6.10.12

बच्चों की संस्कृति

अपनी संस्कृति पर गर्व होना स्वाभाविक है, पर सारा जीवन अपनी संस्कृति के एकान्त में नहीं जिया जा सकता है, अन्य संस्कृतियाँ प्रभावित करती हैं। पहले का समय था, संस्कृतियों के बीच का संवाद सीमित था, परस्पर प्रभाव सीमित था, जो बाहर जाते थे वे ही बाहर की संस्कृति के कुछ अंश ले आते थे, पर दूसरी संस्कृति में जीवन निभा पाने के समुचित श्रम के पश्चात। आज न जाने कितनी फुहारें बरसती हैं, बड़ा ही कठिन होता है, भीग न पाना। हर संस्कृति की एक जीवनशैली है, अपने सिद्धान्त हैं और उसमें पगी दिनचर्या। औरों की संस्कृति पहले तो रोचक लगती है, पर धीरे धीरे रोचकता हृदय बसने लगती है, हम औरों की संस्कृति के पक्ष अपना लेते हैं, अपनी सुविधानुसार, अपनी इच्छानुसार।

मुझे भी अपनी संस्कृति पर गर्व है, खोल पर नहीं, उसकी आत्मा पर है। कई कारण हैं उसके, वर्षों की समझ के बाद निर्मित हुये हैं वे कारण। बहुत कारण ऐसे हैं, जो सिद्ध न कर पाऊँ, समझा न पाऊँ, भावानात्मक हैं, बौद्धिक हैं, आध्यात्मिक हैं। आवश्यकता भी नहीं है कि उनके लिये तर्कों से श्रेष्ठता के महल निर्माण करूँ, अनुभवजन्य तथ्य तर्कों की वैशाखियाँ पर निर्भर भी नहीं रहते हैं। यह भी नहीं है कि मुझे अन्य संस्कृतियों से कोई अरुचि हो, जब खोल अनावश्यक हो जाते हैं तो तुलना करने के लिये बहुत कम बिन्दु ही रह जाते हैं। सिद्धान्तों की मौलिकता में किसी भी संस्कृति को समझना कितना सरल हो जाता है, कम समझना होता है तब, गहरा समझना होता है तब। कबिरा की 'मरम न कोउ जाना', यही पंक्ति पथप्रदर्शन करने लगती है। किसी संस्कृति का श्रेष्ठ स्वीकार करना ही उस संस्कृति का समुचित आदर है। खोल का ढोल पीटने वाले, न अपनी संस्कृति को समझ पाते हैं, न औरों की।

आज आधुनिक एक आभूषण बन गया है, पुरातन एक अभिशाप। भविष्य सदा ही अधिक संभावनायें लिये होता है, भूतकाल से कहीं अधिक मात्रा में, कहीं अधिक स्पष्टता में। पुरातन को अपने दोषों का कारण मान, सब कुछ उसी पर मढ़ हम हल्के हो लेते हैं, कोई भार नहीं, कोई अनुशासन नहीं, कोई नियम नहीं, उन्मुक्त पंछी से। यदि यही आधुनिकता के रूप में परिभाषित होना है, तब तो हम स्वयं को संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में कभी समझे ही नहीं। आधुनिकता और खुले विचार वालों ने अपनी स्वच्छन्दता के सीमित आकाश में संस्कृति की उस असीमित आकाशगंगा को तज दिया है, जिसमें हम सब सदियों से निर्बाध और आनन्दित हो विचरण करते रहे हैं।

संस्कृति की हमारी संकर समझ उस समय उभर कर सामने आ जाती है, जब हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे पाश्चात्य संस्कृति सीखें, उनकी तरह विकसित हों, उनकी तरह आत्मविश्वास से पूर्ण दिखें, पर घर की मान्यताओं, परम्पराओं और संस्कारों को अक्षुण्ण रखे। जो भी कारण रहा हो, भारतीय संस्कृति शापित रही हो या शासित रही हो, आधुनिक परिवेश में श्रमशीलता, अनुशासन और कर्मप्रवृत्तता भारतीय संस्कृति के अनुपस्थित शब्द रहे हैं। वानप्रस्थ और सन्यास वर्षों में अध्यात्म का संतोष और जीवन समेटने की चेष्टाओं को ब्रह्मचर्य और गृहस्थ में ही स्वीकार कर लेने से जो अकर्मण्यता हमारी जीवनशैली में समा गयी है, उसकी भी उत्तरदायी है संस्कृति के बारे में हमारी संकर समझ।

क्या करें, संस्कृति का सही अर्थ बच्चों को समझाने बैठें या उन्हें स्वयं ही समझने दें? कपाट बन्द करने से उसके कूप मण्डूक हो जाने का भय है, कपाट खोल देने से वाह्य संस्कृतियों के दुर्गुण स्वीकारने का भय? जब हमें चकाचौंध भाती है तो उन्हें भला क्यों न अच्छी लगेगी, क्या तब बच्चे लोभ संवरण कर पायेंगे? बहुत से ऐसे ही प्रश्न उठ खड़े होते हैं जब बच्चों का परिचय हम अन्य संस्कृतियों से करवाते हैं। क्या उपाय है, संस्कृति की आत्मा सिखायें, या खोल चढ़ा दें, या उसे स्वयं ही समझने दें? उत्तर तो पाने ही हैं, अनभिज्ञता हर दृष्टि से घातक है। बहुत बार बस यही लगता है कि जो भी सिखाना हो, जो भी श्रेष्ठ हो, उसे स्वयं के जीवन में उतार लीजिये, बच्चे समझदार होते हैं, सब देख देखकर ही समझ लेते हैं।

एक मित्र के बारे में कहना चाहूँगा, वह पूर्ण नास्तिक, कारण बड़ा रोचक है पर। बचपन में अपने पिता को देखता था, बहुत अधिक पूजा पाठ करते थे, धार्मिक थे। भ्रष्टाचार का धन और परिवारजनों, विशेषकर पत्नी के प्रति अप्रिय व्यवहार। यह विरोधाभास उसको कभी समझ न आया, उसे लगा कि इस विरोधाभास का स्रोत धर्म ही हो, किसी से कभी कुछ नहीं कहा, बस वह ईश्वर से रूठ गया, जीवन भर के लिये नास्तिक हो गया। देखा जाये तो हमारा जीवन ही बच्चों के लिये हमारी संस्कृति का जीवन्त उदाहरण है, वही पर्याप्त होता है बस, प्रभावित करने में शब्द आदि निष्प्राण हो जाते हैं, अन्त में व्यवहार ही अनुसरणीय हो जाता है।

पाश्चात्य समाज में बच्चे अधिक स्वतन्त्र होते हैं, विकास के लिये एक आवश्यक गुण है यह। अपने जीवन के दो महत्वपूर्ण निर्णय स्वयं करते हैं वे, जीवन यापन कैसे करना है और जीवन यापन किसके साथ करना है? हम अपनी संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में देखेंगे तो संभवतः हजम न कर पायें, पर उनके लिये यह स्वाभाविक व्यवहार है। यदि आप चाहेंगे कि आपके बच्चे भी उनकी तरह स्वतन्त्र बने या स्मार्ट बने, तो उन्हें बचपन से ही अपने निर्णय लेने के लिये उकसाना होगा। तब निर्णयों में मतभेद भी होंगे, कई बार मर्यादा दरकती हुयी सी लगेगी। जो बच्चे आपके निर्णयों से सहमत न हो अपना पंथ सोचने लगते हैं, उन्हें बागियों की उपाधि मिल जाती है। जो बच्चे आपके निर्णयों से असहमत होकर कार्यों में रुचि खो देते हैं और अनमने हो जाते हैं, उन्हें आप नकारा की संज्ञा से सुशोभित कर देते हैं। स्वतन्त्र दोनों ही होते हैं, जीवन अपना दोनों ही जीते हैं, बहुधा अपने कार्य में अत्यधिक सफल भी रहते हैं, पर समाज की दृष्टिकोण से आदर्श बच्चे नहीं कहे जाते हैं।

माना कि पाश्चात्य दृष्टिकोण में बहुत दोष हैं, आध्यात्मिक आधार पर भारतीय संस्कृति कहीं उन्नत है, सामाजिक संरचना और संबंधों के निर्वाह में हमारा समाज अधिक स्थायी है, एक कष्ट पर दसियों हाथ सहायता करने को तत्पर रहते हैं। तो क्या हम भौतिकता की आधारभूत आवश्यकताओं पर भी ध्यान न दें, सन्तोष की चादर ओढ़ अपने सांस्कृतिक वर्चस्व के स्वप्न देखें? पृथु के पास एक मोटी पुस्तक है, टॉप टेन ऑफ ऐवरीथिंग, उसमें वह देखता है कि अपना देश विकास के मानकों के आधार पर पाश्चात्य देशों के सामने कहीं नहीं टिकता है, पूछता है कि हम सबमें पीछे क्यों हैं? क्या उसको यह बताना ठीक रहेगा कि विवाह तक तो यहाँ का युवा अपने हर निर्णय के लिये अपने बड़ों का मुँह ताकता रहता है, यौवन भर औरों के द्वारा प्रायोजित और संरक्षित जीवन जीता है, प्रौढ़ होते ही असहाय हो अन्त ताकने लगता है और आध्यात्मिक हो जाता है। कब उसे समय मिलता है अपने स्वप्न देखने का, उन्हें साकार करने का? संभावित ऊर्जा सदा ही संभावना बनी रहती है, कोई आकार नहीं ले पाती है।

हम इस भय में जीते रहते हैं कि हमें अपने बच्चों और आने वाली पीढ़ी के लिये सुविधामयी जीवन संजो के जाना है, वही भय हमारे बच्चों में मूर्तरूप ले जी रहा है। सब के सब सधे भविष्य की ओर भागे जा रहे हैं, स्थापित तन्त्रों के सेवार्थ, उन तन्त्रों में जुत जाना चाहते हैं जो विश्व में बहुत नीचे हैं। हजारों की एक ऐसी सेना तैयार हो जिनके मन में दिवा स्वप्न हों, श्रेष्ठतम और उत्कृष्टतम पा जाने की उद्दाम ललक हो, हर ऐसे क्षेत्र में देश को स्थापित करने का विश्वास हो जिनके लिये हम जीभ लपलपाते रहते हैं। इस तरह की शक्ति तो एक दिन में चमत्कारस्वरूप मिलने से रही, बच्चे रोजगार ढूढ़ने में लगे रहे तो रोजगार के अतिरिक्त कुछ पा भी नहीं पायेंगे, देश में नहीं मिलेगा तो विदेश सरक जायेंगे।

हमारा देश सर्वाधिक युवा देश है, कारण है कि बच्चे अधिक हैं। अब दो विकल्प हैं, या तो बच्चों को अतिसंरक्षित जीवन जिलाते रहें और भविष्य में जब प्रतियोगिता की मारकाट अपने चरम पर होगी, उन्हें उन पर ही छोड़ दिया जाय, भाग्य के भरोसे। एक पतले रास्ते पर भला कितने लोग चल पायेंगे? दूसरा विकल्प यह है कि अपने बच्चों को दृढ़ और सशक्त बनायें जिससे न केवल वे अपनी राह गढ़ेंगे वरन न जाने कितनों को अपने साथ लेकर चलेंगे।

निर्णय आपको करना है कि बच्चों के निर्णय कौन लेगा? निर्णय आपको करना है कि बच्चों की संस्कृति क्या हो? निर्णय आपको करना है कि संस्कृतियों के बन्द किलों में ही बच्चे रहें या सबके ऊपर उड़ें, आसमान में? निर्णय आपको करना है कि संस्कृति को बचाये रखने वाले बचे रहें और संस्कृति को बचाये रखे या संस्कृति में सिमटे हुये विश्वपटल से अवसान कर जायें? भविष्य के निर्णय तो आज के बच्चे लेंगे, पर उन्हें इस योग्य बनाने के निर्णय आपको लेने हैं, आज ही।

62 comments:

  1. प्रवीण जी !बहुत बारीक मुद्दा उठाया है इस मर्तबा .गहन और व्यापक विमर्श माँगता है .मैं अपनी बात कहने के लिए सिर्फ जो देख रहा हूँ वह बतलाऊँगा .आजकल छोटी बिटिया के पास स्टेट्स में हूँ .गत दिनों मौज मस्ती के लिए ट्रेवर्स सिटी (मिशिगन राज्य का एक मिनी हिल स्टेशन जैसा )में थे .बच्चे पीज़ा ही खाना चाहते थे .ढूंढते हुए पहुंचे .वहां का नज़ारा बड़ा आकर्षक था .हमारे सामने वाली टेबिल पर एक अँगरेज़ दम्पति बैठे थे .साथ में उनका बा -मुश्किल एक साला शिशु भी हाई सीट पे बैठा हुआ था .डाइनिंग सीट पे ही तमाम चीज़ें माँ बाप ने रख दीं थीं . .शिशु स्वयं खा रहा था .इधर उधर बा -कायदा देख भी रहा था साक्षी भाव से .

    हमारे धेवते दोनों (५ +,और ७+)फसाद ज्यादा कर रहे थे .खाने पे इनका फोकस था ही नहीं .कभी होता भी नहीं हैं .ये वर्चुअल वर्ल्ड के राही हैं .स्कूल बस आने तक वी गेम्स लौट के आने के बाद भी वी गेम्स .उस दरमियान इनके मुंह में कुछ डाल दो खा लेतें हैं .खुद खाने में न दिलचस्पी है न पहल .उधर मुंबई में मेरे दो पोते हैं .उन्हें जिज्ञासा रहती है आप क्या खा या पी रहें हैं .वर्चुअल वर्ल्ड से वे भी जुड़ें हैं .वह देखते हैं लव खुश सीरियल .बार बार .याद भी हो गया हैउन्हें . दोनों शैलियों में ये खातें हैं .स्वत :अपने आप अपने हाथ से भी मैड या माँ के हाथ से भी .



    आज वर्चुअल वर्ल्ड ज्यादा सिखा रहा है .मुझे ऐसा लगता है .घर से बाहर जोग (इंग )करते वक्त भी आईपोड की दुनिया से जुड़े होतें हैं बच्चे .अपने आस पास से जुड़ने के लिए उन्हें कान से ईअर फोन निकालना पड़ता है .ऐसे में आप कब क्या सिखाइएगा ?

    (ज़ारी )

    ram ram bhai
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    शनिवार, 6 अक्तूबर 2012
    चील की गुजरात यात्रा

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  2. अच्छा विश्लेषण|अधिकतर हम लोग 'helicopter parenting'करते हैं जो पूर्णतया गलत है|बच्चों के द्वारा स्वयं लिए गए निर्णय बड़े रोचक , सरल और बिलकुल ही नई सोच लिए हुए होते हैं | प्रश्न चिन्ह लगाते प्रसंग तो दो ही हैं जीवन के , "जीवन यापन कैसे और किसके साथ" , इसकी स्वतंत्रता तो निश्चित तौर पर बच्चों को होनी चाहिए |

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  3. मित्र ! पांडे जी ज्यों ब्लॉग खोला आपका लेख नजर आया ,तन्मयता से पढ़ने लगा l जिस उथल -पुथल की, उद्वेग की,पीड़ा को आपने व्यक्त किया है ,प्रशंसनीय है l हमारे दार्शनिकों ने शंसय की बात तो की ,परन्तु जन्म के पूर्व से मृत्यु के बाद तक जीव को,शंसय से मुक्त नहीं होने दिया l अपनी उच्चता को कायम रखने के लिए ,उच्चता को प्राचीरों में कैद करना यथार्थ नहीं ,अपने मानदंडों को स्वीकार्य व सामायिक ,सार्वभौम बनाना आवश्यक है ,जिसको हमने नहीं किया l निरर्थक खोल को बनाये रखा है ,आपके आलेख में पाया की " हम अपने बच्चों को निर्णय का अधिकार ही कहाँ दिया है l बिलकुल सत्य है पूर्व के नियम उप-नियम में पला गया ,यौवन तक अंकुशों की देख -रेख ,शेष जो पाया अपनी पीढ़ी को संयत ,निर्देशित करने में l यह थोपी गयी शापित परंपरा आज के प्रतिस्पर्धात्मक ,सार्वत्रिक परिवेश में जहाँ मानदंडों का खुला पारदर्शी प्रक्षेत्र स्थापित है ,खरी नहीं उतरती l हम आत्म मुग्ध हो लें ,पर शापित परिदृश्य साथ नहीं छोड़ता ,विश्व के किसी भी हिस्से में वह दुर्दिन नहीं है ,जो हमारी वैचारिकता में है .....आत्म विस्वास के विलोपन से ,शंसय स्थान लेता है l तर्कों के आड़ में यथार्थ बदलने का दंश आज तक झेल रहे हैं l लगभग १२४ साल के ओलम्पिक के इतिहास में लगभग २६ मेडल की हमारी उपलब्धि है l ....अंततः आपको धन्यवाद देते हुए इस आलेख की भूरी -२ प्रशंसा करते हुए .....बच्चे तो प्रश्न करेंगे ही ,मैंने भी यही प्रश्न अपनों से किया था ....आज बच्चे हम से ,समाज से कर रहे हैं .....जो नैतिक व स्वाभाविक है l

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    1. वैसे मेडल लेकर करोगे क्या, क्या तीर मार लोगो ... ---देश के पास सबके लिए खाने के लिए तो है नहीं...

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  4. बच्‍चों को बस खाद-पानी और थोड़े वातावरण की जरूरत होती है.

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  5. बच्चे परिवार से जुड़े रहें...

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    1. और परिवार स्वयं आदर्श का पालन करें ....

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  6. बहुत ही सुंदर चिंतन ....प्रत्येक अभिभावक के लिए समय निकालकर सोचने योग्य हैं सारी बातें ... बच्चों पर कुछ भी थोपने के बजाय स्वतंत्र रूप से विकसित होने का परिवेश उपलब्ध करवाना ज़रूरी है .....

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  7. स्वधर्मः मरणं श्रेष्ठः पर धर्मो भयंकर:

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    1. क्या बात है अरविंद जी ...सही कहा पर प्रश्न यह है कि क्या हम स्वयं अपने धर्म का उचित पालन कर रहे हैं ताकि बच्चों को आदर्श-सीख मिले....

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  8. Gahan chintan ka vishay hai ye..shaayad punah jaagne ka samay aagayaa hai..aakhir ek hi dharre pe kabtak chalenge..bachchon ko to kam se kam aankhein kholne dena chaahiye apne mann ki aur haath badhaa ke chhoone dene ko prerit karna hoga naye aayaam..thopna nahi chaahiye...lekin ye chetna kya aaegi..kya itna aasaan hai ?

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  9. 'संकर-संस्कृति'क्या सही नाम दिया है ! वास्तव में यह 'संकर-मानसिकता' है जो बिना कुछ जाने-समझे अंधी दौड़ में हम सब भागे जा रहे हैं .
    ...फ़िर भी हंस की तरह 'नीर-क्षीर विवेक' से हम इससे उबर सकते हैं !

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    1. सत्य कहा संतोष जी..... और यह नीर-क्षीर विवेक ..संकर मानसिकता से परे हट कर..स्व-सांस्कृतिक मानसिकता से ही आयेगी ...

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  10. बच्चों को अतिसंरक्षण में रखना उनके पंख काटने के समान है ... संस्कृति समझाई नहीं जा सकती .... अपने व्यवहार से बच्चों में पैदा की जा सकती है ..... बहुत खूबसूरती से आपने इस विषय पर लेख लिखा है और छोड़ दिया है सोचने के लिए कि अब निर्णय आपको लेना है ... साधुवाद

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  11. progressive changes are never bad...
    acquiring good things from diff religious ideologies won't do any harm... you highlighted this point very nicely

    One of the best read :)

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  12. करें गर्व ना खोल पर, बल्कि आत्मा शुद्ध |
    सांस्कृतिक मन आत्मा, कहें प्रवीन प्रबुद्ध |
    कहें प्रवीन प्रबुद्ध, खोल दें ज्ञान पिटारा |
    बच्चों की संस्कृति, आधुनिक बंटा-धारा |
    चिंता में हम साथ, हाथ पर हाथ धरें ना |
    चिन्तक करें विचार, कार्य हम सभी करें ना !!

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  13. उत्कृष्ट प्रस्तुति का लिंक लिंक-लिक्खाड़ पर है ।।

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  14. देखा जाये तो हमारा जीवन ही बच्चों के लिये हमारी संस्कृति का जीवन्त उदाहरण है, वही पर्याप्त होता है बस, प्रभावित करने में शब्द आदि निष्प्राण हो जाते हैं, अन्त में व्यवहार ही अनुसरणीय हो जाता है।

    सबको साथ लेकर चलना ही संस्कृति और बच्चों के विकास के लिये जरूरी है ।

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  15. बहुत ही सुन्दर ,सारगर्भित और वैचारिक आलेख |आभार

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  16. उड़ान के साथ साथ धरातल का भी एहसास सजग रहे

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  17. सुंदर चिंतन ..सारगर्भित और वैचारिक आलेख ...आभार..

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  18. भविष्य के निर्णय तो आज के बच्चे लेंगे, पर उन्हें इस योग्य बनाने के निर्णय आपको लेने है
    बेहद सशक्‍त भाव लिये हर शब्‍द अपने आप में एक प्रेरक भाव लिए हुये ... आभार इस उत्‍कृष्‍ट आलेख के लिए

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  19. सारगर्भित लेख |
    आशा

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  20. आधुनिकता की आड़ में...मान्यताएँ तेज़ी से बदल रही है ||

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    1. आधुनिकता तो अवश्यम्भावी है...प्रगति तो प्रकृति का नियम है....आवश्यकता है पहले स्व-संस्कृति को समझें तत्पश्चात अन्य संस्कृतियों को जानें ..और उचित निर्णय लें ...

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  21. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (07-10-2012) के चर्चा मंच पर भी की गई है!
    सूचनार्थ!

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  22. "जो भी सिखाना हो, जो भी श्रेष्ठ हो, उसे स्वयं के जीवन में उतार लीजिये, बच्चे समझदार होते हैं, सब देख देखकर ही समझ लेते हैं।"

    यही सर्वोत्तम स्थिति है, लक्ष्यलब्ध है।

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  23. आज की मूल समस्या बस यही है कि लोग खोल पर गर्व करने लगे है पाश्चात्य सभ्यता क़ी. सम्यक विचार .

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  24. भविष्य का निर्णय तो बच्चे लेगें,लेकिन इस योग्य बनाना हमारा कर्तव्य है,,,,,,उत्‍कृष्‍ट आलेख,,,,

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  25. देखा जाये तो हमारा जीवन ही बच्चों के लिये हमारी संस्कृति का जीवन्त उदाहरण है, वही पर्याप्त होता है बस, प्रभावित करने में शब्द आदि निष्प्राण हो जाते हैं, अन्त में व्यवहार ही अनुसरणीय हो जाता है।
    स्वयं का आचरण और व्यवहार ही बच्चों को सब सिखाता है ...!!घर के माहौल से बच्चे ज्यादा सीखते हैं ...जितना समय माँ-बाप बच्चो को देते हैं बच्चों की मानसिकता उतनी ही स्वस्थ होती है ...!!

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  26. संतुलन जरूरी है।

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  27. मेरे बेटे ने अभी 12वीं की विज्ञान के साथ। अब प्रश्न था आगे का। पूछने पर उत्तर था विज्ञान नहीं पढ़ना। मैने हर क्षेत्र से जुड़ी सम्भावनायें उसके सामने रखी और निर्णय उसी पर छोड़ दिया। और अन्त में सी ए करने का निर्णय उसने किया। यही सोच कर भविष्य उसका है, पढ़ना उसे है।

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    1. यदि बाद में उसे सी ए करने पर मलाल होगा तब भी यही कहेगा कि उसे बड़ों से उचित दिशा निर्देश नहीं मिला ...मैं तो अनुभवी था नहीं ....

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  28. .
    .
    .
    पृथु के पास एक मोटी पुस्तक है, टॉप टेन ऑफ ऐवरीथिंग, उसमें वह देखता है कि अपना देश विकास के मानकों के आधार पर पाश्चात्य देशों के सामने कहीं नहीं टिकता है, पूछता है कि हम सबमें पीछे क्यों हैं? क्या उसको यह बताना ठीक रहेगा कि विवाह तक तो यहाँ का युवा अपने हर निर्णय के लिये अपने बड़ों का मुँह ताकता रहता है, यौवन भर औरों के द्वारा प्रायोजित और संरक्षित जीवन जीता है, प्रौढ़ होते ही असहाय हो अन्त ताकने लगता है और आध्यात्मिक हो जाता है। कब उसे समय मिलता है अपने स्वप्न देखने का, उन्हें साकार करने का? संभावित ऊर्जा सदा ही संभावना बनी रहती है, कोई आकार नहीं ले पाती है।
    हम इस भय में जीते रहते हैं कि हमें अपने बच्चों और आने वाली पीढ़ी के लिये सुविधामयी जीवन संजो के जाना है, वही भय हमारे बच्चों में मूर्तरूप ले जी रहा है। सब के सब सधे भविष्य की ओर भागे जा रहे हैं, स्थापित तन्त्रों के सेवार्थ, उन तन्त्रों में जुत जाना चाहते हैं जो विश्व में बहुत नीचे हैं। हजारों की एक ऐसी सेना तैयार हो जिनके मन में दिवा स्वप्न हों, श्रेष्ठतम और उत्कृष्टतम पा जाने की उद्दाम ललक हो, हर ऐसे क्षेत्र में देश को स्थापित करने का विश्वास हो जिनके लिये हम जीभ लपलपाते रहते हैं। इस तरह की शक्ति तो एक दिन में चमत्कारस्वरूप मिलने से रही, बच्चे रोजगार ढूढ़ने में लगे रहे तो रोजगार के अतिरिक्त कुछ पा भी नहीं पायेंगे, देश में नहीं मिलेगा तो विदेश सरक जायेंगे।


    एक दुखती रग पर हाथ रख दिया है आपने... मुझे कभी कभी बहुत हैरानी होती है कि एक महान व परिपक्व संस्कृति के ध्वजवाहक होने का दावा करने वाले हम इस तरह का बर्ताव क्यों करते हैं जैसे हम संक्रमण के दौर से गुजर रहे हैं... हम हमेशा क्यों इस भय में जीते रहते हैं कि हमें अपने बच्चों और आने वाली पीढ़ी के लिये सुविधामयी जीवन संजो के जाना है... क्या हम अपने बच्चों की क्षमताओं के प्रति आश्वस्त नहीं... 'मन में दिवा स्वप्न, श्रेष्ठतम और उत्कृष्टतम पा जाने की उद्दाम ललक, हर क्षेत्र में देश को स्थापित करने का विश्वास'... मुझे तो नहीं ही दिखता यह कहीं भी आसपास किसी में... 'बड़ी गाड़ी, बंगला, कार और मोटा बैंक बैलेंस'... यही सपना है हम सबका, इसीलिये रोजगार ही अंतिम लक्ष्य भी...


    ...

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  29. मैंने, भा. और पा., दोनो संस्कृतियों को पास से देखा है .जो लगा वह प्रस्तुत है-
    हमारे यहाँ अनुशासन है बड़ों की बात को मानना ,जो वे कहें उचित समझ कर स्वीकार कर लेना .सामाजिक क्षेत्र में 'बच्चा है' कह कर वे नियमों को उनके लिये शिथिल कर देते हैं .जब कि बचपन से ही उन्हें मानने की आदत डलवाना उचित है.इसीलिये मौका लगते ही हमारे यहाँ लोग भी नियम-भंग करने में कुशल हैं(हर क्षेत्र मे दिखाई देता है).आत्म-नियंत्रण शिथिल है.उचित-अनुचित के विषय में बचपन से सजग होने लगें तो उनका आत्म-विश्वास भी बढ़े .
    दोनो ओर कुछ कमियाँ और कुछ अच्छाइयाँ हैं -लंबा नहीं खींचूँगी .

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  30. विभिन्न संस्कृतियों के अपने गुण धर्म है ...बस हम बच्चो को यह सिखा सकते कि सार-सार को गहि रहै थोथा दे उडाय!

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  31. कबिरा (....कबीरा ......?)की 'मरम न कोउ जाना', यही पंक्ति पथप्रदर्शन करने लगती है।

    बच्चे वर्चुल वर्ल्ड से ज्यादा जुड़ रहें हैं इसका मतलब यह कदापि नहीं हैं हम अपना रवैया उनके प्रति बदल लें .टेक्नोलोजी तो अब बच्चे कपड़े



    लत्तों की तरह ओढ़े चलतें हैं सब जगह .घर स्कूल सड़क वाहन .लेकिन उनका देखना प्रेक्षण लेते रहना ज़ारी रहता है आसपास से अपने

    निकटतम परिवेश घर से ही वह सर्वाधिक ग्रहण करते हैं .हमारा कुछ न कुछ अंश उनमें जाएगा ही .अलबत्ता संस्कृति कोई लादने की चीज़ नहीं है .सहज संजोई जाए है .देखा देखी .

    ram ram bhai
    मुखपृष्ठ

    रविवार, 7 अक्तूबर 2012
    कांग्रेसी कुतर्क

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  32. गहनता से निर्णायक सोच विकसित करता आलेख..

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  33. बच्चों में हर तरह की योग्यता और सही निर्णय लेने की क्षमता विकसित करने का काम माता पिता का ही है.

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    1. ---सही यही है रचना जी...
      एक उम्र तक आज्ञार्थ दिशानिर्देश....फिर समझाकर तर्काश्रित निर्देश ...तत्पश्चात अदाहरण प्रस्तुत करके दिशावाहकता ...

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  34. सटीक आलेख ... आभार !


    दुर्गा भाभी को शत शत नमन - ब्लॉग बुलेटिन आज दुर्गा भाभी की ११० वीं जयंती पर पूरी ब्लॉग बुलेटिन टीम और पूरे ब्लॉग जगत की ओर से हम उनको नमन करते है ... आपकी यह पोस्ट भी इस प्रयास मे हमारा साथ दे रही है ... आपको सादर आभार !

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  35. बहुत बार बस यही लगता है कि जो भी सिखाना हो, जो भी श्रेष्ठ हो, उसे स्वयं के जीवन में उतार लीजिये, बच्चे समझदार होते हैं, सब देख देखकर ही समझ लेते हैं।---बहुत प्रभाव शाली एवं सार्थक पंक्तियाँ अपनी संस्कृति की अच्छी बातों का यदि हम अनुसरण करेंगे तो बच्चे स्वतः ही सीख जायेंगे दूसरी बात मैं मानती हूँ की बच्चों को उड़ने की स्वतंत्रता तो दें पर वो अपने पंख घायल होने से से कैसे बचें इसका अहसास या इसकी सीख हमें उनको देनी है बहुत- बहुत शानदार आलेख है शब्द कम पड़ रहे हैं तारीफ के लिए |प्रवीण जी एक परामर्श आलेख की रोचकता बनाये रखने के लिए इससे ज्यादा लम्बा मत करना|माफ़ी चाहूंगी यदि परामर्श ठीक नहीं लगा |

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  36. हर बच्चा हम बड़ों को कुछ सिखाने के लिए जन्म लेता है...!
    बस,थोड़ा सा दृष्टिकोण में परिवर्तन लाने की ज़रूरत है कि हम उन्हें सिखाते हुए खुद भी उनसे सीखते जाएँ..!!

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  37. हमारा आचरण ही हमारे बच्‍चों को हमारी संस्‍कृति के दर्शन कराता है।

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  38. -----सुन्दर विवेचनात्मक आलेख है ...कुछ बिंदुओं को रखना चाहूँगा...
    १-"भविष्य सदा ही अधिक संभावनायें लिये होता है, भूतकाल से कहीं अधिक मात्रा में, कहीं अधिक स्पष्टता में"
    --- भूतकाल में संभावनाएं कहाँ, उदाहरण होते हैं और वे भविष्य के लिए दिशा निर्देश भी बनाते हैं ...अस्पष्टता दोनों में ही होती है..
    २-हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे पाश्चात्य संस्कृति सीखें, उनकी तरह विकसित हों, उनकी तरह आत्मविश्वास से पूर्ण दिखें, पर घर की मान्यताओं, परम्पराओं और संस्कारों को अक्षुण्ण रखे।..
    --- इसमें अन्यथा क्या है . यही तो होना चाहिए यही तो सच्चे अर्थों में आधुनिकता व आत्म-विश्वास है ..
    ३-आधुनिक परिवेश में श्रमशीलता, अनुशासन और कर्मप्रवृत्तता भारतीय संस्कृति के अनुपस्थित शब्द रहे हैं।
    --- वस्तुस्थिति इतर है यह सब पाश्चात्य जीवन में अत्यधिक है परन्तु क्यों वहाँ प्रायः स्कूली बच्चे गोली-पिस्टल चलाते हुए मिलते हैं...वास्तव में भारतीय संस्कृति से ये शब्द गायब नहीं हैं अपितु भारतीय संस्कृति का चलन ही गायब हुआ है...
    ४-"वानप्रस्थ और सन्यास वर्षों में अध्यात्म का संतोष और जीवन समेटने की चेष्टाओं को ब्रह्मचर्य और गृहस्थ में ही स्वीकार कर लेने से जो अकर्मण्यता हमारी जीवनशैली में समा गयी है, उसकी भी उत्तरदायी है संस्कृति के बारे में हमारी संकर समझ।
    --- बिल्कुस सही कहा --- संस्कृति की संकर समझ ही हमें अपनी संस्कृति से दूर रखकर लुभावनी संस्कृति को अपनाने को विवश करती है...वानप्रस्थ व संन्यास का अर्थ एवं उसकी प्रारंभिक तैयारी तो पहले से हे करनी पड़ेगी ....अकर्मण्यों की बात और है वे तो प्रारम्भ से ही किसी भी आश्रम को नहीं मान पाते...
    ५- सत्य तो यह है कि हम बच्चों को भारतीय संस्कृति के बारे में ज्ञान देते ही नहीं ...सिर्फ विदेशी लोगों द्वारा कुप्रचारार्थ लिखी गयी बातों को अंग्रेज़ी की और विदेशी पुस्तकों में ही बच्चों को पढने देते हैं अतः वे बिना भारतीयसंस्कृति जाने ही लुभावनी बातों पर बहक जाते हैं.....

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  39. --- भारतीय कर्म व अध्यात्म के समन्वय का भाव है---
    विध्यांच अविद्या यस्तत वेदोभय सह ,
    अविद्यया मृत्युन्तीर्त्वा, विद्यया अम्रितंनुश्ते | --ईशोपनिषद |

    -- अविद्या ( अर्थात भौतिक सांसारिक कर्म व प्रगति ) एवं विद्या (आत्मिक, दार्शनिक, ईश्वरीय, स्व-को जानने की, सुचरित्रता व आचरण को जानने व मानने की)दोनों को साथ साथ जानना चाहिए |
    अविद्या अर्थात सांसारिक ज्ञान से मृत्यु पर विजय अर्थात जीवन को वास्तव जीना एवं विद्या से अमृत अर्थात आत्म-शांति,संतोष(-जीवन को उचित प्रकार से जीने का-मोक्ष)प्राप्त करना चाहिए |
    ---यही वास्तविक जीवन शैली हम स्वयं अपनाएं तो निश्चय ही बच्चे अनुकरण करेंगे ...

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  40. निर्णय आपको करना है कि संस्कृतियों के बन्द किलों में ही बच्चे रहें या सबके ऊपर उड़ें, आसमान में? बहुत अच्छा प्रश्न है। बैरागी जी ने सही कहा है।ाच्छी बात किसी भी सम्स्कृ्ति की हो अपना लेनी चाहिये और अपनी जो आज के सम्दर्भ मे खरी न उतर रही हों छोड देनी चाहिये।

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  41. विकास का बीज इसी उम्र में बोया जाता है...सुन्दर आलेख

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  42. जटिल प्रश्न है यह...सरलीकरण नहीं हो सकता इसका...

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  43. किसी संस्कृति का श्रेष्ठ स्वीकार करना ही उस संस्कृति का समुचित आदर है। खोल का ढोल पीटने वाले, न अपनी संस्कृति को समझ पाते हैं, न औरों की।

    विवेचनात्मक सटीक आलेख है.

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  44. bahut hi sahi mudde aapne uthaye hai vicharniya post.

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  45. बहुत बेहतरीन आलेख- सटीक विश्लेषण!! अच्छा मुद्दा लिया.

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  46. Bahut achche Praveen ji....every guardian should know about this.

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  47. बस इतना ही समझना है कि परिवारमूलक संस्‍कृति को अपनाए या व्‍यक्तिमूलक संस्‍कृति को। केवल स्‍वयं का ही विकास करें या सभी को साथ लेकर चले।

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  48. आज एक छोर पर सभ्यताओं के संघर्ष का शोर है दूसरे पर सेकुलर और साम्प्रदायिक लेवलिंग .भारतीय संस्कृति भले सर्वसमावेशी सर्व -ग्राही रही है लेकिन आज फ़िल्टर लगाने और उससे बच्चों को बा -वास्ता करवाने की पहले से ज्यादा ज़रुरत है यह दुष्प्रचार का युग है .एक दूसरे से ज्यादा भ्रष्ट होने का दौर है .बच्चे वही सीखेंगे जो हम उन्हें करके दिखाएंगे ,बच्चे बन्दर एक समान दोनों में अनुकरण की गजब की प्रवृत्ति होती है .संभलना हमें होगा .

    एक मर्तबा मुंबई में क्रोसिंग पर थे .छोटी छोटी सड़कें हैं वहां .छोटा सा चौराहा था .एक कुकिंग गैस का हथठेला लाल बत्ती की लाइन से बस थोड़ा सा आगे निकल आया .वह क्या निकला बे -चारे से वजन कंट्रोल न हुआ ,पहिया थोड़ा सा आगे आगया .मैम जो गाडी चला रही थीं -जोर से चिल्लाईं -हरामजादा गाड़ी उनसे खुद कंट्रोल न हुई गाली निकाल दी बेचारे गरीब को .

    हमारा पांच साला पोता बोला मम्मी आपको उसे गाली थोड़ी न देनी चाहिए थी .असल बात यह है जो भाषा हम घर में बोलेंगें परस्पर बच्चे वही सीखेंगे .

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  49. आपके इस खूबसूरत लेख को कल हिंदी के अखबार में पढ़ा बहुत सुन्दर और सही दृष्टिकोण से लिखी गई रचना है सच है कि बच्चो को अपने निर्णय लेने देने चाहिए पर कभी - कभी दुनियां की भीड़ में खो न जाने सोचकर दिल घबरा जाता है और कुछ न कहने पर भी बार २ उन्हें कहना पढता है |

    निर्णय आपको करना है कि बच्चों के निर्णय कौन लेगा? निर्णय आपको करना है कि बच्चों की संस्कृति क्या हो? निर्णय आपको करना है कि संस्कृतियों के बन्द किलों में ही बच्चे रहें या सबके ऊपर उड़ें, आसमान में? निर्णय आपको करना है कि संस्कृति को बचाये रखने वाले बचे रहें और संस्कृति को बचाये रखे या संस्कृति में सिमटे हुये विश्वपटल से अवसान कर जायें? भविष्य के निर्णय तो आज के बच्चे लेंगे, पर उन्हें इस योग्य बनाने के निर्णय आपको लेने हैं, आज ही।

    अब देखो न आखिर में आप भी हमारे लिए कई सवाल छोड़ गए पर एक खूबसूरत व्याख्या के साथ | खूबसूरत पोस्ट एक शशक्त सोच के साथ |

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  50. आप के विचार अच्छे लगे.

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  51. आपने प्रश्न तो अति महत्वपूर्ण उठाया है.
    मेरी दृष्टि में जीवन दोनों के मध्य में है.पाश्चात्य का शिखर हो और भारतीय संस्कृति की नीव, तभी एक संतुलन बनेगा जो सर्वांगीन विकास की ओर ले जायेगा.

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  52. संतुलन ही जवाब है । संतुलन संस्कृति और स्वतंत्र सोच के बीच । उडान और घर लौटने की राह के बीच ।

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  53. अभिभावकों को अपने बच्चों में सिर्फ सही निर्णय लेने की विकसित करनी चाहिए और उस निर्णय को विभिन्न परिप्रेक्ष्य में आकलन करना भी .....

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  54. हिन्दी के ब्लॉगों की डाइरेक्टरी संकलित करने के प्रयास में हम पहुँच गए आपके ब्लॉग पर भी। बहुत अच्छा काम कर रहे हैं आप जैसे कुछ लोग हिन्दी में ब्लॉगिंग के माध्यम से संवाद को बढ़ावा देने का। आपकी बच्चों की संस्कृति पर छेड़ी गई इस बहस में भी काफी लोगों ने अपने विचार रखे हैं।
    ‘इंडियनटॉपब्लॉग्स’ हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ ब्लॉगों की डाइरेक्टरी संकलित करने जा रहा है, सर्वश्रेष्ठ भारतीय ब्लॉगों की डाइरेक्टरी की तर्ज पर। जैसे हम इंग्लिश के ब्लॉगों को खगालते हैं इंग्लिश डाइरेक्टरी के लिए, हमारा प्रयास रहेगा कि ब्लॉगों को खूब ठोंक-बजा कर परखें और हिन्दी के केवल उत्कृष्ठ ब्लॉगों को सामने लाएँ। नवम्बर में हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ ब्लॉगों की डाइरेक्टरी आपके सामने आ जाएगी। देखिएगा ज़रूर।

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