जब कार्य के घंटे बहुत अधिक हो जाते हैं और आपके साथ लगे कर्मचारियों और सहयोगियों के चेहरे पर थकान झलकने लगती है, तो मुखिया के रूप में आपका एक कार्य और बढ़ जाता है, कार्य का प्रवाह बनाये रखने का कार्य। यद्यपि उत्साह बढ़ाने से कार्य की गति बढ़ती है और बनी भी रहती है, पर बार बार उत्साह बढ़ाते रहने से उत्साह भी थकने लगता है, ऊर्जा भी समझने लगती है कि अब क्षमतायें खींची जा रही हैं।
वरिष्ठों से सीखा है कि अधिक समय तक जुटे रहना है तो वातावरण को हल्का बनाये रखिये। कार्य के समय निर्णयों का निर्मम क्रियान्वयन, पर उसके बाद सबके प्रयासों का सही अवमूल्यन और सबकी समुचित सराहना। भीड़ का बढ़ना दोपहर से प्रारम्भ होता था और मध्य रात्रि के दो घंटे बाद तक ही कार्य समाप्त होता था, उस दिन के अन्तिम यात्री को विशेष गाड़ी में बैठा कर भेजने तक। चौदह घंटों तक स्टेशन पर बने रहने, वहीं पर भोजन करने और अनुभव को बाटने का क्रम तीन दिन तक चला। थकान आपके शरीर में अपना स्थान खोजने लगती है, मन को संकेत भेजती है कि अब बहुत हुआ, विश्राम का समय है। उस समय थका तो जा सकता था पर रुकना संभव नहीं था। हर थोड़े समय में परिस्थितियाँ बदल रही थीं, मन और मस्तिष्क चैतन्य बनाये रखना आवश्यक था।
पलायन के नीरव वातावरण में कोई ऐसा विषय नहीं था जो मन को थोड़ी स्फूर्ति देता। मीडिया के बन्धुओं को दूर से देख रहा था, सब के सब कैमरे में घूरते हुये भारी भारी शब्दों और भावों में डूबे पलायन के विषय को स्पष्ट कर रहे थे, सबको वर्तमान स्थिति सर्वप्रथम पहुँचाने की शीघ्रता थी, अधैर्य भी था। यात्रियों के चेहरों पर प्रतीक्षा और अनिश्चितता के भाव थे, रेलवे के बारम्बार बजाये जा रहे आश्वासन भी उन्हें सहज नहीं कर पा रहे थे। सुरक्षाकर्मी सजग थे और यात्रियों को उनके गंतव्य तक सकुशल पहुँचाने के भरसक प्रयास में लगे हुये थे, उनके लिये आपस का समन्वय ही किसी अप्रिय घटना न होने देने की प्राथमिक आवश्यकता थी। विशिष्ट कक्ष में उपस्थित मंत्रीगण व उच्च अधिकारीगण या तो परामर्श में व्यस्त थे या मोबाइल से अद्यतन सूचनायें भेजने में लगे थे। किसी को किसी से बात तक करने का समय नहीं मिल रहा था।
एक तो शारीरिक थकान, ऊपर से वातावरण में व्याप्त व्यस्तता और नीरवता, एक स्थान पर खड़ा रहना कठिन होने लगा। साथ ही साथ यह भी लगने लगा कि अन्य कर्मचारियों की भी यही स्थिति होगी। दूसरा दिन था, चार नियत गाड़ियों में से दो विशेष गाड़ी जा चुकी थीं, तीसरी जाने में दो घंटे का समय था, रात्रि का भोजन सम्मिलित स्टेशन पर ही हुआ था। प्लेटफार्म पर सभी लोग शान्त बैठे प्रतीक्षा कर रहे थे, स्थिति नियन्त्रण में लग रही थी। एक साथी अधिकारी साथ में थे, मन बनाया गया कि स्टेशन पर ही अन्य कार्यस्थलों तक घूम कर आते है और कार्यरत कर्मचारियों का उत्साह बढ़ाते हैं। किसी भी बड़े स्टेशन के दो छोरों के बीच की दूरी एक किलोमीटर से कम नहीं होती है, दोनों छोर जाकर वापस आने में दो किलोमीटर का टहलना हो जाता है।
साथी अधिकारी स्थानीय थे, यहाँ कई वर्षों से भी थे, उन्हें बंगलोर के बारे में अधिक पता था। चलते चलते बात प्रारम्भ हुयी, मेरा मत था कि यह पलायन होने के बाद बंगलोर अब पहले सा नहीं रह पायेगा, बहुत कुछ बदल जायेगा। पता नहीं जो लोग गये हैं, उनमें से कितने वापस आयेंगे? बंगलोर की जो छवि सबको समाहित करने की है, उसकी कितनी क्षति हुयी है? यदि पूर्वोत्तर से कुछ लोग वापस आ भी जायेंगे तो वो पहले जैसे उन्मुक्त नहीं रह पायेंगे। जीविकोपार्जन के लिये बंगलोर आने का उत्साह अब पूर्वोत्तर के लोगों में उतना नहीं रह पायेगा जितना अभी तक बना हुआ था? इसी तरह के ढेरों प्रश्न मन में घुमड़ रहे थे, जो अपना उत्तर चाहते थे। समय था और साथी अधिकारी के पास अनुभव भी, उन्होंने विषय को यथासंभव और बिन्दुवार समझाने का प्रयास किया और अपने प्रयास में सफल भी रहे।
उनके ही माध्यम से पता लगा था कि पूर्वोत्तर के लोग यहाँ पर किन व्यवसायों से जुड़े हैं। अन्य व्यवसायों में ब्यूटी पार्लर का ही व्यवसाय ऐसा था जिसमें उनका प्रतिशत बहुत अधिक है। उनके चले जाने से इस पर गहरा प्रभाव पड़ेगा और संभव है कि बंगलोर की सौन्दर्यप्रियता में ग्रहण लग जाये। न चाहते हुये भी विषय बड़ा ही रोचक हो चुका था क्योंकि यह हम सबको को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित करने वाला था। प्रत्यक्ष रूप से इसलिये क्योंकि यहाँ की आधी जनसंख्या यदि अपनी सौन्दर्य आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर पायेगी तो यहाँ के फूलों से प्रतियोगिता कौन करेगा भला? यदि ब्यूटी पार्लर नहीं खुले तो विवाह आदि उत्सवों में महिलाओं की उपस्थिति बहुत कम हो जायेगी। मॉल इत्यादि में उतनी चहल पहल और रौनक नहीं रहेगी जो बहुधा अपेक्षित रहती है।
शेष आधी जनसंख्या पर इसका परोक्ष प्रभाव यह पड़ने वाला था। यदि सौन्दर्य समुचित अभिव्यक्त नहीं हो पाता है तो उसका कुप्रभाव घर वालों को झेलना पड़ता है। आधी जनसंख्या सुन्दर नहीं लगेगी तो उनका मन नहीं लगेगा, मन नहीं लगा तो घर के काम और भोजन आदि बनाने से ध्यान बटेगा। पारिवारिक अव्यवस्था के निष्कर्ष बड़ा दुख देते हैं। पारिवारिक सत्यं और शिवं बिना सुन्दरं के असंभव हैं। विडम्बना ही थी कि यहाँ के सौन्दर्य के पोषक और रक्षक यहाँ से पलायन कर रहे थे और यहाँ की जनसंख्या को आने वाली पीड़ा का भान नहीं था।
जब तक इस विषय पर चर्चा समाप्त हुयी हम सबसे मिलते हुये वापस अपने स्थान पर आ चुके थे। अगली ट्रेन स्टेशन पर आने ही वाली थी। ज्ञानचक्षु खुलने के बाद लगने लगा कि यह केवल पूर्वोत्तर के लोगों की पीड़ा ही नहीं है, वरन सारे बंगलोरवासियों की पीड़ा है। ब्यूटीपार्लर के व्यवसाय से जुड़े लोगों से हमारी यही करबद्ध प्रार्थना है कि भले ही शेष लोग थोड़ा समय लेकर आये, आप लोग शीघ्र ही वापस आ जाईयेगा, पूरी संख्या में। आपके नहीं आने तक यहाँ का सामाजिक शास्त्र बड़ा ही असंतुलित रहने वाला है, बड़ा जटिल रहने वाला है।
बंगलोर का सौन्दर्य छिना जा रहा है और बिना पूर्वोत्तर के लोगों के वापस आये उसे पुनर्स्थापित करना असंभव है।
(कल ही पता चला है कि लोग वापस आने लगे हैं, आस बँधी है, बंगलोर का सौन्दर्य बना रहेगा।)
वरिष्ठों से सीखा है कि अधिक समय तक जुटे रहना है तो वातावरण को हल्का बनाये रखिये। कार्य के समय निर्णयों का निर्मम क्रियान्वयन, पर उसके बाद सबके प्रयासों का सही अवमूल्यन और सबकी समुचित सराहना। भीड़ का बढ़ना दोपहर से प्रारम्भ होता था और मध्य रात्रि के दो घंटे बाद तक ही कार्य समाप्त होता था, उस दिन के अन्तिम यात्री को विशेष गाड़ी में बैठा कर भेजने तक। चौदह घंटों तक स्टेशन पर बने रहने, वहीं पर भोजन करने और अनुभव को बाटने का क्रम तीन दिन तक चला। थकान आपके शरीर में अपना स्थान खोजने लगती है, मन को संकेत भेजती है कि अब बहुत हुआ, विश्राम का समय है। उस समय थका तो जा सकता था पर रुकना संभव नहीं था। हर थोड़े समय में परिस्थितियाँ बदल रही थीं, मन और मस्तिष्क चैतन्य बनाये रखना आवश्यक था।
पलायन के नीरव वातावरण में कोई ऐसा विषय नहीं था जो मन को थोड़ी स्फूर्ति देता। मीडिया के बन्धुओं को दूर से देख रहा था, सब के सब कैमरे में घूरते हुये भारी भारी शब्दों और भावों में डूबे पलायन के विषय को स्पष्ट कर रहे थे, सबको वर्तमान स्थिति सर्वप्रथम पहुँचाने की शीघ्रता थी, अधैर्य भी था। यात्रियों के चेहरों पर प्रतीक्षा और अनिश्चितता के भाव थे, रेलवे के बारम्बार बजाये जा रहे आश्वासन भी उन्हें सहज नहीं कर पा रहे थे। सुरक्षाकर्मी सजग थे और यात्रियों को उनके गंतव्य तक सकुशल पहुँचाने के भरसक प्रयास में लगे हुये थे, उनके लिये आपस का समन्वय ही किसी अप्रिय घटना न होने देने की प्राथमिक आवश्यकता थी। विशिष्ट कक्ष में उपस्थित मंत्रीगण व उच्च अधिकारीगण या तो परामर्श में व्यस्त थे या मोबाइल से अद्यतन सूचनायें भेजने में लगे थे। किसी को किसी से बात तक करने का समय नहीं मिल रहा था।
एक तो शारीरिक थकान, ऊपर से वातावरण में व्याप्त व्यस्तता और नीरवता, एक स्थान पर खड़ा रहना कठिन होने लगा। साथ ही साथ यह भी लगने लगा कि अन्य कर्मचारियों की भी यही स्थिति होगी। दूसरा दिन था, चार नियत गाड़ियों में से दो विशेष गाड़ी जा चुकी थीं, तीसरी जाने में दो घंटे का समय था, रात्रि का भोजन सम्मिलित स्टेशन पर ही हुआ था। प्लेटफार्म पर सभी लोग शान्त बैठे प्रतीक्षा कर रहे थे, स्थिति नियन्त्रण में लग रही थी। एक साथी अधिकारी साथ में थे, मन बनाया गया कि स्टेशन पर ही अन्य कार्यस्थलों तक घूम कर आते है और कार्यरत कर्मचारियों का उत्साह बढ़ाते हैं। किसी भी बड़े स्टेशन के दो छोरों के बीच की दूरी एक किलोमीटर से कम नहीं होती है, दोनों छोर जाकर वापस आने में दो किलोमीटर का टहलना हो जाता है।
साथी अधिकारी स्थानीय थे, यहाँ कई वर्षों से भी थे, उन्हें बंगलोर के बारे में अधिक पता था। चलते चलते बात प्रारम्भ हुयी, मेरा मत था कि यह पलायन होने के बाद बंगलोर अब पहले सा नहीं रह पायेगा, बहुत कुछ बदल जायेगा। पता नहीं जो लोग गये हैं, उनमें से कितने वापस आयेंगे? बंगलोर की जो छवि सबको समाहित करने की है, उसकी कितनी क्षति हुयी है? यदि पूर्वोत्तर से कुछ लोग वापस आ भी जायेंगे तो वो पहले जैसे उन्मुक्त नहीं रह पायेंगे। जीविकोपार्जन के लिये बंगलोर आने का उत्साह अब पूर्वोत्तर के लोगों में उतना नहीं रह पायेगा जितना अभी तक बना हुआ था? इसी तरह के ढेरों प्रश्न मन में घुमड़ रहे थे, जो अपना उत्तर चाहते थे। समय था और साथी अधिकारी के पास अनुभव भी, उन्होंने विषय को यथासंभव और बिन्दुवार समझाने का प्रयास किया और अपने प्रयास में सफल भी रहे।
शेष आधी जनसंख्या पर इसका परोक्ष प्रभाव यह पड़ने वाला था। यदि सौन्दर्य समुचित अभिव्यक्त नहीं हो पाता है तो उसका कुप्रभाव घर वालों को झेलना पड़ता है। आधी जनसंख्या सुन्दर नहीं लगेगी तो उनका मन नहीं लगेगा, मन नहीं लगा तो घर के काम और भोजन आदि बनाने से ध्यान बटेगा। पारिवारिक अव्यवस्था के निष्कर्ष बड़ा दुख देते हैं। पारिवारिक सत्यं और शिवं बिना सुन्दरं के असंभव हैं। विडम्बना ही थी कि यहाँ के सौन्दर्य के पोषक और रक्षक यहाँ से पलायन कर रहे थे और यहाँ की जनसंख्या को आने वाली पीड़ा का भान नहीं था।
जब तक इस विषय पर चर्चा समाप्त हुयी हम सबसे मिलते हुये वापस अपने स्थान पर आ चुके थे। अगली ट्रेन स्टेशन पर आने ही वाली थी। ज्ञानचक्षु खुलने के बाद लगने लगा कि यह केवल पूर्वोत्तर के लोगों की पीड़ा ही नहीं है, वरन सारे बंगलोरवासियों की पीड़ा है। ब्यूटीपार्लर के व्यवसाय से जुड़े लोगों से हमारी यही करबद्ध प्रार्थना है कि भले ही शेष लोग थोड़ा समय लेकर आये, आप लोग शीघ्र ही वापस आ जाईयेगा, पूरी संख्या में। आपके नहीं आने तक यहाँ का सामाजिक शास्त्र बड़ा ही असंतुलित रहने वाला है, बड़ा जटिल रहने वाला है।
बंगलोर का सौन्दर्य छिना जा रहा है और बिना पूर्वोत्तर के लोगों के वापस आये उसे पुनर्स्थापित करना असंभव है।
(कल ही पता चला है कि लोग वापस आने लगे हैं, आस बँधी है, बंगलोर का सौन्दर्य बना रहेगा।)
बंगलौर के सोंदर्य के माध्यम से जीवन का एक क्रम ही प्रस्तुत कर दिया आपने ...!
ReplyDeleteलोगों में परस्पर विश्वास क़ायम रहे तभी प्रेम बचता है और वातावरण का सौंदर्य भी.
ReplyDelete....यह सुखद है कि बंगलौर अब उबर रहा है |
सचमुच सुंदर, सुखद.
ReplyDeleteकोइ भी पीड़ा किसी एक प्रदेश के लोगों की नहीं है, एक देश का हिस्सा हैं तो भी सम्मिलित ही है| आशा है, समय के साथ सब ठीक होगा|
ReplyDeleteबडी मार्मिक व्यथा है
ReplyDeletebilkul bana rahega :))
ReplyDelete.
ReplyDelete.
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अत्यन्त दुखद है यह पलायन...
ब्यूटी पार्लर ही नहीं फास्ट फूड के उद्मम में भी काफी बड़ी संख्या में थे पूर्वोत्तर वासी... असम हिंसा से जुड़ा यह मामला तो केवल इस बार सामने आया है, पर मुझे लगता है कि केवल पूर्वोत्तर ही नहीं अपितु पहाड़ के रहने वाले पहाड़ी नस्ल के हर उस शख्स जिसका चेहरा मोहरा अपनी नस्ल सा लगता है, को काफी कुछ अकेला सा अनुभव होता है... तथाकथित मुख्यधारा के 'भारतीय' कुछ अलग सा बर्ताव करते हैं उस से... एक तरह का नस्ली भेदभाव है यह... एक मुखर लोकतंत्र में इस पर ज्यादा कुछ कहा भी नहीं जाता... हमारे दोहरे मानकों का एक ज्वलंत उदाहरण है यह...
...
प्रवीण शाह जी !आपसे सहमत .ये जो लेफ्टियों का रक्त रंगियों ,लाल टोपियों का घर है ,ये जेएनयू , ये जहीन लोग ,जहानत पसंद लोग खुद कोबौद्धिक बधुवा कहलवाने के शौक़ीन लोग भी इन्हें चिंकी कहते आयें हैं इसीलिए दिल्ली में इस शब्द के चलन पर पाबंदी लगाई गई .आपने देखा होगा सरोजनी नगर हो या जनपथ इसीलिए सुरक्षा की दृष्टि से ये उत्तर पूरब के लोग अब जत्थों में निकलतें हैं .अल्पसंख्यक होने का भय इन्हें इकठ्ठा रखता है .भारत की यह त्रासदी है अल्पसंख्यक शब्द बहुत ही सीमित अर्थों में प्रयुक्त होने लगा है .सवाल यह है अल्पसंख्यक कौन?और कहाँ पर ? .क्या पंजाब में हिन्दू (गैर -पंजाबी को ही अब हिदू समझा जाता है पंजाब में )अल्पसंख्यक नहीं है .
Deleteमुंबई या अन्यत्र भी पारसी भाई अल्पसंख्यक नहीं हैं ,?कश्मीर का जन संख्या विज्ञान अब खासा विषम हो चला है .हिन्दुस्तान में मुस्लिम भाई हर शहर में अल्पसंख्यक नहीं हैं .कहीं सम - संख्यक भी हैंजैसे मेरी जन्मस्थली बुलंद शहर (पश्चिमी उत्तर प्रदेश ),अलीगढ ,मेरठ ,अमरोहा ,मुरादाबाद आदि .में ,बराबर बराबर है इनकी जनसंख्या .
मुसलामानों में भी हिन्दुस्तान में शिया अल्पसंख्यक हैं .असुरक्षा सब में इस दौर में यकसां हैं .
बेंगलुरु बचा हुआ था विश्वनगरी कहलाता था .
शुभ संकेत है उत्तर पूरब के भाई बहनों का लौटना .इस सबका अंतर -राष्ट्री स्तर पर बड़ा गलत संकेत जा रहा है .गोरे खुलके कहने लगे हैं हिन्दुस्तान में पूँजी निवेश करना नए निगम खोलना दिनानुदिन मुश्किल होता जा रहा है .सरकारों के साथ यहाँ नियम क़ानून भी बदल जातें हैं .शहरों के नाम भी .पता नहीं इंडिया कब हिन्दुस्तान बनेगा .अभी तो कौमी विभाजन पर ही टिकी है रिमोटिया सरकार .खंडित करो देश को जितना कर सकते हो .वोट बेंक पक्का करो .
सभी मुश्किलों का हल निकलेगा
ReplyDeleteआज नहीं तो कल निकलेगा
अंततः: प्रेम ही जीतता है...
ReplyDeleteशीर्षक पढ़कर लगा , अप वहां के कुछ फोटो दिखायेंगे .
ReplyDeleteबंगलौर कभी गए नहीं .
कहते हैं -- कोई भी अविकल्पित नहीं होता .
जिंदगी खुद ही जीना सिखा देगी .
बार बार उत्साह बढ़ाते रहने से उत्साह भी थकने लगता है, ऊर्जा भी समझने लगती है कि अब क्षमतायें खींची जा रही हैं।
ReplyDeleteगहनता लिये ... सार्थक प्रस्तुति।
कल 02/09/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
अपने ही घर में रहने के लिए बुलाना पड़ रहा है, मामला भरोसे का है , अपनों के मध्य ...
ReplyDeleteअविश्वास का मानव मन पर
पड़ता, कितना गहन प्रभाव
एक पुरुष भीगे नयनों से
देख रहा था व्यग्र प्रवाह !
गई नहीं हूँ , चित्र ने एक झलक दे दिया
ReplyDeleteबंगलौर लोग वापस आने लगे हैं, आस बँधी है, बंगलोर का सौन्दर्य बना रहेगा।
ReplyDeleteमै एक बार बंगलौर घूम आया हूँ बहुत अच्छी घूमने लायक जगह है,,,,,
RECENT POST,परिकल्पना सम्मान समारोह की झलकियाँ,
आपकी चिन्ता जायज है। सौन्दर्य पर आँच आये तो दैनिक जीवन गड़बड़ा जाता है। काम का माहौल उतना सुन्दर नहीं रह जाता। इस जरूरत हो पूरा करने में पूर्वोत्तर का विशेष योगदान है; यह जानकर उन्हें सलाम करने का मन करता है।
ReplyDeleteकहाँ से बात कहाँ पहुंची!
ReplyDeleteगंभीर विषय की अलग सी प्रस्तुति.
आशा है वे सब वापस जल्दी आयेंगे और 'सौंदर्य' बना रहेगा.
बंगलौर की ख़ूबसूरती तो देखी हुई है मगर उत्तर पूर्व के प्रवासियों की भारी भरकम जनसँख्या का गुमान नहीं था ...तनाव के पलों में भी मुस्कुराने के बहाने ढूंढ लिए आप लोगों ने :)
ReplyDeleteएक बुरा सपना सबको कितना कुछ समझा गया. अब ये आस है कि इसकी पुनरावृत्ति न हो .
ReplyDeleteरहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाय
ReplyDeleteटूटे से फिर ना जुरै, जुरै गांठ पड़ जाय।
Aapne bangalore aane ki wish ko aur strong kar diya :)
ReplyDeleteबहुत ही उम्दा पोस्ट |आभार
ReplyDeleteमन खट्टा होने के बाद सामान्य होने में समय लगता है और पूर्ववत होने में तो वर्षों लग जाते हैं | दुर्भाग्यपूर्ण रहा पूरा प्रकरण |
ReplyDeleteबंगलुरू का सौन्दर्य कायम रहे -यही हम सभी की तमन्ना है !
ReplyDeleteआवत ही हरखे नहीं ,नैनन नहीं स्नेह ,तुलसी तहां न जाइए ,चाहे कंचन बरखे मेह ,
ReplyDeleteबचाय लो बैंगलोर मेरे भाई ,रोटी रोज़ी ढूँढत भाई
सबकी कृपा बड़ी सुखदाई ,
अपनों से मत करो ढिठाई ,
बचाओ बेंगलुरु मेरे भाई .
सकारात्मक उर्जा से किया गया काम सकरात्मक परिणाम दे गया ।बहुत ही सार्थक वर्णन (इसमें पिछली पोस्ट भी )क्यों नहीं ?मिडिया ऐसे कारात्मक पलों को ,आकस्मिक सहायता के सुनियोजन को अपनी खबरें नहीं बनता ?बेंगलोर का सोंदर्य बना रहे हर रूप में ।
ReplyDeleteकचरे निस्तारण पर भी एक पोस्ट बनती है ।विनती ।
बहुत ख़ूब!
ReplyDeleteएक लम्बे अंतराल के बाद कृपया इसे भी देखें-
जमाने के नख़रे उठाया करो
सदा बने रहें इस शहर के सुंदर रंग और सद्भावना का माहौल .....
ReplyDeleteपूर्वोत्तर के लोग भारत के इतिहास में पहली बार, भारत के शेष भागों से इतनी बड़ी संख्या में जुड़ने लगे हैं. यही कुछ लोगों को रास नहीं आ रहा है.
ReplyDeleteबेंगलोर वाकई एक खूबसूरत नगर है। देश के नागरिकों को किसी भी भाग में धमकाया जाना एक शर्मनाक घटना है। सभी निर्भय होकर रह सकें, ऐसा माहौल बनाने की घनी आवश्यकता है और यह प्रशासन की प्राथमिकताओं में से एक होना चाहिये।
ReplyDeletelekh gambheer hote hue ek dam se badalaa ...chuhal karte hue ..achchha lagaa.
ReplyDeleteकल ही पता चला है कि लोग वापस आने लगे हैं, आस बँधी है, बंगलोर का सौन्दर्य बना रहेगा
ReplyDeleteWaaah...kya khabar sunne ko mili hai bhaiya!!
इस अचानक पलायन से हम भी प्रभावित हुए थे।
ReplyDeleteहमारे यहाँ करीब २०० परिवारें एक अपार्ट्मेंट कॉम्प्लेक्स में रह रहे हैं
सात में से पाँच सेक्यूरिटि कर्मचारी उत्तर पूर्वी क्षेत्र के हैं।
सभी पाँच पलायन कर गए और बचे हुए दो कर्मचारी कब तक फ़ाटक पर तैनात रहते?
१२ घंटे काम के बाद हम, यहाँ के रहने वाले, बारी बारी से उनलोगों को राहत देने के लिए गेट पर तैनात रहते थे। रात को बारह बजे के बाद हम ने गेट पर ताला भी लगा दिया।
दो दिन बाद एजेन्सी वालों ने किसी तरह दो और कर्मचारी कहीं और से लाए और हमें कुछ राहत मिली।
सुना है सोमवार को आसाम से २५०० यात्रियों की गाडी बेंगलूरु पहुँच रही ह॥
स्वागत है उनका।
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ
हमने ब्यूटीपार्लर से जुड़ी व्यथा व्यक्त की, आप सेक्योरिटी से जुड़ी कथा सुनाईये, बंगलोर में इनका योगदान स्वीकार किया जाये।
Deleteबँगलोर की फुलवारी फिर उसी गमक से भर जाये और(कश्मीर सहित )शेष भारत की भी -मन लगातार यही मनाता है !
ReplyDeleteआस बँधी है,घर वापस आने का..सार्थक पोस्ट.
ReplyDeleteअब प्रवीण जी ये आग बिहार तक पहुँच रही है अब चैनलिया बिहार वालों को गुंडा कहके उकसा रहें हैं .उत्तर भारत का सौहार्द्र ये कथित धर्म -निरपेक्षइए नष्ट करने पे उतारू हैं .एक एंटी इंडिया टी वी है भाई साहब यहाँ सेकुलर -जादे अड्डा जमाते हैं .मुर्गे लडवातें हैं ये चैनलिया .सेकुलर शब्द हिन्दुस्तान के लिए" हराम "है .सियासत का यही पैगाम है सेकुलर बनो सेकुलर- जादे कहलाओ .देश जाए भाड़ में .मुंबई में तो प्रवीण जी हम रहतें हैं हमने देखा है इन नव निर्माण वालों को बहुत करीब से .ये सब उसी सेकुलर ज़मात के एजेंट हैं जो रिमोटिया सरकार चलावें हैं .सन्दर्भ के लिए आप पढ़ें -
ReplyDeleteशनिवार, 1 सितम्बर 2012
“बिहार का मूल धर्म है – गुंडों का धर्म” … ?
“बिहार का मूल धर्म है – गुंडों काधर्म” …?http://www.testmanojiofs.com/2012/09/blog-post.html?showComment=1346563759703#c8865515690726550523
ram ram bhai
रविवार, 2 सितम्बर 2012
सादा भोजन ऊंचा लक्ष्य
सादा भोजन ऊंचा लक्ष्य
स्टोक एक्सचेंज का सट्टा भूल ,ग्लाईकेमिक इंडेक्स की सुध ले ,सेहत सुधार .
यही करते हो शेयर बाज़ार में आके कम दाम पे शेयर खरीदते हो ,दाम चढने पे उन्हें पुन : बेच देते हो .रुझान पढ़ते हो इस सट्टा बाज़ार के .जरा सेहत का भी सोचो .ग्लाईकेमिक इंडेक्स की जानकारी सेहत का उम्र भर का बीमा है .
भले आप जीवन शैली रोग मधुमेह बोले तो सेकेंडरी (एडल्ट आन सेट डायबीटीज ) के साथ जीवन यापन न कर रहें हों ,प्रीडायबेटिक आप हो न हों ये जानकारी आपके काम बहुत आयेगी .स्वास्थ्यकर थाली आप सजा सकतें हैं रोज़ मर्रा की ग्लाईकेमिक इंडेक्स की जानकारी की मार्फ़त .फिर देर कैसी ?और क्यों देर करनी है ?
हारवर्ड स्कूल आफ पब्लिक हेल्थ के शोध कर्ताओं ने पता लगाया है ,लो ग्लाईकेमिक इंडेक्स खाद्य बहुल खुराक आपकी जीवन शैली रोगों यथा मधुमेह और हृदरोगों से हिफाज़त कर सकती है .बचाए रह सकती है आपको तमाम किस्म के जीवन शैली रोगों से जिनकी नींव गलत सलत खानपान से ही पड़ती है .
पतझर है, बहार भी है
ReplyDeleteहै नीरवता,श्रृंगार भी है
सुंदर नजरों से सुंदर दर्शन. प्रवीण जी !!! बधाई
अव्यवस्था में भी संतुलन खोजता मन परिहास कर ,सहज रह सकता है ......
ReplyDeleteधीरे धीरे लोग तो लौट आयेंगे ... पर जो निशान आत्मा पर पड़ गए हैं उन्हें जाने में समय तो लगेगा ही ...
ReplyDeleteएक ह्युमैनिटेरियन अप्रोच बेंगलुरु की सुंदरता को बयान करने का!!
ReplyDeleteअब तो नोर्थ ईस्ट से विशेष गाडियां चलनी शुरू हुई है. लगता है धीरे धीरे सब सामान्य होने लगेगा. जरुरत है इस माहौल को दोबारा न बिगडने दिया जाय. अच्छी बात है कि बंगलौर के लोग भी इस वारे में संजीदा है.
ReplyDeleteबैंगलोर में और भी जगह उपस्थिती रिमार्केबल है, हमारे यहाँ पास में तो एक होटल ही बंद जैसा हो गया है, उसके पास सभी नोर्थ ईस्ट के लोग काम कर रहे थे, इस शनिवार गये तो कहा कि आज हम आपको अपनी सेवा नहीं दे पायेंगे, शायद अगले माह सेवा दे पायें ।
ReplyDeleteबैंगलोर तो सुंदर है ही और वहाँ के लोगों का सौंदर्य भी बना रहे यह प्रार्थना है ...
ReplyDeleteआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार 4/9/12 को चर्चाकारा राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच http://charchamanch.blogspot.inपर की जायेगी|
ReplyDeleteएक बेहतरीन महानगर की सबसे बड़ी विशेषता वहाँ की मिश्रित संस्कृति होती है उसका कोई भी हिस्सा विलग हो तो फिर शहर की छवि को धक्का लगता है।
ReplyDeleteऔर अब सुनो अनर्गल प्रलाप राज ठाकरे का बिहारियों के खिलाफ http://realityviews.blogspot.com/
ReplyDeleteदेश निकाला दिया जाना चाहिए इन राज ठाकरों को जो बढ़ते ही जा रहें हैं गाज़र घास की तरह .
सोमवार, 3 सितम्बर 2012
स्त्री -पुरुष दोनों के लिए ही ज़रूरी है हाइपरटेंशन को जानना
स्त्री -पुरुष दोनों के लिए ही ज़रूरी है हाइपरटेंशन को जानना
What both women and men need to know about hypertension
सटीक विवेचन.....
ReplyDeleteमीठी चुटकी भी.
पूर्वोत्तर वाले फिर वापस आयें और उन्हें फिर से बैंगलोर वालों का प्यार मिले यही कामना है..
ReplyDelete
ReplyDeleteजब तक इस विषय पर चर्चा समाप्त हुयी हम सबसे मिलते हुये वापस अपने स्थान पर आ चुके थे। अगली ट्रेन स्टेशन पर आने ही वाली थी। ज्ञानचक्षु खुलने के बाद लगने लगा कि यह केवल पूर्वोत्तर के लोगों की पीड़ा ही नहीं है, वरन सारे बंगलोरवासियों की पीड़ा है। ब्यूटीपार्लर के व्यवसाय से जुड़े लोगों से हमारी यही करबद्ध प्रार्थना है कि भले ही शेष लोग थोड़ा समय लेकर आये, आप लोग शीघ्र ही वापस आ जाईयेगा, पूरी संख्या में। आपके नहीं आने तक यहाँ का सामाजिक शास्त्र बड़ा ही असंतुलित रहने वाला है, बड़ा जटिल रहने वाला है।
शहर में दिन दहाड़े
लुटा ये काफिला क्यों
सियासी कोठरी में ,
ये कालिख इतनी क्यों है .
भरो इटली का पानी ,
ये मजबूरी ही क्यों है
किले से लाल भाषण ,
अजब ,ये सिलसिला क्यों ?
ये पीड़ा बेंगलुरु की तो है सारे देश की भी है जो एक जूट (जुट )खड़ा है विच्छिन्नता वादी ताकतों को पहचान उनके खिलाफ एक आवाज़ उठाने को .पहली दो पंक्तियाँ नासवा साहब की है बाकी उनकी क्लोन हैं .
ये पूरी ज़मात करे ठाकों की किन्नर है भाई साहब .मुसलामानों को नहीं बिहारियों को गुंडा कह लेतें हैं आसानी से .कादर खान को जो ११/८ मुंबई में अमर जवान ज्योति को खंडित करता है जब महाराष्ट्र पुलिस उसे बिहार जाकर गिरिफ्तार करने की बात करती है तो मुख्य सचिव प्रलाप करतें हैं तुम ऐसा करके देखो तुम्हारे खिलाफ अपहरण का मामला बनाया जाएगा .ठाकरों में गर दम है मुसलामानों को गुंडा कह दिखलायें अन्दर हो जायेंगे चचा समेत जिनके वोट डालने के हक़ पे पहले ही पाबंदी है .ये मुल्क सेकुलर है भाई यहाँ मुंबई में आकर बिहार का मुसलमान जो करे उसे छूट है वह बिहारी हो जाता है .इन्हीं मुसलामानों के नाम पर नीतीश जी की नींद उड़ जाती है और प्रधान मंत्री तो तब भी रात भर करवट बदलते देखे गए इस मुल्क में जब एक ऑस्ट्रेलियाई डॉ आतंकी होने के शक में धर लिया गया था संयोग वह भी मुसलमान था .मुसलमान एक बड़ी चीज़ है इस देश में उसे कोई कुछ कह तो दिखाए नार्थ ईस्टियों का क्या है वह पूरबिए उत्तरी हैं बोले तो हिन्दू हैं .....जाएँ जहां जाना है ---जाएँ तो जाएँ कहाँ ,समझेगा कौन यहाँ ,दर्द भरे दिल की जुबां .....ये सेकुलर मुल्क है .....बने रहना है तो तुम भी सेकुलर हो जाओ ......
ReplyDeleteमंगलवार, 4 सितम्बर 2012
जीवन शैली रोग मधुमेह :बुनियादी बातें
जीवन शैली रोग मधुमेह :बुनियादी बातें
यह वही जीवन शैली रोग है जिससे दो करोड़ अठावन लाख अमरीकी ग्रस्त हैं और भारत जिसकी मान्यता प्राप्त राजधानी बना हुआ है और जिसमें आपके रक्तप्रवाह में ब्लड ग्लूकोस या ब्लड सुगर आम भाषा में कहें तो शक्कर बहुत बढ़ जाती है .इस रोगात्मक स्थिति में या तो आपका अग्नाशय पर्याप्त मात्रा में इंसुलिन हारमोन ही नहीं बना पाता या उसका इस्तेमाल नहीं कर पाता है आपका शरीर .
पैन्क्रिअस या अग्नाशय उदर के पास स्थित एक शरीर अंग है यह एक ऐसा तत्व (हारमोन )उत्पन्न करता है जो रक्त में शर्करा को नियंत्रित करता है और खाए हुए आहार के पाचन में सहायक होता है .मधुमेह एक मेटाबोलिक विकार है अपचयन सम्बन्धी गडबडी है ,ऑटोइम्यून डिजीज है .
फिर दोहरा दें इंसुलिन एक हारमोन है जो शर्करा (शक्कर )और स्टार्च (आलू ,चावल ,डबल रोटी जैसे खाद्यों में पाया जाने वाला श्वेत पदार्थ )को ग्लूकोज़ में तबदील कर देता है .यही ग्लूकोज़ ईंधन हैं भोजन है हरेक कोशिका का जो संचरण के ज़रिये उस तक पहुंचता रहता है ..
बैंगलोर तो सुंदर है मुहे वह जगह बहुत पसंद है
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