उर्वशी पुस्तक दस वर्ष पहले खरीदी थी, बिलासपुर में, किताबघर से। प्रतीक्षित पुस्तकों की सूची में पड़ी रही वह, दस वर्षों तक। बक्सों में भरकर न जाने कितने स्थानान्तरण झेले, उतने ही घरों की मुख्य अल्मारियों में सजी रही उर्वशी। कितनी बार उसे देखा, पुस्तकों के चयन में, हर बार मन में कुछ होते होते रह गया, उर्वशी पढ़ने के लिये नहीं उठा पाया। दिनकर की उर्वशी भी इतनी उपेक्षित नहीं रही होगी, वह तो पत्थरों में भी आकार बना निकल आती है, अनुपेक्षित और उन्मत्त। अब माह भर पहले, जब से उठाया है उर्वशी को, दो बार पढ़ चुका हूँ, पाँच लोगों को पूरा कथानक सुना चुका हूँ, उसके प्रत्येक पात्र को देखने लगा हूँ, पुनर्जीवित, वर्तमान में।
ऐसा भी नहीं कि उर्वशी पूर्णतया ही अपरिचित थी। पढ़ रखा था कि एक अप्सरा थी, बहुत ही सुन्दर, सकल विश्व में सुन्दरतम, चिरयौवना, उड़ती सी, मधुरिम, मदिर, लहर सी। यह भी पढ़ रखा था कि राजा पुरुरवा का पराक्रम अतुलनीय था, उनके राज्य की सीमाओं के परे स्थापित, स्वर्ग लोक तक। कथारूप में पढ़ रखा था, अन्य कथाओं की तरह, अध्ययन करना शेष था। कहते हैं कि ज्ञान तब तक उद्धाटित नहीं होता है जब तक अनुभव उसे आमन्त्रित न करे। शब्द भी तभी अपना रहस्य खोलते हैं, जब अनुभव उसे कचोटता है, उसे कुछ सोचने को विवश करता है।
दिनकर की प्रतिभा का, दिनकर के अनुभव का एक मधुरतम व प्रखरतम फल था, उर्वशी खण्ड काव्य का सृजन। तब तक दिनकर अपनी ओजपूर्ण शब्द-ऋचाओं का सृजन कर चुके थे, स्वयं को स्थापित कर चुके थे। पचास के तीन वर्ष पहले और तीन वर्ष बाद, इन ६ वर्षों में उर्वशी शब्दरूप धर दिनकर के हृदय से बह निकली। ओजभरे रचना-प्रवाह की पूर्णता थी उर्वशी, मन में किसी अकुंश के हट जाने का निष्कर्ष थी उर्वशी। दिनकर को उर्वशी के लिये ही ज्ञानपीठ भी मिला।
पता नहीं मेरा क्या कारण रहा हो, पर उर्वशी का आगमन एक अंकुश के हटने सा था, उसके नायक के रूप में पुरुरवा के लिये, उसके लेखक के रूप में दिनकर के लिये और उसके पाठक के रूप में मेरे लिये भी। इसके पहले कि मैं स्वयं को पाठक के रूप में और महिमामंडित कर डालूँ, इतना तो कहना आवश्यक है कि उर्वशी ने समझ के कई द्वार खोले हैं, यदि ऐसा नहीं होता तो यह विषय शेष जीवन भी मौन ही रहता, एक ऐसे अनुभव के रूप में जो मन ही मन गुन कर अपना जीवन जी डालता है, अपने को अभिव्यक्त नहीं कर पाता है।
पिछली दो बार से मैं विषय के चारों ओर से परिक्रमा लगाकर निकला जा रहा हूँ, इस बार भी विषय में प्रवेश का साहस नहीं दिखा पा रहा हूँ, न जाने क्या अंकुश है, न जाने क्या हिचक है, क्यों नहीं विषय को सरलता से और सहजता से कह पा रहा हूँ? उसका कारण जाने बिना और उसे अभिव्यक्त किये बिना, विषय से न्याय करना कठिन होगा मेरे लिये। सबसे पहले तो अपने लिये उस परिस्थिति को समझने का प्रयास करता हूँ मैं।
हम भारतीयों के लिये प्रेम सदा ही हृदय का विषय रहा है, हृदय के अन्दर ही रहा है, उसकी वाह्य अभिव्यक्ति ही बाधित रही है अपनी संस्कृति में, मर्यादित रही है अपने संस्कारों में। प्रेम समझने का विषय रहा है, न कि अभिव्यक्त करने का। घर और समाज के परिवेश में पति पत्नी का प्रेम भी संबंधों की सूची में एक अल्पमुखर स्वरूप धरे रहता है। किसी को प्रेम हो जाना विकार के रूप में देखा जाता है, एक पन्थभ्रम के रूप में देखा जाता है, ऐसा लगता है कि यह यौवन का लहकपन है, इसमें गहराई कम है, धीरे धीरे यह नशा उतर जायेगा। प्रश्न दो हैं। पहला, क्या यह सोच सही है या गलत है? दूसरा, क्या यह सोच हमारी संस्कृति का अंग है या परिस्थितिजन्य है?
ध्यान से देखा जाये तो यही दो प्रश्न अनुत्तरित थे। जब तक इन दो प्रश्नों के उत्तर नहीं ढूढ़ लेंगे, उर्वशी की परिक्रमा ही काटते रहेंगे, अन्तर में नहीं उतर पायेंगे। जब मैं प्रेम की बात करता हूँ तो उसे उस सुविधा से अलग रखता हूँ जो मात्र अल्पकालिक शारीरिक आनन्द से जोड़कर देखी जाती है। प्रेम की धधक अल्पकालिक नहीं हो सकती है, अप्सराओं की क्रीड़ा को कभी प्रेम का नाम नहीं दिया गया है। स्वच्छन्दता में आकर्षण तो रहता है पर स्थायित्व नहीं, अतः आकर्षण कभी गहन नहीं हो पाता है। प्रेम में आकर्षण भी है और स्थायित्व भी, गहनता का पर्याय। स्वच्छन्द क्रीड़ा भले ही संस्कृति में वक्र दृष्टि से देखी गयी हो, प्रेम सदा ही सम्मान लिये जिया है।
जिस संस्कृति में ईश्वरीय प्रेम पुरुषार्थ की पराकाष्ठा है, उस संस्कृति में मानवीय प्रेम इतना शमित कैसे रह सकता है? उन परिस्थितियों का सामाजिक और ऐतिहासिक विश्लेषण एक वृहद विषय है, पर निष्कर्ष इतने अपरिचित भी नहीं होंगे जिन्हें देख हमें आश्चर्य हो जाये। यदि किसी के सही स्वरूप नहीं देखगें तो उसकी विकृतियाँ उभरेंगी, यही संभवतः प्रेम के साथ भी हुआ है। विकृतियों से परे प्रेम के सकल पक्षों का विस्तार है उर्वशी का पढ़ना।
इन दो प्रश्नों के उत्तर स्पष्ट हैं, संस्कृति में प्रेम बाधित नहीं है और इसके पक्षों की चर्चा आवश्यक है, अपना स्वरूप समझने में, एक नर के रूप में, एक नारी के रूप में।
उर्वशी की परिक्रमायें, उन संशयों को उतार फेंकने के लिये थीं जो वर्षों से मन और जीवन से बँधे हुये थे, उन अंकुशों को हटा देने के लिये थीं जो हमारा मन बाधित करते हैं, उन कुण्ठाओं को जला देने के लिये थीं जो मन को पूर्णता प्राप्त करने में बाधक थीं। एक मानसिक पात्रता आवश्यक थी उर्वशी को समझने के लिये, उर्वशी का परिचय पाने के लिये।
अब प्रवाह निष्कंट बहेगा।
दिनकर की प्रतिभा का, दिनकर के अनुभव का एक मधुरतम व प्रखरतम फल था, उर्वशी खण्ड काव्य का सृजन। तब तक दिनकर अपनी ओजपूर्ण शब्द-ऋचाओं का सृजन कर चुके थे, स्वयं को स्थापित कर चुके थे। पचास के तीन वर्ष पहले और तीन वर्ष बाद, इन ६ वर्षों में उर्वशी शब्दरूप धर दिनकर के हृदय से बह निकली। ओजभरे रचना-प्रवाह की पूर्णता थी उर्वशी, मन में किसी अकुंश के हट जाने का निष्कर्ष थी उर्वशी। दिनकर को उर्वशी के लिये ही ज्ञानपीठ भी मिला।
पता नहीं मेरा क्या कारण रहा हो, पर उर्वशी का आगमन एक अंकुश के हटने सा था, उसके नायक के रूप में पुरुरवा के लिये, उसके लेखक के रूप में दिनकर के लिये और उसके पाठक के रूप में मेरे लिये भी। इसके पहले कि मैं स्वयं को पाठक के रूप में और महिमामंडित कर डालूँ, इतना तो कहना आवश्यक है कि उर्वशी ने समझ के कई द्वार खोले हैं, यदि ऐसा नहीं होता तो यह विषय शेष जीवन भी मौन ही रहता, एक ऐसे अनुभव के रूप में जो मन ही मन गुन कर अपना जीवन जी डालता है, अपने को अभिव्यक्त नहीं कर पाता है।
पिछली दो बार से मैं विषय के चारों ओर से परिक्रमा लगाकर निकला जा रहा हूँ, इस बार भी विषय में प्रवेश का साहस नहीं दिखा पा रहा हूँ, न जाने क्या अंकुश है, न जाने क्या हिचक है, क्यों नहीं विषय को सरलता से और सहजता से कह पा रहा हूँ? उसका कारण जाने बिना और उसे अभिव्यक्त किये बिना, विषय से न्याय करना कठिन होगा मेरे लिये। सबसे पहले तो अपने लिये उस परिस्थिति को समझने का प्रयास करता हूँ मैं।
हम भारतीयों के लिये प्रेम सदा ही हृदय का विषय रहा है, हृदय के अन्दर ही रहा है, उसकी वाह्य अभिव्यक्ति ही बाधित रही है अपनी संस्कृति में, मर्यादित रही है अपने संस्कारों में। प्रेम समझने का विषय रहा है, न कि अभिव्यक्त करने का। घर और समाज के परिवेश में पति पत्नी का प्रेम भी संबंधों की सूची में एक अल्पमुखर स्वरूप धरे रहता है। किसी को प्रेम हो जाना विकार के रूप में देखा जाता है, एक पन्थभ्रम के रूप में देखा जाता है, ऐसा लगता है कि यह यौवन का लहकपन है, इसमें गहराई कम है, धीरे धीरे यह नशा उतर जायेगा। प्रश्न दो हैं। पहला, क्या यह सोच सही है या गलत है? दूसरा, क्या यह सोच हमारी संस्कृति का अंग है या परिस्थितिजन्य है?
ध्यान से देखा जाये तो यही दो प्रश्न अनुत्तरित थे। जब तक इन दो प्रश्नों के उत्तर नहीं ढूढ़ लेंगे, उर्वशी की परिक्रमा ही काटते रहेंगे, अन्तर में नहीं उतर पायेंगे। जब मैं प्रेम की बात करता हूँ तो उसे उस सुविधा से अलग रखता हूँ जो मात्र अल्पकालिक शारीरिक आनन्द से जोड़कर देखी जाती है। प्रेम की धधक अल्पकालिक नहीं हो सकती है, अप्सराओं की क्रीड़ा को कभी प्रेम का नाम नहीं दिया गया है। स्वच्छन्दता में आकर्षण तो रहता है पर स्थायित्व नहीं, अतः आकर्षण कभी गहन नहीं हो पाता है। प्रेम में आकर्षण भी है और स्थायित्व भी, गहनता का पर्याय। स्वच्छन्द क्रीड़ा भले ही संस्कृति में वक्र दृष्टि से देखी गयी हो, प्रेम सदा ही सम्मान लिये जिया है।
जिस संस्कृति में ईश्वरीय प्रेम पुरुषार्थ की पराकाष्ठा है, उस संस्कृति में मानवीय प्रेम इतना शमित कैसे रह सकता है? उन परिस्थितियों का सामाजिक और ऐतिहासिक विश्लेषण एक वृहद विषय है, पर निष्कर्ष इतने अपरिचित भी नहीं होंगे जिन्हें देख हमें आश्चर्य हो जाये। यदि किसी के सही स्वरूप नहीं देखगें तो उसकी विकृतियाँ उभरेंगी, यही संभवतः प्रेम के साथ भी हुआ है। विकृतियों से परे प्रेम के सकल पक्षों का विस्तार है उर्वशी का पढ़ना।
इन दो प्रश्नों के उत्तर स्पष्ट हैं, संस्कृति में प्रेम बाधित नहीं है और इसके पक्षों की चर्चा आवश्यक है, अपना स्वरूप समझने में, एक नर के रूप में, एक नारी के रूप में।
उर्वशी की परिक्रमायें, उन संशयों को उतार फेंकने के लिये थीं जो वर्षों से मन और जीवन से बँधे हुये थे, उन अंकुशों को हटा देने के लिये थीं जो हमारा मन बाधित करते हैं, उन कुण्ठाओं को जला देने के लिये थीं जो मन को पूर्णता प्राप्त करने में बाधक थीं। एक मानसिक पात्रता आवश्यक थी उर्वशी को समझने के लिये, उर्वशी का परिचय पाने के लिये।
अब प्रवाह निष्कंट बहेगा।
यह अच्छा हुआ कि आपको राह मिल गई.उर्वशी को पढ़कर प्राप्त किये गए अनुभव किसी बंधी राह को खोल सके,यह कम नहीं है !
ReplyDeleteभ्रमित करने वाली बहुत बातें दिमाग में रहती है ..
ReplyDeleteकिसी भी विषय का विशेष अध्ययन ही इसका उन्मूलन कर पाता है ..
समग्र गत्यात्मक ज्योतिष
तथापि बहुत कुछ गुम्फित रह चला इस पोस्ट में भी ...मगर वह अनिवार्यतः प्रगटन का मुखापेक्षी नहीं -समझ सकता हूँ !
ReplyDeleteबाकी यह पोस्ट अपने झूम कर लिखी है -मतलब मन प्राण से -और मैं भी उतनी ही संलिप्ति से एक एक शब्द पढ़ा है ......क्या खूब -आनन्दित हुआ ....
ज्ञान चक्षु और प्रेम चक्षु दोनों को एक साथ खुला रखने हेतु प्रेरित करती 'उर्वशी' | जो एक दुरूह कार्य है | 'उर्वशी' अब 'उर' में 'बसी' प्रतीत हो रही है | "एक और उत्कृष्ट लेखन आपका |"
ReplyDeleteस्वच्छंदता और प्रेम के अंतर को आपने स्पष्ट रूप से परिभाषित किया !
ReplyDeleteसंस्कृति में प्रेम बाधित नहीं है और इसके पक्षों की चर्चा आवश्यक है, अपना स्वरूप समझने में, एक नर के रूप में, एक नारी के रूप में। बहोत अच्छी लगी यह पोस्ट...
ReplyDeleteउर्वशी अब सिर्फ दिनकर की ही नहीं हम सब की होती जारही है..अमित जी ने सही कहा..'उर्वशी' अब 'उर' में 'बसी' प्रतीत हो रही है |अब ये हमारी भावनाओ में भी बसने लगी है ।उर्वशी पढ़ने का अर्थ है विकृतियों से परे प्रेम के सकल पक्षों के विस्तार को समझना .... आपका एक से एक उत्कृष्ट लेख पढ़ कर हमारे भी ज्ञान चक्षु खुलने लगे हैं ..बहुत बहुत आभार प्रवीण जी आप का..|"
ReplyDeleteउर्वशी पढ़ने का अर्थ है विकृतियों से परे प्रेम के सकल पक्षों के विस्तार को समझना ----- अब तो जरूर पढनी पडेगी\ आछ्छःऎऎ झाआणाखाआऋऎऎ। डःआण्य़ावाआड।
ReplyDeleteप्रेम विकृति में नही बल्कि आत्मिक आनंद है, बहुत गहन विषय को छुआ आपने, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम
आप कामायनी को भी पढे( वैसे आपने पढ़ी भी होगी), कामायनी में भी प्रेम और जीवन के अनेक रूप हैं। दोनों में ही निर्मल आनन्द प्राप्त होता है।
ReplyDeleteकिसी के सही स्वरूप नहीं देखगें तो उसकी विकृतियाँ उभरेंगी, यही संभवतः प्रेम के साथ भी हुआ है। विकृतियों से परे प्रेम के सकल पक्षों का विस्तार है उर्वशी का पढ़ना।
ReplyDeleteyahi samajh anivaary hai urvashi ko padhne k liye.
agli kadi ka intzar rahega.
अब प्रवाह निष्कंट बहेगा।
ReplyDeleteबहुत बधाई आपको इस आलेख के लिये ..!मानसिक पात्रता रूपी जब मन की गागर ज्ञान से भर जाती है ...छलकने ही लगती है ...जब ज्ञान गागर भर जाती है ...बिना अभिव्यक्त हुए मानती नहीं है ...हर अभिव्यक्ति का अपना एक निहित समय होता है ..!!सतत प्रयास करना ही हमारा कर्तव्य होता है ...दिशा मिल जाये तो ईश्वर का प्रसाद मिल जाता है ...ईश्वर प्रसाद की तरह है आपका आलेख ...
सार्थक प्रयास...शुभकामनायें.
उर्वशी को पढ़कर यह विस्तार से लिखा गया आलेख निश्चित ही सराहनीय है ...आभार सहित शुभकामनाएं उत्कृष्ट लेखन के लिए
ReplyDeleteNISHKANT PRAVAH ANTARMAN AUR MASHTISK ME ATYANT SAHAJTA KE SATH KAISE RACH BAS JATA HAI AABHAS HI NAHIN HOTA.
ReplyDeleteविकृतियों से परे प्रेम के सकल पक्षों का विस्तार है उर्वशी का पढ़ना।
ReplyDeleteइन दो प्रश्नों के उत्तर स्पष्ट हैं, संस्कृति में प्रेम बाधित नहीं है और इसके पक्षों की चर्चा आवश्यक है, अपना स्वरूप समझने में, एक नर के रूप में, एक नारी के रूप में।
अब तो उर्वशी पढ़नी ही पड़ेगी ... आपके द्वारा की गयी चर्चा ने पढ़ने की इच्छा जागृत कर दी है ... आभार
jeewan ki aapadhapi mey URVASHI padh kar aaswad liya aapney,adbhut anand hai ya ,wahi janta hai jee chuka hota hai/bahut bahut badhaiyan,
ReplyDeletesader,dr.bhoopendra
rewa
mp
सच अब तो उर्वशी पढ़नी ही पड़ेगी....
ReplyDeleteउर्वशी एक द्वार ही है ... रहस्य से पूर्ण , रहस्य को खोलती
ReplyDeleteआपकी इस परिक्रमा के पीछे हम भी कर रहे हैं परिक्रमा, क्या बात थोडा ज्ञान अपने हिस्से भी आ जाये.डूब कर लिखा है आपने.
ReplyDeleteबचपन में माताजी के कहने पर दिनकर जी के पांव छुते हुए मुझे नहीं पता था की ये कोई लेखक है. उर्वशी टुकड़े टुकड़े में पढ़ी है . समय मिलते ही टुकडो को जोड़ता हूँ.
ReplyDeleteनिःसंदेह, उर्वशी दिनकर जी की एक अनुपम कृति है...
ReplyDeleteहमने भी एक एक शब्द को पढ़ डाला. मन प्रसन्न तो हुआ पर पल्ले कुछ नहीं पड़ा.
ReplyDeleteक्या प्रेम को समझा जा सकता है। मुझे लगा यह केवल महसूस करने की चीज है। शायद इसीलिए इसके चारों ओर कहानियां, रूपक और कई आयाम बुनते रहे... समझने की कोशिश कर रहा हूं..
ReplyDeleteसमय तो लगा पर पढ ली आपने उर्वशी
ReplyDeleteशSSSSSSSSSS कोई है
''गुनाहों का देवता'' में कुछ ऐसे ही उत्तरित-अनुत्तरित प्रेम का ताना-बाना है..
ReplyDeleteआपके आलेख उर्वशी पढने की जिज्ञासा पैदा करते हैं लगता है पढनी ही पड़ेगी
ReplyDeleteजिस संस्कृति में ईश्वरीय प्रेम पुरुषार्थ की पराकाष्ठा है, उस संस्कृति में मानवीय प्रेम इतना शमित कैसे रह सकता है? उन परिस्थितियों का सामाजिक और ऐतिहासिक विश्लेषण एक वृहद विषय है, पर निष्कर्ष इतने अपरिचित भी नहीं होंगे जिन्हें देख हमें आश्चर्य हो जाये। यदि किसी के सही स्वरूप नहीं देखगें तो उसकी विकृतियाँ उभरेंगी, यही संभवतः प्रेम के साथ भी हुआ है। विकृतियों से परे प्रेम के सकल पक्षों का विस्तार है उर्वशी का पढ़ना।
ReplyDeleteहै नहीं यहाँ कैंटन (मिशिगन )में हमारे पास उर्वशी ,यहाँ है हमारे पास आचार्य निशांत केतु की 'यौशाग्नि'.,होती तो इस बेला पढने का मन है .लॉस वेगास से लौटने के बाद जहां सडकों पर स्वच्छंद लीलाएं और सोमरस पान सहज स्वीकृत है .'हॉट बेब्स' डायरेक्ट टू योर होम की विज्ञापन वैन' परिक्रमा करती है सडकों की अहर्निश .जुआघरों का शोर है .शराब शबाब और कबाब का शहर है यह .कहाँ उर्वशी का मंथन और कहाँ लास वेगसजहां सडकों पर ताश के पत्ते बिछे होतें हैं जिन पर उकेरी गई उर्वशियाँ पैरों तले रौंदी जाती हैं .हाँ यहाँ फर्क है 'उर्वशी 'और प्रेम के उद्दात्त स्वरूप का .डोलर का तमाशा है लॉस वेगस .तिस पर तुर्रा यह 'वाट हेपिंस इन लॉस वेगस रिमेन्स इन लॉस वेगस '.
बढिया समालोचना उर्वशी की .
Like I always say, something good to learn from your posts always :)
ReplyDeleteआपका आलेख पढकर, उर्वशी, पढ़ने की जिज्ञासा बढ़ गयी,,,,,
ReplyDeleteRECENT POST ...: आई देश में आंधियाँ....
बधाई और शुभकामनायें आपको !
ReplyDeleteप्रेम से जुड़े भ्रम से पार पा जाने की राह सुझाती उर्वशी...... यूँ भी सात्विक और स्पष्ट विवेचन सामने हो तो विकृतियों से पार पाना निश्चित है.....
ReplyDeleteकामायनी ..उर्वशी तो बहुत पहले पढ़ लेनी चाहिए....खैर देर आयद दुरुस्त आयद...
ReplyDeleteस्वच्छन्दता में आकर्षण तो रहता है पर स्थायित्व नहीं, अतः आकर्षण कभी गहन नहीं हो पाता है। प्रेम में आकर्षण भी है और स्थायित्व भी, गहनता का पर्याय। स्वच्छन्द क्रीड़ा भले ही संस्कृति में वक्र दृष्टि से देखी गयी हो, प्रेम सदा ही सम्मान लिये जिया है।
ReplyDeleteइसके बाद और क्या कहूं.अपने आप में पूर्ण विश्लेषण.
उर्वशी पर अगली पोस्ट का इंतजार है।
ReplyDeleteउर्वशी को वास्तविक परिप्रेक्ष्य में देखने का यह प्रयास प्रासंगिक है ....अब निश्चित रूप से " प्रवाह निष्कंट बहेगा " ...!
ReplyDeleteसदर बाजार की पचास साल पुरानी पुस्तक की दुकान 'किताब घर' पिछले तीन-चार पहले बंद हो गई, बजाज जी आजकल रायपुरवासी हैं.
ReplyDeleteहां, लेकिन पिछले सालों में किताबों के सुख का केन्द्र नई खुली और विकसित श्री बुक मॉल है, बिलासपुर आने वाले किताब प्रेमियों के लिए, कुछ पुस्तक प्रेमियों के बिलासपुर प्रवास का अनिवार्य यहां आना होता है.
पुरानों में एक अमरावती का ज़िक्र है .जो कर्म की पराकाष्ठा ,कर्म के शिखर को छूटा था उसके लिए सारे सुख भोग थे अमरावती में .उर्वशी इसी शिखर की ओर ले जाती है जबकी भोगावती (लास वेगास )बिना कर्म के भोग पान करवाती है .यहाँ उर्वशियाँ ही उर्वशियाँ है .कर्ता कोई नहीं है कर्ता के द्वारा भोग प्रायोजित है .अमरीका के पास भोगावती है 'उर्वशी 'प्रेम का शिखर नहीं है .बढ़िया समालोचना की है उर्वशी की आपने .अब तो उर में वास होगा .
ReplyDeleteकृपया यहाँ भी पधारें -
जिसने लास वेगास नहीं देखा
जिसने लास वेगास नहीं देखा
रविकर फैजाबादी
नंगों के इस शहर में, नंगों का क्या काम ।
बहु-रुपिया पॉकेट धरो, तभी जमेगी शाम ।
तभी जमेगी शाम, जमी बहुरुपिया लाबी ।
है शबाब निर्बंध, कबाबी विकट शराबी ।
मन्त्र भूल निष्काम, काम-मय जग यह सारा ।
http://kabirakhadabazarmein.blogspot.com/
अगली पोस्ट की प्रतीक्षा रहेगी।
ReplyDelete'अगली पोस्ट की प्रतीक्षा' यही टिप्पणी मानिए|
ReplyDeleteकम से कम चार बार पढ़ चुका हूँ आपकी ये पोस्ट और हर बार मंत्रमुग्ध होकर प्रवाह को महसूस कर पा रहा हूँ बस|
सुन्दर आलेख ... दिनकर जी ने उर्वशी की भूमिका में लिखा है कि उर्वशी-रचना-काल में उन्हें उर्वशी का दर्शन भी हुआ था ......
Deleteदर्शन के बाद ही ''उर्वशी'' रची जा सकती थी...
Mired Mirage की टिप्पणी
ReplyDeleteउर्वशी पढनी ही पड़ेगी.घुघूती बासूती
मैने नही पढी है दिनकर जी की उर्वशी । उर्वशी एक छलना है, ऐसा ही सोचती हूं पर मौका लगा तो पढूंगी ।
ReplyDeleteमैं भी आया था.
ReplyDeleteआशीष
--
इन लव विद.......डैथ!!!
'निजत्व' केा 'सार्वजनिक'में रूपान्तरित करने का सुन्दर उदाहरण है यह पोस्ट।
ReplyDeleteसुन्दर अनुभूति है ये दो वाक्य - 'ज्ञान तब तक उद्धाटित नहीं होता है जब तक अनुभव उसे आमन्त्रित न करे। शब्द भी तभी अपना रहस्य खोलते हैं, जब अनुभव उसे कचोटता है, उसे कुछ सोचने को विवश करता है।'
आपके ब्लॉग पर पहले भी शायद कभी आया था... पर शायद बहुत पहले... पहली बार जैसा ही लग रहा है... बड़ी बेहतरीन सामग्री है आपके ब्लॉग पर.. और जो सबसे अच्छा लगा वों ब्लॉग का साफ़ सुथरा डिजायन... कुछ भी फालतू नहीं...
ReplyDeleteउर्वशी को तब पढ़ा था जब बारहवीं में था.. समझ उतनी विकसित नहीं थी तब.. अब पढूं तो शायद बेहतर अनुभूति हो... धन्यवाद इतने अच्छे लेख के लिए...
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteप्रवीण जी, बहुत समय के बाद आ पाया आपके ब्लॉग पर और एक सुखद आश्चर्य!!! इंटर के जमाने से हीं उर्वशी, दिनकर रचित, मेरी प्रिय पुस्तक रही है. विशेषतः, पुरुरवा का प्रणय निवेदन:
ReplyDeleteमर्त्य मानव के विजय का तुर्य हूँ मैं.....
मेरे दोस्त तंग आ गये थे मेरे इस डायलॉग से, लेकिन ये पंक्तियाँ मुझे हमेशा से ही प्रेरित करती रही हैं, अब्सेशन की हद तक.
रश्मि रथी दिनकर की दूसरी रचना है जो मुझे बहुत अच्छी लगती है. कभी अवसर देख इसके बारे में भी कुछ लिखें. कृष्ण ने यूँ ही तो नही कहा होगा ना कर्ण के बारे में:
बड़ा बेजोड़ दानी था, सदय था
युधिष्ठिर, कर्ण का अद्भुत हृदय था...
सादर
कर्ण का चरित्र सदा ही गहरे उतर जाता है, निश्चय ही रश्मिरथी पढ़ कर्ण को और अधिक जानना होगा।
Deleteअद्भुत, प्रवीणजी ! साधिकार संप्रेषण !
ReplyDeleteआपके ब्लॉग पर मेरी संभवतः यह प्रथम टिप्पणी है. अच्छा है, इन प्रस्तुतियों के बाद ही कुछ अभिव्यक्त कर रहा हूँ.
’उर्वशी’ और ’रश्मिरथी’ दोनों काव्य-खण्डों का अध्ययन हुआ है. तब भी अभिभूत था जब पहली बार बाँच पाया था. सादर