यद्यपि यह विषय उर्वशी में अपनी पूर्णता से व्यक्त नहीं हुआ है, पर बहुधा दिनकर के दर्शनमय आख्यान के संकेत उस दिशा में जाते हैं। प्रकृति ने मानव शरीर में सहज ही आकर्षण के भाव भर दिये हैं, हम जैसे लघु-ईश्वरों के अहं को संतुष्ट करने के लिये सुख के साधन भी जुटा दिये हैं, हम आनन्द में उतराते तो हैं पर शीघ्र ही स्रोत सूख जाते हैं, हम सुखों के घट भरने का पुनः प्रयास करते हैं, प्रकृति द्वारा प्रस्तुत प्रवृत्तिमार्ग अपना लेते हैं। प्रकृति हमारे ऊपर शासन करती है, हमारी शासन करने की आकांक्षा का लाभ लेकर।
क्या हमें यह खेल समझ नहीं आता है? निश्चय ही आता होगा, सुख के सारे स्रोत अल्पकालिक है, सुख के साथ दुख भी आता है, पर यह सब जानकर भी अपनी समझ न बना पाना या जानकर भी उसे क्रियान्वित न कर पाना। भला क्या कारण होगा इसका? सुखों को छोड़ पाना कठिन है, बहुत कठिन, किसी भी उस पथ के लिये जिसका निष्कर्ष अभी तक दिखा ही नहीं, अनुभव तक नहीं हुआ। अनिश्चितता एक बहुत बड़ा कारण है, श्रेष्ठ विकल्प की अनुपस्थिति बहुत बड़ा कारण है। प्रकृति का खेल ज्ञात है, उतना निर्मल नहीं है, पर कुछ तो है। निर्वात में रह पाना कभी जीवन ने सीखा ही नहीं, एक पल के लिये भी। प्रकृति भला क्यों सिखाने लगी हमें, निर्वात में चल पाना, उड़ पाना, वह तो बाँधती है और वही सिखाती भी है। हम जान भी जायें कि हम बँधे हैं, पर मुक्त नहीं हो पाते हैं, बन्धन में ही सुख मान लेते हैं।
यही प्रश्न प्रेम के भी हैं। लौकिक प्रेम या आलौकिक प्रेम। भक्ति ईश्वरीय प्रेम की अभिव्यक्ति है, आत्मा का संवाद। प्रणय प्राकृतिक प्रेम का निरूपण है, शरीर का संवाद। क्या प्रणय में बिन उतरे भक्ति को समझा जा सकता है, क्या भक्ति के निर्वात में चल ईश्वरीय प्रेम तक पहुँचा जा सकता है? यह प्रश्न चिरकाल से मानव मेधा को कुरेद रहा है, अनुभव के न जाने कितने अध्याय लिखे जा चुके हैं, इस विषय पर। प्रश्न अब भी वही है, प्रश्न अब भी उतना उलझा है।
शास्त्र तो कहते हैं, प्रणय में जो क्षणिक सुख लब्ध है, उसका अनन्त और निर्बाध संस्करण भक्ति में ही मिल पाता है, प्रणय बस उस महासुख का संकेत भर है। संकेत की दिशा अपने लक्ष्य की दिशा से भिन्न क्यों होने लगी भला, यदि ऐसा है तो अनन्त सुख की एक राह प्रणय से भी होकर जाती होगी। यदि अनन्त सुख की एक राह निवृत्ति के निर्वात से होकर जाती है तो प्रवृत्ति के ठोस धरातल से भी कोई न कोई मार्ग तो होगा ही। अग्नि पर चलते जाना और तृप्तमना हो अनन्त को पा जाना, संभवतः यही इस राह के साक्ष्य हों।
न मैं किसी धर्माचार्य की तरह किसी पंथ का प्रतिपादन कर रहा हूँ और न ही किसी स्थापित पंथ पर कोई टीका टिप्पणी। मैं तो बस उन संकेतों को समझने का प्रयास भर कर रहा हूँ जिससे सारी प्रकृति संचालित है और जो अनन्त सुख की ओर हमारा ध्यान इंगित करते हैं।
नास्तिक दर्शन तो शरीर के परे जाता भी नहीं हैं, अतः उसमें शारीरिक प्रेम ही सर्वोपरि हुआ। आस्तिक दर्शन में थोड़ा गहरे उतरें तो प्रकृति के रचे जाने का कारण ज्ञात होता है। हमारा मूल स्वभाव प्रेम का है, निर्मल, निष्कपट, धवल, अनन्त प्रेम का। जब भी हम अपने मूल स्वभाव में रहते हैं, आनन्द में रहते हैं। न जाने कहाँ से, हमारे मन में नियन्त्रण करने का ईश्वरीय भाव जग जाता है। करुणावश ईश्वर एक विश्व रच देते हैं, उसके संचालनार्थ प्रकृति को नियुक्त करते हैं, हम उसमें रहने आ जाते हैं, स्वयं को ईश्वर समझ कर। शून्य से उत्पन्न विश्व में जितनी धनात्मकता होगी, उतनी ही ऋणात्मकता भी, सुख होगा तो दुख भी, यही द्वन्द्व का आधार भी है।
प्रकृति चक्र से बाहर निकलने का मार्ग संभवतः उन कारकों में ही छिपा होगा, जिनके कारण हम इस प्रकृति चक्र में आ पहुँचे। यदि अहं कारण है तो अहं को छोड़ कर पुनः इस चक्र से बाहर निकला जा सकता है। जगत की नश्वरता यदि यह संकेत देती है कि यह हमारा स्थायी घर नहीं, तो प्रेम की उपस्थिति उससे बाहर आने का मार्ग भी बतलाती है। प्रेम से बड़ा भला और क्या उपाय हो सकता है, अहं के संहार का। नियन्त्रित करने की प्रवृत्ति से बाहर आ प्रेमी को अपना सब कुछ समर्पण कर देना, अपने अहं त्याग देने का सर्वोत्तम उपाय है। शरीर से मन तक बढ़ता, एक व्यक्ति से पूरे समूह में विस्तारित होता, दया, करुणा आदि रूपों में अपनी निष्पत्ति पाता, प्रेम में सारे विश्व को समेट लेने की शक्ति है।
प्रेम आनन्द तभी देगा, जब वह अपने निर्मल रूप में प्रस्तुत हो। अधिकार का भाव प्रेम नहीं हो सकता है। अधिकार का भाव हमें उस दलदल में वापस ठेलना चाहता है, जिससे बाहर निकलने के लिये हमने प्रेम का सहारा लिया है। द्वन्द्व के दलदल से बाहर निकल यदि आनन्द के नभ में उड़ान भरनी है तो प्रेम के पंख लगाने होंगे और अधिकार के भार त्यागने भी। प्रेम के निष्कर्ष व्यापक हैं, उर्वशी के अर्थ गूढ़ हैं। स्वर्ग मही का भेद, नर की अग्नि, कामना-वह्नि की शिखा, सब के सब प्रेम के ही पूर्वपक्ष हैं, प्रकृति-सागर में डूबकर आनन्द के माणिक निकालने के संकेत। दिनकरकृत उर्वशी का पाठ प्रकृति के उन अमूर्त तत्वों को गुनने का साधन है जिसमें प्रेम के निष्कर्ष गुँथे हुये हैं।
क्या हमें यह खेल समझ नहीं आता है? निश्चय ही आता होगा, सुख के सारे स्रोत अल्पकालिक है, सुख के साथ दुख भी आता है, पर यह सब जानकर भी अपनी समझ न बना पाना या जानकर भी उसे क्रियान्वित न कर पाना। भला क्या कारण होगा इसका? सुखों को छोड़ पाना कठिन है, बहुत कठिन, किसी भी उस पथ के लिये जिसका निष्कर्ष अभी तक दिखा ही नहीं, अनुभव तक नहीं हुआ। अनिश्चितता एक बहुत बड़ा कारण है, श्रेष्ठ विकल्प की अनुपस्थिति बहुत बड़ा कारण है। प्रकृति का खेल ज्ञात है, उतना निर्मल नहीं है, पर कुछ तो है। निर्वात में रह पाना कभी जीवन ने सीखा ही नहीं, एक पल के लिये भी। प्रकृति भला क्यों सिखाने लगी हमें, निर्वात में चल पाना, उड़ पाना, वह तो बाँधती है और वही सिखाती भी है। हम जान भी जायें कि हम बँधे हैं, पर मुक्त नहीं हो पाते हैं, बन्धन में ही सुख मान लेते हैं।
शास्त्र तो कहते हैं, प्रणय में जो क्षणिक सुख लब्ध है, उसका अनन्त और निर्बाध संस्करण भक्ति में ही मिल पाता है, प्रणय बस उस महासुख का संकेत भर है। संकेत की दिशा अपने लक्ष्य की दिशा से भिन्न क्यों होने लगी भला, यदि ऐसा है तो अनन्त सुख की एक राह प्रणय से भी होकर जाती होगी। यदि अनन्त सुख की एक राह निवृत्ति के निर्वात से होकर जाती है तो प्रवृत्ति के ठोस धरातल से भी कोई न कोई मार्ग तो होगा ही। अग्नि पर चलते जाना और तृप्तमना हो अनन्त को पा जाना, संभवतः यही इस राह के साक्ष्य हों।
न मैं किसी धर्माचार्य की तरह किसी पंथ का प्रतिपादन कर रहा हूँ और न ही किसी स्थापित पंथ पर कोई टीका टिप्पणी। मैं तो बस उन संकेतों को समझने का प्रयास भर कर रहा हूँ जिससे सारी प्रकृति संचालित है और जो अनन्त सुख की ओर हमारा ध्यान इंगित करते हैं।
नास्तिक दर्शन तो शरीर के परे जाता भी नहीं हैं, अतः उसमें शारीरिक प्रेम ही सर्वोपरि हुआ। आस्तिक दर्शन में थोड़ा गहरे उतरें तो प्रकृति के रचे जाने का कारण ज्ञात होता है। हमारा मूल स्वभाव प्रेम का है, निर्मल, निष्कपट, धवल, अनन्त प्रेम का। जब भी हम अपने मूल स्वभाव में रहते हैं, आनन्द में रहते हैं। न जाने कहाँ से, हमारे मन में नियन्त्रण करने का ईश्वरीय भाव जग जाता है। करुणावश ईश्वर एक विश्व रच देते हैं, उसके संचालनार्थ प्रकृति को नियुक्त करते हैं, हम उसमें रहने आ जाते हैं, स्वयं को ईश्वर समझ कर। शून्य से उत्पन्न विश्व में जितनी धनात्मकता होगी, उतनी ही ऋणात्मकता भी, सुख होगा तो दुख भी, यही द्वन्द्व का आधार भी है।
प्रकृति चक्र से बाहर निकलने का मार्ग संभवतः उन कारकों में ही छिपा होगा, जिनके कारण हम इस प्रकृति चक्र में आ पहुँचे। यदि अहं कारण है तो अहं को छोड़ कर पुनः इस चक्र से बाहर निकला जा सकता है। जगत की नश्वरता यदि यह संकेत देती है कि यह हमारा स्थायी घर नहीं, तो प्रेम की उपस्थिति उससे बाहर आने का मार्ग भी बतलाती है। प्रेम से बड़ा भला और क्या उपाय हो सकता है, अहं के संहार का। नियन्त्रित करने की प्रवृत्ति से बाहर आ प्रेमी को अपना सब कुछ समर्पण कर देना, अपने अहं त्याग देने का सर्वोत्तम उपाय है। शरीर से मन तक बढ़ता, एक व्यक्ति से पूरे समूह में विस्तारित होता, दया, करुणा आदि रूपों में अपनी निष्पत्ति पाता, प्रेम में सारे विश्व को समेट लेने की शक्ति है।
प्रेम आनन्द तभी देगा, जब वह अपने निर्मल रूप में प्रस्तुत हो। अधिकार का भाव प्रेम नहीं हो सकता है। अधिकार का भाव हमें उस दलदल में वापस ठेलना चाहता है, जिससे बाहर निकलने के लिये हमने प्रेम का सहारा लिया है। द्वन्द्व के दलदल से बाहर निकल यदि आनन्द के नभ में उड़ान भरनी है तो प्रेम के पंख लगाने होंगे और अधिकार के भार त्यागने भी। प्रेम के निष्कर्ष व्यापक हैं, उर्वशी के अर्थ गूढ़ हैं। स्वर्ग मही का भेद, नर की अग्नि, कामना-वह्नि की शिखा, सब के सब प्रेम के ही पूर्वपक्ष हैं, प्रकृति-सागर में डूबकर आनन्द के माणिक निकालने के संकेत। दिनकरकृत उर्वशी का पाठ प्रकृति के उन अमूर्त तत्वों को गुनने का साधन है जिसमें प्रेम के निष्कर्ष गुँथे हुये हैं।
प्रेम का निष्कर्ष कैसा .... इसमें न सुख है न दु:ख यह बस प्रेम है प्रेम प्रेम और बस प्रेम ...
ReplyDelete...सहमत !
Deleteसच ही है कि अधिकार का भार उठाये रहेंगें तो प्रेम की निर्मलता को पाना कठिन है..... उसके सही अर्थों को समझना असंभव है...
ReplyDeleteपूर्ण प्रतिदान चाहता है प्रेम .अधिकार कैसा ?पूर्ण समर्पण चाहता है प्रेम अधिकार भावना प्रेम की हत्या कर देती है .एहम विसर्जन के बाद प्रे अ शरीरी हो जाता होगा .बढिया प्रस्तुति है .प्रेम(प्रणय ,दैहिक प्रेम )और . ,भक्ति के शिखर रास्ते भिन्न भले हों आन्नद यकसां देंगे .कृपया यहाँ भी पधारें -
ReplyDeleteशनिवार, 11 अगस्त 2012
Shoulder ,Arm Hand Problems -The Chiropractic Approachhttp://veerubhai1947.blogspot.com/
घुसकर तमाशा देखने के चक्कर में हम साधारण मनुष्य उस मक्खी के समान हो जाते हैं जो चाशनी में उतरकर अपने पंख भी भिगो बैठी हो| मजा तो खूब आता है लेकिन वो क्षणिक ही होता है, उड़ने के प्रयास विफल|
ReplyDeleteविचारपूर्ण लालित्यपूर्ण निबंध
ReplyDeleteगीता में एक दिशा निर्देशक दृष्टांत है -
प्रकृतिस्त्वाम नियोक्ष्यति ....
मनुष्य निमित्त मात्र है कर्ता धर्ता सब प्रकृति है ...
हमारे चाहने न चाहने से कुछ नहीं होता -प्रकृति हमें निज इच्छा के पक्ष विपक्ष में
उद्यत कर देगी उद्योगित कर देगी ..
हे अर्जुन तुम युद्ध न भी लड़ना चाहो तो भी प्रकृति तुम्हे युद्धोन्मुख कर ही देगी -कोई अन्य रास्ता नहीं...
सो हे निबंधकार! द्वंद्व छोड़,तर्क छोड़, प्रशांत बन .....तेरा कुछ भी कहीं भी अधिकार नहीं है....बस निमित्त मात्र है तू तो रे....... : :-)
मूल प्रवृति तो यही थी मानव की मगर विकास के साथ पतन शायद यही है ! इसलिए आज सबके चेहरे सूखे से , जीवन का आनंद खो गया है !
ReplyDelete"प्रेम आनन्द तभी देगा, जब वह अपने निर्मल रूप में प्रस्तुत हो" सत्य यही है.
ReplyDeleteसतत-
ReplyDeleteगूढ़ चर्चा-
शुभकामनायें --
गहरे चिंतन से मेरे घुटने का दर्द बढ़ जाता है-
तरह तरह के प्रेम हैं, अपना अपना राग |
मन का कोमल भाव है, जैसे जाये जाग |
जैसे जाये जाग, वस्तु वस्तुता नदारद |
पर बाकी सहभाग, पार कर जाए सरहद |
जड़ चेतन अवलोक, कहीं आलोकिक पावें |
लुटा रहे अविराम, लूट जैसे मन भावे |
जड़ चेतन अवलोक, कहीं आलौकिक पावें |
Deleteप्रेम के बारे में मैं इतना ही जान पाया कि यह बिना किन्तु,परन्तु और शर्त के हो जाता है.ऐसा प्रेम आज के समय में दुर्लभ हो रहा है.हम अज्ञानता के कारण वासनात्मक और स्वार्थयुक्त संबंधों को ही प्रेम मान बैठते हैं.प्रेम में अकसर मिलन नहीं होता,पर यह संयोग-वियोग या किसी निष्कर्ष का मोहताज़ नहीं है.
ReplyDelete...हो सकता है,उर्वशी और पुरुरवा के सन्दर्भ में प्रेम अलग किस्म का हो !
देह से उत्थित होने वाले प्रेम को ही दिनकर जी ने रहस्य-चिंतन तक पहुंचा दिया है। यह फ़्रायड के मनोवैज्ञानिक ‘सब्लिमेशन’ की तरह एक ‘आध्यात्मिक उन्नयन है।
ReplyDeleteकल 12/08/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
प्रेम प्रेम सभी कहें प्रेम न जाने कोय
ReplyDeleteबिरले इस दुनिया में जिन्हें किसी से प्रेम होय
प्रेम की बहुत ही सुन्दर व्याख्या है आपका आलेख लेकिन क्या यह दुर्भाग्यजनक नहीं हैं की प्रेम की महत्ता को समझते हुए भी हम उसे स्वीकारने से कहीं न कहीं घबराते है
अधिकार का भाव प्रेम नहीं हो सकता है। अधिकार का भाव हमें उस दलदल में वापस ठेलना चाहता है, जिससे बाहर निकलने के लिये हमने प्रेम का सहारा लिया है। द्वन्द्व के दलदल से बाहर निकल यदि आनन्द के नभ में उड़ान भरनी है तो प्रेम के पंख लगाने होंगे और अधिकार के भार त्यागने भी। ----------आपके इस आलेख की इन पंक्तियों में ही सभी समस्याओं का निवारण और आध्यात्मिक सुख का आधार छिपा है बहुत बढ़िया आलेख
ReplyDeleteसही दृष्टि है।
ReplyDeleteप्रेम आनन्द तभी देगा, जब वह अपने निर्मल रूप में प्रस्तुत हो। अधिकार का भाव प्रेम नहीं हो सकता है....
ReplyDeleteगहन बातों को सरलता से समझा दिया आपने....
सादर
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (12-08-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
मूल भाव तो अहंकार को त्यागना है, प्रेम तो बस एक माध्यम भर है...
ReplyDeleteप्रेममय हो जाना, मतलब ईश्वरमय हो जाना है...
दिनकर ने प्रेम को वासना के फंदे से निकलकर एक अद्वितीय ऊंचाई दी है...
BAHUT HI ACHHI POST..KUCH SEEKHE KUCH SAMJHE..AUR KUCH BISRE...
ReplyDeleteप्रेम आनन्द तभी देगा, जब वह अपने निर्मल रूप में प्रस्तुत हो। सही कहा प्रवीण जी और यही शाश्वत सत्य भी है..बहुत सुन्दर आलेख..
ReplyDeleteपूरी ब्लॉग बुलेटिन टीम और आप सब की ओर से अमर शहीद खुदीराम बोस जी को शत शत नमन करते हुये आज की ब्लॉग बुलेटिन लगाई है जिस मे शामिल है आपकी यह पोस्ट भी ... और धोती पहनने लगे नौजवान - ब्लॉग बुलेटिन , पाठक आपकी पोस्टों तक पहुंचें और आप उनकी पोस्टों तक, यही उद्देश्य है हमारा, उम्मीद है आपको निराशा नहीं होगी, टिप्पणी पर क्लिक करें और देखें … धन्यवाद !
ReplyDeleteप्रेम आनन्द तभी देगा, जब वह अपने निर्मल रूप में प्रस्तुत हो। अधिकार का भाव प्रेम नहीं हो सकता है। अधिकार का भाव हमें उस दलदल में वापस ठेलना चाहता है, जिससे बाहर निकलने के लिये हमने प्रेम का सहारा लिया है।
ReplyDeleteउर्वशी के माध्यम से प्रेम का गहन और गूढ विश्लेषण ...
nice..प्रोन्नति में आरक्षण :सरकार झुकना छोड़े
ReplyDeleteप्रेम बस प्रेम है इसमें दुख सुख कैसा,,,,
ReplyDeleteउत्कृष्ट अभिव्यक्ति,सुंदर आलेख ,,,,,,,
प्रेम यथार्ततः आनंद का सकारात्मक पक्ष है ,स्वीकार्य भी वही, वांछित भी .....
ReplyDeleteगहन प्रेम विवेचन।
ReplyDeleteकाश, इसे जीवन में भी उतार पाते।
............
कितनी बदल रही है हिन्दी !
उर्वशी-दिनकर-प्रेम-प्रवीण... एक सुललित ब्लेंडिंग!! स्वर्गिक अनुभव!!
ReplyDeleteशरीर से मन तक बढ़ता, एक व्यक्ति से पूरे समूह में विस्तारित होता, दया, करुणा आदि रूपों में अपनी निष्पत्ति पाता, प्रेम में सारे विश्व को समेट लेने की शक्ति है।
ReplyDeleteबेहद गहन मंथन सार्थक आलेख
आभार एवं हार्दिक अभिनन्दन !!
प्रेम की गहन विवेचना ..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति
अतर्कित प्रेम के केंद्र और परिधि को छूता आलेख.. कई उहापोहों को राह दिखता हुआ ..
ReplyDeleteप्रेम स्वंय मे व्यापक है तो उसके निष्कर्ष कैसे आसानी से निकल सकते हैं ………बहुत खूबसूरत विवेचना
ReplyDeleteसच है भक्ति को पूर्णता समझने के लिए प्रेम को समझना जरूरी है ... और श्री कृष्ण कहते हैं प्रेम तो सबसे उत्तम मार्ग है ... प्रेम बिना भक्ति कहाँ ...
ReplyDeleteTrue love is close to divinity
ReplyDeleteप्रेम ... यानि समर्पण
ReplyDeleteप्रेम का मतलब ....जहां मतलब वहां प्रेम कहाँ |
ReplyDeleteप्रेम न खेती ऊपजै,प्रेम न हाट बिकाय ,
ReplyDeleteराजा-परजा जिस रुचै ,सिर दे सो लै जाय .
-कबीर .
हमारा मूल स्वभाव प्रेम का है, निर्मल, निष्कपट, धवल, अनन्त प्रेम का। जब भी हम अपने मूल स्वभाव में रहते हैं, आनन्द में रहते हैं।
ReplyDeleteऔर जब भी हम इससे विमुख होते हैं, दूर जाते हैं, आनंद खो जाता है.
आपके इस लेख में वैसी ही शांति और सहजता है जैसी मां बनने के बाद किसी महिला में होती है. समझ सकता हूँ उर्वशी ने आपको कितना मथा होगा. यह उर्वशी का उपसंहार है जिसमे उर्वशी का सारा सार है.
प्रेम आनन्द तभी देगा, जब वह अपने निर्मल रूप में प्रस्तुत हो। अधिकार का भाव प्रेम नहीं हो सकता है। - हमने तो इसे निष्कर्ष मान लिया !
ReplyDeleteइस असार संसार में, श्याम' प्रेम ही सार|
ReplyDeleteप्रेम करे दोनों मिलें, ज्ञान और संसार ||
प्रेम-लीन होपाय जो,परम-शान्ति सो पाय |
सारे बंधन मुक्त हो,अमर तत्व सो पाय ||
प्रेम आनन्द तभी देगा, जब वह अपने निर्मल रूप में प्रस्तुत हो। अधिकार का भाव प्रेम नहीं हो सकता है।
ReplyDeleteबिल्कुल सहमत हूँ आपके इस आकलन से !कसप की वो पंक्तियाँ याद आ रही हैं जो जोशी जी ने लिखी थीं और मुझे बेहद प्रिय हैं।
"प्रेम जब ये चाहने लगे कि मैं अपने प्रिय को एक नए आकार में ढाल लूँ, प्रेम जब ये कल्पना करने लगे कि वह जो मेरा प्रिय है, मिट्टी का बना है ओर मैं उसे मनचाही आकृति दे सकता हूँ...अलग अलग कोणों से मिट्टी सने हाथों वाले किसी क्षण परम संतोष को प्राप्त हो सकता हूँ, तब प्रेम, प्रेम रह जाता है कि नहीं, इस पर शास्त्रार्थ की परम संभावना है।"
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन में शामिल किया गया है... धन्यवाद....
ReplyDeleteसोमवार बुलेटिन