उनींदी सी शान्ति जग में, हवायें बहकर थकीं हैं ।
रात खेलीं चन्द्रमा संग, प्रात के द्वारे रुकी हैं ।।१।।
फूल अकड़े खड़े सारे, सह प्रवेगों को निरन्तर ।
आज हैं मुरझा गये वे, झेलकर, दुख-वेग क्षण भर ।।२।।
आज नदियाँ, भूलकर निज अहं, निज उन्मुक्तता ।
जा मिली हैं सब जलधि में, छोड़ जो अस्तित्व था ।।३।।
किस प्रलय की साँस है यह, रुक गयी गतियाँ सभी ।
किस तृषा की आस जागी, जो कि बुझनी है अभी ।।४।।
किस हृदय के शून्य का, उत्तर लिखा जाता प्रकृति में ।
घात या प्रतिघात उठता, किस कुटिल संगूढ़ मति में ।।५।।
फैलती स्तब्धता और, काटने मन दौड़ता है ।
थका क्या वह, जगत को जो, चेतना से जोड़ता है ।।६।।
किस अशुभ की चीख में लिपटी हुयी यह शान्ति है ।
कुछ सुनिश्चित घट रहा है, नहीं कहना भ्रान्ति है ।।७।।
शान्ति तूफ़ान से पहले की या बाद की|
ReplyDeleteकविता में पिरोई अभिव्यक्ति पसंद आई। लेकिन अंत में चुप कराता चित्र समझ नहीं आया। क्या कमेंट पर है विराम लगवाया?
ReplyDelete............
डायन का तिलिस्म!
हर अदा पर निसार हो जाएँ...
शान्ति के पीछे छिपा कोलाहल सुनने को इंगित कर रहा है यह चित्र।
Deleteकिस अशुभ की चीख में लिपटी हुयी यह शान्ति है ।
ReplyDeleteकुछ सुनिश्चित घट रहा है, नहीं कहना भ्रान्ति है ।।७।।
मुखर अभिव्यक्ति ,स्तब्धता के पार गूंजता स्वर संचेतना की आहट का पुट ........
कविता में भावोद्गार अद्भुत हैं |
ReplyDeleteआँखों में , पट्टी बाँध
ReplyDeleteकर, गाड़ी चला रहे !
टकरायेंगे , कहाँ पर ?
हमें खुद पता नहीं !
जब तक जियेंगे, हम भी जलाये रहें दिया !
कब आसमान रो पड़े ? हमको पता नहीं !
आपकी एक और श्रेष्ठ रचना कविता और गद्य पर आपकी ऐसी सिद्धहस्त सामान पकड़ आह्लादित करती है और चमत्कृत भी ..
ReplyDeleteइस छोटी सी कविता में रहस्य, छाया,मिलन- विछोह आगत अनागत ,प्रारब्ध भविष्यत् का इतना सुन्दर और सहज आमेलन हुआ है कि बस लगता है गागर में सागर आ समाया हो ....इसे याद करने का मन हो आया है !
बढ़िया रचना
ReplyDeleteदिल में कहीं हलचल मची है,
ReplyDeleteपर कोई सुनता नहीं है !
लगती है जो स्तब्धता ,आसार है किसी विस्फोट का,अंदर ही अंदर जिसकी तैयारियां चल रही हैं !
ReplyDeleteशान्ति के स्वर मुखर होकर बिखर गए हैं आपकी लेखनी के चमत्कार से!!
ReplyDeleteबहुत प्रभावी और लय बद्ध गीतों की सीरिज पढता जा रहा हूँ आजकल ।।
ReplyDeleteसुन्दर रचना के लिए बधाई ।।
कुछ तो घटित होना तय है .... अन्धकार, शांति से ही आरम्भ होता है
ReplyDeleteबेहद सशक्त भाव लिए उत्कृष्ट प्रस्तुति ...आभार
ReplyDeleteकिस अशुभ की चीख में लिपटी हुयी यह शान्ति है ।
ReplyDeleteकुछ सुनिश्चित घट रहा है, नहीं कहना भ्रान्ति है ।।७।।
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Wएक बहुत अच्छी रचना है ! जो कुछ सुनिश्चित घट रहा है, उसे घटना ही है वर्ना बदलाव कैसे आयेगा? Waiting for since long.
कभी-२ खुद को समझने के अन्दर-बाहर उठ रहे हर कोलाहल को शांत करना पड़ता है...
ReplyDeleteबेहद सशक्त भाव लिए सुन्दर प्रस्तुति ...आभार
ReplyDeleteसर जी मुट्ठी में संसार रखने की लालसा दबोये जा रही है इस शांति को |
ReplyDeleteसर, आप के व्यक्तित्व का यह आयाम, आज पहली बार देखा और पढा,जो घटित हो रह्ह है विश्व में और हमारे इर्द-गिर्द उस्के प्रति इतनि सम्वेदनशीलता,चमत्कृत हूं |
ReplyDeleteउत्कृष्ट अभिव्यक्ति
ReplyDeleteशान्ति अशान्ति का दुविधा भेद……
फैलती स्तब्धता और, काटने मन दौड़ता है ।
थका क्या वह, जगत को जो, चेतना से जोड़ता है ।।६।।
शायद पहली बार आपकी कोई कविता पढ़ी है.. अच्छी लगी
ReplyDeleteशांत हैं,स्तब्ध हैं!
ReplyDeleteशब्दों के जाल में उलझे बिना स्वयं को समझने का प्रयास जारी रहता है.
उत्कृष्ट प्रस्तुति.
सशक्त भाव लिए उत्कृष्ट अभिव्यक्ति लिए,,,,प्रवीण जी बहुत२ बधाई,आभार,
ReplyDeleteRECENT POST ....: प्यार का सपना,,,,
हालात इस वक्त कुछ ऐसे ही हैं .
ReplyDeleteबेहद गंभीर लेकिन सच्चाई बयां करती रचना .
शांति विस्फोट का सूचक है .... चिंता के भाव लिए सुंदर रचना
ReplyDeleteफैलती स्तब्धता और, काटने मन दौड़ता है ।
ReplyDeleteथका क्या वह, जगत को जो, चेतना से जोड़ता है ..
अगर नहीं भी थका तो जल्दी ही आदम जात उसे थका देगी ... सच्चाई से परिचय करवाती रचना ... लाजवाब ...
बहुत गहरे भाव और सुंदर शब्दावली...बधाई!
ReplyDeleteअहं से दूर होते ही शान्ति हो अथवा कोलाहल सब सहज लगता है .......
ReplyDeleteफैलती स्तब्धता और, काटने मन दौड़ता है ।
ReplyDeleteथका क्या वह, जगत को जो, चेतना से जोड़ता है ।।६।।
किस अशुभ की चीख में लिपटी हुयी यह शान्ति है ।
कुछ सुनिश्चित घट रहा है, नहीं कहना भ्रान्ति है ।।७।।
वाह वाह क्या बात है बहुत खूब आज तो अपने, अपनी लेखनी का कायल बना दिया... :)
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ReplyDelete.
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बेहतरीन, बहुत अच्छी लगी आपकी यह कविता...
आभार!
...
'स्तब्धता " कविता में कवि कहता है प्रकृति की लीला हरेक व्यक्ति को समझ नहीं आती .प्रक्रति अपना खेल खेलती है आदमी कुछ और सोचता रह जाता है .प्रकृति की निगूढ़ता वह समझ नहीं पाता .वजह इसकी यह है ,व्यक्ति की बुद्धि कई मर्तबा हृदय को पीछे की और धकेलती है जब की प्रकृति को समझने के लिए बुद्धि से ज्यादा हृदय की ज़रुरत होती है .आज का हमारे वक्त का यही द्वंद्व कविता में ढल गया है .बधाई प्रवीण जी को इस सशक्त रचना के लिए .
ReplyDelete.कृपया यहाँ भी पधारें -
ram ram bhai
बुधवार, 22 अगस्त 2012
रीढ़ वाला आदमी कहलाइए बिना रीढ़ का नेशनल रोबोट नहीं .
What Puts The Ache In Headache?
कविता पढ़ें अगली पोस्ट में "आतंकवादी धर्म -निरपेक्षता "
abominable lull is very bad..
ReplyDeleteफैलती स्तब्धता और, काटने मन दौड़ता है ।
ReplyDeleteथका क्या वह, जगत को जो, चेतना से जोड़ता है ।।६।।
अद्भुत ...जो कुछ हो रहा वो यूँ ही स्तब्ध करता है.....
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteकुछ सुनिश्चित घट रहा है, नहीं कहना भ्रान्ति है ।।७।।
ReplyDelete--No doubt, coming time is full of CHANGES...We are on the verge of Transition! Things ii not be as it used to be.
And yes Awesome poem! Loved it!
किस हृदय के शून्य का, उत्तर लिखा जाता प्रकृति में ।
ReplyDeleteघात या प्रतिघात उठता, किस कुटिल संगूढ़ मति में ।।
मानव मन के विभिन्न भावों को उकेरती उत्तम रचना।
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 23-08 -2012 को यहाँ भी है
ReplyDelete.... आज की नयी पुरानी हलचल में .... मेरी पसंद .
शांति या क्रांति के पीछे का कोलाहल , हर हृदय में टीस है , आगत का आतंक ! कुछ है जो अदृश्य होकर भी कुछ आँखों में दृश्यमान है !
ReplyDeleteवर्तमान परिस्थितियों में उपजी क्लांत मन की सारगर्भित अभिव्यक्ति !
किस अशुभ की चीख में लिपटी हुयी यह शान्ति है ।
ReplyDeleteकुछ सुनिश्चित घट रहा है, नहीं कहना भ्रान्ति है ।।७।।
just too good...kuch to hai!!
गज़ब ...भाव और शिल्प दोनों ही..
ReplyDeleteप्रकृति भी जब रह जाए स्तब्ध,
ReplyDeleteक्या तभी सिद्ध होगा मानवीय लब्ध |
आपकी पोस्ट आज 23/8/2012 के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
ReplyDeleteकृपया पधारें
चर्चा - 980 :चर्चाकार-दिलबाग विर्क
अभी बहुत अच्छी लगी है। रात में और डूबता हूँ। चित्र न लगाये होते तब भी ठीक था। कमेंट से ही पता चल रहा है कि चित्र क्यों लगाया गया है। मैं भी थोड़ी देर सोचता रह गया था।..बधाई।
ReplyDelete
ReplyDeleteफैलती स्तब्धता और, काटने मन दौड़ता है ।
थका क्या वह, जगत को जो, चेतना से जोड़ता है ।।६।।
......बहुत ही सुन्दर एवं गहन रचना !
बहुत ही बढ़िया सर!
ReplyDeleteसादर
फैलती स्तब्धता और, काटने मन दौड़ता है ।
ReplyDeleteथका क्या वह, जगत को जो, चेतना से जोड़ता है ।।
आपकी कवितायें सशक्त होती हैं,ठीक आपके गद्य की तरह ...
उर्मिला सिंह जी की ईमेल से प्राप्त टिप्पणी
ReplyDeleteकिस अशुभ की चीख में लिपटी हुई यह शांति है—
भावों की लहरों पर जीवन का छलावा,
बहुत बढ़िया प्रभावपूर्ण रचना ..
ReplyDeletebahut hi badhiya.....
ReplyDeleteउत्कृष्ट भाव बेहतरीन शब्द संयोजन जितनी तारीफ की जाय कम होगी
ReplyDeleteअबूझ बनी हुई है यह प्रकृति नटी अपने बहुलामंश में ..फिर भी इठ्लातें हैं हम ,एहम लिए मर जाएं हैं ये द्वंद्व कहीं का न छोड़े ,हर वक्त चित्त को ये घेरे बढ़िया प्रस्तुति है . . .कृपया यहाँ भी पधारें -
ReplyDeleteram ram bhai
बृहस्पतिवार, 23 अगस्त 2012
Neck Pain And The Chiropractic Lifestyle
Neck Pain And The Chiropractic Lifestyle
अबूझ बनी हुई है यह प्रकृति नटी अपने बहुलांश में ..फिर भी इठ्लातें हैं हम ,एहम लिए मर जातें हैं ये द्वंद्व कहीं का न छोड़े ,हर वक्त चित्त को ये घेरे बढ़िया प्रस्तुति है . . .कृपया यहाँ भी पधारें -
ReplyDeleteram ram bhai
बृहस्पतिवार, 23 अगस्त 2012
Neck Pain And The Chiropractic Lifestyle
Neck Pain And The Chiropractic Lifestyle
आपकी रचना काव्यरूप में पहली बार देखी है । बहुत ही प्रभावी । आलेख तो रोचक व पठनीयहोते ही हैं ।
ReplyDeleteअभी यही हालात बने हुए हैं, पता नहीं यह शांति किस विकराल रूप से ध्वस्त होगी ।
ReplyDeleteफैलती स्तब्धता और, काटने मन दौड़ता है ।
ReplyDeleteथका क्या वह, जगत को जो, चेतना से जोड़ता है ।।६।
....बहुत गहन और प्रभावी अभिव्यक्ति...
उत्कृष्ट रचना ...
ReplyDeleteऔर हर युग में इन्हीं भ्रांतियों पर सत्य की जीत होती है ..
ReplyDeleteबढ़िया! मुझे बहुत अच्छी लगी आपकी कविता।
ReplyDeleteबधाई हो।
वह थक नही सकता
ReplyDeleteवह चेतना का चेत है
वह रुक नही सकता
वह प्रवाह का वेग है
वह अंधेरों को चीरता सा
सूर्य है
देख लो वही तो वीरों का वीर्य है ।
वह भ्रांति का भ्रम तोड देगा ।
sundar arthpoorn kavita.
ReplyDeleteदुष्यन्त जी की पंक्तियाँ याद आ गईं.
ReplyDeleteहो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए.
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए.
सुन्दर! इसे मै आपके नाम सहित अपने कुछ मित्रों के साथ बांटना चाह्ती हूं .. अनुमति है ?
ReplyDeleteनिश्चय ही, आपका अधिकार है..
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