्कार भी दोनों से मिलते हैं ... सार्थक विश्लेषण ....
ReplyDeleteअगली पोस्ट का तो इंतज़ार रहेगा ही फिलवक्त एक द्रुत टिपण्णी वर्तमान पोस्ट पर -बाला साहब (बाल केशव )ठाकरे साहब हमारे बीच नहीं रहे आज हर आदमी उनको कंधा देना चाहता है वह
ReplyDeleteसिर्फ
विधिवत नौंवी पास थे लेकिन गुनी थे एक संवर्धित परम्परा के वारिश थे .आज पूरा मुंबई नगर रुक गया है .
औपचारिक और मौखिक शिक्षा कैसी भी भली है .पोषक हैं परस्पर विरोधी नहीं .
aaj opcharik shiksha ka itana davab bachcho aur mata pita par hai ki anoupcharik shiksha ke liye unke pas samy hi nahi hai..
ReplyDeletehttp://kahanikahani27.blogspot.in/
पढ़े हुये से कढ़ा हुआ बेहतर लेकिन संभव हो तो दोनों का मिश्रण हो।
ReplyDeleteशिक्षा को परिभाषित करना आसान नहीं जितना सुलझाये उअलाझाने वाली डोर है / ये आसन है कहना बिना शिक्षा अधूरे हैं दोनों लोक /.....ज्ञान का मूल्य शिक्षा ही बांच सके है .....सुन्दर पोस्ट
ReplyDeleteदोनों प्रकार की शिक्षा उपयोगी है,आत्मचिन्तन एवं मन्थन की आवश्यकता है।
ReplyDeleteशिक्षा किसी पकार की हो जीवन के लिए उपयोगी है,शिक्षा बिना जीवन निर्थक है,,,,
ReplyDeleterecent post...: अपने साये में जीने दो.
अजित गुप्ता जी की बात से शतप्रतिशत सहमत हूँ।
ReplyDeleteऔपचारिक शिक्षा अपने आप में पर्याप्त नहीं,उसके साथ व्यावहारिक कुशलता भी आवश्यक है .
ReplyDeleteअगली पोस्ट का तो इंतज़ार रहेगा ही फिलवक्त एक द्रुत टिपण्णी वर्तमान पोस्ट पर -बाला साहब (बाल केशव )ठाकरे साहब हमारे बीच नहीं रहे आज हर आदमी उनको कंधा देना चाहता है वह
ReplyDeleteसिर्फ
विधिवत नौंवी पास थे लेकिन गुनी थे एक संवर्धित परम्परा के वारिश थे .आज पूरा मुंबई नगर रुक गया है .
औपचारिक और मौखिक शिक्षा कैसी भी भली है .पोषक हैं परस्पर विरोधी नहीं .
संत कवि कौन से मदरसे में कब गए ,एक ज्ञान मार्गी परम्परा भी हमें विरासत में मिली ,आज निश्चय ही मिश्र का युग है संजोने का युग है औपचारिक तौर पर ताकि सनद रहे .
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शिक्षा - क्या और क्यों ?
(प्रवीण पाण्डेय)
न दैन्यं न पलायनम्
बहुत ही विश्लेष्णात्मक और अच्छी पोस्ट |आभार सर |
ReplyDeleteपिता श्री दो बातें कहा करते थे -
ReplyDelete(1)एक पढ़े से गुना (गुणी व्यक्ति )अच्छा होता है .
(2)विद्या सबसे बड़ा धन है इसे कोई चुरा नहीं सकता बांटने से यह धन बढ़ता है .
कबीर कहतें हैं ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडत होय .
सभी ज्ञान ही विज्ञान है वर्गीकरण महज़ सुविधा की दृष्टि से है क्या ललित कलाएं और क्या संगीत ,नृत्य कलाएं बोले तो performing Arts. संगीत और साहित्य जीवन का परिष्करण करतें हैं
विज्ञान अन्वेषण करता है जीवन के रहस्यों का प्रकृति का .किसी छोड़ा जाए ?अर्थोपार्जन और ज्ञान अर्जन साथ साथ हो यह होता नहीं है इसीलिए विकास एक आयामी रह जाता है .
ऊर्जा का कभी ह्रास नहीं होता । सिर्फ़ इसका स्वरुप बदलता है । Kinetic ऊर्जा potential में बदलती है और जरूरत पड़ने पर वापस उसी स्थिति आ जाती है। पानी से बिजली बना सकते है । गोबर से गैस । और तरह तरह से ऊर्जा का संरक्षण कर सकते हैं
ReplyDeleteतो क्या हमारी education कभी waste हो सकती है ? क्या ऊर्जा की तरह शिक्षा का भी विभिन्न स्वरूपों में इस्तेमाल नहीं होता ? क्या हमने जो डिग्री अर्जित की है , उसका पूरा-पूरा उपयोग न होने की स्थिति में वो बर्बाद या नष्ट हो जायेगी ? क्या हमारी शिक्षा जीवन के प्रत्येक कार्य में उपयोगी नहीं है? यही शिक्षा हमारा मनोबल नहीं बढाती ? क्या शिक्षा हमारे एनालिटिकल गुण को नहीं बढाती ? क्या वक्त बेवक्त हमारी शिक्षा दूसरों के काम नहीं आती ? क्या एक शिक्षित माँ बच्चों का पालन पोषण बेहतर ढंग से नहीं करती । क्या शिक्षा हमें जागरूक बनने में मदद नहीं करती ? क्या एक शिक्षित नारी , अपने घर परिवार का बेहतर संचालन नहीं करती ? क्या एक शिक्षित व्यक्ति समाज के लिए ज्यादा उपयोगी नहीं है ?
मेरे विचार से शिक्षा कभी बर्बाद नहीं होती। , कभी नष्ट नहीं होती। शिक्षा स्वयं के लिए भी वरदान है, दूसरों के लिए भी और एक स्वस्थ समाज बनाने के लिए भी ।
शिक्षा जीवन का अलंकरण हैं श्रृंगार है लेकिन अपढ़ भी बिंदास दो टूक सार्थक जी लेते हैं .शिक्षा और जीवन की गुणवत्ता का परस्पर गहरा सामंजस्य हो ही यह ज़रूरी नहीं है .जीवन जीना एक
ReplyDeleteनज़रिया है .शिक्षा एक अर्जित गुण व्यवहार है .नजरिया दर्शन है .
शिक्षा जीवन का अलंकरण हैं श्रृंगार है लेकिन अपढ़ भी बिंदास दो टूक सार्थक जी लेते हैं .शिक्षा और जीवन की गुणवत्ता का परस्पर गहरा सामंजस्य हो ही यह ज़रूरी नहीं है .जीवन जीना एक
ReplyDeleteनज़रिया है .शिक्षा एक अर्जित गुण व्यवहार है .नजरिया दर्शन है .आखिर इस कहावत का मतलब क्या है ?कुछ तो फलसफा है इसके पीछे भी -
ये देखो कुदरत का खेल ,
पढ़े फ़ारसी बेचे तेल .
अब तेल तो अम्बानी भी बेच रहे हैं .और तीन तेरह भी हो रही है इनकी .
पोस्ट दिल को छू गयी.......कितने खुबसूरत जज्बात डाल दिए हैं आपने..........बहुत खूब
ReplyDeleteबेह्तरीन अभिव्यक्ति .आपका ब्लॉग देखा मैने और नमन है आपको और बहुत ही सुन्दर शब्दों से सजाया गया है लिखते रहिये और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.
सार्थक शिक्षा के लिए औपचारिक शिक्षा व अनौपचारिक शिक्षा दोनों ही जरुरी है पहली पीढ़ी या पुरानी पीढ़ियों की औपचारिक शिक्षा ही बाद की पीढ़ियों के ज्ञान व कार्य व्यवहार को आगे वढ़ाती है अगर व्यक्ति का परिवार पढ़ा लिखा है तो वह अपने बच्चों को पढ़ाई की शुरुआत से पहले ही बहुत सा ज्ञान दे चुकेगा। बढ़िया व ज्ञान प्रदायक पोस्ट
ReplyDeleteइस व्लाग पर राष्ट्रवाद की पोस्टे पढ़ने के लिये क्लिक कर सकते है।और आपको अच्छी लगें तो अपने ब्लागोदय पर व अन्य एग्रीगेटर पर स्थान प्रदान करने की कृपा करना नमस्कार
http://rastradharm.blogspot.in/
शिक्षा के इन दोनों रूपों का मानव समाज के लिए होना बहुत जरुरी है.जिस तरह ए़क सिक्के के दो पहलू होते है उसी तरह मानव जीवन की शिक्षा मे ये दो मुख्य पहालू है.ये बात बिलकुल सही है के जीवन की असली शिक्षा तो ओपचारिक परीक्षा की समाप्ति पर शुरू होती है.पर मेरे ख्याल से पहले ओपचारिक शिक्षा का होना जरुरी है.कियूं के ओपचारिक शिक्षा द्वारा अनोपचारिक शिक्षा को और अच्छे तरीके से प्राप्त किया जा सकता है.ओपचारिक शिक्षा शायद हमारे सोचने विचारने की क्षमता को सुद्रिड और व्यापक बनाती है जिस से हम लोग अपने तक सिमित ना रह कर इस पुरे विश्व क बारे मे सोचते है.जितनी अच्छी ओपचारिक शिक्षा होंगी उतनी ही अच्छी तरह से हम साथ साथ अनोपचारिक शिक्षा प्राप्त कर सकते है.
ReplyDeleteVirender sunta Shimla