सतर्कता सप्ताह चल रहा था, समापन के समय विशिष्ट अतिथि बुलाये जाते हैं जो अधिकारियों और कर्मचारियों की बड़ी बैठक को सम्बोधित करते हैं, सब ध्यानमग्न हो सुनते हैं। यथासंभव उस बैठक में उपस्थित रहना होता है, कि कहीं ऐसा न हो कि अनुपस्थिति का अर्थ सतर्कता की अवहेलना के रूप में ले लिया जाये। मुख्यतः दो विशिष्ट अतिथि बुलाये जाते हैं। एक जो स्वयं सरकारी सेवाओं के उच्चपदों में रहे हों और अपने सेवाकाल में अपनी निष्कलंक छवि को बचाये रखे हों, संभवतः इस बात का विश्वास देने के लिये कि यह आचरण सर्वथा असंभव सा नहीं हैं और उदाहरण साक्षात उपस्थित हैं। दूसरे जो आध्यात्मिक क्षेत्र से संबंध रखते हों, संभवतः इस बात को समझाने के लिये कि सदाचरण और अच्छा जीवन सामाजिक जीवन के साथ साथ आध्यात्मिक जीवन की भी आवश्यकता है और अपनी आवश्यकतायें कम करके भी इस जगत में रहा जा सकता है।
पिछली चार वर्षों की बैठकों में आठ विशिष्ट अतिथियों के विचार सुन चुका हूँ। हर बार बहुत अच्छा लगता है सुनकर, सबको ही अच्छा लगता होगा। कई बार बड़ी बड़ी बातें होती हैं, प्रभाव कितना पड़ता होगा लोगों पर, ज्ञात नहीं। कभी कोई बहुत छोटी सी बात कहता है जा मन में आकर लग जाती है, एक विशिष्ट प्रभाव छोड़ जाती है। बहुत कुछ निर्भर करता होगा मनःस्थिति पर और उतना ही प्रभाव पड़ता होगा वातावरण का भी। इस बार वातावरण पिछले वर्षों से कहीं अधिक ऊष्मा लिये हुये था। जितना तापमान हमारे टीवी का हो जाता होगा, उससे कहीं अधिक आँखें और मस्तिष्क का हो जाता है हर बार घटनाक्रम को देखकर। इस बार वातावरण पिछले वर्षों की तुलना में अधिक उत्सुकता भरा था, वहाँ बैठे श्रोताओं के चेहरे से वह स्पष्ट था।
पता नहीं क्यों पर जब आप यह सोचकर बैठे हों कि आपकी एकाग्रता में विघ्न न पड़े, उसी समय सारी दुनिया को सूझती है आप तक पहुँचने के लिये। विशिष्ट अतिथियों का सम्बोधन चल रहा था और मैं बार बार अपने मोबाइल के काँपने से व्यथित था। हर बार कम से कम यह देखना तो आवश्यक हो जाता था कि फोन किसका है, आवश्यक हो तो धीरे से फुसफुसा कर बतिया लें, नहीं तो बैठक में व्यस्त होने का छोटा सा संदेश भेज कर काम चला लें। इन्हीं दो क्रियाओं में पूरा ध्यान बटा हुआ था, शेष जो भी बीच बीच में शेष बच रहा था, विशिष्ट अतिथियों के सम्बोधन को सुनने के प्रयास में लगा हुआ था।
बड़ी समस्या है, जब भी किसी एक वस्तु में एकाग्रता स्थापित करता हूँ, दूसरी उसमें बाधा डाल देती है। मैे सुनना चाह रहा हूँ कि कैसे धन के प्रभाव से शापित वातावरण में भी सीमित धन और संसाधनों के साथ और अधिक प्रसन्न रह सकते हैं? सुनना चाह रहा हूँ कि कैसे सरकारी धन का सदुपयोग सुनिश्चित कर देश को विकास के अग्रतम मानकों तक ले जाया जा सकता है? कहाँ एक ओर इतना बड़ा ध्येय और कहाँ बार बार मोबाइल का काँप उठना, मोबाइल पर बतियाना भी आवश्यक है, भविष्य के महत लक्ष्यों के लिये वर्तमान को भी चुप नहीं कराया जा सकता है। मन की ईश्वर ने सुन ली, अगले २० मिनट तक कोई फोन नहीं आया, ध्यान सुनने में लगा दिया।
रामकृष्णमिशन के स्वामीजी थे, वयोवृद्ध थे और चर्चा का आध्यात्मिक पक्ष रख रहे थे। नाम ढंग से याद नहीं आ रहा है, आप समझ सकते हैं कि आधुनिक जीवनशैली ने मानसिक रूप से हम सबको कितना क्षीण बना दिया है, पाँच मिनट पहले जिनका परिचय दिया गया, वह भी याद नहीं रहा। मोबाइल में हजारों से अधिक नाम संचित पर जिन्हें वर्तमान में सुन रहा, उनका नाम ही ध्यान से उतर गया। मन पर अधिक दवाब नहीं डाला और सम्बोधन सुनने में लग गया।(नाम स्वामी हर्षानंदजी है, आभार देवेन्द्रदत्तजी)
रवीन्द्रनाथ टैगोर की किसी कविता का संदर्भ था। भावार्थ कुछ इस प्रकार था।
सूरज अस्त हो रहा है, क्षुब्ध है, दिन भर स्वयं दहक कर सारे विश्व को प्रकाश देने का महत कार्य किया था। अस्त होने में बस कुछ ही समय शेष है, सोच रहा है कि उसके जाने के बाद क्या होगा? क्या होगा उन स्थानों का, जो अभी तक स्पष्ट दिखायी देते हैं। किसी को संशय नहीं उनके बारे में, क्योंकि वे साक्षात दिखायी पड़ते हैं। सूरज नहीं रहेगा तो उनके अस्तित्व के बारे में संशय हो जायेगा। अँधेरे में उन्हें असहजता लगती है, जो पारदर्शिता के, जो स्पष्टता के आराधक हैं। सबको सब दिखायी पड़े, सबको सबका सुख दिखे, सबको सबका दुख दिखे, सबको सबके कर्म दिखें, सबको सबके दुष्कर्म दिखें। आज वही सूरज अस्त हो रहा है, आज प्रकाश का स्रोत अस्त हो रहा है। विश्व को नहीं ज्ञात कि क्या होने वाला है, पर जिसने प्रकाश फैलाया है, वह बस इस चिन्ता में घुला जा रहा है कि उसके जाने के बाद विश्व का क्या होगा?
उस उत्तराधिकारी को ढूढ़ रही थी सूरज की आँखें जो उसके अस्त होने के बाद भी वैसा ही प्रकाश फैला सके। सूरज को जब निराशा सी लगने लगी, डूबने में बस कुछ क्षण ही बचे तब एक छोटे से दिये ने बोलना प्रारम्भ किया।
मुझे ज्ञात है कि मैं बहुत छोटा हूँ, मुझमें इतनी सामर्थ्य भी नहीं कि आपके सम्मुख खड़ा होकर कुछ कह पाऊँ, आपके महत कार्य को समझ तक पाऊँ। पर हे सूरज,मैं आपको बस इतना विश्वास दिला सकता हूँ, कि आज रात के लिये और इस छोटी कुटिया के भीतर मैं अँधेरा नहीं होने दूँगा। कल मेरा अस्तित्व रहे न रहे, कल मेरी लौ जीवित रहे न रहे, कल मुझे ऊर्जा मिले न मिले, बस इतना विश्वास दिलाता हूँ कि कम से कम इस जगह पर मैं रात भर मोर्चा सम्हाले रहूँगा।
बात बहुत छोटी की दिये ने, अपने आकार के अनुपात में, पर उसका विस्तार वृहद था, उसका उत्तर सूरज का सन्तोष था, इस बात का सन्तोष कि जब वह कल वापस आयेगा तो उसे कम से कम इस कुटिया में अपना कोई जाना पहचाना सा दिखेगा। कोई दिखेगा जो उसके आदर्शों को जीवित रखेगा, स्वयं जलकर भी, स्वयं दहक कर भी।
तभी किसी विशेष कार्य के कारण नियन्त्रण कक्ष जाना पड़ गया, और अधिक सम्बोधन न सुन पाया, पर स्वामीजी के वे शब्द मन में अनुनादित होते रहे, कि हे सूरज, आप दिन सम्हालो, आप विश्व सम्हालो। रात हम हाथ से निकलने नहीं देंगे, हम इस कुटिया को जगमगायेंगे और प्रतीक्षा करेंगे उस सुबह की जब सूरज पुनः क्षितिज पर जगमगाने लगेगा।
बात तो आपकी बहुत उम्दा गहन अनुभव से युक्त होती है लेकिन आपकी लेखन शैली एक बहुत अच्छे ललित निबन्ध लेखक जैसी ही है |इन सब आलेखों को सर एक पुस्तक का रूप दे दीजिये |आभार
ReplyDelete.......
Delete.......
pranam.
सचमुच विचारणीय ..... दिया और सूरज दोनों अपनी भागीदारी से जीवन को रौशन करते हुए ....
ReplyDeleteसुन्दर विचार। ऐसा चिन्तन होते रहना आवश्यक है, जीवन को नयी दिशायें देता है।
ReplyDelete....दिये की लौ का ही भरोसा है ।
ReplyDeleteसूरज का उत्तराधिकारी दीपक !
ReplyDelete'दीपक' तो अपने भीतर प्रकाश संजोये हुए 'सूर्य देवता' का राजदूत बन, रात भर उनकी अनुपस्थिति में उनके प्रतीकात्मक सत्ता का प्रतिनिधित्व करता है |
ReplyDeleteआपने श्रुतिलेख को सुलेख बना , हम सब को लाभान्वित किया , आभार |
यही दीया हमारे भीतर भी जलता रहे..
ReplyDeleteकल 04/11/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
विचारणीय लेख ...बहुत ही खूबसूरती के साथ बयाँ किया हुआ ... गजब का तालमेल ... उम्दा सौच
ReplyDeleteआपके ब्लॉग पर आकर काफी अच्छा लगा।मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत हैं।अगर आपको अच्छा लगे तो मेरे ब्लॉग से भी जुड़ें।धन्यवाद !!
http://rohitasghorela.blogspot.com/2012/10/blog-post.html
वाह ....
ReplyDeleteजयकृष्ण तुषार की बात पर गौर करें !
प्रशंसनीय और विचारणीय बातें कही दिए ने ! और अक्सर देखा गया है कि ऐसी मंथनीय बात अक्सर कमजोर(दीया) ही करता है, बाहुबली (सूरज) के दिमाग में ये बाते नहीं आती !
ReplyDeleteतमसो मा जोतिर्गमय ..
ReplyDeleteभई इतनी ठेठ शेक्सपियराना हिन्दी लिखते हो कि ठिठक-ठिठक कर पढ़ना पड़ता है
ReplyDeleteआज 03 - 11 -12 को आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....
ReplyDelete.... आज की वार्ता में ... चलो अपनी कुटिया जगमगाएँ .ब्लॉग 4 वार्ता ... संगीता स्वरूप.
दिये जैसा हौसला ही हमारे मन में भी हो
ReplyDeleteवही मिटटी का दीया जलाएं
ReplyDeleteआध्यात्मिक गुरूओं की बातें तो बहुत अच्छी होती है ..
ReplyDeleteकाश वे खुद उसपर चलना और शिष्यों को चलाना सीख जाते ..
रविन्द्रनाथ टैगोर की रचनाओं को तो जबाब नहीं
ek ek bat sahi kahi hai aapne praveen ji.sarahniy prastuti aabhar
ReplyDeleteअगर हम सब दिये यह बात समझ जाएं तो सूरज का काम भी कुछ आसान हो जाए।
ReplyDeleteदीपक का समर्पण भाव प्रेरक है ... सुन्दर अभिव्यक्ति ... आभार
ReplyDelete"मुझे ज्ञात है कि मैं बहुत छोटा हूँ, मुझमें इतनी सामर्थ्य भी नहीं कि आपके सम्मुख खड़ा होकर कुछ कह पाऊँ, आपके महत कार्य को समझ तक पाऊँ। पर हे सूरज,मैं आपको बस इतना विश्वास दिला सकता हूँ, कि आज रात के लिये और इस छोटी कुटिया के भीतर मैं अँधेरा नहीं होने दूँगा।"
ReplyDeleteप्रेरणादायक....
अच्छा लेख।स्वामीजी का नाम स्वामी हर्षानंदजी है।
ReplyDeleteसुन्दर सार्थक चिंतन.
ReplyDeleteयूँ काजल कुमार जी की टिप्पणी से भी सहमति :)
उत्कृष्ट प्रस्तुति रविवार के चर्चा मंच पर ।।
ReplyDeleteलालित्यमय चिंतन
ReplyDeleteव्यवधान के बीच ही तो एकाग्रता की सार्थकता है
सार्थक कथन !
ReplyDeleteumda lekhan bhai .. deepawali ki subhkaamnaye
ReplyDeleteसभी एक दीप जलायें...बहुत विचारणीय आलेख...
ReplyDeleteजीवन में ये विस्वास बना ही रहे
ReplyDeleteमनका दिया सदा यूँ ही जलता रहे,,,,
RECENT POST : समय की पुकार है,
ये दीप जलता रहे दिन रात.. जीवन को नयी दिशा दिखाता सार्थक विचारणीय , लेख..
ReplyDelete"कई बार बड़ी बड़ी बातें होती हैं, प्रभाव कितना पड़ता होगा लोगों पर, ज्ञात नहीं। कभी कोई बहुत छोटी सी बात कहता है जा मन में आकर लग जाती है, एक विशिष्ट प्रभाव छोड़ जाती है।"
ReplyDeleteबिलकुल सही कहा आपने !
पृथ्वीराज कपूर - आवाज अलग, अंदाज अलग... - ब्लॉग बुलेटिन आज की ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
उदासीनता भंग करने को एक अच्छा संदेश !
ReplyDeleteइस कविता का हिन्दी अनुवादजब पहली बार पढा था तब जितना आनन्द आया था, उतना ही आनन्द आया था आज फिर आया - आपकी इस पोस्ट में उसी कविता के भाव पढकर।
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDelete"मैं बहुत छोटा हूँ, मुझमें इतनी सामर्थ्य भी नहीं कि आपके सम्मुख खड़ा होकर कुछ कह पाऊँ, आपके महत कार्य को समझ तक पाऊँ." यही स्थिति हमारी है ...ब्लॉग जगत में कहीं लुप्तप्राय ...आपका लेख बहुत ही मार्मिक, अंतर्मन को छू लेने वाली ......आभार!
ReplyDeleteमुझे ज्ञात है कि मैं बहुत छोटा हूँ, मुझमें इतनी सामर्थ्य भी नहीं कि आपके सम्मुख खड़ा होकर कुछ कह पाऊँ, आपके महत कार्य को समझ तक पाऊँ।
ReplyDeleteअगर यह अहसास बना रहे तो फिर जीवन कहीं न कहीं अपनी दिशा तय कर लेता है ....बेहद विचारणीय पोस्ट ..!
सहजता से बेहद ज़रूरी विचारों को व्यक्त करना,उन विचारों को जन का बना देना ,आप बखूबी करते हैं .
ReplyDeleteआपका लेखन सदैव ही विचारणीय बिन्दुओं के लिए होता है ....
बहुत सुंदर बात कही स्वामी जी ने. पूरी दुनिया की चिंता से पहले जितना खुद कर सकते हो उतना तो करो.
ReplyDeleteप्रवीण जी मैँ वरुण कुमार साह मैने कई ब्लोग के पोस्ट एक ही जगह पढे जा सके ईसलिए sanatanbloggers.blogspot.com एक ब्लोग बनाया आप भी इस ब्लोग मेँ अपनी पोस्ट करे इसके लिए लिए आप ब्लोग के लेखक बन जायेँ ये ब्लोग आपकी जरा भी समय नही लेगी क्योकि आप जो पोस्ट अपने ब्लोग पर लिखते हैँ उसकी प्रतिलीपी इस पर करना हैँ यहाँ पर अन्य आप के तरह ब्लोगर के साथ आपके पोस्ट भी चमकेँगी जिससे आपके ब्लोग कि ट्रैफिक तो बढेगी साथ ही साथ जो आपके ब्लोग को नही जानते उन्हे भी आपकी पोस्ट पठने के साथ ब्लोग के बारेँ मे जानकारी मिलेगी पोस्ट के टाईटल के पहले बाद अपना नाम अपने ब्लोग का नाम और फिर अंत मे अपने ब्लोग के बारेँ मे दो लाईन लिखे इससे ज्ञानोदय तो होगा ही और आप ईस मंच के लिए भी कुछ यहाँ पर पोस्ट कर पायेँगे।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ....
ReplyDelete-----आपकी लेखन शैली आपकी अपनी विशिष्ट एवं गज़ब की है ... बहुत सटीक भाव-सम्प्रेषण करती है...सही कहा दीप ने...छोटा है तो क्या....दीपावली तो उसी से होती है....
"जरिवौ जरिवौ दीप सम , मिटे जगत अंधियार,
जड जंगम जग जगि उठे, होय जगत उजियार | "
दीप छोटा ही सही, इरादा तो बड़ा है।
ReplyDeleteआपकी पोस्ट से हम सब हमेशा कुछ सकारात्मक लेकर जाते हैं।
कभी-कभी---
ReplyDeleteअंधेरों के सायों को भी
दरवाजों तक आने दें
रोशनी की धूप---
छतों के कगूंरो को----
बिन छुए,यूं ही लौट जाएगी
बहुत सरगर्भित आलेख—’बात बहुत छोटी की दिये ने----अपना कोई जाना पहचाना सा दिखेगा.’
कभी-कभी---
ReplyDeleteअंधेरों के सायों को भी
दरवाजों तक आने दें
रोशनी की धूप---
छतों के कगूंरो को----
बिन छुए,यूं ही लौट जाएगी
बहुत सरगर्भित आलेख—’बात बहुत छोटी की दिये ने----अपना कोई जाना पहचाना सा दिखेगा.’
आत्मदीपो भव=बुद्ध ने कहा था ......
ReplyDeleteबहुत ही प्रेरणास्पद विचार हैं। ऐसे आध्यात्मिक पुरुषों को सुनते रहना चाहिए।
ReplyDeleteमाटी के दीप और माटी के पुतले दोनों सदियों पुराने साथी हैं-अंधकार के खिलाफ युध्द में। दीपोत्सव की अग्रिम शुभकामनाएं।
ReplyDeleteइसे रिपोर्ताज कहें या विश्लेषण परक संस्मरण ,दर्शन संसिक्त यह पोस्ट स्वयं एक दर्शन गाथा सी एक वचन सी है .गूढ़ गंभीर .हाँ यह मोबाइल का आतंक
ReplyDelete..
सर्व भक्षी हो रहा है फिर चाहे सोनाल मान सिंह का भरत हो या कत्थक मोबाइल बड़ा निर्मम है .आपकी टिपण्णी प्रेरणा है . शुक्रिया
इसे रिपोर्ताज कहें या विश्लेषण परक संस्मरण ,दर्शन संसिक्त यह पोस्ट स्वयं एक दर्शन गाथा सी एक वचन सी है .गूढ़ गंभीर .हाँ यह मोबाइल का आतंक
ReplyDelete..
सर्व भक्षी हो रहा है फिर चाहे सोनाल मान सिंह का भरत हो या कत्थक मोबाइल बड़ा निर्मम है .आपकी टिपण्णी प्रेरणा है . शुक्रिया
deepavli ke poorv sarthk disha me chintan ke liye vivash karata ak mahtvpoorn lekh padhane ko mila . Sadar abhar Pandey ji
ReplyDeleteसुंदर विश्वास और सुंदर विचार ...!!
ReplyDeleteउत्कृष्ट आलेख ...
हम सब दिये की तरह अपनी कुटिया जगमगाये । बहुत सुंदर आलेख ।
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