बंगलोर की नगरीय व्यवस्थायें सुदृढ़ हैं, तन्त्र कार्यरत रहता है। पहले यही लगता था कि जहाँ पर इतने अधिक लोग रहते हों, वहाँ पर कोई अव्यवस्था न फैले, यह कैसे संभव है? ट्रैफिक की अधिकता के कारण बहुधा जाम लग जाते हैं, लेकिन धीरे ही सही पर गति बनी रहती है, अनुशासन भी रहता है और ट्रैफिक पुलिस की उपस्थिति भी। पानी और बिजली व्यवस्था उस गति से नहीं फैल पा रही है जिस गति से नगर बढ़ रहा है, पर जहाँ भी है, सुचारु रूप से चल रही है। भविष्य का चिन्तन थोड़ा उद्वेलित कर सकता है क्योंकि बंगलोर अभी भी हर प्रकार से जनसंख्या के आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है। अच्छा मौसम, नौकरियों की प्रचुरता, अच्छे लोग, सुदृढ़ विधि व्यवस्था, उन्नत शिक्षा, ये सब कारक हैं जो भविष्य में भी आने वाली जनसंख्या का प्रवाह बनाये रखेंगे।
एक और पक्ष जिस पर नगर में रहने वालों का अधिक ध्यान नहीं जा पाता है, वह है यहाँ की सफाई व्यवस्था। सामने से इतना अधिक कार्य होता नहीं दिखता है पर नगर स्वच्छ रहता है, नियत स्थान पर ही कूड़ा मिलता है, सड़कें और गलियाँ स्वच्छ मिलती हैं। सफाई कर्मचारी, जिन्हें यहाँ पर पौरकर्मिका भी कहा जाता है, बहुत सुबह से ही सफाई में लग जाते हैं। कई बार रात्रि निरीक्षण से वापस आते समय ब्रह्ममुहूर्त में उन्हें बंगलोर की सड़कों पर कार्य करते हुये देखा तो न केवल सुखद आश्चर्य हुआ वरन यह भी पता लगा कि कैसे बंगलोर इतना स्वच्छ रह पाता है। सुबह की व्यस्तता के बाद, जब घरों का कूड़ा बाहर आ जाता है और सड़कों से कार्यालय और विद्यालय आदि जाने वाले वाहनों की संख्या कम हो जाती है, तो महापालिका के ट्रक कूड़ा समेटते हुये दिखते हैं। कुछ स्थानों से दैनिक कूड़ा समेटा जाता है, कुछ स्थानों से साप्ताहिक, पर एक सततता बनी रहती है जिससे बंगलोर यथासंभव स्वच्छ रहता है।
नगर को स्वच्छ रखने में नागरिकों के अनुशासन का योगदान भी कम नहीं है। यदि कूड़ा नियत स्थान पर न डाला जाये तो सफाई तन्त्र कुछ ही दिनों में ढह जायेगा। यही नहीं सार्वजनिक स्थानों में भी नागरिक थोड़ा श्रम और समय देते हैं पर कूड़ा कूड़ेदान में ही जाकर फेंकते हैं। बिना किसी दण्ड प्रावधान के इतना आत्मानुशासन निश्चय ही प्रशंसनीय है। नगर को स्वच्छ रखने और उसे संक्रामक बीमारियों से मुक्त रखने का कार्य बड़ा है पर आवश्यक भी है। कुछ भी हो, प्राथमिकता देकर इसका निष्पादन करना ही होता है।
लगभग एक माह पहले, कुछ प्रशासनिक कारणों से नगर के पौरकर्मिका हड़ताल पर चले गये। कारण स्वाभाविक था। नगर का एकत्र कूड़ा आस पास के गाँवों की निचली भूमि को भरने के लिये डाला जाता था, कालान्तर में कूड़ा दब जायेगा और ऊपर का स्थान नगर विस्तार में काम आयेगा। अब जिस स्थान पर नगर भर का कूड़ा फेंका जाता था, वहाँ के स्थानीय निवासियों ने उसका विरोध करना प्रारम्भ कर दिया, कारण उस कूड़े से फैलने वाली दुर्गन्ध और बीमारियाँ ही होगा। विवाद हुआ और हड़ताल हो गयी। यहाँ नगर में हर स्थान पर अव्यवस्था फैल गयी, कूड़े का अम्बार और उसकी सड़न से उठने वाली दुर्गन्ध ने नगर को भी व्याप्त कर लिया। दुर्गन्ध तक ही सीमित होता तो बच कर निकला जा सकता था पर स्वास्थ्य पर भी प्रभाव पड़ने की संभावना बनी हुयी थी। डेंगू से ग्रसित लोगों की संख्या से व्याप्त गंदगी को मापा जा सकता है। कई स्थानों पर डेंगू के मरीज भर्ती भी हुये। सरकार समय रहते चेत गयी, गाज प्रशासनिक अधिकारी पर गिरी, नये अधिकारी नियुक्त हुये। अब समय व्याप्त अव्यवस्था को समेटने का था, इस घटना की पुनरावृत्ति न हो उसके उपाय करने का था, साथ ही साथ ऐसा पुनः होने की स्थिति में सड़न और दुर्गन्ध की मात्रा सीमित की जा सके, उससे सम्बन्धित निर्णय लेने का था।
निर्णय आवश्यक थे, आलोचना हुयी थी, साख पर बाट लगी थी। सारे लंबित प्रस्ताव पारित हो गये, लगा मानो इसी समस्या में उनका उद्धार निहित था। जो भी निष्कर्ष आये, वे बंगलोर के हित में ही थे, इस स्तर पर उतर कर सोचना आवश्यक था। इस बार के निर्णयों को कानून के रूप में लागू करने का प्रयास किया जा रहा है। समय भागा जा रहा था, यदि निर्णय अभी न लिये जाते तो आने वाले समय में यह समस्या विकराल रूप धर लेती। यही नहीं, यहाँ का उदाहरण देश भर की सभी नगरपालिकाओं को भी अपनाना चाहिये।
कूड़ा प्रमुखतः ६ तरह का होता है। घर की सब्जियों आदि से निकला गीला कूड़ा, कागज और ग्लास आदि की तरह पुनः उपयोग में लाये जाना वाला सूखा कूड़ा, पत्ती पौधों आदि से निकला कार्बनिक कूड़ा, धूल और निर्माण कार्य से निकला कूड़ा, अस्पतालों से निकला चिकित्सीय कूड़ा और अन्त में इलेक्ट्रॉनिक हानिकारक कूड़ा। हर तरह के कूड़े का निष्पादन अलग तरह से होता है। घर से हर तरह का कूड़ा निकलता भी नहीं है, मुख्यतः पहले तीन तरह का कूड़ा ही अधिक मात्रा में होता है। इन सब तरह के कूड़े को हमें अब अपने घर में ही अलग करना होगा, महापालिका के कर्मचारी उन्हें उसी रूप में एकत्र करेंगे, आपके द्वारा ऐसा नहीं करने में आपका कूड़ा स्वीकार नहीं किया जायेगा। निश्चय ही यह बड़ा प्रभावी निर्णय है, नागरिकों को कार्य अधिक करना पड़ेगा, महापालिका को कार्य अधिक करना होगा, पर नगर स्वच्छ रहेगा। उपरोक्त नियम अक्टूबर माह से लागू हो जायेंगे, इससे संबंधित सुझावों को भेजने के लिये एक संपर्क भी दिया है।
एक महत्वपूर्ण दिशा तो मिल गयी है, बंगलोर को स्वच्छ रखने के प्रयासों को, पर उसे कहीं और आगे ले जाने की आवश्यकता है।
प्रतिदिन बंगलोर में लगभग ५००० टन कूड़ा निकलता है, लगभग ५०० ट्रक के बराबर या दो मालगाड़ियों के बराबर। इसमें ७० प्रतिशत कूड़ा ऐसा होता है जो जैविक होता है। यह खाद्य पदार्थों से आता है और विघटनशील होता है, यही सड़न उत्पन्न करता है। इस जैविक कूड़े में लगभग ६० प्रतिशत तक पानी होता है। सम्प्रति सारे कूड़े को हम एकत्र करते हैं और नगर के बाहर ले जाते हैं। यदि इस जैविक कूड़े को हम स्थानीय रूप से कम्पोस्टिंग करें तो उसमें शेष ४० प्रतिशत खाद मिलेगी हमें, वह खाद जो अत्यन्त उच्चस्तरीय होती है और स्थानीय रूप से खप भी जाती है। जिन घरों में पशुपालन होता है, वहाँ तो जैविक खाद्यशेष पशुओं को दे दिये जाते हैं और तब हमें गोबर के रूप में खाद मिलती है। मध्य नगर में पशुपालन तो संभव नहीं है पर कम्पोस्टिंग करके खाद तो बनायी ही जा सकती है। लाभ दुगुना है, प्रतिदिन ५०० के स्थान पर १५० ट्रक ही आवश्यक होंगे कूड़ा ढोने के लिये और साथ ही साथ प्रतिदिन १४०० टन की जैविक खाद भी मिलेगी। अभी तो सारी ऊर्जा और प्रयास कूड़े को ढोने में ही व्यर्थ हो रहे हैं।
वैसे तो श्रीमतीजी की बहुत सी अभिरुचियाँ हमारे लिये मँहगी पड़ती हैं पर कम्पोस्टिंग के प्रति उनकी लगातार बढ़ती हुयी ललक अब न केवल रंग लाने लगी है, वरन हमें भी भाने लगी हैं। जब उन्होंने बंगलोर जैसे बड़े नगर में उपस्थित सम्भावनायें गणनाओं के समेत समझायीं तब से यही लग रहा है कि स्थानीय स्तर पर कम्पोस्टिंग को बढ़ावा देना चाहिये। गावों और छोटे कस्बों में लोग पशुपालन करके जैविक कूड़े को गोबर के माध्यम से जैविक खाद में बदल सकते हैं और नगरों में जहाँ पशुपालन संभव नहीं है, वहाँ सबके लिये कम्पोस्टिंग महापालिकाओं की ओर से प्रोत्साहित की जानी चाहिये। यह एक और आवश्यक निर्णय हो, हर नागरिक के लिये।
एक और पक्ष जिस पर नगर में रहने वालों का अधिक ध्यान नहीं जा पाता है, वह है यहाँ की सफाई व्यवस्था। सामने से इतना अधिक कार्य होता नहीं दिखता है पर नगर स्वच्छ रहता है, नियत स्थान पर ही कूड़ा मिलता है, सड़कें और गलियाँ स्वच्छ मिलती हैं। सफाई कर्मचारी, जिन्हें यहाँ पर पौरकर्मिका भी कहा जाता है, बहुत सुबह से ही सफाई में लग जाते हैं। कई बार रात्रि निरीक्षण से वापस आते समय ब्रह्ममुहूर्त में उन्हें बंगलोर की सड़कों पर कार्य करते हुये देखा तो न केवल सुखद आश्चर्य हुआ वरन यह भी पता लगा कि कैसे बंगलोर इतना स्वच्छ रह पाता है। सुबह की व्यस्तता के बाद, जब घरों का कूड़ा बाहर आ जाता है और सड़कों से कार्यालय और विद्यालय आदि जाने वाले वाहनों की संख्या कम हो जाती है, तो महापालिका के ट्रक कूड़ा समेटते हुये दिखते हैं। कुछ स्थानों से दैनिक कूड़ा समेटा जाता है, कुछ स्थानों से साप्ताहिक, पर एक सततता बनी रहती है जिससे बंगलोर यथासंभव स्वच्छ रहता है।
नगर को स्वच्छ रखने में नागरिकों के अनुशासन का योगदान भी कम नहीं है। यदि कूड़ा नियत स्थान पर न डाला जाये तो सफाई तन्त्र कुछ ही दिनों में ढह जायेगा। यही नहीं सार्वजनिक स्थानों में भी नागरिक थोड़ा श्रम और समय देते हैं पर कूड़ा कूड़ेदान में ही जाकर फेंकते हैं। बिना किसी दण्ड प्रावधान के इतना आत्मानुशासन निश्चय ही प्रशंसनीय है। नगर को स्वच्छ रखने और उसे संक्रामक बीमारियों से मुक्त रखने का कार्य बड़ा है पर आवश्यक भी है। कुछ भी हो, प्राथमिकता देकर इसका निष्पादन करना ही होता है।
लगभग एक माह पहले, कुछ प्रशासनिक कारणों से नगर के पौरकर्मिका हड़ताल पर चले गये। कारण स्वाभाविक था। नगर का एकत्र कूड़ा आस पास के गाँवों की निचली भूमि को भरने के लिये डाला जाता था, कालान्तर में कूड़ा दब जायेगा और ऊपर का स्थान नगर विस्तार में काम आयेगा। अब जिस स्थान पर नगर भर का कूड़ा फेंका जाता था, वहाँ के स्थानीय निवासियों ने उसका विरोध करना प्रारम्भ कर दिया, कारण उस कूड़े से फैलने वाली दुर्गन्ध और बीमारियाँ ही होगा। विवाद हुआ और हड़ताल हो गयी। यहाँ नगर में हर स्थान पर अव्यवस्था फैल गयी, कूड़े का अम्बार और उसकी सड़न से उठने वाली दुर्गन्ध ने नगर को भी व्याप्त कर लिया। दुर्गन्ध तक ही सीमित होता तो बच कर निकला जा सकता था पर स्वास्थ्य पर भी प्रभाव पड़ने की संभावना बनी हुयी थी। डेंगू से ग्रसित लोगों की संख्या से व्याप्त गंदगी को मापा जा सकता है। कई स्थानों पर डेंगू के मरीज भर्ती भी हुये। सरकार समय रहते चेत गयी, गाज प्रशासनिक अधिकारी पर गिरी, नये अधिकारी नियुक्त हुये। अब समय व्याप्त अव्यवस्था को समेटने का था, इस घटना की पुनरावृत्ति न हो उसके उपाय करने का था, साथ ही साथ ऐसा पुनः होने की स्थिति में सड़न और दुर्गन्ध की मात्रा सीमित की जा सके, उससे सम्बन्धित निर्णय लेने का था।
निर्णय आवश्यक थे, आलोचना हुयी थी, साख पर बाट लगी थी। सारे लंबित प्रस्ताव पारित हो गये, लगा मानो इसी समस्या में उनका उद्धार निहित था। जो भी निष्कर्ष आये, वे बंगलोर के हित में ही थे, इस स्तर पर उतर कर सोचना आवश्यक था। इस बार के निर्णयों को कानून के रूप में लागू करने का प्रयास किया जा रहा है। समय भागा जा रहा था, यदि निर्णय अभी न लिये जाते तो आने वाले समय में यह समस्या विकराल रूप धर लेती। यही नहीं, यहाँ का उदाहरण देश भर की सभी नगरपालिकाओं को भी अपनाना चाहिये।
एक महत्वपूर्ण दिशा तो मिल गयी है, बंगलोर को स्वच्छ रखने के प्रयासों को, पर उसे कहीं और आगे ले जाने की आवश्यकता है।
प्रतिदिन बंगलोर में लगभग ५००० टन कूड़ा निकलता है, लगभग ५०० ट्रक के बराबर या दो मालगाड़ियों के बराबर। इसमें ७० प्रतिशत कूड़ा ऐसा होता है जो जैविक होता है। यह खाद्य पदार्थों से आता है और विघटनशील होता है, यही सड़न उत्पन्न करता है। इस जैविक कूड़े में लगभग ६० प्रतिशत तक पानी होता है। सम्प्रति सारे कूड़े को हम एकत्र करते हैं और नगर के बाहर ले जाते हैं। यदि इस जैविक कूड़े को हम स्थानीय रूप से कम्पोस्टिंग करें तो उसमें शेष ४० प्रतिशत खाद मिलेगी हमें, वह खाद जो अत्यन्त उच्चस्तरीय होती है और स्थानीय रूप से खप भी जाती है। जिन घरों में पशुपालन होता है, वहाँ तो जैविक खाद्यशेष पशुओं को दे दिये जाते हैं और तब हमें गोबर के रूप में खाद मिलती है। मध्य नगर में पशुपालन तो संभव नहीं है पर कम्पोस्टिंग करके खाद तो बनायी ही जा सकती है। लाभ दुगुना है, प्रतिदिन ५०० के स्थान पर १५० ट्रक ही आवश्यक होंगे कूड़ा ढोने के लिये और साथ ही साथ प्रतिदिन १४०० टन की जैविक खाद भी मिलेगी। अभी तो सारी ऊर्जा और प्रयास कूड़े को ढोने में ही व्यर्थ हो रहे हैं।
बेंगलुरु एक दिमाग वाला नगर है .भारत की सिलिकोन वेली कहा जाता है .जैविक /अ -जैविक /कार्बनिक /अकार्बनिक /इलेक्त्रोनी गरज ये के तमाम तरह का कचरा यहाँ मौजूद है .मेरा इस नगर में अकसर आना जा रहा है .मुंबई की तरह सभी हैं यहाँ के लोग .
ReplyDeleteएक विकल्प हो सकता है पुनर -चक्रण(री -साइकिलिंग )कागज़ आदि इतर सोलिड वेस्ट की ,जैविक कचरे से में तो अनेक संभावनाएं निहित हैं .कम्पोस्ट खाद बनाना एक विकल्प है .गैस यहाँ तक की बिजली भी बनाई जा सकती है .जहां चाह वहां राह .
अलबत्ता इलेक्त्रोनी कचरा सही खतरा है जिसका प्रबंधन ओर निपटान मुश्किलतर है .
अमरीका में कचरे के बहु बिध प्रबंधन के लिए यहाँ देत्रोइत नगर और मिशिगन राज्य में भी अनेक वेब -साइटें हैं .
कचरा यहाँ भी है लेकिन दिखलाई नहीं देता .पहाड़ियों पर पहुंचा के ठिकाने लगाया जाता है .बहु बिध कहीं कोई बदबू नहीं .कचरे के पास से होके गुजरना नहीं पड़ता .गुजरने पर पहाड़ी की तलहटी में कोई गंध नहीं आती है .इन -सिनरेशन(उच्च ताप पे प्रज्ज्वलन ) भी होता है कचरे का ,गैस भी बनती है जिसकी घरेलू आपूर्ति व्यवस्था बड़ी सुचारू है .गैस पाइपें बिछी हुईं हैं .दिखलाई कहीं नहीं देती हैं .बिल आता है युतिलीतीज़ का सांझा .
सिविलि -टि(नागर बोध ) तो यहाँ देखते ही बनती है ."पहले आप वाला अंदाज़" लखनऊ को मात देता है .कहीं कोई अफरा तफरी नहीं .ईट्रीज़ में अगर कोई यूं ही बेतरतीब खड़ा है तो भी उसके पास भी जाके पूछा जाता है :आर यू इन दा क्यु ?
बहुत सुखद आश्चर्य हुआ जानकर कि अपने ही देश का कोई शहर इतने सलीके से कार्य कर रहा है |भाभी जी का जैविक खाद बनाने का कार्य सराहनीय है उनको भी नमन |
ReplyDeleteएक शहर में सफाई कार्य इतने सलीके से होता है सुखद लगा|
ReplyDeleteहमारे यहाँ फरीदाबाद में तो नगर निगम के लोग कूड़ा उठाने आते ही नहीं, घरों से प्राइवेट रिक्शा वाले २० से ५० रूपये मासिक (कॉलोनी की हैसियत के हिसाब से) कूड़ा एकत्रित करते है, रिक्शे में खुद ही कूड़े का वर्गीकरण कर छांटते है| पोलीथिन,कागज,लोहा आदि अलग बोरे में छांटते है कबाड़ी को बेचने हेतु| खाद्य पदार्थ एक तरफ जो जहाँ भी वे डालते हिया वहां के आवारा पशुओं के लिए काम आ जाता है|
इस तरह शहर इस व्यवस्था के चलते कूड़े से बचा है पर सरकार के भरोसे कोई सुविधा नहीं| हाँ अखबरों में रोज पढ़ते है कि कूड़े के निष्पादन के लिए सरकार ने ये किया वो किया पर होता आजतक नहीं देखा|
आपके शहर में कचरा निष्पादन की सरकारी व्यवस्था भी इतनी व्यवस्थित और कारगर है , देखकर सुखानुभूति हुई . घरेलू कम्पोस्ट बनाने की विधि भी कभी लिखिए श्रीमती जी (नाम याद नहीं आ रहा )के सौजन्य से , उपयोगी होगी हमारे सहित अन्य ब्लॉग पाठकों के लिए . एक बेहतरीन पहल के लिए उन्हें साधुवाद !
ReplyDeleteनाम श्रद्धा है, हम तो उन्हें श्रीमतीजी ही कहते हैं।
Deleteशेखावत जी की बताई विधि ही इधर भी लागू है लेकिन यह देखकर बहुत अजीब लगता है जब कुछ परिवार इस मद के अंतर्गत पचीस रुपया महीना भी नहीं खर्चना चाहते और अपने घाटों का कूड़ा पालीथीन में डालकर सड़क पर फेंक देते हैं| अच्छा है कि आपके नगर के नागरिक इस विषय में सजग हैं| श्रीमती पाण्डेय का यह कार्य सराहनीय है|
ReplyDeleteब्रम्ह मुहूर्त में बंगलौर की सडको को धुलते देखा है . श्रद्धा जी साधुवाद की पात्र है अपने इस बेहतरीन कार्य के लिए .
ReplyDeleteसुखद और अनुकरणीय व्यव्हार है इस शहर के नागरिकों का ...... ऐसी जनभागीदारी प्रशासनिक व्यवस्था के काम को सरल भी करती है और मजबूती भी देती है |
ReplyDeleteश्रीमती श्रद्धा पाण्डेय जी की टेरा फार्मिंग और कूड़ा निपटान के प्रति उनके समर्पण से मैं पूर्व परिचित हूँ -अब कम्पोस्ट के प्रति यह लगन प्रशंसनीय है ...वे दृढ निश्चयी और कलात्मक अभिरुचि की हैं -उनके प्रयास फलीभूत होते रहें -मेरी शुभकामनायें!
ReplyDeleteअगर हम हर चीज के लिए सरकार को कोसने के बजाय खुद कदम उठाएंगे तो एक दिन सरकार कि ज़रुरत भी ख़त्म हो जाएगी... फिर तो हम खुद अपने आप में एक सरकार होंगे... बेहतरीन प्रयास.... भाभीजी बधाई की पात्र हैं...
ReplyDelete************
प्यार एक सफ़र है, और सफ़र चलता रहता है...
..उनकी लगन को नमन !
ReplyDeleteहमें इसके बारे में पहले से पता है ,श्रद्धाजी का कार्य अनुकरणीय है .
ReplyDeleteश्रद्धा जी को बधाई , उनके कार्य का प्रचार होना चाहिए ...
ReplyDeleteमंगलकामनायें..
श्रद्धा जी को बधाई
ReplyDelete--- शायद आपको पसंद आये ---
1. अपने ब्लॉग पर फोटो स्लाइडर लगायें
आप और आपकी श्रीमती जी बधाई के पात्र हैं ....
ReplyDeleteशुभकामनायें!
दिल्ली में कई जगह नगर निगम की गाडी आती है - साइरन बजाते हुए, लोग उसमे कूड़ा डाल देते हैं, पर कई नालायक किस्म के लोग तो पार्कों में कूड़ा फैंक देते हैं.... सुबह सुबह सैर करने वालों के लिए रुमाल रखना लाज़मी होता जा रहा हा.
ReplyDeleteबाकि कूड़े के निष्पादन में बेंगलोर बाकि देश को राह दिखायेगा.
हर शहर की नगरपालिका ऐसी ही दुरुस्त हो जाये तो क्या बात है .... श्रद्धा जी के प्रयास को साधुवाद
ReplyDeleteनिश्चय ही जब तक नागरिक सहयोग नहीं करेंगे कुछ नहीं होपाता ....
ReplyDeleteआप और आपकी श्रीमती जी बधाई के पात्र तो हैं ही...
ReplyDeleteइस बारे में दो-तीन बातें जानना चाहते थे, आज भी नहीं जान पाये हैं। आपका रिप्लाई भी मिला था कि सवाल फारवर्ड कर दिये गये हैं, लेकिन फाईल पता नहीं कहां गुम गई सरकारी दफ्तर की तरह :)
आभारी रहेंगे कुछ जानकारी मिल जाये तो। वैसे आपकी व्यस्तता और का ख्याल भी रहा, इसलिये दोबारा मेल करने की हिमाकत नहीं की।
"रंग लाने लगी है"
इस पोस्ट पर यह टिप्पणी की थी।
आदरणीय प्रवीण जी नमस्कार
श्रद्धा जी के इस कार्य के बारे में अंजू को बताया। उन्होंने बधाई भेजी है और आपका हार्दिक धन्यवाद इस पोस्ट के लिये।
मेरा घर बहुत छोटा है फिर भी गमले आदि में छोटे पौधे लगाने के लिये, अंजू ने कुछ जानकारी चाही है। बतायेंगे तो आभार होगा।
टैंक या मंथन मिट्टी के हैं, लकडी के हैं या प्लास्टिक के भी काम में लिये जा सकते हैं। क्या छोटे साईज जैसे कनस्तर को भी इस कार्य के लिये प्रयोग किया जा सकता है।
एक्टिवेटर जैव रसायन का क्या नाम है, बाजार से खरीदने के लिये।
लकडी का बुरादा और रसायन किस अनुपात में डाला जाये।
antar.sohil@gmail.com
प्रणाम
हमारे ही देश की त्रासदी है ये ....अपना घर भले ही साफ़ रख लें ...अपना शहर नहीं साफ़ रख सकते हम लोग ...!!न शहर के लिए कुछ करने का जज़्बा न ही एक ज़िम्मेदाराना रवैया ...!!
ReplyDeleteअच्छा है अब अन्य शहरों की भी महापालिका कुछ करे शायद बंगलोरे से शिक्षा लेकर ...!!
श्रद्धा जी बधाई की पात्र हैं ..!!
श्रद्धा द्वारा श्रद्धा से किया गया कार्य हो ..
विश्वास है ...
मन भाएगा ही ..!!
श्रद्धा जी की लगन एवं आपकी इस विस्तृत जानकारी को सादर नमन ...
ReplyDeleteसराहनीय पहल के लिए आप दोनों को असीम शुभकामनाएं..
ReplyDeletereally appreciable....aur log bhi inspire honge.
ReplyDeleteसुझाव पर हुआ ऐतबार :)
ReplyDeleteबात तो ठीक है पर ये घंटी गले में बॉंधेगा कौन
ReplyDeleteबढ़िया पहल।
ReplyDeleteगाँव में अभी भी कम्पोस्टिंग की जाती है .
ReplyDeleteबंगलौर में ऐसी व्यवस्था को जानकर प्रसन्नता हुई . काश दिल्ली वाले भी कुछ सीख पाते .
सराहनीय प्रयास है, श्रद्धा जी को बधाई !
ReplyDeleteश्रद्धा जी की पहल पर नमन..आप दोनो को बहुत बहुत बधाई !
ReplyDeleteExcellent Though! Excellent Work!
ReplyDeleteCouple of day ago I have been to a international conference about sustainable mobility.
Main idea was why do we need inter city mobility for needs like vegetables,milk etc those can be produced within the city.
City model must be deviced to make it self as self-sustainable as possible.
Idea of Bio fertilizer works great I think.
Moreover, produced and consumed both.
Deleteएक सुखद अनुभूति हुई इस प्रक्रिया के बारे में जान कर ..... श्रद्धा जी के लिए क्या कहूँ बस उन के प्रयास पर श्रद्धा ही होती है ...-:)
ReplyDeleteयह पर्यावरण को संरक्षित रखने के लिए यह एक बेहतरीन तरीक़ा है।
ReplyDeleteभारत देश को एक पर्यावरण चेतना की ज़रुरत है .घर को आशियाना बनाके रहिये .भारत को फिर से तपोवन बनाइये .नीयत की ज़रुरत है .मानव शक्ति अपार है .संशाधनों की भरमार हैं बस नेताओं को हाथ काले करने से रोकने के साथ साथ अपना घर भी ठीक रखना होगा .अपना आपा अच्छा तो जग अच्छा .
ReplyDeleteहम भी गीले कचरे और सूखे कचरे को अलग ही रखते हैं। सफाई की व्यवस्था तो प्रत्येक शहर को करनी ही होगी और इसके लिए हमें भी सावधान रहना चाहिए।
ReplyDeleteस्पैम बोक्स चेक करना भाई साहब टिपण्णी ख़ा रहा है .
ReplyDeleteउन दिनों जोधपुर ऑफिसर्स मेस ,१८-२० ,पंडारा रोड नै दिल्ली के आवासीय में थे .बेहद पेड़ हैं इस कैम्पस में .पत्ते ही पत्ते .हर अफसर के यहाँ माली आता था ,पत्ते एकत्र कर उनका एक पूल बनाया जाता था .कम्पोस्ट तैयार की जाती थी .वर्मी हो या कम्पोस्ट हमारा स्वदेशी तरीका था .आई आई टी मद्रास परिसर में भी हमने बला की पर्यावरण चेतना देखी .यहाँ सब टीचर्स साइकिल से ही आतें हैं .कचरे को कार्बनिक /अकार्बनिक /जैविक /अ -जैविक पतियों के हवाले किया जाता है जो कैम्पस में जगह जगह रखी हुईं हैं .ऐसे ही प्रयासों की भारत भर में ज़रुरत है .
ReplyDeleteशहरों में सुबह सवेरे स्कूल जाने की उम्र वाले हाथ ,
कचरा बीनतें हैं .
देर रात गए तक सड़कों पर आवारा झूमती बीयर की खाली कैन ओर बोतलों पर लपकतें हैं .दूकान दार डिब्बी /डिब्बे बाद में फैंकता है झाड पौंछ कर सफाई में, लपक पहले लिए जातें हैं इन हाथों द्वारा .यही बचे हैं अब सफाई कर्मी .नगर के पहरुवे .गिद्ध कौवे सब हवा हो गए नाशी जीव ओर कीट नाशी ख़ा गए उन्हें .अब शहर दिल्ली में आवारा कुत्ते और स्ट्रीट चिल्ड्रेन ही बचें हैं जो बा -खूबी ये काम कर रहें हैं .
कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं है कचरा निपटान की .दिल्ली के लैंड फिल्स जिसने देखें हैं बस अड्डा कश्मीरी गेट से जो पीरागढ़ी या फिर करनाल बाईपास होके गुजरा है नाक पे रूमाल रख के गुजरा है बस में भी ..
और इंदिरापुरम गाज़ियाबाद का तौबा तौबा टापू हैं यहाँ शहरी मलबे के जो मुंह चिढाता है हर आम औ ख़ास का .
हर शहर बेंगलुरु हो सकता है .
सैन होज़े /सिल्कोंन वेळी हो सकता है भारत का ज़रुरत एक पुख्ता पहल की है .बूँद बूँद सो भरे सरोवर ,नागर सहयोग ज़रूरी है .घर से कचरा छंटनी करके हवाले करो एकत्रण तंत्र के .नै दिल्ली ने छुट पुट पहल कई मर्तबा की है डिब्बी लाल हरे बंटवाये हैं .मासिक शुल्क मात्र पचास रुपया .कमाल है इतना भी देने को तैयार नहीं हैं बाबू लोग बाबू कोलोनियों के यहाँ .मैं इसलिए जानता हूँ मेरी सुसराल है यह नै दिल्ली .भले बीवी कब की गुजर गईं सुसराल तो है .
श्रद्धाजी का कार्य अनुकरणीय है आप दोनों को असीम शुभकामनाएं
ReplyDeleteबहुत सुंदर जानकारी, अन्य शहरों के लिये भी अनुकरणीय.
ReplyDeleteबढ़िया!
ReplyDeleteसराहनीय एवं अनुकरणीय |
ReplyDeleteकार्य की लगन ... नमन ..
ReplyDeleteअच्छी जानकारी बांटी है आपने ... दूसरे शहरों को भी प्रयास करना चाहिए ...
बहुत ही लाभप्रद जानकारी देती हुई पोस्ट अन्य शहरों में भी लागू होना चाहिए ये सिस्टम बंगलौर सचमुच स्वच्छता के मामले में आगे है कई बार वहां रहना हुआ मेरा अपना फ़्लैट भी है वहां शायद बाद में वहीँ रहना हो जाए
ReplyDeleteसराहनीय प्रयास ...
ReplyDeleteभाभीजी के इस प्रयास के लिए अनेक बधाई और शुभकामना ।
ReplyDelete"पानी और बिजली व्यवस्था उस गति से नहीं फैल पा रही है जिस गति से नगर बढ़ रहा है, पर जहाँ भी है, सुचारु रूप से चल रही है।"
आपकी इस बात से पूर्ण सहमत ।पिछले करीब दो साल से निरंतर मई यही बेंगलोर में रह रही हूँ और बहर आना जाना भी होता है कभी पैदल, कभी रिक्शा कभी बस ,कभी कार में ,पर मैंने चार साल पहले की तुलना में शहर को निरंतर गंदगी से भरते ही पाया है ।जगह जगह गंदगी के ढेर से गायों का अपना भोजन ढूँढना छोटी छोटी दुकानों के आगे कचरे का ढेर जिसमे धोबी के बचे कोयले ,कोयले की राख़ , मांसाहार दुकान के बहर अवशेषों को खाते कई कुत्ते, नारियल पानी बाद बचे हुए नारियल ,और अन्दर गलियों में कचरे के ढेर ,उजडती सड़कें ।और पानी की आपूर्ति के यह हल है की पिछले एक साल में जिस क्षेत्र में हम रहते है वहां के कोई भी अपार्टमेन्ट में कावेरी का अक बूंद भी पानी नही देते औ बिल हर महीने बराबर भरना ही होता है ।
पर जहाँ सुचारू रूप से चल रहा है वो चलता रहे और शहर की सुन्दरता बनी रहे ।
बस, इसी तरह के आलेख, भाभी जी की पहल...शहर के संस्कार...जुड़ते जुड़ते नव भारत का निर्माण होगा...यहाँ यह सब सिस्टम में हैं ही तो निश्चित वहाँ भी हो ही जायेगा एक दिन...
ReplyDeleteअच्छा लगा पढ़ जान कर.
सर जी ...सराहनीय लेख और सराहनीय कदम
ReplyDeleteबहुत सराहनीय कदम...
ReplyDeleteश्रद्धांजलि ......
ReplyDeleteदिल की बातेंपरSunil Kumar - 1 मिनट पहले
श्रद्धांजलि नाम : चन्द्र मौलेश्वर प्रसाद जन्म : 07 अप्रैल 1942 मृत्यू : 12 सितम्बर 2012 ब्लोगिंग सितम्बर 2007 ब्लॉग : कलम ‘मेरी दीवानगी पर होशवाले बहस फ़रमायें’ हिंदी ब्लोगर फोरम इंटर नेशनल स्थान : हैदराबाद अंतिम पोस्ट आदरणीय ब्लागर मित्रो, अस्वस्थ होने के कारण शायद अंतरजाल पर न आ पाऊँ । इसलिए कुछ समय के लिए शायद आप से भेंट न हो। स्वास्थ लाभ करके पुनः आपसे सम्पर्क स्थापित करूंगा। तब तक के लिए विदा:) बड़े शौक से सुन रहा था ज़माना । तुम ही सो गए दास्ताँ कहते कहते ।
रोचक जानकारी।
ReplyDeleteआपके लेख को पढ़ने से उपजी प्रतिक्रिया को कलमबद्ध किया है - http://vaagartha.blogspot.com/2012/09/Waste-disposal-and-waste-management.html
बहुत अचछा उपक्रम । आशा करते हैं कि अन्य नगर भी इसको अपनायेंगे ।
ReplyDeleteचंद्रमौलेश्वर प्रसाद जी को श्रध्दांजली ।
बढिया प्रयास है श्रीमति जी का भी और आपका भी
ReplyDeleteकचरा प्रबंधन के लिए श्रध्दा जी का प्रयास अनुकरणीय है.
ReplyDeleteनगर निगम की इस पहल का स्वागत होना चाहिए.
काशः उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों के शहरों में भी शहरीकरण की अवधारणा
ReplyDeleteके प्रिति जागरूगता बढे.
बहुत सुंदर व सार्थक जानकारी, विशेषकर ऐसे परिवार के मुखिया से जहाँ घर के कचराप्रबंधन,उर्जा बजत जैसी अति महत्वपूर्ण व आवश्यक सामयिक कदमों हेतु प्रयास मात्र घर के ड्राईंगरूम में बैठ बौद्दिक चर्चा तक सीमित होने के बजाय अपने घर के सभी सदस्यों द्वारा जीवनचर्या कार्यव्यवहार में शामिल है,जो अति प्रशंसनीय व अनुकरणीय है। श्रद्दा पांडेय जी के सार्थक प्रयास से आपके बंगले की बगिया इतनी हरीःभरी व सुंदर पुष्प-पल्लवित रहती है,आप दोनों को बहुत-बहुत बधाई व साधुवाद।
ReplyDeleteकूड़े को अलग अलग इकठ्ठा करने में सफलता के लिए नागरिकों का सहयोग अपेक्षित है। जापान में ना केवल कूड़े का विभाजन होता है बल्कि उन्हें एक तकनीकी प्रक्रिया के तहत ईंधन के रूप में इस्तेमाल भी किया जाता है।
ReplyDeleteकृपया अब यह लिंक देखें - http://vaagartha.blogspot.co.uk/2012/10/Waste-disposal-and-waste-management.html
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