29.8.12

देख रहा था व्यग्र प्रवाह

पता नहीं था कि यह कितने दिन चलेगा? पूर्वोत्तर के लगभग दो लाख लोग बंगलोर में हैं, मुख्यतः विद्यार्थी है, सेक्योरिटी सेवाओं में है, होटलों में हैं, ब्यूटी पार्लर में हैं और पर्याप्त मात्रा में आईटी में भी हैं। पहले दिन के बाद लगा कि यदि यही क्रम चलता रहा तो २०-२५ दिन तक लगे रहना पड़ेगा। अगले दिन के समाचार पत्र और न्यूज चैनल बस इसी समाचार से भरे हुये थे, हर ओर बस यही आग्रह था कि देश सबका है, कोई पलायन न करे, किसी को कोई भय नहीं है, सबको सुरक्षा दी जायेगी।

आशा थी कि इन आग्रहों का प्रभाव शीघ्र ही देखने को मिलेगा, लोग आश्वस्त हो पूर्वोत्तर जाने का विचार त्याग देंगे। व्यक्तिगत आशा और रेलवेगत कर्तव्यों में अन्तर बना हुआ था, तैयारी फिर भी रखनी थी। अगले दो दिन प्रवाह और बढ़ा, लगभग ११००० और १४००० के आस पास लोग गये। रेलवे स्थितियों से निपटने के लिये तैयार थी, पहले दिन की गुहार काम आयी, पहले दिन का अनुभव काम आया, कुल तीन दिनों में और ४८ घंटों के अन्तराल में ११ ट्रेनें लगभग ३३००० यात्रियों के लेकर पूर्वोत्तर गयीं। उसके बाद भी प्रवाह कुछ दिन रहा पर संख्या घट कर प्रतिदिन ५०० के आसपास ही रही। रेलवे का तन्त्र कार्यरत था, हमारी उपस्थिति कर्मचारियों का उत्साह बढ़ाये रखने के दृष्टिकोण से अधिक उपयोगी थी। अगले दो दिन प्रवाह के अवलोकन में निकले, यह समझने में निकले कि भय का प्रभाव कितना व्यापक होता है, यह कल्पना करने में निकले कि देश के विभाजन के समय जनमानस के मन की क्या स्थिति रही होगी?

भीड़ में व्यग्रता थी, चेहरे पर भयमिश्रित दुख था, एक आशा भी थी कि अपने घर वापस जा रहे हैं। कुछ के पास केवल हैण्डबैग ही थे जिनसे यह लग रहा था कि वे शीघ्र ही लौटेंगे। कई लोग सपरिवार जा रहे थे, उनके पास सामान अधिक था। हर ट्रेन को विदा करते समय खिड़कियों से झाँकते यात्रियों की आँखों में उन भावों को पढ़ रहा था, जिन्हें लेकर वे बंगलोर से प्रस्थान कर रहे थे। कुछ चेहरों पर धन्यवाद के भाव थे, कुछ के चेहरे अभी तक शून्य में थे, कुछ युवा हाथ हिलाकर आभार प्रकट कर रहे थे।

इसके पहले जब कभी भी पूर्वोत्तर के युवाओं का समूह देखता था, उनके भीतर की जीवन्तता प्रभावित करती थी। प्रसन्नचित्त रहने वाले लोग हैं पूर्वोत्तर के, सीधे, शर्मीले और मिलनसार। कृत्रिमता का कभी लेशमात्र स्पर्श नहीं देखा था उनके व्यवहार में, सदा ही सहज। पहाड़ों की कठिनता में गठा स्वस्थ शरीर और प्रकृति के सोंधेपन से प्राप्त सरल मन। जीवन के प्रति कोई विशेष दार्शनिक आग्रह नहीं, हर दिन को पूर्ण देने और पूर्ण जीने का उत्साह। ट्रेन से जाते हुये लोगों में उस छवि को ढूढ़ने का प्रयास कर रहा था पर वह मिली नहीं। दूसरे दिन भय कम था, तीसरे दिन चेहरों पर भय नहीं था पर वे भाव भी नहीं थे जिसके लिये पूर्वोत्तर के लोग पहचाने जाते हैं।

यह समझना बहुत ही कठिन था कि उनके मन में क्या चल रहा है। स्टेशन पर मीडियाकर्मियों का जमावड़ा बना रहा इन तीन दिनों, उन्होंने जानने का प्रयास किया पर पलायन कर रहे लोगों ने कुछ बोलने की अपेक्षा शान्त रहना उचित समझा। राज्य के मंत्रीगण अपने वरिष्ठतम पुलिस अधिकारियों के साथ वहाँ उपस्थित थे, प्रयासरत थे कि पलायन रोका जा सके, पर उन तीन दिनों तक पलायन रुका नहीं। कई गैर सरकारी संगठनों के लोग वहाँ उपस्थित थे, उन्हें मनाने के लिये, पर मन में घाव गहरा था, संवेदनीय सान्त्वनाओं से भरने वाला नहीं था। भय जब व्याप्त होता है तो आशाओं को भी क्षीण कर देता है, गहरे तक, शक्ति को भी संदेह से देखने लगता है, अविश्वास करने लगता है सारी व्यवस्थाओं पर। यही कारण रहा होगा कि सुरक्षा के सारे आश्वासन होने के बाद भी उनका मन यह मानने को तैयार नहीं था कि वे यहाँ सुरक्षित हैं।

क्या पलायन ही विकल्प था? कई बार तो लगा कि ट्रेनों की उपलब्धता ने उन्हें एक सरल विकल्प दे दिया है, पलायन कर जाने का। यदि इतनी अधिक मात्रा में ट्रेनें नहीं रहती तो संभव था कि लोग अपने स्थानों पर बने रहते और अधीर न होते, कोई और विकल्प ढूढ़ते। परिस्थितियों से भाग जाना तो उपाय नहीं है, समस्यायें तो हर जगह खड़ी मिलेंगी, कहीं छोटी मिलेंगी, कहीं बड़ी मिलेंगी। पर भावनाओं के उफान में तार्किक चिन्तन संभव नहीं होता है, व्यक्ति सरलतम विकल्प की ओर भागता है। हमें भी उस समय तो अपने सामने दसियों हजार लोगों को सकुशल पूर्वोत्तर पहुँचाने का कर्म दिख रहा था। क्या उचित है, क्या नहीं, इस पर विचार करने की न तो शक्ति थी, न समय था और न अधिकार ही था।

उन्हें जब लगेगा कि परिस्थितियाँ ठीक हो गयी हैं, तो लोग वापस लौटना प्रारम्भ करेंगे। जब बिना किसी विशेष घटना के इतना बड़ा पलायन हो गया तो किन प्रयासों से विश्वास वापस लौटेगा, यह समझना कठिन है। यह संभव है कि कुछ दिनों के बाद उनके मन का उद्वेग शान्त हो जायेगा, उनको अपने आप पर विश्वास स्थापित हो जायेगा, हवा में व्याप्त अविश्वास छट जायेगा, तब वे वापस लौट आयेंगे।

हम अपनी सांस्कृतिक एकता के लिये पहचाने जाते हैं, विविधतायें हमारी संस्कृति के शरीर में विभिन्न आभूषणों की तरह हैं, हर कोई अपनी तरह से संस्कृति को सुशोभित करने में लगा हुआ है। विविधता को विषमता से जोड़कर उपाधियों और आकारों में अपने आप से भिन्न लोगों के प्रति विद्वेष की भावना संस्कृति को आहत कर रही है, लोकतन्त्र के प्रतीकों पर निर्मम प्रहार कर रही है। यह प्रवृत्ति कोई सामान्य अपराध नहीं, इसे किसी भी स्वरूप में देशद्रोह से कम जघन्य नहीं समझा जा सकता है, यह देश के स्वरूप पर एक आत्मघाती प्रहार है। भविष्य में कभी पलायन न हो, यह सुनिश्चित करने के लिये हमारे निर्णय कठोर हों अन्यथा हमें अपना हृदय कठोर करने का अभ्यास डालना चाहिये क्योंकि पलायन कर रहे लोगों की पीड़ा को देखने की शक्ति तभी विकसित हो पायेगी।

इसके पहले अपना जीवन बचाने हेतु अकाल से प्रभावित क्षेत्रों से जीविका की खोज में पलायन होते देखा था, उस समय भी मन द्रवित हुआ था। पर यह पहला अनुभव था जब लोगों को अपना जीवन बचाने के लिये अपनी जीविका छोड़कर भागते देखा है। तीन दिन तक कार्य की थकान शरीर को उतना कष्ट नहीं दे पायी जितना कष्ट पलायन करते लोगों के चेहरों के भाव दे गये। प्रलय के पश्चात मनु के मन में सब कुछ खो जाने के भाव थे, वैसे ही कुछ भाव आँखों में तैर रहे थे, दोनों की ही आँखें नम थीं। अन्तर बस इतना था कि मनु पहाड़ पर बैठे थे, मैं स्टेशन पर, मनु जल का प्रलय प्रवाह देख रहे थे, मैं जन का व्यग्र प्रवाह।

यदि यह अलगाववाद का नृशंस नृत्य न रुका तो आगामी इतिहास के अध्याय इसी पंक्ति से प्रारम्भ होंगे…

एक पुरुष भीगे नयनों से देख रहा था व्यग्र प्रवाह…..

54 comments:

  1. यदि देश के राजनीतिज्ञों में वोट बैंक बनाने व उसके लिए तुष्टीकरण की प्रवृति नहीं होती तो शायद आज ये सब नहीं देखना पड़ता|
    इसके जिम्मेदार वे नेता है जिनकी नजर में देश से पहले वोट बैंक है!

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  2. काल-निरपेक्ष, तटस्‍थ किन्‍तु संवेदनशील दृष्टि.

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  3. इसके पहले अपना जीवन बचाने हेतु अकाल से प्रभावित क्षेत्रों से जीविका की खोज में पलायन होते देखा था, उस समय भी मन द्रवित हुआ था। पर यह पहला अनुभव था जब लोगों को अपना जीवन बचाने के लिये अपनी जीविका छोड़कर भागते देखा है। तीन दिन तक कार्य की थकान शरीर को उतना कष्ट नहीं दे पायी जितना कष्ट पलायन करते लोगों के चेहरों के भाव दे गये। प्रलय के पश्चात मनु के मन में सब कुछ खो जाने के भाव थे, वैसे ही कुछ भाव आँखों में तैर रहे थे, दोनों की ही आँखें नम थीं। अन्तर बस इतना था कि मनु पहाड़ पर बैठे थे, मैं स्टेशन पर, मनु जल का प्रलय प्रवाह देख रहे थे, मैं जन का व्यग्र प्रवाह।

    यदि यह अलगाववाद का नृशंस नृत्य न रुका तो आगामी इतिहास के अध्याय इसी पंक्ति से प्रारम्भ होंगे'…

    एक पुरुष भीगे नयनों से देख रहा था व्यग्र प्रवाह…..बहुत ही व्याकुल कर गया यह रिपोर्ताज .ये "वोटिस्तान'"में पल्लवन पाता राजठाकरे फेक्टर है जो एच आई वी एड्स विषाणु बन अपना बाहरी आवरण बदल रहा है यूं भाषण में उत्तर पूरब के लोगों के लिए "चिंकी "शब्द प्रयोग चमार /चमारी शब्द प्रयोग की तरह वर्जित है लेकिन व्यवहार में ये लोग पलायन को विवश हैं .सवाल नागर प्रशासन में समाप्त हो चुकी आस्था का है .आखिर कब तक हम इस टर्मिनेटर सीड हो गई सभ्यता का (संस्कृति शब्द प्रयोग अब अपना अर्थ और गुणवत्ता खो चुका है )यशोगान करते रहेंगे .हम उस देश के वासी हैं जिस देश में गंगा बहती है ?कश्मीरी पंडित बना दिया केंद्र की रिमोटिया सरकार ने इन लोगों को . अब तो इस सरकार की नानी बदल दो ,
    गोटिया सब मात अब खाने लगें हैं .

    बुधवार, 29 अगस्त 2012
    मिलिए डॉ .क्रैनबरी से
    मिलिए डॉ .क्रैनबरी से

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  4. कामायनी के प्रसंग के साथ बहुत उम्दा पोस्ट |आभार

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  5. सच है वह समाज बहुत ही भोला और पावन है लेकिन बांग्‍लादेशी घुसपेठिएं कहीं दूसरा कश्‍मीर ना बना डाले मन इसी बात से डरा हुआ है।

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  6. यह व्यग्र प्रवाह राजनीति की ही देन है ...बहुत संवेदनशील पोस्ट ....

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  7. इस साईबर आतंक का जिक्र मैंने आपके पहले पोस्ट के उदाहरण से ब्लागेर सम्मलेन में विषय प्रवर्तन के दौरान किया ..लोग मुह बाए सुन रहे थे .....आप भौतिक रूप से न सही अपने इस ब्लॉग के जरिये वहां प्रतिभागी बन गए ..बधाई!

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  8. यह व्यग्र प्रवाह राजनीति की ही देन है …………सही कहा।

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  9. जो चल रहा है, वही चलता रहा, अगर यही हाल इस राजनीति और तुष्टिकरण का रहा तो वह दिन भी आ सकता है जब यह व्यग्र-प्रवाह हर गैर- एम् को झेलना पड़े , और तब शायद ट्रेन भी उपलब्ध नहीं होगी ! इसे आज कुछ लोग महज एक घृणा फैलाने वाली बात कह सकते है लेकिन सच्चाई इससे भी कटु है !

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  10. जो चल रहा है, वही चलता रहा, अगर यही हाल इस राजनीति और तुष्टिकरण का रहा तो वह दिन भी आ सकता है जब यह व्यग्र-प्रवाह हर गैर- एम् को झेलना पड़े , और तब शायद ट्रेन भी उपलब्ध नहीं होगी ! इसे आज कुछ लोग महज एक घृणा फैलाने वाली बात कह सकते है लेकिन सच्चाई इससे भी कटु है !

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  11. अब न मुक्ति है, न संभव है पलायन

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  12. ये सब राजनीति की ही देन है .. अपने अपने वोट बेंक बना रक्खे हैं सबने ... देश और समाज और इंसान की चिंता नहीं है किसी को ... सबको मोहरा बना दिया है इस खेल में ...

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  13. यह व्यग्र प्रवाह राजनीति की मेहरबानी है...बहुत उम्दा पोस्ट |आभार

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  14. इतना बड़ा तूफ़ान निकल गया.... जिन लोगों की कारस्तानी थी, उन्हें दंड अवश्य मिलना चाहिय.

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  15. अविश्वास का मानव मन पर
    पड़ता कितना गहन प्रभाव
    एक पुरुष भीगे नयनों से
    देख रहा था व्यग्र प्रवाह

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  16. वो घडी तो निकल गई लेकिन हमारे राजनेता अब लकीर पीटेंगे और इसके खिलाफ कोई एक्शन लेने से हिचकेंगे.

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  17. पता नहीं कब तक खेले जायेंगे ये राजनीती के खेल. सच्चे अर्थों में मानव यदि हम हैं तो इस पलायन पर निश्चित ही मन रोयेगा ही कास कि हम इस पलायन को अपने बच्चों से जोड़कर देख पाते
    श्रधेय डा बशीर बद्र का एक शेर याद आ जाता है क्या खूब कहा है उन्होंने कि
    लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
    और तुम तरस नहीं खाते बस्तिया जलने में
    बहुत ही उम्दा आलेख के लिए आपका अभिनन्दन

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  18. अबकी बार मामला जल्दी सँभल गया पर हर बार ऐसा होगा,नहीं कह सकते ।

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  19. एक पुरुष भीगे नयनों से देख रहा था व्यग्र प्रवाह….. एक गंभीर चिंतन है मन जब इन हालातों के आस-पास होता है तो सिर्फ़ व्‍यथित होता है ... आभार आपका इस पोस्‍ट के लिए

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  20. बड़े चिंता भरे दिन थे वे....बस उनकी पुनरावृत्ति ना हो भविष्य में

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  21. सब देख-सुन कर मन बहुत व्यग्र हो जाता है !

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  22. निश्चित तौर पर बड़े ही व्यग्र मन से आपने ये पलायन देखा होगा...हम तो यहां न्यूज़ चैनल पर देख देखकर ही बड़े व्यग्र हो जाते थे। आपके इस पूरे विवेचन से कुछ हद तक हमें भी भारत-पाक बंटवारे के बाद वाले पलायन की झांकी अपने दिमाग में खींचने में मदद मिली है...सुंदर विवेचन...दुखद पलायन!!!

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  23. पुनः 'पलायन' के ये 'पल-आये-न' , बस प्रभु सब को सद्बुद्धि दें |

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  24. पलायन.. किन्तु अत्यंत दुखद.. मार्मिक!!

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  25. Dangerous situation...

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  26. हिमगिरी के उत्तुंग शिखर पर ,बैठ शिला की शीतल छाँव ,एक पुरुष भीगे नयनों से देख रहा था ,प्रलय प्रवाह ,
    नीचे जल था ,ऊपर हिम था ,एक तरल था ,एक सघन ,एक तत्व ही की प्रधानता ,कहो इसे जड़ या चेतन .यही तो पूर्बोत्य दर्शन है जो जड़ में है वही चेतन में है जो नार्थ ईस्ट में है वही दिल्ली में है ,पर ये वोटिये (वोट खोर )रिमोटिये कुछ समझें तब न कुछ देखें भालें तब न
    "आँखों पर इनके पट्टी हैं ,और हाथ सभी के काले हैं ..."
    कृपया यहाँ भी पधारें -
    ram ram bhai
    बुधवार, 29 अगस्त 2012
    सात आसान उपाय अपनाइए ओस्टियोपोरोसिस से बचाव के लिए
    अस्थि-सुषिर -ता (अस्थि -क्षय ,अस्थि भंगुरता )यानी अस्थियों की दुर्बलता और भंगुरता का एक रोग है ओस्टियोपोसोसिस

    सात आसान उपाय अपनाइए ओस्टियोपोरोसिस से बचाव के लिए

    तकरीबन चार करोड़ चालीस लाख अमरीकी लोग अस्थियों को कमज़ोर और भंगुर बनाने वाले इस रोग से ग्रस्त हैं इनमें ६८% महिलायें हैं .

    एक स्वास्थ्य वर्धक खुराक जिसमे शामिल रहें -फल ,तरकारियाँ ,मोटे अनाज और Lean protein साथ में जिसके हों विटामिन डी ,विटामिन K और विटामिन C ,और केल्शियम ,मैग्नीशियम ,पोटेशियम खनिज तब रहें आप की हड्डियां सही सलामत .

    Skeleton Key :Why Calcium Matters

    हमारे तमाम अस्थि पंजर (कंकाल) की मजबूती के लिए सबसे ज़रूरी और अनिवार्य तत्व है केल्शियम खनिज .लेकिन इसके संग साथ हो विटामिन D का .साथ में आपको मालूम हो उम्र के मुताबिक़ कब आपको कितना केल्शियम खनिज चाहिए .

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  27. आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 30-08 -2012 को यहाँ भी है

    .... आज की नयी पुरानी हलचल में ....देख रहा था व्यग्र प्रवाह .

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  28. अभी तो चल ही रहा है सार्थक प्रस्तुति .तुम मुझको क्या दे पाओगे ?

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  29. आपका यह लेख आज के "हिंदुस्तान" में पृष्ठ संख्या दस पर साइबर संसार कालम में "वे तीन दिन" नामक शीर्षक से छपा है|

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  30. एक विचारणीय विषय उठाया है आपने .कब तक यही सब कुछ होगा हमारे देश में और कौन कौन पल्ला झाडेगा, मुह मोड़ेगा इस और से .

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  31. अच्छा एवं सम सामयिक लेख.राजनीतिकरण,तुष्टीकरण जो न करवाए वो कम है

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  32. मन विचलित क्रने वाली स्थिति।

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  33. PRAVEEN JI AAPKA YE NAYA POST MORADABAD KE "HINDUSTAAN" ME PAGE NO- 12 PAR CHHPA HAI.BDHAI HO!!!

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  34. खंडित भारत के वीभत्स सच्चाई को सामने लाने वाली घटना से हम सब क्या सबक लेते हैं ये कौन सा कल बताएगा ?

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  35. यह भी मानव सभ्यता की एक भयावह सच्चाई है, जहाँ माईग्रेशन और माईग्रेटरों का अपना एक दुख होता है। काश कि हमारा अखंड भारत भविष्य में भी अखंड ही रहे ।

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  36. सोचने को मजबूर करती है आपकी यह पोस्ट!

    सादर

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  37. बड़े दिन बाद आपको पढ़ पाया प्रवीण जी बहुत सुंदर आलेख सहज प्रश्न परन्तु चिंतन को उद्वेलित करते हुए आभार आपका !

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  38. bhut acchi post sir...sirf kahne ke lie ya blog parampara ke nirwah ke lie nahi kah rahi...sach me acchi post hai...ekdam aankhon dekha haal lagta hai...aur dil se nikali baat

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  39. क्या पलायन ही विकल्प था?
    एक पुरुष भीगे नयनों से देख रहा था व्यग्र प्रवाह…..बहुत ही व्याकुल कर गया यह आपका आलेख ....!
    आपका यह लेख आज के "हिंदुस्तान" में पृष्ठ संख्या बारह पर साइबर संसार कालम में "वे तीन दिन" नामक शीर्षक से छपा है .... !!

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    1. bahut sarthak post palayan kisi bhi samasya ka hal nahi par aaj vastusthiti ki kuch aisi chal rahi hai ..............sudhar ki bahut aavashyakta hai

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  40. Politics and our country, we have become paralyzed because of it. Thought provoking read!

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  41. हाँ प्रवीण जी !इस मर्तबा जब बेंगलुरु आया था तब इस कोस्मोपोलिटन का मिजाज़ मुझे बदला बदला लगा था .ऑटो वालो की मनमानी और कन्नड़ गैर कन्नड़ सवाल के खदबदाने की बात शेखर भाई ने बतलाई थी साथ ही वहां शाम को शराब के अंग्रेजी ठेकों पर सरे आम शराब बढे दामों पर बिकते देखी .ओल्ड ट्रेवार्ण व्हिस्की भले माल्या साहब ने टेट्रा पैक (५२रूपैया )रुपैया में मुहैया करवाई हुई है लेकिन ठेके वाले ६० रुपैया वसूलते हैं .

    तमिलनाडु की तरह अब यहाँ भी कन्नड़ बरक्स बाकी भारत सवाल उठने लगें हैं यह दुखद है अपने तीन साला आई आई टी चेन्नई प्रवास के दौरान में चेन्नई शताब्दी से यहाँ अकसर आया हूँ .इस मर्तबा इस विश्वनगर को बदला बदला पाया .

    उत्तर पूरब के लोगों का आकस्मिक पलायन इसीलिए उतना आकस्मिक भी नहीं लगा .इस नजरिये से भी कुछ लिखिए "बेंगलुरु बनता बैंगलोर "बदल रहा है भारत की सिलिकोन वेली का स्वरूप .कृपया यहाँ भी पधारें -
    ram ram bhai
    बृहस्पतिवार, 30 अगस्त 2012
    लम्पटता के मानी क्या हैं ?

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  42. वास्तविकता है ये ......बढ़िया लेख !

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  43. पलायन उचित नहीं पर कभी कभी किसी हालात में यह ही एक सही रास्ता लगता है...

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  44. दुखद स्थिति.
    संवेदनशील विषय पर उम्दा लेख .

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  45. सकारात्मक पोस्टिया हो गए अब आप आधिकारिक रूप से हम होरे तो पहले सी ही न मानते थे .....बढ़िया लगा .....बहुत बहुत बधाई इस मान सम्मान के लिए .सकारात्मक कलमाई के लिए .. .यहाँ भी पधारें -
    ram ram bhai
    बृहस्पतिवार, 30 अगस्त 2012
    लम्पटता के मानी क्या हैं ?

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  46. यह संभव है कि कुछ दिनों के बाद उनके मन का उद्वेग शान्त हो जायेगा, उनको अपने आप पर विश्वास स्थापित हो जायेगा, हवा में व्याप्त अविश्वास छट जायेगा, तब वे वापस लौट आयेंगे।
    काश ऐसा ही हो और हम अपनी अनेकता में एकता पर गर्व सकें ....वैमनस्य से लड़ सकें ...उसे स्थापित न होने दें ...!!

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  47. जिस समय ये पलायन हो रहा था उस समय हम बेखबरी में लद्दाख के सौंदर्य का आनंद ले रहे थे। वहां कुछ पता ही नहीं चल रहा था कि देश में क्या घटित हो रहा है क्या नहीं। न अखबार न टीवी न कुछ। नदियां, पहाड़ और बर्फ ही हमारे संपर्कसूत्र थे। दो-तीन दिन बाद जब लेह की ओर उतरे तो नेटवर्क आने पर एसएमएस मिला कि श्रीनगर से जाने वाली हमारी लौटानी फ्लाईट अपरिहार्य कारणों से कैंसल हो गई है। तुरंत सर्च शुरू हुई कि क्या बात है और तब अंदाजा लगा कि बंगलौर में इस तरह की बात हो गई है। संभवत: इन्हीं कारणों से कुछ फ्लाइटें बैंगलोर की ओर बढ़ाई गई थी। खैर, दूसरी फ्लाईट में जगह मिल गई लेकिन करगिल पहुंचने तक मन में व्यग्रता बनी रही कि बंगलौर में आखिर ऐसा क्या तूफान आ गया जो पलायन के लिये लोग मजबूर हुए। बाद में धीरे-धीरे साईबर की ओर जांच मुड़ती चली गई।

    इस परिस्थिति में किस तरह की भयावह स्थिति रही होगी ये आपके लेखों से स्पष्ट हो रहा है।

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  48. भाव विभोर करते हुए तीनों कड़ियाँ पलायन की सच्चाई को व्यक्त कर गए |

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  49. दुखद तो यह भी है कि ऐसे हालात पैदा करने वाले अपने कारनामों में सफल हो जाते हैं ....यूँ जीवन को अस्त व्यस्त कर देना किसी अपराध से कम नहीं..... संवेदनशील दृष्टिकोण लिए हैं आपके विचार ....

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  50. सच कहा आपने पलायन तो किसी भी समस्या का समाधान नहीं है ,पर जब भी कोई विपदा आती है तो सबसे पहले उस स्थान से हट कर ही हम उस का कारण और निवारण दोनों ही खोजते हैं ,यही मानवीय प्रकृति है .....

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  51. रेलवे के लिए यात्री केवल यात्री होता है, हिन्दू, मुसलमान या सिख वगैरह नहीं. लेकिन इस देश के नेताओं के लिए देश के नागरिक हिन्दू होतें हैं, मुसलमान होते हैं, वगैरह .....
    वोट बैंक की गन्दी राजनीति जब तक बंद नहीं होगी तब तक आतंक और भय का जहर फिजा में घुलता रहेगा और देश की आज़ादी के लिए जान की क़ुरबानी देने वाले शहीदों की आत्मा सिसक-सिसक कर हमसे पूछती रहेगी- इसी दिन के लिए हमने अपने प्राणों की बजी लगा दी थी.
    आखिर यह कैसे मुमकिन है कि कोई ठाकरे टाइप का राजनेता सरेआम लोगों को धमकता फिरे और सरकार चुपचाप बैठी रहे.
    क्यों सरकार के मंत्रियों के आश्वासन से ज्यादा लोग अफवाहों और गुंडों क़ी धमकियों पर विश्वाश करते हैं. क्योंकि वे दिन रात देख रहे हैं क़ी इनकी कथनी और करनी में बड़ा अंतर है.



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  52. पलायन उचित नही पर जब जान पर बन आये तो.............। शायद सुधरें हालात और लोग वापिस आयें ।

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