इस प्रश्न से होकर निकला हूँ और निर्णय के बाद एक वर्ष का समय मिला है यह समझने के लिये कि जो निर्णय लिया, वह अपनी अपेक्षाओं पर खरा उतरा कि नहीं? प्रश्न बस यही था कि लैपटॉप लें या टैबलेट या दोनों? अनुभव के आधार पर इसका उत्तर समझने के लिये इसमें एक विमा और जोड़ देते हैं, मोबाइल की, क्योंकि बिना उसको परिधि में लिये उत्तर पूरा नहीं होगा। पर उस निर्णय के पहले अनुभव और समझ के क्या आधार निर्मित हुये हैं, यह समझना और उसे व्यक्त करना मेरे लिये आवश्यक हो चला है।
बड़ी लम्बी डिजिटल यात्रा रही है, अब तक की, १९८५ में कम्प्यूटर, १९९५ में डेस्कटॉप, २००३ में मोबाइल, २००७ में लैपटॉप। यदि किसी विषय में मन स्थायी लगा रहा तो यही एक डिजिटल व्यसन रहा है। जी भर के प्रयोग किये हैं, जी भर के धन खर्च किया, जी भर कर समय न्योछावर किया और यदि माताजी के शब्दों में कहूँ तो, 'वैसे तो लड़का शान्त रहता है पर इलेक्ट्रॉनिक सामान देख कर पगला जाता है।' व्यसन होते ही ऐसे हैं जो न तो समझे जा सकते हैं और न ही समझाये जा सकते हैं, पर तकनीक के अग्रतम द्वार पर बैठकर विश्व को देखना सदा ही मन को लुभाता रहा है। संग्रह जुटाते समय बस यही दर्शन रहा है कि जीवन में वस्तुयें कम से कम हों पर जो भी हों, अपनी श्रेणी में श्रेष्ठतम हों।
सलाह भी सदा यही देता हूँ। आवश्यकता के अनुसार यदि कोई निम्नतर वस्तु लेंगे तो तकनीक का अधिकतम लाभ नहीं ले पायेंगे। तकनीक न केवल आपके वर्तमान कार्यों को सरल करने के लिये है, वरन उन कार्यों को नये ढंग से करने के लिये भी है। यदि आवश्यकता के अनुसार मोबाइल का उपयोग करते तो उससे अभी तक फोन ही कर रहे होते। किसी भी उपकरण का उपयोग उसकी क्षमतानुसार करना चाहिये। देशी भाषा में कहा जाये तो अभी तक जितने भी उपकरण लिये हैं, उनसे पूरा पैसा वसूल लिया है, पूरा रगड़ कर उपयोग किया है। उपकरणों का आग्रह मेरे लिये न केवल रोचकता का आश्रय रहा है, वरन उपयोगिता के दर्शन का जीवन में प्रक्षेपण भी।
बिना इन उपकरणों के जीवन चल ही रहा था, न उतना गतिमय, न उतना विस्तारित, पर फिर भी चल ही रहा था। लोगों से बात होती थी, फिल्में देखने सिनेमाहॉल जाते थे, रामलीला देखने को मिलती थी, गाने भी सुनने को मिलते थे, पुस्तकें अल्मारियों में थीं, मोहल्ले भर में संवाद होता था, गर्मी की छुट्टियों में संबंधियों के घर आना जाना होता था। तकनीक ने सहसा हमें सुझाया कि अपने भौतिक परिवेश के परे भी सतत संवाद संभव है। हमने स्वीकार कर लिया और गढ़ने लगे एक ऐसा विश्व जिसमें सब कुछ तरंगों पर चलता था, सब कुछ कहीं भी रखा जा सकता था, कोई सीमा नहीं, कोई बंधन नहीं।
उत्साह संक्रामक होता है, सब कुछ इस नवनिर्मित विश्व में समेट लेने का उत्साह सर चढ़ बोला, धीरे धीरे माध्यम बदलने लगे, हर संभव वस्तु नये विश्व पहुँचने लगी। पत्र, पुस्तक, ज्ञान, संगीत, फिल्म आदि अपना रूप बदलने लगे, सिकुड़कर नये विश्व पहुँच गये। माध्यम बदलने से व्यवसायों का स्वरूप बदलने लगा। सब अधिक गतिमय हो गया। गतिमयता अधिकता का आधार लायी, हर क्षेत्र में अधिक लोगों की उपस्थिति ने गतिमयता को और ऊर्जामय कर दिया। अब स्थिति यह है कि सीमायें नगण्य हैं, संभावनायें असीमित हैं, नियन्त्रण सिमट कर आपके सामने रखी स्क्रीन तक आ गया है।
इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो आधुनिक मनुष्य अपनी बाध्यताओं से परे जीना चाहता है, कोई बंधन नहीं। हम भी कुछ ऐसा ही स्वप्न देखना चाहते हैं। मेरे लिये इस नये विश्व के दो ही आधारभूत बिन्दु हैं। पहला, प्रयासों की सततता बनी रहे। अर्थ यह कि हाथ में जो भी उपकरण रहे उसके माध्यम से मैं अपना कोई भी कार्य कर सकूँ और यदि कहीं पहुँच कर उपकरण बदले तो थोड़ी देर पहले किये प्रयास व्यर्थ न जायें या उन प्रयासों को उपकरणों के बीच स्थानान्तरित करने में समय व्यर्थ न हो। दूसरा, किसी भी स्थान विशेष का बन्धन न हो, हर स्थान से कार्य करने की सहजता हो। एक लेखक के रूप में देखूँ तो कहीं भी लिख सकूँ, किसी पुराने लेख को संपादित कर सकूँ, कहीं भी कुछ पढ़ सकूँ और किसी भी उपकरण में ये उपरोक्त काम कर सकूँ। एक प्रशासक के रूप में तन्त्र की स्थिति पर दृष्टि, उससे संबंधित विषयों को पढ़ सकने या पुराने संदर्भों को टटोल सकने की सुविधा और अन्ततः निर्णय लेने और उसे प्रेषित करने की सुविधा। उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है कि एक लेखक से प्रशासक और प्रशासक से लेखक के बीच अपने को त्वरित स्थापित कर लेने की सुविधा, कहीं पर भी, कभी भी।
ऐसा लग सकता है कि कुछ अधिक ही माँग रहा हूँ तकनीक से। तकनीक यदि सक्षम नहीं होती तो संभवतः यह अपेक्षायें रखता ही नहीं। हमारी अपेक्षायें ही तकनीक की दिशा निर्धारित करती हैं, नये उत्पाद को बनाने वालों के मन में यही आधार रहता होगा कि किस तरह चाँद लाकर धरती पर रख दिया जाये। इसीलिये सबको सलाह भी देता हूँ कि उपकरण की क्षमता पहचान कर अपने काम करने की विधि में बदलाव लाओ, प्रयोग करो, सफल न हो तो प्रयोग परिमार्जित करो, फिर भी असफलता लगे तो उससे कुछ सीख कर नये प्रयोगों में लग जाओ।
जब इस समग्रता से उपकरणों को देखा जायेगा, तब ही उनकी उपयोगिता आपके जीवन को सार्थकता से प्रभावित करेगी। तकनीक को जीवन के कई पक्षों में समाहित करने का ही उत्साह है जिसे माताजी हमारे पगलाने का कारण मान लेती हैं। तकनीक का समावेश जीवन में अधिकतम हो, इसके लिये अपने लिये कई कठिन नियम नियत कर लिये थे और उनका अब तक यथासंभव अनुपालन भी कर रहा हूँ।
कागज में कुछ भी नहीं लिखता हूँ, सुबह परिचालन संबंधी तथ्य लिखने हों, बैठक के समय निर्देश लिखने हों, कार्यों की समीक्षा करनी हो, लेखन करना हो, कोई पंक्ति लिखनी हो, कोई कार्य याद रखना हो, सब का सब सीधा मोबाइल या लेपटॉप पर। २००३ के पहले का समय कागज से भरा पूरा था, कोई कार्य न जाने कितने कागजों में झलकता था, संपादित करने में न जाने कितने कागज शहीद हो जाते थे। धीरे धीरे यह लगा कि तकनीक कागज को पूर्णतया बचाने में सक्षम है, विधियाँ विकसित होती गयीं और अब सब सहज हो गया है। निरीक्षण रिपोर्ट मोबाइल पर ही टाइप हो जाती है और ईमेल से प्रेषित भी। दूसरा छोर भी विकसित होने पर अनुपालन रिपोर्ट भी डिजिटल माध्यम से आने लगेगी। मुझे यह भी याद नहीं आता है कि तीन वर्ष की ब्लॉग यात्रा में कभी कागज में कुछ लिखा हो, सब का सब मोबाइल पर या लैपटॉप पर।
बहुत प्रयोग हो चुके हैं, बहुत होने शेष हैं, पर ध्येय पूर्णतया स्पष्ट है। तकनीक के श्रेष्ठतम पक्षों का उपयोग करना है, न केवल वर्तमान कार्यों को सरलता से करने के लिये, वरन नयी विधियों से करने के लिये भी। दिशा उलझाने वाली नहीं, सुलझाने वाली होगी। उपकरण एक भार नहीं, हल्कापन लाने के लिये होंगे। जीवन में जटिलता नहीं, सरलता स्थापित करनी है।
लैपटॉप या टैबलेट के निर्णय में यह सारे पक्ष अपना अपना महत्व रखेंगे, वह अगली पोस्ट में।
(इस विषय के उत्प्रेरक ईपंडित श्रीश बेंजवाल शर्माजी रहे हैं। तकनीक संबंधी विषयों को स्पष्ट कर, सबको समझाने में उनके अथक प्रयास ब्लॉग के इतिहास में अपना स्थायी स्थान बनायेंगे।)
बड़ी लम्बी डिजिटल यात्रा रही है, अब तक की, १९८५ में कम्प्यूटर, १९९५ में डेस्कटॉप, २००३ में मोबाइल, २००७ में लैपटॉप। यदि किसी विषय में मन स्थायी लगा रहा तो यही एक डिजिटल व्यसन रहा है। जी भर के प्रयोग किये हैं, जी भर के धन खर्च किया, जी भर कर समय न्योछावर किया और यदि माताजी के शब्दों में कहूँ तो, 'वैसे तो लड़का शान्त रहता है पर इलेक्ट्रॉनिक सामान देख कर पगला जाता है।' व्यसन होते ही ऐसे हैं जो न तो समझे जा सकते हैं और न ही समझाये जा सकते हैं, पर तकनीक के अग्रतम द्वार पर बैठकर विश्व को देखना सदा ही मन को लुभाता रहा है। संग्रह जुटाते समय बस यही दर्शन रहा है कि जीवन में वस्तुयें कम से कम हों पर जो भी हों, अपनी श्रेणी में श्रेष्ठतम हों।
बिना इन उपकरणों के जीवन चल ही रहा था, न उतना गतिमय, न उतना विस्तारित, पर फिर भी चल ही रहा था। लोगों से बात होती थी, फिल्में देखने सिनेमाहॉल जाते थे, रामलीला देखने को मिलती थी, गाने भी सुनने को मिलते थे, पुस्तकें अल्मारियों में थीं, मोहल्ले भर में संवाद होता था, गर्मी की छुट्टियों में संबंधियों के घर आना जाना होता था। तकनीक ने सहसा हमें सुझाया कि अपने भौतिक परिवेश के परे भी सतत संवाद संभव है। हमने स्वीकार कर लिया और गढ़ने लगे एक ऐसा विश्व जिसमें सब कुछ तरंगों पर चलता था, सब कुछ कहीं भी रखा जा सकता था, कोई सीमा नहीं, कोई बंधन नहीं।
उत्साह संक्रामक होता है, सब कुछ इस नवनिर्मित विश्व में समेट लेने का उत्साह सर चढ़ बोला, धीरे धीरे माध्यम बदलने लगे, हर संभव वस्तु नये विश्व पहुँचने लगी। पत्र, पुस्तक, ज्ञान, संगीत, फिल्म आदि अपना रूप बदलने लगे, सिकुड़कर नये विश्व पहुँच गये। माध्यम बदलने से व्यवसायों का स्वरूप बदलने लगा। सब अधिक गतिमय हो गया। गतिमयता अधिकता का आधार लायी, हर क्षेत्र में अधिक लोगों की उपस्थिति ने गतिमयता को और ऊर्जामय कर दिया। अब स्थिति यह है कि सीमायें नगण्य हैं, संभावनायें असीमित हैं, नियन्त्रण सिमट कर आपके सामने रखी स्क्रीन तक आ गया है।
इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो आधुनिक मनुष्य अपनी बाध्यताओं से परे जीना चाहता है, कोई बंधन नहीं। हम भी कुछ ऐसा ही स्वप्न देखना चाहते हैं। मेरे लिये इस नये विश्व के दो ही आधारभूत बिन्दु हैं। पहला, प्रयासों की सततता बनी रहे। अर्थ यह कि हाथ में जो भी उपकरण रहे उसके माध्यम से मैं अपना कोई भी कार्य कर सकूँ और यदि कहीं पहुँच कर उपकरण बदले तो थोड़ी देर पहले किये प्रयास व्यर्थ न जायें या उन प्रयासों को उपकरणों के बीच स्थानान्तरित करने में समय व्यर्थ न हो। दूसरा, किसी भी स्थान विशेष का बन्धन न हो, हर स्थान से कार्य करने की सहजता हो। एक लेखक के रूप में देखूँ तो कहीं भी लिख सकूँ, किसी पुराने लेख को संपादित कर सकूँ, कहीं भी कुछ पढ़ सकूँ और किसी भी उपकरण में ये उपरोक्त काम कर सकूँ। एक प्रशासक के रूप में तन्त्र की स्थिति पर दृष्टि, उससे संबंधित विषयों को पढ़ सकने या पुराने संदर्भों को टटोल सकने की सुविधा और अन्ततः निर्णय लेने और उसे प्रेषित करने की सुविधा। उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है कि एक लेखक से प्रशासक और प्रशासक से लेखक के बीच अपने को त्वरित स्थापित कर लेने की सुविधा, कहीं पर भी, कभी भी।
ऐसा लग सकता है कि कुछ अधिक ही माँग रहा हूँ तकनीक से। तकनीक यदि सक्षम नहीं होती तो संभवतः यह अपेक्षायें रखता ही नहीं। हमारी अपेक्षायें ही तकनीक की दिशा निर्धारित करती हैं, नये उत्पाद को बनाने वालों के मन में यही आधार रहता होगा कि किस तरह चाँद लाकर धरती पर रख दिया जाये। इसीलिये सबको सलाह भी देता हूँ कि उपकरण की क्षमता पहचान कर अपने काम करने की विधि में बदलाव लाओ, प्रयोग करो, सफल न हो तो प्रयोग परिमार्जित करो, फिर भी असफलता लगे तो उससे कुछ सीख कर नये प्रयोगों में लग जाओ।
जब इस समग्रता से उपकरणों को देखा जायेगा, तब ही उनकी उपयोगिता आपके जीवन को सार्थकता से प्रभावित करेगी। तकनीक को जीवन के कई पक्षों में समाहित करने का ही उत्साह है जिसे माताजी हमारे पगलाने का कारण मान लेती हैं। तकनीक का समावेश जीवन में अधिकतम हो, इसके लिये अपने लिये कई कठिन नियम नियत कर लिये थे और उनका अब तक यथासंभव अनुपालन भी कर रहा हूँ।
बहुत प्रयोग हो चुके हैं, बहुत होने शेष हैं, पर ध्येय पूर्णतया स्पष्ट है। तकनीक के श्रेष्ठतम पक्षों का उपयोग करना है, न केवल वर्तमान कार्यों को सरलता से करने के लिये, वरन नयी विधियों से करने के लिये भी। दिशा उलझाने वाली नहीं, सुलझाने वाली होगी। उपकरण एक भार नहीं, हल्कापन लाने के लिये होंगे। जीवन में जटिलता नहीं, सरलता स्थापित करनी है।
लैपटॉप या टैबलेट के निर्णय में यह सारे पक्ष अपना अपना महत्व रखेंगे, वह अगली पोस्ट में।
(इस विषय के उत्प्रेरक ईपंडित श्रीश बेंजवाल शर्माजी रहे हैं। तकनीक संबंधी विषयों को स्पष्ट कर, सबको समझाने में उनके अथक प्रयास ब्लॉग के इतिहास में अपना स्थायी स्थान बनायेंगे।)
माताजी के शब्दों में कहूँ तो, 'वैसे तो लड़का शान्त रहता है पर इलेक्ट्रॉनिक सामान देख कर पगला जाता है।'
ReplyDeleteमाता जी सही कहती हैं !
:)
अगली कड़ी का इन्तजार है !
'वैसे तो लड़का शान्त रहता है पर इलेक्ट्रॉनिक सामान देख कर पगला जाता है।' बस थोड़े हेर-फेर के साथ यही बात हमरी मैडम कहती हैं !!
ReplyDelete...हम तो करीब दो साल से कट्टी साढ़े हैं,अब देखो कब धीरज छूटता है ??
साढ़े-- साधे
Deleteतकनिक का महत्तम उपयोग ही उपकरण का सदुपयोग है.
ReplyDeleteअब मैं क्या कहूँ ,सब तो आपने पहले ही क़ुबूल दिया !
ReplyDeleteकागज पर लिखना छूट गया। माउस टेक हो गये।
ReplyDeleteभाई साहब, मेरी मानो कहाँ चक्कारों मे फंसे हो,डेस्क टॉप खरीद लो सुखी रहोगे :) ! सफ़र में केलिए मोबाइल ही काफी है !
ReplyDeleteबहुत ही अहम विषय उठाया है आपने, डेस्कटॉप तो हमारे घर भी कोई पसंद नहीं करता, अब तो तकनीक हाथों में चाहिये जिससे एक जगह कार्य करने की बाध्यता ना हो। इसीलिये हमने भी एक टेबलेट लिया है, पर हम लेपटॉप के कार्यों को टेबलेट में करने में अभी सहज नहीं हो पा रहे हैं, कोशिश जारी है।
ReplyDeleteकागज़ पर निर्भरता कम करना प्रकारांतर से प्रकृति संरक्षण है.
ReplyDeleteआपके लेख अनूठे हैं , इंतज़ार रहेगा !
ReplyDeleteआभार प्रवीण भाई !
ये युग ही अधिकतम दोहन का है .शोषण का है पोषण का नहीं है .
ReplyDeleteयहाँ तकनीक से अधिकतम लेना एक लक्ष्य है .लेकिन सब उतने महत्व कांक्षी नहीं है ,न इतना उपयोगितावादी .उनके लिए यह पद प्रतिष्ठा का दिखाऊ
सामान ज्यादा है .आपकी बात और है आप की सोच का दायरा विकसित ,परिमार्जन के शिखर पर है .बधाई .
(ज़ारी ).
बधाई , नवरात्र मंगलमय हो ..
ReplyDeleteहम पढ़ रहे है . तुलनात्मक अध्ययन भी पढेंगे .
ReplyDeleteनिश्चित रूप से तकनीक की उपयोगिता और निर्भरता तो बढ़ी ही है | इन गैजेट्स को लेकर जो उत्साह है वो सच में दीवानगी की हद तक हो चला है..... शुभकामनायें
ReplyDeleteबढिया आलेख
ReplyDeleteउपकरण एक भार नहीं, हल्कापन लाने के लिये होंगे। जीवन में जटिलता नहीं, सरलता स्थापित करनी है ... बिल्कुल सही कहा आपने ... हमेशा की तरह एक और बेहतरीन आलेख
ReplyDeleteसादर
तकनीक की उपयोगिता और निर्भरता तो बढ़ी ही है |अभी और बढ़ेगी..बहुत बढिया आलेख,अगली कड़ी का इन्तजार है !..:)
ReplyDeleteआजकल डेस्क टॉप या लैपटॉप ? इसी उहापोह से हम भी गुजर रहे हैं.आपकी अगली पोस्ट का इंतज़ार हमें भी रहेगा.
ReplyDeleteआप हमेशा अच्छी जानकारी देते हैं ....
ReplyDeleteआभार!
samajhne ki poori koshish
ReplyDeleteतरंगाधारित यन्त्र-चालित जीवन भी अद्भुत है, ससुरी लग गयी है तो कैसे छूटे.
ReplyDeleteअंखिया मूंदते ही लगता है कि सब छूट गया, पर खोलो तो दिमाग बेचैन हो उठता है इन यंत्रों के लिए.
उठते ही अधखुली आँखों से, अधजगे मस्तिष्क से प्रेरित मेरे हस्त-कमल अपने सूरज (कंप्यूटर और मोबाइल) की और बढ़ ही जाते हैं.
अच्छी जानकारी . वैसे बेपनाह मोहब्बत है अपने कागज और कलम से . दुनिया कहीं भी जाये पर हर वक़्त, हर जगह झट से हाजिर हो जाता है और उठते विचार संक्रमण से बच जाते हैं .
ReplyDelete१९९४ में आई .बी.ऍम के लैपटॉप से शुरुआत की थी . आज टैबलेट की चाह है लेकिन लैपटाप का विकल्प टैबलेट नहीं है ऐसा मै सोचता हूँ .कई व्यापरिक आन लाइन कार्य जिसमे वी पी एन कनेक्ट करना पड़ता है वहां टेबलेट फेल हो जाता है . इसलिए टैबलेट स्मार्ट फोन का तो विकल्प हो सकता है लेकिन लैपटाप का नहीं
ReplyDeleteहमारे लिये यह पोस्ट ज्यादा काम की नहीं। हम सिर्फ यह चाहते हैं कि तकनीक जल्दी ऑब्सॉलीसेंस लाये, जिससे पुराना मॉडल सस्ता होने पर खरीदा जा सके।
ReplyDeleteनिश्च्चित ही तकनिकी ज्ञान की अपनी ही महत्ता है कम से कम आज के दौर में तो बिन तकनीक सुब सुन वाली बात ही लागु हो रही है
ReplyDeleteआज हम एक दुसरे से व्यक्तिगत रूप से परिचित न होते हुए भी परिचित है तो तकनिकी के ही जरिये
बहुत ही विचारपरक लेख के लिए बहुत ही बधाई
बहुत विचारणीय आलेख...
ReplyDeleteकम्प्यूटर के विगत ढाई दसकों की अद्भुत तकनीकी विकास यात्रा के साथ आपकी स्वयं की तकनीकी विकास की उल्लेखनीय यात्रा निश्चय ही उदाहरणीय व उनुकरणीय है. सबसे महत्वपूर्ण बात है कि आपकी हर कार्यप्रणाली व कार्य के प्रति प्रायोगिक दृष्टिकोण के हर पक्ष में आपकी तकनीकी योग्यता सहज रूप में दिखती है। आपसे हमेसा कुछ न कुछ सीखते रहने को मिलता है। इतने सूचनाप्रद लेख हेतु आभार।
ReplyDeleteदेवेन्द्र
शिवमेवम् सकलम् जगत
Waiting for Surface...I think a tablet with Keyboard will be a hit.
ReplyDeleteपागल होना भी गल को पाना है
ReplyDeleteगल को गति देने के लिए
आजकल की तकनालॉजी से तीव्र
तेजक भेदक अन्य कोई नहीं।
टेबलेट पर जिन्हें आप बतला रहे हैं
ई पंडित मैं मानता हूं उन्हें
ई ऋषि
और चर्चा जारी है उनसे
शोध जारी है उनका
पोस्ट आभारी है आपकी
आप प्रवीण हैं
पहला कमेंट इस पोस्ट का
प्रवीण मास्टर जी का ही है
और
संतोषधारक त्रिवेदी भी मौजूद हैं
तकनीक को देखकर
पागल होने वाले आप एक नहीं
हम अनेक सब नेक भी हैं।
तकनीक के श्रेष्ठतम पक्षों का उपयोग करना है, न केवल वर्तमान कार्यों को सरलता से करने के लिये, वरन नयी विधियों से करने के लिये भी। दिशा उलझाने वाली नहीं, सुलझाने वाली होगी। उपकरण एक भार नहीं, हल्कापन लाने के लिये होंगे। जीवन में जटिलता नहीं, सरलता स्थापित करनी है।
ReplyDeleteभले ही तकनीकी बहुत बढ़ गयी है , पर हम पुराने लोग अभी तक कागज कलाम पर ही अटके हैं :)
कल 19/10/2012 को आपकी यह खूबसूरत पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
मैं भी कुछ गुर यहाँ से और श्रीश जी से हासिल करता रहता हूँ -आभार
ReplyDeleteबहुत ही लाभदायक.. निर्णय में सहायक!!
ReplyDeleteज्वलंत विषय है, और आज के दौर में आगे निकलना हो या समय के साथ चलना हो तो इन बातों को नज़रअंदाज नही किया जा सकता , ये हमारी दिनचर्या का अभिन्न हिस्सा बन गयी है.....
ReplyDeleteएक पल को यदि हमारे हाथ में मोबाईल ना हो, तो हम विचितिल से हो जाते है...
सत्य है
बहोत ही प्रभावी एवं यर्थावादी लेख है
सादर
जहां नए नए तकनीकी उपकरण के हम मोहताज होते जा रहे हैं वहीँ बहुत कुछ छूटा भी जा रहा है हाथ से लिखने में अब आलस भी आने लगा है मेरी पांच वर्षीय नातिन कहती है पेन्सिल से ऐ बी सी डी लिखना अच्छा नहीं लगता कंप्यूटर वाला अच्छा लगता है सच में आज के बच्चे आज की पीढ़ी अभी से बहुत आगे चल रही है अगर हम सही से इन उपकरणों का फायदा उठायें तो ही अच्छा है ---बहुत बढ़िया आलेख आगे का इन्तजार
ReplyDeletemain bi isi udhed bun me hoon magar jee laptop par hi laga hua hai....poorane se mera moh jaldi nahin chhotata...dekhien agali kadi me kya milta hai sahayd uljhan suljh jaaye.:)
ReplyDeleteनवीन तकनीकों में लैपटाप निस्संदेह उत्तम है.
ReplyDeleteप्रवीण जी एक ग्लोबी कनेक्शन भी लिए रहतें हैं हवाई यात्रा के दौरान लोग इंटरनेट का .इस वर्तमान भारत अमरीका यात्रा के दौरान हमें फ्रेंकफर्ट में बड़ा सुखद अनुभव हुआ .15 मिनिट का एक री -चार्ज मिला मुफ्त
ReplyDeleteजिसे हम आन लाइन इस्तेमाल कर सकते थे .एक री -चार्ज हमारे बगलिया सज्जन के पास भी था लेकिन वह उसे इस्तेमाल नहीं कर रहे थे वह भी हमें मिल गया .
नील गगन से ऊपर उड़ते हुए हवा में आन लाइन रहने का अ-वरणीय सुख हमसे समेटा न गया .हम फूल के कुप्पा हो गए .इस्तेमाल किया दोनों री -चार्ज को .जल्दी ही उस पल का इंतज़ार है जब हवाई यात्रा में एयर
लाइन कहेगी आन लाइन इंटरनेट यात्रा के दौरा फ्री .
फिल वक्त जो है वह आप जानते हैं बेश कीमती है मंहगा है .आप अपने अनुभव यूं ही सांझा करते रहिये हम पढ़ते रहेंगे सीखते समझते रहेंगे .आभार . .
आप सही कहते हैं पिछले 15-17 सालों में डिजिटल तकनीक का जो तेजी से विकास हुआ है मुझे तो उसके साथ चलने में हाँफ लग जाती है । भला हो मेरे पतिदेव का जो आपकी ही तरह इलेक्ट्ऱॉनिक उपकरणों के और उनके बारे में जानकारी हासिल करने के शौकीन है । आज ही मुझे वे विन्डो 8 जो अगले हफ्ते आ रही है के बारे में बता रहे थे कि कैसे वे लेटेस्ट कलॉउड तकनीक को भी इसमें शामिल करेंगे । मुझे तो अभी भी लैपटॉप में ही आसानी लगती है ।
ReplyDeleteKagaz pe lekhan to purane zamane kee baat ho gayee!
ReplyDeleteइलैक्ट्रॉनिक सामान देखकर पगला जाने वाली बात हम में भी है। गैजेट्स जैसी चीजों के बारे में भी आप जिस सुन्दरता और रोचकता से लिखते हैं, उसे पढ़ना आनन्ददायक अनुभव है।
ReplyDeleteमेरा प्रश्न आपसे ११.६ इंच डिस्प्ले स्क्रीन पर कार्य करने के अनुभव का था। विण्डोज़ ८ वाले जो हाइब्रिड डिवाइस (टैबलेट-कम-नोटबुक) अब आ रहे हैं वो मुख्य रूप से १०.१ तथा ११.६ इंच दो स्क्रीन साइजों में है। पहले वाला साइज जहाँ टैबलेट के हिसाब से बेहतर है दूसरा नोटबुक के हिसाब से। अगर १०.१ वाला डिवाइस लेते हैं तो १३.३ या १४ इंच की अल्ट्राबुक अलग से लेनी होगी या फिर कम से कम उसे नोटबुक मोड में प्रयोग करते वक्त बड़े डिस्प्ले से जोड़ना होगा। अगर ११.६ वाला लेते हैं तो नोटबुक का काम तो बढ़िया हो जायेगा पर टैबलेट बड़ा हो जायेगा। साथ ही ये भी निश्चित नहीं कि ११.६ स्क्रीन नोटबुक के लिये पर्याप्त है या नहीं। यहीं पर मुझे आपकी याद आयी कि आपके पास इस साइज की मॅकबुक ऍयर को काफी समय हो चुका है तो आप इस स्क्रीन साइज के बारे में सही अनुभव बता सकते हैं।