भाग्य ने अपने सारे दाँव कॉन्क्रीट के जंगलों में लगा दिये हैं, बड़े नगरों में ही समृद्धि की नयी परिभाषायें गढ़ने में लगी हैं सभ्यतायें। आलोक को अपनी प्रतिभा और सृजनशीलता के लिये ढेरों संभावनायें थी यहाँ पर, अच्छी नौकरी थी, भव्य भविष्य था, पर मन के अन्दर और बाहर साम्य स्थापित नहीं हो पा रहा था। बंगलोर जैसा बड़ा नगर भी उसके हृदय के विस्तृत वितान को समेटने में असमर्थ था। एक दिन उसने सामान समेटा और जा पहुँचा गोवा, जहाँ पर सागर की मदमाती लहरें थीं, क्षितिज में जल और आकाश का मिलन दिखता था और स्थानीय निवासियों के प्रतिरोध ने कॉन्क्रीट का कद पेड़ों के ऊपर जाने नहीं दिया था। यहाँ प्रकृति अपने मोहक स्वरूप में अभी भी विद्यमान थी। बस यहीं आलोक का मन तनिक स्थिर हुआ, एक मकान किराये पर लिया, एक कमरे में अपना स्टूडियो स्थापित किया और चित्रकला में डूब गया, उन रंगों में डूब गया जिनके गाढ़ेपन में उसके भाव गहराते थे, जिनकी छिटकन स्मृतियाँ बन फैल जाती थी, मन को सम्मोहित कर लेती थी।
स्थानीय निवासियों को धीरे धीरे चित्रकला के इस दीवाने के बारे में ज्ञात हुआ, उत्सुकतावश ही सही, विचार विनिमय हुआ, संवाद हुआ, कई स्थानों पर उसे अपनी बात कहने के लिये बुलाया गया। संवेदनशीलों के संसार में आपका आनन्द बढ़ता ही है, आपकी प्रतिभा और सदाशयता कई और रूपों में बह जाना चाहती है, आपकी अभिव्यक्ति थोड़ी और मुखर हो जाना चाहती है। 'हमारा स्कूल' नाम की एक संस्था जो झुग्गियों में रहने वाले, निर्धन, समाज के दूसरे छोर पर त्यक्त अवस्थित समूह के बच्चों के विकास में हृदय से लगी थी, उनकी संचालिका ने आलोक को मना लिया, उन बच्चों को थोड़ी बहुत चित्रकला सिखाने के लिये, प्रत्येक रविवार।
नियत दिन आया, सारे बच्चे नहा धोकर आलोक की प्रतीक्षा कर रहे थे, उन बच्चों में ट्रक ड्राइवरों, निर्माण कार्य में लगे मजदूरों, घर मे काम करने वाली बाइयों, मछुआरों और वेश्याओं के बच्चे थे। संवाद खुला, 'मैं कलाकार हूँ और दिनभर बैठा बैठा चित्र बनाता रहता हूँ' आलोक ने परिचय दिया। सब ठहाका मार के हँस पड़े, 'अच्छा आप अभी तक चित्र बनाते हो, ऑफिस नहीं जाते हो?' एक बच्चा बोल पड़ा। आलोक ने धीरे से अपने द्वारा बनाये आधुनिक कला के कई चित्र सामने रख दिये, बच्चे उत्सुकता से देखने लगे। वे सारे चित्र जिन्हें कलाजगत में बड़ी उत्साहजनक टिप्पणियाँ मिली थीं, आज उन बच्चों के अवलोकन के लिये प्रस्तुत थे। सबने ध्यान से देखा, कुछ को कुछ भी समझ नहीं आया, कुछ को कुछ समझ आया, कुछ ने कुछ समझने जैसी आँखें सिकोड़ीं और अन्त में एक ने कह ही दिया कि यह तो बड़ा गिचपिच सा लग रहा है।
'जब आप बनाते हो तो अच्छा लगता है, जब हम बनाते हैं तो अच्छा ही नहीं बनता है।' एक बच्ची बोली। 'पर मैं तो बस आपकी तरह ही बनाता हूँ' आलोक ने समझाया। 'अच्छा आप इतने बड़े हो गये हो और अभी तक हमारी तरह ही बनाते हो' कहीं से आवाज़ आयी। आलोक के अहं को इतनी ठेस आज तक नहीं पहुँची थी। आलोक ने घर आकर अब तक के एकत्रित आर्ट पेपर, रंग, ब्रश आदि इकठ्ठा किये और अगले दिन वहाँ पहुँचा। हर एक बच्चे के सामने एक आर्ट पेपर था, सब शान्त बैठे थे, उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वे क्या बोलें, क्या करें?
आलोक ने सारे चित्र दीवार पर लगा दिये, अपने चित्र के साथ ही। 'अब बताओ कि इनमें सबसे खराब कौन सा लग रहा है?' आलोक ने पूछा। सब मौन, कई बार कहने पर सबने अन्ततः एक चित्र निकाला। आलोक ने वह चित्र सामने वाली दीवार पर लगा दिया और पूछा कि अब बताओ कि अब कैसा लग रहा है? 'अब तो यह भी अच्छा लग रहा है', कई बच्चे बोल पड़े। बच्चों को समझ नहीं आ रहा था कि यही चित्र जब सबके साथ था तो खराब लग रहा था, अकेला लगा दिया तो अच्छा लग रहा है।
'बच्चों, तुम लोग भी जब स्वयं को भीड़ के साथ रखते हो तो स्वयं को कमतर समझने लगते हो, कभी कम धनी समझते हो, कभी कम भाग्यशाली समझते हो, कभी कम सुन्दर समझते हो। जब स्वयं को भीड़ से अलग रखकर देखोगे, स्वयं को दर्पण में जाकर देखोगे तो तुम्हें भी स्वयं पर गर्व करने के ढेरों कारण मिल जायेंगे।' आलोक ने व्याप्त संशय दूर कर दिया। सब मुस्करा उठे, बस एक छुटका नहीं, वह थक कर सो चुका था। सारे बच्चे आज स्वयं पर एक नया विश्वास लेकर घर पहुँचेगे, सबके चेहरे पर गजब का आत्मसन्तोष झलक रहा था।
'मैं कई नगरों में कार्यशालायें आयोजित करता हूँ, सबको एक चित्र बनाने को देता हूँ, आधे समय के बाद सबके चित्र आपस में बदल देता हूँ और एक दूसरे के चित्र पूरे करने को कहता हूँ। नगर के बच्चे कहते हैं कि यह ठीक नहीं है, हमारा चित्र आपने दूसरे को कैसे दे दिया, हमने इतनी मेहनत से बनाया था? ठीक उसी तरह जिस तरह आधुनिक मैनेजर अपनी योजनाओं से चिपका रहता है, अपनी उपलब्धियों से चिपका रहता है, दूसरों के कार्य उसके लिये महत्वहीन हों मानो। और इन बच्चों को देखो, इन्होने आज तक कभी कोई शिकायत नहीं की है, इन्हें जो भी, जैसा भी, आधा अधूरा चित्र दे दो, उसे भी अच्छा बनाने में लग जाते हैं। काश हम सब भी अन्य की कृतियों और कार्यों के प्रति यही भाव रखें, सब विशिष्ट हैं। मैं हर बार इनके पास बस यही सीखने आता हूँ और यही मेरा पारिश्रमिक भी है।' आलोक प्रवाह में बोलता जा रहा था।
आलोक वहाँ हर रविवार जाता है, सब सोचते हैं कि आलोक उन्हें कला सिखाने जाता है, पर यह केवल आलोक ही जानता है कि वह वहाँ बच्चों से क्या सीखने जाता है?
(यह कहानी जेन गोपालकृष्णन ने अंग्रेजी में वर्णित की है और सर्वप्रथम 'चिकेन सूप फॉर सोल - इंडियन टीचर' में प्रकाशित हुयी है। आलोक और जेन के प्रति आभार)
वाह! शानदार शिक्षाप्रद|
ReplyDeleteदूसरों के कार्य के महत्त्व को भी बखूबी समझना चाहिए|
एक अद्भुत परिवेश मनोभावों का ,सृजित करता कथ्य प्रशंसा का पात्र है .....
ReplyDeleteआलोक के विचारों ने सिखाया कि कोई भी व्यक्ति कम महत्वपूर्ण नहीं है !
ReplyDeleteअच्छा लगा आलोक को जानना !
अपूर्ण को पूर्ण करना ही ध्येय होना चाहिए | जीवन तो रीले रेस ही है | पाए हुए ज्ञान , विज्ञान ,कला को हम और परिष्कृत कर बस थोड़ा आगे बढ़ा दें , बस इतना सा ही तो दायित्व है | हाँ ! बच्चों के सानिद्ध्य में तो सदा कुछ न कुछ सीखने को मिल जाता है |
ReplyDeleteअपनी किस्मत से दुनिया में, कई अधूरे चित्र मिलें हैं ।
ReplyDeleteऊपर वाले की रहमत से, कुछ कलियाँ कुछ तनिक खिले हैं।
अपनी मेधा अपनी इच्छा, चाहे जो व्यवहार करूँ -
किन्तु पूर्णता देनी होगी, मनभावन शुभ रंग भरूँ ।।
उत्कृष्ट प्रस्तुति का लिंक लिंक-लिक्खाड़ पर है ।।
DeleteAlag-alag rangon se saji hai ye zindagi......jisme har ek ko ahmiyat dena bhi ek khas rang hai......
ReplyDeleteनवाचारी ,मौलिक उद्यम !
ReplyDeleteबहुत कम हैं आलोक जैसे लोग जो जीवन में आत्मसंतुष्टि का मार्ग चुन पाते हैं | अच्छा लगा अलोक से मिलकर.... बच्चों के प्रति उनके संवेदनशील विचार बहुत कुछ सिखाते समझाते हैं......
ReplyDeleteसराहनीय प्रयास !
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ReplyDeleteसार्थक और सामयिक पोस्ट, आभार.
ऐसे ही सार्थक प्रयासों की समाज को ज़रूरत है ।
ReplyDeleteबहुत प्रेरक प्रसंग हैं।
ReplyDeleteआलोक ऐसे ही आलोक फैलाते रहे , मेरी शुभकामनाये , उनके नेक और लीक से हटकर प्रयास सराहनीय है .
ReplyDeleteबेहद सराहनीय प्रयास है ... यह आभार इस प्रस्तुति के लिए
ReplyDeleteकितनी बड़ी बात ...
ReplyDeleteइस तरह के प्रयास बहुत आत्म संतुष्टि देते हैं ...!!ईश्वर ऐसे लोगों को अपनी आस्था से जोड़े रखें ...!!
ReplyDeleteऔर आपका आलेख भी सार्थक संदेश दे रहा है कि सभी का अस्तित्व सरहनीय है और हमे निरंतर सीखते रहने का प्रयास करना चाहिए ...!!
ऐसे ही सार्थक प्रयासों से ही मन को संतुष्टी मिलती है और एक दूसरे के विचारों को समझने का मौका मिलता है,,,,
ReplyDeleteRECENT POST : गीत,
जब स्वयं को भीड़ के साथ रखते हो तो स्वयं को कमतर समझने लगते हो, कभी कम धनी समझते हो, कभी कम भाग्यशाली समझते हो, कभी कम सुन्दर समझते हो। जब स्वयं को भीड़ से अलग रखकर देखोगे, स्वयं को दर्पण में जाकर देखोगे तो तुम्हें भी स्वयं पर गर्व करने के ढेरों कारण मिल जायेंगे।'
ReplyDeleteकाश हम सब भी अन्य की कृतियों और कार्यों के प्रति यही भाव रखें, सब विशिष्ट हैं .
कितना कुछ आपने आलोक के माध्यम से कह दिया ... जीवन को सही दिशा दिखाता लेख .... आभार
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (30-09-2012) के चर्चा मंच पर भी की गई है!
सूचनार्थ!
सीखने की चिर, अतृप्त आकांक्षा जीवन को प्रति पल जीवन्त बनाए रखती है।
ReplyDeleteआत्म सन्तुष्टि का अच्छा मार्ग है कला।
ReplyDeleteसच यह बहुतज रूरी है कि हर बच्चा अपने को विशिष्ट समझे उनके सही विकास के लिये जरूरी है यह । इस कहानी के आलोक को हमारा सलाम ।
ReplyDeleteबच्चों के नन्हे हाथों को चाँद सितारे छू लेने दो
ReplyDeleteचार किताबें पढ़कर यह भी हम जैसे हो जायेंगे.
बच्चों की खिलती मुस्कान ...
ReplyDeleteनियत दिन आया, सारे बच्चे नहा धोकर आलोक की प्रतीक्षा कर रहे थे, उन बच्चों में ट्रक ड्राइवरों, निर्माण कार्य में लगे मजदूरों, घर मे काम करने वाली बाईयों(बाइयों )....बाइयों ... मछुआरों और वेश्याओं (वैश्या....वैश्याओं...) बच्चे थे। ....कंक्रीट शब्द .....कोंक्रीट से बेहतर है ....
प्रवीण जी के सभी आलेख एक फलसफा लातें हैं जीवन और जगत से जुड़ा एक विमर्श भी ,यह आलेख भी उसी की अगली कड़ी है ....
'मैं कई नगरों में कार्यशालायें आयोजित करता हूँ, सबको एक चित्र बनाने को देता हूँ, आधे समय के बाद सबके चित्र आपस में बदल देता हूँ और एक दूसरे के चित्र पूरे करने को कहता हूँ। नगर के बच्चे कहते हैं कि यह ठीक नहीं है, हमारा चित्र आपने दूसरे को कैसे दे दिया, हमने इतनी मेहनत से बनाया था? ठीक उसी तरह जिस तरह आधुनिक मैनेजर अपनी योजनाओं से चिपका रहता है, अपनी उपलब्धियों से चिपका रहता है, दूसरों के कार्य उसके लिये महत्वहीन हों मानो। और इन बच्चों को देखो, इन्होने आज तक कभी कोई शिकायत नहीं की है, इन्हें जो भी, जैसा भी, आधा अधूरा चित्र दे दो, उसे भी अच्छा बनाने में लग जाते हैं। काश हम सब भी अन्य की कृतियों और कार्यों के प्रति यही भाव रखें, सब विशिष्ट हैं। मैं हर बार इनके पास बस यही सीखने आता हूँ और यही मेरा पारिश्रमिक भी है।' आलोक प्रवाह में बोलता जा रहा था।
यह दृष्टि सिर्फ प्रवीण जी के ही पास है .समाज को ऐसे ऊर्ध्वगामी बनाने वाले आलेखों की आज बहुत ज़रुरत है .
खुद को छोड़ कर
ReplyDeleteआज वो उस तक
पहुँच अगर रहा है
पहुँचता नहीं भी है
सिर्फ सोच भर
भी अगर रहा है
वाकई कुछ हट कर
अजब गजब क्या
नहीं कर रहा है ?
यह भी बच्चो के विकास का एक मार्ग है I
ReplyDeleteप्रेरक कथा पढ़ाने के लिए आभार।
ReplyDelete"काश हम सब भी अन्य की कृतियों और कार्यों के प्रति यही भाव रखें, सब विशिष्ट हैं."
ReplyDeleteबहुत बढ़िया बात कही. आलोक जी की सोच कितनी प्रगतिशील है यह जानकार मन भाव विभोर हो गया.
ऐसा कर पाना एक बच्चे के लिए ही संभव है इसका एकमात्र कारण उनकी निश्छलता है जिसको कुछ भी कलुषित और अपूर्ण नहीं दिखता .......
ReplyDeleteखुश करने वाला संस्मरण :)
ReplyDeleteआलोक के साथ २००७-०८ में कुछ समय काम करने का मौका मिला। आपसे उनके बार में इतना विस्तृत जानना और भी अच्छा लगा।
ReplyDeletevery very nice :)
ReplyDelete----
अपनी रचनाओं का कॉपीराइट मुफ़्त पाइए
बहुत प्रेरणा दायी पोस्ट है बहुत रोचक संस्मरण सच में हम बच्चों के माध्यम से बहुत कुछ सीखते हैं बच्चे निष्कपट निश्छल सच्चे होते हैं
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ReplyDelete'बच्चों, तुम लोग भी जब स्वयं को भीड़ के साथ रखते हो तो स्वयं को कमतर समझने लगते हो, कभी कम धनी समझते हो, कभी कम भाग्यशाली समझते हो, कभी कम सुन्दर समझते हो। जब स्वयं को भीड़ से अलग रखकर देखोगे, स्वयं को दर्पण में जाकर देखोगे तो तुम्हें भी स्वयं पर गर्व करने के ढेरों कारण मिल जायेंगे।' आलोक ने व्याप्त संशय दूर कर दिया। सब मुस्करा उठे, बस एक छुटका नहीं, वह थक कर सो चुका था। सारे बच्चे आज स्वयं पर एक नया विश्वास लेकर घर पहुँचेगे, सबके चेहरे पर गजब का आत्मसन्तोष झलक रहा था।
यह जो तुलना करने की प्रवृत्ति है यह बचपन में ही घर बना लेती है .वजह अकसर माँ बाप ही बनते हैं अपने बच्चे की हरदम किसी और से तुलना करेंगे और वह भी उपालंभीय शैली में उसकी हेटी करते हुए .
जबकि यहाँ सब कुछ सापेक्षिक है .परस्पर आश्रित है .परम या निरपेक्ष जिसका किसी बाहरी चीज़ से कुछ लेना देना न हो का कुछ मतलब नहीं है . .गरीबी अमीरी सब सापेक्षिक है .
इंदु जैन को परोपकारियों की सूची में दरिद्र ही कहा जाएगा जो अपनी सालाना आय २.२ अरब डॉलर का मात्र ०.१३ % ही परोपकार पे खर्च करतीं हैं जबकि इसी सूची में अपनी सालाना आय का ९२.३ %परोपकार पर खर्च करने वाले हांग वैन्जाई भी हैं .
निर्णायक की भूमिका में माँ बाप का आना बहुत घटिया काम है .बच्चे अपने में एक पूरा तंत्र होतें हैं .अधूरे नहीं होतें हैं .अवसर देना काम है माँ बाप का न कि प्रतिभा को कुंठित करना .
यही सन्देश है इस पोस्ट का .
एक अच्छा कलाकार यही करता है।
ReplyDeleteबहुत प्रेरक प्रस्तुति...
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ReplyDeleteसोमवार, 1 अक्तूबर 2012
ब्लॉग जगत में अनुनासिक की अनदेखी
ब्लॉग जगत में अनुनासिक की अनदेखी
आदमी अपने स्वभाव को छोड़ कर कहीं नहीं जा सकता .ये नहीं है कि हमारा ब्लॉग जगत में किसी से द्वेष है
केवल विशुद्धता की वजह से हम कई मर्तबा भिड़ जाते हैं .पता चलता है बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया .अब
डाल दिया तो डाल दिया .अपनी कहके ही हटेंगे आज .
जिनको परमात्मा ने सजा दी होती है वह नाक से बोलते हैं और मुंह से नहीं बोल सकते बोलते वक्त शब्दों को
खा भी जातें हैं जैसे अखिलेश जी के नेताजी हैं मुलायम अली .
लेकिन जहां ज़रूरी होता है वहां नाक से भी बोलना पड़ता है .भले हम नाक से बोलने के लिए अभिशप्त नहीं हैं .
अब कुछ शब्द प्रयोगों को लेतें हैं -
नाई ,बाई ,कसाई ......इनका बहुवचन बनाते समय "ईकारांत "को इकारांत हो जाता है यानी ई को इ हो जाएगा
.नाइयों ,बाइयों ,कसाइयों हो जाएगा .ऐसे ही "ऊकारांत "को "उकारांत " हो जाता है .
"उ " को उन्हें करेंगे तो हे को अनुनासिक हो जाता है यानी ने पे बिंदी आती है .
लेकिन ने पे यह नियम लागू नहीं होता है .ने को बिंदी नहीं आती है .
ब्लॉग जगत में आम गलतियां जो देखने में आ रहीं हैं वह यह हैं कि कई ब्लोगर नाक से नहीं बोल पा रहें हैं मुंह
से ही बोले जा रहें हैं .
में को न जाने कैसे मे लिखे जा रहें हैं .है और हैं में भी बहुत गोलमाल हो रहा है .
मम्मीजी जातीं "हैं ".यहाँ "हैं "आदर सूचक है मम्मी जाती है ठीक है बच्चा बोले तो लाड़ में आके .
अब देखिए हमने कहा में हमने ही रहेगा हमनें नहीं होगा .ने में बिंदी नहीं आती है .लेकिन उन्होंने में हे पे बिंदी
आयेगी ही आयेगी .अपने कई चिठ्ठाकार बहुत बढ़िया लिख रहें हैं लेकिन मुंह से बोले जा रहें हैं .नाक का
इस्तेमाल नहीं कर रहें हैं .
यह इस नव -मीडिया के भविष्य के लिए अच्छी बात नहीं है जो वैसे ही कईयों के निशाने पे है .
मेरा इरादा यहाँ किसी को भी छोटा करके आंकना नहीं है .ये मेरी स्वभावगत प्रतिक्रिया है .
कबीरा खड़ा सराय में चाहे सबकी खैर ,
ना काहू से दोस्ती ना काहू से वैर .
प्रवीण जी छूट ली है आपके ब्लॉग पे ख़ास टिपण्णी के बीच ये टिपण्णी जोड़ के .आप रचना कार हैं .स्वयं "रचना "नहीं हैं .अन्यथा न लेंगे .
ReplyDeleteनेहा एवं आदर से
वीरुभाई .
आपकी व्याख्या से कुछ सीखा ही हूँ, अभी ठीक कर लेता हूँ। आप ऐसे ही नेह बरसाते रहें, हम तो अंजुलि फैलाये रहेंगे, अंत तक।
Deleteबहुत ही प्रेरक लगी .....आभार पाण्डेय जी |
ReplyDeleteसच है तो किस्सा सा लगा और किस्सा है तो सच जैसा| ऐसे आलोक बहुत सारे हों, हर जगह हों ताकि अँधेरे भी आलोकित हो जायें|
ReplyDelete.
ReplyDelete.
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प्रेरक...
आलोक ने दिल को छू लिया...
...
बहुत प्रेरक प्रस्तुति-आभार !
ReplyDeleteआपने प्रवीण जी मान बढ़ाया .आभार आपका .
ReplyDeletebahut hi achchhi sheekh. shikshaprad prastuti.
ReplyDeleteअद्भुत!
ReplyDeleteयह प्रयोग प्रेरक है।
अच्छा प्रेरक!!
ReplyDeleteबहुत ही प्रेरक प्रस्तुति..आभार...
ReplyDeletesada bani rahe ye muskaan.
ReplyDeleteअति उत्तम प्रस्तुति.
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