आलोक - मुझे छुट्टी के समय पर बच्चों को गृहकार्य से लादने की बात समझ ही नहीं आती है। क्या विद्यालयों और शिक्षकों को ज्ञात भी है कि छुट्टियों का अर्थ और महत्व क्या होता है? यदि बच्चे छुट्टियों में इस तरह जूझते रहेंगे, तो वे कभी कार्य को उस अवस्था से अलग करके नहीं देख पायेंगे जिसमें वे इस तनाव वाली पढ़ाई से उन्मुक्त होकर प्रकृति देखें, मित्रों और सम्बन्धियों से मिलें और उन सब चीजों को जाने जो इतना गृहकार्य देने वाले विद्यालयों में नहीं पढ़ायी जाती हैं। यह चित्र मुझे बहुत पीड़ा दे रहा है, पुस्तक पर रखा पेपरवेट मानो उनकी उन्मुक्तता पर रखा एक बड़ा सा भार है। यह सब होते हुये भी वे सबकी अपेक्षाओं के प्रति समर्पित हैं।
प्रवीण - मैं पूरी तरह से समहत हूँ, क्या बच्चों को इस तरह तनाव में रखने की आवश्यकता थी? कल रात तक ये धमाचौकड़ी मचा रहे थे। इन्होंने कल रावण बनाया, उसे रंगा, उसमें पटाखे भरे और यह सब मोहल्ले के सब बच्चों के साथ किया। आज सुबह से ये बिल्कुल बदले दिख रहे हैं, इनकी छुट्टियाँ समाप्त होने से पहले ही समाप्त हो गयी हैं।
आलोक - प्रवीण, यह सच में दुख की बात है और मुझे क्रोधित भी करती है। कुछ दिन पहले एक डॉकूमेन्ट्ररी बनाने वाले युगल ने मुझसे पूछा था कि मेरे अनुसार क्रूरतम हिंसा क्या है? "एक बच्चे की बात न सुनना, उसके कुछ बोलने का आदर न करना, यही हिंसा का क्रूरतम स्वरूप है।" मैंने कहा। तब उन्होने मुझसे शिक्षातन्त्र के बारे में पूछा। मेरा उत्तर इस प्रकार था "मुझे यह सोचकर आश्चर्य होता है कि क्या होगा यदि सारे विद्यालय एक वर्ष के लिये बन्द कर दिये जायें। यदि विश्व तब भी यदि चलता रहता है तो हमें विद्यालयों की आवश्यकता ही नहीं है। तब अधिक उन्मुक्त और बुद्धिमान होंगे। बस अभी और आज ही बन्द कर देते हैं सारे विद्यालय, स्थिति भयावह है।"
प्रवीण - सच है, इस शिक्षातन्त्र को नहीं ज्ञात है कि वे कितने स्टीव जाब्स, बिल गेट्स, रामानुजम और आइन्स्टीन का गला बचपन में ही घोंट दे रहे हैं।
दीप्ति - यह चर्चा बहुत अच्छी है पर मैं तनिक अलग सोचती हूँ। कल्पना करें कि यदि आप दोनों ने पढ़ाई नहीं की होती तो आज क्या कर रहे होते? मुझे तो कुछ भी सम्मानजनक व्यवसाय नहीं दिखता है, सिवाय व्यापार के। और व्यापार में भी यदि आप अम्बानी नहीं हैं तो आपको कोई नहीं पूछता है। निश्चय ही हमारे समय में परवरिश के आयाम बदल रहे हैं पर मुझे फिर भी संशय है कि ऐसी परिस्थितियों में भी हम अपने माता पिता से भिन्न कोई निर्णय लेते।
प्रवीण - दीप्ति, यह एक वृहद विषय है और आलोक के कथन को एक बड़े परिप्रेक्ष्य में लेना होगा। बच्चों के लिये सीखना किसी ने मना नहीं किया, श्रेष्ठता प्राप्त करना भी मना नहीं है। सर्वाधिक चिन्ता का विषय है वह पद्धति जिसके माध्यम से शिक्षा दी जाती है। यह प्राकृतिक विकास और सीखना बाधित करती है।
मोहित - मेरा अनुभव दोनों तरह का रहा है, पश्चिमी भी और भारतीय भी। कक्षा ५ तक कान्वेन्ट में पढ़ा हूँ। जिस कक्षा में पढ़ते थे, एक सप्ताह में वहाँ उतने ही घंटों का गृहकार्य दिया जाता था। जैसे कक्षा ४ में केवल ४ घंटा। सप्ताह में ५ दिन पढ़ाई, अर्थात दिन में ४८ मिनट। सप्ताहान्त में कोई गृहकार्य नहीं। ६ से १२ तक स्थानीय विद्यालय में पढ़ा, अंक और स्थान आ जाने से प्रतियोगिता बढ़ गयी, अधिक पढ़ना पड़ा। अब लग रहा है कि प्रतियोगिता प्राइमरी में भी पहुँच गयी है, जिसने बच्चों के ऊपर बोझ बढ़ा दिया है। फिर भी विश्व फलक पर विश्वास से कह सकता हूँ कि हमारे विद्यार्थी कहीं अच्छे हैं।
आलोक - मोहित, तुम्हारे अवलोकनों से मैं पूर्णतया सहमत हूँ। हमें संतुलन बनाना होता है। हम इतनी तेजी से बदल रहे हैं, हमारे बच्चे न जाने कितने स्रोतों से जान रहे हैं, हमसे अच्छा जान रहे हैं। तो क्या हम उस अनुसार पढ़ाने की अपनी पद्धतियाँ बदल रहे हैं या तीन दशक पुराना पाठ्यक्रम पढ़ाकर उसमें ही जूझने को कहते रहते हैं। मुझे पढ़ाने का जितना भी अनुभव मिला, मैनें अभिभावकों से पूछा कि वे किसका स्वप्न जी रहे हैं? बच्चों से भी यही प्रश्न पूछा, पर उत्तर में सदा ही निराशा हाथ लगी। विडम्बना ही है कि जो बच्चे अपना स्वप्न जीना चाहते हैं तो सब उन्हें विद्रोही और नालायक कहने लगते हैं। उससे भी बड़ी बिडम्बना पर यह है कि जब वही बच्चे अच्छा कर स्वयं को स्थापित करते हैं तो सारा श्रेय वही माता पिता ले लेते हैं। यही हमारे जीवनचरित्र को उजागर करता है। बदलाव के साथ बदलते रहना सबको आता भी नहीं है। हो सकता है कि मैं कुछ अधिक कह गया हूँ, पर यह भावावेश व्यक्त करना आवश्यक था।
प्रवीण - हमारे शिक्षातन्त्र में बहुत कुछ करने की आवश्यकता है। मोहित को दोनों पद्धतियों का श्रेष्ठ मिला है, मैं कई उदाहरण जानता हूँ जिनको दोनों पद्धतियों के दोष ही मिले। शिक्षा एक हवाई जहाज की उड़ान जैसी हो, पर्याप्त ईंधन भी रहे ऊँचाई पर जाने के लिये और कोई अतिरिक्त भार भी न रहे ढोने के लिये, उन्मुक्त उड़ाने हों।
यहाँ वार्तालाप भले ही विश्राम पा गया हो पर विचार आयाम में आ गये, प्रवाह बहने लगा। स्वाभाविक भी है, कई प्रवाह मिलेंगे तो कुछ सार्थक धार आयेगी, नदी बनेगी, आने वाली पीढ़ियों रूपी खेतों को लहलहायेगी।