अभी एक कार्यक्रम से लौटा हूँ, अन्य गणमान्य व्यक्तियों के साथ मंच पर एक स्वामीजी भी थे। चेहरे पर इतनी शान्ति और सरलता कि दृष्टि कहीं और टिकी ही नहीं, कानों ने कुछ और सुना ही नहीं। कार्यक्रम समाप्त भी हो गया, स्वामीजी कुछ बोले भी नहीं, पर उनके चेहरे के अतिरिक्त कुछ याद भी नहीं रहा, बस बालसुलभ एक हल्की सी मुस्कान। जब हमारे दिन-रात जटिल और कुटिल चेहरे देखते देखते बीतते हैं तो एक सरल चेहरा अलग सा झलकता है, भुलाया जा नहीं पाता है।
कहते हैं कि व्यक्ति की सोच उसके चेहरे में दिख जाती है, या कहें कि सोच जैसे जैसे सरल होती है, चेहरा वैसे वैसे खिलने लगता है। औरों का अहित सोचने वाले, दुखी और चिन्तित लोगों के चेहरे उनके बोलने के पहले ही उनके बारे में सब बता जाते हैं। सामने वाले का चेहरा पढ़ना अनुभव से ही आता है, बहुधा सामने वाले को देखते ही एक पूर्वानुमान हो जाता है कि व्यक्ति सच बोलने जा रहा है या झूठ का पुलिंदा लेकर आया है। मैल्कम ग्लैडवेल अपनी पुस्तक ब्लिंक में यहाँ तक कहते हैं कि ९९ प्रतिशत किसी के बारे में वही भाव सच होते हैं जो उसे देखने के बाद प्रथम दो सेकेण्ड में आपके मन में आते है।
जो भी हो, पर इस अवलोकन को आधार बना किसी के बारे में मन बना लेना भी ठीक नहीं होता है, निर्णय प्रक्रिया कभी कभी अपनी गुणवत्ता के लिये समय चाहती है। अच्छे बुरे की सीमा वाली स्थिति में मैं भले ही भ्रमित हो जाऊँ पर स्वामीजी का अन्तःकरण निर्मल और निश्छल था, इसका विश्वास कुछ ही देर में हो गया था। घर आकर तब अपना चेहरा दर्पण में ध्यान से निहारा, अधिक देर तक, तो स्वयं के बारे में न जाने कितनी बातें पता चलने लगीं। वर्तमान से असंतुष्टि, भविष्य का भय, कितना कुछ कर जाने की इच्छा, विचारबद्धता का आभाव, ऐसे न जाने कितने भाव लहरा गये। थोड़ा मुस्कराया, तो सारे भाव कुछ क्षण के लिये छिप तो गये, पर अधिक समय तक छिपे न रह पाये, पुनः सामने आकर फैल गये। सच ही है, दर्पण झूठ नहीं बोलता है, पर सच हम स्वीकार नहीं करना चाहते हैं।
चेहरे के भाव पढ़े जाते हैं और वही भाव फैलते भी हैं। यदि घर का मुखिया चिंतित रहेगा तो बच्चों पर उसका क्या प्रभाव पड़ेगा, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। तो क्या हम सब अभिनय करें कि चेहरे के भाव अच्छे आयें? काश ऐसा हो पाता, बच्चों का मन रखने के लिये हम भले ही कुछ समय के लिये मुस्करा लें पर उस बात से ध्यान हटते ही चेहरे के मूलभाव वापस चेहरे पर आ धमकते हैं। अन्दर से प्रसन्नता आये बिना चेहरा प्रसन्न दिखेगा ही नहीं।
कभी कभी जीवन में इस तरह की घटनायें किसी पूर्वनिश्चित कारण से ही होती हैं, कुछ कारण तो रहा ही होगा जिसने हमें उन तथ्यों पर विचार करने को प्रेरित किया, जो हमारे बच्चों को अहितकर संकेत दे रहे हैं। हमारे चेहरे से यदि असुरक्षा प्रसारित होती है, तो क्या हम चाहेंगे कि वही भाव हमारे बच्चों में भी आये। नहीं, हम तो यही चाहेंगे कि हमारे बच्चे या हमारे आसपास के लोग हमारे उन भावों को न पढ़ें जो हम नहीं बताना चाहते हैं। पर क्या करें, चाहें न चाहें, वे भाव छलक ही जाते हैं। अच्छा तो तब यही होगा कि हमारे चेहरे के भाव अच्छे हो और स्थायी भी, पर उसके लिये हमें अन्दर से सरल और स्पष्ट होना आवश्यक है।
कई भाव ऐसे हैं जो कृत्रिम नहीं ओढ़े जो सकते हैं। यदि घर में निर्धनता है तो मुखिया के चेहरे पर संघर्ष झलकता है, कभी कभी दुख की भी रेख दिख जाती है। वही भाव बच्चे देखते हैं और उनके अन्दर भी श्रम और संघर्ष के भाव विकसित होते हैं और जीवनपर्यन्त बने भी रहते हैं। बचपन से पाये इन्हीं भावों का समुच्चय संस्कार कहलाता है और यही हमारे जीवन का नेतृत्व भी करता रहता है।
जो सिद्धान्त घर पर लागू होता है, वही समाज, राज्य और राष्ट्र पर भी लागू होता है। मुखिया के चेहरे पर जो भाव झलकेगा, वही भाव संचारी हो जायेगा, वही भाव प्रमुख हो जायेगा। यदि जननायक की एक पुकार जनमानस को ऊर्जस्वित कर देती है तो उसके पीछे नायक के चेहरे से टपकता चरित्रजनित निष्कपट भाव अवश्य होगा। सर्वे भवन्तु सुखिनः का पाठ करना ही हमारे कर्मों की इतिश्री न हो जाये, उससे वांछित सुख फैलेगा भी नहीं। जब तक हम स्वयं प्रसन्न रहना नहीं सीखेंगे, अपने परिवार, अपने समाज और अपने देश को प्रसन्नता नहीं दे पायेंगे।
मेरा स्वयं से और आप सबसे बस यही आग्रह है कि हम इस तथ्य को भलीभाँति समझें। हम लोगों के चेहरे के भाव संक्रामक होते हैं, वातावरण का निर्धारण कर देते हैं, सकारात्मकता सकारात्मकता फैलाती है, भ्रष्टाचार भ्रष्टाचार फैलाता है। स्वामीजी के प्रसन्नमना चेहरे ने मन को जो शान्ति और स्थिरता दी है वह अवर्णनीय है, उसका एक प्रतिशत भी हमें अपने चेहरे पर नहीं दिखा। कितनी संभावनायें हैं कि हम सुख के स्थायी और स्थानीय स्रोत बन सकते हैं, उनके लिये, जिन पर हमारा प्रभाव है। यदि सबके लिये नहीं, तो कम से कम अपने बच्चों के लिये जो बचपन में हमें अपना नायक मानते हैं। हम न जाने किस भय में अपना नायकत्व खो देते हैं और हमारे बच्चे फिल्मी मायाजाल से प्रभावित होने लगते हैं, फिल्मी अभिनेताओं में अपने नायक ढूढ़ने लगते हैं।
माना कि हर क्षेत्र में आउटसोर्सिंग का समय है, पर समाज का यह मूलतत्व हम फिल्मों को न भेंट कर बैठें। अभिनेताओं से पाया नायकत्व कल्पनाओं में ही सुहाता है, जीवन की वास्तविक और कठिन परिस्थितियों में अपना रंग छोड़ देता है। अपनी जटिलतायें हमें स्वयं ही सुलझानी होंगी, अपने लिये चिन्तनशैली और जीवनशैली के श्रेष्ठतम बिन्दु खोजने होंगे, अनिश्चितता और अस्थिरता के भाव तजने होंगे, स्वयं पर और संस्कृति पर गर्व के सूत्र समझने होंगे तभी संतुष्टि, शान्ति और प्रसन्नता हमारे चेहरे से टपकेगी, वही भाव हम प्रसारित करेंगे।
का चुप साधि रहा बलवाना। अपनी क्षमता पहचानो हे प्रसन्नमना, प्रसन्नता बाँटो न।
संघर्ष के दिनों में भी चेहरे की मुसकुरात बनी रह सकती है , कुछ प्रेरणा स्वयं की तो कुछ आस आस की भी ! एक दूसरे के संघर्ष में साथ ना दे सके तो भी उन्हें थोड़ी प्रसन्नता तो दी ही जा सकती है .
ReplyDeleteसार्थक रचना !
बहुत ही मनोविश्लेषणात्मक ,तर्कयुक्त ज्ञानवर्धक और यादगार पोस्ट |आभार
ReplyDeleteकिसी को देखते ही यदि दिल अंदर तक खुश हो जाय तो क्या कहने...! यह कई बार सामने वाले की मुख-मुद्रा को देखकर होता है.बहुत बार हमें ऐसी खुशी मिलि है !
ReplyDeleteअपनी जटिलतायें हमें स्वयं ही सुलझानी होंगी, अपने लिये चिन्तनशैली और जीवनशैली के श्रेष्ठतम बिन्दु खोजने होंगे, अनिश्चितता और अस्थिरता के भाव तजने होंगे, स्वयं पर और संस्कृति पर गर्व के सूत्र समझने होंगे तभी संतुष्टि, शान्ति और प्रसन्नता हमारे चेहरे से टपकेगी, वही भाव हम प्रसारित करेंगे।
ReplyDeletesarthak sargarbhit alekh ...
बढ़िया विश्लेषणात्मक व ज्ञानवर्धक |
ReplyDelete"चेहरे के भाव संक्रामक होते हैं" निसंदेह.
ReplyDeleteजो मन में हो वही चेहरे पर होना चाहिए, वही वाणी में होना चाहिए ...सत्य को छुपाना कैसा ....झूठा आवरण क्यों ?
ReplyDeleteजन उपकार की भावना से प्रेरित हो आपने यह पोस्ट लिखी है जो आत्मालोचन करती भी है कराती भी है .ऐसे ही नहीं कहा गया है चेहरे खुली किताब होतें हैं (सब के नहीं ,जो होतें हैं वह होतें हैं बाकी क्लिष्ट होतें हैं सोनिया मायनों जैसे ).कभी कोई राह में मिलता है तो आपसे आप उससे बोलने का मन करता है .आणविक स्तर पर रहता है यह आकर्षण जैसे हमें उस चेहरे की ज़रुरत हो .मन आह्लादित होता है जैसे आपका स्वामीजी को देखके हुआ .
ReplyDeleteकुछ चेहरों को देखके लगता है कब्र से खोद के निकाला गया है (अपने मौनसिंह जी को लेलो,बोलना चाहतें हैं लेकिन आवाज़ ही नहीं निकलती ).
चेहरा एक संवाद है ,
चेहरा एक कुंठा ,
चेहरा एक षड्यंत्र है ,
चेहरा एक स्मित
कुछ लोगों से मिलो ,बात करते हुए लगता है माफ़ी मांग रहा है .दोहरा हुआ रहता है ,झुका हुआ नवा हुआ ,
कुछ चेहरे ओबामा हैं ( से प्यारे हैं ),
कुछ कसाब हैं , ,
कुछ तो बस अजाब (ज़लज़ला )हैं ,
चेहरे हिन्दुस्तान में बे -हिसाब हैं .
जिससे भी मिलना कई बार मिलना क्योकि -
हर आदमी में होतें हैं दस बीस आदमी ,
जिससे भी मिलना कई बार मिलना .
क्योंकि हैवान और शैतान होतें हैं कई बार आदमी .
माना कि हर क्षेत्र में आउटसोर्सिंग का समय है, पर समाज का यह मूलतत्व हम फिल्मों को न भेंट कर बैठें। अभिनेताओं से पाया नायकत्व कल्पनाओं में ही सुहाता है, जीवन की वास्तविक और कठिन परिस्थितियों में अपना रंग छोड़ देता है। अपनी जटिलतायें हमें स्वयं ही सुलझानी होंगी, अपने लिये चिन्तनशैली और जीवनशैली के श्रेष्ठतम बिन्दु खोजने होंगे, अनिश्चितता और अस्थिरता के भाव तजने होंगे, स्वयं पर और संस्कृति पर गर्व के सूत्र समझने होंगे तभी संतुष्टि, शान्ति और प्रसन्नता हमारे चेहरे से टपकेगी, वही भाव हम प्रसारित करेंगे।
का चुप साधि रहा बलवाना। अपनी क्षमता पहचानो हे प्रसन्नमना, प्रसन्नता बाँटो न।
बढ़िया विचार पूर्ण पोस्ट .
बुधवार, 5 सितम्बर 2012
जीवन शैली रोग मधुमेह २ में खानपान ,जोखिम और ....
जीवन शैली रोग मधुमेह २ में खानपान ,जोखिम और ....
जीवन शैली में बदलाव ,जोखिम क्या हैं इस बीमारी के इसकी समझ रखिये और खून में शक्कर की निगहबानी कीजिए , फिर मजे से रहिए मधु- मेह के साथ .
कई भाव ऐसे हैं जो कृत्रिम नहीं ओढ़े जो सकते हैं। यदि घर में निर्धनता है तो मुखिया के चेहरे पर संघर्ष झलकता है, कभी कभी दुख की भी रेख दिख जाती है। वही भाव बच्चे देखते हैं और उनके अन्दर भी श्रम और संघर्ष के भाव विकसित होते हैं और जीवनपर्यन्त बने भी रहते हैं। बचपन से पाये इन्हीं भावों का समुच्चय संस्कार कहलाता है और यही हमारे जीवन का नेतृत्व भी करता रहता है।
ReplyDeleteचेहरा सब कुछ वर्णित कर देता है ...सटीक और सार्थक विश्लेषण
एक नजर में चेहरे को देखकर व्यक्तित्व समझ में आ जाता है
ReplyDeleteRECENT POST,तुम जो मुस्करा दो,
मन का दर्पण है चेहरा ... सटीक विश्लेषण !
ReplyDeleteसौ बात की एक बात-
ReplyDeleteखुशियाँ बांटो |
बधाई -
आज का सबसे अच्छा सुविचार है "ये "। नयी पोस्ट के लिए प्रवीण जी को बधाई । मेरी नयी पोस्ट पर भी अपनी दिव्य दृष्टि डाले - http://gyaan-sansaar.blogspot.com
ReplyDeleteश्रेष्ठतम बिन्दु खोजने के साथ-साथ उसपर स्थिर रहना और अन्य को भी उस बिंदु के करीब ले जाना मुश्किल तो है पर असाध्य नहीं..
ReplyDeleteजीवन में अओने वाले विभिन्न पहलुओं को छूती ... सुन्दर पोस्ट ...
ReplyDelete
ReplyDeleteशिक्षक दिवस पर विशेष - तीन ताकतों को समझने का सबक - ब्लॉग बुलेटिन ब्लॉग जगत मे क्या चल रहा है उस को ब्लॉग जगत की पोस्टों के माध्यम से ही आप तक हम पहुँचते है ... आज आपकी यह पोस्ट भी इस प्रयास मे हमारा साथ दे रही है ... आपको सादर आभार !
चेहरे पर तभी शुद्ध मुस्कराहट आएगी जब अंतर्मन शुद्ध हो . हम तो दूषित वातावरण में रह रहे है . हर चीज कृतिम है
ReplyDeleteचेहरा खुली किताब है ... और बच्चों के लिए सोच उस किताब की भूमिका .... सार
ReplyDeleteप्रसन्नता अनमोल खजाना है। छोटी-छोटी बातों पर हमें उसे लुटने न देना चाहिए।
ReplyDeleteमन का दर्पण है चेहरा. हमारे चेहरे का भाव न केवल हमारे व्यक्तित्व को दर्शाता है बल्कि आसपास के वातावरण को भी प्रभावित करता है...बहुत सुन्दर और सार्थक विश्लेषण
ReplyDeleteबहुत ही सटीक विश्लेषण किया है आपने, मेरे विचार तो यह कहते हैं कि यदि हम स्वयं खुश नहीं है तो कभी सामने वाले को भी खुशी नहीं दे सकते। अतः इस सब के लिए एक ही मूल मंत्र है और वह है अपने आप से ईमानदारी क्यूंकि जो हम अंदर से खुद के लिए महसूस करते हैं वही हमारे चहरे पर नज़र आता है। अर्थात यदि हम खुश हैं तभी दूसरों को खुशी दे पायेंगे और यदि हम दुखी है तो हम लाख कोशिश करने पर भी अपने चेहरे के हाव भाव ज्यादा देर तक छुपा कर नहीं रख पायेंगे जिसका सीधा प्रभाव सकारात्म या नकरात्म्क जैसा भी होगा हमारे घर परिवार के सभी सदस्यों पर साफ दिखाई देता है।
ReplyDeleteसच है चेहरा हमारे मन का दर्पण है..हमारे मन की सच्चाई को दर्शा देता है...बहुत सुन्दर और सार्थक विश्लेषण
ReplyDelete" व्यक्ति की सोच उसके चेहरे में दिख जाती है, या कहें कि सोच जैसे जैसे सरल होती है, चेहरा वैसे वैसे खिलने लगता है। औरों का अहित सोचने वाले, दुखी और चिन्तित लोगों के चेहरे उनके बोलने के पहले ही उनके बारे में सब बता जाते हैं। सामने वाले का चेहरा पढ़ना अनुभव से ही आता है," बेहद गहन बात लाही है आपने यही सच है ... दोनों ही रूपों से ...बिन अनुभव कहाँ पता चलता है कुछ !
ReplyDeleteअपनी जटिलतायें हमें स्वयं ही सुलझानी होंगी, अपने लिये चिन्तनशैली और जीवनशैली के श्रेष्ठतम बिन्दु खोजने होंगे, अनिश्चितता और अस्थिरता के भाव तजने होंगे, स्वयं पर और संस्कृति पर गर्व के सूत्र समझने होंगे तभी संतुष्टि, शान्ति और प्रसन्नता हमारे चेहरे से टपकेगी, वही भाव हम प्रसारित करेंगे।
ReplyDeleteआपका यह लेख पढ कर बहुत अच्छा लगा । मन ने कहा अब तो मुस्कुरा दो ।
सत्य है…………
ReplyDeleteहम लोगों के चेहरे के भाव संक्रामक होते हैं, वातावरण का निर्धारण कर देते हैं, सकारात्मकता सकारात्मकता फैलाती है,
chehra man ka darpan hai chehre ke bhav vayakti ko paribhashit kar dete hain..aur vyakti inhi bhavon se sundar ya asundar banata hai..sarthak post..
ReplyDeleteचेहरा देखकर समझना बहुत मुश्किल है। हाँ, किसी को प्रसन्न देख कर मन प्रसन्न होता है।
ReplyDeleteसकारात्मकता सकारात्मकता फैलाती है -बिलकुल सही बात ........
ReplyDeleteयदि जननायक की एक पुकार जनमानस को ऊर्जस्वित कर देती है तो उसके पीछे नायक के चेहरे से टपकता चरित्रजनित निष्कपट भाव अवश्य होगा।उत्साहपू्र्ण आलेख । कोटी-कोटी नमन ।
ReplyDeleteदिल की बात चेहरे पर आ ही जाती है | भीतर का दुख छुपा दूसरों को प्रसन्नता बाँटना कठिन तो होता है |
ReplyDeleteचेहरा अक्सर मनोभावों को दर्शाता है -- नेता और अभिनेता को छोड़कर .
ReplyDeleteचेहरे पर मुस्कान दूसरों को भी सकूं देती है .
चेहरा मन का दर्पण होता है ,उस पर छाई प्रसन्नता का इंफ़ेक्शन फैलते देर नहीं लगती !
ReplyDeleteLekin hamaare Neta apne chehre par itne mukhaute lagaaye rehte hain ki unke asli bhaav pata hi nahi lagte...
ReplyDeletesundar post.
पता नहीं क्यों, पर आपका ब्लॉग खुल नहीं रहा है।
Deleteमैं तो कोशिश करके लगभग हार गया, प्रसन्न दिख ही नहीं पाता हूँ|
ReplyDeleteप्रभावी विश्लेषण ..... चेहरा बहुत कुछ कहता है और चेहरे पर फैली मुस्कान भी.....
ReplyDeleteमुस्कुराता चेहरा खुद के तो नही,पर दूसरे के दुख दूर कर देता है,और जो दूसरों के लिए मुस्कुराता है,उसकी खुशी दुगनी हो जाती है...
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ReplyDeleteBahut pate ki baat kahi.
ReplyDelete............
ये खूबसूरत लम्हे...
भावों और विचारों को समभाव से देखे बिना यह सरलता, यह सौन्दर्य संभव नहीं.यही तो जीवन का लक्ष्य है.
ReplyDeleteयदि जननायक की एक पुकार जनमानस को ऊर्जस्वित कर देती है तो उसके पीछे नायक के चेहरे से टपकता चरित्रजनित निष्कपट भाव अवश्य होगा।
ReplyDeleteबेहद सशक्त भाव लिए उत्कृष्ट आलेख ...आभार आपका
सर ji बिलकुल सही अनुभव | एक बार वेश - भूषा के ऊपर भी लिख डालिए | वेश - भुष की चुनाव भी कुछ मायने रखते है |
ReplyDeleteवैसे बहुधा किसी को देख जो विचार सबसे पहले आता है वही सही भी निकलता है.
ReplyDeleteघुघूतीबासूती
प्रसन्नता अभ्यासयोग का मुद्दा है, उनके लिये जो डिफॉल्ट मोड में दुखी जीव हैं!
ReplyDeleteप्रवीण जी, अधिक गुणवत्ता के लिये अधिक धन खर्च करना स्वाभाविक भी है। मेन आपकी बात से सहमत हूँ, लेकिन महंगाई बढ्ने के अन्य कारणो मे ये भी एक मुख्य कारण है की लोग ज्यादा कीमत होने पर भी हिचकते हैं और खरीद लेते हैं ।
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