भारतीय मानसिकता में शिक्षा सदा ही महत्व का विषय रही है। माता पिता अब भी अपने बच्चों की शिक्षा में किया हुआ निवेश सर्वोत्तम निवेश मानते हैं। कम इच्छाओं में जी लेंगे, भूखे सो लेंगे पर बच्चों को पढ़ायेगे। शिक्षा सर्वोपरि है और सबको लगता भी है कि योग्य होगा तो कुछ न कुछ बन ही जायेगा। निश्चय ही पढ़ाई में अच्छे निकलने वाले कुछ न कुछ बन ही जाते हैं, जो कुछ बन नहीं पाते हैं उनके लिये तो सारी शिक्षापद्धति श्रमसाध्य कार्य सी ही बीतती है।
कितना ही अच्छा होता कि जो भी किसी स्तर तक पढ़ पाता उसे उस स्तर के अनुरूप समुचित व्यवसाय मिल जाता। कितना अच्छा होता कि शिक्षा में पाये अंक आपकी भविष्य की रूपरेखा नियत कर देते। शिक्षा योग्यता का एक मानकीकरण कर देती। शिक्षा एक अलग कार्य है, प्रतियोगिता एक अलग कार्य हैं और धनार्जन और जीवन यापन एक और नितान्त अलग कार्य। इन सबमें उतनी ही सततता और समानता है जितनी किन्ही दो मनुष्यों में स्वभाववश हो सकती है।
जीवन एक मिलता है, उसे कई भागों में पृथक कर जीने में उसकी सततता और आनन्द बाधित होता है। एक भाग में अर्जित लाभ या हानि अगले भाग को जब बहुत अधिक प्रभावित नहीं करते हैं तो लगता है कि वर्तमान में अधिक श्रम क्यों करना, अगले भाग की तैयारी कर लें। वर्तमान को तज भविष्य को साध लेने की जुगत, जीवन बस इसी तैयारी में बीत जाता है। बचपन से ही प्रतियोगिता में आगे निकलने वाले घोड़े बनने तैयार होने लगते हैं, युवावस्था धनोपार्जन के लिये संघर्ष में निकल जाती है, प्रौढ़ावस्था बच्चों के लिये सुरक्षित भविष्य निर्माण करने में। अन्त आते आते बस एक प्रश्न ही मुख्य हो जाता है, क्या अच्छा जीवन जीने के लिये इतना सब पढ़ना, संघर्षों से इतना लड़ना और स्वयं को बैल सा इतने वर्षों तक रगड़ना आवश्यक था?
प्रश्न का उत्तर भिन्न हो सकता है, पर प्रश्न बिना पूछे ही जीवन निकल जाये, यह जीवन का अपमान है। न्यूनतम कितनी शिक्षा आवश्यक हैं, प्रतियोगिताओं में कितना संघर्ष उचित है, प्रतियोगिताओं के लिये किये ज्ञानार्जन का उपयोग जीवन यापन में और तन्त्र के लिये कितना हो रहा है, यह समझना भी आवश्यक है। जिन नौकरियों में कक्षा दस पास से भी अधिक की योग्यता आवश्यक न हो, उनके लिये नियत प्रतियोगिता परीक्षा में यदि परास्नातक कक्षाओं के प्रश्न योग्य प्रतिभागियों का निर्धारण करें तो यह शिक्षा व्यवस्था और प्रतियोगी परीक्षाओं पर बहुत बड़े प्रश्न उठाते हैं। साथ ही साथ हमको यह सोचने पर विवश करते हैं कि कोई भी शिक्षा और सामाजिक जीवन के संबंध और उपयोगिता को समझ भी पा रहा है?
जब मस्तिष्क पर अधिक जोर डालने की इच्छा नहीं होती है तो सब बाजार की अर्थव्यवस्था के मत्थे मढ़ दिया जाता है, जब निर्णयों में नियन्त्रण का साहस नहीं होता है तो बाजार के उत्पात को मौन रह स्वीकार कर लिया जाता है। समग्र दृष्टिकोण की अनुपस्थिति, जीवन के हर चरण को पृथकता से देखने की सुविधा, यही प्रश्न हैं जो मूल-शूल हैं। इनको बिना निकाले शिक्षा में कोई विकास संभव नहीं है। जीवन संघर्ष, अनुशासन और संकीर्ण कठिन राहों में चलने का पर्याय बन जायेगा, जीवन जीना क्या होता है, बस मृत्यु के कुछ दिन पहले ही समझ आ पायेगा।
शिक्षाविद इस प्रश्न को बड़े ही मर्यादित ढंग से उठाते हैं, मैं तनिक ठेठ शैली में पूछ लेता हूँ। जब घर से कहीं जाने के लिये निकलते हैं तो उसी के अनुसार मार्ग नियत करते हैं, ऐसा तो नहीं करते हैं कि किसी भी दिशा में निकल लें और आगे जाने के बाद जहाँ भी पहुँचे उसे अपना ध्येय-स्थान मानकर वहीं जीने लगें। हो सकता है कि पढ़ने में अटपटा लगे पर वर्तमान शिक्षा व्यवस्था कुछ यही स्वरूप ले चुकी है। सबको एक बड़े मैदान तक हाँक कर पहुँचा दिया जाता है, आगे लड़ लो, जो आगे निकल सके तो निकल ले, डार्विन को एक प्रयोगक्षेत्र बना कर दे दिया है, अपने न सिद्ध होने वाले सिद्धान्त सिद्ध करने के लिये।
यदि संघर्ष और शक्ति ही श्रेष्ठता के मानक होते तो अभी भी हम घोड़े की पीठ पर बैठ कर तलवारों से युद्धकर रहे होते। सहजीवन और विकास के प्रति हमारी स्वाभाविक ललक हमें डार्विन के सिद्धान्त की दूसरी दिशा में ले जाती है। प्रचुर संसाधन की मानसिकता और धरती में जीने वालों को डार्विन का सिद्धान्त एक मज़ाक़ सा लगता है। जब सबके लिये जीवन यापन का मूलभूत सिद्धान्त ले हम सहजीवन की दिशा उद्धत हुये हैं तो ऊर्जा और जीवन का इस तरह पृथक पृथक हो व्यर्थ हो जाना हमें किस तरह स्वीकार हो सकता है?
जीवन को एकल और समग्र रूप देने के बाद, उसमें शिक्षा, योग्यता, जीवन यापन के साधन और सुखमय जीवन, सब के एक पंक्ति में खड़े हो जाते हैं, एक दूसरे से पोषित और संबद्ध, जिसमें न एक दिन व्यर्थ हो, न एक कर्म। जिसमें यह ध्येय छिपा हो, कि जीवन को किस तरह श्रेष्ठता के मानकों पर खरा उतारना है। हमारा यही आधारभूत निर्णय हो कि जीवन का समग्र स्वरूप क्या हो, शेष सब स्वतः स्थापित हो जायेगा जीवन में। जीवन को और समाज को इस स्वरूप में समझने के बाद शिक्षा के स्पष्ट उद्देश्य क्या हों, वह अगली पोस्ट में।
शिक्षा का असल उद्देश्य भी अधिकतर को नहीं पता है ।
ReplyDeleteबात आप सही कह रहे हैं व्यक्तिगत स्तर से बहुत ही सटीक है । लेकिन जब मानव संसाधन अधिक तथा प्रचुर हो, व्यक्तिगत स्वतंत्रता निर्बाध हो एवम संसाधनों का वितरण प्रजातंत्रिक तरीकों से बहुमत के निर्णय से किया जाना हो तो तंत्र इन अपेक्षाओं को कैसे पूरा करें यक्ष प्रश्न यह हैं ।
ReplyDeleteस्थिति बदली तो है, आज से बीस साल पहले के मुकाबले आज विकल्प ज्यादा हैं। अगली पोस्ट का अब बेसब्री से इंतजार रहेगा।
ReplyDeleteक्या कहा जाये प्रवीण जी बात बिलकुल ही सत्य है की शिक्षा में मिले अंको का महत्व होना ही चाहिए किन्तु जहाँ शिक्षा की प्रणाली का एक बड़ा हिस्सा नक़ल एवं लिक किये गए प्रश्न पत्रों पर निर्भर हो वहां क्या उम्मीद की जा सकती है दुर्भाग्य ही है की आज माँ बाप की यह मानसिकता बनती जा रही है की तथाकथित अछी यूनिफार्म वाली दिखावे वाली स्कूल में ही पढाई हो सकती है .अच्छा और उम्दा विषय के लिए बधाई
ReplyDeleteदीप पर्व की पुरे परिवार को
ReplyDeleteहार्दिक शुभकामनायें -
आदरणीय प्रवीण जी ||
दीपों की यह है कथा,जीवन में उजियार
ReplyDeleteसंघर्षो के पथ रहो, कभी न मानो हार,
दीपावली की ढेर सारी शुभकामनाओं के साथ,,,,
RECENT POST: दीपों का यह पर्व,,,
वर्तमान शिक्षा व्यवस्था को व्यवहारिक तो कतई नहीं कहा जा सकता|
ReplyDeleteदीपावली की शुभकामनाएँ |
कभी कभी बहुत व्यापक दृष्टिकोण और सूक्ष्मतम दृष्टिकोण एकसमान से ही लगते हैं | जीवन का मुख्य ध्येय तो ' quality of life oriented ही होना चाहिए शेष बातें उससे स्वतः जुड़ सी जाती हैं |
ReplyDeleteबहुत ही विचारणीय बिंदु है . व्यवसायिक शिक्षा के प्रचार प्रसार की अभी भी देश में आवश्यकता है ... दीपोत्सव पर्व पर हार्दिक बधाई ..
ReplyDeleteआजादी के बाद से लेकर अभीतक देश में जो शिक्षा व्यवस्था लागू है वह दोषपूर्ण है और इसमें काफी विसंगतियां हैं और इस व्यवस्था में अब समय के अनुसार परिवर्तन करने की काफी जरुरत है ...
ReplyDeleteलोग कहते है . जहां सरस्वती है .. वही लक्ष्मी भी आती है
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ReplyDeleteधन वैभव दें लक्ष्मी , सरस्वती दें ज्ञान ।
गणपति जी संकट हरें,मिले नेह सम्मान ।।
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दीपावली पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं
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अरुण कुमार निगम एवं निगम परिवार
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जीवन को एकल और समग्र रूप देने के बाद, उसमें शिक्षा, योग्यता, जीवन यापन के साधन और सुखमय जीवन, सब के एक पंक्ति में खड़े हो जाते हैं, एक दूसरे से पोषित और संबद्ध, जिसमें न एक दिन व्यर्थ हो, न एक कर्म। जिसमें यह ध्येय छिपा हो, कि जीवन को किस तरह श्रेष्ठता के मानकों पर खरा उतारना है। हमारा यही आधारभूत निर्णय हो कि जीवन का समग्र स्वरूप क्या हो, शेष सब स्वतः स्थापित हो जायेगा जीवन में। जीवन को और समाज को इस स्वरूप में समझने के बाद शिक्षा के स्पष्ट उद्देश्य क्या हों, वह अगली पोस्ट में।
ReplyDeleteसहजीवन ,सिम्बियोतिक लिविंग और प्रबंधन के इस दौर में टीम वर्क भी उतना ही ज़रूरी है जितनी व्यक्तिगत प्रतिभा .बहुत बढ़िया विश्लेषण प्रधान पोस्ट .असल बात अब टाइम मेनेजमेंट ही है .
बहुत सारगर्भित विश्लेषण...आपको सपरिवार दीपोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएं!
ReplyDeleteयह सब शिक्षा के शाश्वत प्रश्न हैं। हाल ही में मैंने आउटलुक में कृष्णकुमार जी का एक लेख पढ़ा। वे लिखते हैं जिस तरह से प्राथमिक शिक्षा में आजकल निवेश हो रहा है,उस तरह से रोजगार के अवसर पैदा नहीं किए जा रहे हैं। नतीजा यह होने वाला है कि केवल साक्षर लोगों की एक बेरोजगार फौज हमारे सामने आने वाली है। जिनके पास सिवाय पढ़ने लिखने के और कोई कुशलता नहीं होगी।
ReplyDeleteसर जी आज की शिक्षा प्रणाली अर्थ पर और प्राचीन शिक्षित होने पर आधारित थी | संसाधनों की कमी दिशाहीन कर दे रही है
ReplyDeleteसबसे बड़ी समस्या है, बच्चों का दिशाहीन होना। वो कितने समर्थ हैं इसे बताने वाला कोई नहीं। अधिकतर बच्चे अपने माँ-बाप के सपने पूरे करने में लगे रहते हैं।हमारी शिक्षा प्रणाली में काउंसिलर्स की बहुत आवश्यकता है, जो बच्चों को बता सकें उनके सामर्थ्य के अनुसार उन्हें क्या करना चाहिए। बल्कि कोई ऐसा तरीका होना चाहिए, विषय और अंक प्राप्ति के अनुसार बच्चों के पास शिक्षा विभाग से ही विकल्प आने चाहिए, की आप फलाँ-फलाँ स्ट्रीम में जा सकते हैं, क्योंकि उनसे बेहतर स्टूडेंट्स की काबिलियत के बारे में और कोई नहीं जानता। जो विद्यार्थी जिस लायक है उसे उस स्ट्रीम में स्वतः एडमिशन मिलना चाहिए। मेधावी छात्रों को स्ट्रगल करने की ज़रुरत क्यूँ ? शिक्षा विभाग का ही काम होना चाहिएविद्यर्थियों को दिशा देना।
ReplyDeleteशिक्षा के मूल में जीवन को बेहतर बना था। जो शायद खो गया है। अगली पोस्ट की प्रतीक्षा है।
ReplyDeleteशिक्षा हमें एक बेहतर इन्सान बनाने के लिये होनी चाहिये, बेहतर हर स्तर पर । अगली पोस्ट की प्रतीक्षा है ।
ReplyDeleteशिक्षा में डाला गया निवेश आउट पुट नहीं दे पा रहा है तो उसकी भारत में एकाधिक वजहें मौजूद हैं .यहाँ बच्चों को अपनी रूचि नहीं माँ बाप की रुचि के विषयों का चयन करना पडता है .एक तरह से
ReplyDeleteजोर जबर जस्ती का सौदा है .ऐसे में बच्चे का सर्व श्रेष्ठ निकल के बाहर नहीं आ पाता .आज तो इतने ज्यादा अनुशासन हाज़िर हैं बस आप अच्छा करो जहां भी जिस क्षेत्र में रहो .इसकी संभावना वहां
अधिक होगी जहां चयन आपकी मर्जी का आपके माँ बाप की मर्जी का नहीं .आप एग्ज़र्ट करो ,हांके मत जाओ ,किसी की भी झख से अलबता अपनी सीमाओं को पहचानना आपका काम है .आप देखते
हैं कैसे कैसे जोकर यहाँ ऑडिशन में चले आते हैं ,संभावना में जीते हैं लोग सीमाओं में नहीं .अपने बच्चों की सीमाओं की शिनाख्त कर उनके लिए क्षेत्र चयन करें .संभावनाओं में जीना एक दिलूज़न है
,हेलुसिनेशन है .शिक्षा भी इसका ग्रास बन रही है शिक्षार्थी भी .
यहाँ सब गड्डमड्ड है - प्रारंभ से एक दृष्टि विकसती ही कहाँ है!
ReplyDeleteपढ़ लिया है - बहुत कुछ कहना चाहूंगी - परन्तु फिर टिपण्णी पूरी पोस्ट ही बन जायेगी । सिर्फ आभार कह कर चलती हूँ ।
ReplyDeleteदीपावली की शुभेच्छाएं ।
अगले पोस्ट की प्रतीक्षा..
ReplyDeleteपैतृक व्यवसायों से मुंह मोड़ने के कारण बहुत सारी समस्याएं उत्पन्न हुई हैं।
ReplyDeleteआपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 15 - 11 -2012 को यहाँ भी है
ReplyDelete.... आज की नयी पुरानी हलचल में ....
कुछ पटाखे , कुछ फुलझड़ियाँ और कुछ उदास चुप्पियाँ.. .
बहुत ही सशक्त विश्लेषण करती पोस्ट ... आभार आपका
ReplyDeleteपढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे नवाब ,
ReplyDeleteखेलोगे कूदोगे तो होगे खराब .यही मिथक चला आरहा है मैकाले प्रणीत शिक्षा व्यवस्था को लेकर .लेखक ने इस भ्रम को तोड़ा है .आउट पुट बहुत कम दे रही है किताबी शिक्षा इम्तिहानी
शिक्षा ,जीवन और जगत से कटी शिक्षा .
जबकि आज संभावनाओं के एक से एक क्षितिज खुले हैं लेकिन भेड़ चाल वही है अपने बच्चे को इंजीनीयर बना ना है ,डॉक्टर बनाना है .क्यों भाई क्या उसमे इन व्यवसायों के जीन /
जीवन खंड मौजोद हैं या आपमें हैं ये खानदानी अंश ?यही जिद आउट पुट के पंख कुतर रही है .
आपकी पोस्ट आज चर्चा मंच पर है
ReplyDeleteजिसमें यह ध्येय छिपा हो, कि जीवन को किस तरह श्रेष्ठता के मानकों पर खरा उतारना है। हमारा यही आधारभूत निर्णय हो कि जीवन का समग्र स्वरूप क्या हो, शेष सब स्वतः स्थापित हो जायेगा जीवन में।
ReplyDeleteसटीक आकलन
जीवन की श्रेष्ठता के मानक क्या हों, बडा गूढ़ और जटिल प्रश्न है.
ReplyDeleteइस पर खरा उतरना बहुत बड़ी फनकारी है
शिक्षा के उद्देश्य की पूर्ति निष्पक्ष समाज ही प्राप्त कर सकता है ..पक्षपात पूर्ण मूल्यांकन खोखला कर रहा है शिक्षा की सार्थकता को ...आभार
ReplyDeleteतीन बातें पारस्पर संबद्ध है रूचि, शिक्षा और जीवनयापन. जिस दिन ये तीनों एक दूसरे की पूरक सिद्ध हों, मुझे संतुष्टि होगी.
ReplyDeleteछात्र और शिक्षक अगर, सुधर जाएँगे आज।
ReplyDeleteतो फिर से हो जाएगा, उन्नत देश-समाज।।
जीवन की श्रेष्ठता सबकी अपनी-अपनी प्राथमिकताओं और जरूरतों के आधार पर ही होती है...
ReplyDeleteWe need many more such relevant questions today which need befitting answers to make a paradigm change in our society.
ReplyDeleteबिना पढ़े,जूझे - प्रश्नों का उत्तर ना मिले
ReplyDeleteभारतीय शिक्षा और चिकित्सा व्यवस्था दोनों का यकसां हाल है या तो यहाँ भैया मदरसे हैं या फिर आलीशान निजी स्कूल (YPS,DPS,ST.PAUL,ETC),ठीक वैसे ही जैसे सफदरजंग जैसे खैराती
ReplyDeleteअस्पताल हैं या फिर फोर्टिस जैसे आलादार्ज़े के .
दूसरी खूबी है एक अंधाधुंध दौड़ एक दूसरे से आगे निकलने की ,केवल सफलता की चिंता करते हुए और दूसरों की भावनाओं की उपेक्षा करते हुए ,निर्मम गला काट प्रतियोगिता .बाद उसके भी बहुलांश
के लिए नतीज़ा ठन ठन पाल मदन गोपाल .पसंदीदा कोलिज में दाखिला नहीं ,पसंदीदा विषय पढने को नहीं ,ऊपर से अरेंज्ड करियर .हर जगह भर्ती में होने लगा है बवाल .चाहे कैट हो या ....अपव्यय है
यह मानव संसाधन का .
पढ़ें नहीं,जूझे नहीं - तो कहाँ प्रश्न कहाँ उत्तर !
ReplyDeleteशिक्षा प्रणाली एक अँधेरे रास्ते पर चली जारही है । नियम वे निर्धारित कर रहे हैं जिन्हें शायद शिक्षा के अर्थ ही नही मालूम । इस क्षेत्र में गहन विमर्श की आवश्यकता है ।पर इस बात से इन्कार नही किया जासकता कि योग्ता की सही परीक्षा होनी ही चाहिये तथा सबको एक वर्ग में कभी नही रखा जासकता । आपका आलेख बहुत ही विचारपूर्ण है ।
ReplyDeletebahut hii zaroori mudda uthaya hai aapne....vichaarniy lekh.
ReplyDeleteAapse ek nivedan hai , yadi aap mere blog par ek lekh...." kaise karein career ka chunaav?"....etc likh sakein to bahuton ko laabh milega.
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