पता नहीं था कि यह कितने दिन चलेगा? पूर्वोत्तर के लगभग दो लाख लोग बंगलोर में हैं, मुख्यतः विद्यार्थी है, सेक्योरिटी सेवाओं में है, होटलों में हैं, ब्यूटी पार्लर में हैं और पर्याप्त मात्रा में आईटी में भी हैं। पहले दिन के बाद लगा कि यदि यही क्रम चलता रहा तो २०-२५ दिन तक लगे रहना पड़ेगा। अगले दिन के समाचार पत्र और न्यूज चैनल बस इसी समाचार से भरे हुये थे, हर ओर बस यही आग्रह था कि देश सबका है, कोई पलायन न करे, किसी को कोई भय नहीं है, सबको सुरक्षा दी जायेगी।
आशा थी कि इन आग्रहों का प्रभाव शीघ्र ही देखने को मिलेगा, लोग आश्वस्त हो पूर्वोत्तर जाने का विचार त्याग देंगे। व्यक्तिगत आशा और रेलवेगत कर्तव्यों में अन्तर बना हुआ था, तैयारी फिर भी रखनी थी। अगले दो दिन प्रवाह और बढ़ा, लगभग ११००० और १४००० के आस पास लोग गये। रेलवे स्थितियों से निपटने के लिये तैयार थी, पहले दिन की गुहार काम आयी, पहले दिन का अनुभव काम आया, कुल तीन दिनों में और ४८ घंटों के अन्तराल में ११ ट्रेनें लगभग ३३००० यात्रियों के लेकर पूर्वोत्तर गयीं। उसके बाद भी प्रवाह कुछ दिन रहा पर संख्या घट कर प्रतिदिन ५०० के आसपास ही रही। रेलवे का तन्त्र कार्यरत था, हमारी उपस्थिति कर्मचारियों का उत्साह बढ़ाये रखने के दृष्टिकोण से अधिक उपयोगी थी। अगले दो दिन प्रवाह के अवलोकन में निकले, यह समझने में निकले कि भय का प्रभाव कितना व्यापक होता है, यह कल्पना करने में निकले कि देश के विभाजन के समय जनमानस के मन की क्या स्थिति रही होगी?
भीड़ में व्यग्रता थी, चेहरे पर भयमिश्रित दुख था, एक आशा भी थी कि अपने घर वापस जा रहे हैं। कुछ के पास केवल हैण्डबैग ही थे जिनसे यह लग रहा था कि वे शीघ्र ही लौटेंगे। कई लोग सपरिवार जा रहे थे, उनके पास सामान अधिक था। हर ट्रेन को विदा करते समय खिड़कियों से झाँकते यात्रियों की आँखों में उन भावों को पढ़ रहा था, जिन्हें लेकर वे बंगलोर से प्रस्थान कर रहे थे। कुछ चेहरों पर धन्यवाद के भाव थे, कुछ के चेहरे अभी तक शून्य में थे, कुछ युवा हाथ हिलाकर आभार प्रकट कर रहे थे।
इसके पहले जब कभी भी पूर्वोत्तर के युवाओं का समूह देखता था, उनके भीतर की जीवन्तता प्रभावित करती थी। प्रसन्नचित्त रहने वाले लोग हैं पूर्वोत्तर के, सीधे, शर्मीले और मिलनसार। कृत्रिमता का कभी लेशमात्र स्पर्श नहीं देखा था उनके व्यवहार में, सदा ही सहज। पहाड़ों की कठिनता में गठा स्वस्थ शरीर और प्रकृति के सोंधेपन से प्राप्त सरल मन। जीवन के प्रति कोई विशेष दार्शनिक आग्रह नहीं, हर दिन को पूर्ण देने और पूर्ण जीने का उत्साह। ट्रेन से जाते हुये लोगों में उस छवि को ढूढ़ने का प्रयास कर रहा था पर वह मिली नहीं। दूसरे दिन भय कम था, तीसरे दिन चेहरों पर भय नहीं था पर वे भाव भी नहीं थे जिसके लिये पूर्वोत्तर के लोग पहचाने जाते हैं।
यह समझना बहुत ही कठिन था कि उनके मन में क्या चल रहा है। स्टेशन पर मीडियाकर्मियों का जमावड़ा बना रहा इन तीन दिनों, उन्होंने जानने का प्रयास किया पर पलायन कर रहे लोगों ने कुछ बोलने की अपेक्षा शान्त रहना उचित समझा। राज्य के मंत्रीगण अपने वरिष्ठतम पुलिस अधिकारियों के साथ वहाँ उपस्थित थे, प्रयासरत थे कि पलायन रोका जा सके, पर उन तीन दिनों तक पलायन रुका नहीं। कई गैर सरकारी संगठनों के लोग वहाँ उपस्थित थे, उन्हें मनाने के लिये, पर मन में घाव गहरा था, संवेदनीय सान्त्वनाओं से भरने वाला नहीं था। भय जब व्याप्त होता है तो आशाओं को भी क्षीण कर देता है, गहरे तक, शक्ति को भी संदेह से देखने लगता है, अविश्वास करने लगता है सारी व्यवस्थाओं पर। यही कारण रहा होगा कि सुरक्षा के सारे आश्वासन होने के बाद भी उनका मन यह मानने को तैयार नहीं था कि वे यहाँ सुरक्षित हैं।
क्या पलायन ही विकल्प था? कई बार तो लगा कि ट्रेनों की उपलब्धता ने उन्हें एक सरल विकल्प दे दिया है, पलायन कर जाने का। यदि इतनी अधिक मात्रा में ट्रेनें नहीं रहती तो संभव था कि लोग अपने स्थानों पर बने रहते और अधीर न होते, कोई और विकल्प ढूढ़ते। परिस्थितियों से भाग जाना तो उपाय नहीं है, समस्यायें तो हर जगह खड़ी मिलेंगी, कहीं छोटी मिलेंगी, कहीं बड़ी मिलेंगी। पर भावनाओं के उफान में तार्किक चिन्तन संभव नहीं होता है, व्यक्ति सरलतम विकल्प की ओर भागता है। हमें भी उस समय तो अपने सामने दसियों हजार लोगों को सकुशल पूर्वोत्तर पहुँचाने का कर्म दिख रहा था। क्या उचित है, क्या नहीं, इस पर विचार करने की न तो शक्ति थी, न समय था और न अधिकार ही था।
उन्हें जब लगेगा कि परिस्थितियाँ ठीक हो गयी हैं, तो लोग वापस लौटना प्रारम्भ करेंगे। जब बिना किसी विशेष घटना के इतना बड़ा पलायन हो गया तो किन प्रयासों से विश्वास वापस लौटेगा, यह समझना कठिन है। यह संभव है कि कुछ दिनों के बाद उनके मन का उद्वेग शान्त हो जायेगा, उनको अपने आप पर विश्वास स्थापित हो जायेगा, हवा में व्याप्त अविश्वास छट जायेगा, तब वे वापस लौट आयेंगे।
हम अपनी सांस्कृतिक एकता के लिये पहचाने जाते हैं, विविधतायें हमारी संस्कृति के शरीर में विभिन्न आभूषणों की तरह हैं, हर कोई अपनी तरह से संस्कृति को सुशोभित करने में लगा हुआ है। विविधता को विषमता से जोड़कर उपाधियों और आकारों में अपने आप से भिन्न लोगों के प्रति विद्वेष की भावना संस्कृति को आहत कर रही है, लोकतन्त्र के प्रतीकों पर निर्मम प्रहार कर रही है। यह प्रवृत्ति कोई सामान्य अपराध नहीं, इसे किसी भी स्वरूप में देशद्रोह से कम जघन्य नहीं समझा जा सकता है, यह देश के स्वरूप पर एक आत्मघाती प्रहार है। भविष्य में कभी पलायन न हो, यह सुनिश्चित करने के लिये हमारे निर्णय कठोर हों अन्यथा हमें अपना हृदय कठोर करने का अभ्यास डालना चाहिये क्योंकि पलायन कर रहे लोगों की पीड़ा को देखने की शक्ति तभी विकसित हो पायेगी।
इसके पहले अपना जीवन बचाने हेतु अकाल से प्रभावित क्षेत्रों से जीविका की खोज में पलायन होते देखा था, उस समय भी मन द्रवित हुआ था। पर यह पहला अनुभव था जब लोगों को अपना जीवन बचाने के लिये अपनी जीविका छोड़कर भागते देखा है। तीन दिन तक कार्य की थकान शरीर को उतना कष्ट नहीं दे पायी जितना कष्ट पलायन करते लोगों के चेहरों के भाव दे गये। प्रलय के पश्चात मनु के मन में सब कुछ खो जाने के भाव थे, वैसे ही कुछ भाव आँखों में तैर रहे थे, दोनों की ही आँखें नम थीं। अन्तर बस इतना था कि मनु पहाड़ पर बैठे थे, मैं स्टेशन पर, मनु जल का प्रलय प्रवाह देख रहे थे, मैं जन का व्यग्र प्रवाह।
यदि यह अलगाववाद का नृशंस नृत्य न रुका तो आगामी इतिहास के अध्याय इसी पंक्ति से प्रारम्भ होंगे…
एक पुरुष भीगे नयनों से देख रहा था व्यग्र प्रवाह…..