पुस्तकों से एक स्वाभाविक लगाव है। किसी की संस्तुति की हुयी पुस्तक घर तो आ जाती है, पर पढ़े जाने के अवसर की प्रतीक्षा करती है। मन में कभी कोई विचार उमड़ता है, प्यास बन बढ़ता है, स्पष्ट नहीं हो पाता है। आधी लगी दौड़ जैसी, जब अभिव्यक्ति ठिठकने लगती है और लिखने के लिये कुछ सूझता नहीं है, तब लगता है कि अन्दर सब खाली हो चुका है, फिर से भर लेने की आवश्यकता है। एक पुस्तक उठा लेता हूँ, पढने के लिये, या कहें कि लेखक से बतियाने लगते हैं। पहले बैक कवर पढ़ते है, फिर प्रस्तावना, फिर विषय सूची, उत्सुकता बनी रही तो कुछ अध्याय भी। धीरे धीरे यही क्रम बन गया है, बहुत कम ही ऐसा हुआ है कि प्रारम्भ में रुचिकर लगी पुस्तक अन्त में बेकार निकली हो।
संस्तुति की गयी सीमित पुस्तकों में यह संभव है। उन पुस्तकों के नाम मोबाइल में रहते हैं, कभी पुस्तकों की दुकान जाना हुआ तो, वहाँ ढूढ़कर पढ़ लेते हैं। बंगलोर में यह बात बहुत ही अच्छी है कि तीन बड़े बुकस्टोर, रिलायंस टाइमआउट, क्रॉसवर्ड और लैण्डमार्क, तीनों में ही बैठकर पढ़ने की सुविधा है, शान्ति भी रहती है और कॉफी भी रहती है, आप अधिक समय तक बैठकर पढ़ सकते हैं, कोई भी आपको जाने को नहीं कहेगा, विशेषकर जब आप बहुधा वहाँ जाते हों। साप्ताहिक खरीददारी करने के क्रम में डिजिटल स्टोर और बुक स्टोर नियमित पड़ाव रहते हैं। समय कम रहा तो संस्तुति की गयी तीन चार पुस्तकें ही पढ़ पाता हूँ, अधिक समय मिलता है तो आठ दस पुस्तकें और पलट लेता हूँ। हाँ, टटोलने का क्रम वही रहता है, बैक कवर से। यह अनुभव बड़ा ही अच्छा लगता है, उन दुकानों की तुलना में, जहाँ एक एक पुस्तक माँगने पर दुकानदार आपको भारस्वरूप देखते हैं और पुस्तकें अनमने भाव से आपके सामने फेंक दी जाती हो। दो तीन से अधिक पुस्तकों के बारे में पूछने लगिये तो आपसे यह प्रश्न पूछ ही लिया जाता है कि खरीदने के लिये पैसे भी हैं जेब में?
जहाँ यह सुविधा होती है, वहाँ उसका पूरा लाभ उठाने वाले कई लोगों को यह लग सकता है, कि जब यहीं आकर पढ़ा जा सकता है, तो पुस्तक खरीदने की क्या आवश्यकता है? विचार आने से रोका नहीं जा सकता है। जब अभी तक पुस्तकों को किसी रत्न या हीरे की तरह किसी पुस्तकालय या दुकान में सजा देखा हो, तो यह विचार आने की संभावना और भी बढ़ जाती है। हमारे साथ भी ऐसा हुआ, जब पहले पहले यह सुविधा मिली तो कुछ पुस्तकों के बीस तीस पन्ने वहीं पर बैठकर पढ़ डाले। लगा कि ढेरों पैसे बचा लिये, दुकान को लूट लिया। अब तीन साल बाद देखता हूँ कि पुस्तकों के संग में रहने का नशा बहुत मादक होता है, एक बार लगता है तो छूटता नहीं है। यदि उन दुकानों में बैठकर पढ़ने का अवसर नहीं पाया होता, तो इतनी पुस्तकें खरीदकर घर में नहीं लाता। लगभग हर बार यही हुआ कि कोई न कोई पुस्तक लेकर घर आ गया। अब लगता है कि इन लोगों ने चखा चखा के हमें ही लूट लिया।
बचपन में विद्यालय से जब घर आता था तो घर में बहुधा कोई नहीं मिलता था, बस समय बहुत मिलता था। भरी दुपहरियाँ, बाहर जाकर खेलना कठिन, बस पुस्तकें ही सहारा बन कर रहती थीं। पुस्तकें पढ़ने का क्रम तभी से चल पड़ा। पहले तो घर में रखी सारी साहित्यिक पुस्तकें पढ़ लीं, कहानी के रूप में लिखे ग्रन्थ पढ़ डाले, सोवियत संघ से आने वाली कई मैगज़ीन पढ़ डालीं और जब धीरे धीरे ये समाप्त हो चलीं तो अपने चाचाजी द्वारा पढ़े गये और सहेजे गये ढेरों जासूसी और चटपटे सामाजिक उपन्यास पढ़ डाले। जीवन में उतना निश्चिंत समय फिर कभी नहीं मिला। दस वर्ष की अवस्था में न यह ज्ञान था कि क्या पठनीय है, भारी भरकम तर्कों का क्या अर्थ है, और किस पुस्तक का क्या महत्व है? बस पढ़ते गये, एक नशा सा समझ कर चढ़ाते गये, एक परमहंसीय मानसिकता से पुस्तकें पढ़ीं तब।
धीरे धीरे अनुभव आया, अच्छी पुस्तकों के बारे में पता चला, किन पुस्तकों को पढ़ना समय व्यर्थ करने सा था, वह भी पता चला। यह भी पता चला कि इतनी पुस्तकें हैं जगत में कि सारी पढ़ी भी नहीं जा सकती हैं। अपनी संस्कृति से परे और भी रंग हैं पुस्तकों के इन्द्रधनुष में। अभिरुचि किसी विषय विशेष के प्रति नहीं, बस पढ़ने के प्रति बनी रही। शिक्षापद्धति के अन्तर्गत पाठ्यक्रम की पुस्तकों ने आकर डेरा जमा लिया, घर के सीमित आकार और दिन के सीमित समय को पूरा घेर लिया। कई वर्ष अपनी रुचि का ठीक से पढ़ ही नहीं पाया। विद्यालय का पुस्तकालय अधिक बड़ा नहीं था और शीघ्र ही सारी पुस्तकें पहचानी सी लगने लगीं। अस्तित्व के लिये संघर्ष ने प्रतियोगी परीक्षाओं से संबधित पुस्तकों के पढ़ने को विवश कर दिया, पढ़ने की प्यास बुझी ही नहीं, मन अतृप्त बना रहा।
आईआईटी कानपुर का पुस्तकालय, जीवन में एक श्रेष्ठ उपहार बनकर आया। इतना बड़ा पुस्तकालय पहले कभी नहीं देखा था। कोई ऐसा विषय नहीं देखा जिससे संबन्धित उत्कृष्ट पुस्तकें वहाँ उपस्थित न हों। हिन्दी, दर्शन, इतिहास, शोध का इतना बड़ा संग्रह एक आश्चर्य था मेरे लिये। विज्ञान और इन्जीनियरिंग से संबन्धित पुस्तकों के बारे में तो कहना ही क्या? बहुधा जब कल पुर्जों और उनकी गतियों से मन ऊबने लगता था तो कोई न कोई रोचक छाँह मिल जाती थी पुस्तकों की। न जाने कितने विषय पर कितनी पुस्तकें पढ़ डाली वहाँ पर। जब किसी एक अभिरुचि में बँधने का नहीं सोचा तो सारी पुस्तकें आकर्षित करती रहीं। भौतिकी से लेकर पराभौतिकी तक, विलास से लेकर अध्यात्म तक, इतिहास से लेकर भविष्य तक और दर्शन के न जाने कितने विचारपुंज, सब आँखों के सामने से निकल गये।
बहुत बार ऐसा होता था कि कोई अच्छा वाक्य पढ़ा तो उसे याद करने का मन हो उठता था। याद करना और समय आने पर उसका उपयोग कर अंक बटोर लेने की आदत वर्तमान शिक्षापद्धति के प्रभाव स्वरूप अब तक स्वभाव से बँधी हुयी थी। ऐसा करने से सदा ही पुस्तक का तारतम्य टूट जाता है। औरों के सजाये शब्द आपके जीवन में वैसे ही उतर आयेंगे, यह बहुत ही कम होता है, एक आकृति सी उभरती है विचारों की, एक बड़ा सा स्वरूप समझ का। धीरे धीरे वाक्यों को याद करने की बाध्यता समाप्त हो गयी और पुस्तकों को आनन्द निर्बाध हो गया। थककर पुस्तकालय में बहुत बार सो भी गया, भारी भारी स्वप्न आये, निश्चय ही वहाँ के वातावरण का प्रभाव व्याप्त होगा स्वप्नलोक में भी।
अब समय अपना है, कोई परीक्षा भी नहीं उत्तीर्ण करनी है, पर जीवन यापन करने में समय की कमी हो चली है। कभी कभी मन को समझाने का प्रयास करता हूँ कि कितना कुछ पढ़ लिया है, एक स्पष्ट समझ विकसित भी हो गयी है, तो और पुस्तकें पढ़ने की क्या आवश्यकता? यह तर्क थोड़े समय के लिये आहत मन को सहला तो देता है पर पुस्तकों की दुकान जाते रहने से रोक नहीं पाता है। कुछ और खरीदने जाता हूँ तो पैर स्वतः ही पुस्तकों की ओर खिंचे चले जाते हैं।
पुस्तकों के बीच पहुँच कर लगता है कि विश्व के श्रेष्ठ मस्तिष्कों के बीच आकर बैठ गया हूँ। वहाँ जाकर यह पता लगता है कि कितना कुछ लिखा जा रहा है, किन विषयों पर लिखा जा रहा है। यह जानना बहुत ही आवश्यक है कि श्रेष्ठ मस्तिष्कों के चिन्तन की दिशा क्या है, किन संस्कृतियों में क्या विषय प्रधान हो चले हैं और किन विषयों को अब अधिक महत्व नहीं दिया जा रहा है। यह समझना और जानना धीरे धीरे एक अभिरुचि के रूप में विकसित होता जा रहा है। बैठे बैठे कइयों पुस्तकें उलट लेता हूँ, सारांश समझ लेता हूँ, अच्छी लग ही जाती हैं, खरीद लेता हूँ। बौद्धिक प्यास बुझाकर वापस आता हूँ, कि थोड़े दिन संतृप्त रहेगा मन। पर क्या करूँ, उनके आसपास से कभी निकलना होता है तो बलात खींच लेता है उनका आकर्ष। खिंचा चला जाता हूँ, जब पुस्तकें बुलाती हैं।
पुस्तकों के संग में रहने का नशा बहुत मादक होता है
ReplyDeleteपुस्तकें ज्ञान के भंडार के साथ ही एकांत में सबसे बड़ी दोस्त होती है|
ReplyDeleteऐसे बुकस्टोर तो चखा-चखा कर ही लूटते हैं। हम भी कभी-कभी मुंबई के किताब-खाना की ओर निकल लेते हैं, जाकर चख भी लेते हैं लौटानी में एक दो किताबें उस थैली में रख ले आते हैं जिसके झोले पर गोल आकार में किताब-खाना लिखा रहता है।
ReplyDeleteहमने तो शासकीय वाचनालाय से पढ़ने की शुरूआत की थी, और अच्छी पुस्तकों का नशा ऐसा होता था कि वे वाचनालय से वापिस मिल नहीं पाती थीं और उस समय खरीदना हमारी पहुँच में नहीं था, अब इसीलिये अपनी सारी पसंदीदा पुस्तकें खरीद कर अपने पास रख ली हैं, अब टैबलेट पर पढ़ने की कोशिश कर रहे हैं, अभी तमस जारी है, देखते हैं कि डिजिटल अनुभव कैसा होता है।
ReplyDeleteकिताबों से बढ़कर साथी कोई नहीं.
ReplyDeleteविभिन्न विषयों की पुस्तके लुभाती है और सहयात्री बन जाती है.
ReplyDeleteआपकी टिपण्णी हमारे लेखन की आंच बनी रहे भगवान् से यही प्रार्थना है .
ReplyDeleteऔरों के संजाये।।।।(संजोये .,सजाये ?)...... शब्द आपके जीवन में वैसे ही उतर आयेंगे, यह बहुत ही कम होता है, एक आकृति सी उभरती है विचारों की, एक बड़ा सा स्वरूप समझ का। धीरे धीरे वाक्यों को याद करने की बाध्यता समाप्त हो गयी और पुस्तकों को आनन्द निर्बाध हो गया। थककर पुस्तकालय में बहुत बार सो भी गया, भारी भारी स्वप्न आये, निश्चय ही वहाँ के वातावरण का प्रभाव व्याप्त होगा स्वप्नलोक में भी।
बैठे बैठे कईयों(कइयों .......ईकारांत का इकारांत हो जाएगा ) पुस्तकें उलट लेता हूँ, सारांश समझ लेता हूँ, अच्छी लग ही जाती हैं, खरीद लेता हूँ।
सात्विक नशा चढ़ता है तो चढ़ा ही रहता है .भगवान करे चढ़ा ही रहे .पुस्तकें भगवतस्वरूपा होतीं हैं .
बढ़िया निबंध लालित्य पूर्ण .
पुस्तकों के बिना घुटन सी होती है!!
ReplyDeleteबदायूं के वे छोटे छोटे पुस्तकालय याद आ गए जहाँ, उपन्यास एवं पत्रिकाएं पढ़ने, घर वालों से छुपकर बैठता था ! शायद २५ पैसे फीस थी एक किताब पढ़ने की !
ReplyDeleteशुभकामनायें आपको !
सच है पुस्तकों का आकर्षण ऐसा ही होता है।
ReplyDeleteजीवन पर्यंत एक सच्चा साथी पुस्तक ही है..प्रभावी आलेख..
ReplyDeleteपुस्तकें आपके एकांत के सच्चे साथी का धर्म निबाहती हैं .... रोचक प्रस्तुति ।
ReplyDelete...बुलाती तो हमें भी हैं पर अभागे हैं जो उनकी आवाज़ सुन नहीं पाते !
ReplyDeleteयह समझना और जानना धीरे धीरे एक अभिरुचि के रूप में विकसित होता जा रहा है। बैठे बैठे कइयों पुस्तकें उलट लेता हूँ, सारांश समझ लेता हूँ, अच्छी लग ही जाती हैं, खरीद लेता हूँ। बौद्धिक प्यास बुझाकर वापस आता हूँ, कि थोड़े दिन संतृप्त रहेगा मन। पर क्या करूँ, उनके आसपास से कभी निकलना होता है तो बलात खींच लेता है उनका आकर्ष। खिंचा चला जाता हूँ, जब पुस्तकें बुलाती हैं।
ReplyDeleteपढ़ना एक सार्थक अभिरुचि है !!पुस्तकों की महत्ता बताता हुआ सुंदर सार्थक आलेख .....!!
जिनके अन्दर विचारों की लहरें हों - उनको पुस्तकें पुकारती हैं - दोस्ती की प्रगाढ़ता वहीँ होती है
ReplyDeleteपुस्तके ज्ञान का भण्डार होती है,और अपने फालतू समय के उपयोग करने का सच्चा साथी,,,,
ReplyDeleteMY RECENT POST: माँ,,,
Hats off to a great bibliophile!
ReplyDeleteपुस्तकें ही हमारी सच्ची दोस्त होती हैं।
ReplyDeleteठीक कह रहे हैं. यह भी एक नशा ही है.
ReplyDeleteपुस्तकों से आपके लगाव को पढ़कर खुशी हुई।
ReplyDeleteपढने का नशा तो वाकई किताबों का लालची बना देता है . हम तो लैंडमार्क में जा कर किताबें दो तरह से छाँटते हैं -एक तो खरीद कर घर ले जाने वाले और दूसरी वहीं पर पढने वालीं ......
ReplyDeleteरैक पर सजी पुस्तकें तो मिठाइयों या गोलगप्पे से भी ज्यादा लुभाती हैं।
ReplyDeleteपुस्तको का संग वाकई मादक होता है. जिसका नशा छूट्ता नहीं .आपका पुस्तक प्रेम उर्वशी वाचन के दौरान पता पड़ा
ReplyDeleteशिवाजी सावंत लिखित मृत्यंजय् का सुझाव देना चाह्ती थी, पर कमेंट लिखना नहीं सीखा था सिर्फ ब्लोग पढ कर ही आनन्दित हो लेती थी. पुत्र् व पति की प्रेरणा से आज ये कार्य भी कर लिया.
सच कहा प्रवीण जी आप ने, पुस्तक से बढ़ कर सच्चा मित्र और कोई नही.ये बुद्धिजिवियों का भोजन भी है जो उनके बौद्धिक भूख को शान्त भी करता है..सार्थक लेख..आभार..
ReplyDelete''पुस्तकों की तुलना किसी दूसरे माध्यमों से नहीं की जा सकती है। आप एक पन्ना पलटें, यकीनन आप उसमें डूब जाएंगे। आपको कोटी-कोटी नमन ।
ReplyDeleteवाह...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (14-10-2012) के चर्चा मंच पर भी की गई है!
सूचनार्थ!
possession of a book becomes substitute for reading it .
ReplyDeleteजी आपने सत्य कहा पुस्तकें सदैव आमंत्रित करती रहती हैं। कभी-कभी तो यह सोचकर मन चिंतित होता है कि कितनी ही अच्छी पुस्तकें उपलब्ध हैं पढ़ने को, किंतु अफसोस हम कितना कम वख्त निकाल पा रहे हैं उनके लिये। मन अतृप्त बनता जा रहा है।
ReplyDeleteमुझे लगता है, पुस्तकों को लेकर अधिकांश लोगों की अनुभूतियॉं और भावनाऍं एक जैसी ही होती हैं। और तो और, जीवन के कालक्रम की स्थितियों और मनोभावनाओं के मामले में भी यह बात लागू होती है।
ReplyDeleteपुस्तकों के बीच पहुँच कर लगता है कि विश्व के श्रेष्ठ मस्तिष्कों के बीच आकर बैठ गया हूँ। वहाँ जाकर यह पता लगता है कि कितना कुछ लिखा जा रहा है, किन विषयों पर लिखा जा रहा है। यह जानना बहुत ही आवश्यक है कि श्रेष्ठ मस्तिष्कों के चिन्तन की दिशा क्या है,..........................हां जी कुछ ऐसा ही सोचना मेरा ही हैं ...बेकार की बातों में वक्त खराब करने से अच्छा है ...अच्छी पुस्तक को पढ़ लेना ...आभार आपके इतने अच्छे लेख के लिए
ReplyDeleteI love books and I can so relate to this post!
ReplyDeleteपुस्तकों का साथ मुझे भी बहुत अच्छा लगता है ..... यहाँ आकर सबसे पहले एक पुस्तकालय ढूंढ कर उसकी सदस्यता लेने का ही काम किया .....
ReplyDeleteएक मर्तबा किसी लेखक का यह वक्तव्य पढ़ा था यदि आप दिन भर में सौ सफे पढतें हैं तब आपको हक़ हासिल है आप एक सफा लिखें .सफा बोले तो पृष्ठ .किताबों में सिर्फ शब्द होतें हैं .अर्थ हमारे अंदर
ReplyDeleteरहतें हैं .किताबें हमारा अर्थ बोध बढ़ातीं हैं .आप इस प्रतिमान को बचपन में ही पूरा कर लिए .पुस्तकें हमारी निश्शुल्क शिक्षक हैं .
कभी दगा नहीं करतीं .
चाहे गीता बांचिये या पढ़िए कुरआन ,
तेरा मेरा प्रेम ही हर पुस्तक की जान .
यह मुहब्बत आबाद रहे....
ReplyDelete(आज मुझे फॉण्ट अजीब लगा, पढ़ने में असुविधा हो रही थी. वैसे, संभव है इसकी वजह मेरे कम्प्यूटर/ब्राउजर में भी हो...)
मुझे तो अपनी पुस्तकें पढ़ना ही ठीक लगता है। उसमें कुछ अच्छा लगा तो निशान लगा लिया ताकि जरूरत लगने पर उसे ढ़ूंढ़ा जा सके।
ReplyDeleteमेरे साथ तो इस नशे ने कई बार बड़ा गज़ब कर डाला -दूध उबल-उबल कर जल जाना,कुछ का कुछ कर जाना वगैरा ,वगैरा !
ReplyDeleteपुस्तके हमेशा ही मन को सुकून देती है और एकांत के सबसे भरोसेमंद साथी भी।
ReplyDeleteपहले मुझे लोग 'किताबी कीड़ा' कहते थे। अब लैपटाप में घुसा 'बेचैन आत्मा'।:)
ReplyDeleteअब तो पुस्तकों की जगह कंप्यूटर ने ले ली है .
ReplyDeleteपहले यह सुविधा पुस्तकालय में मिलती थी परन्तु अब ज्यादातर पुस्तकालय बंद होते जा रहे हैं. अब तो क्रासवर्ड जैसे बुक स्टोर ही कुछ इसमें मदद करते है.
ReplyDelete-----पुस्तकें सबसे अच्छी मित्र होती हैं जो कठिन समय में भी साथ न छोडकर आवश्यक उपाय सुझाती हैं....
ReplyDelete--- हाँ पुस्तकें सत्साहित्य होना चाहिए..ज्ञान व अनुभव के श्रोत... सिर्फ जानकारी प्रदायक व मनोरंजन हेतु ही नहीं...
अपना भी वही समय स्वर्णिम समय था जब बहुत पुस्तकें पढ़ीं और कई पुस्तकें बार बार पढ़ीं। उम्र के अलग अलग दौर में एक ही पुस्तक को पढ़ते समय अलग ही मायने समझ आते थे और ऐसे ही उन पुस्तकों के परिपेक्ष्य में जिंदगी के भी अलग अलग दौर में अलग अलग मायने।
ReplyDeleteपुस्तक पढ़ना भी अपने आप में एक तरह का नशा है जिसकी लत एक बार लग जाये तो बस फिर क्या कहने....:)
ReplyDeleteपुस्तकों के बीच पहुँच कर लगता है कि विश्व के श्रेष्ठ मस्तिष्कों के बीच आकर बैठ गया हूँ। वहाँ जाकर यह पता लगता है कि कितना कुछ लिखा जा रहा है, किन विषयों पर लिखा जा रहा है। यह जानना बहुत ही आवश्यक है कि श्रेष्ठ मस्तिष्कों के चिन्तन की दिशा क्या है, किन संस्कृतियों में क्या विषय प्रधान हो चले हैं और किन विषयों को अब अधिक महत्व नहीं दिया जा रहा है।.......बिल्कुल सही कहा पुस्तक पढ़ने का एक अपना ही मजा है ......बिल्कुल सटीक चिंतन ये बात सच है जब महीना शुरू होता है मैं भी किताबों की तलाश में किताबों की दूकान में पहुँच जाती हूँ अब तो किताब वाला मुझे इतना जानने लगा है कि मेरे पहुँचते ही किताब हाथ में लेकर खड़ा हो जाता है और फिर वही आप जैसी आदत किताब को मैं भी पीछे से देखना शुरू करती हूँ बहुत बार कोशिश की कि आगे से पन्ने पलटू पर पुरानी आदत है बदलती नहीं | पुस्तक को माध्यम बनाकर लिखी ये पोस्ट अच्छी लगी |
ReplyDeleteबहुत अच्छा है। पुस्तकों का नशा मेरा भी कुछ बढ़ गया है। एक नशेड़ी, दूसरे को अच्छा मानता है। मैं भी आपको मानता हूं।
ReplyDeleteपत्नियाँ अलबत्ता अलग विचार रखती होंगी, जब पुस्तकों पर खर्च बढ़ता है या घर में जगह बनानी पड़ती है!
बे -वफा नहीं बा- वफा होती हैं पुस्तकें
ReplyDeleteआपको अल्जाइमार्स से बचाए रहतीं हैं जो नित नया सीखता पढता रहता है उसका दिमाग और सारे न्यूरान परस्पर सकारात्मक सम्वाद करते रहतें हैं .
किताबें सारा बोध सारी मौखिक परम्पराएं दोहों और साखियों में ढाले चली आईं हैं .
ढाई आख़र प्रेम का पढ़े सो पंडित होय -की मारफत किताबें आगे निकलके कहतीं हैं पढ़े से गुना (गुणी व्यक्ति )ज्यादा बढ़िया होता है वह जो जीवन और जगत से प्रेम करता
है व्यावहारिक ज्ञान रखता है
किताबें हमारे बोध को भी झकझोरतीं हैं कहते हुए -किताबी कीड़ा होने का कोई फायदा नहीं .
तत्व ज्ञान भी लिए हैं किताबें -
पता टूटा डार (डाल )से ,ले गई पवन उड़ाय ,अबके बिछुरे (बिछुड़े ) कब मिलें दूर पड़ेंगे जाय .
प्रवीण जी किताबें पढ़िए और किताबें लिखिए .जुड़े रहिये इस तत्व ज्ञान से .पैनाये रखी दिमाग को .बचे रहिये अल्जाइमार्स से .जीना है सौ साल .अब 80-90 साला होने से
पहले आदमी मरता कहाँ है .
बहुत रोचक आलेख लगा बहुत कुछ मेरे इंटरेस्ट की बातें सचमुच किताबे सबसे अच्छी दोस्त होती हैं जब स्कूल कालेज के जमाने में मार्केट में सहेलियां मेक अप या जनरल स्टोर में घुस जाती थी मैं पास के ही किसी बुक स्टोर की और भागती थी आज भी सिलसिला वही है सफ़र पर पेकिंग के वक़्त सबसे पहले बुक रखती हूँ | बुक बुलाती हैं यह वाक्य आपका बहुत पसंद आया जब इंटर नेट प्रोब्लम हो या लाईट नहीं है तब सच में लगता है बुक बुला रही हैं
ReplyDeleteकुछ भी कैसा भी मन हों हालात हों पुस्तकें ऐसी मित्र साबित होती हैं इस्नकी संगत में मन शांत हो जाता है.
ReplyDeleteपुस्तकें ज्ञान का अद्भुत भंडार ...
ReplyDeleteसादर
" थककर पुस्तकालय में बहुत बार सो भी गया, भारी भारी स्वप्न आये, निश्चय ही वहाँ के वातावरण का प्रभाव व्याप्त होगा स्वप्नलोक में भी।"
ReplyDeleteपढ़ाई का तो पता नही, कितनी की मैने लेकिन आज आपका यह वाक्य यह याद दिला दिया कि मुझे आज भी सबसे अच्छी नींद पुस्तकालय में हीं आती है...
सादर
ललित
किताबें बुलाती हैं
ReplyDeleteमां की तरह
गोद में बिठाकर
पालती हैं, पोषती हैं
जीना सिखाती हैं.
किताबें चल देती हैं साथ
दोस्त की तरह
बोलती है, बतियाती हैं
किताबें पिता की तरह
उंगली पकड़कर
राह दिखाती हैं
किताबें हमें जोड़ देती हैं
अतीत से भविष्य तक
असम्भव से अवश्य तक
किताबें जेहन में घुल जाती हैं
करती हैं दिलो दिमाग को रोशन
किताबें हमें सजाती हैं
किताबें मनुष्य और जिंदगी के बीच सेतु हैं
विवेक, विकास और उल्लास की हेतु हैं.
पुस्तकों का मायावी संसार !
ReplyDeleteनयी पुस्तकों की खुशबू तो बचपन से ही लुभाती रही है !
पुस्तकें सबसे अच्छी मित्र होती हैं जो कठिन समय में भी साथ न छोड उपाय सुझाती हैं....
ReplyDeleteपुस्तक के शब्द और मन
ReplyDeleteदोनों का आपस में कोइ रिश्ता भी नहीं है,
पर शब्द आकर्षित करते है मन को
क्योकि वे समझते है दशा हर एक मन की |
पुस्तकों से अच्छा मित्र कौन ।
ReplyDeleteप्रिय मनीष जी,
ReplyDeleteमैं आपके ब्लॉग का नियमित पाठक हूँ. आपने भी शायद मेरा ब्लॉग "धर्मसंसार" पढ़ा होगा. ये पहली बार मैं आपसे संपर्क कर रहा हूँ कारण कि मैंने भीष्म और अम्बा पर आधारित एक उपन्यास लिखा है जिसे डायमंड बुक्स ने छापा है. चूँकि धार्मिक और पौराणिक विषयों पर आपकी पकड़ बहुत अच्छी है इसीलिए मेरी ये इच्छा थी कि मेरा उपन्यास पढ़ कर अपनी राय दें. अगर ये उपन्यास आपको पसंद आता है तो मैं चाहूँगा कि आप अपने ब्लॉग पर उस पुस्तक की समीक्षा लिखें. इसके लिए मैं आपका आभारी रहूँगा. अगर आप इसपर पर सहमत हों तो मुझे संपर्क कर सकते हैं. मैं एक पुस्तक आपके पते पर भिजवा दूंगा.
धन्यवाद
नीलाभ वर्मा
9958574758
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