जीवन में गहराई हो या मात्रा हो, यह प्रश्न सदा ही उठता रहा है। प्रेम के संदर्भों में भी यह प्रश्न उठ खड़ा होता है, विशेषकर तब, जब संवाद चित्रलेखा और सुकन्या के बीच हो रहा हो। चित्रलेखा, एक अप्सरा और सुकन्या, महर्षि च्यवन की सहधर्मिणी। उर्वशी महर्षि च्यवन के आश्रम में अपने पुत्र को जन्म देती है, सुकन्या की देख रेख में। उर्वशी की सखियाँ भी बहुधा वहाँ आती हैं, कभी सहायता करने और कभी उत्सुकतावश, यह देखने कि स्वर्ग और मही के संयोग में किसको कितना भाग मिला है, पुत्र में किसका अंश अधिक है।
आश्रम में चहल पहल रहती है। चित्रलेखा और सुकन्या, दोनों के लिये ही यह पहला अवसर है, एक दूसरे की जीवन पद्धतियों को समझने का। दोनों ही प्रेम में पगी हैं, एक समस्त देवताओं की आकांक्षाओं से प्लावित, एक महर्षि के एकनिष्ठ प्रेम में अनुप्राणित। दोनों के ही जीवन में प्रेम है, पर उसका स्वरूप भिन्न भिन्न है, एक के लिये समन्दर सा, एक के लिये दसियों घट जैसा। दोनों के ही प्रश्न एक दूसरे से सहज हैं, सुकन्या को मात्र एक नर में संतुष्ट रह पाना चित्रलेखा के लिये आश्चर्य है तो चित्रलेखा के प्रेम में गाढ़ेपन की अनुपस्थिति सुकन्या को आश्चर्यचकित करता है।
हम व्यक्ति के रूप में भावों की जिस उड़ान में बने रहना चाहते है, समाज के रूप में उससे कहीं भिन्न और बँधा हुआ सोचने लगते हैं। व्यक्तिगत आकांक्षाओं से ऊपर उठ समाज के स्तर में पहुँचने में कई बंधन स्वीकारने पड़ते हैं। संबंधों में बँधे जाने के भाव सन्निहित हैं, अच्छी प्रकार से बँधने का या ढंग से बँध जाने का। हमें दोनों दिखायी पड़ते हैं, एक ओर अप्सराओं और देवताओं की प्रेमासित उन्मुक्तता और दूसरी ओर ब्रह्मवादियों की संसार को त्याग देने की प्रवृत्ति। विवाह दोनों के बीच का मार्ग है, प्रवृत्ति और निवृत्ति के बीच का मार्ग, नर की अग्नि और कामना वह्नि को अनियन्त्रित न होने देने का प्रयास।
मुक्त समाज की उपस्थिति आधुनिकता की आहट मानी जाती है, पर सदियों से हम परिवार के रूप में रह रहे हैं, मन में प्रेम की उत्कट अभिलाषा और समाज में बन्धनपूर्ण व्यवहार के झूले में झूलते हुये। मध्यममार्ग अपना रखा है, न ही उन्मुक्तता और न ही त्याग। हमने प्रेम के अल्पकालिक उन्माद के ऊपर उसका दीर्घकालिक सौन्दर्य चुना, हमने दसियों घट के स्थान पर एक समन्दर चुना। समाज में मिलकर रहने का यही मार्ग सर्वोत्तम लगा होगा हमारे पूर्वजों को।
सुकन्या का प्रश्न अप्सराओं से बहुत ही सरल था, जब आपके अन्दर एक ही प्राण हैं तो वह इतने पुरुषों को कैसे दे बैठती हैं? यदि इतनों को प्रेम बाँटती हैं तो प्रेम में प्रत्याशा क्या है? यदि प्रेम ही महत्वपूर्ण है तो प्रेमी को इतना न्यून महत्व क्यों? घट घट का स्वाद चखने वालों के लिये किसी एक का महत्व कहाँ? निर्मोही और उत्श्रंखल व्यक्तित्व निर्माण करती है यह सोच, अप्सराओं के प्रति देवताओं के अघट आकर्षण का कारण हो यह सोच, भोग विलास में निशदिन पसरे देवताओं के लिये एक वरदान है यह सोच। न ढलने वाले शरीर, न व्यस्त रहने के लिये कोई कर्म, न संबंधों में बद्ध जीवन, भोग में विविधता और नित नवीनता, पर फिर भी क्या वांछित प्रसन्नता मिल पाती है, इस सोच के पोषकों को। न स्वर्ग को समझ पायें, तो वर्तमान विश्व में कुछ संस्कृतियाँ इस विचारधारा की उपासक हैं। सुकन्या का प्रश्न उनसे भी वही है, एक प्राण का इतना विभाजन क्यों?
किन्तु प्रश्न केवल मात्रा, विविधता या गुणवत्ता का ही नहीं है। अप्सरायें सुकन्या को वह विवशता भी बता सकती हैं जिसके कारण मृत्युलोक में उतनी उत्श्रंखलता नहीं है। विवशता सौन्दर्य के ढल जाने की, विवशता अंगों के शिथिल हो जाने की, विवशता वृद्ध हो जाने की। जीवन का एक चौथाई भाग भले ही शारीरिक आकर्षण में बीत जाये, पर शेष तीन चौथाई का क्या? जब शरीर अपना आकर्षण त्याग देगा, तब आपको किसका आधार मिलेगा? इसे विवशता कह लें या समझदारी पर शरीर के परे भी जाकर सोचना आवश्यक हो जाता है तब। हृदय का आकर्षण तब भी शेष रहता है, उसका आधार जीवनपर्यन्त चलता है। यह भी एक कारण तो रहा ही होगा जो हमें प्रेम के शारीरिक पक्ष से भी आगे जा प्रेम के मानसिक पक्ष पर सोचने को प्रेरित करता है। शरीर ढलने पर आकर्षण भी कम हो जाता है। तो बुढ़ापे में भी प्यार बना रहे, उसके लिये समर्पण होना आवश्यक है। स्थायित्व की आस क्या प्रेम का स्वरूप सीमित कर देती है या प्रेम का विस्तार बढ़ा जाती है? सागर की गहराई या तालों का छिछलापन। दोनों को ही एक स्थायी आधार चाहिये होता है जो वृद्धावस्था तक शारीरिक और मानसिक संतुलन बनाये रखता है, जीवन को केवल युवावस्था मान बैठना अपरिपक्व सोच है।
सुकन्या कहती है कि तप और त्याग के भूषणों से सुशोभित महर्षि च्यवन ने अपना सर्वस्व उन पर अर्पित कर दिया है, उनका यह एकात्म समर्पण आकर्षण का अनन्त स्रोत है, हृदय से निकले प्रेम का अक्षुण्ण प्रवाह, जिस प्रवाह में उनका जीवन सदा ही आनन्दित रहता है। महर्षि च्यवन ही उनके लिये सब कुछ हैं, उन्हीं से भोग सीखा है, उन्हीं से योग सीखा है, उन्हीं के साथ अध्यात्म में अग्रसर भी हैं। सारा विश्व उनको मान देता है और वह मुझे अपना मान बैठे हैं, इससे अधिक गर्व भरा भाव और क्या हो सकता है भला? इस समर्पण के भाव से हमारा प्रेम पल्लवित होता है, समर्पण से आत्मीयता और गहराती है, प्रेम नवीन बना रहता है। मधुपूर्ण हृदय का प्रेम और भी गहरा होता है, सुख की गुणवत्ता बढ़ती है। तो क्या एक के ही साथ बने रहने से क्या सुख की मात्रा कम हो जाती है? नहीं, जब प्रेम का स्रोत शरीर से हट हृदयारूढ़ हो जाये तो सुख की मात्रा प्रतिपल द्विगुणित होती रहती है।
तो क्या प्रेम की दृष्टि से विवाह की संस्था दोष रहित है? इसमें भी दोष हैं, संबंधों में मोह हो जाता है, तब प्रेमी का बिछड़ना दुखदायी हो जाता है। बच्चों के प्रति वात्सल्य स्थायी रूप से परिवार में समेट लेता है, तब यही मोह अध्यात्म में बाधक होने लगता है। बहुधा ऐसा भी होता है कि हमारी आकाक्षायें प्रेमी की क्षमता के अनुरूप नहीं होती हैं, गुणों में तालमेल नहीं बैठता है। क्या तब भी हम साथ बने रहें और नित पीड़ा का गरल पीते रहें? तालमेल बिठाने के लिये थोड़ा त्याग तो अपेक्षित है, पर पीड़ा और त्याग के अन्तर को समझे बिना समस्या के साथ सदा के लिये बैठ जाने का कोई अर्थ नहीं है। यदि तालमेल नहीं बैठता है तो अलग हो जाना ही श्रेयस्कर है, पर बात अन्ततः दीर्घकालिक संबंधों की पुनः उठेगी। प्रेम का जो भी स्रोत हो, दीर्घकालिक हो।
संततियों की उत्पत्ति समाज के प्रवाह को स्थिरता देती है, संततियाँ न हों तो मृत्युलोक में जीवन समाप्त हो जायेगा। काल के साथ साथ हम रिले रेस दौड़ रहे हैं, उत्तरदायित्व अपनी संततियों को सौंपकर, वही हमारी उपस्थिति बन हमारे संघर्ष के संकेत बने रहते हैं। समाज के इस रूप को बनाये रखने के लिये और उसमें गुणवत्ता बनाये रखने के लिये, यह बहुत आवश्यक है कि उन्हें भी माता पिता का समुचित आश्रय मिले। एक परिवार का स्वरूप बच्चों के विकास के लिये महत्वपूर्ण है। उत्श्रंखल समाजों में बच्चों की मानसिक दुर्दशा बनी रहती है। बच्चों को दोनों का स्पर्श चाहिये, एक की तरह बन सकने के लिये और दूसरे को समझ सकने के लिये। यही स्पर्श उसके समुचित विकास के लिये अमृत है, उसकी उपस्थिति केवल परिवार में ही है। प्रेम की उद्दाम इच्छा समाज के स्थायित्व हेतु विवाह का रूप धर लेती हे, स्वर्गलोक की उत्श्रंखला से कहीं अलग। प्रेम के निष्कर्षों को समाज के संदर्भों में समझना होगा हमें।
गर्भवती उर्वशी को देखकर, उसे तट पर लगी नौका की उपमा देते हैं महर्षि च्वयन।
आश्रम में चहल पहल रहती है। चित्रलेखा और सुकन्या, दोनों के लिये ही यह पहला अवसर है, एक दूसरे की जीवन पद्धतियों को समझने का। दोनों ही प्रेम में पगी हैं, एक समस्त देवताओं की आकांक्षाओं से प्लावित, एक महर्षि के एकनिष्ठ प्रेम में अनुप्राणित। दोनों के ही जीवन में प्रेम है, पर उसका स्वरूप भिन्न भिन्न है, एक के लिये समन्दर सा, एक के लिये दसियों घट जैसा। दोनों के ही प्रश्न एक दूसरे से सहज हैं, सुकन्या को मात्र एक नर में संतुष्ट रह पाना चित्रलेखा के लिये आश्चर्य है तो चित्रलेखा के प्रेम में गाढ़ेपन की अनुपस्थिति सुकन्या को आश्चर्यचकित करता है।
हम व्यक्ति के रूप में भावों की जिस उड़ान में बने रहना चाहते है, समाज के रूप में उससे कहीं भिन्न और बँधा हुआ सोचने लगते हैं। व्यक्तिगत आकांक्षाओं से ऊपर उठ समाज के स्तर में पहुँचने में कई बंधन स्वीकारने पड़ते हैं। संबंधों में बँधे जाने के भाव सन्निहित हैं, अच्छी प्रकार से बँधने का या ढंग से बँध जाने का। हमें दोनों दिखायी पड़ते हैं, एक ओर अप्सराओं और देवताओं की प्रेमासित उन्मुक्तता और दूसरी ओर ब्रह्मवादियों की संसार को त्याग देने की प्रवृत्ति। विवाह दोनों के बीच का मार्ग है, प्रवृत्ति और निवृत्ति के बीच का मार्ग, नर की अग्नि और कामना वह्नि को अनियन्त्रित न होने देने का प्रयास।
मुक्त समाज की उपस्थिति आधुनिकता की आहट मानी जाती है, पर सदियों से हम परिवार के रूप में रह रहे हैं, मन में प्रेम की उत्कट अभिलाषा और समाज में बन्धनपूर्ण व्यवहार के झूले में झूलते हुये। मध्यममार्ग अपना रखा है, न ही उन्मुक्तता और न ही त्याग। हमने प्रेम के अल्पकालिक उन्माद के ऊपर उसका दीर्घकालिक सौन्दर्य चुना, हमने दसियों घट के स्थान पर एक समन्दर चुना। समाज में मिलकर रहने का यही मार्ग सर्वोत्तम लगा होगा हमारे पूर्वजों को।
सुकन्या का प्रश्न अप्सराओं से बहुत ही सरल था, जब आपके अन्दर एक ही प्राण हैं तो वह इतने पुरुषों को कैसे दे बैठती हैं? यदि इतनों को प्रेम बाँटती हैं तो प्रेम में प्रत्याशा क्या है? यदि प्रेम ही महत्वपूर्ण है तो प्रेमी को इतना न्यून महत्व क्यों? घट घट का स्वाद चखने वालों के लिये किसी एक का महत्व कहाँ? निर्मोही और उत्श्रंखल व्यक्तित्व निर्माण करती है यह सोच, अप्सराओं के प्रति देवताओं के अघट आकर्षण का कारण हो यह सोच, भोग विलास में निशदिन पसरे देवताओं के लिये एक वरदान है यह सोच। न ढलने वाले शरीर, न व्यस्त रहने के लिये कोई कर्म, न संबंधों में बद्ध जीवन, भोग में विविधता और नित नवीनता, पर फिर भी क्या वांछित प्रसन्नता मिल पाती है, इस सोच के पोषकों को। न स्वर्ग को समझ पायें, तो वर्तमान विश्व में कुछ संस्कृतियाँ इस विचारधारा की उपासक हैं। सुकन्या का प्रश्न उनसे भी वही है, एक प्राण का इतना विभाजन क्यों?
किन्तु प्रश्न केवल मात्रा, विविधता या गुणवत्ता का ही नहीं है। अप्सरायें सुकन्या को वह विवशता भी बता सकती हैं जिसके कारण मृत्युलोक में उतनी उत्श्रंखलता नहीं है। विवशता सौन्दर्य के ढल जाने की, विवशता अंगों के शिथिल हो जाने की, विवशता वृद्ध हो जाने की। जीवन का एक चौथाई भाग भले ही शारीरिक आकर्षण में बीत जाये, पर शेष तीन चौथाई का क्या? जब शरीर अपना आकर्षण त्याग देगा, तब आपको किसका आधार मिलेगा? इसे विवशता कह लें या समझदारी पर शरीर के परे भी जाकर सोचना आवश्यक हो जाता है तब। हृदय का आकर्षण तब भी शेष रहता है, उसका आधार जीवनपर्यन्त चलता है। यह भी एक कारण तो रहा ही होगा जो हमें प्रेम के शारीरिक पक्ष से भी आगे जा प्रेम के मानसिक पक्ष पर सोचने को प्रेरित करता है। शरीर ढलने पर आकर्षण भी कम हो जाता है। तो बुढ़ापे में भी प्यार बना रहे, उसके लिये समर्पण होना आवश्यक है। स्थायित्व की आस क्या प्रेम का स्वरूप सीमित कर देती है या प्रेम का विस्तार बढ़ा जाती है? सागर की गहराई या तालों का छिछलापन। दोनों को ही एक स्थायी आधार चाहिये होता है जो वृद्धावस्था तक शारीरिक और मानसिक संतुलन बनाये रखता है, जीवन को केवल युवावस्था मान बैठना अपरिपक्व सोच है।
तो क्या प्रेम की दृष्टि से विवाह की संस्था दोष रहित है? इसमें भी दोष हैं, संबंधों में मोह हो जाता है, तब प्रेमी का बिछड़ना दुखदायी हो जाता है। बच्चों के प्रति वात्सल्य स्थायी रूप से परिवार में समेट लेता है, तब यही मोह अध्यात्म में बाधक होने लगता है। बहुधा ऐसा भी होता है कि हमारी आकाक्षायें प्रेमी की क्षमता के अनुरूप नहीं होती हैं, गुणों में तालमेल नहीं बैठता है। क्या तब भी हम साथ बने रहें और नित पीड़ा का गरल पीते रहें? तालमेल बिठाने के लिये थोड़ा त्याग तो अपेक्षित है, पर पीड़ा और त्याग के अन्तर को समझे बिना समस्या के साथ सदा के लिये बैठ जाने का कोई अर्थ नहीं है। यदि तालमेल नहीं बैठता है तो अलग हो जाना ही श्रेयस्कर है, पर बात अन्ततः दीर्घकालिक संबंधों की पुनः उठेगी। प्रेम का जो भी स्रोत हो, दीर्घकालिक हो।
संततियों की उत्पत्ति समाज के प्रवाह को स्थिरता देती है, संततियाँ न हों तो मृत्युलोक में जीवन समाप्त हो जायेगा। काल के साथ साथ हम रिले रेस दौड़ रहे हैं, उत्तरदायित्व अपनी संततियों को सौंपकर, वही हमारी उपस्थिति बन हमारे संघर्ष के संकेत बने रहते हैं। समाज के इस रूप को बनाये रखने के लिये और उसमें गुणवत्ता बनाये रखने के लिये, यह बहुत आवश्यक है कि उन्हें भी माता पिता का समुचित आश्रय मिले। एक परिवार का स्वरूप बच्चों के विकास के लिये महत्वपूर्ण है। उत्श्रंखल समाजों में बच्चों की मानसिक दुर्दशा बनी रहती है। बच्चों को दोनों का स्पर्श चाहिये, एक की तरह बन सकने के लिये और दूसरे को समझ सकने के लिये। यही स्पर्श उसके समुचित विकास के लिये अमृत है, उसकी उपस्थिति केवल परिवार में ही है। प्रेम की उद्दाम इच्छा समाज के स्थायित्व हेतु विवाह का रूप धर लेती हे, स्वर्गलोक की उत्श्रंखला से कहीं अलग। प्रेम के निष्कर्षों को समाज के संदर्भों में समझना होगा हमें।
गर्भवती उर्वशी को देखकर, उसे तट पर लगी नौका की उपमा देते हैं महर्षि च्वयन।
प्रेम के निष्कर्षों को समाज के संदर्भों में समझना होगा हमें।,,,
ReplyDeleteस्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाए,,,,
RECENT POST...: शहीदों की याद में,,
उर्वशी और सुकन्या के परस्पर संवाद ने प्रेम और विवाह संबंधों की स्थिरता पर गहन विमर्श दिया !
ReplyDeleteयथार्थतः प्रेम है तो ,सृजन है ,सृजन है तो समन्वयन है/ दिशा निर्धारण ,अतीत से भविष्य का मानक संलयन जीवन शैली को प्रकट करता है /हम कितना सफल हुए / अपरोक्ष रूप से उर्वशी का स्वरुप एक उद्दाम नायिका का है ,जिसके गर्भिणी होने मात्र से ,एक निश्चिन्तता की रेखा खिंची नजर आती है ...जिसमें अब शायद भटकन की कम संभावना है ....वास्तव में हम अपनी नायिका सी समझ बैठने की भूल करते हैं .......सदैव उर्वशी तो अप्सरा के रूम में ही दखी गयी ......सामाजिक सन्दर्भों में विचारनीय लेख .... शुभकामनयें जी पांडे जी /
ReplyDeleteबन्धनों से परे प्रेम शायद नहीं जा पाता, यही बंधन प्रेम को स्थायित्व का आधार भी देते हैं .....जो आगे चलकर संततियों के समुचित विकास का सामाजिक वातावरण बनाता है....
ReplyDeleteपौराणिक सन्दर्भ और सुन्दर आलेख |
ReplyDelete"जब प्रेम का स्रोत शरीर से हट हृदयारूढ़ हो जाये तो सुख की मात्रा प्रतिपल द्विगुणित होती रहती है"
ReplyDeleteनिर्मोही और "उत्श्रंखल" व्यक्तित्व निर्माण करती है यह सोच, अप्सराओं के प्रति देवताओं के अघट आकर्षण का कारण हो यह सोच, भोग विलास में निशदिन पसरे देवताओं के लिये एक वरदान है यह सोच। न ढलने वाले शरीर, न व्यस्त रहने के लिये कोई कर्म, न संबंधों में बद्ध जीवन, भोग में विविधता और नित नवीनता, पर फिर भी क्या वांछित प्रसन्नता मिल पाती है, इस सोच के पोषकों को। न स्वर्ग को समझ पायें, तो वर्तमान विश्व में कुछ संस्कृतियाँ इस विचारधारा की उपासक हैं। सुकन्या का प्रश्न उनसे भी वही है, एक प्राण का इतना विभाजन क्यों?
ReplyDeleteकृपया चेक करें -..... (श्रृंखल)तो नहीं संततियों की उत्पत्ति समाज के प्रवाह को स्थिरता देती है, संततियाँ न हों तो मृत्युलोक में जीवन समाप्त हो जायेगा। काल के साथ साथ हम रिले रेस दौड़ रहे हैं, उत्तरदायित्व अपनी संततियों को सौंपकर, वही हमारी उपस्थिति बन हमारे संघर्ष के संकेत बने रहते हैं.....सार्थक चिंतन समाज की निरंतरता उत्कृष्टता के लिए प्रेम का उद्दात स्वरूप ,समर्पित प्रेम ज़रूरी .यौमे आजादी मुबारक . यहाँ भी पधारें -
ram ram bhai
बुधवार, 15 अगस्त 2012
TMJ Syndrome
TMJ Syndrome
http://veerubhai1947.blogspot.com/
..सार्थक चिंतन समाज की निरंतरता उत्कृष्टता के लिए प्रेम का उद्दात स्वरूप ,समर्पित प्रेम ज़रूरी घाट घाट का पानी पीना तो वैसे भी खतरनाक खेल है योनिज सृष्टि के लिए .....यौमे आजादी मुबारक . यहाँ भी पधारें -
ReplyDeleteram ram bhai
बुधवार, 15 अगस्त 2012
TMJ Syndrome
TMJ Syndrome
http://veerubhai1947.blogspot.com/
गहराई में ही अर्थ होते हैं
ReplyDeleteयोग और भोग का यह द्वंद्व जनक जैसा साधक हो तो साध कृष्ण जैसा योगी और भोगी हो तो चरितार्थ कर ले .....उर्वशी मानव मन की एक अतृप्त अभिलाषा की देन है ......ये मन बड़ा पापी है .....किनारे पर लगी नाव किनारे पर ही कहा रहती हैं ..धरा में बहना ही उसकी नियति है ..हाँ वह लोगों को जरुर पार लगती रहती है मगर खुद तो अभिशप्त है ढोने को .......मगर भवसागर से पार तो वह भी नहीं कराती....
ReplyDeleteअच्छा विवेचन चल रहा है मगर अब अकादमीय भाव प्राबल्य एक ब्लॉग पोस्ट की सीमा को अतिक्रमित कर रहा है -इसे संभाले!
हाँ, अब दस के बाद बस। प्रेम पर बहुत कुछ और कहा जा सकता है। पिछली दस पोस्टों के विषय उर्वशी से ही संबद्ध थे। दिनकर की महिमा ही कही जायेगी कि अपने खण्डकाव्य में इतने विषय समेटे हैं।
Deleteदस के बाद बस या प्रेम करने के दस बहाने ;) ?
Deleteनही... ये दिल माँगे मोर...
दिनकर को ले के 'चारण कवि' की जो धारणा थी, टूटती नज़र आ रही है प्रवीण जी. धन्यवाद आपका.
सादर
ललित
संसार की लघु सीमाओं में दोनो ही रूप विद्यमान हैं -पर प्रेम की परिभाषा इन सीमाओं में बँध जायेगी क्या ?
ReplyDeleteप्रेम हो तो एक घट ही समंदर का अनुभव करा देता है और अगर नहीं है तो समंदर के अंदर भी प्यास नहीं बुझती !
ReplyDeleteस्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ!
ReplyDeleteजय हिंद!
जीवन में गहरे या मात्रा का प्रश्न तो तब हो जब हम जीवन को एक प्रतिशत भी समझ सकें दुर्भाग्य तो यही है की लम्बे जीवन की कामना करने वाले हम लोग गहराई की तरफ से मुंह मोड़ रहें हैं
ReplyDeleteउम्दा आलेख के लिए बधाई
गहन अर्थ समेटे प्रस्तुति……………स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं !
ReplyDeleteबेहतर समीक्षात्मक प्रस्तुति
ReplyDeleteज़वान आगे बढ़ो ! :)
ReplyDeleteस्वतंत्रता दिवस की शुभकामनायें .
प्रेम की निस्छलता सीमा बद्ध ही रहती है तभी सामाजिक तानाबाना जीवित रहता है . हाँ दस के बाद बस नहीं श्रृखला जारी रखियेगा
ReplyDeleteGyanvardhak....Happy Independence Day Praveen Ji
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और सार गर्भित पोस्ट है प्रवीण जी. ऐसे ये सवाल तो शाश्वत है. विवाह में तालमेल की कमी ही सही, घाट-घाट के पानी से बेहतर समंदर ही है...
ReplyDeleteवंदना जी आपसे पूरी तरह सहमत हूँ.
Deleteबहुत अधिक ज्ञान प्रेम को प्रवाहित नहीं होने देता | मूढ़ व्यक्ति अधिक प्रेमी होता है क्योंकि उसमे स्वार्थ और अपेक्षाएं अत्यंत अल्प या न के बराबर होती है और ज्ञानी व्यक्ति सर्वाधिक स्वार्थी होता है ,वह चाहे स्त्री हो या पुरुष, और जहां स्वार्थ होता है वहां प्रेम का स्रोत अनवरत नहीं हो सकता |
ReplyDeleteबहुत ही उम्दा आलेख है..
ReplyDeleteअलग अलग धरातल पर खड़ी हैं सुकन्या और चित्रलेखा, तभी यह संवाद संभव हुआ| जोरदार सीरीज रही ये और ये पोस्ट सभी पोस्ट्स पर भारी लगी मुझे|
ReplyDeleteLove and society have a strange inter-connection. We can't justify it on one side. It is profound and sometimes even those who are involved can't justify.
ReplyDeleteThought Provoking!
मोहबंधन के रंग अनेक………
ReplyDeleteस्वतंत्र दिवस की शुभकामनाये !
ReplyDeleteजब प्रेम का स्रोत शरीर से हट हृदयारूढ़ हो जाये तो सुख की मात्रा प्रतिपल द्विगुणित होती रहती है।जीवन का यही सार है यही वास्तविक प्रेम है बाकी सब वासना के खेल हैं
ReplyDeleteसच्चा प्रेम तो एक घट में ही समाया रहता है वैसे सब तरह के लोग हैं इस मर्त्य लोक में भी जिनको समुन्द्र में भी तृप्ति नहीं मिलती,बहुत बढ़िया आलेख नीर क्षीर को प्रथक करता बहुत बधाई |
श्रम से लिखा लेख.
ReplyDeleteबेहद रोचक.
सम्भवत: प्रेम में बंधन खुद बंधन न लग कर एक आधार जैसा हो जाता है ......
ReplyDeleteआपकी 'उर्वशी'से सम्बंधित श्रृंखला अच्छी रही...
ReplyDeleteदिनकर की उर्वशी को नए आयाम दिए हैं आपके लेखन ने...
दिनकर की महिमा को विस्तारित करने में सराहनीय योगदान..
ReplyDeleteबहुत सारगर्भित चिंतन...
ReplyDeleteबुद्धिजीवी विविधता की तलाश में रहता है। जहाँ चिर यौवन है वहाँ यौन के विविध स्वाद ही उसे आनंदित करते होंगे जहाँ मृत्यु निश्चित है वहाँ चिंतन भविष्य की चिंता है। प्रेम इसी भविष्य की चिंता से पगा एकनिष्ठता(प्रेम) का दंभ भरता सा प्रतीत होता है। रहस्य यही सही लगता है।:)
ReplyDeleteआपका यह प्रयास बेहद सराहनीय है ... आभार इस उत्कृष्ट प्रस्तुति के लिए
ReplyDeleteमुझे लगता है की आपने अब तक उर्वशी पे 8-9 पोस्ट तो लिख ही दिए होंगे :) :)
ReplyDeleteAnyway I am loving it!!! :)
क्या गज़ब का प्रश्न उठाया है, चिर नूतन और आदिम भी. प्रेम से ज्यादा रहस्यमय, अबूझ, अज्ञात और क्या हो सकता है. मानव मन को जितना इसने उलझाया है, उतना किसी ने नहीं. भाई मैं तो बाबा कबीर के साथ हूँ- या में दो न समाय.
ReplyDeleteन ढलने वाले शरीर, न व्यस्त रहने के लिये कोई कर्म, न संबंधों में बद्ध जीवन, भोग में विविधता और नित नवीनता, पर फिर भी क्या वांछित प्रसन्नता मिल पाती है, इस सोच के पोषकों को।
ReplyDeleteनिश्चित काफी एकरस होगा ऐसा जीवन और जीवन भी क्या कहें मृत्यु नही तो फिर जीवन कैसा ।
इससे तो अच्छा है यह नश्वर जीवन ।