कथाओं का अपना संसार है, सच हों या कल्पना। उनमें एकसूत्रता होती है जो पात्रों को जोड़े रहती है। कथा में पात्रों का चरित्र महत्वपूर्ण है या परिस्थितियों का क्रम, कहना कठिन है, क्योंकि दोनों ही ऐसे गुँथे रहते हैं कि उन्हें अलग अलग कर उनका विश्लेषण असंभव सा होता है। उर्वशी की कथा का भी यही स्वरूप है, उर्वशी, पुरुरवा और समस्त पात्र परिस्थितियों से संबद्ध हो कथा का निर्माण करते हैं, एक बड़ी रोचक कथा का।
उर्वशी अप्सरा है, वह स्वर्ग की संस्कृति का अंग है, नृत्य, संगीत, मोहन, सम्मोहन आदि उसके दैनिक कर्म हैं पर उसे कुछ अतृप्त सा लगता है। सर्वसुखमयता के संसार में स्थिर पड़े रहने से उसे प्रकृति और उसके तत्वों के आड़ोलन का आस्वाद नहीं मिलता है। रात्रि को बहुधा वह अपनी सहेलियों के साथ मृत्युलोक का भ्रमण करती है। स्वर्ग में सब शाश्वत है, मृत्युलोक में सृजन और लुप्त होने की क्रिया उसे लुभाती है। रात में ओस का बनना, सूर्यकिरण पड़ते ही उड़ जाना, फूलों का खिलना, बन्द हो जाना, इनमें उसे कुछ क्रियाशीलता दिखती है, कुछ प्रकृतिशीलता दिखती है। मृत्युलोक के तत्वों की जीवटता, और जिजीविषा के प्रति मन में स्फोटित अग्नि, ये गुण उसके आकर्ष के प्रमुख उद्दीपन है। ऐसा क्यों है, यह एक वृहद विषय है, क्योंकि अध्ययन यह भी स्पष्ट करेगा कि देवता सदैव पृथ्वी में जन्म लेने के लिये लालायित क्यों रहते हैं?
पुरुरवा प्रतापी राजा हैं, चन्द्रवंशी, प्रतिष्ठानपुर के, आधुनिक प्रयाग के निकट। देवताओं के अधिकार क्षेत्र में दानव जब भी उत्पात मचाते हैं, पुरुरवा को सहायता के लिये पुकारा जाता है। वीरता, प्रखरता, संवेदनशीलता आदि सभी गुण होने पर भी उन्हें स्वर्ग का तन्त्र और ऐश्वर्य अत्यधिक अभिभूत करता है, स्वर्ग का हर तत्व सुन्दर लगता है। उसे पाने की एक अग्नि मन में रहती है। स्वर्गलोक के उत्सवों के बाद बहुधा वह रथारूढ़ बादलों में वेग से भ्रमण किया करते हैं, कोई दिशा नहीं, कोई ध्येय नहीं, बस मन की अग्नि को बुझाने, आवरगी सा कुछ।
दोनों की ऐसी ही मनःस्थिति की कोई रात्रि है, भ्रमणशील उर्वशी को केसी दानव देखता है, अरक्षित पा अपहरण कर लेता है, उर्वशी सहायता के लिये पुकारती है, निरुद्देश्य घूम रहे पुरुरवा की विचारतन्द्रा टूटती है। वीर पुरुरवा केसी दावन को युद्ध के लिये ललकारते हैं, मदमत्त और भीमकाय दानव पर सिंह सा टूट पड़ते हैं पुरुरवा। केसी से उर्वशी को छीनने के प्रयास में कई बार अनायास ही पुरुरवा व उर्वशी के शरीरों का स्पर्श होता है, नयन मिलते हैं, उस छुअन की तरंगें आसक्तिमय हो दोनों को ही अपहरित कर लेती है, अकथ प्रेम में। आहत केसी दानव भाग जाता है, पुरुरवा उर्वशी को सादर व ससम्मान वापस स्वर्ग भेज देते हैं, पुरुरवा वापस पृथ्वी आ जाते हैं। दोनों ही अपना हृदय खो आते हैं, स्मृतियाँ ले आते हैं, प्रेम दोनों का जीवन आच्छादित कर लेता है।
उर्वशी के लिये अपने प्रेम को पहले न कह पाने की लज्जा, पुरुरवा के लिये अस्वीकार कर दिये जाने का भय, पहल नहीं हो पाती है, प्रेम की अतृप्त ज्वाला दोनों का ही मन और जीवन लीलने लगती है। अनमनी सी उर्वशी एक बार विष्णु और लक्ष्मी पर आधारित नृत्यनाटिका कर रही है, लक्ष्मी का अभिनय करते हुये वह विष्णु को पुरुषोत्तम के स्थान पर पुरुरवा कह जाती है। निर्देशक भरत मुनि क्रोधित हो श्राप दे देते हैं कि जिस पुरुष के बारे में तू चिन्तनमग्न है, जा उसे वरण कर, स्वर्ग से निष्कासन का श्राप देते हैं। पर याद रख कि तुझे एक समय में पति या पुत्र ही मिलेगा, जिस समय तेरे पति और पुत्र का मिलन होगा, तुझे स्वर्ग वापस आना पड़ेगा।
तमिल मे कहावत है, उर्वशी शापम् उपकारम्, उस समय तो पुत्र का विचार मन में था ही नहीं इसलिये उर्वशी को यह श्राप भी एक उपकार सा लगता है। वह अपनी सखी से पुरुरवा को प्रणय-निमन्त्रण भेजती है, जिसे सहर्ष स्वागत मिलता है। उर्वशी प्रेमारूढ़ हो स्वर्ग से मही उतर आती है, पुरुरवा उसके साथ गन्धमादन की रमणीक पहाड़ी पर रहने लगते है, वहीं से राजकाज के निर्देश देते हैं। पुरुरवा की पहली पत्नी औशीनरी प्रतिष्ठानपुर में ही रहती हैं, निःसन्तान होने का दुख है उन्हें, पुत्रप्राप्ति के क्रम में पति के किसी दूसरी नारी के संग होने का क्षोभ वह राज्य के संचालन में सक्रिय रहकर छिपा लेती हैं।
एक वर्ष हर्षातिरेक में बीत जाता है, एक दूसरे के प्रेम में निमग्न दोनों को ही संसार की सुध नहीं रहती है। इस समय दोनों के बीच हुये संवाद को नर और नारी की परस्पर मनःस्थिति समझने के लिये आधारभूत माना जा सकता है। उन सूक्ष्म विवेचनाओं का वर्णन एक अलग अध्याय माँगता है। एक वर्ष के बाद की दो प्रचलित कथायें हैं, पर दोनों का उद्देश्य एक है। एक कथा के अनुसार वनभ्रमण के समय पुरुरवा की दृष्टि क्षण भर के लिये नदी से झुक कर जल भरती हुयी एक युवती पर ठहर जाती है, यह देख कर उर्वशी क्रोधवश और डाहवश लता बन जाती है। पुरुरवा उसे ढूढ़ते हैं पर वह मिलती नहीं है। पुरुरवा की विछोह दशा से द्रवित हो तथा उनके द्वारा ऋण को चुकाने के लिये देवता उन्हें एक मणि देते हैं, जिसको छूने से उर्वशी पुनः शरीररूप में आ जाती है। दूसरी कथा के अनुसार कुछ समय के लिये पुरुरवा यज्ञ कराने के लिये अपने राज्य वापस जाते हैं, तत्पश्चात वापस आ जाते हैं।
जो भी कथा हो पर इस समयावधि में उर्वशी ऋषि च्यवन और उनकी पत्नी सुकन्या के आश्रम में रहती है और अपने पुत्र आयु को जन्म देती है। पिता और पुत्र एक साथ मिल न जायें, उर्वशी की सहायता के लिये यह देवताओं की चाल थी। जो भी हो, पर उसके बाद उर्वशी पुरुरवा के साथ महल वापस आ जाती है और औशीनरी भी उसे स्वीकार कर लेती है। अगले १६ वर्ष उनका जीवन आनन्दमय और प्रेममय बीतता है, स्वर्ग और मही का श्रेष्ठस्वरूप उनके प्रेम के रुप में प्रतिष्ठापित होता है।
१६ वर्षों तक आयु का पालन पोषण महर्षि च्यवन और सुकन्या के आश्रम में होता है, माता-पिता से प्राप्त श्रेष्ठ गुणों को आश्रम की सम्यक और कुशल शिक्षा पद्धति और मणिमय कर देती है। योग्य आयु जब १६ वर्ष का होता है, महर्षि च्यवन उसे सुकन्या के साथ राजा के पास भेज देते हैं। श्राप के प्रभाव से उर्वशी को न चाहते हुये भी स्वर्ग वापस जाना पड़ जाता है। एक ओर उर्वशी के जाने का दुख, दूसरी ओर युवा पुत्र को सामने पाने का हर्ष, पुरुरवा राज्य आयु को सौंप कर गन्धमादन वापस चले जाते हैं। वर्षों से वात्सल्य हृदय में समेटे औशीनरी आयु को सहर्ष स्वीकार कर लेती है और राजमाता के रूप में अपने दायित्व का निर्वाह करती है।
दिनकर कथा यहीं समाप्त कर देते हैं पर अन्य विवरणों के अनुसार दानवों के साथ हुये एक और युद्ध के लिये देवताओं को पुरुरवा की सहायता की आवश्यकता पड़ती है, पुरुरवा सहायता करते हैं, देवता युद्ध जीत जाते हैं। युद्ध के बाद विदा लेते पुरुरवा के लिये इन्द्र उपहारस्वरूप उर्वशी को स्वर्ग से मुक्त कर देते हैं। पुरुरवा और उर्वशी तब जीवन पर्यन्त साथ साथ रहते हैं, उनके सात और पुत्र होते हैं। जीवन बीतता है, प्रेममुदित हो, प्रेम विजयी होता है, स्वर्ग और मही का मिलन स्थायी हो जाता है, गन्धमादन पर्वत पर।
पुरुरवा प्रतापी राजा हैं, चन्द्रवंशी, प्रतिष्ठानपुर के, आधुनिक प्रयाग के निकट। देवताओं के अधिकार क्षेत्र में दानव जब भी उत्पात मचाते हैं, पुरुरवा को सहायता के लिये पुकारा जाता है। वीरता, प्रखरता, संवेदनशीलता आदि सभी गुण होने पर भी उन्हें स्वर्ग का तन्त्र और ऐश्वर्य अत्यधिक अभिभूत करता है, स्वर्ग का हर तत्व सुन्दर लगता है। उसे पाने की एक अग्नि मन में रहती है। स्वर्गलोक के उत्सवों के बाद बहुधा वह रथारूढ़ बादलों में वेग से भ्रमण किया करते हैं, कोई दिशा नहीं, कोई ध्येय नहीं, बस मन की अग्नि को बुझाने, आवरगी सा कुछ।
दोनों की ऐसी ही मनःस्थिति की कोई रात्रि है, भ्रमणशील उर्वशी को केसी दानव देखता है, अरक्षित पा अपहरण कर लेता है, उर्वशी सहायता के लिये पुकारती है, निरुद्देश्य घूम रहे पुरुरवा की विचारतन्द्रा टूटती है। वीर पुरुरवा केसी दावन को युद्ध के लिये ललकारते हैं, मदमत्त और भीमकाय दानव पर सिंह सा टूट पड़ते हैं पुरुरवा। केसी से उर्वशी को छीनने के प्रयास में कई बार अनायास ही पुरुरवा व उर्वशी के शरीरों का स्पर्श होता है, नयन मिलते हैं, उस छुअन की तरंगें आसक्तिमय हो दोनों को ही अपहरित कर लेती है, अकथ प्रेम में। आहत केसी दानव भाग जाता है, पुरुरवा उर्वशी को सादर व ससम्मान वापस स्वर्ग भेज देते हैं, पुरुरवा वापस पृथ्वी आ जाते हैं। दोनों ही अपना हृदय खो आते हैं, स्मृतियाँ ले आते हैं, प्रेम दोनों का जीवन आच्छादित कर लेता है।
उर्वशी के लिये अपने प्रेम को पहले न कह पाने की लज्जा, पुरुरवा के लिये अस्वीकार कर दिये जाने का भय, पहल नहीं हो पाती है, प्रेम की अतृप्त ज्वाला दोनों का ही मन और जीवन लीलने लगती है। अनमनी सी उर्वशी एक बार विष्णु और लक्ष्मी पर आधारित नृत्यनाटिका कर रही है, लक्ष्मी का अभिनय करते हुये वह विष्णु को पुरुषोत्तम के स्थान पर पुरुरवा कह जाती है। निर्देशक भरत मुनि क्रोधित हो श्राप दे देते हैं कि जिस पुरुष के बारे में तू चिन्तनमग्न है, जा उसे वरण कर, स्वर्ग से निष्कासन का श्राप देते हैं। पर याद रख कि तुझे एक समय में पति या पुत्र ही मिलेगा, जिस समय तेरे पति और पुत्र का मिलन होगा, तुझे स्वर्ग वापस आना पड़ेगा।
तमिल मे कहावत है, उर्वशी शापम् उपकारम्, उस समय तो पुत्र का विचार मन में था ही नहीं इसलिये उर्वशी को यह श्राप भी एक उपकार सा लगता है। वह अपनी सखी से पुरुरवा को प्रणय-निमन्त्रण भेजती है, जिसे सहर्ष स्वागत मिलता है। उर्वशी प्रेमारूढ़ हो स्वर्ग से मही उतर आती है, पुरुरवा उसके साथ गन्धमादन की रमणीक पहाड़ी पर रहने लगते है, वहीं से राजकाज के निर्देश देते हैं। पुरुरवा की पहली पत्नी औशीनरी प्रतिष्ठानपुर में ही रहती हैं, निःसन्तान होने का दुख है उन्हें, पुत्रप्राप्ति के क्रम में पति के किसी दूसरी नारी के संग होने का क्षोभ वह राज्य के संचालन में सक्रिय रहकर छिपा लेती हैं।
एक वर्ष हर्षातिरेक में बीत जाता है, एक दूसरे के प्रेम में निमग्न दोनों को ही संसार की सुध नहीं रहती है। इस समय दोनों के बीच हुये संवाद को नर और नारी की परस्पर मनःस्थिति समझने के लिये आधारभूत माना जा सकता है। उन सूक्ष्म विवेचनाओं का वर्णन एक अलग अध्याय माँगता है। एक वर्ष के बाद की दो प्रचलित कथायें हैं, पर दोनों का उद्देश्य एक है। एक कथा के अनुसार वनभ्रमण के समय पुरुरवा की दृष्टि क्षण भर के लिये नदी से झुक कर जल भरती हुयी एक युवती पर ठहर जाती है, यह देख कर उर्वशी क्रोधवश और डाहवश लता बन जाती है। पुरुरवा उसे ढूढ़ते हैं पर वह मिलती नहीं है। पुरुरवा की विछोह दशा से द्रवित हो तथा उनके द्वारा ऋण को चुकाने के लिये देवता उन्हें एक मणि देते हैं, जिसको छूने से उर्वशी पुनः शरीररूप में आ जाती है। दूसरी कथा के अनुसार कुछ समय के लिये पुरुरवा यज्ञ कराने के लिये अपने राज्य वापस जाते हैं, तत्पश्चात वापस आ जाते हैं।
जो भी कथा हो पर इस समयावधि में उर्वशी ऋषि च्यवन और उनकी पत्नी सुकन्या के आश्रम में रहती है और अपने पुत्र आयु को जन्म देती है। पिता और पुत्र एक साथ मिल न जायें, उर्वशी की सहायता के लिये यह देवताओं की चाल थी। जो भी हो, पर उसके बाद उर्वशी पुरुरवा के साथ महल वापस आ जाती है और औशीनरी भी उसे स्वीकार कर लेती है। अगले १६ वर्ष उनका जीवन आनन्दमय और प्रेममय बीतता है, स्वर्ग और मही का श्रेष्ठस्वरूप उनके प्रेम के रुप में प्रतिष्ठापित होता है।
दिनकर कथा यहीं समाप्त कर देते हैं पर अन्य विवरणों के अनुसार दानवों के साथ हुये एक और युद्ध के लिये देवताओं को पुरुरवा की सहायता की आवश्यकता पड़ती है, पुरुरवा सहायता करते हैं, देवता युद्ध जीत जाते हैं। युद्ध के बाद विदा लेते पुरुरवा के लिये इन्द्र उपहारस्वरूप उर्वशी को स्वर्ग से मुक्त कर देते हैं। पुरुरवा और उर्वशी तब जीवन पर्यन्त साथ साथ रहते हैं, उनके सात और पुत्र होते हैं। जीवन बीतता है, प्रेममुदित हो, प्रेम विजयी होता है, स्वर्ग और मही का मिलन स्थायी हो जाता है, गन्धमादन पर्वत पर।
उर्वशी की कथावस्तु का सांगोपांग विवरण आपने बहुत ही कसावदार भाषा में प्रस्तुत किया है .कथा में जुड़ा क्षेपक और देवताओं का एक बार फिर पुरुरवा का आवाहन उनकी ओर से युद्ध लड़ने का ,दानवों को परास्त करने का और इंद्र द्वारा उर्वशी को श्राप मुक्त करने का कथा को एक नाटकीय और सुखान्त मोड़ देता है लेकिन "तीसरी कसम "फिल्म में हीरामन और नौटंकी बाई का विछोह "ही उसे एक यादगार फिल्म बना देता है .यही उर्वशी के साथ हुआ है .
ReplyDeleteइति उर्वशी कथा...बहुत ही बढियां तरीके से आपने कथा की प्रस्तुति की .....कथा सुखान्त है यह मुझे याद ही नहीं रहा ...मैं दुखांत ही समझता रहा ,,,
ReplyDeleteयह अथ उर्वशी कथा...बिना तत्व विवेचना के इति कर बैठे तो हमें उर्वशी का ही श्राप मिल जायेगा। उर्वशी के श्राप का मतलब समझते हैं आप?
Deleteinhi urvashi aur pururava ke vanshaj arjun ko bhi shrap mila tha urvashi se hi |
Deleteउर्वशी एक कथा नहीं , काल्पनिक संसार नहीं , यादों की उलझन नहीं ....इन सबसे उपर उर्वशी की कथा जीवन के सत्यों को उद्घाटित करती है ...."काम और अध्यात्म" मनुष्य जिनके कारण हमेशा ही द्वंद्व रहा में है ...उन दोनों को सही परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करती है ....आपने इस कथा को नयी दृष्टि से देखकर इसके सभी आयामों को उद्घाटित किया है जो की प्रासंगिक बन पड़ा है ...!
ReplyDeleteरोचक विवरण!
ReplyDelete:) बहुत ही बढ़िया कहानी है, फ़िर से पढ़ेंगे और सुनायेंगे :)
ReplyDeleteज्ञानवर्धक ...सुचारु रूप से उर्वशी की कथा कही आपने ..!!
ReplyDeleteसुखांत कथानक हमेशा ही अच्छे लगते हैं...
ReplyDeleteसच्चे-प्रेमी यदि अंत में मिल जाते हैं तो यह सुखद परिणिति है !
ReplyDeleteकथा का प्रवाह और ऐतिहासिक पात्र -पाठकों का ध्यान आकर्षित करने में सक्षम ।
ReplyDeleteउर्वशी एक निष्कर्ष है ...
ReplyDeleteसुखान्त दिल को सकूँ देता है अच्छी कहानी।
ReplyDeleteउर्वशी स्वर्ग की अप्सरा थी जिसे लेकर देव दानवों में युद्ध हुआ था एक तरह से वह स्वर्ग सुंदरी थी जिसे लेकर कथा रची गढ़ी गई है ... काफी रोचक वृतांत है ... बढ़िया प्रस्तुति ... आभार
ReplyDeleteसुंदर ढंग से प्रस्तुत कथा ..... उर्वशी को पढने का मन है अब तो......
ReplyDeleteबहुत ही रोचकता से आपने उर्वशी के हर भाग को साझा किया .. आभार
ReplyDeleteBade hee rochak tareequese aapne katha sadar kee hai!
ReplyDeleteबहुत ही सलीके और रोचकता से उर्वशी का प्रसंग प्रस्तुत किया
ReplyDeleteदिनकर की कथा विछोह को दर्शाती है .... आपने उर्वशी को सहजता से और सरल भाषा में प्रस्तुति किया रोचक वर्णन ... आभार इस प्रस्तुति के लिए ॰
ReplyDeleteउर्वशी के माध्यम से कवि ने बहुत कुछ कहने का प्रयास किया था और आपने भी उसके उसके मर्म को लिखा है ... बहुत लाजवाब प्रस्तुति ...
ReplyDeleteआपकी इन पोस्ट्स को तो मन कर रहा है प्रिंट करके रख लूं आराम से आधेलेट कर पढ़ने का अपना ही मजा है.
ReplyDeleteरोचक
ReplyDeleteकहा करों बैकुंठ लै ... जो गल प्रीतम बांह ..यही प्रेम है जिसे सत्यापित किया है इस कथा के द्वारा..
ReplyDeleteरोचक एवं मार्मिक कथानक.
ReplyDeleteउर्वशी पुराण सब एक साथ पढना पड़ेगा , वक्त मिलने पर .
ReplyDeleteउर्वशी का नाम इंद्र की सभाओ में पढा था पर मैने आज से पहले ये कथा नही पढी थी पर चलिये इतनी सुंदर और प्रेम रस से भरी कहानी पढने को मिली वो भी इतने सुंदर शब्दो में उसके लिये साधुवाद
ReplyDeleteकथानक क्या एक रिपोर्ताज ही लिख दिया है आपने न एक शब्द कम न एक ज्यादा .
ReplyDeleteसराहनीय - संग्रहणीय प्रस्तुति .आभार हमें आप पर गर्व है कैप्टेन लक्ष्मी सहगल
ReplyDeleteउर्वशी और पुरुरवा की प्रेम कथा के बहाने स्त्री और पुरुष के मनोविज्ञान का अच्छा विश्लेषण. आपकी रोचक प्रस्तुति से यह और भी निखर कर सामने आई.
ReplyDeleteऔशीनरी खुद को राज काज की व्यस्तता में झोंक देती है।
ReplyDeleteमुझे चिंता है, सोच रहा हूं... पता नहीं निष्कर्ष पर पहुंच पाउंगा भी कि नहीं...
उर्वशी कथा कहते कहते आप कुछ ऐसे पहलू भी छू गए जिन पर आगे और भी लिखना होगा आपको| जो स्वर्ग में है, उसे मृत्यलोक अपनी ओर खींचता है और जो यहाँ के बाशिंदे है वो स्वर्ग के आकर्षण से मुक्त नहीं| ऐसा क्या है? भोग, योग, कर्मयोग, कर्मभोग कितना कुछ है जो हजारों सवाल खड़े करता है?
ReplyDeleteदिनकर की पद्य रचना को गद्य शैली में काफी रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है आपने...
ReplyDeleteउर्वशी में एक एक मिथकीय आख्यान को लेकर उसकी पुनर्रचना की गई है। ‘उर्वशी’ काव्य की नयिका स्वर्ग की अप्सरा है और उसे अक्षय सौंदर्य मिला है। देवलोक की यह नर्तकी चिरयुवती, वारविलासिनी, अनंत यौवनमयी और चिररहस्यमयी है। वह तो रूपमाला की सुमेरू ही है।
ReplyDeleteएक मूर्ति में सिमट गयीं किस भांति सिद्धियां सारी?
कब था ज्ञान मुझे इतनी सुन्दर होती हैं नारी?
उर्वशी’ में प्रेम को एक बोधात्मक विषय (कॉग्निटिव कंटेंट) के रूप में स्वीकार किया गया है और उसे भारतीय ढ़ंग मे उन्नयन (सब्लिमेशन) के सहारे ‘वासना’ से दर्शन तक पहुंचाया गया है –
पहले प्रेम स्पर्श होता है,
तदन्तर चिन्तन भी।
प्रणय प्रथम मिट्टी कठोर है,
तब वायव्य गगन भी।
इसलिए दिनकर की उर्वशी एक ओर अपार्थिव सौंदर्य का पार्थिव संस्करण है, तो दूसरी ओर पार्थिव सौंदर्य (नारी) का अपार्थिव उन्नयन भी। फलस्वरूप ‘उर्वशी’ में प्रेम के प्रति वैष्णवभाव है, जिसे हम प्रेम का आधुनिक ‘सहजियाकरण’ कह सकते हैं।
बहुत ही सुन्दर। इसे, अपनी आवाज में, वाडियो रूप में अपने ब्लॉग पर देने के बारे में विचार करें।
ReplyDeleteउर्वशी एक यात्रा है - कामना और वासना से भावना ,उससे भी आगे मानव की चिन्तन-वृत्ति को ऊर्ध्वगामी करती हुई !
ReplyDeleteरोचक - यह पोस्ट मुझे आपके पिचल एपोस्ट पर भी खीच ले गयी !
ReplyDeletePratidin aapka blog kholker dekhataa hoon. Padhker achchhaa lagata hai. Lekin pratidin tippari likhne ka samay nahin mil pata. Aap itni vyasttaon ke beech likhane ka samay nikal lete hain to yah sahitya ke prati aapki pratibadhdhataa ka pratik hai. Agar kisi din nayaa matter nahin milta to naya kuchh n padh pane ke karan nirash ho jata hoon. Kash aap ko pratidin kuchh likhne ka samay mil pata to kitna achchha hota.
ReplyDeleteबहुत रोचक और विचारणीय आलेख...उर्वशी पढ़ने की इच्छा प्रबल हो गयी...
ReplyDeleteआज रात सपने में पुरूरवा और उर्वषी न आ जांय कहीं! पढ़कर आनंद आ गया।...वाह!
ReplyDeleteशुक्रिया ब्लॉग पे आने का ,आके टिपियाने का ,कृपया यहाँ ज़रूर आयें कद्रदान मेहरबान -
ReplyDeleteकविता :पूडल ही पूडल
कविता :पूडल ही पूडल
डॉ .वागीश मेहता ,१२ १८ ,शब्दालोक ,गुडगाँव -१२२ ००१
जिधर देखिएगा ,है पूडल ही पूडल ,
इधर भी है पूडल ,उधर भी है पूडल .
(१)नहीं खेल आसाँ ,बनाया कंप्यूटर ,
यह सी .डी .में देखो ,नहीं कोई कमतर
फिर चाहे हो देसी ,या परदेसी पूडल
यह सोनी का पूडल ,वह गूगल का डूडल .
This comment has been removed by the author.
ReplyDeletebahut sundar katha behtareen dhang se punah kahi gayi...
ReplyDeleteसुखद अंत!
ReplyDeleteबड़ी ही रोचक कथा .
Dear प्रवीण जी ,
ReplyDeleteआपके comments का इन्तजार है ! http://achhibatein.blogspot.in/ पर भी थोडा पधारिये .........
आभार .....
डॉ. नीरज
बहुत ही सुन्दर वर्णन। संस्कृत साहित्य में प्रेम और विरह के जैसे सुन्दर कथानक हैं वैसे कहीं और नहीं। कालिदास के मेघदूतम् में भी विरह का वर्णन साहित्य की सीमाओं को छू जाता है।
ReplyDeleteसौन्दर्यप्रेमियों को भरत प्रणीत शृंगारशतकम् भी पढ़ना चाहिये।
खरगोश का संगीत राग रागेश्री पर आधारित है जो कि खमाज थाट का सांध्यकालीन राग है, स्वरों में कोमल निशाद और बाकी स्वर शुद्ध लगते हैं, पंचम इसमें वर्जित है, पर
ReplyDeleteहमने इसमें अंत में पंचम का प्रयोग भी किया है, जिससे इसमें राग बागेश्री भी झलकता है.
..
हमारी फिल्म का संगीत वेद नायेर ने दिया है.
.. वेद जी को अपने संगीत कि प्रेरणा जंगल में चिड़ियों कि
चहचाहट से मिलती है...
Visit my webpage - हिंदी
Why do Minor Chords Sound Sad?
ReplyDeleteThe Theory of Musical Equilibration states that in contrast to previous hypotheses, music does not directly describe emotions: instead, it evokes processes of will which the listener identifies with.
A major chord is something we generally identify with the message, “I want to!” The experience of listening to a minor chord can be compared to the message conveyed when someone says, "No more." If someone were to say the words "no more" slowly and quietly, they would create the impression of being sad, whereas if they were to scream it quickly and loudly, they would be come across as furious. This distinction also applies for the emotional character of a minor chord: if a minor harmony is repeated faster and at greater volume, its sad nature appears to have suddenly turned into fury.
The Theory of Musical Equilibration applies this principle as it constructs a system which outlines and explains the emotional nature of musical harmonies. For more information you can google Theory of Musical Equilibration.
Bernd Willimek