बचपन की सुन्दर सुबहों का भीना झोंका,
आँख खुली, झिलमिल किरणों को छत से देखा,
छन छन कर जब पवन बहे, तन मन को छूती,
शुद्ध, स्वच्छ, मधुरिम बन थिरके प्रकृति समूची,
आज सबेरा झटके से उग आया पूरा,
नही सलोनी सुबह, लगे कुछ दृश्य अधूरा,
आज नहीं वह पेड़, कभी जो वहाँ बड़ा था,
तना नहीं, ईटों का राक्षस तना खड़ा था,
पत्तों की हरियाली हत, अब नील गगन है,
नीम बिना भी पवन मगन है, सूर्य मगन है,
वही सुबह है, विश्व वही, है जीवन बहता,
आज नहीं पर, हृदय बसा जो तरुवर रहता,
खटक रहा अस्तित्व सुबह का, निष्प्रभ सूरज,
आज नहीं है नीम, बड़ा था, चला गया तज,
किस विकास को भेंट, ढह गया किस कारणवश,
किस लालच ने छीना मेरा प्रात-सुखद-रस,
सबने मिल कर काटा उसको,
बढ़ा लिया टुकड़ा जमीन का,
एक बड़ा था पेड़ नीम का।
आँख खुली, झिलमिल किरणों को छत से देखा,
छन छन कर जब पवन बहे, तन मन को छूती,
शुद्ध, स्वच्छ, मधुरिम बन थिरके प्रकृति समूची,
आज सबेरा झटके से उग आया पूरा,
नही सलोनी सुबह, लगे कुछ दृश्य अधूरा,
आज नहीं वह पेड़, कभी जो वहाँ बड़ा था,
तना नहीं, ईटों का राक्षस तना खड़ा था,
पत्तों की हरियाली हत, अब नील गगन है,
नीम बिना भी पवन मगन है, सूर्य मगन है,
वही सुबह है, विश्व वही, है जीवन बहता,
आज नहीं पर, हृदय बसा जो तरुवर रहता,
खटक रहा अस्तित्व सुबह का, निष्प्रभ सूरज,
आज नहीं है नीम, बड़ा था, चला गया तज,
किस विकास को भेंट, ढह गया किस कारणवश,
किस लालच ने छीना मेरा प्रात-सुखद-रस,
सबने मिल कर काटा उसको,
बढ़ा लिया टुकड़ा जमीन का,
एक बड़ा था पेड़ नीम का।
सुन्दर भावपूर्ण और चित्रमय कविता |
ReplyDeletebahut sunder
ReplyDeleteपर्यावरण घात पर एक यथार्थ अभिव्यक्ति
ReplyDeleteभारत के मनुष्य का लोभ उसे बहुत जल्दी ले डूबेगा.
ReplyDeleteबहुत अच्छी कविता है ..देवला की आवाज भी बहुत अच्छी है ....:-)
ReplyDeleteकमाल की पर्यावरण कविता ...।
ReplyDeleteइंसानों की तरह ही वृक्ष भी जीवन का हिस्सा हो जाते हैं .
ReplyDeleteपर्यावरण चेतना पर अच्छी कविता !
नीम गया! समझो सच्चा हकीम गया।
ReplyDeleteयही हाल रहा तो जल्दी ही सारे पेड़ खतम हो जाएंगे
ReplyDeleteकुछ नीम नीम सी सालती रचना |
ReplyDeleteबहुत सुंदर ..
ReplyDeleteयूँ ज़मीन के टुकडे बढ़ाने को न जाने कितने पेड़ों बलि दे दी हमने .... मर्मस्पर्शी कविता
ReplyDeleteपेड़ों की
ReplyDeleteबड़ा खाली-खाली लगता होगा-न छाँह, न पक्षियों का कलरव,नीम के फूलों की भीनी गंध वातावरण महका देती है - फिर तो प्रकृति की जगह विकृति ही शेष रह जाती है !
ReplyDeleteनीम का पेड़ एक अहसास है, दादा बाबा जैसा। इसके कटने के बाद व्यक्ति अपनी जड़ों से कट जाता है........ सुंदर भाव
ReplyDeletetarakkee sab leel rahi hai...:(
ReplyDeleteआज के यथार्थ की पर्यावरण पर बेहतरीन प्रस्तुति,,,,
ReplyDeleteन जाने कितने पेड़ों की बाली ले ली है ज़मीन के लिए ... सुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteइसी पर आधारित मैने एक लघुकथा लिखी थी "नीम का पेड्"
ReplyDeleteआभार्
भौतिकता के लिए प्राकृतिक बलि
ReplyDeleteउम्मीद कर रहा था कि गाँव से लौटने के बाद एक उम्दा, संवेदना से भरपूर रचना पढने को मिलेगी. यह कविता इस उम्मीद पर खरी है.शायद द्वार पर पर कोई नीम का पेड़ रहा होगा, जो विकास क़ी भेंट चढ़ चुका है. आज के इस दौर में जब लोग आदमी क़ी ही परवाह नहीं करते पर्यावरण क़ी फिक्र कौन करे?
ReplyDeleteप्रभावित करती अति सुन्दर रचना..
ReplyDeleteशायद हम यूँ ही देखते रहेंगे पेड़ो का कटना. क्षोभ सा होने लगा है अब
ReplyDeleteबहुत ही सशक्त अभिव्यक्ति .. आभार
ReplyDeleteसर जी सुन्दर कविता | मै शुक्रवार को गरीब रथ लेकर यशवंतपुर आ रहा हूँ | आप का स्वागत है |
ReplyDeleteग़र एक जाये और दस लगायें , तो बात बने.
ReplyDeleteसुन्दर कविता. विद्यालय परिसर में खड़ा वो नीम का पेड़ याद आया, जो अब शायद नहीं है.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर.
ReplyDeleteसम मात्रा न होने के बाद भी इस कविता में गायकी प्रचुरता से अनुभव होती है।
ReplyDeleteसशक्त अभिव्यक्ति
ReplyDeleteजारी है प्रकृति की ह्त्या
ओह ! बहुत दर्द भरा |
ReplyDeleteDeeply touched my heart.
ReplyDeleteनीम बिना भला पवन कहाँ मगन है, सूर्य कहाँ मगन है,दोनों ही व्यग्र,क्लांत,उदास व क्रुद्ध हैं। किंतु दुर्भाग्य से यही हमारी दुष्कृति और फलस्वरूप यथायोग्य नियति है।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना !!!
ReplyDeleteदो दिन पहले ही हमने भी नीम के पेड़ पर ही कुछ स्मृतियाँ सजाई हैं ,जल्द ही पोस्ट करूंगी....
Sad! Only redemption is to plant and look after few neem saplings.
ReplyDeleteउफ़ ! एक और बलिदान..मानव खुद अपना ही विनाश करने पर तुला है..
ReplyDeleteइस देश की भावी संतानें कहीं नीम की छाँव और सुरभित समीर से वंचित न रह जाएँ।।।
ReplyDeleteयही स्थिति रही तो ..अभी कितनों की और बली चढ़ेगी..
ReplyDeleteबढती जनसँख्या पेड़ों की दुश्मन है. सुंदरता से विषय को उठाया है.
ReplyDeleteवाह ...कड़वे नीम की मिठास भरी बातें ..
ReplyDeleteएक बड़ा था पेड़ नीम का
ReplyDeleteबचपन की सुन्दर सुबहों का भीना झोंका,
आँख खुली, झिलमिल किरणों को छत से देखा,
छन छन कर जब पवन बहे, तन मन को छूती,
शुद्ध, स्वच्छ, मधुरिम बन थिरके प्रकृति समूची,
आज सबेरा झटके से उग आया पूरा,
नही सलोनी सुबह, लगे कुछ दृश्य अधूरा,
आज नहीं वह पेड़, कभी जो वहाँ बड़ा था,
तना नहीं, ईटों का राक्षस तना खड़ा था,
पत्तों की हरियाली हत, अब नील गगन है,
नीम बिना भी पवन मगन है, सूर्य मगन है,
वही सुबह है, विश्व वही, है जीवन बहता,
आज नहीं पर, हृदय बसा जो तरुवर रहता,
खटक रहा अस्तित्व सुबह का, निष्प्रभ सूरज,
आज नहीं है नीम, बड़ा था, चला गया तज,
किस विकास को भेंट, ढह गया किस कारणवश,
किस लालच ने छीना मेरा प्रात-सुखद-रस,
सबने मिल कर काटा उसको,
बढ़ा लिया टुकड़ा जमीन का,
एक बड़ा था पेड़ नीम का।
आधुनिक रीअल्टर्स ,वाड्राज़ पर करारा व्यंग्य .
महाकाल के हाथ पे गुल (पुष्प /गुम होना )होतें हैं पेड़ ,
सुषमा तीनों लोक की कुल होतें हैं पेड़ .
पेड़ पांडवों पर हुआ ,जब जब अत्याचार ,
ढांप लिए वट भीष्म ने, तब तब दृग के द्वार .
महानगर ने फैंक दी ,मौसम की संदूक ,
पेड़ परिंदों से हुआ ,कितना बुरा सुलूक .
एक बुजुर्ग (पेड़ )के न होने की पीड़ा से हताहत है कवि इस पोस्ट में .बेहतरीन रचना हमारे समय का विद्रूप पारी
तंत्रों के साथ भी खुला खेल फर्रुखाबादी .
एक प्रतिक्रया ब्लॉग पोस्ट :2
ReplyDeleteएक बड़ा था पेड़ नीम का
बचपन की सुन्दर सुबहों का भीना झोंका,
आँख खुली, झिलमिल किरणों को छत से देखा,
छन छन कर जब पवन बहे, तन मन को छूती,
शुद्ध, स्वच्छ, मधुरिम बन थिरके प्रकृति समूची,
आज सबेरा झटके से उग आया पूरा,
नही सलोनी सुबह, लगे कुछ दृश्य अधूरा,
आज नहीं वह पेड़, कभी जो वहाँ बड़ा था,
तना नहीं, ईटों का राक्षस तना खड़ा था,
पत्तों की हरियाली हत, अब नील गगन है,
नीम बिना भी पवन मगन है, सूर्य मगन है,
वही सुबह है, विश्व वही, है जीवन बहता,
आज नहीं पर, हृदय बसा जो तरुवर रहता,
खटक रहा अस्तित्व सुबह का, निष्प्रभ सूरज,
आज नहीं है नीम, बड़ा था, चला गया तज,
किस विकास को भेंट, ढह गया किस कारणवश,
किस लालच ने छीना मेरा प्रात-सुखद-रस,
सबने मिल कर काटा उसको,
बढ़ा लिया टुकड़ा जमीन का,
एक बड़ा था पेड़ नीम का।
आधुनिक रीअल्टर्स ,वाड्राज़ पर करारा व्यंग्य .
महाकाल के हाथ पे गुल (पुष्प /गुम होना )होतें हैं पेड़ ,
सुषमा तीनों लोक की कुल होतें हैं पेड़ .
पेड़ पांडवों पर हुआ ,जब जब अत्याचार ,
ढांप लिए वट भीष्म ने, तब तब दृग के द्वार .
महानगर ने फैंक दी ,मौसम की संदूक ,
पेड़ परिंदों से हुआ ,कितना बुरा सुलूक .
एक बुजुर्ग (पेड़ )के न होने की पीड़ा से हताहत है कवि इस पोस्ट में .बेहतरीन रचना हमारे समय का विद्रूप पारि
तंत्रों के साथ भी खुला खेल फर्रुखाबादी .
सबने मिल कर काटा उसको,
ReplyDeleteबढ़ा लिया टुकड़ा जमीन का,
एक बड़ा था पेड़ नीम का।
...बहुत बढ़िया सार्थक प्रस्तुति ....शुक्र है हमारे बगीचे के नीम के पेड़ को शहर की हवा नहीं लगी है अब तक ..
किस विकास को भेंट, ढह गया किस कारणवश,
ReplyDeleteकिस लालच ने छीना मेरा प्रात-सुखद-रस,
आह ।