आयाम विचारों का सीमित, रह चार दीवारों के भीतर,
लगता था जान गया सब कुछ, अपने संसारों में जीकर,
कुछ और सिमट मैं जाता था, अज्ञान सुखद हो जाता था,
अपने घर में ही घूम रहा, मन आत्म-मुग्ध-मदिरा पीकर ।।१।।
करते अन्तरमन अवलोकन, संगूढ़ प्रश्न उठते जब भी,
यदि व्यथित विचारों की लड़ियाँ, तब लिये समस्या जीवन की,
हम चीखे थे उद्गारों को, जो भेद सके दीवारों को,
पर सुनते थे दीवारों से, अनुनाद वही, संवाद वही ।।२।।
लगता कुछ और बड़ी दुनिया, हटकर विस्तारों से घर के,
थे रमे स्वजीवन में पूरे, हम घर से दूर नहीं भटके,
मन, जीवन अपना चित-परिचित, पर शेष प्रभावों से वंचित,
भर लेने थे सब अनुभव-घट, जो रहे अधूरे जीवन के ।।३।।
वन, कुंजों में कोयल कूँके, गूँजे मधुकर मधु-उपवन में,
नदियाँ कल कल, झरने झर झर, बँध प्रकृति पूर्ण आलिंगन में,
चिन्तन नभ में उड़ जाना था, उड़ बादल में छिप जाना था,
संग बूँद चीरते पवन-पुंज, सागर ढूढ़ूँ नीरव मन में ।।४।।
मेघों का गर्जन अर्थयुक्त, पृथ्वी का कंपन समझूँगा,
माँ प्रकृति छिपाये आहत मन, आँखों का क्रन्दन पढ़ लूँगा,
सुन चीख गरीबी, भूख भरी, अँसुअन बन मन की पीर ढरी,
तन कैसे जीवन ढोता है, अध्याय हृदयगत कर लूँगा ।।५।।
यदि संस्कार क्षयमान हुये, होती परिलक्षित फूहड़ता,
वह शक्ति-प्रदर्शन, अट्टहास, लख राजनीति की लोलुपता,
जीवन शापित हर राहों में, भर कुरुक्षेत्र दो बाहों में,
कर छल-बल, पल पल खेल रही, पूछूँगा, कैसी जनसत्ता ।।६।।
चहुँ ओर हताशा बिखरी है, बन बीज जगत के खेतों में,
देखूँगा निस्पृह, जुटे हुये, सब भवन बनाते रेतों में,
जीवन के पाँव बढ़ायेंगे, अपने उत्तर पा जायेंगे,
सब चीख चीख बतलाना है, कब तक कहते संकेतों में ।।७।।
कविता संग रहते ऊब गयी, उसको भी भ्रमण कराना है,
एक नयी हवा, एक नयी विधा, जीवन में उसके लाना है,
अभिव्यक्ति बनी थी जीवन की, बनकर औषधि मेरे मन की,
वह संग रही, पर उसको भी, विस्तार जगत का पाना है ।।८।।
सर बहुत ही प्रेरणादायी कविता |
ReplyDeleteबहुत बढ़िया प्रेरणादायक अभिव्यक्ति
ReplyDeleteआगे बढ़ना ही जीवन है ...
ReplyDeleteसही कहा आपने अर्चना जी
Deleteखोटेज.ब्लागस्पाट.काम
ReplyDeleteवन, कुंजों में कोयल कूँके, गूँजे मधुकर मधु-उपवन में,
नदियाँ कल कल, झरने झर झर, बँध प्रकृति पूर्ण आलिंगन में,
चिन्तन नभ में उड़ जाना था, उड़ बादल में छिप जाना था,
संग बूँद चीरते पवन-पुंज, सागर ढूढ़ूँ नीरव मन में ।।४।।आनुप्रासिक सौन्दर्य इतर भी पूरी रचना में व्याप्त है -
कविता संग रहते ऊब गयी, उसको भी भ्रमण कराना है,
एक नयी हवा, एक नयी विधा, जीवन में उसके लाना है,
अभिव्यक्ति बनी थी जीवन की, बनकर औषधि मेरे मन की,
वह संग रही, पर उसको भी, विस्तार जगत का पाना है ।।८।इतने भर से संतुष्ट नहीं पथ लम्बा आगे जाना है ....मनोहरं सुन्दरम एक भावात्मक अनुगुंजन अनुनाद विस्तार लिए है रचना में लय और ताल के साथ .काव्य सौन्दर्य शब्दों का औज़ चयन देखते ही बनता हैजैसे सोता फूटा हो खुद -बा -खुद कविता बनकर .
ram ram bhai
कविता संग रहते ऊब गयी, उसको भी भ्रमण कराना है,
ReplyDeleteएक नयी हवा, एक नयी विधा, जीवन में उसके लाना है,
अभिव्यक्ति बनी थी जीवन की, बनकर औषधि मेरे मन की,
वह संग रही, पर उसको भी, विस्तार जगत का पाना है ।।८।।
बहुत प्रबल भाव ...अवसाद छोड़ जीवन नदिया आगे बढ़ रही है ....कल कल नाद करती हुई ...विस्तार लेती हुई ...प्रेरणा देती हुई .....!!
उत्कृष्ट भाव और काव्य ...दोनों ...
मनोहारी भावाभिव्यक्ति, एक अर्थपूर्ण और आशावादी सोच के साथ आगे बढ़ते जाने की ....
ReplyDeleteयदि संस्कार क्षयमान हुये, होती परिलक्षित फूहड़ता,
ReplyDeleteवह शक्ति-प्रदर्शन, अट्टाहस, लख राजनीति की लोलुपता!
कविता संग रहते उब गयी , उसको भी भ्रमण कराना है ...
जीवन चलने का नाम !
कविता का शिल्प सौन्दर्य अभिभूत करता है !
बहुत सुन्दर पोस्ट है ।
ReplyDeleteमेरी नयी पोस्ट -"क्या आप इंटरनेट पर ऐसे मशहूर होना चाहते है ?" को एक बार अवश्य देखे । धन्यवाद
मेरा ब्लॉग पता है - harshprachar.blogspot.com
पूरा खुल के आयें हैं भगवन...कविता का यही मजा है कि अंदर का सब-कुछ बाहर उड़ेल दे और वह भी तरतीब से !
ReplyDeleteसंग बूँद चीरते पवन-पुंज, सागर ढूढ़ूँ नीरव मन में ।।४।।
ReplyDeleteबेहद भावभरी लाइन
सर ...आखिर हम अपंग होते जा रहे है ....कब तक ..?
ReplyDeleteअभिभूत करती उत्कृष्ट भाव की रचना,,,,,,
ReplyDeleteकविता को विस्तार लेने दीजिये , परवाज भरने दीजिये , जीवन की औषधि को फलने फूलने दीजिये. संग्रहणीय कविता .
ReplyDeleteआनन्द आ गया पढ़ कर, जैसे बरसात में सोते फूट रहे हों ।
ReplyDeleteअंतस्तल का यायावर ही बाह्य विस्तार पाता है ...
ReplyDeleteउत्कृष्ट रचना प्रवीण भाई ...
ReplyDeleteकविता संग रहते ऊब गयी, उसको भी भ्रमण कराना है,
एक नयी हवा, एक नयी विधा, जीवन में उसके लाना है
माँ शारदा का आशीर्वाद है आपको , आप सफल रहेंगे ! हार्दिक शुभकामनायें ..
Jeevan ka khel
ReplyDeleteमेघों का गर्जन अर्थयुक्त, पृथ्वी का कंपन समझूँगा,
ReplyDeleteमाँ प्रकृति छिपाये आहत मन, आँखों का क्रन्दन पढ़ लूँगा,
सुन चीख गरीबी, भूख भरी, अँसुअन बन मन की पीर ढरी,
तन कैसे जीवन ढोता है, अध्याय हृदयगत कर लूँगा ।।५।।
संवेदनशील मन सब पढ़ ही लेगा .... बहुत सुंदर भाव लिए खूबसूरत कविता
अभिव्यक्ति बनी थी जीवन की, बनकर औषधि मेरे मन की,
ReplyDeleteवह संग रही, पर उसको भी, विस्तार जगत का पाना है
bauhat accha...deep and profound!!
कविता संग रहते ऊब गयी, उसको भी भ्रमण कराना है,
ReplyDeleteएक नयी हवा, एक नयी विधा, जीवन में उसके लाना है,
अभिव्यक्ति बनी थी जीवन की, बनकर औषधि मेरे मन की,
वह संग रही, पर उसको भी, विस्तार जगत का पाना है ।।
बेहद प्रभावशाली रचना ...
अभिव्यक्ति बनी थी जीवन की, बनकर औषधि मेरे मन की,
ReplyDeleteवह संग रही, पर उसको भी, विस्तार जगत का पाना है
-क्या बात है...एक विशेष प्रभाव छोड़ रही है संपूर्ण अभिव्यक्ति....विस्तार ही जीवन है..सतत जारी रहना होगा..
जीवन चलने का नाम चलते रहो सुबह शाम... अत्यंत सुंदर एवं सार्थक भावभिव्यक्ति....
ReplyDeleteसार्थक सोच ...
ReplyDeleteजल में क्षोभ उत्पन्न होने पर जैसे तरंग एक केंद्र बिंदु से चारों दिशाओं में आगे बढती है और शनैः शनैः विलुप्त हो जाती है | बस उसी प्रकार जीवन का भी विस्तार होते होते अंत हो जाता है | क्या कहें , विस्तार ही जीवन है अथवा अंत |
ReplyDeleteगहरे भाव लिए हुए एक सार्थक रचना...|
ReplyDelete.पाबला साहब के पुत्र की आकस्मिक मृत्यु पर चर्चा मंच शोक प्रगट करता है ईश्वर उन्हें ये आघात सहने की शक्ति दे .ॐ शान्ति .
ReplyDeleteआयाम विचारों का सीमित, रह चार दीवारों के भीतर,
ReplyDeleteलगता था जान गया सब कुछ, अपने संसारों में जीकर,
कुछ और सिमट मैं जाता था, अज्ञान सुखद हो जाता था,
अपने घर में ही घूम रहा, मन आत्म-मुग्ध-मदिरा पीकर ।।१।।आत्मालोचन से आगे निकलके एक व्यंजना भी इन पंक्तियों में उनके लिए जो कूप मदूक हैं घर घुस्सू हैं कुछ कुछ इस तरह से -कुछ लोग इस तरह जिंदगानी के सफर में हैं ,दिन रात चल रहें हैं ,मगर घर के घर में हैं .रैडवाइन कर सकती है ब्लड प्रेशर कम न हो एल्कोहल तब
आज 09/09/2012 को आपकी यह पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की गयी हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
Hats off to the great poet Praveen pandey.
ReplyDeleteअति उत्तम काव्य..
ReplyDeletekavitaein aur lekh dono likhne me aap praveen hain.:)
ReplyDelete
ReplyDeleteयदि संस्कार क्षयमान हुये, होती परिलक्षित फूहड़ता,
वह शक्ति-प्रदर्शन, अट्टाहस, लख राजनीति की लोलुपता,
जीवन शापित हर राहों में, भर कुरुक्षेत्र दो बाहों में,
कर छल-बल, पल पल खेल रही, पूछूँगा, कैसी जनसत्ता ।।६।।
अर्थ की व्यवस्था खुद के लिए करती कोयला हुई सत्ता पर बढिया कटाक्ष ,कैसी जनसत्ता भाई मेरे ,ये सत्ता छद्म गांधियों की ,जन हर पल इससे शर्मिन्दा ......
ram ram bhai
रविवार, 9 सितम्बर 2012
A Woman's Drug -Resistant TB Echoes Around the World
A Growing Threat
India is home to a quarter of the world's tuberculosis patients
World 8.8 ,illion
India 2.3 million
China 1.0 million
Russia 150,000
Brazil 85,000
US 13,000
कौन है यह रहीमा शेख जिसकी तपेदिक व्यथा कथा आज आलमी स्तर पर चर्चित है ? गत छ :सालों में यह भारत के एक से दूसरे कौने तक इलाज़ कराने पहुंची है .लेकिन मर्ज़ बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की .इस दरमियाँ बाप भाई की सारी कमाई ज़िन्दगी भर की बचत खेत खलिहान दांव पर लग गए आज यह भारत की पहली ऐसी मरीज़ा बन गई है जिस पर तपेदिक के लिए मंजूरशुदा ,स्वीकृत कोई भी दवा असर नहीं करती .
'चरैवेति,चरैवेति.. ' का संदेश हमारे मनीषियों ने इसी मनस्थिति से प्रेरित होकर दिया होगा १
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत भावपूर्ण और अर्थपूर्ण अभिव्यक्ति -आपकी कवितायें हमेशा बहुत ही गेय और गम्य होती हैं -
ReplyDeleteएक काव्य संकलन हो जाये!
पीड़ा से अपनी बाहर निकल ,
ReplyDeleteबन शंकर जग का विष पीकर ,
कविता जीवन में लाना है ,
जीवन कविता में पाना है .
कविता संग रहते ऊब गयी, उसको भी भ्रमण कराना है,
एक नयी हवा, एक नयी विधा, जीवन में उसके लाना है,
अभिव्यक्ति बनी थी जीवन की, बनकर औषधि मेरे मन की,
वह संग रही, पर उसको भी, विस्तार जगत का पाना है ।।८।।
कवि के कुछ नया करने की छटपटाहट ,नै ज़मीन की तलाश ,नये क्षितिज का अन्वेषण रूपायित है इन छंदों में
सोमवार, 10 सितम्बर 2012
ग्लोबल हो चुकी है रहीमा की तपेदिक व्यथा -कथा (गतांक से आगे ...)..बढ़िया प्रस्तुति है .......
ram ram bhai
सोमवार, 10 सितम्बर 2012
ग्लोबल हो चुकी है रहीमा की तपेदिक व्यथा -कथा (गतांक से आगे ...)
पर सुनते थे दीवारों से, अनुनाद वही, संवाद वही ..
ReplyDelete..वाह! कितनी गहरी बात कह दी आपने!!
prernadayak... bahut behtareen!
ReplyDeleteबहुत भावुक,कठोर-सत्य को समेटे हुए.
ReplyDeleteजब,स्वम-कारागार की दीवारें
ढल जाएंगी----
तब ही, अदृश्य कारागार नज़र आएगें
स्वम-पीडाओें को लांघ,तभी
पर-पीडाओं को जी पाएंगे.
मोहक रचना
ReplyDelete----
नया 3D Facebook Like Box 6 स्टाइल्स् में
Google IME को ब्लॉगर पर Comment Form के पास लगायें
गहन और प्रेरणादायक.. काफी विस्तार को समेटा है..
ReplyDeleteकविता संग रहते ऊब गयी, उसको भी भ्रमण कराना है,
ReplyDeleteएक नयी हवा, एक नयी विधा, जीवन में उसके लाना है,
अभिव्यक्ति बनी थी जीवन की, बनकर औषधि मेरे मन की,
वह संग रही, पर उसको भी, विस्तार जगत का पाना है---बहुत उत्कृष्ट अभिव्यक्ति बहुत ही ज्यादा पसंद आई आपकी ये कविता
वाह!
ReplyDeleteघुघूतीबासूती
आपकी इस उत्कृष्ट रचना की चर्चा कल मंगलवार ११/९/१२ को राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी आपका स्वागत है
ReplyDeleteबहुत खूब सर .ड्रग रेजिस्टेंस सरल शब्दों में समझा दिया .
ReplyDeleteशरीर यदि दवाओं को पहचानने से इन्कार कर बैठे तो इलाज कौन करेगा भला..
चहुँ ओर हताशा बिखरी है, बन बीज जगत के खेतों में,
ReplyDeleteदेखूँगा निस्पृह, जुटे हुये, सब भवन बनाते रेतों में,
जीवन के पाँव बढ़ायेंगे, अपने उत्तर पा जायेंगे,
सब चीख चीख बतलाना है, कब तक कहते संकेतों में
बशर्ते की सुनने वाले बहरे न हों !
सुन्दर रचना !
वन, कुंजों में कोयल कूँके, गूँजे मधुकर मधु-उपवन में,
ReplyDeleteनदियाँ कल कल, झरने झर झर, बँध प्रकृति पूर्ण आलिंगन में...
वाह मनमोहक काव्यात्मक अभिव्यक्ति ....
मज़ा आ गया प्रवीण जी कमाल की रचना है ...
बहुत सुंदर, विस्तार जगत का अनंत है और उसको पाना कठिन भी फिर भी अपनी सीमाओं और संकल्पों से पाना असंभव तो नहीं है. प्रेरणादायक कविता के लिए आभार !
ReplyDeleteगहन सोच और प्रेरणादायक सुन्दर रचना !..आभार
ReplyDeleteआपका जीवन यूँ ही विस्तार पाता रहे ....ये ही जिंदगी का मूल मंत्र भी हैं :)))
ReplyDeleteवर्तमान परिदृश्य को इंगित करती ..सुन्दर रचना ...!!
ReplyDeleteकविता संग रहते ऊब गयी, उसको भी भ्रमण कराना है,
ReplyDeleteएक नयी हवा, एक नयी विधा, जीवन में उसके लाना है,
अभिव्यक्ति बनी थी जीवन की, बनकर औषधि मेरे मन की,
वह संग रही, पर उसको भी, विस्तार जगत का पाना है ।।८।।
बहुत खूब भावो को विस्तार दिया है।
बेहद सशक्त भाव लिए उत्कृष्ट अभिव्यक्ति ... आभार
ReplyDeleteन दैन्यं न पलायनम्
ReplyDelete8.9.12
विस्तार जगत का पाना है
आयाम विचारों का सीमित, रह चार दीवारों के भीतर,
लगता था जान गया सब कुछ, अपने संसारों में जीकर,
आदमी के घर घुस्सू पन कूप मंडूकता को ललकारते हुए यह रचना आत्मालोचन करती हुई आगे बढती है.
अपने ही स्व :का अतिक्रमण कर कवि सारी कायनात और उसकी खूबसूरती और पीड़ा दोनों से जुड़ता है और कुछ नया करने के लिए छटपटाता है .
मेघों का गर्जन अर्थयुक्त, पृथ्वी का कंपन समझूँगा,
माँ प्रकृति छिपाये आहत मन, आँखों का क्रन्दन पढ़ लूँगा,
सुन चीख गरीबी, भूख भरी, अँसुअन बन मन की पीर ढरी,
तन कैसे जीवन ढोता है, अध्याय हृदयगत कर लूँगा ।।५।।
तिहाड़ खोर राजनीति के टुकड़ खोरों की भी अच्छी खबर लेता है
यदि संस्कार क्षयमान हुये, होती परिलक्षित फूहड़ता,
वह शक्ति-प्रदर्शन, अट्टाहस, लख राजनीति की लोलुपता,
जीवन शापित हर राहों में, भर कुरुक्षेत्र दो बाहों में,
कर छल-बल, पल पल खेल रही, पूछूँगा, कैसी जनसत्ता
उसका स्व :विस्तारित हो एक बड़े फलक पर फ़ैल जाता है कविता को भी वह लय ताल छंद से मुक्त कर नए विषय आँचल में अपने भर लेने का आवाहन करता चलता है .
सुंदर प्रस्तुति पांडेय जी
ReplyDeleteसंदेशपरक!
ReplyDeleteचलायमान रहना कविता का जीवन भी है, आत्मा भी और प्रगति भी।
यह चलता रहे!
ReplyDeleteविस्तार जगत का पाना है
आयाम विचारों का सीमित, रह चार दीवारों के भीतर,
लगता था जान गया सब कुछ, अपने संसारों में जीकर,
आदमी के घर घुस्सू पन कूप मंडूकता को ललकारते हुए यह रचना आत्मालोचन करती हुई आगे बढती है.अपने ही स्व :का अतिक्रमण कर कवि सारी कायनात और उसकी खूबसूरती और पीड़ा दोनों से जुड़ता है और कुछ नया करने के लिए छटपटाता है .
मेघों का गर्जन अर्थयुक्त, पृथ्वी का कंपन समझूँगा,
माँ प्रकृति छिपाये आहत मन, आँखों का क्रन्दन पढ़ लूँगा,
सुन चीख गरीबी, भूख भरी, अँसुअन बन मन की पीर ढरी,
तन कैसे जीवन ढोता है, अध्याय हृदयगत कर लूँगा ।।५।।
तिहाड़ खोर राजनीति के टुकड़ खोरों की भी अच्छी खबर लेता है
यदि संस्कार क्षयमान हुये, होती परिलक्षित फूहड़ता,
वह शक्ति-प्रदर्शन, अट्टाहस, लख राजनीति की लोलुपता,
जीवन शापित हर राहों में, भर कुरुक्षेत्र दो बाहों में,
कर छल-बल, पल पल खेल रही, पूछूँगा, कैसी जनसत्ता
उसका स्व :विस्तारित हो एक बड़े फलक पर फ़ैल जाता है कविता को भी वह लय ताल छंद से मुक्त कर नए विषय आँचल में अपने भर लेने का आवाहन करता चलता है .
ram ram bhai
मंगलवार, 11 सितम्बर 2012
देश की तो अवधारणा ही खत्म कर दी है इस सरकार ने
Bade dino baad bilkul hindi ki sudhta ka ehsaah hua hai yahan aakar. Aaata rahunga. Sadhuwaad!
ReplyDelete
ReplyDeleteयदि संस्कार क्षयमान हुये, होती परिलक्षित फूहड़ता,
वह शक्ति-प्रदर्शन, अट्टाहस, लख राजनीति की लोलुपता,
जीवन शापित हर राहों में, भर कुरुक्षेत्र दो बाहों में,
कर छल-बल, पल पल खेल रही, पूछूँगा, कैसी जनसत्ता.
अट्टाहस की जगह अट्टहास होना चाहिए था, शायद.
कविता तीन दिन तक मन को मथती रही. गहरे प्रतीक हैं. अद्भुत रचना है.
जी, धन्यवाद। ठीक कर लिया है।
Deleteसुन्दर प्रेरणा से ओतप्रोत अभिव्यक्ति.
ReplyDeleteकितना कुछ करना है । प्रेरक ।
ReplyDeleteमेघों का गर्जन अर्थयुक्त, पृथ्वी का कंपन समझूँगा,
ReplyDeleteमाँ प्रकृति छिपाये आहत मन, आँखों का क्रन्दन पढ़ लूँगा,
सुन चीख गरीबी, भूख भरी, अँसुअन बन मन की पीर ढरी,
तन कैसे जीवन ढोता है, अध्याय हृदयगत कर लूँगा ।।५।।
वाह वाह वाह बेहद खूबसूरत एक एक शब्द एक खूबसूरत सन्देश देता हुआ |
यदि संस्कार क्षयमान हुये, होती परिलक्षित फूहड़ता,
ReplyDeleteवह शक्ति-प्रदर्शन, अट्टहास, लख राजनीति की लोलुपता,
जीवन शापित हर राहों में, भर कुरुक्षेत्र दो बाहों में,
कर छल-बल, पल पल खेल रही, पूछूँगा, कैसी जनसत्ता ।।६।।
चहुँ ओर हताशा बिखरी है, बन बीज जगत के खेतों में,
देखूँगा निस्पृह, जुटे हुये, सब भवन बनाते रेतों में,
जीवन के पाँव बढ़ायेंगे, अपने उत्तर पा जायेंगे,
सब चीख चीख बतलाना है, कब तक कहते संकेतों में ।।७।।
आज के परिवेश का यथार्थ कह रही है कविता, आवाज़ तो इसके विरोध में उठ रही हैं और उठनी चाहिये ।