शाम थी, वह भी रविवार की, बैठकर सोच रहा था कि सप्ताहान्त कितना छोटा होता है, केवल दो दिन का। क्या न कर डालें इन दो दिनों में, यह सोचने में और उसके लिये समुचित साँस भरने में एक दिन निकल जाता है। दूसरा दिन पिछले सप्ताह की थकान मिटाने में और आने वाले सप्ताह के लिये ऊर्जा संचित करने में ढल जाता है।
इस बार पक्का था कि शनिवार श्रीमतीजी फिल्म दिखाने के लिये घेरने वाली हैं, मन मार के मन भी बना लिया था कि दिखा देंगे। यहाँ एक फिल्म में लगभग दो हजार शहीद हो जाते हैं, ढाई सौ से कम तो कोई भी टिकट नहीं। अब फिल्म भी सूखी नहीं दिखायी जा सकती है, बिना पॉपकार्न, नैचो और पेप्सी के बच्चों को फिल्म समझ भी नहीं आती है, इन तत्वों के बिना फिल्म अनाकर्षक लगती है। ऐसा नहीं है कि हम अपनी तरफ से कोई तैयारी नहीं करते हैं, दोपहर को समुचित भोजन करा के चलते हैं जिससे फिल्म के पहले ही भूख न लग जाये, पर मध्यान्तर होते होते सब कुछ हजम हो जाता है। बच्चों और श्रीमतीजी के सामने हमारी चालाकी आज तक नहीं चल पायी है। यदि कभी ना नुकुर की तो श्रीमतीजी बच्चों की हितैषी बन बैठती हैं, कृपणमना होने के ढेरों आक्षेप लगने लगते हैं। अब बच्चों को और उनकी माताजी को कैसे समझाया जाये कि हम तो तीस-चालीस रुपये में फिल्म देख आते थे। चार लोगों के टिकट के लिये १६० रुपये और मध्यान्तर में ४० रुपये के समोसे और कोल्डड्रिंक्स, कुल मिलाकर २०० रु।
कितनी भी जीडीपी बढ़ जाये, कितनी भी मँहगाई बढ़ जाये, २०० रु की जगह २००० रु जाते हैं, तो अटपटा लगता है, हृदय बैठने लगता है। फिल्में वही हैं, अभिनेता वही हैं, सिनेमा हॉल के स्थान पर मल्टीप्लेक्स आ जाने से फिल्म देखने में १८०० अतिरिक्त लगने लगे हैं। देश की अर्थव्यवस्था भले ही सुधर गयी हो, हमारी तो हर बार इसी तरह भड़भड़ा जाती है। कई लोग कह सकते हैं कि फिल्म देखना तो उपभोग की श्रेणी में आता है, न कि आवश्यकता की श्रेणी में। उनको बस यही कहा जा सकता है कि यह हमारे लिये विवशता की श्रेणी में आता है। मल्टीप्लेक्स आ जाने से सिनेमा हॉल में फिल्में देखना कृपणता के कार्यों में गिना जाने लगा है। यहाँ पर जितने भी सिनेमा हॉल होते थे, सब के सब ढहाये जा रहे हैं और उनके स्थान पर मॉल और मल्टीप्लेक्स तैयार हो रहे हैं। जब हर परिवार में मल्टीप्लेक्स में फिल्म देखने के दीवाने बढ़ने लगें, तो सबकी आशायें बढ़ने लगती हैं। पहले जो काम २०० में होता था, उसके लिये २००० मिलने की संभावनायें बन जायें, तो अर्थव्यवस्था में उभार आना ही है, जीडीपी बढ़नी ही है, देश का विकास होना ही है।
पर इस बार भाग्य ने हमारे पक्ष में पलटा खाया, शनिवार को ही पूरे कर्नाटक बन्द की घोषणा हो गयी। विषय अत्यधिक संवेदनशील था, कावेरी के जल के बटवारे ने स्थिति गम्भीर कर दी थी, पूरा बंगलोर लगा कि जगा ही नहीं। कई स्थानों पर ट्रेनें रोक दी गयी थीं। लम्बी दूरी की ट्रेनों सहित कई ट्रेनें निरस्त भी करनी पड़ीं। पहले तो इस व्यस्तता में दिन निकल गया और सायं भी मॉल बन्द होने के कारण फिल्म देखने का कार्यक्रम पूरी तरह टल गया। अगले दिन समाचार पत्रों में पढ़ा कि उस दिन देश की अर्थव्यवस्था को कई करोड़ का घाटा हुआ। सोचने लगे कि उस घाटे में क्या स्वरूप रहा होगा, बहुत कुछ तो समझ नहीं आया, बस इतना निश्चित था कि उसमें हमारे न खर्च होने वाले दो हजार रुपये भी हैं। इस सप्ताह तो बच गये, पर पता नहीं कि आने वाले सप्ताह में ईश्वर कैसे सहायता करेगा? यदि ईश्वर ने सहायता नहीं की तो देश की अर्थव्यवस्था में हम भी २००० रु की आहुति चढ़ा देंगे। कावेरी जल विवाद में यहाँ की अर्थव्यवस्था अभी और कितनी प्यासी रह जायेगी, कहना कठिन है। यहाँ का वातावरण देख कर लगता है, या तो जल में प्रवाह रहेगा या अर्थव्यवस्था में।
रविवार का दिन हमें पूरी तरह से मुक्त रखा जाता है, इसी दिन का प्रताप है कि सप्ताह भर के लिये दो पोस्टों का लेखन हो पा रहा है। कोई निश्चित कार्यक्रम नहीं, अपनी ओर से भेंट के लिये कोई पहल नहीं, बस अपने साथ, अपने परिवार के साथ। कहने को तो यह सूर्यदेव का दिन होता है, प्रखर चमकने के लिये पर हम स्वयं में खोये रहते हैं,स्वयं में सोये रहते हैं। सायं विश्वकप का मैच देखना था, अपने पड़ोसी के घर में, भोजन के साथ, अतः दोपहर को भोजन के बाद झपकी मार ली। सुबह से टीवी पर दोषारोपणों का इतना विषवमन हो चुका था कि लग रहा था कि टीवी देखना बन्द नहीं किया तो देश की स्थिति की तरह हम भी पाताल पहुँच जायेंगे। टीवी बन्द करने से सहसा अच्छा लगने लगा, लगा कि देश की समस्यायें थोड़ी कम हो चली हैं। इतनी मानसिक थकान हो चली थी कि आँख बन्द कर सोचने में ही नींद आ गयी।
ऐसी ही एक निश्चिन्त नींद और आगामी भोज के आनन्द के बीच का समय था, शाम थी वह रविवार की। कुछ न होने और कुछ न खोने की बीच की स्थिति में बैठे थे। श्रीमतीजी सायं के पंचायत-कम-टहलने में व्यस्त थीं, बच्चे आने वाले पाँच दिनों का खेलने का कोटा आज ही पूरा कर लेने में श्रमनिरत थे। मन में कोहरे जैसा आनन्द आ रहा था, न कुछ दिख रहा था, न कुछ देखने की इच्छा ही थी।
पर आनन्द की इस स्थिति में बाधा पड़ गयी, घर के पीछे से हल्का हल्का धुआँ आ रहा था। लगा कहीं कोई कूड़ा तो नहीं जला रहा है, संभावना बहुत कम थी, क्योंकि श्रीमतीजी सारे कूड़े से खाद बनवा देती हैं, जलाने के लिये कुछ बचता ही नहीं है। पता किया गया, आउटहाउस में कोई चूल्हा जलाये हुये था, वहीं से धुआँ घर के अन्दर घुस रहा था। बंगलोर की हल्की ठंडी और मदिर हवा में यदि धुआँ मिल जाये तो रस का सारा तारतम्य चौपट हो जाता है। जहाँ तक मुझे याद था कि बहुत कम ही ऐसा हुआ था जब पीछे से धुआँ आया हो, उनके घर में गैस थी और खाना उसी पर बनता है। यद्यपि यहाँ पर पेड़ बहुत हैं और उनकी सूखी टहनियाँ गिरती रहती हैं, पर भोजन बनाने के लिये रसोईगैस का ही प्रयोग होता है। यहाँ जाड़ा भी नहीं पड़ता है, लकड़ी जलाकर सेंकने का भी कोई प्रश्न नहीं उठता है।
धीरे धीरे जब भेद खुला, तब देश में हो रहे आर्थिक सुधारों के प्रभाव और गति का पता चला। एक सप्ताह पहले जो निर्णय टीवी पर बहसों का अंग था, वह अपने निष्कर्ष पा रहा था, हमारे घर के पीछे। जो तथ्य सामने आये, बड़े रोचक थे। यद्यपि उस घर में रसोई चूल्हा था, पर आने वाले ६ महीनों में मात्र ३ गैस सिलिण्डर मिलने के कारण प्रत्येक सिलिण्डर को २ माह चलाने की विवशता थी। जहाँ पर माह में एक सिलिण्डर की आवश्यकता हो, वहाँ उसे दो महीने खींचने के लिये हर दूसरे दिन चूल्हे पर खाना बनाना पड़ेगा। ईश्वर की कृपा से यहाँ पर पेड़ पर्याप्त हैं, सूखी टहनियों की कमी नहीं है, कुछ नहीं तो हर दूसरे दिन तो चूल्हा जलाया ही जा सकता है। आउटहाउस वाला आकर बोला 'क्या करेगा साहब, आप तो सब जानते ही हैं।' हम भी अपने कल्पना लोक से धीरे से उतर आये, धुआँ अब तक मन में उतर गया था।
फिल्म हो, बंद हो या धुआँ हो, देश की अर्थव्यवस्था हर पर सीधा प्रभाव डालती है। एक सप्ताहान्त के दो दिनों में जब इतना मिल गया तो पूरे सप्ताह में क्या हाल होगा, राम जाने। अब तो हर शाम धुँआ धुँआ हो, तो कोई आश्चर्य नहीं, इसकी आदत डालनी होगी। संभवतः कुछ दिनों में धुयें के सौन्दर्यपक्ष को कविता में सहेजने की दृष्टि विकसित हो जाये।
बिल्ली के भागों कभी-कभी छींका टूट ही जाता है.और चूल्हे पर पका भोजन!सब स्वाद हेय हैं उसके आगे (वैसे भी हर कमी में कोई-न कोई अच्छाई खोज ही लेंगे आप ).
ReplyDeleteविवशता इसी का नाम है|
ReplyDeleteसप्ताहांत दो दिन का अब हमें भी कम पड़ता है, सोच रहे हैं कि जहाँ तीन दिन का सप्ताहांत होता है वहाँ चला जाये अब !!
ReplyDeleteफ़िल्म के मामले में हम थोड़े कंजूस हैं, या कह सकते हैं कि थोड़ा सा गुणवत्ता से समझौता करने के कारण हमारे दो हजार शहीद होने से बच जाते हैं।
घर पर रहते हैं तो सप्ताहांत कैसे निकल जाता है पता ही नहीं चलता और जब ऑनसाईट होते हैं, तो आरामतलबी और बौद्धिक जुगाली की भेंट चढ़ जाता है।
अब देश की अर्थव्यवस्था का क्या कहें, कल ही लिखे हैं ।
A great musing albeit engulfed by a little smoky and smogy surrounding!
ReplyDeleteबदले बदले से मेरे सरकार नजर आते हैं:)
ReplyDeleteरोज सुबह घर के सामने से सायकिल पर जाते एक परिवार को देखती हूँ . तीन बच्चे सायकिल पर , पति सायकिल पकड़कर चलता हुआ ,पत्नी टिफिन के साथ . पास में ही एक थडी पर आयरन करते हैं .सप्ताहांत की बात होते ही मुझे उनका चेहरा याद आ जाता है !
ReplyDeleteकई लोग कह सकते हैं कि फिल्म देखना तो उपभोग की श्रेणी में आता है, न कि आवश्यकता की श्रेणी में। उनको बस यही कहा जा सकता है कि यह हमारे लिये विवशता की श्रेणी में आता है।
ReplyDeleteजीवन के रंग अनेक हैं .....अब इन्हें विवशता का नाम दें यह अवश्यकता का ....लेकिन निभाना तो पड़ेगा ही न ...!
कड़वे यथार्थ को बहुत ही रोचक डीएचएनजी से आपने लिख दिया |मशहूर व्यंगकार शरद जोशी की शैली याद आ गई |आभार |
ReplyDelete2000 बच गए, लेकिन कब तक? आज खबर थी कि नेताजी के घर से दो गैस सिलेण्डर चोरी हुए।
ReplyDeleteबहुत ही हैप्पनिंग रविवार था आपका.. हमारा भी मनोरंजन कर गया।
ReplyDelete...हम तो दोस्तों के संग फिलम देखने जाते हैं,हमारी श्रीमती जी को ये सब फालतू लगता है !
ReplyDeleteमल्टीप्लेक्स में पिक्चर देखना लग्ज़री है .... यहाँ तो फ्लैट में रहने वाले धुआँ भी नहीं उठा सकते .... बस दिल सुलगते रह जाएँगे ।
ReplyDeleteरोचक अंदाज़ लिखने का ।
बहुत ही रोचक अंदाज में लिखा..सुन्दर आलेख..आभार..
ReplyDeleteभावों का जबरदस्त प्रगटीकरण ।
ReplyDeleteएक में तीन-
शुभकामनायें-
बिल्ली छींका चाटती, जब तब जाए टूट ।
लुकाछिपी चलती नहीं, हर दिन लेती लूट ।
हर दिन लेती लूट, रूठ भी जाये अक्सर ।
पर सम्बन्ध अटूट, बिलौटे रहना बचकर ।
हो श्रीमान प्रवीण, चाल चलती है दिल्ली ।
धुवाँ धुवां सा सीन, बजाती घंटी बिल्ली ।।
उत्कृष्ट प्रस्तुति का लिंक लिंक-लिक्खाड़ पर है ।।
ReplyDeleteजैसे जैसे महंगाई बढ़ रही है,सस्ते की परिभाषा बदल रही है ...
ReplyDeleteश्रीमति जी को कितना भी मना करो अपने बडे से पर्स में खाने पीने का सामान रख लेती है और उन्हे किसी ने रोका भी नही । मै तो डरता हूं कि कहीं किसी ने कुछ कह दिया तो शर्मिन्दा होना पडेगा पर वो मानती नही । आप भी करके देखो
ReplyDeleteयहाँ भी एक फिल्म में ६० पौंड्स लग जाते हैं.दिल में धुंआ उठता है अपर क्या करें बिना नाचो और पोपकोर्न के फिल्म का मजा भी नहीं आता:).
ReplyDeleteअच्छा धुंआ धुंआ वीकेंड बीता आपका.आगे के बिना धुंआ के वीकेंड के लिए शुभकामनायें :)
धुंआ-धुंआ होना तो एक पक्ष है, उससे बड़ी समस्या आने वाली है धुँआ ही सही पर उसके लिये भी ईंधन कहाँ से आयेगा जब उपली से लेकर लकड़ी तक सब पहले से समाप्त प्राय है।
ReplyDeleteकुछ नी हो सक्ता
ReplyDeleteमुंबई में पली बढ़ी मेरी एक सहेली है। उसे धुएं की गंध बहुत अच्छी लगती है। कहीं से भी लकड़ी जलने की गंध आएगी,वो ठिठक जायेगी और रुक कर बोलेगी "I like this smokey smell "
ReplyDeleteख़ास बुरा मुझे भी नहीं लगता :)
हम तो सनीमा के मामले में कृपण मना है . याद भी नहीं रहता कब देखी थी अंतिम बार . जब आग चारो तरफ लगी हो तो धुआं उठाना और आंसू निकलना तो लाजिमी है .
ReplyDeleteइस हिसाब से हम तो लाखों बचा चुके हैं . :)
ReplyDeleteधुएं के दिन फिर वापस आने वाले हैं .
इस हिसाब से हम तो लाखों बचा चुके हैं . :)
ReplyDeleteधुएं के दिन फिर वापस आने वाले हैं .
संभवतः कुछ दिनों में धुँये के सौन्दर्यपक्ष को कविता में सहेजने की दृष्टि विकसित हो जाये।
ReplyDeleteबस कुछ दिनो मे ज़िन्दगी ही धुआं धुआं हो जानी है अर्थव्यवस्था को कुछ हो ना हो ।
हमेशा की तरह...लाजवाब पोस्ट...दो हज़ा इस बार तो बच गए...लेकिन बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी...एक तो दिल से जाँ से उठता है ये धुआं सा कहाँ से उठता है...
ReplyDeleteनीरज
वाह नीरज भाई साहब क्या शेर कहा है ... जय हो !
Delete200 के 2000 खर्च हो तो फिर तो धुआँ निकलेगा ही निकलेगा !
ReplyDeleteविश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस पर देश के नेताओं के लिए दुआ कीजिये - ब्लॉग बुलेटिन आज विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस पर पूरी ब्लॉग बुलेटिन टीम और पूरे ब्लॉग जगत की ओर से हम देश के नेताओं के लिए दुआ करते है ... आपकी यह पोस्ट भी इस प्रयास मे हमारा साथ दे रही है ... आपको सादर आभार !
Deleteप्रवीण जी,,,मै तो गाँव रहता हूँ,गोबर गैस से खाना बनता है,गैस खत्म होने पर हप्ते में १-२ बार लकड़ी का उपयोग करना पडता है,फिल्म के लिये टी०वी०से काम चला लेते है,,,,,,लेकिन शहर में रहने वालो लोगो की मजबूरी को मै समझ सकता हूँ,,,,सार्थक रोचक आलेख,,,,,
ReplyDeleteदेख तो दिल के जाँ से उठता है ,
ReplyDeleteये धुआं सा ,कहाँ से उठता है .
चलिए चूल्हे के भी दिन लौटे ,
चक्की भी चल जाएगी .
बिजली कब कब आयेगी .
कंग्रेसिया शासन में गाड़ीबैल भी आयेगी .
आने वाले समय में सब धुआँ-धुआँ ही होगा | अब जितनी ज़रूरतें हैं उन्हें तो पूरा करना ही होगा .....
ReplyDeleteऐसा ही रहा तो भविष्य में क्या होगा ईश्वर जाने!
ReplyDeleteजहाँ पेड़ नहीं हैं वहाँ कैसे खाना बनेगा?
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 11-10 -2012 को यहाँ भी है
ReplyDelete.... आज की नयी पुरानी हलचल में ....शाम है धुआँ धुआँ और गूंगा चाँद । .
अजी इस राजनीतिक धुआँ की ओट में ही तो सब हो रहा है .
ReplyDeleteये लोग अब तो सामूहिक धुआं करने लगें हैं ,
अब जीजाजी गेट आ गया .
सब धुएं की ही सृष्टि है ,धुएं की ही माया है ,
नगर नगर चहुँ ओर है हुआं हुआं का शोर ,
खुले तंत्र में आर्थिक सुधारों के कथित दौर में सब धुआं धुआं ही होगा .बढती आर्थिक खाइयां ही इस दौर का हासिल है .हमने तो बालकोनी में 1967-68 में
पांच रूपये में सिनेमा देखा है .तब सलीमा कहते थे .अब हलीमा क्या आदमी का ही कीमा हो गया इस दौर के सुधार अभी और धुआं निकालेंगें .तैयार रहो .
संभवतः कुछ दिनों में धुँये के सौन्दर्यपक्ष को कविता में सहेजने की दृष्टि विकसित हो जाये।
ReplyDeleteबेहद सशक्त लेखन।
हम तो बस धुए से उपजी व्यथा नहीं, कविता की प्रतिक्षा कर रहे हैं!!
ReplyDeleteकितनी भी जीडीपी बढ़ जाये, कितनी भी मँहगाई बढ़ जाये, २०० रु की जगह २००० रु जाते हैं, तो अटपटा लगता है, हृदय बैठने लगता है।
ReplyDelete....बिलकुल सच...पर धुएँ में पके खाने का स्वाद भूलना मुश्किल है..
धुएं की आदत डालनी होगी फिर धुएं का सौंदर्य पक्ष भी समझ में आ जायेगा ।
ReplyDeleteधुआं कहीं से उठ तो रहा है जरूर
या मेरे दिल से या उसके रसोई से है ।
भैया हम तो इसलिए फिल्म देखने मल्टीप्लेक्स में कम ही जाते थे.....संजय नगर का वैभव सिनेमा हॉल जिंदाबाद...लेकिन सुनने में आया है की वहां भी वीकेंड टिकट्स 150 के हो गए हैं.......मल्टीप्लेक्स में अगर जाना होता था तो वीकडे में शामों को या फिर वीकेंड में सुबह के शो....
ReplyDeleteचलिए कोई नहीं भैया...भाभी जी और बच्चों को ऐसे ही फ़िल्में दिखाते रहिये....अच्छे कर्म हैं ये सब :P :P
समय और परिस्थ्ितियों के अनुसार ही समस्याओं के निदान भी तलाश कर लिए जाते हैं।
ReplyDeleteअब सोचिये प्रवीण जी रूपये का कितना अवमूल्यन हुआ है .आप सिनेमा देखने में संकोच कर रहें हैं .जबकि पद प्रतिष्ठा में नौकरी पेशा ईमानदार वर्ग के ऊपरले पायेदान पे हैं .कोई दो दिन खाना चूल्हे पे पका रहा है .बेशक थोड़ी जली
ReplyDeleteहुई कंडे की आंच पे सिंकी रोटी कार्बन युक्त होने से थोड़ा सा सुपाच्य हो जाती है लेकिन यह हम भारतीयों की खूबी है हर अभाव में से जीवन का भाव पक्ष निकाल लेना .
एक भारत में कई भारत हैं एक छोर पर मैड है ,हाँ बाई ,माई कुछ भी कह लो .अलग अलग अंचलों में इन काम -वालियों को अलग अलग नाम से पुकारा जाता है .हम उस अमरीका की होड़ कर रहें हैं जहां की अर्थव्यवस्था का एक मामूली उदाहरण देना चाहूंगा .अब यहाँ तो रेस्ट रूम्स में भी कालीन हैं .टॉयलिट सीट की बेक भी .नीचे पैर रखने की जगह भी कालीन से ढकी है .चौबीसों घंटों टैप से ठंडा भी गर्म पानी भी ,बिजली भी .इंटरनेट भी .
हर पंद्रह दिन बाद एक महिला आतीं हैं साठ के पार उम्र होगी .कभी एस यू . वी .से कभी और किसी बड़ी गाड़ी से .गाड़ी यहाँ दिखाऊ नहीं ज़रूरी है .घर में कुल तीन रेस्ट रूम हैं एक नीचे और दो ऊपर .यह महिला अपने केमिकल्स लेकर आती हैं .
तीनों को क्लीन करती हैं .समय लगता है तकरीबन ढाई घंटा .पारिश्रमिक मिलता है एक बार काम करने का 50 डॉलर्स .यानी 2750 रूपये .
हमारे यहाँ काम वाली पूरा महीना खटती है ,कहीं दिन में एक मर्तबा आती है कहीं दो .पारिश्रमिक होता है 800-2000 के बीच कुछ भी काम के स्वरूप के मुताबिक़ .
अब ये मल्टीप्लेक्स इसी तरह हैं .अमरीकी अर्थव्यवस्था से जुड़ने की भौंडी नकल है .जबकि विकास के हाशिये पे पड़ा आम आदमी ,वह आदमी जिसे साल भर में 100 दिन काम मिलता है मरेगा ,नरेगा और मरेगा से संतुष्ट है .
ऐसे में धुआं ही धुआं होगा .
मनमोहन जी कह रहें हैं हम प्रतिबद्ध है भ्रष्टाचार मिटाने को आर्थिक सुधारों की तीसरी खेप ला रहें हैं .कसम खुदा की सलमान खुर्शीद की तरह माल खुद खा रहें हैं .विकलांगों की कुर्सी भी खा जाते हैं ये लोग .
ऐसे में धुआं न निकलेगा तो क्या निकलेगा ?
यहाँ के कथित स्लम्स के बाहर भी हर घर के बाहर एक गाड़ी रहती है अलबत्ता रिहाइशी जगह कम रहती है .मूलभूत सुविधाएं सबको मयस्सर हैं .
हम माल ला रहें हैं .मल्टीप्लेक्स ला रहें हैं लग्ज़री कारें ला रहें हैं और इसे ही विकास बतला रहें हैं .आर्थिक विषमता में भारत का कोई मुकाबला नहीं कर सकता .
यहाँ एब्सोल्यूट बेगर्स भी हैं अम्बानी भी हैं .
(ज़ारी)
जब जब आपको पढता हूँ , पता नहीं क्यों लगता है जैसे खुद को पढ़ रहा हूँ | बिलकुल सच बयानी है आपकी , भले ही दूसरों को रोचक लग रही हो |
ReplyDeleteसार्थक इतवारी चिंतन.
ReplyDeleteबुद्धिमान वही है जो जहर में भी अमृत खोज लेता है।
ReplyDeleteधुएं के सौंदर्य पक्ष पर कविता की प्रतीक्षा रहेगी।
ये पर्वतों के दायरे ये शाम का धुआं
ऐसे में क्यूँ न छेड़ दें दिलों की दास्तां।
सिनेमा हाल में जाकर सिनेमा देखे दस साल से ज्यादा हो गए हैं। मल्टीप्लेक्स में जाने का सवाल ही नहीं। हाँ, एक वजह पैसा भी है लेकिन उससे भी बड़ी वजह मालों की चका-चौध है जहाँ मेरा दम घुटने लगता है। जिस ग्रामीण संस्कृति में पला हूँ वह मेरे भीतर भी रची बसी है. वह इज़ाज़त नहीं देती। खैर .........।
लेख आपका हमेशा की तरह बढ़िया है। कई विषयों को पूरी संवेदना से छूता हुआ।
अभी तो विरोधी-हाहाकारी स्वर ही चहुंओर गूंज रहा है..आगे कौन सी दृष्टि विकसित होती है देखना दिलचस्प होगा..
ReplyDeleteफिलहाल पुनः चेन्नई आ गया हूँ. भतीजा आग्रह कर रहा है "इंग्लिश विन्ग्लिश" चलने का. २००० की आहुति हमें भी देनी होगी. हम तो डेढ़ रुपये में बालकनी में बैठ कर देख लिया करते थे. केरल के अपने घर में धुंवां रहित चूल्हे की स्थापना करवाई जा रही है. सूखी लकड़ियों की कोई कमी भी नहीं है.
ReplyDeleteबस इसी प्रकार आने वाली चुनौतियों का सामना आमजन कर लेते हैं .....
ReplyDeleteबस यही है मिडिल क्लास फॅमिली के वक्त के साथ अडजेस्ट करने का तरीका...:)
ReplyDeleteबहुत अच्छा संस्मरण जो एक सार्थक चिंतनीय मोड़ पर आकर रुका वो मोड़ जहां धुंआ धुंआ है बहुत अच्छा लिखा
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