स्वर्ग का नाम आते ही उसके अस्तित्व पर प्रश्न खड़े होने लगते हैं, गुण और परिभाषा जानने के पहले ही। यद्यपि सारे धर्मों में यह संकल्पना है, पर उसके विस्तार में न जाते हुये मात्र उन गुणों को छूते हुये निकलने का प्रयास करूँगा, जिनसे उर्वशी और उसकी प्रेम भावनायें प्रभावित हैं। इस प्रेमकथा में स्वर्ग से पूरी तरह से बच पाना कठिन है क्योंकि इसमें प्रेम का आधा आधार नर और नारी के बीच का आकर्षण है, और शेष आधार स्वर्ग और मही के बीच के आकर्षण का। स्वर्ग और मही के आकर्षण की पहेली समझना, प्रेम के उस गुण को समझने जैसा है जिसमें परम्परागत बुद्धि गच्चा खा जाती है।
अच्छे कर्म और परिश्रम करने से स्वर्ग मिलता है। स्वर्ग की परिभाषा कुछ पहचानी पहचानी से लगे, अतः समानता हेतु यह माना जा सकता है कि स्वर्ग हमारी पृथ्वी के उन स्थानों जैसा है, जहाँ ऐश्वर्य है, धनधान्य है, जहाँ किसी चीज की कमी नहीं है। जहाँ सब कुछ बहुत ही अच्छा है, आनन्द विलास की सारी सुविधायें हैं, सुख ही सुख पसरा है। जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि, इसकी तनिक छाँव नहीं है वहाँ। वहीं दूसरी ओर मृत्युलोक में पीड़ा है, हर सुख में दुख छिपा है, द्वन्द्व भरा है। मृत्युलोक में रहने वाले हम सब, स्वाभाविक है कि इसी कारण से स्वर्ग के प्रति आकृष्ट होते हैं।
पुरुरवा भी अपवाद नहीं हैं। उर्वशी नारी है और सौन्दर्य का चरम है, आकर्षण गहरा होना ही है। साथ ही साथ वह स्वर्ग से भी है, जहाँ प्रणय एक कला है, जहाँ ऐश्वर्य एक जीवन पद्धति है, जहाँ श्रृंगार समीर संग बहता है। उर्वशी के प्रति पुरुरवा की प्रेमासित आकांक्षा सहजता से समझी जा सकती है, पर उर्वशी को पुरुरवा के अन्दर क्या भाया जिसके लिये वह स्वर्ग छोड़कर मही पर आने को उद्धत हो गयी। इस तथ्य को समझ पाना न केवल प्रेम का रहस्य जानने में सहायक होगा वरन मृत्युलोक के नरों को वह अभिमान भी देगा जो स्वर्गलोक में अनुपस्थित है।
चलिये ढूढ़ते हैं कि पुरुरवा में मृत्युलोक के कौन से विशेष गुण हैं जिससे उर्वशी अभिभूत है। पुरुरवा सुन्दर हैं, राजा हैं, शक्तिशाली हैं, वीर हैं, देवताओं का साथ देते हैं, सात्विक हैं, गुणवान हैं। पर यह सब तो स्वर्ग के देवों में भी है। कहीँ ऐसा तो नहीं कि उर्वशी को मृत्युलोक की मूलभूत प्रकृति ही अच्छी लगती हो, वही प्रमुख हो, पुरुरवा गौड़ हों। ऐसा भी हो सकता है कि प्रेम बिना किसी नियम के अनियन्त्रित ही उमड़ आता हो, उर्वशी को स्वयं भी न समझ आता हो कि उसे पुरुरवा से प्रेम क्यों हो गया। संभावनायें अनेक हैं। जब भी संशय हो, तो सबसे अच्छा समाधान वही कर सकता है जिसके बारे में संशय हो। उर्वशी के संवाद ही इस संशय को मिटाने में सहायक होंगे।
स्वर्ग के सुखों में कल्पना की प्रधानता हैं, वहाँ रूप का आनन्द दृष्टि से ही मिल जाता है, वहाँ व्यञ्जन का आनन्द उसकी गन्ध से ही मिल जाता है। जब मन की कल्पना सुख का निर्धारण करने लगे और सुख का संचार शरीर तक न पहुँचे तो कुछ छूटा छूटा सा लगता होगा स्वर्ग में, कुछ कुछ कृत्रिम सा लगता होगा स्वर्ग में। यद्यपि प्रेम का प्रारम्भ दृष्टि और कल्पना के माध्यम से ही होता है, स्वर्गलोक में भी और मृत्युलोक में भी, पर स्वर्गलोक में वह संचार कल्पना तक ही सीमित रहता है, मृत्युलोक में वह संचार शरीर तक आता है, अप्रतिबन्धित। शरीर से सुख भोगने की प्रवृत्ति दुख भी देती है, शरीर का सुख अल्पकालिक भी होता है। द्वन्द्व देता है शरीर, तब सुख की अनुपस्थिति दुख का आधार निर्माण करने लगती है। यद्यपि मृत्युलोक में दुख की उपस्थिति सुख की उपलब्धता बाधित और सीमित कर देती हैं, पर दुख के बाद सुख की अनुभूति में जो गाढ़ापन होता है, वह स्वर्गलोक में कहीं नहीं मिलता है। उर्वशी और अन्य देवता जिन्हें मृत्युलोक का आकर्षण है, उनके अन्दर सुख का गाढ़ापन एक न एक कारक होगा।
प्रेम स्वर्ग में एक क्रीड़ा है, देवताओं के लिये भी और अप्सराओं के लिये भी, वहाँ भावों से अधिक भोगों की प्रधानता है। प्रेम हुआ तो हुआ, नहीं तो जीवन चलता ही रहता है। जहाँ भोगों की अधिकता हो, वहाँ प्रेम को क्या वरीयता मिलेगी, यह विचार कर पाना कोई कठिन कार्य नहीं है। वहीं मृत्युलोक में प्रेम से बड़ा कोई रोग नहीं है, जिसे हो जाता है, उसे कोई औषधि नहीं मिलती है, न नींद आती है, न स्थायित्व मिलता है। कारण यही होगा कि हम प्रेम को अत्यधिक गम्भीरता से लेते हैं। जहाँ सुखों का आकाल पड़ा हो, वहाँ प्रेम में ही सुखों की उपस्थिति ढूढ़ने लगते हैं हम पृथ्वीवासी। उर्वशी के मन में प्रेम की उस एकात्मता और गूढ़ता की आकांक्षा जगी होगी, प्रेम के उस पक्ष की जो मात्र मृत्युलोक में मिलती है। उर्वशी के लिये मृत्युलोक के प्रेम का लोभ यातना से भरा होने वाला था, माँ बनने की पीड़ा से भरा, फिर भी वह प्रेम की उस गहराई को छूना चाहती थी जो केवल मृत्युलोक में सुलभ थी।
तीसरा कारण नर के भीतर की वह अग्नि है जो उसे संघर्ष करते रहने को प्रेरित करती रहती है। देवताओं के मन में कोई कामना, द्वन्द्व व परिताप शेष नहीं रहता है, तब उस अग्नि की अनुपस्थिति भी स्वाभाविक है जो इन गुणों का कारण बनती है। नर जानता है कि जब तक उसके अन्दर वह अग्नि है, जब तक उसके अन्दर कामना है, तभी तक सब उसके सम्मुख नत मस्तक हैं, सब इसी अग्नि का सम्मान करते हैं, देव भी, दानव भी। यही अग्नि द्वन्द्व उत्पन्न करती है, मन को स्थिर भी नहीं रहने देती है, उसे बारी बारी से दोनों तटों पर डुलाती है, कभी स्वर्ग सुहाता है, कभी मही सुहाती है। वह अग्नि रक्त की ऊष्णता में विद्यमान है, जब रक्त नर की नसों में अनियन्त्रित दौड़ता है, जब हुंकार अग्नि बरसाती है, सामने उपस्थित जन सहम जाते हैं, सुरक्षित आश्रय ढूढ़ते हैं। जिस समय पुरुरवा ने उर्वशी को केसी दानव से बचाया होगा तो अनजाने में हुये स्पर्श में इसी अग्नि की तपन उर्वशी के उर में बस गयी होगी।
प्रेम शरीर का भी विषय है, मन में उत्पन्न होता है पर निरूपण शरीर में पाता है। जैसे जैसे आत्मा का प्रकाश फैलता है, शरीर अपना महत्व खोने लगता है, जन्म मृत्यु के चक्र से बाहर निकलने लगता है। आत्मा का प्रकाश प्रेम के उपासकों के लिये बाधक है। गन्धमादन पर्वत पर, जब उर्वशी ने पुरुरवा से पूछा कि यदि आपको प्रेम था तो आपने मेरा हरण क्यों नहीं कर लिया? जब पुरुरवा कर्म और विकर्म की बात करने लगे तो उर्वशी का हृदय धक से रह गया, उसे लगा कि वह पुनः किसी देव की बाहों में पड़ी है। उसने कहा कि मैं अन्धकार की प्रतिमा हूँ, मैं आपके हृदय के अन्धकार पर राज्य करती हूँ, उसी के माध्यम से मेरा आप पर अधिकार है, जिस दिन आपको प्रकाश मिलेगा, आप भी देव हो जाओगे, वे देव जिन्हे छोड़ मैं आपकी बाहों में पड़ी हूँ।
प्रेम अंधकार से पोषित क्यों होता है, कहना कठिन है, पर दैनिक जीवन में उसका उदाहरण मिल जाता है। पति कभी कोई धार्मिक ग्रन्थ पढ़ने लगे तो पत्नी तुरन्त ही सशंकित हो जाती हैं। उन्हें लगने लगता है कि पति विरक्त हो जायेंगे, उनके प्रेम में भला ऐसी क्या कमी रह गयी जो पति विरक्तिमना होने लगे हैं। आप पर उनका और प्रेम उमड़ने लगता है। मही में एक गुरुता है, सब चीजों को अपनी ओर आकर्षित करने की, प्रेम भी आकर्षण का विषय है अतः उसमें भी गुरुता स्वाभाविक है। प्रेम और मही में स्वभावों का मिलन है, स्वर्ग प्रेम को समझने में असमर्थ रहता है, उर्वशी को प्रेम की अनुभूति पाने मही पर उतरना पड़ता है, किसी पुरुरवा के बाहु-वलय में।
अच्छे कर्म और परिश्रम करने से स्वर्ग मिलता है। स्वर्ग की परिभाषा कुछ पहचानी पहचानी से लगे, अतः समानता हेतु यह माना जा सकता है कि स्वर्ग हमारी पृथ्वी के उन स्थानों जैसा है, जहाँ ऐश्वर्य है, धनधान्य है, जहाँ किसी चीज की कमी नहीं है। जहाँ सब कुछ बहुत ही अच्छा है, आनन्द विलास की सारी सुविधायें हैं, सुख ही सुख पसरा है। जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि, इसकी तनिक छाँव नहीं है वहाँ। वहीं दूसरी ओर मृत्युलोक में पीड़ा है, हर सुख में दुख छिपा है, द्वन्द्व भरा है। मृत्युलोक में रहने वाले हम सब, स्वाभाविक है कि इसी कारण से स्वर्ग के प्रति आकृष्ट होते हैं।
पुरुरवा भी अपवाद नहीं हैं। उर्वशी नारी है और सौन्दर्य का चरम है, आकर्षण गहरा होना ही है। साथ ही साथ वह स्वर्ग से भी है, जहाँ प्रणय एक कला है, जहाँ ऐश्वर्य एक जीवन पद्धति है, जहाँ श्रृंगार समीर संग बहता है। उर्वशी के प्रति पुरुरवा की प्रेमासित आकांक्षा सहजता से समझी जा सकती है, पर उर्वशी को पुरुरवा के अन्दर क्या भाया जिसके लिये वह स्वर्ग छोड़कर मही पर आने को उद्धत हो गयी। इस तथ्य को समझ पाना न केवल प्रेम का रहस्य जानने में सहायक होगा वरन मृत्युलोक के नरों को वह अभिमान भी देगा जो स्वर्गलोक में अनुपस्थित है।
स्वर्ग के सुखों में कल्पना की प्रधानता हैं, वहाँ रूप का आनन्द दृष्टि से ही मिल जाता है, वहाँ व्यञ्जन का आनन्द उसकी गन्ध से ही मिल जाता है। जब मन की कल्पना सुख का निर्धारण करने लगे और सुख का संचार शरीर तक न पहुँचे तो कुछ छूटा छूटा सा लगता होगा स्वर्ग में, कुछ कुछ कृत्रिम सा लगता होगा स्वर्ग में। यद्यपि प्रेम का प्रारम्भ दृष्टि और कल्पना के माध्यम से ही होता है, स्वर्गलोक में भी और मृत्युलोक में भी, पर स्वर्गलोक में वह संचार कल्पना तक ही सीमित रहता है, मृत्युलोक में वह संचार शरीर तक आता है, अप्रतिबन्धित। शरीर से सुख भोगने की प्रवृत्ति दुख भी देती है, शरीर का सुख अल्पकालिक भी होता है। द्वन्द्व देता है शरीर, तब सुख की अनुपस्थिति दुख का आधार निर्माण करने लगती है। यद्यपि मृत्युलोक में दुख की उपस्थिति सुख की उपलब्धता बाधित और सीमित कर देती हैं, पर दुख के बाद सुख की अनुभूति में जो गाढ़ापन होता है, वह स्वर्गलोक में कहीं नहीं मिलता है। उर्वशी और अन्य देवता जिन्हें मृत्युलोक का आकर्षण है, उनके अन्दर सुख का गाढ़ापन एक न एक कारक होगा।
प्रेम स्वर्ग में एक क्रीड़ा है, देवताओं के लिये भी और अप्सराओं के लिये भी, वहाँ भावों से अधिक भोगों की प्रधानता है। प्रेम हुआ तो हुआ, नहीं तो जीवन चलता ही रहता है। जहाँ भोगों की अधिकता हो, वहाँ प्रेम को क्या वरीयता मिलेगी, यह विचार कर पाना कोई कठिन कार्य नहीं है। वहीं मृत्युलोक में प्रेम से बड़ा कोई रोग नहीं है, जिसे हो जाता है, उसे कोई औषधि नहीं मिलती है, न नींद आती है, न स्थायित्व मिलता है। कारण यही होगा कि हम प्रेम को अत्यधिक गम्भीरता से लेते हैं। जहाँ सुखों का आकाल पड़ा हो, वहाँ प्रेम में ही सुखों की उपस्थिति ढूढ़ने लगते हैं हम पृथ्वीवासी। उर्वशी के मन में प्रेम की उस एकात्मता और गूढ़ता की आकांक्षा जगी होगी, प्रेम के उस पक्ष की जो मात्र मृत्युलोक में मिलती है। उर्वशी के लिये मृत्युलोक के प्रेम का लोभ यातना से भरा होने वाला था, माँ बनने की पीड़ा से भरा, फिर भी वह प्रेम की उस गहराई को छूना चाहती थी जो केवल मृत्युलोक में सुलभ थी।
तीसरा कारण नर के भीतर की वह अग्नि है जो उसे संघर्ष करते रहने को प्रेरित करती रहती है। देवताओं के मन में कोई कामना, द्वन्द्व व परिताप शेष नहीं रहता है, तब उस अग्नि की अनुपस्थिति भी स्वाभाविक है जो इन गुणों का कारण बनती है। नर जानता है कि जब तक उसके अन्दर वह अग्नि है, जब तक उसके अन्दर कामना है, तभी तक सब उसके सम्मुख नत मस्तक हैं, सब इसी अग्नि का सम्मान करते हैं, देव भी, दानव भी। यही अग्नि द्वन्द्व उत्पन्न करती है, मन को स्थिर भी नहीं रहने देती है, उसे बारी बारी से दोनों तटों पर डुलाती है, कभी स्वर्ग सुहाता है, कभी मही सुहाती है। वह अग्नि रक्त की ऊष्णता में विद्यमान है, जब रक्त नर की नसों में अनियन्त्रित दौड़ता है, जब हुंकार अग्नि बरसाती है, सामने उपस्थित जन सहम जाते हैं, सुरक्षित आश्रय ढूढ़ते हैं। जिस समय पुरुरवा ने उर्वशी को केसी दानव से बचाया होगा तो अनजाने में हुये स्पर्श में इसी अग्नि की तपन उर्वशी के उर में बस गयी होगी।
प्रेम शरीर का भी विषय है, मन में उत्पन्न होता है पर निरूपण शरीर में पाता है। जैसे जैसे आत्मा का प्रकाश फैलता है, शरीर अपना महत्व खोने लगता है, जन्म मृत्यु के चक्र से बाहर निकलने लगता है। आत्मा का प्रकाश प्रेम के उपासकों के लिये बाधक है। गन्धमादन पर्वत पर, जब उर्वशी ने पुरुरवा से पूछा कि यदि आपको प्रेम था तो आपने मेरा हरण क्यों नहीं कर लिया? जब पुरुरवा कर्म और विकर्म की बात करने लगे तो उर्वशी का हृदय धक से रह गया, उसे लगा कि वह पुनः किसी देव की बाहों में पड़ी है। उसने कहा कि मैं अन्धकार की प्रतिमा हूँ, मैं आपके हृदय के अन्धकार पर राज्य करती हूँ, उसी के माध्यम से मेरा आप पर अधिकार है, जिस दिन आपको प्रकाश मिलेगा, आप भी देव हो जाओगे, वे देव जिन्हे छोड़ मैं आपकी बाहों में पड़ी हूँ।
प्रेम अंधकार से पोषित क्यों होता है, कहना कठिन है, पर दैनिक जीवन में उसका उदाहरण मिल जाता है। पति कभी कोई धार्मिक ग्रन्थ पढ़ने लगे तो पत्नी तुरन्त ही सशंकित हो जाती हैं। उन्हें लगने लगता है कि पति विरक्त हो जायेंगे, उनके प्रेम में भला ऐसी क्या कमी रह गयी जो पति विरक्तिमना होने लगे हैं। आप पर उनका और प्रेम उमड़ने लगता है। मही में एक गुरुता है, सब चीजों को अपनी ओर आकर्षित करने की, प्रेम भी आकर्षण का विषय है अतः उसमें भी गुरुता स्वाभाविक है। प्रेम और मही में स्वभावों का मिलन है, स्वर्ग प्रेम को समझने में असमर्थ रहता है, उर्वशी को प्रेम की अनुभूति पाने मही पर उतरना पड़ता है, किसी पुरुरवा के बाहु-वलय में।
संग्रह करने योग्य बहुत ही सार्थक विवेचन करती पोस्ट |आभार
ReplyDeleteजहाँ सुख ही सुख हो वहां उसकी अनुभूति आनंद नहीं देती.
ReplyDeleteभोगों और भावों की प्रधानता को देखते हुए शायद हर मनुष्य के लिए स्वर्ग के मायने अलग हों | हर ओर छाये सुख और आनंद के चलते ही स्वर्ग प्रेम को समझने में असमर्थ रहा होगा | उत्कृष्ट विवेचन
ReplyDeleteबहुत जटिलता भरा विषय मगर आपने निर्वाह उतनी ही कुशलता से किया है ....
ReplyDeleteबिना मही की जद्दोजेहद को भोगे स्वर्ग के भोग विलास की गहनता का अनुभव कहाँ ?
श्याद इसलिए कभी कभी देवता भी धरती पर जन्मने की अकुलाहट रखते हैं ...विष्णु तो प्रगट होते ही रहते हैं
अपनी लीलाओं के लिए तभी वे नारी के विरह और संयोग की बारीक अनुभूतियों से गुजरते हैं ...
जिसने हर वक्त प्रकाश की चकाचौध देखी हो उसे अन्धकार की नीरवता कितनी सुहाएगी यह समझा जा सकता है ...
बिना दुःख के सुखानुभूति के असली आनन्द का कोई मतलब नहीं है .......
बहुत ही शानदार आलेख.. कलेक्शन करने लायक है.. बहुत ही खूबसूरती से अनडिफाइनड को भी आपने डिफाइन किया है.. बहुत खूब... घर पहुँच कर इसका प्रिंट आउट निकाल कर फ़ाइल कर लूँगा...
ReplyDeleteमही पर ही प्रेम का सच्चा अर्थ समझ आता है क्या ?
ReplyDeleteउत्कृष्टतम व्याख्या धरती स्वर्ग और प्रेम की |
ReplyDeleteहाँ ! धार्मिक ग्रन्थ में रूचि लो तब भी पत्नी सशंकित और अधार्मिक ग्रंथों में रूचि लो तब और भी सशंकित | पहले में भय विरक्ति की और दूसरे में कहीं और आसक्ति की |
इस आलेख को पढ़कर मृत्यु लोक से ही जुड़े रहने की इच्छा प्रबल हो गयी. उर्वशियाँ यहीं तो मिलेंगी!-:)
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लेख ...
ReplyDeleteआज से रामायण पढ़ना शुरू करता हूँ ...
वाह:मृत्यु लोक और स्वर्ग की,सुख और उसकी अनुभूति की ..बहुत ही उत्कृष्ट विवेचना की है .प्रवीण जी आप ने ..बहुत बहुत बधाई..
ReplyDeleteswarg.mrityu ......bahut gehan chintan
ReplyDeleteसुन्दर वृतांत है ... आभार
ReplyDeleteसुंदर वृतांत और विश्लेषण बधाई
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर विवेचन किया है आपने विषय का, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
बहुत ही खूबसूरत व्याख्या की है।
ReplyDeleteगहन भाव लिए ... बहुत ही अच्छी प्रस्तुति ..आभार
ReplyDeleteप्रवीन भाई , आपके ब्लॉग पर देरी से आने के लिए पहले तो क्षमा चाहता हूँ. कुछ ऐसी व्यस्तताएं रहीं के मुझे ब्लॉग जगत से दूर रहना पड़ा...अब इस हर्जाने की भरपाई आपकी सभी पुरानी रचनाएँ पढ़ कर करूँगा....कमेन्ट भले सब पर न कर पाऊं लेकिन पढूंगा जरूर
ReplyDeleteहमेशा की तरह इस उत्कृष्ट पोस्ट के लिए मेरी बधाई स्वीकारें. आपका ब्लॉग ऐसा है जिसे मिस करके मुझे हमेशा मलाल रहता है...अद्भुत लेखन है आपका...
नीरज
शाश्वत पिपासा इन्द्रियों द्वारा ही पूर्णता पाती है .द्वाभा की सीमाओं पर चलकर ..
ReplyDeletenice presentation.pranav desh ke 14 ven rashtrpati:kripya sahi aakalan karen
ReplyDeletemohpash ko chhod sahi rah apnayen
कल 29/07/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDelete--
इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (29-07-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
"जहाँ सुखों का "आकाल" पड़ा हो," वहाँ प्रेम में ही सुखों की उपस्थिति ढूढ़ने लगते हैं हम पृथ्वीवासी। उर्वशी के मन में प्रेम की उस एकात्मता और गूढ़ता की आकांक्षा जगी होगी, प्रेम के उस पक्ष की जो मात्र मृत्युलोक में मिलती है। उर्वशी के लिये मृत्युलोक के प्रेम का लोभ यातना से भरा होने वाला था, माँ बनने की पीड़ा से भरा, फिर भी वह प्रेम की उस गहराई को छूना' चाहती थी जो केवल मृत्युलोक में सुलभ थी।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर विश्लेषण .वर्चुअल और भौतिक संसार का ,प्रेम में गुरुत्व है मही सा ,तभी तो हर कोई इससे बिद्ध हो जाता है ,प्रेम मन को छूता है हारमोन का खेल है देवताओं का प्रेम अ -शरीरी है .
कृपया "अकाल" कर लें.पहले वाक्य में .
..कृपया यहाँ भी पधारें -
कविता :पूडल ही पूडल
कविता :पूडल ही पूडल
डॉ .वागीश मेहता ,१२ १८ ,शब्दालोक ,गुडगाँव -१२२ ००१
जिधर देखिएगा ,है पूडल ही पूडल ,
इधर भी है पूडल ,उधर भी है पूडल .
(१)नहीं खेल आसाँ ,बनाया कंप्यूटर ,
यह सी .डी .में देखो ,नहीं कोई कमतर
फिर चाहे हो देसी ,या परदेसी पूडल
यह सोनी का पूडल ,वह गूगल का डूडल .
गहन चिंतन ...सुंदर विवेचना ...!!
ReplyDeleteबहुत गहन विषय और उतना ही समर्थ चिन्तन -समाधान देता सा !
ReplyDeleteअद्भुत विश्लेषण किया है ....
ReplyDeleteWaqayi nahee pata ki swarg ya narak hain ya nahee...bada hee sashakt aalekh!
ReplyDeleteजहां सुख के साथ दुख अवश्यंभावी हैं जहां दैन्य से उबरने की आकांक्षा है वहीं पुरुषार्थ प्रबल हो उठता है । जहां सब कुछ जमा जमाया हो पुरुषार्थ करने की आवश्यक्ता कम ही पडती है, वहां उसका आकर्षण भी कहां होगा । उर्वशी के आकर्षण का यही कारण हो सकता है ।
ReplyDeleteसुंदर प्रेम को समझने वाला आलेख ।
आपको पढ़ते दिनकर की पुरूरवा-उर्वशी संवाद पार्श्व में गूँजते रहे...
ReplyDeleteमर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूँ मैं,
उर्वशी! अपने समय का सूर्य हूँ मैं।
तारों की झिलमिल छाया में फूलों की नाव बहाती हूँ।
मैं नैश प्रभा सबके भीतर निश की कल्पना जगाती हूँ।
सुंदर समर्थ विवेचन...
सादर।
शानदार आलेख
ReplyDeleteswarg ka drishy manbhavna lage he manne, mhari site www.khotej.blogspot.com
ReplyDeleteगहन चिंतन, सुंदर विवेचना, खूबसूरत आलेख.
ReplyDeleteसुन्दर विश्लेषण
ReplyDeleteincreasing our knowledge always
ReplyDeleteबहुत सुन्दर विश्लेषण किया स्वर्ग और मर्त्यलोक के प्रेम का अंततः मर्त्य लोक ही विजयी हुआ और आज स्थिति ऐसी है की मानव इस मही की इतनी गहन उत्कृष्ट महत्ता का सम्मान ही नहीं करता हमेशा स्वर्ग की कामना के पीछे लालायित रहता है बहुत गहन विचारात्मक आलेख बहुत सुन्दर
ReplyDeleteअपूर्ण को पूर्ण करने की कवायद है ये धरती से स्वर्ग और स्वर्ग से धरती की चाह|
ReplyDeleteउत्तम चिन्तन!! महाप्रज्ञ जी!!
ReplyDeleteअंधकार से पोषित होनेवाला और चाहे जो हो, प्रेम नहीं हो सकता.
ReplyDeleteसार्थक पोस्ट , आभार.
Deleteस्वर्ग के सुखों में कल्पना की प्रधानता हैं, वहाँ रूप का आनन्द दृष्टि से ही मिल जाता है, वहाँ व्यञ्जन का आनन्द उसकी गन्ध से ही मिल जाता है। जब मन की कल्पना सुख का निर्धारण करने लगे और सुख का संचार शरीर तक न पहुँचे तो कुछ छूटा छूटा सा लगता होगा स्वर्ग में, कुछ कुछ कृत्रिम सा लगता होगा स्वर्ग में। यद्यपि प्रेम का प्रारम्भ दृष्टि और कल्पना के माध्यम से ही होता है, स्वर्गलोक में भी और मृत्युलोक में भी, पर स्वर्गलोक में वह संचार कल्पना तक ही सीमित रहता है, मृत्युलोक में वह संचार शरीर तक आता है, अप्रतिबन्धित।
ReplyDeleteप्लेटोनिक या युवावस्था का वायुवीय प्रेम अतृप्त ज्यादा करता है प्रेम का मार्च सूक्ष्म से स्थूल की ओर ही है .उर्वशी का ही उद्धरण लेतें हैं -
रूप की आराधना का मार्ग आलिंगन नहीं तो और क्या है ,
रूप का सौन्दर्य को उपहार रस चुम्बन नहीं तो और क्या है ?
”उर्वशी’ के चरित्र-चित्रण के माध्यम से आपने सारभूत-अनुभूति को उघाड दिया,जिस पर मानवीय जीवन टिका है जहां से वो अहसास इन्द्रधनुष की छटा की नाईं बिखर जाते हैं जहां से पूरी कायनात जन्म लेती है.
ReplyDeleteबहुत ही सारगर्भित पोस्ट.साभार धन्यवाद
क्या बात है प्रवीण भाई .ला -ज़वाब कर दिया ,आप की ब्लॉग टिपण्णी हमारा उत्साह बढ़ाती है निरंतर ,शुक्रिया .
ReplyDelete"जब पुरुरवा कर्म और विकर्म की बात करने लगे तो उर्वशी का हृदय धक से रह गया, उसे लगा कि वह पुनः किसी देव की बाहों में पड़ी है। उसने कहा कि मैं अन्धकार की प्रतिमा हूँ, मैं आपके हृदय के अन्धकार पर राज्य करती हूँ, उसी के माध्यम से मेरा आप पर अधिकार है, जिस दिन आपको प्रकाश मिलेगा, आप भी देव हो जाओगे, वे देव जिन्हे छोड़ मैं आपकी बाहों में पड़ी हूँ।"
ReplyDelete----- सब नारियों को पढाना चाहिए ये कथ्यांकन ..नारी को प्रकाशमान देव नहीं, अंधकार में भटकने वाला पुरुष चाहिए .... वास्तव में यही तथ्य व इच्छा नारी को पुरुष पर सहज बिना सोचे समझे विश्वास करने को, उसे काम-वाण से दग्ध करने हेतु विभिन्न श्रृंगारिक कृत्य को, संसर्ग करने को वाध्य करती है ..यही इच्छा पुरुष को बल-प्रयोग करने को भी आमंत्रित करती है... यही आदम इच्छा एवं पुरुष को नारी की इस इच्छा का ज्ञान ...अत्याचारों, अनाचारों व बलात्कारों का कारण बनता है...
उर्वशी में दिनकर की भावसमृद्धि, कल्पनावैभव और शब्दशक्ति उच्चशिखर का स्पर्श करती है। इस अर्धमानवी और अर्धदिव्या नारी के सौंदर्य का चित्रण स्थूल और रंगों के मिश्रण से होना स्वाभाविक है। कहीं मांसलता है, तो कहीं सूक्ष्म-लावण्य की अभिव्यक्ति, कहीं इंद्रधनुषी रंगों का मिश्रण है, तो कहीं धूप-छाहीं रंग। वह स्थूल भी है, सूक्ष्म भी। कवि ने सौंदर्य को कल्पना-बल से रूपायित किया है, जहां देहांकन और विदेहांकन दोनों है।
ReplyDeleteसब सुख भोग रहे देवताओं के बीच अप्सरा उर्वशी को मनिय मानवीय गुण लुभाते हैं जो कभी अँधेरे तो कभी उजाले में पलते हैं ....
ReplyDeleteअद्भुत !
स्वर्ग की परिभाषा अच्छी लगी .... पर क्या कोई स्थान सदैव सम्पूर्ण लग सकता है ..... अधिकतर तो मन:स्थिति के अनुसार बदल जाते हैं ......
ReplyDeleteस्वर्ग-मृत्युलोक की अत्यन्त सुन्दर विवेचना की आपने। मानव मन को स्वर्ग हमेशा आकर्षित करता रहा है।
ReplyDeleteबहुत ही अदबुद्ध विश्लेषण किया है आपने मगर फिर भी मोनिका जी की बात से सहमत हूँ।
ReplyDelete