उर्वशी को व्यक्त कर पाना बड़ा ही दुविधा से भरा था मेरे लिये, लिखूँ कि न लिखूँ? यदि नहीं लिखता हूँ तो उर्वशीकथा में केवल नर पक्ष रखने का आक्षेप सहता हूँ, और यदि लिखता हूँ तो इस विषय में अपनी अनुभवहीनता प्रसारित करता हूँ। अनुभवहीनता इसलिये कि बिना नारी हुये 'कामना-वह्रि की शिखा' जैसा विषय समझा ही नहीं जा सकता है। यह जानता हूँ कि न्याय नहीं कर पाऊँगा और अन्ततः बात नारी के बारे में नर के दृष्टिकोण तक ही सीमित रह जायेगी। दुविधा जब भी लिखने या न लिखने की होगी, मैं तो लेखन को ही चुनूँगा, थोड़ी राह दिनकर दिखायेंगे, थोड़ी राह आप लोग।
दिनकर की दी उपमाओं में बस यही एक उपमा नारी के प्रति मेरी समझ के निकटतम है। अर्थ है, कामना की अग्नि की शिखा, लहराती लपटों के सम्मोहन जैसी, अनवरुद्ध, अप्रतिहत, दुर्निवार। नारी को समझा जा सकता है, पर क्या करूँ, उसकी उपमा अग्नि की लपट से की गयी है, जो शीर्ष पर उन्मत्त तो लहराती है, पर कभी स्थिर नहीं रहती है। उसे पकड़ने के प्रयास व्यर्थ हैं, उसे पकड़ेंगे, वह छिटक कर दूर लहराने लगेगी। आग की लपटों से घिरा यह अंगार तो बस तभी पढ़ा जा सकता है जब वह अपनी लपटें समेट अपना हृदय खोले। नारी के हृदय की साँकल बाहर से नहीं खोली जा सकती है, उसका तो द्वार बस अन्तःपुर से खुलता है। उसका हृदय बलपूर्वक खोलने का प्रयास करने वाले, अग्नि की उस लपट का सौन्दर्य नहीं लख पाते हैं, उनके हाथ बस शीत शरीर की राख पड़ती है, मूल्यहीन, मूर्तहीन, प्राणहीन, तत्वहीन।
बहुत लिखा गया है और उससे भी अधिक समझा गया है यह विषय, पर जब उर्वशी अपना परिचय स्वयं देती है तो देहभाव और तद्जनित अाकर्षण क्षीण पड़ने लगता है। दिनकर ने उर्वशी के माध्यम से उन सारी भावनाओं और उत्कण्ठाओं को प्रस्तुत किया है जो नारी को सृष्टि में अतिविशिष्ट स्थान दे देती हैं, वह स्थान जिसके चतुर्दिक प्रकृति अपना ताना बाना बुनने में सक्षम हो पाती है। उर्वशी ने प्रेयसी के रूप में ही स्वयं को व्यक्त किया है अतः चर्चा उसी रूप तक सीमित रह पायेगी। नारी को देह तक समझ पाने वाले संभवतः वह स्वरूप न समझ पायें पर नारीत्व की थोड़ी गहन अभिव्यक्ति में वे सब किरणें किसी जल की सतह पर नाचती हुयी सी दिखती हैं।
उर्वशी कहती है कि नारी का उद्भव समस्त जगत की इच्छाओं की परिणति है, एक ऐसा उपहार है जिसके सानिध्य में इच्छाओं को तृप्ति का वरदान मिलता है। विज्ञान इस बात को मानेगा नहीं, उसकी दृष्टि में तो नर, नारी और उनके बीच का आकर्षण, सब के सब परमाणुओं की करोड़ों वर्षों की उछलकूद से बने हैं। विज्ञान को इस विषय में किसी नियत कारण की उपस्थिति नहीं दिखती है। जैसे भी यह स्थिति पहुँची हो, पर सृष्टि के चक्र का मूलभूत कारण उर्वशी के इसी वाक्य में छिपा है। रूप, रंग, रस और गंध के जितने भी स्रोत हैं, जितने भी आकार हैं, नारी को उन सब के साथ संबद्ध किया जा सकता है। क्या रहस्य है, जानने के प्रयास रहस्य सुलझाते कम है, रहस्य को गहरा कर जाते हैं, थक कर नर बैठ जाता है, काश कामना-वह्नि की शिखा स्थिर हो जाये, स्वयं को व्यक्त कर दे, स्वयं को सुलझा दे।
फेनभरी सर्पिल लहरों के शिखर पर नाचती झलमल है नारी, पूर्णिमा चाँदनी की तरंगित आभा है नारी, अम्बर में उड़ती हुयी मुक्त आनन्द शिखा है नारी, सौन्दर्य की गतिमान छटा है नारी। जब नर का हृदय अपनी अग्नि से भर आता है तो उस कामना-तरंग से खिंची हुयी नारी कल्पना लोक से भूमि पर उतर आती है, नर के सर को अपने उर में रखकर उसके भीतर की अग्नि को अश्रु बना बहाने के लिये, उसे उद्विग्नता से उबारने के लिये। बर्बर, निर्मम, हिंस्र, मदमत, सब के सब अपना स्वभाव भूल नारी के सामने निरीह हो जाते हैं, जगत जीतने वाले स्वयं को हार जाने को तत्पर रहते हैं, झुकना सीख जाते हैं। नारी उर एक विस्तृत सिन्धु के बीच आश्रय का छोटा सा द्वीप सा है, जहाँ थकान की सारे पथ आ विश्राम पाना चाहते हैं। नर के हृदय में देवों से अधिक नारी पूजी जाती है। साहित्य संगीत और कला में भी नर की यही आतुरता ही उभर उभरकर छलकती है।
नारी का परिचय या तो वह दे सकता है जिसने प्रकृति रची, या वह इच्छायें दे सकती हैं जो उस पर आश्रय पाती हैं। नारी अपने प्रभुत्व को धरती से जकड़ कर रखती है, प्रकृति के सर्वाधिक निकट है नारी का अस्तित्व, प्रकृति की गतिमयता का आधार है नारी। यदि उद्भव सिद्ध न कर पायें, तो नारी तत्व की अनुपस्थिति की कल्पना मात्र कर लें हम, सब का सब जगत ध्वस्त सा दिखायी पड़ता है तब।
अजब बात है, विश्व के दो प्रमुख नियामक, धर्म और विज्ञान इस आकर्षण को समझ सकने में अक्षम हैं। एक तो इसे हारमोन्स जैसे निर्जीव तत्वों पर ठेल कर निकल लेता है। हारमोन्स यदि इस आकर्षण को परिभाषित करने लगें, मानव मन का निष्प्रायोजनीय उत्पीड़न क्यों? हारमोन्स यदि नर की अग्नि को परिभाषित करने लगें, तो इतना संघर्ष क्यों? हो सकता है कि कोई औषधि मन की चेतना को थोड़े समय के लिये अवरुद्ध कर दे, पर मन में भाव कभी मिटता नहीं है, रह रहकर उमड़ता है। यही लगता है कि यह आकर्षण प्रकृति के आवश्यक और मूलभूत तत्वों में एक है, या कहें कि प्रमुखतम है। वहीं दूसरी ओर धर्म में भी या तो नारी को चिर आश्रिता माना गया है या मार्ग में बाधक। न वह शक्ति में श्रेष्ठ, न ही अध्यात्म में। विडम्बना है, किनारे प्रवाह के बारे में निर्णय सुनाते हैं और हम मूढ़ की तरह उन्हें सच मान बैठते हैं। प्रवाह को समझा नहीं, स्वतन्त्र दृष्टि से जाना नहीं, तो कैसे नियम और कैसे निर्णय?
प्रकृति चतुर है, अपने संचालन के तत्व उद्धाटित नहीं करती है। नर की अग्नि जगत को मथती है, नर की अग्नि को नारी नियन्त्रित करती है, नारी को प्रकृति ने तब किन गुणों से सुसज्जित कर रखा है, इस बारे में पुरुरवा जैसे नर भी भ्रमित ही रहते हैं, लहराती लपटों के सम्मोहन में अस्थिर, आश्रित और अकुलाये, चिर काल से चिर काल तक।
नारी प्रकृति का विजयनाद है।
दिनकर की दी उपमाओं में बस यही एक उपमा नारी के प्रति मेरी समझ के निकटतम है। अर्थ है, कामना की अग्नि की शिखा, लहराती लपटों के सम्मोहन जैसी, अनवरुद्ध, अप्रतिहत, दुर्निवार। नारी को समझा जा सकता है, पर क्या करूँ, उसकी उपमा अग्नि की लपट से की गयी है, जो शीर्ष पर उन्मत्त तो लहराती है, पर कभी स्थिर नहीं रहती है। उसे पकड़ने के प्रयास व्यर्थ हैं, उसे पकड़ेंगे, वह छिटक कर दूर लहराने लगेगी। आग की लपटों से घिरा यह अंगार तो बस तभी पढ़ा जा सकता है जब वह अपनी लपटें समेट अपना हृदय खोले। नारी के हृदय की साँकल बाहर से नहीं खोली जा सकती है, उसका तो द्वार बस अन्तःपुर से खुलता है। उसका हृदय बलपूर्वक खोलने का प्रयास करने वाले, अग्नि की उस लपट का सौन्दर्य नहीं लख पाते हैं, उनके हाथ बस शीत शरीर की राख पड़ती है, मूल्यहीन, मूर्तहीन, प्राणहीन, तत्वहीन।
उर्वशी कहती है कि नारी का उद्भव समस्त जगत की इच्छाओं की परिणति है, एक ऐसा उपहार है जिसके सानिध्य में इच्छाओं को तृप्ति का वरदान मिलता है। विज्ञान इस बात को मानेगा नहीं, उसकी दृष्टि में तो नर, नारी और उनके बीच का आकर्षण, सब के सब परमाणुओं की करोड़ों वर्षों की उछलकूद से बने हैं। विज्ञान को इस विषय में किसी नियत कारण की उपस्थिति नहीं दिखती है। जैसे भी यह स्थिति पहुँची हो, पर सृष्टि के चक्र का मूलभूत कारण उर्वशी के इसी वाक्य में छिपा है। रूप, रंग, रस और गंध के जितने भी स्रोत हैं, जितने भी आकार हैं, नारी को उन सब के साथ संबद्ध किया जा सकता है। क्या रहस्य है, जानने के प्रयास रहस्य सुलझाते कम है, रहस्य को गहरा कर जाते हैं, थक कर नर बैठ जाता है, काश कामना-वह्नि की शिखा स्थिर हो जाये, स्वयं को व्यक्त कर दे, स्वयं को सुलझा दे।
फेनभरी सर्पिल लहरों के शिखर पर नाचती झलमल है नारी, पूर्णिमा चाँदनी की तरंगित आभा है नारी, अम्बर में उड़ती हुयी मुक्त आनन्द शिखा है नारी, सौन्दर्य की गतिमान छटा है नारी। जब नर का हृदय अपनी अग्नि से भर आता है तो उस कामना-तरंग से खिंची हुयी नारी कल्पना लोक से भूमि पर उतर आती है, नर के सर को अपने उर में रखकर उसके भीतर की अग्नि को अश्रु बना बहाने के लिये, उसे उद्विग्नता से उबारने के लिये। बर्बर, निर्मम, हिंस्र, मदमत, सब के सब अपना स्वभाव भूल नारी के सामने निरीह हो जाते हैं, जगत जीतने वाले स्वयं को हार जाने को तत्पर रहते हैं, झुकना सीख जाते हैं। नारी उर एक विस्तृत सिन्धु के बीच आश्रय का छोटा सा द्वीप सा है, जहाँ थकान की सारे पथ आ विश्राम पाना चाहते हैं। नर के हृदय में देवों से अधिक नारी पूजी जाती है। साहित्य संगीत और कला में भी नर की यही आतुरता ही उभर उभरकर छलकती है।
नारी का परिचय या तो वह दे सकता है जिसने प्रकृति रची, या वह इच्छायें दे सकती हैं जो उस पर आश्रय पाती हैं। नारी अपने प्रभुत्व को धरती से जकड़ कर रखती है, प्रकृति के सर्वाधिक निकट है नारी का अस्तित्व, प्रकृति की गतिमयता का आधार है नारी। यदि उद्भव सिद्ध न कर पायें, तो नारी तत्व की अनुपस्थिति की कल्पना मात्र कर लें हम, सब का सब जगत ध्वस्त सा दिखायी पड़ता है तब।
अजब बात है, विश्व के दो प्रमुख नियामक, धर्म और विज्ञान इस आकर्षण को समझ सकने में अक्षम हैं। एक तो इसे हारमोन्स जैसे निर्जीव तत्वों पर ठेल कर निकल लेता है। हारमोन्स यदि इस आकर्षण को परिभाषित करने लगें, मानव मन का निष्प्रायोजनीय उत्पीड़न क्यों? हारमोन्स यदि नर की अग्नि को परिभाषित करने लगें, तो इतना संघर्ष क्यों? हो सकता है कि कोई औषधि मन की चेतना को थोड़े समय के लिये अवरुद्ध कर दे, पर मन में भाव कभी मिटता नहीं है, रह रहकर उमड़ता है। यही लगता है कि यह आकर्षण प्रकृति के आवश्यक और मूलभूत तत्वों में एक है, या कहें कि प्रमुखतम है। वहीं दूसरी ओर धर्म में भी या तो नारी को चिर आश्रिता माना गया है या मार्ग में बाधक। न वह शक्ति में श्रेष्ठ, न ही अध्यात्म में। विडम्बना है, किनारे प्रवाह के बारे में निर्णय सुनाते हैं और हम मूढ़ की तरह उन्हें सच मान बैठते हैं। प्रवाह को समझा नहीं, स्वतन्त्र दृष्टि से जाना नहीं, तो कैसे नियम और कैसे निर्णय?
प्रकृति चतुर है, अपने संचालन के तत्व उद्धाटित नहीं करती है। नर की अग्नि जगत को मथती है, नर की अग्नि को नारी नियन्त्रित करती है, नारी को प्रकृति ने तब किन गुणों से सुसज्जित कर रखा है, इस बारे में पुरुरवा जैसे नर भी भ्रमित ही रहते हैं, लहराती लपटों के सम्मोहन में अस्थिर, आश्रित और अकुलाये, चिर काल से चिर काल तक।
नारी प्रकृति का विजयनाद है।
Being a woman, I nodded on most of the lines there. Fourth last paragraph depicted the essence of women. Very finely worded, interesting and a though provoking read.
ReplyDeleteprabhavshali prastuti .blog jagat ke liye sangrahniy.aabhar
ReplyDeleteजन्म अष्टमी पर शुभकामनाएं |
अन्ना टीम: वहीँ नज़र आएगी
तुलसी को मत भूलिए -
ReplyDeleteदीप शिखा सम युवति तन मन जन होऊ पतंग .....यही सूत्र है .....
नारी आकर्षण सहज है ,सृष्टि का करार और कारण है ..मगर भेद भटकाव का भी उपादान
बच के रहना रे बाबा बच के रहना .. :-)
विज्ञान और धर्म से अलग नारी ह्रदय की सुन्दरतम व्याख्या प्रस्तुत करती पोस्ट, एक अलग से दृष्टिकोण से कही गई बातें जो सही अर्थ में स्त्री को प्रकृति से जोड़कर परिभाषित करती है.....
ReplyDeleteउत्कृष्ट रचना / शोध |
ReplyDeleteटीका / टिप्पणी किये जाने के स्तर से ऊपर |
कक्षा ८ या ९ में अंग्रेजी के क्लास में एक बार यूं ही ज्ञान प्राप्त हुआ था कि 'पुरुष तो स्त्रियों में ही निहित और समाहित होते हैं' इसीलिए अंग्रेजों ने स्त्रियों की वर्तनी अंग्रेजी में ऐसी ही रखी है शायद , यथा : wo(man) , (lad)y , m(adam) और भी अनेक शब्द हैं भूल सा रहा हूँ अभी |
नारी के आकर्षण को कभी भी नाकारा नहीं जा सका है किन्तु यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि यह एक विकृति का रूप ले रहा है
ReplyDeleteअपने पोस्ट में आपने नारी ह्रदय का जो चित्रण किया है अद्भुत है
बहुत ही उम्दा पोस्ट
नारी को समझना कठिन इसलिए है कि वह स्वयं में अव्यक्त है.नर में हल्कापन कहें या सहजता कहें,जल्द प्रकट हो जाता है पर नारी बड़े-बड़े रहस्यों,आघातों और शक्तियों से युक्त होती है.इसका ओर-छोर पकड़ने की चेष्टा करना ही व्यर्थ है.
ReplyDeleteनारी सहज प्यार को पहचानती है,छले जाने पर असहाय भी होती है,निर्मम भी !
नारी का उद्भव समस्त जगत की इच्छाओं की परिणति है, एक ऐसा उपहार है जिसके सानिध्य में इच्छाओं को तृप्ति का वरदान मिलता है।
ReplyDeleteउत्कृष्ट प्रस्तुति,,,,
बढ़िया विश्लेषण |
ReplyDeleteनारीवादियों को भी आप पर गर्व होगा |
हमें तो बेहद प्रभावित हैं -
रूप, रंग, रस और गंध के जितने भी स्रोत हैं, जितने भी आकार हैं, नारी को उन सब के साथ संबद्ध किया जा सकता है।
बर्बर, निर्मम, हिंस्र, मदमत, सब के सब अपना स्वभाव भूल नारी के सामने निरीह हो जाते हैं, जगत जीतने वाले स्वयं को हार जाने को तत्पर रहते हैं, झुकना सीख जाते हैं।
धर्म और विज्ञान-
चिर आश्रिता या मार्ग में बाधक / हारमोन्स
आधी रची कुंडली छोड़ दी-
कहीं अर्थ का अनर्थ न हो जाये-
और ---
हम तो बेहद प्रभावित हैं
Deleteअद्भुत श्रंखला.
ReplyDeleteनारी जीवंत प्रकृति है, जिसे कलुषित विचारों के प्रदूषण से नहीं समझ सकते
ReplyDeleteआपकी यह श्रंखला ज्ञानवर्धक एवं उच्चकोटि की है जिसका प्रस्तुतिकरण सराहनीय है ... आभार
ReplyDeleteनारी प्रकृति का विजयनाद है।...प्रवीण जी आप के इस उच्चकोटि की ज्ञानवर्धक श्रंखला सच में अद्भुत है...जन्म अष्टमी पर शुभकामनाएं |
ReplyDeleteअद्भुत चिंतन!!
ReplyDeletepraveen sir ,ek naari hu aur asa sab padhkar garv hota hai mujhe sirf accha accha padhne ke karan nahi islie bhi ki aap jaise log hai duniya me jo naari ke lie itne behtareen vichar prastut kar rahe hain....bahut acchi post
ReplyDeleteनारी को समझने में देह तो एक शुरुआत है ... मन और आत्मा और उस से भी परे जाना होता है समझने के लिए ... गहन अध्यन कर रहे हैं आप इस विषय पर ...
ReplyDeleteWell , हजारों साल के अध्ययनों के बाद भी नारी को समझना इतना कठिन क्यों है, उसके लिए मेरे पास एक ही स्पष्ठीकरण है कि जब नारी कहे कि nothing is wrong तो समझ लीजिये कि everything is wrong. :)
ReplyDeleteनारी के हृदय की साँकल बाहर से नहीं खोली जा सकती है, उसका तो द्वार बस अन्तःपुर से खुलता है।...
ReplyDeleteसत्य का सुन्दर विवेचन...
---बहुत सुन्दर व अलंकृत भाषा व शैली में विवेचना की गयी है ....साधुवाद ...
ReplyDeleteप्रश्न है......"प्रकृति चतुर है, अपने संचालन के तत्व उद्धाटित नहीं करती है। नर की अग्नि जगत को मथती है, नर की अग्नि को नारी नियन्त्रित करती है, नारी को प्रकृति ने तब किन गुणों से सुसज्जित कर रखा है,"..
---यह तत्व-दर्शन का प्रश्न है....
----नारी स्वयं प्रकृति ही है वह अपने संचालन सूत्र उद्घाटित कर ही नहीं सकती ...वस्तुतः उसे (प्रकृति को) स्वयं ही ज्ञात नहीं कि उसके संचालन सूत्र कहाँ से उद्घाटित होते हैं,प्रकृति जड है, पुरुष -ब्रह्म ही उसमें चेतनता संधान करता है ...
----वह ब्रह्म है जो प्रकृति को सूत्रवत संचालित करता है सृष्टि-संचालन हेतु ..इसीलिये वैदिक दर्शन में प्रकृति व संसार को अज्ञान कहा गया है, नारी को भी... | नर, ब्रह्म का व्यक्त-जीव रूप है जो संसार-सृष्टि हेतु स्वयं को माया, प्रकृति या नारी रूप बंधन में बांध लेता है.... पर सदा मुक्ति हेतु छटपटाता रहता है..और जैसे ही मौक़ा मिलता है भाग लेता है...
"ब्रह्म की इच्छा माया नाचे जीवन जग मुस्काए |
मायावश बन ब्रह्म जीव, माया में ही बंध जाए |
जीव रूप जब बने ब्रह्म तब माया नाच नचाये |
रेशम कीट स्वयं धागे बुनि स्वयं ही उलझा जाए |"
--- नारी के अन्तःपुर की सांकल खुलती ही है नर के सान्निध्य से... कामना-वह्नि की शिखा के कभी स्पष्ट न होने का यही कारण है कि प्रकृति या नारी को स्वयं ही उसकी गति का ज्ञान नहीं होता ... इसीलिये तो सदैव ही, हर युग में नारी ...प्रायः बिना सोचे-समझे नर के पीछे चल देती है ... कष्ट उठाने हेतु ...
---विज्ञान अभी अधूरा है..वह सदा अधूरा रहता है इसीलिये उसे वैदिक-दर्शन में अज्ञान कहा गया है ...धर्म व्यावहारिक जीवन दर्शन है इसलिए वह इस विषय पर सांकेतिकता ग्रहण करता है, इसीलिये इनमें ये उत्तर नहीं मिल पाते ... परन्तु तत्व-दर्शन ने इस विषय व तथ्य को वर्णित किया है ...वैदिक साहित्य में....
इतनी गहन विचार को जिस धरा प्रवाह के साथ आपने लिखा है, न सहमत होने वाला भी सहमत हो जाए..
ReplyDeleteबेहतरीन रचना नारी शक्ति को दर्शाती..
नारी के पूजनीय होने का यथार्थ समझ में आया
ReplyDeleteउत्तम
ReplyDelete--- शायद आपको पसंद आये ---
1. Advance Numbered Page Navigation ब्लॉगर पर
2. ग़ुबार साफ़ करो आईने की आँखों से
3. तख़लीक़-ए-नज़र
अद्भुत चिंतन. प्रवाहमय और सम्पूर्ण आलेख .
ReplyDeleteनारी के हृदय की साँकल बाहर से नहीं खोली जा सकती है, उसका तो द्वार बस अन्तःपुर से खुलता है।...
ReplyDeleteसुन्दर और गहन चिंतन !!
रोचक. वैसे यदि उसे एक व्यक्ति मान लिया जाए तो अधिकतर समस्याएं खत्म हों जाएँ.
ReplyDeleteघुघूतीबासूती
कोई भी प्रवाह समझने के लिए नहीं होती बल्कि पूरी तरह से बहने के लिए होती है..जो बहे सो ही जाने..
ReplyDeleteनारी प्रकृति का विजयनाद है………अति उत्तम श्रंखला चल रही है रहस्यवाद की परतों को खोलती।
ReplyDeleteएक बेहतरीन और यादगार पोस्ट के लिए सर बहुत -बहुत बधाई |
ReplyDeleteसत्य ही रहता नहीं यह ध्यान ,तुम ,कविता ,कुसुम या कामिनी हो .......प्रकृति नटी सा आकर्षण लिए है नारी......स्वभाव से चंचल निश्छल पुरुष उसके आकर्षण से बिंध जाता है आबद्ध रहता है .सुन्दर मनोहर व्याख्या अंतर मन की नारी की अन्तश्चेतना की ...
ReplyDeleteरोचक लगी यह श्रृंखला।
ReplyDeleteअद्भुत....
ReplyDelete"विश्व के दो प्रमुख नियामक, धर्म और विज्ञान इस आकर्षण को समझ सकने में अक्षम हैं।"...Very True..! Fantastic Article!
ReplyDeleteबहुत कुछ पढ़ने को मिला.
ReplyDeleteदेश और काल की परिधियों में कितने समीकरण इन संबंधों के, और हर बार समाधान हेतु एक नया सूत्र !
आपकी पोस्ट कल 9/8/2012 के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
ReplyDeleteकृपया पधारें
चर्चा - 966 :चर्चाकार-दिलबाग विर्क
काफी कुछ सीखने/समझने को मिल रहा है आपकी इस श्रृंखला से।
ReplyDeleteबहुत ही गहन शोध, प्रभावित करने वाली पोस्ट!!
ReplyDeleteनर की अग्नि को नारी ही संतुलित करती है !
ReplyDeleteगहन दृष्टि , विचारमंथन को सरल भाषा में प्रस्तुत करने के लिए आभार !
उत्कृष्ट रचना !
उर्वशियों को ही समर्पित थी यह पोस्ट .शुक्रिया ....
ReplyDeleteऔरतों के लिए भी है काइरोप्रेक्टिक चिकित्सा प्रणाली ....
उर्वशी अब बहुत हो गयी।
ReplyDeleteबर्बर, निर्मम, हिंस्र, मदमत, सब के सब अपना स्वभाव भूल नारी के सामने निरीह हो जाते हैं, जगत जीतने वाले स्वयं को हार जाने को तत्पर रहते हैं, झुकना सीख जाते हैं। नारी उर एक विस्तृत सिन्धु के बीच आश्रय का छोटा सा द्वीप सा है, जहाँ थकान की सारे पथ आ विश्राम पाना चाहते हैं।
ReplyDeleteबहुत सुंदर और सटीक विश्लेषण .... आपका लेखन हमेशा प्रभावित करता है ... आभार
’उर्वशी’ का सत्य—नारी प्रकृति का विजयनाद है.
ReplyDeleteप्रस्तुतिकरण सराहनीय है ... आभार
ReplyDeleteनर की अग्नि जगत को मथती है, नर की अग्नि को नारी नियन्त्रित करती है इसीस से जीवन रथ चलता है !
ReplyDeleteईश्वर की इस रचना को शायद केवल वही समझ सकता है।
ReplyDeleteHi,
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Sanjeev Jha
नारी प्रकृति का विजयनाद है...
ReplyDeleteऔर पुरुष...?
बलशाली शरीर और अविकसित मस्तिष्क के साथ प्रकृति के उस विजयनाद पर विजय का झूठा अहसास लिए जिंदगी बिता देता है... कितने खोखले हैं हम पुरुष भी...
पुनश्च:, मैं नारीवादी नही हूँ.
प्रवीण भाई आप जैसे कद्र दान ही इस कारवाँ को चलाये हुए हैं .हम यूं ही लिखते रहेंगे यह श्रृंखला ज़ारी है कृपया पधारें -
ReplyDeleteशनिवार, 11 अगस्त 2012
कंधों , बाजू और हाथों की तकलीफों के लिए भी है का -इरो -प्रेक्टिक
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फाइबरो -मायाल्जिया का भी इलाज़ है काइरोप्रेक्टिक म...(प्रकाशनाधीन ...)
अद्भुत वर्णन!
Deleteविचारों को उद्वेलित करता बहुत ही सारगर्भित और उत्कृष्ट विवेचन...
ReplyDeleteउत्कृष्ट...सारगर्भित विवेचन...
ReplyDeleteशुक्रिया प्रवीण भाई !अगला आलेख आपके लिए तैयार है - फाइबरो -मायाल्जिया का भी इलाज़ है काइरोप्रेक्टिक म...,तेरह तारीख की सुबह पढियेगा .
ReplyDelete.बहुत उत्कृष्ट रचना भाव जगत को रागात्मक आधार देती रचना .अगला आलेख TMJ SYNDROME AND CHIROPRACTIC.
ReplyDelete