किसी काम को करूँ, ना करूँ, कानाफूसी चलती है,
बुद्धि कहे यदि, कर भी डालो, मन की राय बदलती है,
सुबह आँख खुलती, मन कहता, सो जाओ तुम थके बहुत,
शुभ विचार के सम्मुख नित ही तर्कों की सेना प्रस्तुत,
मन करता है रोज लड़ाई, बहका है, अलबेला है,
सचमुच भैया, जीवन जीना, बड़ा अनूठा खेला है।
मन चंचल है, नित नित साधन, नये नये ले आता है,
बुद्धि तर्क में, अनुभव में जा, अपना ज्ञान बढ़ाता है,
मन गतिमान, बुद्धि है स्थिर, अपने में मदमाये दो,
दोनों ही हैं अति आवश्यक, रहते मान बढ़ाये दो,
नहीं कोई भी हाथ बटाता, रहता आत्म अकेला है,
सचमुच भैया, जीवन जीना, बड़ा अनूठा खेला है।
दोनों की मैं सुन लेता हूँ, दोनों की मैं सहता हूँ,
तट हैं दो, मैं भी तटस्थ हो, धीरे-धीरे बहता हूँ,
बढ़ता जाता इसी आस में, दोनों के संचार सहज हों,
मिलजुल कर जीते दुविधायें, दोनों के विस्तार वृहद हों,
दो जीवट हैं और हृदय में आशाओं का मेला है,
दो जीवट हैं और हृदय में आशाओं का मेला है,
सचमुच भैया, जीवन जीना, बड़ा अनूठा खेला है।
सही चित्रण- इन्हीं द्विधाओं के साथ चलना मनुष्य की नियति है!
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर कविता मनभावन सावन की तरह सर बधाई |
ReplyDeleteजीवन जीना बड़ा अनूठा खेला है ...सच ही !
ReplyDeleteतट हैं दो, मैं भी तटस्थ हो, धीरे-धीरे बहता हूँ-
ReplyDeleteक्या कहने ? वाह ....
चिर द्वंद्व :-)
तटों में बंटते, तटों को जोड़ते सार्थक बहाव.
ReplyDeleteसुबह-सुबह मन प्रसन्न हो गया। आज दिन अच्छा बीतेगा। सुंदर कविताई के लिए बहुत बधाई।
ReplyDeleteयही तो दुविधा है ,नहीं कोई विधा है |
ReplyDeleteजब हो स्थिति असमंजस की ,
न सुनू बुद्धि की और न मन की ,
छोड़ दोनों तट बह जाऊं धारा जग की |
कभी पढ़ा था कि 'water and electricity are good servants but bad masters' मन के लिए भी यही कह सकते हैं| आत्मा रथ, मन घोड़े, विवेक चाबुक| चाबुक सही तो घोड़े वश में और रथ सही दिशा में अग्रसर और चाबुक बेअसर तो घोड़े निरंकुश और रथ? मत पूछिए ..
ReplyDeleteकिसी काम को करूँ, ना करूँ, कानाफूसी चलती है,
ReplyDeleteबुद्धि कहे यदि, कर भी डालो, मन की राय बदलती है,
सरस, सरल प्रवाह लिए इस रचना ने दिल जीत लिया ! इन निर्दोष रचनाओं को बाहर निकालिए प्रवीण भाई !
मन से परे भी एक शोर होता है ... तठस्थ हो बढ़ना होता है
ReplyDeleteजीवन में एकरसता भी तो ठीक नहीं !
ReplyDeleteदोनों की मैं सुन लेता हूँ, दोनों की मैं सहता हूँ,
ReplyDeleteतट हैं दो, मैं भी तटस्थ हो, धीरे-धीरे बहता हूँ,
मन और मस्तिष्क दोनों की ही सुननी पड़ती है .... तभी जीवन सहजता से चल पाता है ... सुंदर अभिव्यक्ति
अनूठी रचना.
ReplyDeleteमन मस्तिष्क के अजब द्वन्द लिए जीवन का खेला ...... बहुत सुंदर
ReplyDeleteतट हैं दो, मैं भी तटस्थ हो, धीरे-धीरे बहता हूँ,
ReplyDeleteप्रवीण भैय्या ...... आनंद आ गया
इन्हीं द्विधाओं के साथ जीना है जीवन..बहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत सुंदर... आज कविता में भी आपका यह रूप बहुत अच्छा लगा...
ReplyDeleteबहुत सुंदर... आज कविता में भी आपका यह रूप बहुत अच्छा लगा...
ReplyDeleteदिल और दिमाग के द्वंद्ध में कभी इसकी जीत , कभी उसकी . यह दुविधा तो हमेशा बनी रहती है .
ReplyDeleteदो जीवट हैं और हृदय में आशाओं का मेला है,
ReplyDeleteसचमुच भैया, जीवन जीना, बड़ा अनूठा खेला है।
दिमाग में यह द्वंद तो हमेशा चलता रहता है ,,,,बेहतरीन प्रस्तुति,,
RECENT POST काव्यान्जलि ...: रक्षा का बंधन,,,,
मन गतिमान, बुद्धि है स्थिर, अपने में मदमाये दो,
ReplyDeleteनहीं कोई भी हाथ बटाता, रहता आत्म अकेला है,
तट हैं दो, मैं भी तटस्थ हो, धीरे-धीरे बहता हूँ,
एक बोधदायक अभिव्यक्ति!!
मन बुद्धि दोनो आत्म के नियंत्रण में हो सार्थक!!
सचमुच भैया, जीवन जीना, बड़ा अनूठा खेला है………यही जीवन है
ReplyDeleteअसमंजस का खेल , कोई पास कोई फेल . सुँदर अभिव्यक्ति .
ReplyDeleteचलना तो फिर भी जीवन की रीत है ... मन को साधना जरूरी है ...
ReplyDeleteतट हैं दो, मैं भी तटस्थ हो, धीरे-धीरे बहता हूँ,
ReplyDeleteबढ़ता जाता इसी आस में, दोनों के संचार सहज हों,
मिलजुल कर जीते दुविधायें, दोनों के विस्तार वृहद हों,
बहुत ही बढिया ...
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (05-08-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (05-08-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
मन तो आख़िर मन है
ReplyDeleteदिल और दिमाग की उलझन ही तो असली झमेला है... कभी कोई सही होता है, तो कभी कोई...
ReplyDeleteक्या प्रवाह क्या भाव अनोखे, क्या शब्दों का मेला है |
ReplyDeleteकरूँ कहे मन, दिल न माने, सचमुच बड़ा झमेला है |
बूंद लम्बवत चली तरंगे, रिमझिम रिमझिम रेला है |
चले जिन्दगी इसी तरह से, रविकर ठेलिम-ठेला है ||
दो जीवट हैं और हृदय में आशाओं का मेला है,
ReplyDeleteसचमुच भैया, जीवन जीना, बड़ा अनूठा खेला है।
Kis,kis andaazme jeevan ka bayan kiya gaya hai!
जीवन जीना, बड़ा अनूठा खेला है....भैयाजी!
ReplyDeleteAwesome..I love simple words and that made miracle here..Loved it, Pravin bhai! Wakai jeevan ek dvand hi hain.
ReplyDeleteES RACHNA KE SWAGTARHT MERI DO PANKTIYA"RAVIKAR JI TUM DHANYA HO, DHANYA TUMHARE KHEL, APRIMEY HAR KON TUMHARA FIR BHI THELAM-THEL"
ReplyDeleteदोनों की मैं सुन लेता हूँ, दोनों की मैं सहता हूँ,
ReplyDeleteतट हैं दो, मैं भी तटस्थ हो, धीरे-धीरे बहता हूँ,
बढ़ता जाता इसी आस में, दोनों के संचार सहज हों,
मिलजुल कर जीते दुविधायें, दोनों के विस्तार वृहद हों,
दो जीवट हैं और हृदय में आशाओं का मेला है,
सचमुच भैया, जीवन जीना, बड़ा अनूठा खेला है।
"दिस और देट "भौतिक द्वंद्व ,दिल की मानू या दिमाग की .....तटस्थ हो दृष्टा भाव देखा है जीवन बनके सरिता की अविकल ,धारा ....असल बात है जीना ,सार्थक समझना ,माना जाना बेहतरीन विचार कविता .
ram ram bhai
रविवार, 5 अगस्त 2012
आपके श्वसन सम्बन्धी स्वास्थ्य का भी समाधान है काइरोप्रेक्टिक (चिकित्सा व्यवस्था )में
आपके श्वसन सम्बन्धी स्वास्थ्य का भी समाधान है काइरोप्रेक्टिक (चिकित्सा व्यवस्था )में
कृपया यहाँ पधारें -http://veerubhai1947.blogspot.de/
दोनों की मैं सुन लेता हूँ, दोनों की मैं सहता हूँ,
ReplyDeleteतट हैं दो, मैं भी तटस्थ हो, धीरे-धीरे बहता हूँ,
क्या बात कही है आपने जिन्दगी का फलसफा ही स्पष्ट कर दिया
उम्दा लेखन
मन की चंचलता और दिमाग की तार्किकता. बढ़िया सामंजस्य बनाया है. बहुत सुंदर.
ReplyDeleteतट हैं दो, मैं भी तटस्थ हो, धीरे-धीरे बहता हूँ,
ReplyDeleteबढ़ता जाता इसी आस में, दोनों के संचार सहज हों,
मिलजुल कर जीते दुविधायें, दोनों के विस्तार वृहद हों,बहुत सुन्दर भाव ...शानदार प्रस्तुति हार्दिक बधाई
सुंदर गीत....
ReplyDeleteमन की कब वह मानता, बुद्धि उठाये तर्क।
मनुज स्वयं को मथ रहा, मिले सत्य का अर्क।
सादर।
So beautiful
ReplyDeleteभाई साहब अपने किये से आदमी कब संतुष्ट रहा है और बेहतर करना चाहता है इसी से उपजती है ये बे -चैनी कुछ और अच्छा करने की .बढ़िया भाव समेटे है रचना .
ReplyDeleteIrony and the difficulties of life are portrayed very effectively in this poem. A very relevant and to the point narration of our lives.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति.
ReplyDeleteमय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः
तट हैं दो, मैं भी तटस्थ हो, धीरे-धीरे बहता हूँ!
ReplyDeleteवाह!
बहुत खूब लगी यह रचना .
सचमुच भैया, जीवन जीना, बड़ा अनूठा खेला है। बहुत खूब। बधाई।
ReplyDeleteआपकी इस उत्कृष्ट प्रस्तुति की चर्चा कल मंगलवार ७/८/१२ को राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी आपका स्वागत है |
ReplyDeleteसुन्दर...अति--सुन्दर.....सार्थक...
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteसरित प्रवाह सी जीवंत कविता!!
ReplyDeleteअभी कुछ और करो ,अभी कुछ और करो ,ये भौतिक द्वंद्व ही प्रोडक्टिव स्ट्रेस है .आपने बहुत भला लिखा आज दिन लगता है अच्छा बीतेगा वैसे यहाँ फिलवक्त कैंटन में रात है वक्त हुआ है साढ़े दस रात के तारीख है ६ अगस्त ,भारत में इस समय बजे होंगे सुबह के साढ़े सात तारीख होगी सात अगस्त .एक ही समय में हम दो अलग अलग काल खंडों से जुड़ जातें हैं .काइरोप्रेक्टिक चिकित्सा प्रणाली की अगली कड़ी होगी -What Is A Subluxation ?Bringing out the best in you .If you have a subluxation in your spine ,you can not function at your best .Subluxations interfere with proper nerve and organ health.Chiropractors teach patients about the need for periodic spinal adjustments.Correcting silent subluxations today might save you and your family from conditions that ,later in life ,could not possibly be ignored .
ReplyDeleteदोनों की मैं सुन लेता हूँ, दोनों की मैं सहता हूँ,
ReplyDeleteतट हैं दो, मैं भी तटस्थ हो, धीरे-धीरे बहता हूँ,
बढ़ता जाता इसी आस में, दोनों के संचार सहज हों,
मिलजुल कर जीते दुविधायें, दोनों के विस्तार वृहद हों,
....मन और बुद्धि का संघर्ष जीवन का सत्य है और उनमें सामंजस्य बनाना इसकी सफलता...एक उत्कृष्ट प्रस्तुति..
अत्यंत विचारपूर्ण....
ReplyDeleteमन चंचल है, नित नित साधन, नये नये ले आता है,
ReplyDeleteबुद्धि तर्क में, अनुभव में जा, अपना ज्ञान बढ़ाता है,
मन गतिमान, बुद्धि है स्थिर, अपने में मदमाये दो,
दोनों ही हैं अति आवश्यक, रहते मान बढ़ाये दो,
नहीं कोई भी हाथ बटाता, रहता आत्म अकेला है,
सचमुच भैया, जीवन जीना, बड़ा अनूठा खेला है।
उत्कृष्ट प्रस्तुति..........
सचमुच भैया, जीवन जीना, बड़ा अनूठा खेला है।
ReplyDeleteसुंदर गीत
ReplyDeleteबहुत खूब !
ReplyDeleteवास्तविक चित्रण! सुन्दर कविता
ReplyDeleteसर जी आप की लेखनी है या घर के दुसरे की ? जो भी हो जीवट है |
ReplyDeleteकविता के भाव अच्छे लगे।
ReplyDeleteकम से कम शब्दों में कहना हो तो इतना ही कहूँगा कि अनूठी रचना है.
ReplyDeleteअतिसुन्दर भाव.
ReplyDeleteati sundar....wah wah
ReplyDeleteसही कहा। इस अनूठे खेल को समझने का क्रम सनातन से चला आ रहा है और प्रलय तक चलता हीदरहेगा।
ReplyDeleteआदरणीय, अभिनन्दन , वाह बहुत अच्छा ब्लॉग व्यैक्तिक विकास ,हिंदी विचारों ,प्रेरक कहानियों ,बिज़नेस टिप्स के लिए मेरे वेबसाइट www.santoshpandey.in पर एक बार अवश्य पधारें धन्यवाद
ReplyDelete