दर्पण देखता गया, पंथ खुलता गया। चेहरे पर दिखता, त्वचा का ढीला पड़ता कसाव, जो यह बताने लगा है कि समय भागा जा रहा है। शरीर की घड़ी गोल गोल न घूमकर सिकुड़ सिकुड़ सरकती है, शक्ति और सौन्दर्य के प्रतिमानों को धूमिल करती हुयी सरकती है, समय अपना प्रभाव धीरे धीरे व्यक्त करता है। शरीर सरलता की ओर सरकता है, निर्जीव पड़े केश-गुच्छ कम हो जाते हैं, श्वेतरंगी हो जाते हैं, बाहों और वक्ष के माँसल अवयव सपाट और कोमल होने लगते हैं, चेहरे पर पल पल बदलते भाव एकमना हो जाते हैं, जीवन प्रतीक्षारत सा दिखने लगता है। अन्त दिखते ही जीवन ठिठक जाता है, संशय अपना लेता है, गतिहीन होने लगता है, धीरे धीरे।
थोड़ा और ध्यान से दर्पण देखता हूँ। मन यह विश्वास दिलाना चाहता है कि तुम अब भी वही हो, दर्पण के असत्य को स्वीकार मत करो, तनिक और ध्यान से देखो, कुछ भी तो नहीं बदला है। मन की बात का विश्वास होता ही नहीं है, सच भी हो तब भी नहीं, इतने छल सहने के बाद भला कौन विश्वास करेगा मन का। आज दर्पण को देख रहा हूँ तो मन की मानने का मन नहीं कर रहा है। मन समझ जाता है कि दर्पण सत्य बता रहा है, मन की माया रण हार रही है। मन आँख बन्द कर सोचने को कहता है, क्षय का पीड़ामयी आक्रोश तो वैसे भी नहीं सम्हाला जा रहा था आँखों से, आँखें बन्द हो जाती हैं।
आँख बन्द कर जब शरीर का भाव खोता है तो लगता है कि हम अभी भी वही हैं जो कुछ वर्ष पहले थे, कुछ दिन पहले भी स्वयं के बारे में जो अनुभूति थी, वह अभी भी विद्यमान है, कुछ भी नहीं बदला है, सब कुछ वही है। बन्द आँखों में एक भाव, खुली में दूसरे। मन की माया सच है या कि दर्पण का दर्शन। कठिन प्रश्न है, काश अपना चेहरा न दिखता, काश दर्पण ही न होता।
चिन्तन की लहरें उछाल ले रही हों तो किसी और कार्य में मन भी तो नहीं लगता है। सामने दर्पण है, मन के भाव अस्त-व्यस्त कपड़ों से फैले हुये हैं, न समेटने की इच्छा होती है, न ही दृष्टि हटाने का साहस। स्मृतियों का एक एक कपड़ा निहारने लगता हूँ, लगा कि सबको एक बार ढंग से देख लूँगा तो मन शान्त हो जायेगा। जीवन बचपन से लेकर अब तक घूम जाता है, संक्षिप्त सा।
बचपन की प्रथम स्मृति से लेकर अब तक के न जाने कितने रूप सामने दिखने लगते हैं, सब के सब स्पष्ट से सामने आ जाते हैं, मानो वे भी सजे धजे से राह देख रहे थे, स्मृतियों की बारात में जाने के लिये। बचपन की अथाह ऊर्जा, निश्छल उच्श्रंखलता और अपरिमित प्रवाह अब भी अभिभूत करता है। फिर न जाने क्या ग्रहण लग गया उसे, उस पर सबकी आशाओं और आकांक्षाओं की धूल चढ़ने लगी, दायित्वों और कर्तव्यों के न जाने कितने गहरे दलदल में फँसा हुआ है अभी तक। हर दिन कुछ न कुछ बदलता गया, धीरे धीरे। जब इतना कुछ बदल गया तो क्यों मन यह दम्भ पाले है कि कुछ नहीं बदला है? आँख खुली रहने पर दर्पण मन को झुठलाता है, आँख बन्द करने पर भी मन की नहीं चलती, स्मृतियाँ मन को झुठलाने लगती हैं।
आँखे फिर खुल जाती हैं, दर्पण आपके सामने आपका चेहरा फिर प्रस्तुत कर देता है। निष्कर्ष अब भी दूर हैं, साम्य नहीं है, अन्दर और बाहर। क्यों, कारण ज्ञात नहीं, पर दर्पण से कभी इतना गहरा संवाद हुआ ही नहीं। जब भी चिन्तन हुआ, मन उस पर हावी रहा, सारी परिभाषायें, सारे परिचय, सारे अवलोकन, सारे निर्णय मन के ही रास्ते होकर आये। दर्पण के रूप में आज कोई मिला है जो मन को ललकार रहा है।
मन हारता है तो आपको भरमाने लगता है। दर्पण आज मन का एकाधिकार ध्वस्त करने खड़ा है, वह बताना चाह रहा है कि आप बदल चुके हैं, सब बदल चुके हैं, मन है कि यह मानने को तैयार ही नहीं, किसी भी रूप में नहीं। यह उहापोह वातावरण गरमा देती है, वहाँ से हटना असंभव सा हो जाता है। मैं दर्पण फिर देखता हूँ, कभी मुझे एक पुरुष दिखता है, कभी एक भारतीय, कभी एक हिन्दू, कभी एक हिन्दीभाषी, कभी एक लेखक, और अन्दर झाँकता हूँ तो कुछ और नहीं दिखता है, सब की सब उपाधियाँ अलग अलग झलकती हैं। पलक झपकती है, तो कभी एक पुत्र, कभी एक भाई, कभी एक पति, कभी एक पिता, संबंधों के जाल दर्पण पुनः धुँधला देते हैं। आँख फाड़ कर और ध्यान से देखता हूँ, तो परिचितों की आकाक्षाओं से निर्मित भविष्य के व्यक्तित्व दिखने लगते हैं। लोगों की आशाओं पर खरा न उतर पाने का भाव भला दर्पण को कैसे ज्ञात हुआ? नहीं, नहीं, चेहरा ही नहीं छिपा पा रहा है, यह भाव।
मन झूठा सिद्ध हो चला था, वह यह समझा ही नहीं पा रहा था कि मैं अब भी वही हूँ, जो पिछले ४० वर्षों से उसके निर्देशों पर नृत्य किये जा रहा हूँ। आज दर्पण ने मुझे मेरे इतने रूप दिखा दिये थे कि किसी पर कोई विश्वास ही नहीं रहा, व्यक्तित्व बादलों सा हो गया, हर समय अपना आकार बदलने लगा। कुछ भी पहचाना सा नहीं लगता है, कोई ऐसी डोर नहीं दिखती है जो मुझे मुझसे मिला दे।
स्वयं के खो जाने की पीड़ा अथाह है, एक गहरी सी लहराती हुयी रेख उभर आती है पीड़ा की, विश्वास हो उठता दर्पण पर, विश्वास हो आता है अपने खोने का। मन थक हार कर शान्त बैठ जाता है, एक निर्धन और गृहहीन सा।
आँखे धीरे धीरे फिर खुलती हैं, दर्पण अब भी सामने है, कुछ धँुधला सा दिखता है, आँखों का खारापन पोंछता हूँ। चेहरा पूर्ण संयत हो चला है, सारी उपाधियाँ चेहरे से विदा ले चुकी हैं, चेहरे के कोई भाव नहीं दिखते हैं, बस दिखती हैं तो आँखें। अहा, कोई जाना पहचाना सा दिखता है, अपनी आँखों में अपनी पहचान दिखने लगती है, वह आँखे जिससे अभी तक सारी दुनिया मापते आयें हैं। आँखों में और गहरे देखता हूँ, उसमें बिखरे हुये सारे व्यक्तित्वों का केन्द्र दिखने लगता है। कुछ और देर देखता रहता हूँ, सब कुछ सिमटने लगता है, सब कुछ व्यवस्थित होने लगता है। मन सहसा ऊर्जा पा जाता है, उसे स्वयं को सत्य सिद्ध करने का अवसर मिल जाता है, मन इस बार धैर्य नहीं खोता है, बस यही कहता है…
ध्यान से देखो, थोड़ा और ध्यान से...
आँख बन्द कर जब शरीर का भाव खोता है तो लगता है कि हम अभी भी वही हैं जो कुछ वर्ष पहले थे, कुछ दिन पहले भी स्वयं के बारे में जो अनुभूति थी, वह अभी भी विद्यमान है, कुछ भी नहीं बदला है, सब कुछ वही है। बन्द आँखों में एक भाव, खुली में दूसरे। मन की माया सच है या कि दर्पण का दर्शन। कठिन प्रश्न है, काश अपना चेहरा न दिखता, काश दर्पण ही न होता।
चिन्तन की लहरें उछाल ले रही हों तो किसी और कार्य में मन भी तो नहीं लगता है। सामने दर्पण है, मन के भाव अस्त-व्यस्त कपड़ों से फैले हुये हैं, न समेटने की इच्छा होती है, न ही दृष्टि हटाने का साहस। स्मृतियों का एक एक कपड़ा निहारने लगता हूँ, लगा कि सबको एक बार ढंग से देख लूँगा तो मन शान्त हो जायेगा। जीवन बचपन से लेकर अब तक घूम जाता है, संक्षिप्त सा।
बचपन की प्रथम स्मृति से लेकर अब तक के न जाने कितने रूप सामने दिखने लगते हैं, सब के सब स्पष्ट से सामने आ जाते हैं, मानो वे भी सजे धजे से राह देख रहे थे, स्मृतियों की बारात में जाने के लिये। बचपन की अथाह ऊर्जा, निश्छल उच्श्रंखलता और अपरिमित प्रवाह अब भी अभिभूत करता है। फिर न जाने क्या ग्रहण लग गया उसे, उस पर सबकी आशाओं और आकांक्षाओं की धूल चढ़ने लगी, दायित्वों और कर्तव्यों के न जाने कितने गहरे दलदल में फँसा हुआ है अभी तक। हर दिन कुछ न कुछ बदलता गया, धीरे धीरे। जब इतना कुछ बदल गया तो क्यों मन यह दम्भ पाले है कि कुछ नहीं बदला है? आँख खुली रहने पर दर्पण मन को झुठलाता है, आँख बन्द करने पर भी मन की नहीं चलती, स्मृतियाँ मन को झुठलाने लगती हैं।
आँखे फिर खुल जाती हैं, दर्पण आपके सामने आपका चेहरा फिर प्रस्तुत कर देता है। निष्कर्ष अब भी दूर हैं, साम्य नहीं है, अन्दर और बाहर। क्यों, कारण ज्ञात नहीं, पर दर्पण से कभी इतना गहरा संवाद हुआ ही नहीं। जब भी चिन्तन हुआ, मन उस पर हावी रहा, सारी परिभाषायें, सारे परिचय, सारे अवलोकन, सारे निर्णय मन के ही रास्ते होकर आये। दर्पण के रूप में आज कोई मिला है जो मन को ललकार रहा है।
मन हारता है तो आपको भरमाने लगता है। दर्पण आज मन का एकाधिकार ध्वस्त करने खड़ा है, वह बताना चाह रहा है कि आप बदल चुके हैं, सब बदल चुके हैं, मन है कि यह मानने को तैयार ही नहीं, किसी भी रूप में नहीं। यह उहापोह वातावरण गरमा देती है, वहाँ से हटना असंभव सा हो जाता है। मैं दर्पण फिर देखता हूँ, कभी मुझे एक पुरुष दिखता है, कभी एक भारतीय, कभी एक हिन्दू, कभी एक हिन्दीभाषी, कभी एक लेखक, और अन्दर झाँकता हूँ तो कुछ और नहीं दिखता है, सब की सब उपाधियाँ अलग अलग झलकती हैं। पलक झपकती है, तो कभी एक पुत्र, कभी एक भाई, कभी एक पति, कभी एक पिता, संबंधों के जाल दर्पण पुनः धुँधला देते हैं। आँख फाड़ कर और ध्यान से देखता हूँ, तो परिचितों की आकाक्षाओं से निर्मित भविष्य के व्यक्तित्व दिखने लगते हैं। लोगों की आशाओं पर खरा न उतर पाने का भाव भला दर्पण को कैसे ज्ञात हुआ? नहीं, नहीं, चेहरा ही नहीं छिपा पा रहा है, यह भाव।
मन झूठा सिद्ध हो चला था, वह यह समझा ही नहीं पा रहा था कि मैं अब भी वही हूँ, जो पिछले ४० वर्षों से उसके निर्देशों पर नृत्य किये जा रहा हूँ। आज दर्पण ने मुझे मेरे इतने रूप दिखा दिये थे कि किसी पर कोई विश्वास ही नहीं रहा, व्यक्तित्व बादलों सा हो गया, हर समय अपना आकार बदलने लगा। कुछ भी पहचाना सा नहीं लगता है, कोई ऐसी डोर नहीं दिखती है जो मुझे मुझसे मिला दे।
स्वयं के खो जाने की पीड़ा अथाह है, एक गहरी सी लहराती हुयी रेख उभर आती है पीड़ा की, विश्वास हो उठता दर्पण पर, विश्वास हो आता है अपने खोने का। मन थक हार कर शान्त बैठ जाता है, एक निर्धन और गृहहीन सा।
आँखे धीरे धीरे फिर खुलती हैं, दर्पण अब भी सामने है, कुछ धँुधला सा दिखता है, आँखों का खारापन पोंछता हूँ। चेहरा पूर्ण संयत हो चला है, सारी उपाधियाँ चेहरे से विदा ले चुकी हैं, चेहरे के कोई भाव नहीं दिखते हैं, बस दिखती हैं तो आँखें। अहा, कोई जाना पहचाना सा दिखता है, अपनी आँखों में अपनी पहचान दिखने लगती है, वह आँखे जिससे अभी तक सारी दुनिया मापते आयें हैं। आँखों में और गहरे देखता हूँ, उसमें बिखरे हुये सारे व्यक्तित्वों का केन्द्र दिखने लगता है। कुछ और देर देखता रहता हूँ, सब कुछ सिमटने लगता है, सब कुछ व्यवस्थित होने लगता है। मन सहसा ऊर्जा पा जाता है, उसे स्वयं को सत्य सिद्ध करने का अवसर मिल जाता है, मन इस बार धैर्य नहीं खोता है, बस यही कहता है…
ध्यान से देखो, थोड़ा और ध्यान से...
बहुत ही उम्दा पोस्ट बिलकुल ललित निबन्ध की तरह |इतनी मंजी और सधी हुई भाषा आपके गद्य में देखकर मन मुग्ध हो जाता है |
ReplyDeleteउम्दा
ReplyDeleteएक ललित निबंध का आनन्द ,भाषा और प्रवाह के कहने ही क्या ?
ReplyDeleteयह गद्य काव्य है -मैंने पूरा वाचन कर सहचरी को सुनाया है वे भी आपके तारीफ़ का पुल बाँध रही हैं और मुझे आपसे घोर 'मानवीय' ईर्ष्या हो आयी है -
ReplyDeleteराजा दशरथ के भी एक ऐसे ही आईने का दर्शन अखंड भारत का इतिहास बदल गया था -
हे भगवान अब क्या होने वाला है !
दर्पण सच बयां करता है !
ReplyDeleteसरल नहीं है समय साथ बदलते ढलते जीवन को स्वीकार्यता दे पाना .....
ReplyDeleteबस..वाह! और क्या कहूं...अति सुन्दर..
ReplyDeleteDarpan jhoot na bole....
ReplyDelete...देखना आपके दर्पण को किसी की नज़र न लगे !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर निष्कर्ष पर पहुँचे हैं !अभी सिर्फ ऊपरी अवयव देखे -इसलिये हारा-हारापन लग रहा होगा .गहराई में देखें, इन परिवर्तनों से परे कुछ उपलब्धियाँ संचित हुई हैं .कुल मिला कर लाभ में रहे हैं आप !
ReplyDeleteक्या किया जा सकता है पाण्डेय जी हम सभी अपनी सुविधा के अनुसार ही आइना देखने के आदि है , काश कि आईने में हम अपने अश्क के सिवाय और भी देख पाते पता नहीं यह भावना हमारे अन्दर कब पैदा होगी हो सकता है हमरी आने वाली पीढ़ी ही हम से पूछे कि क्या आपने कभी आइना सिद्दत से देखा भी है
ReplyDeleteइतने प्रेरक एवं सुन्दर लेख के लिया ढेरों बहाई
सुन्दर रचना, लालित्य लिए.
ReplyDeleteसाँसों की डोर जिस प्रकार शरीर से बांधे रखती है हमें .....ऎसी ही कुछ डोर से आत्मा से भी जुड़ा है हमारा शरीर ......तभी तो मन भटके भले ही पर नाव खूंटे पर आ ही जाती है ....!!
ReplyDeleteसशक्त सकारात्मक आलेख ....!!
अंतस को भी देखा जा सकता है आईने में ... कुछ देर तक अपने आपको निहारते हुवे अंतस में उतरने का प्रयास ... लाजवाब पोस्ट ...
ReplyDeleteबहुत ही सशक्त भाव लिए उत्कृष्ट आलेख ... आभार
ReplyDeleteजीवन दर्शन सार
ReplyDeleteन जाने कितने ही भाव आपके दर्पण में निहारते हुए, साथ साथ आते गए और जाते गए..सच है दर्पण झूट नहीं बोलता पर एक मन दर्पण भी है जो उसे झुटला सकता है और फिर से ऊर्जा से भर सकता है.
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर पोस्ट.
vichaottejak aur sundar....
ReplyDeleteलोगों की आशाओं पर खरा न उतर पाने का भाव भला दर्पण को कैसे ज्ञात हुआ? नहीं, नहीं, चेहरा ही नहीं छिपा पा रहा है, यह भाव।...bauhat khoob ukera hai aapne bhaavon ko
ReplyDeleteyakeenan aur dhyaan se dekhne ki zaroorat hai.....
आपकी मंजी और सधी हुई भाषा को गद्य में देखकर मनमुग्ध हो जाता है |
ReplyDeleteबेहतरीन आलेख,,,,
RECENT POST -मेरे सपनो का भारत
सही कहा, हम वही हैं जो पहले थे.
ReplyDeleteआत्मा,निर्विकार,समय को जीतने वाली—
बदलता परिवेश है.
चिंतन करने योग्य आलेख.
सच में दर्पण झूठ नहीं बोलता.....पर ये भी सच है कि दर्पण का दिखता शख्स आपके दायने हाथ को उठाने पर अपना बांया हाथ उठाता है.ं...पर देखा जाए तो ये भी सच नहीं भ्रम होता है ....मतलब ये कि दर्पण आपको आपकी ही शक्ल सही तरीके से दिखाता है।
ReplyDeleteमेरी कुछ आदतों में से एक दो ऐसी हैं कि क्या कहें..कि जैसे दर्पण के सामने खड़े होकर खुद से प्रश्न उत्तर करने में १० मिनट का नित समय देना...अकेले बैठ शून्य में ताकते १० मिनट खुद के भीतर टहलना और जाँचना कि मैं खुद कितना गलत या सही हूँ...और कल क्या बेहतर कर सकता हूँ...
ReplyDeleteआलेख ने और जगाया..मुहर लगाई...आपका आभार!!
वैसे एक क्रिया और करें कभी...देर रात या भोर में छत पर बैठ आँख मींचे सबसे दूर से आती गाड़ी, ट्र्क या बस की आवाज सुनें बाकी नजदीकी आवाजों को नाकारते हुए और कल्पना करें वो गाड़ी ट्रक या बस किस दिशा में किस उद्देश्य से जा रहा है और यात्रा के किस दौर में हैं....अगर यह मेरी यात्रा होती तो मैं कहाँ और कैसे होता...
-उसका असर मन पर अंकित करते चलें..खुद के लिए एक दिशा निर्धारक ध्यान समाधान है...
आत्मालाप बड़ा सुख देता है, आप स्वयं से कभी ऊबते नहीं हैं। आज ही छत पर जाते हैं, वहाँ से सब स्टेशन ही जाते हैं।
Deleteवैसे लाईटर साईड:
ReplyDeleteआईना मुझसे मेरी पहली सी सूरत मांगे....
है बहुत नटखट :)
सच है , हम ध्यान से देखना प्रारंभ कर दे स्वयं को भी तो अपनी समस्या समझ लें , सुलझा लें !
ReplyDeleteगहन दर्शन !
एक चेतना का अनंत रूप यूँ ही दिग्भ्रमित करता है पर मूलत : वह नहीं बदलता है ..
ReplyDeleteजीवन चिंतन करने योग्य आलेख. बहुत सुन्दर..
ReplyDeleteमन और दर्पण का यह द्वन्द बचपन से बुढापे तक ताउम्र चलता रहता है हम जवानी में भी कहाँ दर्पण की बात सच मानते हैं हम उससे अपने मन की बात मनवाने के लिए बाध्य करते हैं जब की हमारा अंतर ह्रदय इस बात को स्वीकारता है की दर्पण सच बोलता है बढती उम्र में भी हम दर्पण को धोखा देना चाहते हैं पर दर्पण फिर कहाँ काबू में आता है हमारा तन ही सब भेद खुलवा देता है दर्पण के माध्यम से ---बहुत अच्छी उत्कृष्ट पोस्ट लगी आपकी अब दर्पण को और ध्यान से देखूंगी मन और दर्पण का यह द्वन्द बचपन से बुढापे तक ताउम्र चलता रहता है हम जवानी में भी कहाँ दर्पण की बात सच मानते हैं हम उससे अपने मन की बात मनवाने के लिए बाध्य करते हैं जब की हमारा अंतर ह्रदय इस बात को स्वीकारता है की दर्पण सच बोलता है बढती उम्र में भी हम दर्पण को धोखा देना चाहते हैं पर दर्पण फिर कहाँ काबू में आता है हमारा तन ही सब भेद खुलवा देता है दर्पण के माध्यम से ---बहुत अच्छी उत्कृष्ट पोस्ट लगी आपकी अब दर्पण को और ध्यान से देखूंगी पर बालों को डाई करके-- हाहाहा
ReplyDeleteek purana lokgeet hai-
ReplyDeletemat roop niharo darpan me, darpan maila ho jayega...
nij roop niharo antar me, antar ujla ho jayega...
sundar prastuti:)
swam ko dundhne ka bahut achchha prayas hai....kabhi kabhi aaina men swam ko talash lena chahiye. sunder prastuti.
ReplyDeleteअपनों की आँखों में निहारिये खुद को , कभी उम्र बढ़ने का एहसास नहीं होगा |
ReplyDelete। मन सहसा ऊर्जा पा जाता है, उसे स्वयं को सत्य सिद्ध करने का अवसर मिल जाता है, मन इस बार धैर्य नहीं खोता है, बस यही कहता है…
ReplyDeleteध्यान से देखो, थोड़ा और ध्यान से...
- प्रवीण पाण्डेय , 04:00 , आत्म, दर्पण, परिचय
हाँ ध्यान से देखो !मैं पल्लवित हुआ हूँ ,पेशियों का ढीला पड़ना ,चाँद का चन्दा बन जाना ,मेरा सहज विकास है छीजना नहीं है ,नियति का विधान है असल बात यह है मैं यहाँ करने क्या आया हूँ .कुछ कर पाया हूँ ?मन देखता है आगे की ओर,जीवन तो आगे है ,एक के बाद दूसरा ,फिर तीसरा ,सतत प्रकिर्या है ,परिवर्तन भी दैहिक शाश्वत है ,मन बुद्धि संस्कार का जमा जोड़ ,सचेतन ऊर्जा साथ साथ यात्रा करती है ,यायावर सी .
बहुत मनो -वैज्ञानिक आलेख ,खुद को खुद से मिलवाता ,पदोन्नति करवाता .लो मैं एक सीढ़ी ओर चढ़ गया .
आईने सी पोस्ट.. गज़ब का प्रवाह.. पढते हुए साँस लेने की जगह कहाँ है, पता लगाना मुश्किल रहा!!
ReplyDeleteअहा, कोई जाना पहचाना सा दिखता है, अपनी आँखों में अपनी पहचान दिखने लगती है, वह आँखे जिससे अभी तक सारी दुनिया मापते आयें हैं। आँखों में और गहरे देखता हूँ, उसमें बिखरे हुये सारे व्यक्तित्वों का केन्द्र दिखने लगता है। कुछ और देर देखता रहता हूँ, सब कुछ सिमटने लगता है, सब कुछ व्यवस्थित होने लगता है। मन सहसा ऊर्जा पा जाता है, उसे स्वयं को सत्य सिद्ध करने का अवसर मिल जाता है, मन इस बार धैर्य नहीं खोता है, बस यही कहता है…
ReplyDeleteध्यान से देखो, थोड़ा और ध्यान से...
बहुत सही सपने तो आंखों में ही बसते हैं और जब सपने हैं त उन्हे सच करने का जज़्बा भी । फिर कहां उम्र और कहां उसकी ढलान ।
बहुत अच्छा लेख है. मैंने भी इस विषय पर एक छोटी सी कविता लिखी थी. वैसे दर्पण में झांककर हम भीतर के मनुष्य को भी देखना चाहते हैं.
ReplyDeleteघुघूतीबासूती
समय और परिस्थिति के साथ बहुत कुछ बदलता है .... बहुत से रिश्ते छूटते हैं तो बहुत से नए बनते हैं ...
ReplyDeleteदर्पण में हम वो देखना चाहते हैं जो हम सोचते हैं ... असली तस्वीर को नकार देना चाहते हैं ... लेकिन आपकी बात से सहमत कि ध्यान से देखो ... और देखो .... नयी ऊर्जा भी मिलती है .... बहुत सुंदर लेख
माइलस्टोन! बधाई!
ReplyDeleteसच को दिखलाता आईना ...
ReplyDeleteआज आपकी यह पोस्ट पढ़कर न जाने कितने भाव आए और आकर चले गए मगर उसके साथ-साथ एक गीत भी याद आया "ओ रे मनवा तू तो बावरा है,
ReplyDeleteतू ही जाने तू क्या सोचता है।
यह गीत आपकी पोस्ट पर एकदम फिट बैठता है :-)
आजकल तो खुद ही आईना देखना ठीक है दूसरे को दिखाओगे आईना तो संकट में पड़ जाओगे .सीमित रहो भैया ,"असीम " मत बनो .जियो और जीने दो .हाथ काले जेब गरम .
ReplyDeleteशुक्रवार, 14 सितम्बर 2012
सजा इन रहजनों को मिलनी चाहिए
Dr. shyam guptaSeptember 13, 2012 10:10 AM
वीरू भाई आपने जो भी लिखा सब सत्य है..यही होरहा है आजकल...परन्तु आप यदि अमेरिका में यदि बैठे हैं तो आपको कैसे पता चलेगा कि कौन गलत है कौन सही....असीम या आपका वक्तव्य ही क्यों सही माना जाय..???
--वास्तव में तो --राष्ट्रीय प्रतीकों से छेड़छाड बिलकुल उचित नहीं ..
सत्य तथ्य यह है कि हम लोग बड़ी तेजी से बिना सम्यक सोच-विचारे अपनी जाति -वर्ग ( पत्रकार , ब्लोगर , लेखक तथा तथाकथित प्रगतिशील विचारक आदि एक ही जाति के हैं और यह नवीन जाति-व्यवस्था का विकृत रूप बढता ही जा रहा है ) का पक्ष लेने लगते हैं |
---- देश-राष्ट्र व नेता-मंत्री में अंतर होता है ...देश समष्टि है,शाश्वत है....नेता आदि व्यक्ति, वे बदलते रहते हैं, वे भ्रष्ट हो सकते हैं देश नहीं ..अतः राष्ट्रीय प्रतीकों से छेड़-छाड स्पष्टतया अपराध है चाहे वह देश-द्रोह की श्रेणी में न आता हो.. यदि किसी ने भी ऐसा कार्टून बनाया है तो निश्चय ही वे अपराध की सज़ा के हकदार हैं ....साहित्य व कला का भी अपना एक स्वयं का शिष्टाचार होता है..
--- अतः वह कार्टूनिष्ट भी देश के अपमान का उतना ही अपराधी है जितना आपके कहे अनुसार ये नेता...
Reply
http://www.blogger.com/profile/११९११२६५८९३१६२९३८५६६
ब्लॉग
भारतीय ब्लॉग लेखक मंच
श्याम स्मृति..The world of my thoughts...डा श्याम गुप्त का चिट्ठा..
डॉ श्याम गुप्त जी !
जिन पर संसद की मर्यादा का भार था ,वह रहजन हो गए ,थुक्का फजीहत की है सांसदों ने संसद की जिनमें तकरीबन १५० तो अपराधी हैं .क्या नहीं होता संसद में क्या नोट के सहारे संख्या नहीं बढ़ाई जाती ?क्या इसी संसद में इक राज्य पाल को बूढी गाय और पूर्व राष्ट्र पति को यह नहीं कहा गया -इक हथिनी पाल रखी है .क्या ये तमाम राहजन(रहजन ) आज जिनके हाथ काले हैं संसद की मर्यादा का दायित्व निभा सके ?
असीम त्रिवेदी को आज इस पीड़ा में किसने डाला .किसने किया उसे आत्महत्या के लिए प्रेरित .वह तो चित्र व्यंग्य से अपनी रोटी चला रहा था .उस रोटी को भी उसने देश की वर्तमान अवस्था से दुखी होकर दांव पे लगा दिया .जिन नेताओं को सज़ा मिलनी चाहिए उनके प्रति यदि सहानुभूति जतलाई गई ,सारे युवा गुमराह हो जायेंगे ,
ये असीम त्रिवेदी की और श्याम गुप्त जी यहाँ अमरीका में हमारी व्यक्तिगत दुखन नहीं है ,हत्यारों के बीच खड़े होकर उन्हें हत्यारा कहना बड़ी हिम्मत का काम होता है .जोखिम का भी .असीम ने यह जोखिम क्या लखनऊ वालों को तमाशा दिखाने के लिए उठाया है जो उसे सज़ा दिलवाने की पेश कर रहें हैं .
संसद की मर्यादा का ख्याल अब दूसरे लोगों को ही रखना होगा सांसदों से अब यह उम्मीद बेमानी है.
Deleteऐसे- ऐसे लोग पहुँच गए हैं जिनका मर्यादा से कोई लेना-देना नहीं.असीम क़ि सृजनशीलता को नमन.
तोरा मन दर्पण कहलाये
ReplyDeleteभले-बुरे सारे कर्मों को देखे और दिखाए.
दर्पण वाकयी में डराने लगा है। लेकिन यही जीवन का सत्य है। भगवान की लीला भी देखो कि व्यक्ति अपना मुख दर्पण में ही देख सकता है, यदि बिना दर्पण के भी दिखता रहे तो व्यक्ति का क्या हाल होता भला?
ReplyDelete