जो भी कारण रहा हो पर जिसे भी उर्वशी की कथा सुनायी, उसके लिये वह नयी थी। पुस्तक पढ़ने के बाद, पात्रों को समझने के बाद, कथा कहना और भी सरल हो जाता है, और भी रुचिकर हो जाता है। लगता है मानो सबकुछ आपके सामने ही घटा है, मानो पात्रों ने अपने मन के उद्गार एकान्त में आपसे कहे हों। कालिदास कृत विक्रमोर्वशीयम् भी एक नाटक के रूप में लिखी गयी है, दिनकर कृत उर्वशी भी उसी शैली में निरूपित है, पात्रों को अपनी बात कहने में कठिनता नहीं होती, हर बार संदर्भ और सूत्रधार की आवश्यकता नहीं पड़ती है।
मानकर चल रहा हूँ कि आप में अधिकांश को यह कथा ज्ञात होगी, फिर भी उसे एक बार और कह देने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। पात्रों का परिचय और उनकी चरित्रगत विशेषता का पूर्वज्ञान पाठकों को लेखक के साथ कदमताल का आनन्द देती है और बहुधा लेखक जो कहने वाला होता है, वह बात पाठक के मन में पहले ही घुमड़ आती है। संभवतः इसे ही पढ़ने का रस कहा जाता है, तब लगता है कि लेखक से आमने सामने बैठकर बातें की जा रही हैं। पात्र भी साथ में बैठे हैं, चर्चा जब भटकती है तब वे उसे सुधार देते हैं, नहीं तो सहमति में सर हिला देते हैं।
यदि विषयवस्तु को केन्द्र में रखें तो नारी पात्रों को चार स्तरों पर रखा जा सकता है। ये सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इनके आपसी संवादों के माध्यम से ही दिनकर ने प्रेम के रहस्यों की पर्तों को धीरे धीरे खोला है। एक छोर में अप्सरायें हैं, जो स्वतन्त्र हैं, स्वच्छन्द हैं, उत्श्रंखल हैं, भोग और आनन्द में आकण्ठ डूबी। उन्हें न भविष्य की चिन्ता है, न भूतकाल का दुख, वे वर्तमान के स्वर्ग में जीती हैं। सौन्दर्य की स्वामिनी इन्द्रलोक में रहती हैं, सुविधाओं के ऐश्वर्य में। चिरयौवना हैं और उसके प्रति सजग भी, किसी की माँ बनकर वे अपना यौवन क्षणभर के लिये भी नहीं खोना चाहती हैं। देवता उनके प्रशंसक हैं और प्रेमी भी, कोई एक नहीं सब, किसी एक के लिये नहीं, सबके लिये। नृत्य, संगीत, गीत, कला आदि में संतृप्त निमग्न आनन्दविलास की प्रतिमूर्ति हैं अप्सरायें। देव, मनुज, दानव, सब के सब लालायित रहते हैं, उनका सानिध्य पाने के लिये, उनका होना उत्सवीय होता है, उनका न होना प्रतीक्षापूर्ण। कोई तापस अपनी तपस्या से इन्द्र के आसन पर अधिकार न कर बैठे, उस हेतु सदा ही अप्सराओं को भेजा जाता रहा है, उनकी तपस्या भंग करने।
कथा के दूसरे छोर पर हैं, सुकन्या, महर्षि च्यवन की सहधर्मिणी। कहते हैं, जब महर्षि च्यवन तपस्यारत थे, चंचल सुकन्या ने कौतूहलवश तपस्वी की पलक खींच दी थी। तपस्या टूटती है, सुकन्या को लगता है कि महर्षि उसे भस्म कर देंगे। पता नहीं विधि ने क्या नियत किया था कि महर्षि की आँखों में कोप के अंगार के स्थान पर प्रेम की लालिमा उभर आयी, रूपमयी सुकन्या का सात्विक सौन्दर्य उन्हें बहा ले गया। उन्होंने रुपमयी सुकन्या से विवाह का प्रस्ताव रखा। वृद्ध महर्षि ने विवाह हेतु तपस्या से ही पुनः यौवन ग्रहण करने का विश्वास दिलाया। उनके पास अर्पित करने के लिये केवल तापस का तप था, उन्होने अपने प्रेम से अरण्य में स्वर्ग उतारने का वचन दिया। बस यही कहा कि 'हरि प्रसन्न यदि नहीं, सिद्धि बनकर तुम क्यों आयी हो'। सुकन्या, जिससे विवाह के लिये न जाने कितने युवराज आतुर थे, महर्षि के एकांगी समर्पण में सहर्ष सिमट गयी और अरण्य में महर्षि च्वयन की पत्नी बन गुरुकुल में व्यस्त हो गयी।
इन दोनों छोरों के बीच में हैं दो और पात्र, औशीनरी और उर्वशी। औशीनरी पुरुरवा की धर्मपत्नी है, राज्य चलाने में सहयोगिनी है, पर दुर्भाग्यवश निःसन्तान है। वह मानवी है अतः प्रेम उसके लिये समर्पण भी है और अधिकार भी। पुरुरवा का उर्वशी के प्रति आकृष्ट होना उसे सालता है, पर पुरुरवा के मन में उसके लिये सम्मान कम नहीं होता है, सारे राजकीय व धार्मिक अवसरों पर औशीनरी ही पुरुरवा के वामांग में विराजती है। पुरुरवा को सन्तान की उत्कट चाह थी, वंश बढ़ाने का भार था, उस पृष्ठभूमि में पुरुरवा और उर्वशी की प्रेमकथा सहती है औशीनरी। कहानी के अन्त में पुरुरवा और उर्वशी के पुत्र आयु की राजमाता बन, औशीनरी उस पर वर्षों का संचित वात्सल्य उड़ेलने से भी नहीं पीछे रहती है।
कथा के केन्द्र में है उर्वशी, उसकी गति के माध्यम से कथा में संक्रमण होता है, अप्सरा, मानवी और तापसी के चरित्रों के बीच। उर्वशी अप्सरा है, इन्द्रलोक का प्रमुखतम आकर्षण, सब देव उसके लिये कुछ भी कर देने को लालायित रहते थे। एक अप्सरा जिसका मन स्वर्गलोक के आनन्द विलास की एकरूपता से उकता जाता है। उसे प्रेम की वह अवस्था चाहिये जिसमें अग्नि की धधक हो, जिसमें आकर्ष की तपन हो, जिसमें स्नेहिल अनुराग हो। देवप्रेम का कृत्रिम स्वरूप उसके लिये असहनीय सा था, उसे मानवीय प्रेम की प्राकृतिक रूक्षता रुचिकर लगती थी। उसे मृत्युलोक अच्छा लगता था। इस बीज का क्या वृक्ष पनपता है, इसकी कहानी है उर्वशी।
पुरुरवा ही प्रमुख नर पात्र की ध्वजा वहन करते हैं, उन्हीं के माध्यम से नर के भीतर की विभिन्न मनोदशाओं का चित्रण किया गया है। वह एक प्रतापी राजा हैं, देवों को बहुधा सहायता देते रहते हैं, दानवों के विरुद्ध। पुरुरवा के मन में देवलोक के प्रति अप्रतिम आकर्षण है, उन्हें यह तथ्य कचोटता भी है कि श्रेष्ठ होने पर भी उनके पास वह सब क्यों नहीं है? एक अतृप्त तृषा सदा ही उनके पीछे भागती है, एक अधूरेपन के भाव का लहराना उन्हें खटकता है।
यही पाँच पात्र उर्वशी की कथाभूमि का निर्माण करते हैं, उनकी चरित्रगत विशेषता कथा के अन्दर प्रेम के इतने रंग भर लाती है जो विषय समझने में बड़े आवश्यक होते हैं। आज भी ध्यान से देखेंगे तो यही पात्र हमारे चारों ओर खड़े दिखायी पड़ेंगे। हमारा प्रेम भले ही किसी एक पात्र से स्वयं को न जोड़ पाये, पर वह निश्चय ही इन्हीं के बीच कहीं अवस्थित रहता है।
सृष्टि के चलने में प्रेम धुरा सा कार्य करता है, धुरा जो स्वयं तो स्थिर रहता है पर किनारों को चलाता रहता है। प्रेम के प्रवाह में अस्थिर हम सब उस मर्म को समझना चाहते हैं जिसमें हमें तृप्ति का आनन्द मिले। उर्वशी का पढ़ना संभवतः उन सिद्धान्तों को समझने की राह बने, जिस पर हमारी चाह चलना चाहती हो।
मानकर चल रहा हूँ कि आप में अधिकांश को यह कथा ज्ञात होगी, फिर भी उसे एक बार और कह देने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। पात्रों का परिचय और उनकी चरित्रगत विशेषता का पूर्वज्ञान पाठकों को लेखक के साथ कदमताल का आनन्द देती है और बहुधा लेखक जो कहने वाला होता है, वह बात पाठक के मन में पहले ही घुमड़ आती है। संभवतः इसे ही पढ़ने का रस कहा जाता है, तब लगता है कि लेखक से आमने सामने बैठकर बातें की जा रही हैं। पात्र भी साथ में बैठे हैं, चर्चा जब भटकती है तब वे उसे सुधार देते हैं, नहीं तो सहमति में सर हिला देते हैं।
यदि विषयवस्तु को केन्द्र में रखें तो नारी पात्रों को चार स्तरों पर रखा जा सकता है। ये सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इनके आपसी संवादों के माध्यम से ही दिनकर ने प्रेम के रहस्यों की पर्तों को धीरे धीरे खोला है। एक छोर में अप्सरायें हैं, जो स्वतन्त्र हैं, स्वच्छन्द हैं, उत्श्रंखल हैं, भोग और आनन्द में आकण्ठ डूबी। उन्हें न भविष्य की चिन्ता है, न भूतकाल का दुख, वे वर्तमान के स्वर्ग में जीती हैं। सौन्दर्य की स्वामिनी इन्द्रलोक में रहती हैं, सुविधाओं के ऐश्वर्य में। चिरयौवना हैं और उसके प्रति सजग भी, किसी की माँ बनकर वे अपना यौवन क्षणभर के लिये भी नहीं खोना चाहती हैं। देवता उनके प्रशंसक हैं और प्रेमी भी, कोई एक नहीं सब, किसी एक के लिये नहीं, सबके लिये। नृत्य, संगीत, गीत, कला आदि में संतृप्त निमग्न आनन्दविलास की प्रतिमूर्ति हैं अप्सरायें। देव, मनुज, दानव, सब के सब लालायित रहते हैं, उनका सानिध्य पाने के लिये, उनका होना उत्सवीय होता है, उनका न होना प्रतीक्षापूर्ण। कोई तापस अपनी तपस्या से इन्द्र के आसन पर अधिकार न कर बैठे, उस हेतु सदा ही अप्सराओं को भेजा जाता रहा है, उनकी तपस्या भंग करने।
कथा के दूसरे छोर पर हैं, सुकन्या, महर्षि च्यवन की सहधर्मिणी। कहते हैं, जब महर्षि च्यवन तपस्यारत थे, चंचल सुकन्या ने कौतूहलवश तपस्वी की पलक खींच दी थी। तपस्या टूटती है, सुकन्या को लगता है कि महर्षि उसे भस्म कर देंगे। पता नहीं विधि ने क्या नियत किया था कि महर्षि की आँखों में कोप के अंगार के स्थान पर प्रेम की लालिमा उभर आयी, रूपमयी सुकन्या का सात्विक सौन्दर्य उन्हें बहा ले गया। उन्होंने रुपमयी सुकन्या से विवाह का प्रस्ताव रखा। वृद्ध महर्षि ने विवाह हेतु तपस्या से ही पुनः यौवन ग्रहण करने का विश्वास दिलाया। उनके पास अर्पित करने के लिये केवल तापस का तप था, उन्होने अपने प्रेम से अरण्य में स्वर्ग उतारने का वचन दिया। बस यही कहा कि 'हरि प्रसन्न यदि नहीं, सिद्धि बनकर तुम क्यों आयी हो'। सुकन्या, जिससे विवाह के लिये न जाने कितने युवराज आतुर थे, महर्षि के एकांगी समर्पण में सहर्ष सिमट गयी और अरण्य में महर्षि च्वयन की पत्नी बन गुरुकुल में व्यस्त हो गयी।
इन दोनों छोरों के बीच में हैं दो और पात्र, औशीनरी और उर्वशी। औशीनरी पुरुरवा की धर्मपत्नी है, राज्य चलाने में सहयोगिनी है, पर दुर्भाग्यवश निःसन्तान है। वह मानवी है अतः प्रेम उसके लिये समर्पण भी है और अधिकार भी। पुरुरवा का उर्वशी के प्रति आकृष्ट होना उसे सालता है, पर पुरुरवा के मन में उसके लिये सम्मान कम नहीं होता है, सारे राजकीय व धार्मिक अवसरों पर औशीनरी ही पुरुरवा के वामांग में विराजती है। पुरुरवा को सन्तान की उत्कट चाह थी, वंश बढ़ाने का भार था, उस पृष्ठभूमि में पुरुरवा और उर्वशी की प्रेमकथा सहती है औशीनरी। कहानी के अन्त में पुरुरवा और उर्वशी के पुत्र आयु की राजमाता बन, औशीनरी उस पर वर्षों का संचित वात्सल्य उड़ेलने से भी नहीं पीछे रहती है।
पुरुरवा ही प्रमुख नर पात्र की ध्वजा वहन करते हैं, उन्हीं के माध्यम से नर के भीतर की विभिन्न मनोदशाओं का चित्रण किया गया है। वह एक प्रतापी राजा हैं, देवों को बहुधा सहायता देते रहते हैं, दानवों के विरुद्ध। पुरुरवा के मन में देवलोक के प्रति अप्रतिम आकर्षण है, उन्हें यह तथ्य कचोटता भी है कि श्रेष्ठ होने पर भी उनके पास वह सब क्यों नहीं है? एक अतृप्त तृषा सदा ही उनके पीछे भागती है, एक अधूरेपन के भाव का लहराना उन्हें खटकता है।
यही पाँच पात्र उर्वशी की कथाभूमि का निर्माण करते हैं, उनकी चरित्रगत विशेषता कथा के अन्दर प्रेम के इतने रंग भर लाती है जो विषय समझने में बड़े आवश्यक होते हैं। आज भी ध्यान से देखेंगे तो यही पात्र हमारे चारों ओर खड़े दिखायी पड़ेंगे। हमारा प्रेम भले ही किसी एक पात्र से स्वयं को न जोड़ पाये, पर वह निश्चय ही इन्हीं के बीच कहीं अवस्थित रहता है।
सृष्टि के चलने में प्रेम धुरा सा कार्य करता है, धुरा जो स्वयं तो स्थिर रहता है पर किनारों को चलाता रहता है। प्रेम के प्रवाह में अस्थिर हम सब उस मर्म को समझना चाहते हैं जिसमें हमें तृप्ति का आनन्द मिले। उर्वशी का पढ़ना संभवतः उन सिद्धान्तों को समझने की राह बने, जिस पर हमारी चाह चलना चाहती हो।
आपने कथा पात्र और कथावस्तु का बहुत अच्छा परिचय दिया और कथानक का कुछ कुछ संकेत भी -एक छोटी सी पोस्ट में में इतना कुछ समेट लेना अब उर्वशी(कथा) पर आपके यथेष्ट नियंत्रण का परिचायक है! प्रत्येक वाक्य के आगे एक डब्बा खटक रहा है !
ReplyDeleteसुंदर पात्र परिचय..... स्वयं को भी किसी न किसी रूप में कृति के पात्रों के बीच अवस्थित पाना कथा के पात्रों से गहरा जुड़ाव पैदा कर देता है.... शुभकामनायें
ReplyDeleteउर्वशी के कई आयाम खुल रहे हैं आपकी इस पोस्ट के माध्यम से ...एक नया दृष्टिकोण और पात्रों का आपसी संवाद ....सब प्रभावपूर्ण है ...!
ReplyDeleteउर्वशी के पात्रों का परिचय के साथ आलेख में नर और नारी के बीच प्रेम की विभिन्न मनोदशाओं की झलक भी मिलती है .
ReplyDeleteरोचक सरस प्रस्तुति !
सुन्दर विवेचन!!
ReplyDeleteऐसी पौराणिक कथाएं हमेशा से रहस्यमयी लगती रही हैं और इनके प्रति जानने की इच्छा भी !
ReplyDeleteआपकी सारी post पढने के बाद शायद लोगों को उर्वशी को समझने में आसानी रहेगी... :)
ReplyDeleteओ! येअह.... नाईस मिस्टीरियस इंट्रो... डू कीप ईट अप.. थैंक्स फॉर शेयरिंग...
ReplyDeleteएक दूसरा पहलू भी है इस उर्वशी रूपी कहानी का ! डरता हूँ शायद कुछ लोगो को यह सच पचनीय न लगे ! ये इस जग की रीत है कि कुछ धूर्त, चालाक और कुकर्मी लोगों ने पाप भी किये और उनपर सफाई से पर्दा डालने के लिए ह्यपोथेटिक कहानिया भी गढ़ी ! ठीक वैसे ही जैसे आज भ्रष्टाचार के दलदल में इतने घोटाले करने के बाद भी एम् एम् एस को कहानियों में आज के कथाकारों द्वारा इमानदार व्यक्तित्व का खिताब भी दिया जाता है !
ReplyDeleteनिश्चय ही यह दृष्टिकोण रोचक है, इस पर अभी तक सोचा नहीं। पूरी कहानी में यदि किसी पर अपराध हुआ लगता है, तो वह है औशीनरी और यदि कोई अपराधी लगता है, तो वह है पुरुरवा। समाज की मान्यताओं के आधार पर अपराधी हो सकते हैं पुरुरवा, पर उस समय पर समाज की मान्यतायें क्या थीं और नैतिक मूल्य कितने बँधे थे, उसका भी विवरण आवश्यक है। अप्सराओं के लोक से देखें तो पुरुरवा बहुत सधे थे, मानवी के लोक से देखें तो पुरुरवा थोड़े बिगड़े थे। हाँ कुकर्म का आक्षेप तो बस केसी दानव पर ही लगता है।
Delete------वास्तव में उस काल-खंड में नियंत्रण इतने कठोर नहीं थे ...स्त्रियाँ स्वतंत्र व बंधनहीन थीं, अनिवार्य विवाह संस्था भी नहीं ही थी एवं नारी की इच्छा ही सर्वोपरि थीं, अतः मूल रूप से किसी पर भी अपराध का दोषारोपण नहीं हो सकता ....
Delete------मूलरूप में तो यह कथा दिव्यता के दायित्व एवं सामान्य मानवीय पक्ष की सहजता के द्वंद्व की कथा है ...जो सदैव-सदा समाज में व मानव मन में चलता रहता है|
------पौराणिक कहानियाँ चाहे हाइपोथेटिक हों या सत्य घटनाएँ ...वे सदैव समाज से निकलने वाले व उसमें उपस्थित सामाजिक समस्यामूलक तथ्यों का विश्लेषण प्रस्तुत करती हैं साथ ही आगे के लिए मानव व समाज व्यवहार हेतु समाधान की दिशा ....
आपके द्वारा परिचय प्रभावी रहा, सब कुछ दुबारा याद आ गया ...
ReplyDeleteआभार आपका !
पूरी निचोड़ मिल गयी. सुन्दर समीक्षा. ऐसे ही एक विचार आया. क्या स्वर्ग की अप्सारायें, जन्नत की हूर और धरती की नगर वधुओं में कोई समानता है?
ReplyDeleteहर नारी स्वयं को उर्वशी से जोड़ कर देख सकती है। अप्सरा, तापसी और मानवी, तीनों उसमें विद्यमान हैं। जिसे भी वह वर ले..
Deleteपरिचयात्मक भूमिका सब के लिये बहुत सहायक सिद्ध होगी.उद्दाम प्रेम का प्रतिफलन धरती के जीवन में कितने रूप धरता है अब आगे चलेगा प्रवीण जी की लेखनी से ...!
ReplyDeleteसार्वभौमिक प्रेम के महीन धागों को कमोवेश सुलझा लेना भी बहुत होता है. अति सुंदर अवलोकन..
ReplyDeleteउर्वशी यह नाम तो कई बार सुना पर उसका इतना विस्तार से परिचय आपके लेखन से ही हो सका ... आभार
ReplyDeleteमैंने कुछ समय पहले पढ़ा था कि उर्वशी किसी एक महिला का नाम नहीं, वरन 'उर' प्रांत (जो कि पहले भारत वर्ष का भाग माना जाता रहा होगा, पर अब संभवतः मध्य-पूर्वी एशिया का कोई हिस्सा है) में रहने वाली सभी स्त्रियों को कहा जाता था (उर + वशी). ये नृत्य कला निपुण महिलाएं तात्कालीन भारतीय राजाओं और धनिकों के मनोरंजन के लिए (वर्तमान) भारत आती थीं.. कह नहीं सकते इसमें कितनी सच्चाई है, पर उर्वशी की कथाओं को पढ़ कर लगता है जैसे उर्वशी नाम नहीं अवधारणा हो. कौन जाने?
ReplyDeleteसही सुना है....वास्तव में कश्मीर के पश्चिमी इलाकों सहित भारत के उत्तरीय प्रदेश के विविध प्रांत-क्षेत्र ही स्वर्ग एवं किन्नर आदि प्रदेश हैं वहाँ की महिलायें आज भी सुन्दर व कला-निपुण होती हैं .....किन्नौर ..तो आज भी उत्तराखंड का एक क्षेत्र है| .. किन्नर(गायक), गन्धर्व(संगीतज्ञ), अप्सरा(नृत्यांगना), विद्याधर( शास्त्रीय कला--नाटक आदि सभी कला-विद्याएँ )...उस काल में मानव का उत्तर से पूर्व एवं दक्षिण की ओर ..प्रयाण होरहा था....जिसे मर्त्य-लोक-मानव लोक, पृथ्वी या भारत कहा गया क्योंकि सभ्यता के प्रसार के साथ मनुष्य की आयु घट रही थी |चहुँ ओर आना-जाना एवं आपसी मिश्रण जारी था|
Deleteरोचक प्रसंग की भूमिका बहुत सधी हुई लिखी है आपने, आभार!
ReplyDeleteबहुत अच्छा परिचय दिया
ReplyDeleteआपकी सारी post पढने के बाद शायद लोगों को उर्वशी को समझने में आसानी रहेगी... :)
@ डा.गायत्री गुप्ता जी बिलकुल सही फ़रमाया
बहुत सुंदर परिचय ...सम्भवत: स्वयम को तराशने और अपना ताना बाना बुनने में भी हमारी मदद करेगा ...जो ज्यादा ज़रूरी है ...
ReplyDeleteज्ञानवर्धक ..उत्कृष्ट ....सुंदर प्रयास ...!!
बहुत रोचक और सुन्दर समीक्षा...
ReplyDeleteउर्वशी की कथावस्तु और पात्र परिचय का प्रभावी ढंग . आभार .
ReplyDeleteबहुत सुन्दर विश्लेषण किया है aapne urvashi ka par सुकन्या के बारे में to hamne ''shivmahapuaran में dekha था ki usne rishi chyavan kee aankhen bhram में fod dee thi aur pashchatap vash swayam unse vivah ka prastav किया था .बहुत सुन्दर prastuti. सृष्टि में एक नारी,
ReplyDeleteउर्वशी- एक समंदर
ReplyDeleteकथा का प्रस्तुतीकरण और विवेचना एक दम से सरल बन पड़ी है .कसाव दार बना दिया है आपकी लेखनी ने कथानक को .सहज बोध से प्रेरित है पूरा विवरण प्रवाह लिए .शुक्रिया .
ReplyDeleteआपका कथा और पुस्तक प्रेम और उसकी विवेचना , सभी उत्कृष्ट हैं .
ReplyDeleteउर्वशी एक सोच है..बहुत रोचक और सुन्दर समीक्षा... आभार .
ReplyDeleteहमें भी पढ़ी उर्वशी आपकी नजरों से..सुन्दर विवेचना.
ReplyDeleteजैसा आपने सोचा और चाहा, वैसा ही प्रभाव मुझ पर हुआ है। पढते समय लगता रहा, मैं पढ नहीं रहा, सुन रहा हूँ। अपेक्षित प्रभावोत्पादक। रोचक तो है ही।
ReplyDeleteउर्वशी को आपकी कलम के माध्यम से जानना सुखद लगा, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम
उर्वशी तब भी समझ से परे थी और आज भी समझ से परे है | उर्वशियों को वे ही समझ पाते हैं , जिन्हें उर्वशियाँ चाहती हैं कि वे समझ जाएँ | ये ऐसे पात्र हैं जो कभी मृत्यु को प्राप्त नहीं होते बल्कि सदैव जीवित रहते हैं |
ReplyDeleteआपकी कलम के माध्यम से हम भी लाभान्वित हो रहे हैं लिखते रहिये हार्दिक बधाई
ReplyDeleteआपके आलेख पढकर लगता है कि आपने उर्वशी,का गहन अध्यन किया है,बहुत रोचक समीक्षा,,,,,अच्छी लगी,,,,,
ReplyDeleteहमने आपकी पोस्ट का एक कतरा सहेज़ लिया है , आज ब्लॉग बुलेटिन के पन्ने को खूबसूरत बनाने के लिए । देखिए कि मित्र ब्लॉगरों की पोस्टों के बीच हमने उसे पिरो कर अन्य पाठकों के लिए उपलब्ध कराने का प्रयास किया है । आप टिप्पणी को क्लिक करके हमारे प्रयास को देखने के अलावा , अन्य खूबसूरत पोस्टों के सूत्र तक पहुंच सकते हैं । शुक्रिया और आभार
ReplyDeleteपात्र परिचय और पूरा प्रस्तुतीकरण बहुत रोचक लगा ...उर्वशी को आपकी नज़र से जानना अलग ही अनुभव होगा ... आभार
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति!
ReplyDeleteइस प्रविष्टी की चर्चा आज रविवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
मेरा अपना अनुभव ये रहा है कि ऐसी कथाओं को कुछ समय के बाद दुबारा पढ़ने पर हर बार नया कुछ जानने को मिलता है, शायद हर पल हमारी सोच में जो परिवर्तन आते हैं वो इसका कारक होती हैं| और मुझे हर बार लगता है कि पिछली बार पूरे ध्यान से नहीं पढ़ा था:)
ReplyDeleteविष्णु सखाराम खांडेकर का लिखा 'ययाति' भी एक ऐसा ही उपन्यास है, जितनी बार भी पढते हैं, नए आयाम दीखते हैं|
आपकी विवेचना के आलोक में फिर से उर्वशी को पढेंगे, धन्यवाद|
मेरा कमेन्ट शायद खो गया :(
ReplyDeleteआपकी प्रवाहमयी विवेचना के आलोक में फिर से 'उर्वशी' को पढ़ना और समझना एक आनंददायक अनुभव रहने वाला है, धन्यवाद|
अब उर्वशी से सम्बंधित आपकी सारी पोस्ट पढ़ने के बाद अब किताब पढ़ने का दिल और करने लगा है..
ReplyDeleteघर में एक नारी
ReplyDeleteबहुत मुश्किल से
समझ में आती है
आपने तो गजब
ही कर दिया
आपकी एक बहुत
छोटी सी पोस्ट
एक एक करके
पाँच नारियों को
समझाती है
मजे कि बात है
हमारे सम्झ में
भी आ जाती हैं
आभार !!
this dream never gets end...... urvashi ,the climax of poetry ..
ReplyDeleteबहुत आत्मीयता के साथ आपकी उर्वशी से सम्बंधित विवेचना चल रही है.
ReplyDeleteउर्वशी
ReplyDeleteभ्रांति नहीं, अनुभूति; जिसे ईश्वर हम सब कहते हैं,
शत्रु प्रकृति का नहीं, न उसका प्रतियोगी, प्रतिबल है.
किसने कहा तुम्हें, परमेश्वर और प्रकृति, ये दोनॉ
साथ नहीं रहते; जिसको भी ईश्वर तक जाना है,
उसे तोड़ लेने होंगे सारे सम्बन्ध प्रकृति से;
और प्रकृति के रस में जिसका अंतर रमा हुआ है,
उसे और जो मिले, किंतु, परमेश्वर नहीं मिलेगा?
किसने कहा तुम्हें, जो नारी नर को जान चुकी है,
उसके लिए अलभ्य ज्ञान हो गया परम सत्ता का;
और पुरुष जो आलिंगन में बाँध चुका रमणी को,
देश-काल को भेद गगन में उठने योग्य नहीं है?
ईश्वरीय जग भिन्न नहीं है इस गोचर जगती से;
इसी अपावन में अदृश्य वह पावन सना हुआ है
हम इच्छुक अकलुष प्रमोद के, पर, वह प्रमुद निरामय
विधि-निषेध-मय संघर्षॉ, यत्नॉ से साध्य नहीं है.
आता है वह अनायास, जैसे फूटा करती हैं
डाली से टहनियाँ और पत्तियाँ स्वत: टहनी से,
या रहस्य-चिंतक के मन में स्वयं कौंध जाती है
जैसे किरण अद्र्श्य लोक की, भेद अगम सत्ता का.
यह अकाम आनन्द भाग संतुष्ट-शांत उस जन का,
जिसके सम्मुख फलासक्तिमय कोई ध्येय नहीं है,
जो अविरत तन्मय निसर्ग से, एकाकार प्रकृति से,
बहता रहता मुदित, पूर्ण, निष्काम कर्म-धारा में,
संघर्षॉ में निरत, विरत, पर, उनके परिणामॉ से;
सदा मानते हुए, यहाँ जो कुछ है, मात्र क्रिया है;
हम निसर्ग के स्वयं कर्म हैं, कर्म स्वभाव हमारा,
कर्म स्वयं आनन्द, कर्म ही फल समस्त कर्मॉ का.
जब हम कुछ भी नहीं खोजते निज से बाहर जाकर,
तब हम कमी नहीं, कर्म के रूप स्वयं होते हैं
करते हुए व्यक्त आंसू अथवा उल्लास प्रकृति का.
यह अकाम आनन्द भाग उनका, जो नहीं सुखॉ को
आमंत्रण भेजते, न जगकर पथ जोहा करते हैं;
न तो बुद्धि जिनकी चिंताकुल यह सोचा करती है,
कैसे, क्या कुछ करें कि हो सुख पर अधिकार हमारा;
और न तो चेतना आकुलित इस भय से रहती है,
जानें, कौन दुख आ जाए कब, किस वातायन से;
मुक्त वही, जो सहज भावना से इसमें बहते हैं,
विधि-निषेध से परे, छूटकर सभी कामनाओ से,
किसी ध्येय के लिए नहीं केवल बहते रहने को;
क्यॉकि और कुछ भी करना सम्भव या योग्य नही है.
सभी पूर्ण, सब सुखासीन, सब के सब लीन क्रिया में,
पूछे किससे? कौन, कहाँ से सृष्टि निकल आई है?
अच्छा है, ये पेड़, पुष्प इसके जिज्ञासु नहीं हैं,
हम हैं कौन, कहाँ से आए और कहाँ जाएंगे?
सच में, यह प्रत्यक्ष जगत कुछ उतना कठिन नहीं है,
जितना हो जाता दुरूह मन के भीतर जाने पर.
वैचारिक जितना विषण्ण रहता दुरूहताऑ से,
उतना खिन्न नहीं रहता है सहज मनुष्य प्रकृति का.
द्वन्द्व रंच भर नहीं कहीं भी प्रकृति और ईश्वर में,
द्वन्द्वॉ का आभास द्वैतमय मानस की रचना है.
यह आभास नहीं टिकता, जब मनुज जान लेता है
और यहाँ यह काम-धर्म ही उज्जवल उदाहरण है.
काम धर्म, काम ही पाप है, काम किसी मानव को
उच्च लोक से गिरा हीन पशु-जंतु बना देता है
और किसी मन में असीम सुषमा की तृषा जगाकर
पहुंचा देता उसे किरण-सेवित अति उच्च शिखर पर.
यह विरोध क्या है? कैसे दो फल एक ही क्रिया के
एक अपर से, इस प्रकार, प्रतिकूल हुआ करते हैं?
सोचा है, यह प्रेम कहीं क्यॉ दानव बन जाता है,
और कहीं क्यॉ जाकर मिल जाता रहस्य-चिंतन से?
काम नहीं, इस वैपरीत्य का भी मन ही कारण है.
मन जब हो आसक्त काम से लभ्य अनेक सुखॉ पर,
चिंतन में भी उन्हीं सुखॉ की स्मृति ढोये फिरता है,
विकल, व्यग्र, फिर-फिर, रस-मधु में अवगाहन करने को
स्नेहाकृष्ट नहीं, तो यत्नॉ से, छल से, बल से भी,
तभी काम से बलात्कार के पाप जन्म लेते हैं
तभी काम दुर्द्धर्ष, दानवी किल्विष बन जाता है.
काम-कृत्य वे सभी दुष्ट हैं, जिनके सम्पादन में
मन-आत्माएँ नहीं, मात्र दो वपुस् मिला करते हैं;
या तन जहाम विरुद्ध प्रकृति के विवश किया जाता है
सुख पाने को, क्षुधा नहीं केवल मन की लिप्सा से;
जहाँ नहीं मिलते नर-नारी उस सहजाकर्षण से
जैसे दो वीचियाँ अनामंत्रित आ मिल जाती हैं,
क्या प्रतीक यह नहीं, काम-सुख गर्हित, ग्राम्य नहीं है?
वह भी ले जाता मनुष्य को ऊपर मुक्ति-दिशा में
मन के माया-मोह-बन्ध को छुड़ा सहज पद्धति से
पर, खोजें क्यॉ मुक्ति? प्रकृति के हम प्रसन्न अवयव हैं;
जब तक शेष प्रकृति, तब तक हम भी बहते जाएँगे
लीलामय की सहज, शांत, आनन्दमयी धारा में.
bahut bahut shukriya.. main aapka mureed ho gaya... aapki Hindi ka, lekhan ka aur lekhan mein spasht-ta ka...
bahut bahut shukriya sir ji...
हम तो औरों के ज्ञान से अपना अज्ञान सुलझा रहे हैं..
DeleteAbhishek ne bilkul sahi kaha, sach main kitaab padhne ko mann kar rha hai!
ReplyDeleteआपकी कलम से उर्वशी के बारे में कुछ विशेष जानकारी मिली ..
ReplyDeleteअलग दृष्टिकोण से देखा है इस कथा को ... दिलचस्प होगा अओके अंदाज़ से इस कथा को ग्रहण करना ...
ReplyDeleteउर्वशी को पढा है। कई बार। फिर भी आपकी व्याख्या रोचक लग रही है। आगामी कड़ियों की प्रतीक्षा है।
ReplyDeleteदिनकर जी की उर्वशी तो अनूठी पुस्तक है। किशोरावस्था से अब तक कई कई बार पूरी/हिस्सों में पढ़ता रहा हूं!
ReplyDeleteसृष्टि के चलने में प्रेम धुरा सा कार्य करता है, धुरा जो स्वयं तो स्थिर रहता है पर किनारों को चलाता रहता है। प्रेम के प्रवाह में अस्थिर हम सब उस मर्म को समझना चाहते हैं जिसमें हमें तृप्ति का आनन्द मिले। उर्वशी का पढ़ना संभवतः उन सिद्धान्तों को समझने की राह बने, जिस पर हमारी चाह चलना चाहती हो।
ReplyDeleteसृष्टि में समरसता का प्रतीक है प्रेम उर्वशी उसी प्रेम का पल्लवन करने का आवाहन है .शुक्रिया हमारे ब्लॉग पे आने का टिपियाने का .
मन तृप्त कर देने वाली विवेचना।..वाह!
ReplyDeleteबहुत अच्छी जानकारी.हमेशा की तरह अच्छी पोस्ट की है आपने.
ReplyDeletemaine abhi tak nahi padhi ab padhungi...itna accha katha vishleshan kisi ne pahle likha hi nahi urwashi ka...aapne bahut accha likha hai sir
ReplyDelete‘उर्वशी’ में पुरुष और स्त्री के बीच प्राकृतिक आकर्षण, काम-भावना के कारण उत्पन्न प्रेम और फिर इस प्रेम के विस्तार को मापने की कोशिश की गई है। काम का ललित पक्ष प्रेम है और प्रेम संतानोत्पादन के साथ-साथ आनंद का उत्कर्ष भी है। वह शारीरिक होने के साथ-साथ रहस्यवादी अनुभूति भी है। प्रेम का यह पक्ष कवि को अपनी ओर खींचता है। एक आत्मा से दूसरी आत्मा का गहन संपर्क अध्यात्म की भूमिका बन सकता है, यह उर्वशी काव्य का गुणीभूत व्यंग्य है।
ReplyDeleteउर्वशी प्रेम की अतल गहराई का अनुसंधान करती हुई रचना है। ‘उर्वशी’ में यह प्रेम शारीरिक आकर्षण से कहीं आगे जाता है। यह प्रेम की अतीन्द्रियता का आख्यान है और यही आख्यान उसका आध्यात्मिक पक्ष है।
urvashi ke bare mein bahut kuch jana gehan chintan .........sarthak lekh
ReplyDeleteपुस्तक नहीं पढ़ी... कथाएँ सुनी है.
ReplyDeleteआपके पोस्ट ने उत्सुकता बहुत बढ़ा दी है !
उर्वशी के बारे में बताने का शुक्रिया।
ReplyDelete............
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शुक्रिया भाई साहब .इस विवेचना के लिए .आपकी सटीक अर्थ पूर्ण टिप्पणियों के लिए .
ReplyDeleteउर्वशी का ज्ञान मुझे इतना भर था कि वह इतनी सुन्दर अप्सरा थी कि कवि को लिखना पडा कि --तो पर वारौं उरबसी सुनि राधिके सुजान, तू मोहन के उरबसी, है उरबसी समान । और यह कि उर्वशी कविवर दिनकर की एक प्रसिद्ध रचना है बस । आपका आलेख पढ कर बहुत कुछ पता चल गया ।
ReplyDeleteउर्वशी-पुरुरवा की कथा पढ़ी थी कभी, अब ध्यान नहीं। आपने उर्वशी के चरित्र का दार्शनिक विश्लेषण किया, अच्छा लगा।
ReplyDeleteच्यवन-सुकन्या के बारे में थोड़ा भिन्न पढ़ा था कि सुकन्या ने तपस्यारत च्यवन ऋषि की आँखे कुछ और समझकर तिनके से फोड़ दी थी जिस अपराध के प्रायश्चित हेतु सुकन्या के पिता राजा ने सुकन्या का विवाह च्यवन ऋषि से किया था। च्यवन ऋषि की आँखें बाद में अश्विनीकुमारों ने ठीक की थी।
ek apsara ke baare me pada, mujhe bahut hi rochak laga. kya aap aisi aur saat apsara ke baare me bta sakte. pls. kripiya batane ka kashta kre.
ReplyDeleteमूल उर्वशी-पुरुरवा की कथा ऋग्वेद में है| यह कथा मानव-सृष्टि की सर्वप्रथम कथा-काव्य या काव्य-कथा, उपाख्यान है----उज्बेकिस्तान -अज़र्बेजान (=इन्द्रलोक ) की वासिनी उर्वशी पर भरत-खंड के सम्राट पुरुरवा की प्रेम कथा है---उर्वशी कामसुख भोग पश्चात् अपने देश भाग गयी ...पुरुरवा उसके विरह में गीत गाता हुआ समस्त उत्तराखंड -यूरेशिया में घूमता रहा ...वे गीत ऋग्वेद में वर्णित हैं जिन पर अरबी लोगों ने रुबाइयां लिखीं गजले आदि साहित्य का प्रचलन हुआ |
ReplyDeleteबहुत, अच्छा लगा उर्वशी पढ़ कर, अगर इसके साथ मुश्किल शब्दों का अर्थ किया होता
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