बड़ी दिलासा देते हैं ये शब्द, विशेषकर तब, जब पति जेल में हो, पति अपनी पत्नी को यह गाने को कहता हो और उसकी पत्नी सस्वर गा रही हो। बाहुबली पति का आत्मविश्वास बढ़ा जाता है, यह गीत। उसकी दृष्टि से देखा जाये तो स्वाभाविक ही है, बाहर का विश्व बेतहाशा भागा जा रहा है, उसके प्रतिद्वन्दी उसके अधिकारक्षेत्र में पैर पसार रहे हैं और वह है कि जेल में पड़ा हुआ है। गीत समाप्त होता है, मिलाई का समय समाप्त होता है, दोनों की व्यग्रता शान्त होती है। फिल्म देख रहे दर्शकों को भी आस बँधती है कि अब फैजल बदला लेगा, गीत के माध्यम से उसे तत्व ज्ञान मिल चुका है, ठीक उसी तरह जिस तरह कृष्ण ने व्यग्र हो रहे अर्जुन को जीवन का मूल तत्व समझाया था।
ध्यान से सुनिये यह गीत, हर पद में एक अंग्रेजी शब्द है, फ्रस्टियाओ, नर्भसियाओ, मूडवा, अपसेटाओ, रांगवा, सेट राइटवा, लूसिये, होप, फाइटवा। इन सबको मिलाकर एक गीत बनाया है, लोकसंगीत का मधुर मिश्रण है, भाव, विभाव और संचारी भाव हैं, निष्कर्ष है गजब का प्रभाव। विश्वविजेता रहे अंग्रेजों की अंग्रेजी की देशी दुर्दशा होते देख शब्दशास्त्री कितने ही भौंचक्के हो जायें, पर इन शब्दों को अर्थसहित जिस सहजता से हमने अपनी संस्कृति में आत्मसात किया है, उतना आत्मविश्वास तो इस शब्द को अंग्रेजी में बोलते समय भी नहीं आता होगा। यदि अंग्रेजों ने हमें अंग्रेजियत सिखायी तो हमने भी अंग्रेजी शब्दों को अल्हड़ देशीपना सिखा दिया है।
संस्कृति, भाषा और भाव के पारस्परिक प्रभाव से ऊपर उठें और इस पर विचार करें कि फ्रस्टियाना होता क्यों है? इस प्रक्रिया को समझते ही उससे संबद्ध लघुप्रभाव और उससे निदान के उपाय समझ में आ जायेंगे। मनोवैज्ञानिक भले भी कितनी कठिन कठिन परिभाषायें गढ़ लें पर उदाहरणों के माध्यम से समझना ही मस्तिष्क में स्थायी रहता है। फिल्म का परिवेश धनबाद के निकट वासेपुर का है, जहाँ पर कोयले और उससे संबद्ध व्यवसायों में अनापशनाप धन कमाने की न जाने कितनी संभावनायें हैं। दोहन, संदोहन और महादोहन चल रहा है, अव्यवस्था का राज है, शक्ति का नाद ही स्पष्ट सुनायी पड़ता है, आपाधापी मची है। समर्थक, विरोधी नित नये तिकड़म लगा रहे हैं, और सहसा विकास की इस विधा को न समझने वाली पुलिस तुच्छ से अपुलसीय कारणों में नायक फैजल को जेल के अन्दर डाल देती है। अब बताईये कि वह फ्रस्टियाये न, तो क्या करे?
थोड़ा और सरल ढंग से समझें। जब माँग अधिक होती है और आपूर्ति कम, तो प्राप्ति के लिये संघर्ष बढ़ता है। अब जो लोग सक्षम होते हैं, वे उस संघर्ष में कुछ प्राप्त कर लेते हैं, शेष सब फ्रस्टियाने लगते हैं। कॉलेज में प्रवेश के लिये यही होता है, कॉलेज में जाने के बाद सौन्दर्यमना युवाओं में यही होता है, नौकरी पाने के बाद यही होता है और यही क्रम अन्य क्षेत्रों में धीरे धीरे बढ़ता रहता है। कुछ न पा पाने की अवस्था फ्रस्टियाने का मूल स्रोत है। पर ऐसा नहीं है कि फ्रस्टियाना पूरी तरह से वाह्य कारणों पर ही आधारित हो। निश्चय ही यह एक बड़ा कारक है, पर अपनी क्षमताओं और अपने अधिकार के बारे में हमारा आकलन भी उसके लिये उत्तरदायी है। अब बताईये, फैजल अगर वासेपुर से संतुष्ट रहते और धनबाद में हस्तक्षेप न करते तो फ्रस्टियाने की मात्रा कम की जा सकती थी। हम स्वयं को महारथी समझते हैं और जब भाग्य या घटनायें हमें पैदल कर देती हैं, तो हम फ्रस्टियाने लगते हैं।
जब जीवन में भय अधिक होता है तो व्यक्ति अल्पकालिक लाभों की ओर भागता है, जब अनिश्चितता अधिक होती है तब व्यक्ति अधीर हो जाता है, सब कुछ कर डालने के लिये। इस अवस्था को उन्माद कह लें या व्यग्रता। उन्माद अनियन्त्रित होता है, बढ़ता जाता है, अवरोध क्षोभ उत्पन्न करता है, असफलता अवसाद ले आती है। तब फिर से किसी को यह गाना गाना होता है, सस्वर। बहुत लोगों को बड़े प्रलोभन की सतत आस क्षोभ में नहीं जाने देती है। छोटे मोटे अवरोधों को पार करने के लिये यही स्वप्न पर्याप्त होते हैं। पुराने समय में जब आक्रमणकारी सैनिक युद्ध के लिये निकलते थे तो उन्हें भी प्रलोभन दिया जाता था कि जीत के बाद लूट में मुक्त हस्त मिलेगा, हर तरह की लूट में। उन्माद जब तक बना रहता है, कार्य चलता रहता है, उन्माद कम हुआ तो फ्रस्टियाना प्रारम्भ हो जाता है।
जहाँ जीवन बुलबुले सा हो जाता है, वहाँ सुख को तुरन्त ही भोग लेने की मानसिकता विकसित हो जाती है, वहाँ समाज का दीर्घकालिक स्वरूप क्षयमान होने लगता है। गैंग ऑफ वासेपुर बस वही कहानी चीख चीख कर बतला रहा है। कोयले से भी अधिक काली वहाँ की कहानी है। अथाह सम्पदा पड़ी है वहाँ, सबके लिये, पर वर्चस्व का युद्ध उसे भी शापित कर देता है। उन्नत सभ्यताओं को देख चुके लोगों को यदि मानव अस्तित्व का दूसरा छोर समझना हो तो उन्हें यह फिल्म अवश्य देखनी चाहिये।
अल्पकालिक मानसिकता फ्रस्टियाने का प्रमुख कारण है, और अल्पकालिक घटनाओं को दीर्घकालिक परिप्रेक्ष्य में रख देना उसका निदान है। जब भी यह स्थिति आती है तब लक्षण चीख चीख कर अपनी उपस्थिति बताते हैं। अर्जुन भी इसी में लपट गये थे, शरीर से पसीना आना, मुख सूख जाना, हाथों में कम्पन होना, गीता के प्रथम अध्याय में सारे लक्षण ढंग से वर्णित हैं। कृष्णजी को तुरन्त ही समझ आ गया था कि ये फ्रस्टियाने के लक्षण हैं और अर्जुन किसी अल्पकालिक अवस्था के फेर में पड़े हुये हैं। कृष्ण के तर्कों की पहली श्रंखला आत्मा के बारे में होती है, अभिप्राय स्पष्ट था कि यदि आप आत्मा हो तो अल्पकालिक कैसे सोच सकते हो, एक जन्म के बारे व्यथित होने का क्या लाभ।
अर्जुन पढ़े लिखे थे, उन्हें न केवल यह बात तुरन्त समझ में आ गयी वरन उसके बाद उन्होंने हम सबके लाभ के लिये ढेरों प्रश्न पूछ डाले। हमारे लिये तो गीता का दूसरा अध्याय पर्याप्त है, स्वयं को आत्मा समझ लेने के पश्चात सारे सुख दुख तो सर्दी गर्मी जैसे लगने लगते हैं। लगने लगता है कि जब इतना लम्बा चलना है तो पथ में लगे एक काँटे या पथ में दिखे एक फूल का क्या महत्व? संभवतः यही कारण है कि दूसरा अध्याय पूरा होते होते मन शान्त हो जाता है, और संतुष्टि में नींद भी आ जाती है। वासेपुर के लोगों को गीता समझ आये न आये पर होपवा अवश्य समझ आता है। होप या आशा पर ध्यान जाते ही परिप्रेक्ष्य दीर्घकालिक हो जाता है। तब थोड़ा समय दिखता है, क्षोभ और साम्य के बीच, समय जिसमें बिगड़े हुये कारकों को ठीक किया जा सकता है।
यह गाना देशी है और बहुत प्रभावी है, कई बार इसे प्रयोग कर चुका हूँ, अपने ऊपर, अपने साथी अधिकारियों पर और अपनी श्रीमतीजी पर भी। रामबाण की तरह असर करता है, और सबसे अच्छी बात यह है कि इसे गाने के लिये कण्ठ पर अधिक जोर डालने की आवश्यकता भी नहीं है। हमने श्रीमतीजी को भी सिखा दिया है। चेहरे के भाव छिपाना तो हमें वैसे भी नहीं आता था, अब उनके कण्ठ के स्वर को सहना भी सीख रहे हैं।
विश्वास नहीं होता, तो गाकर देख लीजिये….फ्रस्टियाओ नहीं मूरा….
संस्कृति, भाषा और भाव के पारस्परिक प्रभाव से ऊपर उठें और इस पर विचार करें कि फ्रस्टियाना होता क्यों है? इस प्रक्रिया को समझते ही उससे संबद्ध लघुप्रभाव और उससे निदान के उपाय समझ में आ जायेंगे। मनोवैज्ञानिक भले भी कितनी कठिन कठिन परिभाषायें गढ़ लें पर उदाहरणों के माध्यम से समझना ही मस्तिष्क में स्थायी रहता है। फिल्म का परिवेश धनबाद के निकट वासेपुर का है, जहाँ पर कोयले और उससे संबद्ध व्यवसायों में अनापशनाप धन कमाने की न जाने कितनी संभावनायें हैं। दोहन, संदोहन और महादोहन चल रहा है, अव्यवस्था का राज है, शक्ति का नाद ही स्पष्ट सुनायी पड़ता है, आपाधापी मची है। समर्थक, विरोधी नित नये तिकड़म लगा रहे हैं, और सहसा विकास की इस विधा को न समझने वाली पुलिस तुच्छ से अपुलसीय कारणों में नायक फैजल को जेल के अन्दर डाल देती है। अब बताईये कि वह फ्रस्टियाये न, तो क्या करे?
थोड़ा और सरल ढंग से समझें। जब माँग अधिक होती है और आपूर्ति कम, तो प्राप्ति के लिये संघर्ष बढ़ता है। अब जो लोग सक्षम होते हैं, वे उस संघर्ष में कुछ प्राप्त कर लेते हैं, शेष सब फ्रस्टियाने लगते हैं। कॉलेज में प्रवेश के लिये यही होता है, कॉलेज में जाने के बाद सौन्दर्यमना युवाओं में यही होता है, नौकरी पाने के बाद यही होता है और यही क्रम अन्य क्षेत्रों में धीरे धीरे बढ़ता रहता है। कुछ न पा पाने की अवस्था फ्रस्टियाने का मूल स्रोत है। पर ऐसा नहीं है कि फ्रस्टियाना पूरी तरह से वाह्य कारणों पर ही आधारित हो। निश्चय ही यह एक बड़ा कारक है, पर अपनी क्षमताओं और अपने अधिकार के बारे में हमारा आकलन भी उसके लिये उत्तरदायी है। अब बताईये, फैजल अगर वासेपुर से संतुष्ट रहते और धनबाद में हस्तक्षेप न करते तो फ्रस्टियाने की मात्रा कम की जा सकती थी। हम स्वयं को महारथी समझते हैं और जब भाग्य या घटनायें हमें पैदल कर देती हैं, तो हम फ्रस्टियाने लगते हैं।
जब जीवन में भय अधिक होता है तो व्यक्ति अल्पकालिक लाभों की ओर भागता है, जब अनिश्चितता अधिक होती है तब व्यक्ति अधीर हो जाता है, सब कुछ कर डालने के लिये। इस अवस्था को उन्माद कह लें या व्यग्रता। उन्माद अनियन्त्रित होता है, बढ़ता जाता है, अवरोध क्षोभ उत्पन्न करता है, असफलता अवसाद ले आती है। तब फिर से किसी को यह गाना गाना होता है, सस्वर। बहुत लोगों को बड़े प्रलोभन की सतत आस क्षोभ में नहीं जाने देती है। छोटे मोटे अवरोधों को पार करने के लिये यही स्वप्न पर्याप्त होते हैं। पुराने समय में जब आक्रमणकारी सैनिक युद्ध के लिये निकलते थे तो उन्हें भी प्रलोभन दिया जाता था कि जीत के बाद लूट में मुक्त हस्त मिलेगा, हर तरह की लूट में। उन्माद जब तक बना रहता है, कार्य चलता रहता है, उन्माद कम हुआ तो फ्रस्टियाना प्रारम्भ हो जाता है।
जहाँ जीवन बुलबुले सा हो जाता है, वहाँ सुख को तुरन्त ही भोग लेने की मानसिकता विकसित हो जाती है, वहाँ समाज का दीर्घकालिक स्वरूप क्षयमान होने लगता है। गैंग ऑफ वासेपुर बस वही कहानी चीख चीख कर बतला रहा है। कोयले से भी अधिक काली वहाँ की कहानी है। अथाह सम्पदा पड़ी है वहाँ, सबके लिये, पर वर्चस्व का युद्ध उसे भी शापित कर देता है। उन्नत सभ्यताओं को देख चुके लोगों को यदि मानव अस्तित्व का दूसरा छोर समझना हो तो उन्हें यह फिल्म अवश्य देखनी चाहिये।
अल्पकालिक मानसिकता फ्रस्टियाने का प्रमुख कारण है, और अल्पकालिक घटनाओं को दीर्घकालिक परिप्रेक्ष्य में रख देना उसका निदान है। जब भी यह स्थिति आती है तब लक्षण चीख चीख कर अपनी उपस्थिति बताते हैं। अर्जुन भी इसी में लपट गये थे, शरीर से पसीना आना, मुख सूख जाना, हाथों में कम्पन होना, गीता के प्रथम अध्याय में सारे लक्षण ढंग से वर्णित हैं। कृष्णजी को तुरन्त ही समझ आ गया था कि ये फ्रस्टियाने के लक्षण हैं और अर्जुन किसी अल्पकालिक अवस्था के फेर में पड़े हुये हैं। कृष्ण के तर्कों की पहली श्रंखला आत्मा के बारे में होती है, अभिप्राय स्पष्ट था कि यदि आप आत्मा हो तो अल्पकालिक कैसे सोच सकते हो, एक जन्म के बारे व्यथित होने का क्या लाभ।
अर्जुन पढ़े लिखे थे, उन्हें न केवल यह बात तुरन्त समझ में आ गयी वरन उसके बाद उन्होंने हम सबके लाभ के लिये ढेरों प्रश्न पूछ डाले। हमारे लिये तो गीता का दूसरा अध्याय पर्याप्त है, स्वयं को आत्मा समझ लेने के पश्चात सारे सुख दुख तो सर्दी गर्मी जैसे लगने लगते हैं। लगने लगता है कि जब इतना लम्बा चलना है तो पथ में लगे एक काँटे या पथ में दिखे एक फूल का क्या महत्व? संभवतः यही कारण है कि दूसरा अध्याय पूरा होते होते मन शान्त हो जाता है, और संतुष्टि में नींद भी आ जाती है। वासेपुर के लोगों को गीता समझ आये न आये पर होपवा अवश्य समझ आता है। होप या आशा पर ध्यान जाते ही परिप्रेक्ष्य दीर्घकालिक हो जाता है। तब थोड़ा समय दिखता है, क्षोभ और साम्य के बीच, समय जिसमें बिगड़े हुये कारकों को ठीक किया जा सकता है।
यह गाना देशी है और बहुत प्रभावी है, कई बार इसे प्रयोग कर चुका हूँ, अपने ऊपर, अपने साथी अधिकारियों पर और अपनी श्रीमतीजी पर भी। रामबाण की तरह असर करता है, और सबसे अच्छी बात यह है कि इसे गाने के लिये कण्ठ पर अधिक जोर डालने की आवश्यकता भी नहीं है। हमने श्रीमतीजी को भी सिखा दिया है। चेहरे के भाव छिपाना तो हमें वैसे भी नहीं आता था, अब उनके कण्ठ के स्वर को सहना भी सीख रहे हैं।
विश्वास नहीं होता, तो गाकर देख लीजिये….फ्रस्टियाओ नहीं मूरा….
ReplyDeleteअल्पकालिक मानसिकता फ्रस्टियाने का प्रमुख कारण है
सही निरीक्षण हुआ है.
अब इस गीत को सीखना ही पड़ेगा :)
ReplyDeleteगाने का थॉट तो एकदम लल्लन टॉप है |
ReplyDeleteएक बार हमने भी श्रीमती जी के कंठ के स्वर की सराहना कर दी थी , तब से बस सह ही रहे हैं |
"फ्रस्टियाओ, नर्भसियाओ, मूडवा, अपसेटाओ, रांगवा, सेट राइटवा, लूसिये, होप, फाइटवा।"
ReplyDeleteई सब बिहारी बोली है बाबू अंगरेजी रिच्कौ नाई !हम पार्ट दो नहिये देख पाए ..कुछ संतोष ई पढ़ के हो गवा है !
गीता और वासेपुर का संश्लेषण विश्लेषण अपने अंदाज़ में कर डाला है आपने ..और हम सहमत हैं !
गाना तो अद्भुतै है !
फिल्म के दोनों पार्ट देखे हैं सो अच्छे से समझ पा रही हूँ आपकी पोस्ट का वैचारिक पक्ष भी और गाने का थॉट भी .....
ReplyDeleteहम तो मौजिया गये ई पढ़ के..
ReplyDeleteहोपवा लूज़ नहीं करने का बढ़िया मसाला दिया है !
ReplyDeleteहमहू अल्पकालिक मानसिकता के चक्कर में कबहूँ ना फ्रसटियाते है . गाना तो पहली बार सुना लेकिन एकदम चौचक है . दीर्घ प्रभावी भी .
ReplyDeleteबहुत सटीक मनो -विश्लेषण परक समीक्षा की है आपने .अंग्रेजी और इस व्यवस्था के साथ अब मज़ाक करना इसकी हंसी उड़ाना ही ठेक लगता है दोनों को बदल तो पाते नहीं हैं हम ,इसलिए मजाक करो ,जितना किया जाए ,हंसी उडाओ ....
ReplyDeleteram ram bhai
शनिवार, 15 सितम्बर 2012
सज़ा इन रहजनों को मिलनी चाहिए
फिल्म तो नहीं देखी(मैं फिल्म बहुत कम देखती हूँ ) नाम भी आज ही सुन रही हूँ पर आपके विश्लेषण को पढ़कर और गाने के बोल को सुनकर इच्छा जगी है फिल्म देखने की ये फिल्म हिंदी में है या भोज पूरी में हिंदी में होगी तो जरूर देखना चाहूंगी इस गाने के माध्यम से जो सन्देश मिला है उसके लिए आप बधाई के पात्र हैं
ReplyDeleteफ़िल्म हिन्दी में है, पर हिंसा अधिक है। हृदय कड़ा करके जाने की सलाह दूँगा।
Deleteहमने श्रीमतीजी को भी सिखा दिया है। चेहरे के भाव छिपाना तो हमें वैसे भी नहीं आता था, अब उनके कण्ठ के स्वर को सहना भी सीख रहे हैं।
ReplyDeletekya baat hai bhaiya! :D
aapko to gaate hue bhi humne suna hai to ek podcast apne aawaz mein bhi lagaiye :)
दुसरका पार्ट नहीं देखे हैं....बट अंडरस्टैन्डियाय गए हैं.
ReplyDeleteफिल्म तो नहीं देखी नाम भी आज ही सुना पर आपके विश्लेषण को पढ़कर और गाने के बोल को सुनकर लगता है कुछ तो बात है इस फिल्म में....
ReplyDeleteआपका इ वाला पोस्ट पढ़ के अब हम चार दिन तक नही फ्रस्टियायेंगे ..:)
ReplyDeleteसादर नमन |
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ।आभार
ReplyDeleteमेरी नयी पोस्ट - "इंटरनेट के टॉप सर्च इंजन्स"
मेरा ब्लॉग पता है :- harshprachar.blogspot.com
अच्छा विश्लेषण किया है
ReplyDeleteसुन रही हूँ ...निराशा मुस्कुरा रही है
ReplyDeleteवाह ... बहुत बढिया।
ReplyDeleteअभी दोनों ही पार्ट नहीं देखे ... बहुत सूना है इसके बारे में ...
ReplyDeleteपर ये गीत तो लाजवाब है ...
हम स्वयं को महारथी समझते हैं और जब भाग्य या घटनायें हमें पैदल कर देती हैं, तो हम फ्रस्टियाने लगते हैं। यही एक मात्र सच है जीवन का कुछ तोड़ा बहुत परिस्थिति पर भी निर्भर करता है जब अकारण अर्थात बिना हमारी गलती के भी हमें ऐसी जगह ला खड़ा करती हैं जहां फ्रस्टियाने स्वाभाविक हो जाता है।
ReplyDeleteहफ्ते भर से गा रहे हैं। मोबाइल में ठूंस लिया है। :-)
ReplyDeleteहम गहन सोच में पड़ें हैं ....
ReplyDeleteयहाँ तो ऐसे-ऐसे शब्द सुनने को मिलते हैं कि मैं भी चकरा जाती हूँ .. जरा रह कर देखिये .. बिहार में..
ReplyDeleteअविभाजित बिहार में २ वर्ष और विभाजित बिहार में २ वर्ष, कुल ४ वर्ष रहने का अनुभव पाये हैं।
Deleteइस गीत को सुन कर सरदार जी भी जोश में आ गए है.:) फुल्ली फाईटवा के मूड में. :)
ReplyDeleteफ्रस्टयाईये किन्तु होपवा न छोड़े .
ReplyDelete( मेरी नई पोस्ट कीट्स आफ गढ़वाल - चन्द्रकुंवर वर्त्वाल देखिए)
हिन्दी पखवाड़े की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!
ReplyDelete--
बहुत सुन्दर प्रविष्टी!
इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (16-09-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
सही कहा आपने,जहाँ संकीर्णता है,जहाँ निकट दृष्टि दोष है, वहाँ असुरक्षा का भाव, उद्वेग का भाव उत्पन्न होता है और मुडवा यानी मन स्वाभाविक रुप से फ्रस्टियाने लगता है ।आपने ठीक कहा,जहाँ सोच की वयापकता है व जीवन का व्यापक दृष्टिकोण है वहाँ स्वाभाविक रुप से होपवा भी बढ़ जाता है एवं साथ ही साथ फ्रस्टियाना भी शांत हो जाता है। हमेशा की तरह अति सुंदर व पावरफुलवा लेख। बधाई।
ReplyDeleteनई थैरेपी ट्राईवाएंगे :)
ReplyDeleteहम स्वयं को महारथी समझते हैं और जब भाग्य या घटनायें हमें पैदल कर देती हैं, तो हम फ्रस्टियाने लगते हैं।
ReplyDeleteऩ तो फिल्म देखी है ना ही गाना सुना है पर अब तो सुनना पडेगा । आपकी पोस्ट इसके लिये उद्युक्त कर रही है ।
फ्रस्टियाने का इतना अच्छा विश्लेषण और नहीं मिलेगा..... वैसे ये गाना मुझे भी बहुत पसंद है......
ReplyDeleteअल्पकालिक मानसिकता फ्रस्टियाने का प्रमुख कारण है, और अल्पकालिक घटनाओं को दीर्घकालिक परिप्रेक्ष्य में रख देना उसका निदान है। जब भी यह स्थिति आती है तब लक्षण चीख चीख कर अपनी उपस्थिति बताते हैं। अर्जुन भी इसी में लपट गये थे, शरीर से पसीना आना, मुख सूख जाना, हाथों में कम्पन होना, गीता के प्रथम अध्याय में सारे लक्षण ढंग से वर्णित हैं
ReplyDelete:):) गाना तो मैंने यह पहली बार ही सुना .... बहुत सटीक विश्लेषण फ्रस्टियाने का ।
Have to listen to this song. You made it more beautiful with your post though...:)
ReplyDeleteअब हमारे तो सारे फ़ेवुरिट गाने इसी फ़िलिम के हैं... यहाँ तक कि हमारे बेटेलाल गाते हैं ... कुछ खाते नहीं हैं हमारे पिया.. सूखके छुआरा हो गये हैं हमारे पिया :)
ReplyDeleteफ़िल्म के गाने में विविधता, प्रयोग और मौलिकता के कारण 'गुलाल' के बाद किसी फ़िल्म के गाने बेहद पसंद आये।
वाह,अच्छे-खासे गरुये शब्द को हलकाने का प्रयोग भी बढ़िया रहा !
ReplyDeleteबहुत ही शानदार विश्लेषण उम्दा पोस्ट |
ReplyDeleteसुन्दर रचना .
ReplyDeleteइस गीत को सुन कर सरदार जी भी जोश में आ गए है.:) फुल्ली फाईटवा के मूड में. :)हिर्सवा गए हैं जी ,वो संसद में बैठीं हुश हुश करें हैं ,हडकाए हैं ,ये हड़क जाएँ हैं ......ऐसे नहीं जायेंगे ओनरवा संग जायेंगे ,
ReplyDeleteयह गाना सुना नहीं तो फ्रस्टीआए भी नहीं। अच्छी आलेख।
ReplyDeleteअद्भुत विश्लेषण आपकी पखर सोच को हम सलाम करते हैं तीर भी चला पर तीरंदाज़ की निपुणता ने इसका जरा भी भान न होने दिया की तीर किसने चलाया और कई निशानों पर निशाना लगा आये बहुत खूब सुन्दर पोस्ट |
ReplyDeleteYeh gaana toh hume picture main khoob pasand aay atha :)
ReplyDeleteabhi dekha nahi...magar ab dekhna hai jaldi
ReplyDeleteअब क्या फ्रस्टयायिंग और क्या नर्वसियायिंग मूरा , जब चिड़िया चुंग गई खेत !
ReplyDeleteज़बर्दस्त आकलन ....
ReplyDeleteअभी तक सुना नहीं ...सुनकर देखते हैं.
ReplyDeleteयदि अंग्रेजों ने हमें अंग्रेजियत सिखायी तो हमने भी अंग्रेजी शब्दों को अल्हड़ देशीपना सिखा दिया है। इन्ग्लिश्वा को हिन्ग्लिश्वा बना दिया है .
ReplyDeleteकुछ न पा पाने की अवस्था फ्रस्टियाने का मूल स्रोत है। पर ऐसा नहीं है कि फ्रस्टियाना पूरी तरह से वाह्य कारणों पर ही आधारित हो। निश्चय ही यह एक बड़ा कारक है, पर अपनी क्षमताओं और अपने अधिकार के बारे में हमारा आकलन भी उसके लिये उत्तरदायी है। अब बताईये, फैजल अगर वासेपुर से संतुष्ट रहते और धनबाद में हस्तक्षेप न करते तो फ्रस्टियाने की मात्रा कम की जा सकती थी। हम स्वयं को महारथी समझते हैं और जब भाग्य या घटनायें हमें पैदल कर देती हैं, तो हम फ्रस्टियाने लगते हैं।
समझते फिर भी अपने को हैं तीस -मार -खा .
जहाँ जीवन बुलबुले सा हो जाता है, वहाँ सुख को तुरन्त ही भोग लेने की मानसिकता विकसित हो जाती है, वहाँ समाज का दीर्घकालिक स्वरूप क्षयमान होने लगता है। गैंग ऑफ वासेपुर बस वही कहानी चीख चीख कर बतला रहा है। कोयले से भी अधिक काली वहाँ की कहानी है
अवसाद के लक्षण भी आपने समझा दिए ,आत्म स्वरूप को भी समझा गए आप इसे आलेख में .बधाई .
कैग नहीं ये कागा है ,जिसके सिर पे बैठ गया ,वो अभागा है
http://kabirakhadabazarmein.blogspot.com/
बढ़िया है :)
ReplyDelete
ReplyDeleteआलेख पाठ के मध्य न जाने कितनी बातें आयीं ध्यान में...पर अब जो समाप्त किया तो साथ एक ही शब्द रह गया कहने को - "बेजोड़"...सचमुच बेजोड़...
यह वाक्य तो मन पर दीर्घ काल के लिए अंकित हो गया -
"जहाँ जीवन बुलबुले सा हो जाता है, वहाँ सुख को तुरन्त ही भोग लेने की मानसिकता विकसित हो जाती है, वहाँ समाज का दीर्घकालिक स्वरूप क्षयमान होने लगता है। "
movie dekhi thi pahli bhi dusri bhi par ye frustiyao nahi moora ka aapne jo gajab ka saar nikala hai maja aa gaya.wese gana sach me accha hai...aur aapke is vishleshan ne use aur accha bana diya
ReplyDeleteफ्रस्टयाने का लाज़वाब और गहन विश्लेषण...
ReplyDeleteफ्रस्टयाने पर आपका लेखन सुपरबा है जी.
ReplyDeleteजिस फिल्म ने आपको लिखने पर बाध्य कर दिया, उसने खास होने की पहली सीढ़ी तो पार कर ही ली. विश्लेषण पढ़कर लगता है लम्बे समय बाद यह फिल्म देखनी ही पड़ेगी.
ReplyDeleteजिस फिल्म ने आपको लिखने पर बाध्य कर दिया, उसने खास होने की पहली सीढ़ी तो पार कर ही ली. विश्लेषण पढ़कर लगता है लम्बे समय बाद यह फिल्म देखनी ही पड़ेगी.
ReplyDeleteकुछ दिनों से वाकई फ्रस्टियाने पर यह गीत रिपीट ट्रैक पर बजना आरम्भ हो जा रहा है. पोस्ट आज ही पढ़ पढ़ पाया.
ReplyDeleteवैसे कभी फोनिया भी लीजिए, हमारा तो हेलो ट्यून भी यही है अभी.