जिस समय सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी कर रहे थे, एक आशंका सी रहती थी कि होगा कि नहीं, यदि होगा तो कितने वर्षों में। तैयारी करने वाले प्रतिभागियों में जिससे भी मिलते थे, एक उत्सुकता रहती थी, यह जानने की कि कौन कितने वर्षों से तैयारी कर रहा है? तैयारी का कुछ भाग दिल्ली में और कुछ इलाहाबाद में किया था, आपको यह तथ्य जानकर आश्चर्य होगा कि कुछ लोग १० वर्षों से तैयारी कर रहे थे। एक अजब सी आशावादिता व्याप्त थी वातावरण में कि आने वाला वर्ष सुखद निष्कर्ष लेकर आयेगा, पिछले वर्षों के श्रम में बस कुछ और जोड़ दें इस बार, थोड़ा भाग्य साथ दे दे इस बार, कुछ पढ़ा हुआ आ जाये इस बार।
एक नशे की गोली ही है कि ८-१० साल तक कुछ सूझता नहीं है। कई लोग इस तथ्य को शीघ्र समझ लेते हैं और कोई अन्य मार्ग ढूढ़ने लगते हैं, पर देश की शीर्षस्थ सेवाओं में पहुँचने का स्वप्न ऐसा है कि प्रतियोगी १० वर्ष स्वप्न में ही बिता डालते हैं। लाखों लोग परीक्षा देते हैं और उसमें से चार पाँच सौ ही लिये जाते हैं। जिनके चार प्रयास हो जाते हैं, वे प्रादेशिक सेवाओं की तैयारी में लग जाते हैं क्योंकि उसमें प्रयास अधिक मिलते हैं, उसके बाद कुछ और सीमित विकल्प, अन्त में सब तरह के ज्ञान में संतृप्त युवक अपनी प्रौढ़ता के प्रवेश होते होते कोई अध्यापन का कार्य कर लेते हैं और अपनी आर्थिक स्थिति गृहस्थी चलाने योग्य बना लेते हैं।
मेरा उद्देश्य न तो सिविल सेवाओं की महत्ता को दर्शाना है, न ही कोई करुण कथा सुना संवेदनायें विकसित करनी है और न ही लाखों युवाओं के व्यर्थ हुये वर्षों के बारे में कोई आँकड़े रखने है। सक्षम और मेधायुक्त युवाशक्ति का इस तरह व्यर्थ हो जाना करोड़ों करोड़ के घोटाले से कम नहीं और जिसका पूरा ठीकरा नौकरीपरक शिक्षा व्यवस्था पर ही फूटता है। किसी एक पर दोष नहीं मढ़ा जा सकता है और देखा जाये तो सब के सब दोषी। १० वर्षों के संघर्ष में लुप्त हुयी संभावनायें, इसकी तैयारी के प्रति उद्दात्त आकर्षण, अन्य क्षेत्रों में विकास न हो पाना, अपने उद्यम लगाने वालों की कमी और न जाने कितने ऐसे प्रश्न हैं जिनके उत्तर सबको ढूढ़ने हैं।
संघर्ष आवश्यक है, उतना जिससे क्षमतायें विकसित हों, उतना जिससे विकास हो, स्वस्थ प्रतियोगिता हो। संघर्ष इतना अधिक भी न हो जितना मुगलिया सल्तनत में था, पुत्रों में जो जीता वह राजा, जो हारा वह या तो कालकोठरी में या ईश्वर के पास। संघर्ष इतना कम भी न हो कि सब सुविधा बैठे बैठे ही मिल जाये, धनाड्य परिवारों की नकारा संततियों की तरह।
यह तो अच्छा हुआ कि सिविल सेवाओं के समकक्ष और कई क्षेत्र खुल गये, जैसे आईटी और प्रबन्धन, डॉक्टर और इन्जीनियर पहले से ही थे, जिन्हें देश में स्थिरता और मान नहीं मिला वे विदेश चले गये। अब संभवतः लोग दस वर्ष प्रतीक्षा नहीं करते होंगे, सिविल सेवाओं के लिये और यह भी संभव है कि बहुत लोग वैकल्पिक व्यवस्था करके ही सिविल सेवाओं की तैयारी करते होंगे। विकल्पों के विस्तार से व्यर्थ हुयी ऊर्जा निश्चय ही कम हुयी होगी पर अभी भी लाखों वर्ष जो हर वर्ष व्यर्थ होते हैं, उसका निदान नहीं हैं।
कहते हैं कि कोई प्रयास व्यर्थ नहीं जाता है, हर प्रयास में मनुष्य कुछ न कुछ सीखता ही है। सीखने के स्तर तक तो संघर्ष करके पढ़ना अच्छा है पर ८-१० वर्ष तक वही पाठ्यक्रम इस आस में पढ़ते रहना कि अगली बार भाग्य साथ देगा, समय को व्यर्थ करने से अधिक कुछ भी नहीं।
बिन्दु स्पष्ट है। एक ओर संभावनाओं का जल स्थिर है, अपने बहे जाने की राह देख रहा है, वहीं दूसरी ओर मैदानों में सूखा पड़ा है। कितने ही क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें आवश्यकता है ऊर्जावान युवाओं की, जो आकर कुछ नया कर जायें, संभावनाओं का जल वहाँ पहुँचे तो वहाँ भी ऐश्वर्य लहलहा उठे। कितने ही क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ गुणवत्ता शापित है, अन्य देश लाभान्वित हो रहे हैं, हमारे देश के बाजार पर अधिकार करते जा रहे हैं, वहाँ हमारी युवा ऊर्जा क्यों नहीं पहुँच पाती है। शिक्षा का ही क्षेत्र ले लीजिये जहाँ स्तरीय अध्यापकों की नितान्त आवश्यकता है, पर वहाँ पर भी इतना कम पैसा मिलता है कि व्यक्ति एक सम्मानित जीवन यापन के बारे में सोच ही नहीं सकता है। नवीन उद्यम, नवीन तकनीक, सब के सब क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें हम अपने पैर पसार ही नहीं पा रहे हैं, ललचाये से शेष विश्व की ओर निहारने में लगे रहते हैं।
दूसरी ओर संभावनाओं को जल बस उन्हीं क्षेत्रों में बहना चाहता है जो पहले से ही सिंचित हैं। असिंचित क्षेत्रों में जाने से जल का अस्तित्व मिट जाने का भय होता है। भले ही कितना ही जल अपनी लम्बी यात्रा के पश्चात खारे सागर में जाकर समा जाये पर उसका उपयोग हम शेष धरा को सिंचित करने में नहीं कर पाते हैं।
दोष किस पर मढ़ें, अभिभावकों को भी दोष नहीं दे सकते, जो मार्ग कभी बने ही नहीं उन पर वे अपने बच्चों को चलने के लिये कैसे कह दें? कुछ तो हो आश्वस्त होने के लिये। शिक्षा पद्धति भी क्या करे, उसका ध्यान ज्ञान से अधिक इस बात पर लगा रहता है कि प्रतियोगी परीक्षाओं के योग्य बच्चे कैसे बने? रट रटकर प्रतियोगी परीक्षाओं में उगल देने वाले युवाओं से भी क्या आशा करें कि वे नव-उद्यम का मोल समझें, उस नव-उद्यम का जिसके बारे में उन्हें कभी तैयार ही नहीं किया गया है।
एक ओर सारे जगत की चमक है और शेष जगत अँधियारा। क्या कोई उपाय है जिसमें कुछ भी प्रयास व्यर्थ न जायें, प्राप्त शिक्षा व्यर्थ न जाये, झूठी आशा में निकल गये इतने वर्ष व्यर्थ न जायें? क्या आधारभूत ढांचा निर्माण हो जिसमें देश की युवा ऊर्जा सहज बहे और समुचित बहे, सारे असिंचित क्षेत्र सिंचित हों। व्यर्थ संभावनायें, बाढ़ के जल के समान अस्थिरता ला सकती हैं और यह मूल्य उन प्रयासों में लगे मूल्य से कहीं अधिक होगा जो जो इन व्यर्थ हो रही संभावनाओं को एक स्थायी दिशा देने में लगेगा।
अन्त में यही निष्कर्ष निकलता है कि मेहनत के साथ किस्मत भी होनी जरुरी है। तभी मंजिल पर पहुँचने में आसानी होती है।
ReplyDeleteरिजल्ट देखते मुझे याद आये अपने CA के रिजल्ट के दिन.....देश भर के ४०००० में से २०० पास में अपना नाम खोजना/. :)
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर विश्लेषण प्रतियोगी छात्रों को इस पोस्ट को पढकर आत्ममंथन अवश्य करना चाहिए |सर दीपावली की शुभकामनाओं के साथ |
ReplyDeleteप्रवीण जी, ऐसे चुनिदा लोग खुशकिस्मत ही माने जायेंगे जो अपने मनपसंद क्षेत्र में करियर बना पाते हैं। अब तो फ़िर भी एजुकेशन लोन, रुपये का अपेक्षाकृत बढ़ा सर्कुलेशन युवाओं को एक कुशन प्रदान करता है।
ReplyDeleteईमान बिका है भ्रष्टों के बाजारों में,
ReplyDeleteनिष्ठायें लोटीं कूटनीति के चरण तले
ऊँचे पव्वों के दाँव जीतते हर अवसर ,
हर जगह ढोल में पोल,करे किसकी प्रतीति
अपने हित हेतु बदल जाते हैं मानदंड ,
संस्कारहीनता की संस्कृति पनपी ऐसी
नेता हैं भाँड छिछोर, भँडैती राज-नीति ,
निर्लज्ज कुपढ़ निर्धारित करते रीति नीति ,
उनकी लाठी हाँके ले जाती शासन को
जनता जनार्दन उदासीन ,जो हो सो हो
मान्यता बुद्धि को मिलती लाठी से ऊपर ,
तो फिर बाहरवालों के काज सुहाते क्यों !
शुभकामनायें प्रतिभागियों ।।
ReplyDeleteइस दौड़ में कई बार हाथ आ सकने वाले अवसरों को हम पकड़ते नहीं,बाद में वो भी नहीं मिलते !
ReplyDeleteबहुत विचारणीय और मार्मिक चिंतन
ReplyDelete'जिन्हें देश में स्थिरता और मान नहीं मिला वे विदेश चले गये'
ReplyDeleteहमारे पास स्थिरता भी थी और मान भी था :)
कुछ समय पहले और अभी की स्थिति में ख़ासा फर्क है, अब शिक्षा के, रोज़गार के और स्थान के विकल्प बहुत ज्यादा हैं, दस वर्षों तक इंतज़ार करने की ज़रुरत नहीं है। पहले न तो शिक्षा के इतने विकल्प थे न ही स्थान के। अब तो अपने शहर में अगर नौकरी नहीं है तो दुसरे शहर में अधिकतर लोग चले जाते हैं, अगर अपने देश में परेशानी है नौकरी की तो दुनिया में कहीं भी नौकरी मिल जायेगी और आप जा भी सकते हैं। मैं कनाडा की ही बात कर सकती हूँ, कई भारतीय कैनेडियन सिविल सर्विस में काम करते हैं, जिन्हें मैं जानती हूँ और मैंने खुद कनाडियन नेशनल डिफेन्स में काम किया है। ये तो बात उनकी हुई जो खुद अपना जीवन सँवार लेंगे।
बाकी आपकी बात सोलह आने सही, देश तो बस दिल्ली ही है, उसी को सजाते रहेगी सरकार, रोजगार के सारे अवसर वहीँ मिलेंगे, शिक्षकों की कमी रहेगी ही रहेगी, इसलिए नहीं कि तनखा कम है, अब तो शिक्षकों की तनखा अच्छी खासी है, लेकिन कितने हैं जो इस काम को करना चाहते हैं। क्योंकि ऐसी लचर शिक्षा प्रणाली से निकलने के बाद बहुत कम ही होते हैं, जिनमें ये आत्मविश्वास होता है की वो ज्ञान देने के काबिल हैं। और जो इसमें जाते हैं अधिकतर अधकचरे ज्ञान वाले ही होते हैं। पढ़ाना उनको है नहीं इसलिए कोई समस्या नहीं है।अच्छी शिक्षा प्रणाली और अच्छा शिक्षक, मुर्गी और अंडे वाली बात है, अच्छे शिक्षक कम हैं क्योंकि हमारी शिक्षा प्रणाली दोषपूर्ण है, और शिक्षा प्रणाली दोषपूर्ण ही क्योंकि अच्छे शिक्षक नहीं हैं। इसमें तो समूल सुधार की आवश्यकता है।
बाकी आपकी बातें सही हैं।
धन्यवाद
Diwali bahut mubarak ho!
ReplyDeleteBarfi picture ka ek dialogue hai....risk nahi loge to zindgi tumhare liye risk ho jayegi...so risk to lene padenge....varna angrejon ke jamane ki babu banne wali shiksha paddhti to hame kahin aage nahi badhne degi.
ReplyDeleteye bat soch kar hairani bhi hoti hai ki hamare bharteey apni buddhi ka parcham har jagah lehraye hue hain. nakal karne me itna tez dimag hai to risk lene me kyu nahi apni buddhi ka prayog karte aur duniya se aage badhte.
vichaarneey lekh.
क्योंकि वह भारतीयता भूल कर पाश्चात्य की नक़ल में लगा है...
Deleteकरियर का सही चुनाव करने के लिए काउंसलिंग की बहुत ज़रुरत है . अक्सर युवाओं को सही निर्णय लेने में दिक्कत आती है.
ReplyDeleteलेकिन असफलता से हार नहीं माननी चाहिए. निरंतर प्रयास से सब संभव है.
बम / पटाखे रहित दिवाली के लिए शुभकामनायें .
आज तस्वीर बदल रही है पर अभी इसमें और भी १५ - २० साल लगेंगे |
ReplyDeleteशिक्षा के क्षेत्र में क्रन्तिकारी बदलावों की जरूरत है | साथ ही साथ अभिभावकों को भी पालन पोषण आदि के प्रचलित तरीकों से थोडा अलग सोचना पड़ेगा|
दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ!
ReplyDeleteवाह क्या बात है आपको दीपावली की शुभकामना
ReplyDeleteआज 10- 11 -12 को आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....
ReplyDelete.... आज की वार्ता में ... खुद की तलाश .ब्लॉग 4 वार्ता ... संगीता स्वरूप.
व्यर्थ संभावनायें, बाढ़ के जल के समान अस्थिरता ला सकती हैं और यह मूल्य उन प्रयासों में लगे मूल्य से कहीं अधिक होगा जो जो इन व्यर्थ हो रही संभावनाओं को एक स्थायी दिशा देने में लगेगा।
ReplyDeleteविचारणीय ... संभावनाएं तो बढ़ी हैं .... लेकिन अभी भी अधिक विकल्प होने चाहिए .... सार्थक लेख
शिक्षा में ही कोई त्रृटि है, यह शिक्षा युवाओं को प्रेरित ही नहीं करती कि अपने अवसर का निर्माण भी वे स्वयं करे। सभी लीक पर चलने को बाध्य से है। नव चिंतन बाधित है। आपने सही कहा इस तर्ह तो मानव संसाधन व्यर्थ ही बह जाता है। जो उर्जा विकास में लग सकती है, मात्र स्वयं को काबिल साबित करने में खर्च हो जाती है एक जुए की तरह।
ReplyDeleteसच है प्रयास की विफलता भी कुछ देकर जाती है
ReplyDeleteजैसे जैसे संभावनायें बढी हैं वैसे वैसे ही उम्मीदवार भी …………पहले हजारों मे होते थे तो अब लाखों में ………और संसाधन सीमित ही हैं तो संभावनायें फिर ऊँट के मूंह मे जीरे सी साबित होने लगती हैं ………जब तक कोई व्यवस्थित ढाँचा ना बने ।
ReplyDeleteइस समस्या के मूल में बहुत सी समस्याएं हैं. जब तक हम अपनी योग्यता को अपना करियर नहीं बनाना सीखते तब तक यह समस्या रहेगी ही.और इसी भेड़चाल में चलने को सब बाध्य होंगे.
ReplyDeleteदिवाली की ढेरों शुभकामनाएं आपको.
सटीक चिंतन . अब शायद लोग १० साल तक इंतजार नहीं करते . करना भी नहीं चहिये .
ReplyDeleteअब बच्चे अपना चुनाव खुद करने लगे हैं और रास्ता बदलने भी लगे हैं .
ReplyDeleteजहाँ अवसर सीमित हों, और चयन प्रक्रिया भी योग्यता के आधार पर सकारात्मक चुनाव के बजाय अधिकांश की भीड़ के विलोपन पर आधारित हो, वहाँ इस तरह की विसंगतियों का होना स्वाभाविक है।प्रकाश की किरण यह हे कि अब विभिन्न नवीन अवसर उभर रहे हैं, व सिविल सर्विसेज में चयन न हो पाना अब जीवन मरण का प्रश्न नहीं है। अपितु तो अब कितने ही सिविल सर्वेंट अपनी इस सेवा से इस्तीफा देकर प्रबंधन क्षेत्र व अन्य कैरियर अपना रहे हैं।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (11-11-2012) के चर्चा मंच-1060 (मुहब्बत का सूरज) पर भी होगी!
सूचनार्थ...!
सटीक चिंतन,,बच्चे अब अपना रास्ता बदलने में देर नही करते,,,
ReplyDeleteदीपावली की हार्दिक बहुत२ शुभकामनाए,,,,
RECENT POST:....आई दिवाली,,,100 वीं पोस्ट,
इतनी मेहनत करके चुने जाने पर यदि भ्रष्ट अधिकारियों और मंत्रियों के साथ ही काम करना है तब तो................।
ReplyDelete.
ReplyDelete.
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सोचने को मजबूर करती पोस्ट...
...
Yuvaon ko madad milegi
ReplyDeleteहम भी आखिरकार हाल मुकाम पर पहुँचे बस रास्ता जरा लंबा था हमारे लिये ।
ReplyDeleteस्वयं की क्षमता जानकर ही निर्णय लें तो संघर्ष कम रहता है।
ReplyDeleteजूनूनी लोगों के लिये अपने लक्ष्य तक पहुंचे बिना चैन कहां? बहुत शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम
सही कहा कोशिश जरूर करनी चाहिए पर पागलपन की हद तक नहीं जो अपने ऊपर ही सवाल खड़े कर दें नए विकल्प खुल रहे हैं निराशा को लेकर नहीं घूमना चाहिए एक दरवाजा नहीं खुला तो क्या दूसरा खुल सकता है बस अपनी मेहनत पर भरोसा रखें हर जगह भ्रष्टाचार होने के चलते चयन नीतियों पर भी आज की पीढ़ी विशवास करे तो कैसे ??
ReplyDeleteसौहाद्र का है पर्व दिवाली ,
ReplyDeleteमिलजुल के मनाये दिवाली ,
कोई घर रहे न रौशनी से खाली .
हैपी दिवाली हैपी दिवाली
यूं ही कुछ लोग मुगालते में निकाल देते हैं बेश कीमती साल जीवन के ,महत्व कान्क्षाओं का संसार असीमित होने पर यह भ्रांतधारणा खुद के बारे में पैदा हो जाती हैं .इल्म हरेक को होता है अपनी सीमाओं का ,कई तो इसे भी पद प्रतिष्ठा मान समझ लेते हैं ,भाई प्रशासनिक सेवाओं के लिए प्रयास रत हूँ इससे ज्यादा और कर भी क्या सकता हूँ .
ReplyDeleteआपके ब्लॉग को पहले 15 ब्लॉग सूची में स्थान मिला हम भी गौरवान्वित हुए दिवाली का इससे बेहतरीन तोहफा और क्या हो सकता है .अलबता हम इस ख़याल के हामी हैं -
सितारों से आगे जहां और भी हैं ,
तेरे सामने इम्तिहान और भी हैं ,
अभी इश्क के इम्तिहान और भी हैं .
मुबारक दिवाली सपरिवार आपको ,सानंद रहें वर्ष भर .
जिस दिन से चला हूँ मेरी मंजिल पे नज़र है,
ReplyDeleteहमने तो कभी मील का पत्थर नहीं देखा!
कोशिश तो आवश्यक है ही पर भाग्य भी एक फेक्टर है जो किसी कम्पीटीशन में सफल होने के लिए आवश्यक है
ReplyDeleteअच्छा लेख |
आशा
दीपावली पर हार्दिक शुभ कामनाएं |
ReplyDeleteआशा
"तो सम को उदार जग माहि "प्रवीण जी आपकी सक्रियता और हाज़िर ज़वाबी टिप्पणी दान देखते ही बनता है .ब्लॉग जगत में टिपण्णी दान लेखक को ताज़ा बनाए रहता है ऊर्जित करता रहता है .
ReplyDeleteअपने होने का एहसास करा देते हैं ,
जब वो कोई टिपण्णी चिठ्ठे पे लगा देते हैं .
सलामत रहो .खुश हाल रहो .ब्लॉग -संपन्न मालामाल रहो .
कई साल पहले जब मैं डॉक्टर बनने के लिए दी जाने वाली प्री मेडिकल परीक्षाओं में असफल हुआ था...एक अजीब सा जूनून था खुद को साबित करने का...पर जब पिताजी ने मेडिकल कालेज में डोनेशन में दी जाने वाली फीस देने से मना कर दिया तो ये समझ में आया के चाहे अनचाहे मैं उनलोगों पे किस किस्म का दबाव दाल रहा था!मैंने सफल और संतुष्ट होने के दुसरे रास्ते ढूंढे जो मैंने अपने दूरदृष्टि दोष की वजह से देखना छोड़ दिया था.
ReplyDeleteशायद तब ही वो दौर था जब मैंने नयी संभावनाएं तलाशीं....
शायद एक असफल डॉक्टर होने से बेहतर एक अच्छा लेखक होने की सम्भावना ने मुझे एक ऐसा रास्ता सुझाया...
और ये शायद तभी हो पाया ...जब मैंने अपना गुलाबी चश्मा हटाकर देखा...;)
अच्छा विश्लेषण..हम तो यही समझते हैं के ब्लॉग की दुनिया के शिक्षक आप हैं और हम विद्यार्थी..:)
इस समस्या का समाधान तो सिर्फ तभी मिल सकता है जब अन्यक्षेत्र भी जीवन यापन के लिए आर्थिक सुदृढ़ता दे पाए .... आदर्श को टिके रहने के लिए जमीनी सच्चाइयों का सामना करना ही पड़ेगा ......
ReplyDeleteदीपोत्सव पर्व पर हार्दिक बधाई और शुभकामनायें ....
ReplyDeleteअच्छा लगा लेख .
ReplyDeleteदीप पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ!
आप और आपके परिवार को दीपावली की अनेक मंगलकामनाएँ....
ReplyDelete-समीर लाल ’समीर’
'एक नशे की गोली ही है कि ८-१० साल तक कुछ सूझता नहीं है। '
ReplyDelete---यह भौतिक जगत के प्रति अति-ललक एवं पाश्चात्य नक़ल के कारण ही है.. ...What's better then money ... जब तक आत्मसंतुष्टि का भाव नहीं होगा यह चलता ही रहेगा....
ஜ●▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬●ஜ
♥~*~दीपावली की मंगलकामनाएं !~*~♥
ஜ●▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬●ஜ
सरस्वती आशीष दें , गणपति दें वरदान
लक्ष्मी बरसाएं कृपा, मिले स्नेह सम्मान
**♥**♥**♥**● राजेन्द्र स्वर्णकार● **♥**♥**♥**
ஜ●▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬●ஜ
सोच में परिवर्तन तो हो रहा है पर गति अभी बहुत धीमी है |
ReplyDeleteसंघर्ष आवश्यक है, उतना जिससे क्षमतायें विकसित हों, उतना जिससे विकास हो, स्वस्थ प्रतियोगिता हो।
ReplyDeleteबहुत सही कहा आपने ... हमेशा की तरह लाजवाब प्रस्तुति।
जहाँ इतनी बड़ी जनसँख्या और बेरोजगारों की क़तार हो, वहां शिक्षा व्यर्थ न जाये ऐसा कुछ खोज पाना काफी मुश्किल है।
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