29.9.12

बच्चों की खिलती मुस्कान

भाग्य ने अपने सारे दाँव कॉन्क्रीट के जंगलों में लगा दिये हैं, बड़े नगरों में ही समृद्धि की नयी परिभाषायें गढ़ने में लगी हैं सभ्यतायें। आलोक को अपनी प्रतिभा और सृजनशीलता के लिये ढेरों संभावनायें थी यहाँ पर, अच्छी नौकरी थी, भव्य भविष्य था, पर मन के अन्दर और बाहर साम्य स्थापित नहीं हो पा रहा था। बंगलोर जैसा बड़ा नगर भी उसके हृदय के विस्तृत वितान को समेटने में असमर्थ था। एक दिन उसने सामान समेटा और जा पहुँचा गोवा, जहाँ पर सागर की मदमाती लहरें थीं, क्षितिज में जल और आकाश का मिलन दिखता था और स्थानीय निवासियों के प्रतिरोध ने कॉन्क्रीट का कद पेड़ों के ऊपर जाने नहीं दिया था। यहाँ प्रकृति अपने मोहक स्वरूप में अभी भी विद्यमान थी। बस यहीं आलोक का मन तनिक स्थिर हुआ, एक मकान किराये पर लिया, एक कमरे में अपना स्टूडियो स्थापित किया और चित्रकला में डूब गया, उन रंगों में डूब गया जिनके गाढ़ेपन में उसके भाव गहराते थे, जिनकी छिटकन स्मृतियाँ बन फैल जाती थी, मन को सम्मोहित कर लेती थी।

स्थानीय निवासियों को धीरे धीरे चित्रकला के इस दीवाने के बारे में ज्ञात हुआ, उत्सुकतावश ही सही, विचार विनिमय हुआ, संवाद हुआ, कई स्थानों पर उसे अपनी बात कहने के लिये बुलाया गया। संवेदनशीलों के संसार में आपका आनन्द बढ़ता ही है, आपकी प्रतिभा और सदाशयता कई और रूपों में बह जाना चाहती है, आपकी अभिव्यक्ति थोड़ी और मुखर हो जाना चाहती है। 'हमारा स्कूल' नाम की एक संस्था जो झुग्गियों में रहने वाले, निर्धन, समाज के दूसरे छोर पर त्यक्त अवस्थित समूह के बच्चों के विकास में हृदय से लगी थी, उनकी संचालिका ने आलोक को मना लिया, उन बच्चों को थोड़ी बहुत चित्रकला सिखाने के लिये, प्रत्येक रविवार।

नियत दिन आया, सारे बच्चे नहा धोकर आलोक की प्रतीक्षा कर रहे थे, उन बच्चों में ट्रक ड्राइवरों, निर्माण कार्य में लगे मजदूरों, घर मे काम करने वाली बाइयों, मछुआरों और वेश्याओं के बच्चे थे। संवाद खुला, 'मैं कलाकार हूँ और दिनभर बैठा बैठा चित्र बनाता रहता हूँ' आलोक ने परिचय दिया। सब ठहाका मार के हँस पड़े, 'अच्छा आप अभी तक चित्र बनाते हो, ऑफिस नहीं जाते हो?' एक बच्चा बोल पड़ा। आलोक ने धीरे से अपने द्वारा बनाये आधुनिक कला के कई चित्र सामने रख दिये, बच्चे उत्सुकता से देखने लगे। वे सारे चित्र जिन्हें कलाजगत में बड़ी उत्साहजनक टिप्पणियाँ मिली थीं, आज उन बच्चों के अवलोकन के लिये प्रस्तुत थे। सबने ध्यान से देखा, कुछ को कुछ भी समझ नहीं आया, कुछ को कुछ समझ आया, कुछ ने कुछ समझने जैसी आँखें सिकोड़ीं और अन्त में एक ने कह ही दिया कि यह तो बड़ा गिचपिच सा लग रहा है।

'जब आप बनाते हो तो अच्छा लगता है, जब हम बनाते हैं तो अच्छा ही नहीं बनता है।' एक बच्ची बोली। 'पर मैं तो बस आपकी तरह ही बनाता हूँ' आलोक ने समझाया। 'अच्छा आप इतने बड़े हो गये हो और अभी तक हमारी तरह ही बनाते हो' कहीं से आवाज़ आयी। आलोक के अहं को इतनी ठेस आज तक नहीं पहुँची थी। आलोक ने घर आकर अब तक के एकत्रित आर्ट पेपर, रंग, ब्रश आदि इकठ्ठा किये और अगले दिन वहाँ पहुँचा। हर एक बच्चे के सामने एक आर्ट पेपर था, सब शान्त बैठे थे, उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वे क्या बोलें, क्या करें?

'यदि हम अच्छा नहीं बना पाये तो, यदि यह पेपर खराब हो गया तो?' उनकी आँखों के प्रश्न वाक्य का रूप पा गये। 'अच्छा क्या होता है?' बिल्कुल शान्ति, 'बुरा क्या होता है?' और भी सन्नाटा। आलोक ने एक पेपर उठाया, उनके साथ बैठ गया और हाथों में चारकोल लेकर अपना ही स्केच बनाने लगा। सब उसे घेरकर खड़े हो गये और ध्यान से देखने लगे, आलोक इतनी एकाग्रता से लगा था कि मानो अपने आलोचकों के गढ़ में जाकर उन्हें प्रभावित कर रहा हो। आकृति उभरी, गंजा सर, गोल चश्मा और एक टीशर्ट। 'अहा, यह तो गाँधीजी लग रहे हैं, टीशर्ट पहने।' छह वर्ष का करन सहसा बोल उठा। बच्चों का धैर्य बह निकला, सब चित्र बनाने में लग गये, जिसे जो भी सूझा, जैसे भी सूझा। आलोक देखकर मुदित होता रहा, बच्चे कागज पर अपने बचपन के रंग बिखेरते रहे।

आलोक ने सारे चित्र दीवार पर लगा दिये, अपने चित्र के साथ ही। 'अब बताओ कि इनमें सबसे खराब कौन सा लग रहा है?' आलोक ने पूछा। सब मौन, कई बार कहने पर सबने अन्ततः एक चित्र निकाला। आलोक ने वह चित्र सामने वाली दीवार पर लगा दिया और पूछा कि अब बताओ कि अब कैसा लग रहा है? 'अब तो यह भी अच्छा लग रहा है', कई बच्चे बोल पड़े। बच्चों को समझ नहीं आ रहा था कि यही चित्र जब सबके साथ था तो खराब लग रहा था, अकेला लगा दिया तो अच्छा लग रहा है।

'बच्चों, तुम लोग भी जब स्वयं को भीड़ के साथ रखते हो तो स्वयं को कमतर समझने लगते हो, कभी कम धनी समझते हो, कभी कम भाग्यशाली समझते हो, कभी कम सुन्दर समझते हो। जब स्वयं को भीड़ से अलग रखकर देखोगे, स्वयं को दर्पण में जाकर देखोगे तो तुम्हें भी स्वयं पर गर्व करने के ढेरों कारण मिल जायेंगे।' आलोक ने व्याप्त संशय दूर कर दिया। सब मुस्करा उठे, बस एक छुटका नहीं, वह थक कर सो चुका था। सारे बच्चे आज स्वयं पर एक नया विश्वास लेकर घर पहुँचेगे, सबके चेहरे पर गजब का आत्मसन्तोष झलक रहा था।

हर सप्ताह बच्चे बड़ी आतुरता से अपने टीशर्ट वाले गाँधीजी से मिलने की प्रतीक्षा करते हैं, उन्हें चित्रकला भी अच्छी लग रही है और स्वयं का समझना भी, हर बार उनका आत्मविश्वास बढ़ रहा है। आलोक को भी रविवार की प्रतीक्षा रहती है। एक दिन संचालिका ने आलोक से उसकी फीस के बारे में पूछा, आलोक ने मुस्कराते हुये कहा कि उसकी फीस बच्चों से मिल जाती है। आश्चर्य से संचालिका ने कारण पूछा।

'मैं कई नगरों में कार्यशालायें आयोजित करता हूँ, सबको एक चित्र बनाने को देता हूँ, आधे समय के बाद सबके चित्र आपस में बदल देता हूँ और एक दूसरे के चित्र पूरे करने को कहता हूँ। नगर के बच्चे कहते हैं कि यह ठीक नहीं है, हमारा चित्र आपने दूसरे को कैसे दे दिया, हमने इतनी मेहनत से बनाया था? ठीक उसी तरह जिस तरह आधुनिक मैनेजर अपनी योजनाओं से चिपका रहता है, अपनी उपलब्धियों से चिपका रहता है, दूसरों के कार्य उसके लिये महत्वहीन हों मानो। और इन बच्चों को देखो, इन्होने आज तक कभी कोई शिकायत नहीं की है, इन्हें जो भी, जैसा भी, आधा अधूरा चित्र दे दो, उसे भी अच्छा बनाने में लग जाते हैं। काश हम सब भी अन्य की कृतियों और कार्यों के प्रति यही भाव रखें, सब विशिष्ट हैं। मैं हर बार इनके पास बस यही सीखने आता हूँ और यही मेरा पारिश्रमिक भी है।' आलोक प्रवाह में बोलता जा रहा था।

आलोक वहाँ हर रविवार जाता है, सब सोचते हैं कि आलोक उन्हें कला सिखाने जाता है, पर यह केवल आलोक ही जानता है कि वह वहाँ बच्चों से क्या सीखने जाता है?



(यह कहानी जेन गोपालकृष्णन ने अंग्रेजी में वर्णित की है और सर्वप्रथम 'चिकेन सूप फॉर सोल - इंडियन टीचर' में प्रकाशित हुयी है। आलोक और जेन के प्रति आभार)

26.9.12

बच्चों का जीवन

'ऐसी क्या चीज है, जो आपको तो नहीं मिलती है पर आपसे उसकी आशा सदैव की जाती है', आलोक ने बच्चों से पूछा। इज्जत या आदर, उत्तर मिलने में अधिक देर नहीं लगी, और बहुत बच्चों ने यह उत्तर दिया। उत्तर सही भी है, बच्चे के दृष्टिकोण से देखें, उससे सदा ही आशा की जाती है कि वह अपने माता-पिता, गुरुजनों और अग्रजों का आदर करे, पर उसे सदा ही अनुशासनात्मक, उपदेशात्मक और प्रताड़ित करते हुये से आदेश मिलते हैं। किसी के जीवन में इसकी मात्रा कम रही होगी, किसी के जीवन में अधिक, पर भूला तो कोई भी नहीं होगा। बच्चों के लिये अन्याय और अनादर भूलना बहुत कठिन होता है। झाँसी प्रवास के समय हमारे पुत्र की पूरी कक्षा को किसी एक की उद्दण्डता के लिये दण्ड मिला, बहुधा शान्त से रहने वाले हमारे सुपुत्र जी इसको पचा नहीं पाये और बहुत क्रोधित हुये। क्रोध तो धीरे धीरे शान्त हो गया पर उनकी स्मृति में उन अध्यापक के प्रति एक निम्न धारणा बन गयी। ऐसी चीजें भूलना कठिन भी होती हैं, जहाँ जहाँ मुझे बिना मेरी भूल के डाँट या मार पड़ी है, वे सारे स्थान, व्यक्ति और घटनायें स्पष्ट याद हैं। बड़े होने के बाद बहुत से अन्याय या तो भूल गया हूँ या क्षमा करता आया हूँ, पर बचपन के नहीं भूलते हैं, न जाने क्यों?

आलोक चित्रकार हैं, मित्र हैं और गोवा में रहते हैं। बच्चों के विषय में अत्यन्त संवेदनशील है और बच्चों के उन्मुक्त विकास के बारे में अद्भुत विचारों से परिपूर्ण भी। जो तथ्य उसको सर्वाधिक कचोटता है कि किस प्रकार हम समाज के रूप में अपनी ही क्षमताओं और संभावनाओं का हनन करते रहते हैं, बचपन से अब तक। हम कैसे अपने बच्चों के प्रति अति अतिसंरक्षणमना हो जाते हैं, उसकी राह की दोनों ओर दीवार बनाते हुये चलते हैं और अपनी इस मूढ़ता को सफलता मानकर प्रसन्न भी हो लेते हैं। आलोक की माने तो बच्चे प्राकृतिक रूप से चित्रकार होते हैं, सबसे अच्छे, उनके हाथ में रंग और ब्रश पकड़ाकर देखिये बस, उनकी अभिव्यक्ति पवित्रतम और सृजनतम होती है। धीरे धीरे वे बड़े हो जाते हैं, उनके ऊपर दायित्वों, कर्तव्यों और आकड़ों का बोझ डाल देते हैं हम सब, बड़ा होते होते वह सारी चित्रकला भूल जाता है।

यद्यपि आलोक बहुत अच्छे चित्रकार हैं पर उन्हें भी लगता है कि बड़े होने के प्रयास में वह थोड़ी बहुत चित्रकला भूल गये हैं। यही कारण है कि उन्हें बच्चों के साथ समय बिताना अच्छा लगता है। पहला कारण यह कि बच्चों के व्यवहार में कोई कृत्रिमता नहीं होती और दूसरा यह कि बच्चों के साथ रहने से हर बार उसे कुछ न कुछ सीखने को मिल जाता है, अपनी चित्रकला के लिये, अपने व्यक्तित्व के लिये। आलोक नियमतः प्रत्येक रविवार सड़क पर रहने वाले या अतिनिर्धनता में जीवन यापन करने वाले बच्चों को चित्रकला सिखाते हैं, एक संस्था के लिये, मुफ्त में। यही नहीं, आलोक उस संस्था के प्रति कृतज्ञ भी रहते हैं क्योंकि उनका कहना है कि हर बार वह उन बच्चों से कुछ सीख कर ही जाते हैं। हम सब पर भी यही नियम लागू होता है, जब कभी भी आपके पास विचारों की कमी हो या विचारों के प्रवाह में स्तब्धता हो, तो बच्चों को देखिये, बच्चों के साथ समय बिताइये, बच्चों से सीखिये।

उपरोक्त प्रश्न, ऐसी ही एक कक्षा के समय पूछा था आलोक ने। प्रश्न अच्छा खासा समझा हुआ था और उत्तर अन्ततः वहीं पर जाना था। बच्चों की तार्किक क्षमता को कमतर समझने की हमारी मानसिकता को झटका तब लगता है जब बच्चे सीधा और अन्तिम उत्तर दे देते हैं। उत्तर इतना सटीक और बहुतायत में मिलेगा, यह आलोक के लिये भी आश्चर्य का विषय था। बच्चों से यह प्रश्न सीधे भी पूछा जा सकता था कि कौन आपको अच्छा लगता है, कौन नहीं। बच्चों के लिये अच्छा लगने या अच्छा न लगने का केवल एक ही मानक है, कि कौन उनके अस्तित्व का आदर करता है या कौन नहीं।

इसके पहले कि इस विषय में प्रतिप्रश्न खड़े हो जायें, इस बात को स्पष्ट कर देता हूँ कि अनुशासन और अनादर में अन्तर है। पारिवारिक अनुशासन आवश्यक है और वह बड़ों को अपने आचरण से स्थापित करना होता है, बच्चों को श्रम का गुण सिखाना हो तो स्वयं भी खटना होता है। अनुशासन का यह स्वरूप आदर के साथ संप्रेषित होता है। कुछ स्वयं न करें और स्वयं को बच्चों को थोप दें, यह अनुशासन तो है पर अनादर के साथ। अनुशासन के अतिरिक्त बहुत से ऐसे निर्णय होते हैं जिनमें हम अपने बच्चों की चिन्तन प्रक्रिया को मान नहीं देते हैं, उनके उत्साह को अपने अनुभव से ढकने का प्रयास करते हैं। निश्चय ही बड़ों ने अधिक जीवन जिया है और उनके अन्दर अपने बच्चों के योगक्षेम की भावना भी अधिक है, पर उस अनुभव से और उस प्यार से बच्चों की निर्णय प्रक्रिया को बल मिले, न कि अनादर।

आलोक बचपन से ही चित्रकार बनना चाहता था, उसे घर में थोड़ा प्रतिरोध और बहुत सहयोग मिला, उसके निर्णय को आदर मिला, उसने अपना जीवन बचपन से ही स्थापित दिशा में बढ़ाया। जब बचपन से ही आपके अस्तित्व को सम्मान मिलता है, लाड़ दुलार से थोड़ा अधिक गंभीर, तो जीवन जीने का आत्मविश्वास कई गुना बढ़ जाता है। निर्णय तो देर सबेर लेने ही होते हैं, यदि आप बचपन में नहीं लेंगे तो बड़े होकर आपका पीछा करेंगे। अपने निर्णय लेने से साहस बढ़ता है। कई मित्रों को जानता हूँ जो अभी भी स्वतन्त्र निर्णय लेने में घबराते हैं, दूसरे का मुँह ताकने लगते हैं। माता पिता के रूप में हम उनके शुभचिन्तक अवश्य हो सकते है, उन्हें अपने अनुभव व ज्ञान के आधार पर समुचित सलाह भी दे सकते हैं, पर निर्णय बच्चों को ही लेने देना हो। अपने लिये निर्णयों में मन खपा देने की ऊर्जा आ जाती है बालमनों के अन्दर।

वहीं दूसरी ओर अपना बचपन देखता हूँ तो निर्णय लेने की सारी स्वतन्त्रता थी, छात्रावास में रहने से निर्णय-प्रक्रिया समय के पहले ही पक गयी। कभी कभी बच्चों से विनोद में पूछता हूँ कि वे बड़े होकर क्या बनना चाहते हैं तो वे उल्टा प्रश्न ही दाग देते हैं, कि आपके पिताजी आपको क्या बनाना चाहते थे? जब कहता हूँ कि मुझे पूरी स्वतन्त्रता थी निर्णय लेने की कि मैं क्या बनना चाहता हूँ, तो उन्हें बड़ा अच्छा लगता है कि घर में बच्चों का अधिकार न हड़पने की परम्परा है। अगला प्रश्न और पेचीदा होता है, कि आपको जब छूट थी और आपने जो चाहा, वह बन भी गये तो अब लैपटॉप के आगे बैठकर लिखते क्या रहते हो? स्मृतियाँ सामने घूम जाती हैं और मैं बच्चों को मन का सच बता देता हूँ।

स्वतन्त्रता थी और मन में इच्छा गणितज्ञ बनने की थी, गहरी रुचि भी थी गणित में, सवालों और अंकों से मित्रता सी रहती थी। यदि और अधिक नहीं सोचता तो निश्चय ही किसी विश्वविद्यालय में गणित की गुत्थियाँ सुलझा रहा होता, अंकों की भाषा विद्यार्थियों को सिखा रहा होता। आईआईटी में प्रवेश भी मिल गया और तब वह समय आया जब यह निर्णय करना था कि अन्ततः क्या करना है? जब निर्णय लेने की स्वतन्त्रता मिलती है तो व्यक्ति समय के पहले ही प्रौढ़ हो जाता है, माता-पिता ने जब बालमन को यह आदर दिया तो बरबस ही मन यह जानने लग गया कि भला माता-पिता क्या चाहते हैं? एक बार उनके मन की जानी तो मन ने निश्चय कर लिया कि सिविल सेवा में जाना है, सफलता मिली और रेलवे में आना हुआ, कार्य में मनोयोग से लगे भी हैं। बहुत पहले से लेखन भी होता था, अब धीरे धीरे लेखन में मन लगने लगा है, अंकों से खेलने वाला बालमन अब शब्दों के अर्थ समझ रहा है, और अब तो यह भी पता नहीं कि अभी अस्तित्व के कितने खोल उतरने शेष हैं?

बच्चों के आँखों में चमक तो आयी पर उसका अर्थ मुझे समझ न आया। उन्हें आलोक की भी कथा ज्ञात है, आलोक ने बचपन में एक निर्णय लिया और उसमें अपना जीवन पहचान भी चुका है। मैं अब भी निर्णयों के कई मोड़ों से होकर निकल रहा हूँ, चल रहा हूँ और स्वयं को चलते देख भी रहा हूँ। बच्चों को ज्ञात है कि उन पर कोई निर्णय थोपा नहीं जायेगा, जब भी लेंगे, जो भी लेंगे, वह उनका अपना निर्णय होगा। उनकी आँखों में कोई निर्णय लेने की शीघ्रता भी नहीं है, वे दोनों ही अभी अपने बचपन का आनन्द उठाने में व्यस्त हैं।

उनके प्रति हमारा व्यवहार अनुशासनप्रद भी रहेगा और आदरयुक्त भी, हमारे हाथ इतने दूर भी रहेंगे कि उन्हें दौड़ने में बाधा न हो और इतने पास भी कि गिरने पर उन्हें सम्हाल सकें।

22.9.12

एक आवश्यक निर्णय

बंगलोर की नगरीय व्यवस्थायें सुदृढ़ हैं, तन्त्र कार्यरत रहता है। पहले यही लगता था कि जहाँ पर इतने अधिक लोग रहते हों, वहाँ पर कोई अव्यवस्था न फैले, यह कैसे संभव है? ट्रैफिक की अधिकता के कारण बहुधा जाम लग जाते हैं, लेकिन धीरे ही सही पर गति बनी रहती है, अनुशासन भी रहता है और ट्रैफिक पुलिस की उपस्थिति भी। पानी और बिजली व्यवस्था उस गति से नहीं फैल पा रही है जिस गति से नगर बढ़ रहा है, पर जहाँ भी है, सुचारु रूप से चल रही है। भविष्य का चिन्तन थोड़ा उद्वेलित कर सकता है क्योंकि बंगलोर अभी भी हर प्रकार से जनसंख्या के आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है। अच्छा मौसम, नौकरियों की प्रचुरता, अच्छे लोग, सुदृढ़ विधि व्यवस्था, उन्नत शिक्षा, ये सब कारक हैं जो भविष्य में भी आने वाली जनसंख्या का प्रवाह बनाये रखेंगे।

एक और पक्ष जिस पर नगर में रहने वालों का अधिक ध्यान नहीं जा पाता है, वह है यहाँ की सफाई व्यवस्था। सामने से इतना अधिक कार्य होता नहीं दिखता है पर नगर स्वच्छ रहता है, नियत स्थान पर ही कूड़ा मिलता है, सड़कें और गलियाँ स्वच्छ मिलती हैं। सफाई कर्मचारी, जिन्हें यहाँ पर पौरकर्मिका भी कहा जाता है, बहुत सुबह से ही सफाई में लग जाते हैं। कई बार रात्रि निरीक्षण से वापस आते समय ब्रह्ममुहूर्त में उन्हें बंगलोर की सड़कों पर कार्य करते हुये देखा तो न केवल सुखद आश्चर्य हुआ वरन यह भी पता लगा कि कैसे बंगलोर इतना स्वच्छ रह पाता है। सुबह की व्यस्तता के बाद, जब घरों का कूड़ा बाहर आ जाता है और सड़कों से कार्यालय और विद्यालय आदि जाने वाले वाहनों की संख्या कम हो जाती है, तो महापालिका के ट्रक कूड़ा समेटते हुये दिखते हैं। कुछ स्थानों से दैनिक कूड़ा समेटा जाता है, कुछ स्थानों से साप्ताहिक, पर एक सततता बनी रहती है जिससे बंगलोर यथासंभव स्वच्छ रहता है।

नगर को स्वच्छ रखने में नागरिकों के अनुशासन का योगदान भी कम नहीं है। यदि कूड़ा नियत स्थान पर न डाला जाये तो सफाई तन्त्र कुछ ही दिनों में ढह जायेगा। यही नहीं सार्वजनिक स्थानों में भी नागरिक थोड़ा श्रम और समय देते हैं पर कूड़ा कूड़ेदान में ही जाकर फेंकते हैं। बिना किसी दण्ड प्रावधान के इतना आत्मानुशासन निश्चय ही प्रशंसनीय है। नगर को स्वच्छ रखने और उसे संक्रामक बीमारियों से मुक्त रखने का कार्य बड़ा है पर आवश्यक भी है। कुछ भी हो, प्राथमिकता देकर इसका निष्पादन करना ही होता है।

लगभग एक माह पहले, कुछ प्रशासनिक कारणों से नगर के पौरकर्मिका हड़ताल पर चले गये। कारण स्वाभाविक था। नगर का एकत्र कूड़ा आस पास के गाँवों की निचली भूमि को भरने के लिये डाला जाता था, कालान्तर में कूड़ा दब जायेगा और ऊपर का स्थान नगर विस्तार में काम आयेगा। अब जिस स्थान पर नगर भर का कूड़ा फेंका जाता था, वहाँ के स्थानीय निवासियों ने उसका विरोध करना प्रारम्भ कर दिया, कारण उस कूड़े से फैलने वाली दुर्गन्ध और बीमारियाँ ही होगा। विवाद हुआ और हड़ताल हो गयी। यहाँ नगर में हर स्थान पर अव्यवस्था फैल गयी, कूड़े का अम्बार और उसकी सड़न से उठने वाली दुर्गन्ध ने नगर को भी व्याप्त कर लिया। दुर्गन्ध तक ही सीमित होता तो बच कर निकला जा सकता था पर स्वास्थ्य पर भी प्रभाव पड़ने की संभावना बनी हुयी थी। डेंगू से ग्रसित लोगों की संख्या से व्याप्त गंदगी को मापा जा सकता है। कई स्थानों पर डेंगू के मरीज भर्ती भी हुये। सरकार समय रहते चेत गयी, गाज प्रशासनिक अधिकारी पर गिरी, नये अधिकारी नियुक्त हुये। अब समय व्याप्त अव्यवस्था को समेटने का था, इस घटना की पुनरावृत्ति न हो उसके उपाय करने का था, साथ ही साथ ऐसा पुनः होने की स्थिति में सड़न और दुर्गन्ध की मात्रा सीमित की जा सके, उससे सम्बन्धित निर्णय लेने का था।

निर्णय आवश्यक थे, आलोचना हुयी थी, साख पर बाट लगी थी। सारे लंबित प्रस्ताव पारित हो गये, लगा मानो इसी समस्या में उनका उद्धार निहित था। जो भी निष्कर्ष आये, वे बंगलोर के हित में ही थे, इस स्तर पर उतर कर सोचना आवश्यक था। इस बार के निर्णयों को कानून के रूप में लागू करने का प्रयास किया जा रहा है। समय भागा जा रहा था, यदि निर्णय अभी न लिये जाते तो आने वाले समय में यह समस्या विकराल रूप धर लेती। यही नहीं, यहाँ का उदाहरण देश भर की सभी नगरपालिकाओं को भी अपनाना चाहिये।

कूड़ा प्रमुखतः ६ तरह का होता है। घर की सब्जियों आदि से निकला गीला कूड़ा, कागज और ग्लास आदि की तरह पुनः उपयोग में लाये जाना वाला सूखा कूड़ा, पत्ती पौधों आदि से निकला कार्बनिक कूड़ा, धूल और निर्माण कार्य से निकला कूड़ा, अस्पतालों से निकला चिकित्सीय कूड़ा और अन्त में इलेक्ट्रॉनिक हानिकारक कूड़ा। हर तरह के कूड़े का निष्पादन अलग तरह से होता है। घर से हर तरह का कूड़ा निकलता भी नहीं है, मुख्यतः पहले तीन तरह का कूड़ा ही अधिक मात्रा में होता है। इन सब तरह के कूड़े को हमें अब अपने घर में ही अलग करना होगा, महापालिका के कर्मचारी उन्हें उसी रूप में एकत्र करेंगे, आपके द्वारा ऐसा नहीं करने में आपका कूड़ा स्वीकार नहीं किया जायेगा। निश्चय ही यह बड़ा प्रभावी निर्णय है, नागरिकों को कार्य अधिक करना पड़ेगा, महापालिका को कार्य अधिक करना होगा, पर नगर स्वच्छ रहेगा। उपरोक्त नियम अक्टूबर माह से लागू हो जायेंगे, इससे संबंधित सुझावों को भेजने के लिये एक संपर्क भी दिया है।

एक महत्वपूर्ण दिशा तो मिल गयी है, बंगलोर को स्वच्छ रखने के प्रयासों को, पर उसे कहीं और आगे ले जाने की आवश्यकता है।

प्रतिदिन बंगलोर में लगभग ५००० टन कूड़ा निकलता है, लगभग ५०० ट्रक के बराबर या दो मालगाड़ियों के बराबर। इसमें ७० प्रतिशत कूड़ा ऐसा होता है जो जैविक होता है। यह खाद्य पदार्थों से आता है और विघटनशील होता है, यही सड़न उत्पन्न करता है। इस जैविक कूड़े में लगभग ६० प्रतिशत तक पानी होता है। सम्प्रति सारे कूड़े को हम एकत्र करते हैं और नगर के बाहर ले जाते हैं। यदि इस जैविक कूड़े को हम स्थानीय रूप से कम्पोस्टिंग करें तो उसमें शेष ४० प्रतिशत खाद मिलेगी हमें, वह खाद जो अत्यन्त उच्चस्तरीय होती है और स्थानीय रूप से खप भी जाती है। जिन घरों में पशुपालन होता है, वहाँ तो जैविक खाद्यशेष पशुओं को दे दिये जाते हैं और तब हमें गोबर के रूप में खाद मिलती है। मध्य नगर में पशुपालन तो संभव नहीं है पर कम्पोस्टिंग करके खाद तो बनायी ही जा सकती है। लाभ दुगुना है, प्रतिदिन ५०० के स्थान पर १५० ट्रक ही आवश्यक होंगे कूड़ा ढोने के लिये और साथ ही साथ प्रतिदिन १४०० टन की जैविक खाद भी मिलेगी। अभी तो सारी ऊर्जा और प्रयास कूड़े को ढोने में ही व्यर्थ हो रहे हैं।

वैसे तो श्रीमतीजी की बहुत सी अभिरुचियाँ हमारे लिये मँहगी पड़ती हैं पर कम्पोस्टिंग के प्रति उनकी लगातार बढ़ती हुयी ललक अब न केवल रंग लाने लगी है, वरन हमें भी भाने लगी हैं। जब उन्होंने बंगलोर जैसे बड़े नगर में उपस्थित सम्भावनायें गणनाओं के समेत समझायीं तब से यही लग रहा है कि स्थानीय स्तर पर कम्पोस्टिंग को बढ़ावा देना चाहिये। गावों और छोटे कस्बों में लोग पशुपालन करके जैविक कूड़े को गोबर के माध्यम से जैविक खाद में बदल सकते हैं और नगरों में जहाँ पशुपालन संभव नहीं है, वहाँ सबके लिये कम्पोस्टिंग महापालिकाओं की ओर से प्रोत्साहित की जानी चाहिये। यह एक और आवश्यक निर्णय हो, हर नागरिक के लिये।

19.9.12

एप्पल का मूल्य

अभी तक की सर्वाधिक मूल्यवान कम्पनी का स्थान पाने के बाद अपेक्षाओं का जो अंबार एकत्र होता है, उसे समेट कर व्यवस्थित रख पाना उस कम्पनी की अगली चुनौती बन जाती है। शीर्ष पर होने का धर्म उत्सवीय कम और चिन्तनशील अधिक होता है। ऊँचाई पर तनिक बैठ कर सुस्ता लेने में लुढ़क जाने का भय है, सबकी दृष्टि आप पर जो है, प्रतियोगिता गलाकाट जो है। नयी तकनीकों का विस्तार और उनके प्रयोगों का अधिकार, दोनों कार्य उस कम्पनी की क्षमता को सतत तौलते रहते हैं। यह केवल कम्पनियों पर ही लागू नहीं होता है वरन ऊँचाई पर पहुँचे व्यक्तियों, समाजों और सभ्यताओं पर भी सटीक बैठता है।

लगभग वर्ष भर पहले जब स्टीव जॉब्स का निधन हुआ था, उस समय एप्पल से मात्र प्रारम्भिक परिचय हुआ था। तब मैकबुक एयर माह भर पुराना था और आईफोन लिये जाने में दो माह शेष थे। स्टीव जाब्स के व्यक्तित्व ने प्रभावित किया था, बहुत कुछ इसलिये कि सफलता प्रभावित करती है, बहुत कुछ इसलिये भी कि तलहटी तक गिर कर शिखर को छूने वालों की विश्व उपासना करता है, उनका संघर्ष सबको अभिभूत करता है। स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय में दिये गये अभिभाषण ने उनके व्यक्तित्व के आधारभूत गुणों से सारे विश्व को अवगत कराया था। मृत्यु को देख कर वापस आने वाले जीवन अपना समय व्यर्थ नहीं करते है, पैन्क्रियाटिक कैंसर से बच कर निकले जो ६ वर्ष उन्होंने व्यतीत किये हैं, वे न केवल एप्पल के लिये मूल्यवान थे वरन विश्व की दिशा नियत करने में सक्षम भी। मेरे लिये इस धारणा के सत्यापन का आधार एप्पल उत्पादों का वर्ष भर किया हुआ उपयोग रहा, मैकबुक एयर और आईफोन का उपयोग रहा।

निश्चय ही एप्पल के उत्पाद मँहगे होते हैं, और उन्हें खरीदने के पहले आपको दो बार सोचना होता है। आर्थिक अवलोकन आवश्यक है पर यह भी सच है कि हम सबसे सस्ती चीज भी नहीं खरीदते हैं। आवश्यकता के अनुसार मापदण्ड निश्चित करने के बाद हम गुणवत्ता का ही आधार लेते हैं, अधिक गुणवत्ता के लिये अधिक धन खर्च करना स्वाभाविक भी है। संभवतः यही हुआ मैकबुक एयर की खरीद में, एक ऐसा लैपटॉप देख रहा था जो हल्का हो, बैटरी पर अधिक समय चलने वाला हो और संरचना में सुदृढ़ हो। इस विषय पर कई दिन अनुसंधान किया पर किसी और उत्पाद को इसके निकट नहीं पाया। वर्षों विण्डो पर कार्य करते बीते थे अतः नये परिवेश में ढलना प्रारम्भ में तनिक कठिन रहा, पर धीरे धीरे कार्य ने गति पकड़ ली। आईफोन का खरीदना और भी रोचक रहा, विण्डो मोबाइल ४ वर्ष का हो चुका था, नोकिया, एलजी और ब्लैकबेरी के हिन्दी टाइप करने वाले तीन और मोबाइल उपयोग में लाया पर संतुष्टि नहीं मिली। उसी समय आईफोन पर हिन्दी पूर्ण रूप में आयी थी, जबकि एण्ड्रॉयड आदि विकासशील स्थिति में थे। आईफोन थोड़ा प्रयोग कर देखा, बहुत अच्छा लगा, खरीद लिया। दोनों में ही धन थोड़ा अधिक लगा था, पर एक वर्ष के उपयोग में पायी संतुष्टि के आधार पर यह कह सकता हूँ कि दोनों ही निर्णय गर्व करने योग्य थे।

आधुनिक डिजिटल जीवन के तीन अंग होते हैं, कम्प्यूटर या लैपटॉप, मोबाइल, इण्टरनेट। अपने अपने क्षेत्रों में इन तीनों का अलग अलग उपयोग भी किया जा सकता है और समन्वय स्थापित करके भी। इनका प्रभावी उपयोग करने वाले जानते हैं कि इनका भी अपना पारितन्त्र है, एक अवयव दूसरे का प्रेरक और पूरक है। कहने को तो मोबाइल न जाने कितने कार्य कर सकता है,फिर भी सुविधा के लिये हमें लैपटॉप का उपयोग करना पड़ता है। इसी प्रकार लैपटॉप भी सारे कार्य करता है पर हर स्थान पर ले नहीं जाया जा सकता है। कई ऐसे कार्य हैं जो हम दोनों में ही करते हैं और कई बार ऐसा भी होता है कि दोनों ही उपस्थित नहीं होते हैं, उस समय इण्टरनेट के माध्यम से हम अपने कार्य तक पहुँचना चाहते हैं। सारी आधुनिक कम्पनियाँ लैपटॉप, मोबाइल और इण्टरनेट सेवाओं के इस पारितन्त्र को स्थापित करने में लगी हैं। ध्यान से देखें तो किसी भी कम्पनी के पास तीनों अवयव उपस्थित नहीं हैं, सिवाय एप्पल के। माइक्रोसाफ्ट के पास मोबाइल का निर्माण नहीं है, इण्टरनेट सेवायें भी कम हैं। गूगल के पास कम्प्यूटर नहीं है, इसी प्रकार किसी भी बड़ी कम्पनी को देखें तो कोई न कोई अवयव अनुपस्थित मिलेगा।

क्या सुदृढ़ पारितन्त्र स्थापित करने के लिये सारे अवयवों का एक कम्पनी के साथ होना आवश्यक है? क्या सॉफ्टवेयर बनाने वाले हार्डवेयर भी बनायें? जी हाँ, यदि एलन के की माने तो, उनके अनुसार यदि कोई अपने सॉफ्टवेयर के प्रति गम्भीर है तो उन्हें अपना हार्डवेयर स्वयं बनाना चाहिये। इस तर्क में बल है और इसे समझना सरल भी। जब हम कोई ऐसा उत्पाद बनाते हैं जिसमें सभी को संतुष्ट कर सकें या जिसमें सभी के लिये संभावनायें हो तो बहुधा एक आम सा उत्पाद बन कर सामने आता है। वह उत्पाद भारी होता है और उसमें कई अनावश्यक चीजें कम की जा सकती हैं। आन्तरिक समन्वय वाह्य समन्वय से कहीं अधिक प्रभावी होता है। एप्पल इन तीनों ही क्षेत्रों में सिद्धहस्त है, और उनके आपसी समन्वय में कोई घर्षण भी नहीं है। मैकबुक एयर, आईपैड, आईफोन, आईक्लाउड और आईट्यून्स आदि अपने क्षेत्रों के उत्कृष्टतम उत्पाद हैं। वर्ष भर के अनुभव में इन सबको ढंग से समझने का अवसर मिला और एप्पल के पारितन्त्र की गुणवत्ता और उत्कृष्टता पर कोई सन्देह नहीं रहा।

स्टीव जाब्स जेन से प्रभावित थे, जेन सरलता को महत्व देता है। सरलता हर क्षेत्र में, जीवन में भी, कार्यक्षेत्र में भी। अनावश्यक को तब तक तजते जाना, जब तक अस्तित्व में पूर्णता न छलकने लगे। पता नहीं क्यों पर मुझे एप्पल के हर उत्पाद जेन के डिजिटल प्रतिरूप लगते हैं। उत्पादों को आकार इतना छोटा कर पाना और इतने कम में इतना अधिक भर पाना तब तक संभव नहीं हो सकता जब तक अनावश्यक आयतन हटा न दिया गया हो। जब उनके आईपॉड डिजाइनर ने कहा कि उन्होने आईपॉड का न्यूनतम आकार पा लिया है, तो उन्होने आईपॉड को एक एक्वेरियम में डाला दिया और कहा कि जब तक बुलबुले निकलना बन्द न हो जाये तब तक उसका आकार कम करें। उत्पाद डिजाइन में भी दर्शन समाहित किया जा सकता है, यह एप्पल के उत्पादों में देखा जा सकता है। सरलता का यही स्वरूप आईफोन में मात्र एक होम बटन के रूप में भी देखा जा सकता है और मैकबुक एयर की एकल एल्युमुनियम बॉडी में भी। यही सरलता सॉफ्टवेयर और ऑपेरेटिंग तन्त्र में दिखायी पड़ती है, यही कारण है कि एप्पल की ऊर्जा खपत न्यूनतम है और उत्पाद बिना रिचार्ज किये लम्बे चलते हैं।

एप्पल का दूसरा सशक्त पक्ष है कि डिजाइन संबंधी किसी भी तत्व को मूल से देखना। एप्पल के उत्पादों में कुछ भी ऐसा नहीं है जिसे उन्नत बनाने का प्रयास न किया गया हो। चिप, बॉडी, बैटरी, स्क्रीन, कैमरा, स्पीकर, हर वस्तु में हर बार कुछ न कुछ नया किया है। इतने श्रम और शोध ने न केवल एप्पल के उत्पादों को शीर्षतम स्तर पर पहुँचा दिया वरन प्रतियोगियों को भी बाध्य किया कि वे भी सृजन की राह पर बढ़ें। यदि कहा जाये कि एप्पल लगातार इस व्यवसाय के मानक तय कर रही है तो अतिश्योक्ति नहीं होगा।

जब आप सर्वश्रेष्ठ करने की ठान लें तो आप के लिये यह पता करना आवश्यक नहीं कि ग्राहकों को क्या चाहिये। स्टीव जाब्स ने माँग जानने के लिये कभी कोई ग्राहक सर्वेक्षण नहीं कराया। अपनी ओर से सर्वश्रेष्ठ देकर सदा ही ग्राहकों को चकित करने की परम्परा रही है एप्पल में। ग्राहकों ने भी सदा ही उस गहन श्रम और शोध को सर आँखों पर बिठाया और अब स्थिति यह है कि लोग महीनों पहले से एप्पल के नये उत्पाद आने की प्रतीक्षा करते हैं।

एप्पल ने यहाँ तक निर्धारित किया कि उपयोगकर्ता के लिये सर्वश्रेष्ठ उपयोग-विधियाँ क्या हों। स्टाइलस के स्थान पर ऊँगली के उपयोग ने सारे अनुभव को सरल और त्वरित कर दिया। धीरे धीरे एप्पल की उपयोग-विधियाँ मानक हो गयीं और अभी भी वही दिशा बनी हुयी है।

मैकबुक एयर, आईफोन और आईक्लाउड के माध्यम से हमारा प्रशासनिक और साहित्यिक कार्य निर्बाध हो गया है। सरलता और सततता कार्यशैली के मूलमन्त्र बन गये हैं। समय का भरपूर उपयोग और उत्पादकता बढ़ाने में एप्पल ने एक महत योगदान दिया है। मेरे लिये तो एप्पल का मूल्य गहरा है और मापा नहीं जा सकता है, शोधपरक और श्रमशील एप्पल मेरे लिये सदा ही मूल्यवान बनी रहेगी।

15.9.12

फ्रस्टियाओ नहीं मूरा

बड़ी दिलासा देते हैं ये शब्द, विशेषकर तब, जब पति जेल में हो, पति अपनी पत्नी को यह गाने को कहता हो और उसकी पत्नी सस्वर गा रही हो। बाहुबली पति का आत्मविश्वास बढ़ा जाता है, यह गीत। उसकी दृष्टि से देखा जाये तो स्वाभाविक ही है, बाहर का विश्व बेतहाशा भागा जा रहा है, उसके प्रतिद्वन्दी उसके अधिकारक्षेत्र में पैर पसार रहे हैं और वह है कि जेल में पड़ा हुआ है। गीत समाप्त होता है, मिलाई का समय समाप्त होता है, दोनों की व्यग्रता शान्त होती है। फिल्म देख रहे दर्शकों को भी आस बँधती है कि अब फैजल बदला लेगा, गीत के माध्यम से उसे तत्व ज्ञान मिल चुका है, ठीक उसी तरह जिस तरह कृष्ण ने व्यग्र हो रहे अर्जुन को जीवन का मूल तत्व समझाया था।

ध्यान से सुनिये यह गीत, हर पद में एक अंग्रेजी शब्द है, फ्रस्टियाओ, नर्भसियाओ, मूडवा, अपसेटाओ, रांगवा, सेट राइटवा, लूसिये, होप, फाइटवा। इन सबको मिलाकर एक गीत बनाया है, लोकसंगीत का मधुर मिश्रण है, भाव, विभाव और संचारी भाव हैं, निष्कर्ष है गजब का प्रभाव। विश्वविजेता रहे अंग्रेजों की अंग्रेजी की देशी दुर्दशा होते देख शब्दशास्त्री कितने ही भौंचक्के हो जायें, पर इन शब्दों को अर्थसहित जिस सहजता से हमने अपनी संस्कृति में आत्मसात किया है, उतना आत्मविश्वास तो इस शब्द को अंग्रेजी में बोलते समय भी नहीं आता होगा। यदि अंग्रेजों ने हमें अंग्रेजियत सिखायी तो हमने भी अंग्रेजी शब्दों को अल्हड़ देशीपना सिखा दिया है।

संस्कृति, भाषा और भाव के पारस्परिक प्रभाव से ऊपर उठें और इस पर विचार करें कि फ्रस्टियाना होता क्यों है? इस प्रक्रिया को समझते ही उससे संबद्ध लघुप्रभाव और उससे निदान के उपाय समझ में आ जायेंगे। मनोवैज्ञानिक भले भी कितनी कठिन कठिन परिभाषायें गढ़ लें पर उदाहरणों के माध्यम से समझना ही मस्तिष्क में स्थायी रहता है। फिल्म का परिवेश धनबाद के निकट वासेपुर का है, जहाँ पर कोयले और उससे संबद्ध व्यवसायों में अनापशनाप धन कमाने की न जाने कितनी संभावनायें हैं। दोहन, संदोहन और महादोहन चल रहा है, अव्यवस्था का राज है, शक्ति का नाद ही स्पष्ट सुनायी पड़ता है, आपाधापी मची है। समर्थक, विरोधी नित नये तिकड़म लगा रहे हैं, और सहसा विकास की इस विधा को न समझने वाली पुलिस तुच्छ से अपुलसीय कारणों में नायक फैजल को जेल के अन्दर डाल देती है। अब बताईये कि वह फ्रस्टियाये न, तो क्या करे?

थोड़ा और सरल ढंग से समझें। जब माँग अधिक होती है और आपूर्ति कम, तो प्राप्ति के लिये संघर्ष बढ़ता है। अब जो लोग सक्षम होते हैं, वे उस संघर्ष में कुछ प्राप्त कर लेते हैं, शेष सब फ्रस्टियाने लगते हैं। कॉलेज में प्रवेश के लिये यही होता है, कॉलेज में जाने के बाद सौन्दर्यमना युवाओं में यही होता है, नौकरी पाने के बाद यही होता है और यही क्रम अन्य क्षेत्रों में धीरे धीरे बढ़ता रहता है। कुछ न पा पाने की अवस्था फ्रस्टियाने का मूल स्रोत है। पर ऐसा नहीं है कि फ्रस्टियाना पूरी तरह से वाह्य कारणों पर ही आधारित हो। निश्चय ही यह एक बड़ा कारक है, पर अपनी क्षमताओं और अपने अधिकार के बारे में हमारा आकलन भी उसके लिये उत्तरदायी है। अब बताईये, फैजल अगर वासेपुर से संतुष्ट रहते और धनबाद में हस्तक्षेप न करते तो फ्रस्टियाने की मात्रा कम की जा सकती थी। हम स्वयं को महारथी समझते हैं और जब भाग्य या घटनायें हमें पैदल कर देती हैं, तो हम फ्रस्टियाने लगते हैं।

जब जीवन में भय अधिक होता है तो व्यक्ति अल्पकालिक लाभों की ओर भागता है, जब अनिश्चितता अधिक होती है तब व्यक्ति अधीर हो जाता है, सब कुछ कर डालने के लिये। इस अवस्था को उन्माद कह लें या व्यग्रता। उन्माद अनियन्त्रित होता है, बढ़ता जाता है, अवरोध क्षोभ उत्पन्न करता है, असफलता अवसाद ले आती है। तब फिर से किसी को यह गाना गाना होता है, सस्वर। बहुत लोगों को बड़े प्रलोभन की सतत आस क्षोभ में नहीं जाने देती है। छोटे मोटे अवरोधों को पार करने के लिये यही स्वप्न पर्याप्त होते हैं। पुराने समय में जब आक्रमणकारी सैनिक युद्ध के लिये निकलते थे तो उन्हें भी प्रलोभन दिया जाता था कि जीत के बाद लूट में मुक्त हस्त मिलेगा, हर तरह की लूट में। उन्माद जब तक बना रहता है, कार्य चलता रहता है, उन्माद कम हुआ तो फ्रस्टियाना प्रारम्भ हो जाता है।

जहाँ जीवन बुलबुले सा हो जाता है, वहाँ सुख को तुरन्त ही भोग लेने की मानसिकता विकसित हो जाती है, वहाँ समाज का दीर्घकालिक स्वरूप क्षयमान होने लगता है। गैंग ऑफ वासेपुर बस वही कहानी चीख चीख कर बतला रहा है। कोयले से भी अधिक काली वहाँ की कहानी है। अथाह सम्पदा पड़ी है वहाँ, सबके लिये, पर वर्चस्व का युद्ध उसे भी शापित कर देता है। उन्नत सभ्यताओं को देख चुके लोगों को यदि मानव अस्तित्व का दूसरा छोर समझना हो तो उन्हें यह फिल्म अवश्य देखनी चाहिये।

अल्पकालिक मानसिकता फ्रस्टियाने का प्रमुख कारण है, और अल्पकालिक घटनाओं को दीर्घकालिक परिप्रेक्ष्य में रख देना उसका निदान है। जब भी यह स्थिति आती है तब लक्षण चीख चीख कर अपनी उपस्थिति बताते हैं। अर्जुन भी इसी में लपट गये थे, शरीर से पसीना आना, मुख सूख जाना, हाथों में कम्पन होना, गीता के प्रथम अध्याय में सारे लक्षण ढंग से वर्णित हैं। कृष्णजी को तुरन्त ही समझ आ गया था कि ये फ्रस्टियाने के लक्षण हैं और अर्जुन किसी अल्पकालिक अवस्था के फेर में पड़े हुये हैं। कृष्ण के तर्कों की पहली श्रंखला आत्मा के बारे में होती है, अभिप्राय स्पष्ट था कि यदि आप आत्मा हो तो अल्पकालिक कैसे सोच सकते हो, एक जन्म के बारे व्यथित होने का क्या लाभ।

अर्जुन पढ़े लिखे थे, उन्हें न केवल यह बात तुरन्त समझ में आ गयी वरन उसके बाद उन्होंने हम सबके लाभ के लिये ढेरों प्रश्न पूछ डाले। हमारे लिये तो गीता का दूसरा अध्याय पर्याप्त है, स्वयं को आत्मा समझ लेने के पश्चात सारे सुख दुख तो सर्दी गर्मी जैसे लगने लगते हैं। लगने लगता है कि जब इतना लम्बा चलना है तो पथ में लगे एक काँटे या पथ में दिखे एक फूल का क्या महत्व? संभवतः यही कारण है कि दूसरा अध्याय पूरा होते होते मन शान्त हो जाता है, और संतुष्टि में नींद भी आ जाती है। वासेपुर के लोगों को गीता समझ आये न आये पर होपवा अवश्य समझ आता है। होप या आशा पर ध्यान जाते ही परिप्रेक्ष्य दीर्घकालिक हो जाता है। तब थोड़ा समय दिखता है, क्षोभ और साम्य के बीच, समय जिसमें बिगड़े हुये कारकों को ठीक किया जा सकता है।

यह गाना देशी है और बहुत प्रभावी है, कई बार इसे प्रयोग कर चुका हूँ, अपने ऊपर, अपने साथी अधिकारियों पर और अपनी श्रीमतीजी पर भी। रामबाण की तरह असर करता है, और सबसे अच्छी बात यह है कि इसे गाने के लिये कण्ठ पर अधिक जोर डालने की आवश्यकता भी नहीं है। हमने श्रीमतीजी को भी सिखा दिया है। चेहरे के भाव छिपाना तो हमें वैसे भी नहीं आता था, अब उनके कण्ठ के स्वर को सहना भी सीख रहे हैं।

विश्वास नहीं होता, तो गाकर देख लीजिये….फ्रस्टियाओ नहीं मूरा….

12.9.12

ध्यान से देखो, थोड़ा और ध्यान से

दर्पण देखता गया, पंथ खुलता गया। चेहरे पर दिखता, त्वचा का ढीला पड़ता कसाव, जो यह बताने लगा है कि समय भागा जा रहा है। शरीर की घड़ी गोल गोल न घूमकर सिकुड़ सिकुड़ सरकती है, शक्ति और सौन्दर्य के प्रतिमानों को धूमिल करती हुयी सरकती है, समय अपना प्रभाव धीरे धीरे व्यक्त करता है। शरीर सरलता की ओर सरकता है, निर्जीव पड़े केश-गुच्छ कम हो जाते हैं, श्वेतरंगी हो जाते हैं, बाहों और वक्ष के माँसल अवयव सपाट और कोमल होने लगते हैं, चेहरे पर पल पल बदलते भाव एकमना हो जाते हैं, जीवन प्रतीक्षारत सा दिखने लगता है। अन्त दिखते ही जीवन ठिठक जाता है, संशय अपना लेता है, गतिहीन होने लगता है, धीरे धीरे।

थोड़ा और ध्यान से दर्पण देखता हूँ। मन यह विश्वास दिलाना चाहता है कि तुम अब भी वही हो, दर्पण के असत्य को स्वीकार मत करो, तनिक और ध्यान से देखो, कुछ भी तो नहीं बदला है। मन की बात का विश्वास होता ही नहीं है, सच भी हो तब भी नहीं, इतने छल सहने के बाद भला कौन विश्वास करेगा मन का। आज दर्पण को देख रहा हूँ तो मन की मानने का मन नहीं कर रहा है। मन समझ जाता है कि दर्पण सत्य बता रहा है, मन की माया रण हार रही है। मन आँख बन्द कर सोचने को कहता है, क्षय का पीड़ामयी आक्रोश तो वैसे भी नहीं सम्हाला जा रहा था आँखों से, आँखें बन्द हो जाती हैं।

आँख बन्द कर जब शरीर का भाव खोता है तो लगता है कि हम अभी भी वही हैं जो कुछ वर्ष पहले थे, कुछ दिन पहले भी स्वयं के बारे में जो अनुभूति थी, वह अभी भी विद्यमान है, कुछ भी नहीं बदला है, सब कुछ वही है। बन्द आँखों में एक भाव, खुली में दूसरे। मन की माया सच है या कि दर्पण का दर्शन। कठिन प्रश्न है, काश अपना चेहरा न दिखता, काश दर्पण ही न होता।

चिन्तन की लहरें उछाल ले रही हों तो किसी और कार्य में मन भी तो नहीं लगता है। सामने दर्पण है, मन के भाव अस्त-व्यस्त कपड़ों से फैले हुये हैं, न समेटने की इच्छा होती है, न ही दृष्टि हटाने का साहस। स्मृतियों का एक एक कपड़ा निहारने लगता हूँ, लगा कि सबको एक बार ढंग से देख लूँगा तो मन शान्त हो जायेगा। जीवन बचपन से लेकर अब तक घूम जाता है, संक्षिप्त सा।

बचपन की प्रथम स्मृति से लेकर अब तक के न जाने कितने रूप सामने दिखने लगते हैं, सब के सब स्पष्ट से सामने आ जाते हैं, मानो वे भी सजे धजे से राह देख रहे थे, स्मृतियों की बारात में जाने के लिये। बचपन की अथाह ऊर्जा, निश्छल उच्श्रंखलता और अपरिमित प्रवाह अब भी अभिभूत करता है। फिर न जाने क्या ग्रहण लग गया उसे, उस पर सबकी आशाओं और आकांक्षाओं की धूल चढ़ने लगी, दायित्वों और कर्तव्यों के न जाने कितने गहरे दलदल में फँसा हुआ है अभी तक। हर दिन कुछ न कुछ बदलता गया, धीरे धीरे। जब इतना कुछ बदल गया तो क्यों मन यह दम्भ पाले है कि कुछ नहीं बदला है? आँख खुली रहने पर दर्पण मन को झुठलाता है, आँख बन्द करने पर भी मन की नहीं चलती, स्मृतियाँ मन को झुठलाने लगती हैं।

आँखे फिर खुल जाती हैं, दर्पण आपके सामने आपका चेहरा फिर प्रस्तुत कर देता है। निष्कर्ष अब भी दूर हैं, साम्य नहीं है, अन्दर और बाहर। क्यों, कारण ज्ञात नहीं, पर दर्पण से कभी इतना गहरा संवाद हुआ ही नहीं। जब भी चिन्तन हुआ, मन उस पर हावी रहा, सारी परिभाषायें, सारे परिचय, सारे अवलोकन, सारे निर्णय मन के ही रास्ते होकर आये। दर्पण के रूप में आज कोई मिला है जो मन को ललकार रहा है।

मन हारता है तो आपको भरमाने लगता है। दर्पण आज मन का एकाधिकार ध्वस्त करने खड़ा है, वह बताना चाह रहा है कि आप बदल चुके हैं, सब बदल चुके हैं, मन है कि यह मानने को तैयार ही नहीं, किसी भी रूप में नहीं। यह उहापोह वातावरण गरमा देती है, वहाँ से हटना असंभव सा हो जाता है। मैं दर्पण फिर देखता हूँ, कभी मुझे एक पुरुष दिखता है, कभी एक भारतीय, कभी एक हिन्दू, कभी एक हिन्दीभाषी, कभी एक लेखक, और अन्दर झाँकता हूँ तो कुछ और नहीं दिखता है, सब की सब उपाधियाँ अलग अलग झलकती हैं। पलक झपकती है, तो कभी एक पुत्र, कभी एक भाई, कभी एक पति, कभी एक पिता, संबंधों के जाल दर्पण पुनः धुँधला देते हैं। आँख फाड़ कर और ध्यान से देखता हूँ, तो परिचितों की आकाक्षाओं से निर्मित भविष्य के व्यक्तित्व दिखने लगते हैं। लोगों की आशाओं पर खरा न उतर पाने का भाव भला दर्पण को कैसे ज्ञात हुआ? नहीं, नहीं, चेहरा ही नहीं छिपा पा रहा है, यह भाव।

मन झूठा सिद्ध हो चला था, वह यह समझा ही नहीं पा रहा था कि मैं अब भी वही हूँ, जो पिछले ४० वर्षों से उसके निर्देशों पर नृत्य किये जा रहा हूँ। आज दर्पण ने मुझे मेरे इतने रूप दिखा दिये थे कि किसी पर कोई विश्वास ही नहीं रहा, व्यक्तित्व बादलों सा हो गया, हर समय अपना आकार बदलने लगा। कुछ भी पहचाना सा नहीं लगता है, कोई ऐसी डोर नहीं दिखती है जो मुझे मुझसे मिला दे।

स्वयं के खो जाने की पीड़ा अथाह है, एक गहरी सी लहराती हुयी रेख उभर आती है पीड़ा की, विश्वास हो उठता दर्पण पर, विश्वास हो आता है अपने खोने का। मन थक हार कर शान्त बैठ जाता है, एक निर्धन और गृहहीन सा।

आँखे धीरे धीरे फिर खुलती हैं, दर्पण अब भी सामने है, कुछ धँुधला सा दिखता है, आँखों का खारापन पोंछता हूँ। चेहरा पूर्ण संयत हो चला है, सारी उपाधियाँ चेहरे से विदा ले चुकी हैं, चेहरे के कोई भाव नहीं दिखते हैं, बस दिखती हैं तो आँखें। अहा, कोई जाना पहचाना सा दिखता है, अपनी आँखों में अपनी पहचान दिखने लगती है, वह आँखे जिससे अभी तक सारी दुनिया मापते आयें हैं। आँखों में और गहरे देखता हूँ, उसमें बिखरे हुये सारे व्यक्तित्वों का केन्द्र दिखने लगता है। कुछ और देर देखता रहता हूँ, सब कुछ सिमटने लगता है, सब कुछ व्यवस्थित होने लगता है। मन सहसा ऊर्जा पा जाता है, उसे स्वयं को सत्य सिद्ध करने का अवसर मिल जाता है, मन इस बार धैर्य नहीं खोता है, बस यही कहता है…

ध्यान से देखो, थोड़ा और ध्यान से...

8.9.12

विस्तार जगत का पाना है

आयाम विचारों का सीमितरह चार दीवारों के भीतर,
लगता था जान गया सब कुछअपने संसारों में जीकर,
कुछ और सिमट मैं जाता थाअज्ञान सुखद हो जाता था,
अपने घर में ही घूम रहामन आत्म-मुग्ध-मदिरा पीकर ।।१।।

करते अन्तरमन अवलोकनसंगूढ़ प्रश्न उठते जब भी,
यदि व्यथित विचारों की लड़ियाँतब लिये समस्या जीवन की,
हम चीखे थे उद्गारों कोजो भेद सके दीवारों को,
पर सुनते थे दीवारों सेअनुनाद वहीसंवाद वही ।।२।।

लगता कुछ और बड़ी दुनियाहटकर विस्तारों से घर के,
थे रमे स्वजीवन में पूरेहम घर से दूर नहीं भटके,
मनजीवन अपना चित-परिचितपर शेष प्रभावों से वंचित,
भर लेने थे सब अनुभव-घटजो रहे अधूरे जीवन के ।।३।।

वनकुंजों में कोयल कूँकेगूँजे मधुकर मधु-उपवन में,
नदियाँ कल कलझरने झर झरबँध प्रकृति पूर्ण आलिंगन में,
चिन्तन नभ में उड़ जाना थाउड़ बादल में छिप जाना था,
संग बूँद चीरते पवन-पुंजसागर ढूढ़ूँ नीरव मन में ।।४।।

मेघों का गर्जन अर्थयुक्तपृथ्वी का कंपन समझूँगा,
माँ प्रकृति छिपाये आहत मनआँखों का क्रन्दन पढ़ लूँगा,
सुन चीख गरीबीभूख भरीअँसुअन बन मन की पीर ढरी,
तन कैसे जीवन ढोता हैअध्याय हृदयगत कर लूँगा ।।५।।

यदि संस्कार क्षयमान हुयेहोती परिलक्षित फूहड़ता,
वह शक्ति-प्रदर्शनअट्टहासलख राजनीति की लोलुपता,
जीवन शापित हर राहों मेंभर कुरुक्षेत्र दो बाहों में,
कर छल-बलपल पल खेल रहीपूछूँगाकैसी जनसत्ता ।।६।।

चहुँ ओर हताशा बिखरी हैबन बीज जगत के खेतों में,
देखूँगा निस्पृहजुटे हुयेसब भवन बनाते रेतों में,
जीवन के पाँव बढ़ायेंगेअपने उत्तर पा जायेंगे,
सब चीख चीख बतलाना हैकब तक कहते संकेतों में ।।७।।

कविता संग रहते ऊब गयीउसको भी भ्रमण कराना है,
एक नयी हवाएक नयी विधाजीवन में उसके लाना है,
अभिव्यक्ति बनी थी जीवन कीबनकर औषधि मेरे मन की,
वह संग रहीपर उसको भीविस्तार जगत का पाना है ।।८।।

5.9.12

हे प्रसन्नमना, प्रसन्नता बाँटो न

अभी एक कार्यक्रम से लौटा हूँ, अन्य गणमान्य व्यक्तियों के साथ मंच पर एक स्वामीजी भी थे। चेहरे पर इतनी शान्ति और सरलता कि दृष्टि कहीं और टिकी ही नहीं, कानों ने कुछ और सुना ही नहीं। कार्यक्रम समाप्त भी हो गया, स्वामीजी कुछ बोले भी नहीं, पर उनके चेहरे के अतिरिक्त कुछ याद भी नहीं रहा, बस बालसुलभ एक हल्की सी मुस्कान। जब हमारे दिन-रात जटिल और कुटिल चेहरे देखते देखते बीतते हैं तो एक सरल चेहरा अलग सा झलकता है, भुलाया जा नहीं पाता है।

कहते हैं कि व्यक्ति की सोच उसके चेहरे में दिख जाती है, या कहें कि सोच जैसे जैसे सरल होती है, चेहरा वैसे वैसे खिलने लगता है। औरों का अहित सोचने वाले, दुखी और चिन्तित लोगों के चेहरे उनके बोलने के पहले ही उनके बारे में सब बता जाते हैं। सामने वाले का चेहरा पढ़ना अनुभव से ही आता है, बहुधा सामने वाले को देखते ही एक पूर्वानुमान हो जाता है कि व्यक्ति सच बोलने जा रहा है या झूठ का पुलिंदा लेकर आया है। मैल्कम ग्लैडवेल अपनी पुस्तक ब्लिंक में यहाँ तक कहते हैं कि ९९ प्रतिशत किसी के बारे में वही भाव सच होते हैं जो उसे देखने के बाद प्रथम दो सेकेण्ड में आपके मन में आते है।

जो भी हो, पर इस अवलोकन को आधार बना किसी के बारे में मन बना लेना भी ठीक नहीं होता है, निर्णय प्रक्रिया कभी कभी अपनी गुणवत्ता के लिये समय चाहती है। अच्छे बुरे की सीमा वाली स्थिति में मैं भले ही भ्रमित हो जाऊँ पर स्वामीजी का अन्तःकरण निर्मल और निश्छल था, इसका विश्वास कुछ ही देर में हो गया था। घर आकर तब अपना चेहरा दर्पण में ध्यान से निहारा, अधिक देर तक, तो स्वयं के बारे में न जाने कितनी बातें पता चलने लगीं। वर्तमान से असंतुष्टि, भविष्य का भय, कितना कुछ कर जाने की इच्छा, विचारबद्धता का आभाव, ऐसे न जाने कितने भाव लहरा गये। थोड़ा मुस्कराया, तो सारे भाव कुछ क्षण के लिये छिप तो गये, पर अधिक समय तक छिपे न रह पाये, पुनः सामने आकर फैल गये। सच ही है, दर्पण झूठ नहीं बोलता है, पर सच हम स्वीकार नहीं करना चाहते हैं।

चेहरे के भाव पढ़े जाते हैं और वही भाव फैलते भी हैं। यदि घर का मुखिया चिंतित रहेगा तो बच्चों पर उसका क्या प्रभाव पड़ेगा, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। तो क्या हम सब अभिनय करें कि चेहरे के भाव अच्छे आयें? काश ऐसा हो पाता, बच्चों का मन रखने के लिये हम भले ही कुछ समय के लिये मुस्करा लें पर उस बात से ध्यान हटते ही चेहरे के मूलभाव वापस चेहरे पर आ धमकते हैं। अन्दर से प्रसन्नता आये बिना चेहरा प्रसन्न दिखेगा ही नहीं।

कभी कभी जीवन में इस तरह की घटनायें किसी पूर्वनिश्चित कारण से ही होती हैं, कुछ कारण तो रहा ही होगा जिसने हमें उन तथ्यों पर विचार करने को प्रेरित किया, जो हमारे बच्चों को अहितकर संकेत दे रहे हैं। हमारे चेहरे से यदि असुरक्षा प्रसारित होती है, तो क्या हम चाहेंगे कि वही भाव हमारे बच्चों में भी आये। नहीं, हम तो यही चाहेंगे कि हमारे बच्चे या हमारे आसपास के लोग हमारे उन भावों को न पढ़ें जो हम नहीं बताना चाहते हैं। पर क्या करें, चाहें न चाहें, वे भाव छलक ही जाते हैं। अच्छा तो तब यही होगा कि हमारे चेहरे के भाव अच्छे हो और स्थायी भी, पर उसके लिये हमें अन्दर से सरल और स्पष्ट होना आवश्यक है।

कई भाव ऐसे हैं जो कृत्रिम नहीं ओढ़े जो सकते हैं। यदि घर में निर्धनता है तो मुखिया के चेहरे पर संघर्ष झलकता है, कभी कभी दुख की भी रेख दिख जाती है। वही भाव बच्चे देखते हैं और उनके अन्दर भी श्रम और संघर्ष के भाव विकसित होते हैं और जीवनपर्यन्त बने भी रहते हैं। बचपन से पाये इन्हीं भावों का समुच्चय संस्कार कहलाता है और यही हमारे जीवन का नेतृत्व भी करता रहता है।

जो सिद्धान्त घर पर लागू होता है, वही समाज, राज्य और राष्ट्र पर भी लागू होता है। मुखिया के चेहरे पर जो भाव झलकेगा, वही भाव संचारी हो जायेगा, वही भाव प्रमुख हो जायेगा। यदि जननायक की एक पुकार जनमानस को ऊर्जस्वित कर देती है तो उसके पीछे नायक के चेहरे से टपकता चरित्रजनित निष्कपट भाव अवश्य होगा। सर्वे भवन्तु सुखिनः का पाठ करना ही हमारे कर्मों की इतिश्री न हो जाये, उससे वांछित सुख फैलेगा भी नहीं। जब तक हम स्वयं प्रसन्न रहना नहीं सीखेंगे, अपने परिवार, अपने समाज और अपने देश को प्रसन्नता नहीं दे पायेंगे।

मेरा स्वयं से और आप सबसे बस यही आग्रह है कि हम इस तथ्य को भलीभाँति समझें। हम लोगों के चेहरे के भाव संक्रामक होते हैं, वातावरण का निर्धारण कर देते हैं, सकारात्मकता सकारात्मकता फैलाती है, भ्रष्टाचार भ्रष्टाचार फैलाता है। स्वामीजी के प्रसन्नमना चेहरे ने मन को जो शान्ति और स्थिरता दी है वह अवर्णनीय है, उसका एक प्रतिशत भी हमें अपने चेहरे पर नहीं दिखा। कितनी संभावनायें हैं कि हम सुख के स्थायी और स्थानीय स्रोत बन सकते हैं, उनके लिये, जिन पर हमारा प्रभाव है। यदि सबके लिये नहीं, तो कम से कम अपने बच्चों के लिये जो बचपन में हमें अपना नायक मानते हैं। हम न जाने किस भय में अपना नायकत्व खो देते हैं और हमारे बच्चे फिल्मी मायाजाल से प्रभावित होने लगते हैं, फिल्मी अभिनेताओं में अपने नायक ढूढ़ने लगते हैं।

माना कि हर क्षेत्र में आउटसोर्सिंग का समय है, पर समाज का यह मूलतत्व हम फिल्मों को न भेंट कर बैठें। अभिनेताओं से पाया नायकत्व कल्पनाओं में ही सुहाता है, जीवन की वास्तविक और कठिन परिस्थितियों में अपना रंग छोड़ देता है। अपनी जटिलतायें हमें स्वयं ही सुलझानी होंगी, अपने लिये चिन्तनशैली और जीवनशैली के श्रेष्ठतम बिन्दु खोजने होंगे, अनिश्चितता और अस्थिरता के भाव तजने होंगे, स्वयं पर और संस्कृति पर गर्व के सूत्र समझने होंगे तभी संतुष्टि, शान्ति और प्रसन्नता हमारे चेहरे से टपकेगी, वही भाव हम प्रसारित करेंगे।

का चुप साधि रहा बलवाना। अपनी क्षमता पहचानो हे प्रसन्नमना, प्रसन्नता बाँटो न।

1.9.12

बंगलोर का सौन्दर्य

जब कार्य के घंटे बहुत अधिक हो जाते हैं और आपके साथ लगे कर्मचारियों और सहयोगियों के चेहरे पर थकान झलकने लगती है, तो मुखिया के रूप में आपका एक कार्य और बढ़ जाता है, कार्य का प्रवाह बनाये रखने का कार्य। यद्यपि उत्साह बढ़ाने से कार्य की गति बढ़ती है और बनी भी रहती है, पर बार बार उत्साह बढ़ाते रहने से उत्साह भी थकने लगता है, ऊर्जा भी समझने लगती है कि अब क्षमतायें खींची जा रही हैं।

वरिष्ठों से सीखा है कि अधिक समय तक जुटे रहना है तो वातावरण को हल्का बनाये रखिये। कार्य के समय निर्णयों का निर्मम क्रियान्वयन, पर उसके बाद सबके प्रयासों का सही अवमूल्यन और सबकी समुचित सराहना। भीड़ का बढ़ना दोपहर से प्रारम्भ होता था और मध्य रात्रि के दो घंटे बाद तक ही कार्य समाप्त होता था, उस दिन के अन्तिम यात्री को विशेष गाड़ी में बैठा कर भेजने तक। चौदह घंटों तक स्टेशन पर बने रहने, वहीं पर भोजन करने और अनुभव को बाटने का क्रम तीन दिन तक चला। थकान आपके शरीर में अपना स्थान खोजने लगती है, मन को संकेत भेजती है कि अब बहुत हुआ, विश्राम का समय है। उस समय थका तो जा सकता था पर रुकना संभव नहीं था। हर थोड़े समय में परिस्थितियाँ बदल रही थीं, मन और मस्तिष्क चैतन्य बनाये रखना आवश्यक था।

पलायन के नीरव वातावरण में कोई ऐसा विषय नहीं था जो मन को थोड़ी स्फूर्ति देता। मीडिया के बन्धुओं को दूर से देख रहा था, सब के सब कैमरे में घूरते हुये भारी भारी शब्दों और भावों में डूबे पलायन के विषय को स्पष्ट कर रहे थे, सबको वर्तमान स्थिति सर्वप्रथम पहुँचाने की शीघ्रता थी, अधैर्य भी था। यात्रियों के चेहरों पर प्रतीक्षा और अनिश्चितता के भाव थे, रेलवे के बारम्बार बजाये जा रहे आश्वासन भी उन्हें सहज नहीं कर पा रहे थे। सुरक्षाकर्मी सजग थे और यात्रियों को उनके गंतव्य तक सकुशल पहुँचाने के भरसक प्रयास में लगे हुये थे, उनके लिये आपस का समन्वय ही किसी अप्रिय घटना न होने देने की प्राथमिक आवश्यकता थी। विशिष्ट कक्ष में उपस्थित मंत्रीगण व उच्च अधिकारीगण या तो परामर्श में व्यस्त थे या मोबाइल से अद्यतन सूचनायें भेजने में लगे थे। किसी को किसी से बात तक करने का समय नहीं मिल रहा था।

एक तो शारीरिक थकान, ऊपर से वातावरण में व्याप्त व्यस्तता और नीरवता, एक स्थान पर खड़ा रहना कठिन होने लगा। साथ ही साथ यह भी लगने लगा कि अन्य कर्मचारियों की भी यही स्थिति होगी। दूसरा दिन था, चार नियत गाड़ियों में से दो विशेष गाड़ी जा चुकी थीं, तीसरी जाने में दो घंटे का समय था, रात्रि का भोजन सम्मिलित स्टेशन पर ही हुआ था। प्लेटफार्म पर सभी लोग शान्त बैठे प्रतीक्षा कर रहे थे, स्थिति नियन्त्रण में लग रही थी। एक साथी अधिकारी साथ में थे, मन बनाया गया कि स्टेशन पर ही अन्य कार्यस्थलों तक घूम कर आते है और कार्यरत कर्मचारियों का उत्साह बढ़ाते हैं। किसी भी बड़े स्टेशन के दो छोरों के बीच की दूरी एक किलोमीटर से कम नहीं होती है, दोनों छोर जाकर वापस आने में दो किलोमीटर का टहलना हो जाता है।

साथी अधिकारी स्थानीय थे, यहाँ कई वर्षों से भी थे, उन्हें बंगलोर के बारे में अधिक पता था। चलते चलते बात प्रारम्भ हुयी, मेरा मत था कि यह पलायन होने के बाद बंगलोर अब पहले सा नहीं रह पायेगा, बहुत कुछ बदल जायेगा। पता नहीं जो लोग गये हैं, उनमें से कितने वापस आयेंगे? बंगलोर की जो छवि सबको समाहित करने की है, उसकी कितनी क्षति हुयी है? यदि पूर्वोत्तर से कुछ लोग वापस आ भी जायेंगे तो वो पहले जैसे उन्मुक्त नहीं रह पायेंगे। जीविकोपार्जन के लिये बंगलोर आने का उत्साह अब पूर्वोत्तर के लोगों में उतना नहीं रह पायेगा जितना अभी तक बना हुआ था? इसी तरह के ढेरों प्रश्न मन में घुमड़ रहे थे, जो अपना उत्तर चाहते थे। समय था और साथी अधिकारी के पास अनुभव भी, उन्होंने विषय को यथासंभव और बिन्दुवार समझाने का प्रयास किया और अपने प्रयास में सफल भी रहे।

उनके ही माध्यम से पता लगा था कि पूर्वोत्तर के लोग यहाँ पर किन व्यवसायों से जुड़े हैं। अन्य व्यवसायों में ब्यूटी पार्लर का ही व्यवसाय ऐसा था जिसमें उनका प्रतिशत बहुत अधिक है। उनके चले जाने से इस पर गहरा प्रभाव पड़ेगा और संभव है कि बंगलोर की सौन्दर्यप्रियता में ग्रहण लग जाये। न चाहते हुये भी विषय बड़ा ही रोचक हो चुका था क्योंकि यह हम सबको को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित करने वाला था। प्रत्यक्ष रूप से इसलिये क्योंकि यहाँ की आधी जनसंख्या यदि अपनी सौन्दर्य आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर पायेगी तो यहाँ के फूलों से प्रतियोगिता कौन करेगा भला? यदि ब्यूटी पार्लर नहीं खुले तो विवाह आदि उत्सवों में महिलाओं की उपस्थिति बहुत कम हो जायेगी। मॉल इत्यादि में उतनी चहल पहल और रौनक नहीं रहेगी जो बहुधा अपेक्षित रहती है।

शेष आधी जनसंख्या पर इसका परोक्ष प्रभाव यह पड़ने वाला था। यदि सौन्दर्य समुचित अभिव्यक्त नहीं हो पाता है तो उसका कुप्रभाव घर वालों को झेलना पड़ता है। आधी जनसंख्या सुन्दर नहीं लगेगी तो उनका मन नहीं लगेगा, मन नहीं लगा तो घर के काम और भोजन आदि बनाने से ध्यान बटेगा। पारिवारिक अव्यवस्था के निष्कर्ष बड़ा दुख देते हैं। पारिवारिक सत्यं और शिवं बिना सुन्दरं के असंभव हैं। विडम्बना ही थी कि यहाँ के सौन्दर्य के पोषक और रक्षक यहाँ से पलायन कर रहे थे और यहाँ की जनसंख्या को आने वाली पीड़ा का भान नहीं था।

जब तक इस विषय पर चर्चा समाप्त हुयी हम सबसे मिलते हुये वापस अपने स्थान पर आ चुके थे। अगली ट्रेन स्टेशन पर आने ही वाली थी। ज्ञानचक्षु खुलने के बाद लगने लगा कि यह केवल पूर्वोत्तर के लोगों की पीड़ा ही नहीं है, वरन सारे बंगलोरवासियों की पीड़ा है। ब्यूटीपार्लर के व्यवसाय से जुड़े लोगों से हमारी यही करबद्ध प्रार्थना है कि भले ही शेष लोग थोड़ा समय लेकर आये, आप लोग शीघ्र ही वापस आ जाईयेगा, पूरी संख्या में। आपके नहीं आने तक यहाँ का सामाजिक शास्त्र बड़ा ही असंतुलित रहने वाला है, बड़ा जटिल रहने वाला है।

बंगलोर का सौन्दर्य छिना जा रहा है और बिना पूर्वोत्तर के लोगों के वापस आये उसे पुनर्स्थापित करना असंभव है।

(कल ही पता चला है कि लोग वापस आने लगे हैं, आस बँधी है, बंगलोर का सौन्दर्य बना रहेगा।)