29.8.12

देख रहा था व्यग्र प्रवाह

पता नहीं था कि यह कितने दिन चलेगा? पूर्वोत्तर के लगभग दो लाख लोग बंगलोर में हैं, मुख्यतः विद्यार्थी है, सेक्योरिटी सेवाओं में है, होटलों में हैं, ब्यूटी पार्लर में हैं और पर्याप्त मात्रा में आईटी में भी हैं। पहले दिन के बाद लगा कि यदि यही क्रम चलता रहा तो २०-२५ दिन तक लगे रहना पड़ेगा। अगले दिन के समाचार पत्र और न्यूज चैनल बस इसी समाचार से भरे हुये थे, हर ओर बस यही आग्रह था कि देश सबका है, कोई पलायन न करे, किसी को कोई भय नहीं है, सबको सुरक्षा दी जायेगी।

आशा थी कि इन आग्रहों का प्रभाव शीघ्र ही देखने को मिलेगा, लोग आश्वस्त हो पूर्वोत्तर जाने का विचार त्याग देंगे। व्यक्तिगत आशा और रेलवेगत कर्तव्यों में अन्तर बना हुआ था, तैयारी फिर भी रखनी थी। अगले दो दिन प्रवाह और बढ़ा, लगभग ११००० और १४००० के आस पास लोग गये। रेलवे स्थितियों से निपटने के लिये तैयार थी, पहले दिन की गुहार काम आयी, पहले दिन का अनुभव काम आया, कुल तीन दिनों में और ४८ घंटों के अन्तराल में ११ ट्रेनें लगभग ३३००० यात्रियों के लेकर पूर्वोत्तर गयीं। उसके बाद भी प्रवाह कुछ दिन रहा पर संख्या घट कर प्रतिदिन ५०० के आसपास ही रही। रेलवे का तन्त्र कार्यरत था, हमारी उपस्थिति कर्मचारियों का उत्साह बढ़ाये रखने के दृष्टिकोण से अधिक उपयोगी थी। अगले दो दिन प्रवाह के अवलोकन में निकले, यह समझने में निकले कि भय का प्रभाव कितना व्यापक होता है, यह कल्पना करने में निकले कि देश के विभाजन के समय जनमानस के मन की क्या स्थिति रही होगी?

भीड़ में व्यग्रता थी, चेहरे पर भयमिश्रित दुख था, एक आशा भी थी कि अपने घर वापस जा रहे हैं। कुछ के पास केवल हैण्डबैग ही थे जिनसे यह लग रहा था कि वे शीघ्र ही लौटेंगे। कई लोग सपरिवार जा रहे थे, उनके पास सामान अधिक था। हर ट्रेन को विदा करते समय खिड़कियों से झाँकते यात्रियों की आँखों में उन भावों को पढ़ रहा था, जिन्हें लेकर वे बंगलोर से प्रस्थान कर रहे थे। कुछ चेहरों पर धन्यवाद के भाव थे, कुछ के चेहरे अभी तक शून्य में थे, कुछ युवा हाथ हिलाकर आभार प्रकट कर रहे थे।

इसके पहले जब कभी भी पूर्वोत्तर के युवाओं का समूह देखता था, उनके भीतर की जीवन्तता प्रभावित करती थी। प्रसन्नचित्त रहने वाले लोग हैं पूर्वोत्तर के, सीधे, शर्मीले और मिलनसार। कृत्रिमता का कभी लेशमात्र स्पर्श नहीं देखा था उनके व्यवहार में, सदा ही सहज। पहाड़ों की कठिनता में गठा स्वस्थ शरीर और प्रकृति के सोंधेपन से प्राप्त सरल मन। जीवन के प्रति कोई विशेष दार्शनिक आग्रह नहीं, हर दिन को पूर्ण देने और पूर्ण जीने का उत्साह। ट्रेन से जाते हुये लोगों में उस छवि को ढूढ़ने का प्रयास कर रहा था पर वह मिली नहीं। दूसरे दिन भय कम था, तीसरे दिन चेहरों पर भय नहीं था पर वे भाव भी नहीं थे जिसके लिये पूर्वोत्तर के लोग पहचाने जाते हैं।

यह समझना बहुत ही कठिन था कि उनके मन में क्या चल रहा है। स्टेशन पर मीडियाकर्मियों का जमावड़ा बना रहा इन तीन दिनों, उन्होंने जानने का प्रयास किया पर पलायन कर रहे लोगों ने कुछ बोलने की अपेक्षा शान्त रहना उचित समझा। राज्य के मंत्रीगण अपने वरिष्ठतम पुलिस अधिकारियों के साथ वहाँ उपस्थित थे, प्रयासरत थे कि पलायन रोका जा सके, पर उन तीन दिनों तक पलायन रुका नहीं। कई गैर सरकारी संगठनों के लोग वहाँ उपस्थित थे, उन्हें मनाने के लिये, पर मन में घाव गहरा था, संवेदनीय सान्त्वनाओं से भरने वाला नहीं था। भय जब व्याप्त होता है तो आशाओं को भी क्षीण कर देता है, गहरे तक, शक्ति को भी संदेह से देखने लगता है, अविश्वास करने लगता है सारी व्यवस्थाओं पर। यही कारण रहा होगा कि सुरक्षा के सारे आश्वासन होने के बाद भी उनका मन यह मानने को तैयार नहीं था कि वे यहाँ सुरक्षित हैं।

क्या पलायन ही विकल्प था? कई बार तो लगा कि ट्रेनों की उपलब्धता ने उन्हें एक सरल विकल्प दे दिया है, पलायन कर जाने का। यदि इतनी अधिक मात्रा में ट्रेनें नहीं रहती तो संभव था कि लोग अपने स्थानों पर बने रहते और अधीर न होते, कोई और विकल्प ढूढ़ते। परिस्थितियों से भाग जाना तो उपाय नहीं है, समस्यायें तो हर जगह खड़ी मिलेंगी, कहीं छोटी मिलेंगी, कहीं बड़ी मिलेंगी। पर भावनाओं के उफान में तार्किक चिन्तन संभव नहीं होता है, व्यक्ति सरलतम विकल्प की ओर भागता है। हमें भी उस समय तो अपने सामने दसियों हजार लोगों को सकुशल पूर्वोत्तर पहुँचाने का कर्म दिख रहा था। क्या उचित है, क्या नहीं, इस पर विचार करने की न तो शक्ति थी, न समय था और न अधिकार ही था।

उन्हें जब लगेगा कि परिस्थितियाँ ठीक हो गयी हैं, तो लोग वापस लौटना प्रारम्भ करेंगे। जब बिना किसी विशेष घटना के इतना बड़ा पलायन हो गया तो किन प्रयासों से विश्वास वापस लौटेगा, यह समझना कठिन है। यह संभव है कि कुछ दिनों के बाद उनके मन का उद्वेग शान्त हो जायेगा, उनको अपने आप पर विश्वास स्थापित हो जायेगा, हवा में व्याप्त अविश्वास छट जायेगा, तब वे वापस लौट आयेंगे।

हम अपनी सांस्कृतिक एकता के लिये पहचाने जाते हैं, विविधतायें हमारी संस्कृति के शरीर में विभिन्न आभूषणों की तरह हैं, हर कोई अपनी तरह से संस्कृति को सुशोभित करने में लगा हुआ है। विविधता को विषमता से जोड़कर उपाधियों और आकारों में अपने आप से भिन्न लोगों के प्रति विद्वेष की भावना संस्कृति को आहत कर रही है, लोकतन्त्र के प्रतीकों पर निर्मम प्रहार कर रही है। यह प्रवृत्ति कोई सामान्य अपराध नहीं, इसे किसी भी स्वरूप में देशद्रोह से कम जघन्य नहीं समझा जा सकता है, यह देश के स्वरूप पर एक आत्मघाती प्रहार है। भविष्य में कभी पलायन न हो, यह सुनिश्चित करने के लिये हमारे निर्णय कठोर हों अन्यथा हमें अपना हृदय कठोर करने का अभ्यास डालना चाहिये क्योंकि पलायन कर रहे लोगों की पीड़ा को देखने की शक्ति तभी विकसित हो पायेगी।

इसके पहले अपना जीवन बचाने हेतु अकाल से प्रभावित क्षेत्रों से जीविका की खोज में पलायन होते देखा था, उस समय भी मन द्रवित हुआ था। पर यह पहला अनुभव था जब लोगों को अपना जीवन बचाने के लिये अपनी जीविका छोड़कर भागते देखा है। तीन दिन तक कार्य की थकान शरीर को उतना कष्ट नहीं दे पायी जितना कष्ट पलायन करते लोगों के चेहरों के भाव दे गये। प्रलय के पश्चात मनु के मन में सब कुछ खो जाने के भाव थे, वैसे ही कुछ भाव आँखों में तैर रहे थे, दोनों की ही आँखें नम थीं। अन्तर बस इतना था कि मनु पहाड़ पर बैठे थे, मैं स्टेशन पर, मनु जल का प्रलय प्रवाह देख रहे थे, मैं जन का व्यग्र प्रवाह।

यदि यह अलगाववाद का नृशंस नृत्य न रुका तो आगामी इतिहास के अध्याय इसी पंक्ति से प्रारम्भ होंगे…

एक पुरुष भीगे नयनों से देख रहा था व्यग्र प्रवाह…..

25.8.12

झण्डा ऊँचा रहे हमारा

स्वतन्त्रता दिवस था, सुबह सर ऊँचा कर भारत के झण्डे के सामने राष्ट्रगान का सस्वर पाठ किया था। जब भी राष्ट्रगान बजता है, दृष्टि स्वतः ही झण्डे की ओर चली जाती है। बहती हवा में लहराता झण्डा मन में रोमांच भर देता है, लगता है कि कोई प्रतीक है जो हमें एक देश के सूत्र में बाँधे है, कोई प्रतीक है जो हमें उस संघर्ष की याद दिलाता है जो हमारे पूर्वजों की भेंट थी हम लोगों के लिये, इसलिये कि हम मुक्त गगन में जी सकें। घर वापस आकर कवि प्रदीप के लिखे गीतों पर आधारित एक कार्यक्रम देख रहा था। मन संतुष्ट था, भारत का लोकतन्त्र अपने ६५ वर्ष पूरे कर चुका था।

तभी वाणिज्य विभाग के अधिकारी का फोन आता है कि सर गुवाहटी के लिये ६०० अतिरिक्त टिकट बिक चुके हैं, लगता है कि आज जाने वाली ट्रेन में अतिरिक्त कोच लगाने होंगे। सामान्य दिनों की अपेक्षा संख्या अधिक थी पर कारण विशेष ज्ञात नहीं था, अधीनस्थों को अतिरिक्त कोचों की व्यवस्था सम्बन्धित आवश्यक निर्देश देकर आश्वस्त हो गये। अभी दो घंटे ही और बीते होंगे कि सूचना मिली कि टिकटों की संख्या २००० पार कर चुकी है, स्टेशन पर बहुत भीड़ है और लोग अभी भी टिकट ले रहे हैं। यह निश्चय ही असामान्य था, कोई बात अवश्य थी। उस समय बच्चों के साथ टेबल टेनिस खेल रहा था, जब और जानकारी लेने के लिये मोबाइल पर बात करने लगा तो बच्चों ने इस तरह देखा, मानो कह रहे हों कि आप यहाँ पर भी चालू हो गये।

दस मिनट में यह पक्का हो गया था कि लोग व्यग्र हैं और पलायन कर रहे हैं। नियत ट्रेन में इतनी क्षमता नहीं है कि वह इतने यात्रियों को ले जा पायेगी। अतिरिक्त कोच लगाने पर भी सबको स्थान नहीं दिया जा सकता था। एक विशेष ट्रेन चलाने का निर्णय लिया गया। सामान्य स्थिति में एक नियत प्रक्रिया के बाद ही ऐसी अनुमति मिलती हैं पर परिस्थितियों की गम्भीरता को देखते हुये तुरन्त ही मौखिक अनुमति मिल गयी। राष्ट्रीय अवकाश था और अधीनस्थों की संख्या अन्य दिनों से कम थी, फिर भी सब स्टेशन पर पहुँच गये थे। स्टेशन पर भीड़ अप्रत्याशित थी और सूचना मिल चुकी थी कि ३००० से अधिक टिकट बिक चुके हैं। व्यवस्था बनाये रखने के लिये सुरक्षा बल पहुँच चुके थे।

जो लोग रेलवे से जुड़े हैं, वे जानते हैं कि इतने कम समय में एक विशेष ट्रेन को चलाना बड़ा ही दुरूह कार्य है। कोचों को एकत्र करना, एक साथ लाकर ट्रेन को स्वरूप देना, ६ घंटे के नियत गहन परीक्षण में देना, इंजन, ड्राइवर और गार्ड आदि की व्यवस्था करना। इन सब कार्यों में कई निर्णय तात्कालिक लेने होते हैं, उस हेतु सारे सम्बन्धित अधिकारी और पर्यवेक्षक अपने कार्यस्थल पर पहुँच चुके थे, कार्य अपनी पूरी गति में था। उधर भीड़ व्यग्र हो रही थी, उन्हें भी बताना आवश्यक था कि उनके लिये एक विशेष ट्रेन चलायी जायेगी। नियत ट्रेन के पहले ही एक विशेष ट्रेन चलाने की घोषणा ने भीड़ को संयत किया, प्लेटफार्म नियत कर उसकी भी उद्घोषणा कर दी गयी। सुरक्षाबलों ने बड़ी ही कुशलता से सबको नियत प्लेटफार्म पर पहुँचाने का कार्य प्रारम्भ किया। धीरे धीरे सारा प्लेटफार्म भर गया, लोग अनुशासित हो विशेष ट्रेन के आने की प्रतीक्षा करने लगे।

जिस समय संवेदनायें अपने उफान पर हों, समस्या को सीमित मान लेने की भूल नहीं की जा सकती थी। इतनी व्यवस्था करने के बाद भी टिकट बिक्री पर दृष्टि बनी हुयी थी। पहली विशेष ट्रेन जाने में अभी ४ घंटे शेष थे, तभी पता लगा कि टिकट ७००० की संख्या पार कर चुके हैं। निर्णय लेना आवश्यक था, एक और विशेष ट्रेन की अनुमति लेकर उसकी घोषणा कर दी गयी। जब घर में ४ लोगों का खाना बनता हो और सहसा गृहणी को १०० लोगों की व्यवस्था करने को कहा जाये, तो जो स्थिति गृहणी की होती है, वैसी ही हम लोगों की हो रही थी। हाथ में जो भी था, उसे सेवा में लगा दिया गया, पड़ोसी मंडलों और मुख्यालयों से सहायता के लिये गुहार लगायी गयी। वरिष्ठों ने परिस्थितियों को समझा और यथासंभव और त्वरित सहायता की व्यवस्था की। सहायता आनी थी पर उसमें समय लगना था, सामने ७००० की संख्या। बस ईश्वर से यही मना रहे थे कि आज संख्या इससे अधिक न बढ़े, दो विशेष और एक नियमित ट्रेन में ७००० यात्रियों को भेजना संभव था।

ट्रेनों की तैयारी पर और भीड़ की गतिविधियों पर दृष्टि बनी रहे, इस कारण फुट ओवर पुल पर एक स्थान ढूढ़ा गया। वह भीड़ के प्रवाह से थोड़ा अलग था और निर्णय लेने के लिये समुचित। तब तक स्टेशन पर पहुँच चुके मीडिया और अन्य संगठनों की दृष्टि से भी दूर था वह स्थान। एक सुरक्षाकर्मी और एक पर्यवेक्षक के साथ वहाँ पर कोई व्यवधान नहीं था। स्टेशन पर लगातार उद्घोषणा की जा रही थी जिससे भीड़ संयत बनी रहे, सबको यह विश्वास दिलाया जा रहा था कि सबको भेजने की व्यवस्था की जायेगी। इतनी अधिक भीड़ तीन घंटे संयत और अनुशासित बैठी रही, यह अपने आप में स्मरणीय अनुभव था हम सबके लिये।

अन्ततः पहली विशेष ट्रेन आयी, पर उसके पहले निर्णय इस बात का लेना था कि कोचों के दरवाजे पहले से खोलकर लाया जाये या बन्द कर के। दरवाजे खोलकर लाने से लोग चलती ट्रेन में घुसने का प्रयास करते और कुछ अनहोनी होने की संभावना बनी रहती। बन्द कर के लाने से लोग अधीर हो जाते। अन्ततः निर्णय लिया गया कि प्लेटफार्म की ओर दरवाजे बन्द रखे जायेंगे औऱ दूसरी ओर के खुले। हर कोच में एक कर्मचारी रहेगा जो अन्दर से दरवाजा तभी खोलेगा जब सुरक्षाबल बाहर से भीड़ को पंक्तिबद्ध और अनुशासित कर लेंगे। इसमें थोड़ा समय अधिक लगा, कर्मचारी अधिक लगे पर बिना किसी घटना के ट्रेन में यात्री बैठ गये। प्लेटफार्म पर बचे लोगों को अगली ट्रेन तक रुकने को कहा गया। जब ट्रेन सकुशल निकल गयी तभी अन्य यात्रियों को एक अस्थायी जमावड़े से प्लेटफार्म तक आने दिया गया।

डेढ़ घंटे के अन्दर तीन ट्रेन जाने के पश्चात प्लेटफार्म और टिकटघर खाली हो चुका था। आरक्षित यात्रियों समेत लगभग ८५०० यात्रियों को सकुशल भेजने के बाद समय देखा तो रात्रि २ बज चुके थे। हमारा कार्य फिर भी समाप्त नहीं हुआ था, लगभग आधे घंटे दिनभर के कार्य की कमियों पर छोटी चर्चा हुयी, अच्छे कार्य के लिये अधीनस्थों की पीठ थपथपायी गयी। यह मानकर चला जा रहा था कि अगले दिन भी यही प्रवाह बना रहेगा। अन्य मंडलों से आने वाली सहायता के आधार पर अगले दिन की रूपरेखा बनाकर घरों की ओर प्रस्थान किया गया।

घर आया तो दोनों बच्चे गहरी नींद में सो रहे थे, न साथ टेबल टेनिस खेल पाया, न साथ में भोजन ही कर पाया। मेरी भी आँखों में गहरी नींद थी, पर यह सोच रहा था कि जब कल बच्चे पूछेंगे कि देर रात तक स्टेशन पर क्या कर रहे थे, तो क्या उत्तर दूँगा? यदि कहूँगा कि ६५ वर्ष के लोकतन्त्र की दृढ़ता का एक अपवाद देख कर आया हूँ, तो क्या वे इस बात को समझ पायेंगे? एक रेलवे कर्मचारी के रूप में सामने उपस्थित कार्य को सकुशल निभा पाने की उपलब्धि क्या उन्हें सगर्व बता पाऊँगा? पंजाब, सिन्धु, गुजरात, मराठा, द्राविड़, उत्कल, बंग, जो कभी एक वाक्य में पिरोये गये थे, जो राष्ट्रगान के अंग थे, वे आज अपने अपने अलग अर्थ क्यों ढूढ़ने लगे हैं, क्या यह समझा पाऊँगा?

अधिक सोच नहीं पाता हूँ, निढाल हो बिस्तर पर लुढ़क जाता हूँ। जो भी हो, कल फिर गाऊँगा, झण्डा ऊँचा रहे हमारा।

22.8.12

स्तब्धता

उनींदी सी शान्ति जग में, हवायें बहकर थकीं हैं 
रात खेलीं चन्द्रमा संग, प्रात के द्वारे रुकी हैं ।।१।।

फूल अकड़े खड़े सारे, सह प्रवेगों को निरन्तर ।
आज हैं मुरझा गये वे, झेलकर, दुख-वेग क्षण भर ।।२।।

आज नदियाँ, भूलकर निज अहं, निज उन्मुक्तता ।
जा मिली हैं सब जलधि में, छोड़ जो अस्तित्व था ।।३।।

किस प्रलय की साँस है यह, रुक गयी गतियाँ सभी ।
किस तृषा की आस जागी, जो कि बुझनी है अभी ।।४।।

किस हृदय के शून्य का, उत्तर लिखा जाता प्रकृति में ।
घात या प्रतिघात उठता, किस कुटिल संगूढ़ मति में ।।५।।

फैलती स्तब्धता और, काटने मन दौड़ता है ।
थका क्या वह, जगत को जो, चेतना से जोड़ता है ।।६।।

किस अशुभ की चीख में लिपटी हुयी यह शान्ति है ।
कुछ सुनिश्चित घट रहा है, नहीं कहना भ्रान्ति है ।।७।।

18.8.12

यह कैसी आतंक पिपासा

यज्ञ क्षेत्र यह विश्व समूचा, होम बने उड़ते विमान जब,
विस्मय सबकी ही आँखों में, देखा उनको मँडराते नभ।
मूर्त रूप दानवता बनकर, जीवन के सब नियम भुलाकर,
तने खड़े गगनोन्मुख, उन पर टकराये थे नभ से आकर।

ध्वंस बिछा, ज्वालायें उठतीं,
चीखें अट्टाहस में छिपतीं,
कहाँ श्रेष्ठता, दिग्भ्रम फैला,
सिसके वातावरण विषैला,
क्या अलब्ध है, क्या पाना है,
मृत-देहों ने क्या जाना है,
मन की आग नहीं बुझती है,
धधक रही, रह रह बढ़ती है।

और चढ़ें कितनी आहुतियाँ, यह कैसी आतंक पिपासा,
इतने नरमुण्डों को पाकर, यह ज्वाला बढ़ती ही जाती।


15.8.12

एक समन्दर या दसियों घट

जीवन में गहराई हो या मात्रा हो, यह प्रश्न सदा ही उठता रहा है। प्रेम के संदर्भों में भी यह प्रश्न उठ खड़ा होता है, विशेषकर तब, जब संवाद चित्रलेखा और सुकन्या के बीच हो रहा हो। चित्रलेखा, एक अप्सरा और सुकन्या, महर्षि च्यवन की सहधर्मिणी। उर्वशी महर्षि च्यवन के आश्रम में अपने पुत्र को जन्म देती है, सुकन्या की देख रेख में। उर्वशी की सखियाँ भी बहुधा वहाँ आती हैं, कभी सहायता करने और कभी उत्सुकतावश, यह देखने कि स्वर्ग और मही के संयोग में किसको कितना भाग मिला है, पुत्र में किसका अंश अधिक है।

आश्रम में चहल पहल रहती है। चित्रलेखा और सुकन्या, दोनों के लिये ही यह पहला अवसर है, एक दूसरे की जीवन पद्धतियों को समझने का। दोनों ही प्रेम में पगी हैं, एक समस्त देवताओं की आकांक्षाओं से प्लावित, एक महर्षि के एकनिष्ठ प्रेम में अनुप्राणित। दोनों के ही जीवन में प्रेम है, पर उसका स्वरूप भिन्न भिन्न है, एक के लिये समन्दर सा, एक के लिये दसियों घट जैसा। दोनों के ही प्रश्न एक दूसरे से सहज हैं, सुकन्या को मात्र एक नर में संतुष्ट रह पाना चित्रलेखा के लिये आश्चर्य है तो चित्रलेखा के प्रेम में गाढ़ेपन की अनुपस्थिति सुकन्या को आश्चर्यचकित करता है।

हम व्यक्ति के रूप में भावों की जिस उड़ान में बने रहना चाहते है, समाज के रूप में उससे कहीं भिन्न और बँधा हुआ सोचने लगते हैं। व्यक्तिगत आकांक्षाओं से ऊपर उठ समाज के स्तर में पहुँचने में कई बंधन स्वीकारने पड़ते हैं। संबंधों में बँधे जाने के भाव सन्निहित हैं, अच्छी प्रकार से बँधने का या ढंग से बँध जाने का। हमें दोनों दिखायी पड़ते हैं, एक ओर अप्सराओं और देवताओं की प्रेमासित उन्मुक्तता और दूसरी ओर ब्रह्मवादियों की संसार को त्याग देने की प्रवृत्ति। विवाह दोनों के बीच का मार्ग है, प्रवृत्ति और निवृत्ति के बीच का मार्ग, नर की अग्नि और कामना वह्नि को अनियन्त्रित न होने देने का प्रयास।

मुक्त समाज की उपस्थिति आधुनिकता की आहट मानी जाती है, पर सदियों से हम परिवार के रूप में रह रहे हैं, मन में प्रेम की उत्कट अभिलाषा और समाज में बन्धनपूर्ण व्यवहार के झूले में झूलते हुये। मध्यममार्ग अपना रखा है, न ही उन्मुक्तता और न ही त्याग। हमने प्रेम के अल्पकालिक उन्माद के ऊपर उसका दीर्घकालिक सौन्दर्य चुना, हमने दसियों घट के स्थान पर एक समन्दर चुना। समाज में मिलकर रहने का यही मार्ग सर्वोत्तम लगा होगा हमारे पूर्वजों को।

सुकन्या का प्रश्न अप्सराओं से बहुत ही सरल था, जब आपके अन्दर एक ही प्राण हैं तो वह इतने पुरुषों को कैसे दे बैठती हैं? यदि इतनों को प्रेम बाँटती हैं तो प्रेम में प्रत्याशा क्या है? यदि प्रेम ही महत्वपूर्ण है तो प्रेमी को इतना न्यून महत्व क्यों? घट घट का स्वाद चखने वालों के लिये किसी एक का महत्व कहाँ? निर्मोही और उत्श्रंखल व्यक्तित्व निर्माण करती है यह सोच, अप्सराओं के प्रति देवताओं के अघट आकर्षण का कारण हो यह सोच, भोग विलास में निशदिन पसरे देवताओं के लिये एक वरदान है यह सोच। न ढलने वाले शरीर, न व्यस्त रहने के लिये कोई कर्म, न संबंधों में बद्ध जीवन, भोग में विविधता और नित नवीनता, पर फिर भी क्या वांछित प्रसन्नता मिल पाती है, इस सोच के पोषकों को। न स्वर्ग को समझ पायें, तो वर्तमान विश्व में कुछ संस्कृतियाँ इस विचारधारा की उपासक हैं। सुकन्या का प्रश्न उनसे भी वही है, एक प्राण का इतना विभाजन क्यों?

किन्तु प्रश्न केवल मात्रा, विविधता या गुणवत्ता का ही नहीं है। अप्सरायें सुकन्या को वह विवशता भी बता सकती हैं जिसके कारण मृत्युलोक में उतनी उत्श्रंखलता नहीं है। विवशता सौन्दर्य के ढल जाने की, विवशता अंगों के शिथिल हो जाने की, विवशता वृद्ध हो जाने की। जीवन का एक चौथाई भाग भले ही शारीरिक आकर्षण में बीत जाये, पर शेष तीन चौथाई का क्या? जब शरीर अपना आकर्षण त्याग देगा, तब आपको किसका आधार मिलेगा? इसे विवशता कह लें या समझदारी पर शरीर के परे भी जाकर सोचना आवश्यक हो जाता है तब। हृदय का आकर्षण तब भी शेष रहता है, उसका आधार जीवनपर्यन्त चलता है। यह भी एक कारण तो रहा ही होगा जो हमें प्रेम के शारीरिक पक्ष से भी आगे जा प्रेम के मानसिक पक्ष पर सोचने को प्रेरित करता है। शरीर ढलने पर आकर्षण भी कम हो जाता है। तो बुढ़ापे में भी प्यार बना रहे, उसके लिये समर्पण होना आवश्यक है। स्थायित्व की आस क्या प्रेम का स्वरूप सीमित कर देती है या प्रेम का विस्तार बढ़ा जाती है? सागर की गहराई या तालों का छिछलापन। दोनों को ही एक स्थायी आधार चाहिये होता है जो वृद्धावस्था तक शारीरिक और मानसिक संतुलन बनाये रखता है, जीवन को केवल युवावस्था मान बैठना अपरिपक्व सोच है।

सुकन्या कहती है कि तप और त्याग के भूषणों से सुशोभित महर्षि च्यवन ने अपना सर्वस्व उन पर अर्पित कर दिया है, उनका यह एकात्म समर्पण आकर्षण का अनन्त स्रोत है, हृदय से निकले प्रेम का अक्षुण्ण प्रवाह, जिस प्रवाह में उनका जीवन सदा ही आनन्दित रहता है। महर्षि च्यवन ही उनके लिये सब कुछ हैं, उन्हीं से भोग सीखा है, उन्हीं से योग सीखा है, उन्हीं के साथ अध्यात्म में अग्रसर भी हैं। सारा विश्व उनको मान देता है और वह मुझे अपना मान बैठे हैं, इससे अधिक गर्व भरा भाव और क्या हो सकता है भला? इस समर्पण के भाव से हमारा प्रेम पल्लवित होता है, समर्पण से आत्मीयता और गहराती है, प्रेम नवीन बना रहता है। मधुपूर्ण हृदय का प्रेम और भी गहरा होता है, सुख की गुणवत्ता बढ़ती है। तो क्या एक के ही साथ बने रहने से क्या सुख की मात्रा कम हो जाती है? नहीं, जब प्रेम का स्रोत शरीर से हट हृदयारूढ़ हो जाये तो सुख की मात्रा प्रतिपल द्विगुणित होती रहती है।

तो क्या प्रेम की दृष्टि से विवाह की संस्था दोष रहित है? इसमें भी दोष हैं, संबंधों में मोह हो जाता है, तब प्रेमी का बिछड़ना दुखदायी हो जाता है। बच्चों के प्रति वात्सल्य स्थायी रूप से परिवार में समेट लेता है, तब यही मोह अध्यात्म में बाधक होने लगता है। बहुधा ऐसा भी होता है कि हमारी आकाक्षायें प्रेमी की क्षमता के अनुरूप नहीं होती हैं, गुणों में तालमेल नहीं बैठता है। क्या तब भी हम साथ बने रहें और नित पीड़ा का गरल पीते रहें? तालमेल बिठाने के लिये थोड़ा त्याग तो अपेक्षित है, पर पीड़ा और त्याग के अन्तर को समझे बिना समस्या के साथ सदा के लिये बैठ जाने का कोई अर्थ नहीं है। यदि तालमेल नहीं बैठता है तो अलग हो जाना ही श्रेयस्कर है, पर बात अन्ततः दीर्घकालिक संबंधों की पुनः उठेगी। प्रेम का जो भी स्रोत हो, दीर्घकालिक हो।

संततियों की उत्पत्ति समाज के प्रवाह को स्थिरता देती है, संततियाँ न हों तो मृत्युलोक में जीवन समाप्त हो जायेगा। काल के साथ साथ हम रिले रेस दौड़ रहे हैं, उत्तरदायित्व अपनी संततियों को सौंपकर, वही हमारी उपस्थिति बन हमारे संघर्ष के संकेत बने रहते हैं। समाज के इस रूप को बनाये रखने के लिये और उसमें गुणवत्ता बनाये रखने के लिये, यह बहुत आवश्यक है कि उन्हें भी माता पिता का समुचित आश्रय मिले। एक परिवार का स्वरूप बच्चों के विकास के लिये महत्वपूर्ण है। उत्श्रंखल समाजों में बच्चों की मानसिक दुर्दशा बनी रहती है। बच्चों को दोनों का स्पर्श चाहिये, एक की तरह बन सकने के लिये और दूसरे को समझ सकने के लिये। यही स्पर्श उसके समुचित विकास के लिये अमृत है, उसकी उपस्थिति केवल परिवार में ही है। प्रेम की उद्दाम इच्छा समाज के स्थायित्व हेतु विवाह का रूप धर लेती हे, स्वर्गलोक की उत्श्रंखला से कहीं अलग। प्रेम के निष्कर्षों को समाज के संदर्भों में समझना होगा हमें।

गर्भवती उर्वशी को देखकर, उसे तट पर लगी नौका की उपमा देते हैं महर्षि च्वयन।

11.8.12

प्रेम के निष्कर्ष

यद्यपि यह विषय उर्वशी में अपनी पूर्णता से व्यक्त नहीं हुआ है, पर बहुधा दिनकर के दर्शनमय आख्यान के संकेत उस दिशा में जाते हैं। प्रकृति ने मानव शरीर में सहज ही आकर्षण के भाव भर दिये हैं, हम जैसे लघु-ईश्वरों के अहं को संतुष्ट करने के लिये सुख के साधन भी जुटा दिये हैं, हम आनन्द में उतराते तो हैं पर शीघ्र ही स्रोत सूख जाते हैं, हम सुखों के घट भरने का पुनः प्रयास करते हैं, प्रकृति द्वारा प्रस्तुत प्रवृत्तिमार्ग अपना लेते हैं। प्रकृति हमारे ऊपर शासन करती है, हमारी शासन करने की आकांक्षा का लाभ लेकर।

क्या हमें यह खेल समझ नहीं आता है? निश्चय ही आता होगा, सुख के सारे स्रोत अल्पकालिक है, सुख के साथ दुख भी आता है, पर यह सब जानकर भी अपनी समझ न बना पाना या जानकर भी उसे क्रियान्वित न कर पाना। भला क्या कारण होगा इसका? सुखों को छोड़ पाना कठिन है, बहुत कठिन, किसी भी उस पथ के लिये जिसका निष्कर्ष अभी तक दिखा ही नहीं, अनुभव तक नहीं हुआ। अनिश्चितता एक बहुत बड़ा कारण है, श्रेष्ठ विकल्प की अनुपस्थिति बहुत बड़ा कारण है। प्रकृति का खेल ज्ञात है, उतना निर्मल नहीं है, पर कुछ तो है। निर्वात में रह पाना कभी जीवन ने सीखा ही नहीं, एक पल के लिये भी। प्रकृति भला क्यों सिखाने लगी हमें, निर्वात में चल पाना, उड़ पाना, वह तो बाँधती है और वही सिखाती भी है। हम जान भी जायें कि हम बँधे हैं, पर मुक्त नहीं हो पाते हैं, बन्धन में ही सुख मान लेते हैं।

यही प्रश्न प्रेम के भी हैं। लौकिक प्रेम या आलौकिक प्रेम। भक्ति ईश्वरीय प्रेम की अभिव्यक्ति है, आत्मा का संवाद। प्रणय प्राकृतिक प्रेम का निरूपण है, शरीर का संवाद। क्या प्रणय में बिन उतरे भक्ति को समझा जा सकता है, क्या भक्ति के निर्वात में चल ईश्वरीय प्रेम तक पहुँचा जा सकता है? यह प्रश्न चिरकाल से मानव मेधा को कुरेद रहा है, अनुभव के न जाने कितने अध्याय लिखे जा चुके हैं, इस विषय पर। प्रश्न अब भी वही है, प्रश्न अब भी उतना उलझा है।

शास्त्र तो कहते हैं, प्रणय में जो क्षणिक सुख लब्ध है, उसका अनन्त और निर्बाध संस्करण भक्ति में ही मिल पाता है, प्रणय बस उस महासुख का संकेत भर है। संकेत की दिशा अपने लक्ष्य की दिशा से भिन्न क्यों होने लगी भला, यदि ऐसा है तो अनन्त सुख की एक राह प्रणय से भी होकर जाती होगी। यदि अनन्त सुख की एक राह निवृत्ति के निर्वात से होकर जाती है तो प्रवृत्ति के ठोस धरातल से भी कोई न कोई मार्ग तो होगा ही। अग्नि पर चलते जाना और तृप्तमना हो अनन्त को पा जाना, संभवतः यही इस राह के साक्ष्य हों।

न मैं किसी धर्माचार्य की तरह किसी पंथ का प्रतिपादन कर रहा हूँ और न ही किसी स्थापित पंथ पर कोई टीका टिप्पणी। मैं तो बस उन संकेतों को समझने का प्रयास भर कर रहा हूँ जिससे सारी प्रकृति संचालित है और जो अनन्त सुख की ओर हमारा ध्यान इंगित करते हैं।

नास्तिक दर्शन तो शरीर के परे जाता भी नहीं हैं, अतः उसमें शारीरिक प्रेम ही सर्वोपरि हुआ। आस्तिक दर्शन में थोड़ा गहरे उतरें तो प्रकृति के रचे जाने का कारण ज्ञात होता है। हमारा मूल स्वभाव प्रेम का है, निर्मल, निष्कपट, धवल, अनन्त प्रेम का। जब भी हम अपने मूल स्वभाव में रहते हैं, आनन्द में रहते हैं। न जाने कहाँ से, हमारे मन में नियन्त्रण करने का ईश्वरीय भाव जग जाता है। करुणावश ईश्वर एक विश्व रच देते हैं, उसके संचालनार्थ प्रकृति को नियुक्त करते हैं, हम उसमें रहने आ जाते हैं, स्वयं को ईश्वर समझ कर। शून्य से उत्पन्न विश्व में जितनी धनात्मकता होगी, उतनी ही ऋणात्मकता भी, सुख होगा तो दुख भी, यही द्वन्द्व का आधार भी है।

प्रकृति चक्र से बाहर निकलने का मार्ग संभवतः उन कारकों में ही छिपा होगा, जिनके कारण हम इस प्रकृति चक्र में आ पहुँचे। यदि अहं कारण है तो अहं को छोड़ कर पुनः इस चक्र से बाहर निकला जा सकता है। जगत की नश्वरता यदि यह संकेत देती है कि यह हमारा स्थायी घर नहीं, तो प्रेम की उपस्थिति उससे बाहर आने का मार्ग भी बतलाती है। प्रेम से बड़ा भला और क्या उपाय हो सकता है, अहं के संहार का। नियन्त्रित करने की प्रवृत्ति से बाहर आ प्रेमी को अपना सब कुछ समर्पण कर देना, अपने अहं त्याग देने का सर्वोत्तम उपाय है। शरीर से मन तक बढ़ता, एक व्यक्ति से पूरे समूह में विस्तारित होता, दया, करुणा आदि रूपों में अपनी निष्पत्ति पाता, प्रेम में सारे विश्व को समेट लेने की शक्ति है।

प्रेम आनन्द तभी देगा, जब वह अपने निर्मल रूप में प्रस्तुत हो। अधिकार का भाव प्रेम नहीं हो सकता है। अधिकार का भाव हमें उस दलदल में वापस ठेलना चाहता है, जिससे बाहर निकलने के लिये हमने प्रेम का सहारा लिया है। द्वन्द्व के दलदल से बाहर निकल यदि आनन्द के नभ में उड़ान भरनी है तो प्रेम के पंख लगाने होंगे और अधिकार के भार त्यागने भी। प्रेम के निष्कर्ष व्यापक हैं, उर्वशी के अर्थ गूढ़ हैं। स्वर्ग मही का भेद, नर की अग्नि, कामना-वह्नि की शिखा, सब के सब प्रेम के ही पूर्वपक्ष हैं, प्रकृति-सागर में डूबकर आनन्द के माणिक निकालने के संकेत। दिनकरकृत उर्वशी का पाठ प्रकृति के उन अमूर्त तत्वों को गुनने का साधन है जिसमें प्रेम के निष्कर्ष गुँथे हुये हैं।

8.8.12

कामना-वह्नि की शिखा

उर्वशी को व्यक्त कर पाना बड़ा ही दुविधा से भरा था मेरे लिये, लिखूँ कि न लिखूँ? यदि नहीं लिखता हूँ तो उर्वशीकथा में केवल नर पक्ष रखने का आक्षेप सहता हूँ, और यदि लिखता हूँ तो इस विषय में अपनी अनुभवहीनता प्रसारित करता हूँ। अनुभवहीनता इसलिये कि बिना नारी हुये 'कामना-वह्रि की शिखा' जैसा विषय समझा ही नहीं जा सकता है। यह जानता हूँ कि न्याय नहीं कर पाऊँगा और अन्ततः बात नारी के बारे में नर के दृष्टिकोण तक ही सीमित रह जायेगी। दुविधा जब भी लिखने या न लिखने की होगी, मैं तो लेखन को ही चुनूँगा, थोड़ी राह दिनकर दिखायेंगे, थोड़ी राह आप लोग।

दिनकर की दी उपमाओं में बस यही एक उपमा नारी के प्रति मेरी समझ के निकटतम है। अर्थ है, कामना की अग्नि की शिखा, लहराती लपटों के सम्मोहन जैसी, अनवरुद्ध, अप्रतिहत, दुर्निवार। नारी को समझा जा सकता है, पर क्या करूँ, उसकी उपमा अग्नि की लपट से की गयी है, जो शीर्ष पर उन्मत्त तो लहराती है, पर कभी स्थिर नहीं रहती है। उसे पकड़ने के प्रयास व्यर्थ हैं, उसे पकड़ेंगे, वह छिटक कर दूर लहराने लगेगी। आग की लपटों से घिरा यह अंगार तो बस तभी पढ़ा जा सकता है जब वह अपनी लपटें समेट अपना हृदय खोले। नारी के हृदय की साँकल बाहर से नहीं खोली जा सकती है, उसका तो द्वार बस अन्तःपुर से खुलता है। उसका हृदय बलपूर्वक खोलने का प्रयास करने वाले, अग्नि की उस लपट का सौन्दर्य नहीं लख पाते हैं, उनके हाथ बस शीत शरीर की राख पड़ती है, मूल्यहीन, मूर्तहीन, प्राणहीन, तत्वहीन।

बहुत लिखा गया है और उससे भी अधिक समझा गया है यह विषय, पर जब उर्वशी अपना परिचय स्वयं देती है तो देहभाव और तद्जनित अाकर्षण क्षीण पड़ने लगता है। दिनकर ने उर्वशी के माध्यम से उन सारी भावनाओं और उत्कण्ठाओं को प्रस्तुत किया है जो नारी को सृष्टि में अतिविशिष्ट स्थान दे देती हैं, वह स्थान जिसके चतुर्दिक प्रकृति अपना ताना बाना बुनने में सक्षम हो पाती है। उर्वशी ने प्रेयसी के रूप में ही स्वयं को व्यक्त किया है अतः चर्चा उसी रूप तक सीमित रह पायेगी। नारी को देह तक समझ पाने वाले संभवतः वह स्वरूप न समझ पायें पर नारीत्व की थोड़ी गहन अभिव्यक्ति में वे सब किरणें किसी जल की सतह पर नाचती हुयी सी दिखती हैं।

उर्वशी कहती है कि नारी का उद्भव समस्त जगत की इच्छाओं की परिणति है, एक ऐसा उपहार है जिसके सानिध्य में इच्छाओं को तृप्ति का वरदान मिलता है। विज्ञान इस बात को मानेगा नहीं, उसकी दृष्टि में तो नर, नारी और उनके बीच का आकर्षण, सब के सब परमाणुओं की करोड़ों वर्षों की उछलकूद से बने हैं। विज्ञान को इस विषय में किसी नियत कारण की उपस्थिति नहीं दिखती है। जैसे भी यह स्थिति पहुँची हो, पर सृष्टि के चक्र का मूलभूत कारण उर्वशी के इसी वाक्य में छिपा है। रूप, रंग, रस और गंध के जितने भी स्रोत हैं, जितने भी आकार हैं, नारी को उन सब के साथ संबद्ध किया जा सकता है। क्या रहस्य है, जानने के प्रयास रहस्य सुलझाते कम है, रहस्य को गहरा कर जाते हैं, थक कर नर बैठ जाता है, काश कामना-वह्नि की शिखा स्थिर हो जाये, स्वयं को व्यक्त कर दे, स्वयं को सुलझा दे।

फेनभरी सर्पिल लहरों के शिखर पर नाचती झलमल है नारी, पूर्णिमा चाँदनी की तरंगित आभा है नारी, अम्बर में उड़ती हुयी मुक्त आनन्द शिखा है नारी, सौन्दर्य की गतिमान छटा है नारी। जब नर का हृदय अपनी अग्नि से भर आता है तो उस कामना-तरंग से खिंची हुयी नारी कल्पना लोक से भूमि पर उतर आती है, नर के सर को अपने उर में रखकर उसके भीतर की अग्नि को अश्रु बना बहाने के लिये, उसे उद्विग्नता से उबारने के लिये। बर्बर, निर्मम, हिंस्र, मदमत, सब के सब अपना स्वभाव भूल नारी के सामने निरीह हो जाते हैं, जगत जीतने वाले स्वयं को हार जाने को तत्पर रहते हैं, झुकना सीख जाते हैं। नारी उर एक विस्तृत सिन्धु के बीच आश्रय का छोटा सा द्वीप सा है, जहाँ थकान की सारे पथ आ विश्राम पाना चाहते हैं। नर के हृदय में देवों से अधिक नारी पूजी जाती है। साहित्य संगीत और कला में भी नर की यही आतुरता ही उभर उभरकर  छलकती है।

नारी का परिचय या तो वह दे सकता है जिसने प्रकृति रची, या वह इच्छायें दे सकती हैं जो उस पर आश्रय पाती हैं। नारी अपने प्रभुत्व को धरती से जकड़ कर रखती है, प्रकृति के सर्वाधिक निकट है नारी का अस्तित्व, प्रकृति की गतिमयता का आधार है नारी। यदि उद्भव सिद्ध न कर पायें, तो नारी तत्व की अनुपस्थिति की कल्पना मात्र कर लें हम, सब का सब जगत ध्वस्त सा दिखायी पड़ता है तब।

अजब बात है, विश्व के दो प्रमुख नियामक, धर्म और विज्ञान इस आकर्षण को समझ सकने में अक्षम हैं। एक तो इसे हारमोन्स जैसे निर्जीव तत्वों पर ठेल कर निकल लेता है। हारमोन्स यदि इस आकर्षण को परिभाषित करने लगें, मानव मन का निष्प्रायोजनीय उत्पीड़न क्यों? हारमोन्स यदि नर की अग्नि को परिभाषित करने लगें, तो इतना संघर्ष क्यों? हो सकता है कि कोई औषधि मन की चेतना को थोड़े समय के लिये अवरुद्ध कर दे, पर मन में भाव कभी मिटता नहीं है, रह रहकर उमड़ता है। यही लगता है कि यह आकर्षण प्रकृति के आवश्यक और मूलभूत तत्वों में एक है, या कहें कि प्रमुखतम है। वहीं दूसरी ओर धर्म में भी या तो नारी को चिर आश्रिता माना गया है या मार्ग में बाधक। न वह शक्ति में श्रेष्ठ, न ही अध्यात्म में। विडम्बना है, किनारे  प्रवाह के बारे में निर्णय सुनाते हैं और हम मूढ़ की तरह उन्हें सच मान बैठते हैं। प्रवाह को समझा नहीं, स्वतन्त्र दृष्टि से जाना नहीं, तो कैसे नियम और कैसे निर्णय?

प्रकृति चतुर है, अपने संचालन के तत्व उद्धाटित नहीं करती है। नर की अग्नि जगत को मथती है, नर की अग्नि को नारी नियन्त्रित करती है, नारी को प्रकृति ने तब किन गुणों से सुसज्जित कर रखा है, इस बारे में पुरुरवा जैसे नर भी भ्रमित ही रहते हैं, लहराती लपटों के सम्मोहन में अस्थिर, आश्रित और अकुलाये, चिर काल से चिर काल तक।

नारी प्रकृति का विजयनाद है।

4.8.12

बड़ा अनूठा खेला है

किसी काम को करूँना करूँकानाफूसी चलती है,
बुद्धि कहे यदिकर भी डालोमन की राय बदलती है,
सुबह आँख खुलतीमन कहतासो जाओ तुम थके बहुत,
शुभ विचार के सम्मुख नित ही तर्कों की सेना प्रस्तुत,
मन करता है रोज लड़ाईबहका हैअलबेला है,
सचमुच भैयाजीवन जीनाबड़ा अनूठा खेला है

मन चंचल हैनित नित साधननये नये ले आता है,
बुद्धि तर्क मेंअनुभव में जाअपना ज्ञान बढ़ाता है,
मन गतिमानबुद्धि है स्थिरअपने में मदमाये दो,
दोनों ही हैं अति आवश्यकरहते मान बढ़ाये दो,
नहीं कोई भी हाथ बटातारहता आत्म अकेला है,
सचमुच भैयाजीवन जीनाबड़ा अनूठा खेला है

दोनों की मैं सुन लेता हूँदोनों की मैं सहता हूँ,
तट हैं दोमैं भी तटस्थ होधीरे-धीरे बहता हूँ,
बढ़ता जाता इसी आस मेंदोनों के संचार सहज हों,
मिलजुल कर जीते दुविधायेंदोनों के विस्तार वृहद हों,
दो जीवट हैं और हृदय में आशाओं का मेला है,
सचमुच भैयाजीवन जीनाबड़ा अनूठा खेला है

1.8.12

नर की अग्नि

व्यवहारिक जीवन में अग्नि के कई उपयोग हैं, पर जब यह मानवीय स्वरूप धरती है तब इसके गुण और विशिष्ट हो जाते हैं। शीतमनाओं को यह ऊष्मा देती है, धारक को जलाकर ही उसे तपाती है, यदि अनियन्त्रित हो गयी तो धारक को ही राख कर देती है और सबसे महत्वपूर्ण यह कि, यदि एक बार बुझ गयी तो पुनः जगाने के लिये बहुत यत्न करने पड़ते हैं। अग्नि जगत में क्रियाशीलता का प्रतीक है। जिस सूर्य की ऊर्जा से सारा विश्व चल रहा है, उसके भी उर में अग्नि धधकती रहती है। अग्नि प्रकाश देती है, प्रकाश पथ दिखलाता है, नेतृत्व का प्रतीक है। ध्यान से देखें तो हर जीव में जिजीविषा का आधार अग्नि ही है।

अग्नि को सभ्यताओं के विकास से जोड़ते हुये एक विस्तृत स्वरूप दिया जा सकता है, पर वर्तमान संदर्भ उर्वशी में वर्णित उस अग्नि तक सीमित रखा जायेगा जो एक नर के भीतर धधकती है और नर को एक विशिष्ट प्रकार से व्यवहार करने को विवश करती है, वह अग्नि जो उर्वशी को पुरुरवा के प्रति आकर्षण-पथ पर ले जाती है। एक नर की जीवन यात्रा, इसी अग्नि की यात्रा है। यही अग्नि हमें सतत कर्म करने को उद्धत करती है, शान्त बैठना कठिन हो जाता है तब, एक के बाद दूसरा कर्म, दूसरे के बाद तीसरा कर्म। प्रेम के संदर्भों में अग्नि को समझने के पहले यह समझना आवश्यक था कि नर में अग्नि का मौलिक स्वरूप क्या है? यह अग्नि नारी के भीतर उपस्थित कामना-वह्नि से भिन्न है, वह विषय और भी विशिष्ट है।

तो क्या यह अग्नि एक कर्म के बाद बुझ जाती है, संभवतः नहीं। एक कड़ी सी बनती जाती है, अनवरत असन्तोष, स्वयं से, सृष्टि से। जो भी इसे दो, उसे क्षणभर में राख कर देती है यह अग्नि, इसीलिये पुनः प्यास लग आती है, और प्यास भी ऐसी कि बुझती ही नहीं। कभी तो लगता है कि हम सच्चे सुख को परिभाषित ही नहीं कर पाये हैं, पर उधर तो जो भी जायेगा, वह इस अग्नि में जल जायेगा। मुक्ति का उपाय तब क्या हो, दाह पर दाह या अग्नि की शान्ति। नित नया दाह न केवल विश्व को तपा डालेगा वरन नर को भी तनाव के कगार पर ले जायेगा। वहीं दूसरी ओर अग्नि की शान्ति नर को नर नहीं रहने देगी, आध्यात्मिक कर देगी, देवता बना देगी। तब क्या उपाय है, नर के निर्वाण का, अग्नि के समाधान का?

यही प्रश्न पुरुरवा उठाता है, वह इस अग्नि को यथासंभव व्यक्त करता है, इतनी स्पष्टता से जितना हम नर सोच भी नहीं पाते हैं। उर्वशी उसे देवता नहीं बनने देती है, जानती है कि पुरुरवा के देवता बनने के प्रयास, प्रेम की उस विमा को लील जायेंगे, जो उसे सर्वाधिक प्रिय हैं। पुरुरवा अब इस अग्नि को रखकर क्या करे? वह अपने कण्ठ में उपस्थित तृषा को नहीं समझ पाता है, उस वेदना को नहीं समझ पाता है, उस रहस्यमयी अग्नि को नहीं समझ पाता है, जो न तो शान्त होती है और न ही खुलकर खेलती है। वह उर्वशी से पूछता है कि यह तुम्हारे रूप की अग्नि है या कि मेरे रक्त की अग्नि है, जो मुझे शान्ति से जीने नहीं देती है। इतने बड़े प्रतापी राजा के अन्दर पता नहीं इतनी उद्विग्नता कहाँ से आती है?

यही अग्नि नर में संघर्ष लाती है, एक के बाद एक उपलब्धियाँ, यही अग्नि यश लाती है, प्रताप लाती है, यही जीवन को जीवन बनाती है। संघर्षपूर्ण नर ही नारी को सुहाता है, उसके पसीने के बूँदें ही पुष्प से सम्मान पाती हैं। यही अग्नि द्वन्द्व का आधार भी है, अपरिमित उत्साह देती है तो विक्षोभ में एकान्त को प्रेरित भी करती है, जीत का उन्माद देती है तो हार का अवसाद भी सहना सिखाती है, आक्रोश में निर्मम बनाती है तो शोक में निरीह, प्रेम में अपरिमित डूबना सिखाती है तो डूबकर अतृप्त रहना भी।

ऐसा क्यों है कि मिलन के बाद भी प्रेम अतृप्त रहता है? प्रेम का प्रथम चरण दृष्टिपथ से होकर जाता है, रूप दृष्टि का पेय होता है, पर प्रेम दृष्टि पर ही तो नहीं रुक पाता है, उसे तृप्त होने के लिये रक्त को भी तुष्ट करना पड़ता है। दृष्टि कल्पनालोक का तत्व है, रक्त मृत्युलोक का तत्व है, रक्त शरीर में दौड़ता है, रक्त में अग्नि दौड़ती है। जब तक रक्त की अग्नि शमित नहीं होती है, प्रेम अतृप्त बना रहता है। रक्त बुद्धि से भी अधिक बली है, रक्त बुद्धि से भी अधिक ज्ञानी है, क्योंकि बुद्धि केवल सोचती है जबकि रक्त अनुभव करता है। रक्त का यह अनुभव नर की अग्नि का अनुभव है, यह अग्नि नियन्त्रित रहे तो नर संयत बना रहता है।

रक्त की अग्नि को जब तक शान्त नहीं किया जाता है तब तक नर हिलोर लेता है। वह उत्साह में जितना उमड़ता है, जितना अग्निमय होता है, निरुत्साह में उतना ही निश्चेष्ट हो जाता है। वह अपने में ही सिमट जाना चाहता है, पर अन्दर तो अग्नि है, अन्दर तो अहम है। तब उसे माँ की गोद याद आती है या पत्नी का आलिंगन।

प्रेम में यदि यह अग्नि पूरी तृप्त न हो तो पुनः जग जाती है, उसे पूरी तरह से शमित करने के प्रयास में नर स्वयं को और पहचानता है, अपने अन्दर एक और नर ढूढ़ता है। अग्नि के न बुझने का कारण समझता है, साथ में यह भी समझता है कि नारी ही उसे पूर्णतया शमित कर सकती है, दृष्टिमय रूपमय नारी नहीं, एक और ही नारी, जिसे वह उस नारी के भीतर ढूढ़ता है। उर्वशी यह जानती है कि पुरुरवा की अग्नि उसके ही अधिकार क्षेत्र का विषय है। उर्वशी यह भी जानती है कि उसे न केवल पुरुरवा की अग्नि नियन्त्रित करनी होगी, वरन उसे एक सृजनात्मक दिशा भी देनी होगी। उसके उर पर सर धरे निश्चेष्ट पुरुरवा अपनी अग्निमयता भुला सो जाना चाहता है, कपाल में खेलती अग्नि को भला इससे शीतल आश्रय कहाँ मिल सकता है?

नर की अतृप्त इच्छाओं का ताण्डव नित परिलक्षित है। आत्मज्ञान जब सहज उपलब्ध नहीं हो, निवृत्ति मार्ग दुरुह हो, विश्व हेतु कर्मशील बने रहना विवशता हो, तो कौन शमित करेगा नर के भीतर की अग्नि, सृष्टिचक्र की इस नितान्त आवश्यकता का भार कौन वहन करेगा? कौन सा मार्ग है तब? क्या उपाय है तब? उर्वशी तो पुरुरवा पर एक उपकार हुयी तब।