विचारों का प्रवाह सदा अचम्भित करता है। कुछ लिखने बैठता हूँ, विषय भी स्पष्ट होता है, प्रस्तुति का क्रम भी, यह भी समझ आता है कि पाठकों को क्या संप्रेषित करना चाहता हूँ। एक आकार रहता है, पूरा का पूरा। एक लेखक के रूप में बस उसे शब्दों में ढालना होता है, शब्द तब नियत नहीं होते हैं, उनका भी एक आभास सा ही होता है विचारों में।
शब्द निकलना प्रारम्भ करते हैं, जैसे अभी निकल रहे हैं। प्रक्रिया प्रारम्भ होती है, विचार घुमड़ने लगते हैं, ऐसा लगता है कि मन के अन्दर एक प्रतियोगिता सी चल रही है, एक होड़ सी मची हैं, कई शब्द एक साथ प्रस्तुत हो जाते हैं, आपको चुनना होता है, कई विचार प्रस्तुत हो जाते हैं, आपको चुनना होता है। आपने जो पहले से सोच रखा था, उससे कहीं उन्नत होते हैं, ये विचार, ये शब्द। आप उन विचारों को, उन शब्दों को चुन लेते हैं। उन विचारों, उन शब्दों से संबद्ध विचार और शब्द और घुमड़ने लगते हैं। आप निर्णायक हो जाते हैं, कोई आपको थाली में सब प्रस्तुत करता जाता है, आप चुनते जाते हैं। कोई विचार या शब्द यदि आपको उतना अच्छा नहीं लगता है, या आपका मन और अच्छा करने के प्रयास में रहता है, तो और भी उन्नत विचार संग्रहित होने लगते हैं। प्रक्रिया चलती रहती है, सृजन होता रहता है।
पूरा लेख लिखने के बाद, जब मैं तुलना करने बैठता हूँ कि प्रारम्भ में क्या सोचा था और क्या लिख कर सामने आया है, तो अचम्भित होने के अतिरिक्त कोई और भाव नहीं रहता है। बहुधा सृजनशीलता योग्यता से कहीं अच्छा लिखवा लेती है। बहुत से ऐसे विचार जो कभी भी मन के विचरण में सक्रिय नहीं रहे, सहसा सामने आ जाते हैं, न जाने कहाँ से। एक के बाद एक सब बाहर आने लगते हैं, ऐसा लगता है कि सब बाहर आने की बाट जोह रहे थे, उन्हें बस अवसर की प्रतीक्षा थी। आपका लिखना उनकी मुक्ति का द्वार बन जाता है, आप माध्यम बन जाते हैं।
आपको थोड़ा अटपटा अवश्य लगेगा कि अपने लेखन का श्रेय स्वयं को न देकर प्रक्रिया को दे रहा हूँ, उस प्रक्रिया को दे रहा हूँ जिसके ऊपर कभी नियन्त्रण रहा ही नहीं हमारा। कभी कभी तो कोई विचार ऐसा आ जाता है इस प्रक्रिया में जो भूतकाल में कभी चिन्तन में आया ही नहीं, और अभी सहसा प्रस्तुत हो गया। जब कोई प्रशंसा कर देता है तो पुनः यही सोचने को विवश हो जाता हूँ, कि किसे श्रेय दूँ। श्रेय लेने के लिये यह जानना तो आवश्यक ही है कि श्रेय किस बात का लिया जा रहा है। मुझे तो समझ नहीं आता है, सृजन के चितेरों से सदा ही यह जानने का प्रयास करता रहता हूँ।
सृजन के तीन अंग है, साहित्य, संगीत और कला। साहित्य सर्वाधिक मूर्त और कला सर्वाधिक अमूर्त होता है। शब्द, स्वर और रंग, अभिव्यक्ति गूढ़तम होती जाती है। अभिव्यक्ति के विशेषज्ञ भले ही कुछ और क्रम दें, पर मेरे लिये क्रम सदा ही यही रहा है। बहुत कम लोगों में देखा है कि आसक्ति तीनों के प्रति हो, विरले ही होते हैं ऐसे लोग जो तीनों को साध लेते हैं। बहुत होता है तो लोग दो माध्यमों में सृजनशीलता व्यक्त कर पाते हैं। समझने की समर्थ और व्यक्त करने की क्षमता, दोनों ही विशेष साधना माँगती हैं, कई वर्षों की। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर को ही देखें, तीनों में सिद्धहस्त, पर सबसे पहले साहित्य लिखा, फिर संगीत साधा और जीवन के अन्तिम वर्षों में रंग उकेरे।
कोई संगीतकार तो नहीं मिला अब तक, पर अपने चित्रकार मित्र से जब यह प्रश्न पूछा कि विचार कैसे उमड़ते हैं, सृजन के पहले की मनस्थिति क्या होती है, सृजन के समय क्या होता है और सृजन होने के बाद कैसा लगता है, क्या सोचा होता है और क्या बन जाता है? सबके लिये इस प्रक्रिया को व्यक्त कर पाना अलग स्वरूप ले सकता है, पर सबका सार लगभग यही रहता है।
किसी विषय के बारे में हमारी समझ विचारों के बादल के रूप मे रहती है। जब भी कुछ पढ़ते हैं, संगीत सुनते हैं, चित्र देखते हैं, तो मन के अन्दर अमूर्त स्वरूप सा बन जाता है, कुछ कुछ बादल सा। यही बादल बनता रहता है, घना होता रहता है, तरह तरह के आकार लेता रहता है। जब यह बादल बूँद बन बरसना चाहते हैं तो आकार ढूढ़ते हैं, किस रूप में बरसें? कुछ लोग शब्द का आधार लेते हैं, शब्द का सहारा सरल होता है, शब्द भौतिक जगत के अधिक निकट हैं, हर वस्तु को शब्द से व्यक्त किया जा सकता है, हमारा भी सहारा शब्द ही है। मन के भाव जैसे जैसे अमूर्त होते हैं, शब्द कम पड़ने लगते हैं, भाव शब्दातीत हो जाते हैं। तब संगीत रिक्तता भर देता है, शब्द से अधिक अमूर्त और रंग से अधिक मूर्त होते हैं स्वर। मन के गहरे भाव शब्द से अधिक संगीत समझता है। कला एक स्तर और ऊपर उठ जाती है, रंगों की छिटकन विचारों के बादल के सर्वाधिक निकटस्थ है। कुशल चित्रकार विचारों के बादल को यथारूप उतार देने में सक्षम होते हैं।
विचारों का बादल सा होता है मन में, हम उसे एक स्थूल रूप दे देते हैं, शब्दों के माध्यम से, संगीत के माध्यम से, कला के माध्यम से। होना तो यही चाहिये था कि उस स्थूल रूप को पुनः ग्रहण करने पर वही भाव मन में आने चाहिये जो उसके सृजन के समय आये थे, होता भी है यदि सृजनकर्ता पुनः अपनी कृति देखता, सुनता या पढ़ता है। मैं तो जितनी बार अपनी कवितायें या लेख पढ़ता हूँ, उसी सुलझन व भावावेश में पहुँच जाता हूँ जिसके निष्कर्ष स्वरूप वह शब्द लिखे गये थे। ऐसे में स्वयं के लिये औषधि का कार्य करती है आपकी कृति, आपके उसी भाव को हर बार घनीभूत कर जाती है आपकी कृति।
सृजन का औषधीय पक्ष तो समझ आता है, पर सृजन कैसे होता है, यह समझ नहीं आता है। बादल कैसे बनते हैं, कैसे आकार लेते हैं, कहाँ से उड़कर आते हैं, कहाँ पर बरस जाते हैं और बरसकर क्या प्रभाव डालते हैं, यह समझ नहीं आता है। आपके विचारों के बादल कैसे बनते और बरसते हैं?
शब्द निकलना प्रारम्भ करते हैं, जैसे अभी निकल रहे हैं। प्रक्रिया प्रारम्भ होती है, विचार घुमड़ने लगते हैं, ऐसा लगता है कि मन के अन्दर एक प्रतियोगिता सी चल रही है, एक होड़ सी मची हैं, कई शब्द एक साथ प्रस्तुत हो जाते हैं, आपको चुनना होता है, कई विचार प्रस्तुत हो जाते हैं, आपको चुनना होता है। आपने जो पहले से सोच रखा था, उससे कहीं उन्नत होते हैं, ये विचार, ये शब्द। आप उन विचारों को, उन शब्दों को चुन लेते हैं। उन विचारों, उन शब्दों से संबद्ध विचार और शब्द और घुमड़ने लगते हैं। आप निर्णायक हो जाते हैं, कोई आपको थाली में सब प्रस्तुत करता जाता है, आप चुनते जाते हैं। कोई विचार या शब्द यदि आपको उतना अच्छा नहीं लगता है, या आपका मन और अच्छा करने के प्रयास में रहता है, तो और भी उन्नत विचार संग्रहित होने लगते हैं। प्रक्रिया चलती रहती है, सृजन होता रहता है।
पूरा लेख लिखने के बाद, जब मैं तुलना करने बैठता हूँ कि प्रारम्भ में क्या सोचा था और क्या लिख कर सामने आया है, तो अचम्भित होने के अतिरिक्त कोई और भाव नहीं रहता है। बहुधा सृजनशीलता योग्यता से कहीं अच्छा लिखवा लेती है। बहुत से ऐसे विचार जो कभी भी मन के विचरण में सक्रिय नहीं रहे, सहसा सामने आ जाते हैं, न जाने कहाँ से। एक के बाद एक सब बाहर आने लगते हैं, ऐसा लगता है कि सब बाहर आने की बाट जोह रहे थे, उन्हें बस अवसर की प्रतीक्षा थी। आपका लिखना उनकी मुक्ति का द्वार बन जाता है, आप माध्यम बन जाते हैं।
आपको थोड़ा अटपटा अवश्य लगेगा कि अपने लेखन का श्रेय स्वयं को न देकर प्रक्रिया को दे रहा हूँ, उस प्रक्रिया को दे रहा हूँ जिसके ऊपर कभी नियन्त्रण रहा ही नहीं हमारा। कभी कभी तो कोई विचार ऐसा आ जाता है इस प्रक्रिया में जो भूतकाल में कभी चिन्तन में आया ही नहीं, और अभी सहसा प्रस्तुत हो गया। जब कोई प्रशंसा कर देता है तो पुनः यही सोचने को विवश हो जाता हूँ, कि किसे श्रेय दूँ। श्रेय लेने के लिये यह जानना तो आवश्यक ही है कि श्रेय किस बात का लिया जा रहा है। मुझे तो समझ नहीं आता है, सृजन के चितेरों से सदा ही यह जानने का प्रयास करता रहता हूँ।
सृजन के तीन अंग है, साहित्य, संगीत और कला। साहित्य सर्वाधिक मूर्त और कला सर्वाधिक अमूर्त होता है। शब्द, स्वर और रंग, अभिव्यक्ति गूढ़तम होती जाती है। अभिव्यक्ति के विशेषज्ञ भले ही कुछ और क्रम दें, पर मेरे लिये क्रम सदा ही यही रहा है। बहुत कम लोगों में देखा है कि आसक्ति तीनों के प्रति हो, विरले ही होते हैं ऐसे लोग जो तीनों को साध लेते हैं। बहुत होता है तो लोग दो माध्यमों में सृजनशीलता व्यक्त कर पाते हैं। समझने की समर्थ और व्यक्त करने की क्षमता, दोनों ही विशेष साधना माँगती हैं, कई वर्षों की। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर को ही देखें, तीनों में सिद्धहस्त, पर सबसे पहले साहित्य लिखा, फिर संगीत साधा और जीवन के अन्तिम वर्षों में रंग उकेरे।
कोई संगीतकार तो नहीं मिला अब तक, पर अपने चित्रकार मित्र से जब यह प्रश्न पूछा कि विचार कैसे उमड़ते हैं, सृजन के पहले की मनस्थिति क्या होती है, सृजन के समय क्या होता है और सृजन होने के बाद कैसा लगता है, क्या सोचा होता है और क्या बन जाता है? सबके लिये इस प्रक्रिया को व्यक्त कर पाना अलग स्वरूप ले सकता है, पर सबका सार लगभग यही रहता है।
विचारों का बादल सा होता है मन में, हम उसे एक स्थूल रूप दे देते हैं, शब्दों के माध्यम से, संगीत के माध्यम से, कला के माध्यम से। होना तो यही चाहिये था कि उस स्थूल रूप को पुनः ग्रहण करने पर वही भाव मन में आने चाहिये जो उसके सृजन के समय आये थे, होता भी है यदि सृजनकर्ता पुनः अपनी कृति देखता, सुनता या पढ़ता है। मैं तो जितनी बार अपनी कवितायें या लेख पढ़ता हूँ, उसी सुलझन व भावावेश में पहुँच जाता हूँ जिसके निष्कर्ष स्वरूप वह शब्द लिखे गये थे। ऐसे में स्वयं के लिये औषधि का कार्य करती है आपकी कृति, आपके उसी भाव को हर बार घनीभूत कर जाती है आपकी कृति।
सृजन का औषधीय पक्ष तो समझ आता है, पर सृजन कैसे होता है, यह समझ नहीं आता है। बादल कैसे बनते हैं, कैसे आकार लेते हैं, कहाँ से उड़कर आते हैं, कहाँ पर बरस जाते हैं और बरसकर क्या प्रभाव डालते हैं, यह समझ नहीं आता है। आपके विचारों के बादल कैसे बनते और बरसते हैं?
पूरा आलेख एक सुंदर ललित निबंध जैसा है |अति सुन्दर |
ReplyDeleteभुवन की तरह हमारा मन मस्तिष्क और सृजनशील बादल छा गये ....किसी ना किसी रूप मे तो बरसेंगे ही ...!!सच मे गुरुदेव की तरह विरले ही होते हैं जो तीनों विधाओंमे पारंगत हों...!तभी कहते है ...कला आत्मा गृहण करती है कला को समर्पित प्रयास कभी विफल नहीं होता ...!!
ReplyDeleteसुंदर ...सार्थक आलेख ...!!
आपके इस ललित लेख ने मुझे फिर से अपनी उस बहु उद्धृत बात को कहलाने को प्रेरित किया है -
ReplyDeleteश्रेष्ठ रचनाएं खुद को लिखवा लेती हैं -कोई सुयोग्य लेखक बस माध्यम बन जाता है -
स्वयं शारदा बैठती, आ आसन अरविन्द |
Deleteभाव होंय उत्कृष्ट अति, गंदे भाग उछिन्द |
गंदे भाग उछिन्द , कलम माता ले लेती |
नए नए से विन्दु, समाहित फिर कर देती |
सच गुरुवर अरविन्द, श्रेष्ठ रचना लिखवाती |
शब्द सिलसिलेवार, स्वयं ही बैठा जाती ||
सौ प्रतिशत सहमत, लेखक तो शब्दों के लिये माध्यम होता है लेख तो कहीं बारीक डोर से अपने आप उतरते जाते हैं, बस हम अपना नाम दे देते हैं, जब लिखने बैठते हैं तो वाकई लेख अपने आप लिखता चला जाता है ।
ReplyDeleteहमारे पास जितने अधिक अनुभव होंगे .. उतने अधिक विचार घुमडेंगे..
ReplyDeleteलेखक की जैसी विचारधारा होगी .. उसी के हिसाब से बारिश होगी ..
अच्छे लेखक अनुभवी और सार्थक विचाराधारा संपन्न होते हैं !!
सब इंसानी मष्तिस्क का कमाल है ...खासकर उसके राइट साइड वाले हिस्से का !
ReplyDeleteविचार अपने आपको अभिव्यक्त करवा ही लेते हैं, बस सही समय पर उन्हें कलमबद्ध करने का समय होना चाहिये. बहुत उत्कृष्ट आलेख, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
रै ताऊ! के बात सै... गैब सै दम्मे... कोई णा फ़ोण ना सोण .... णा हाड़ णा साड़...
Deleteराम राम...
आप एकदम सही कह रहे हैं। जब हम किसी विषय पर लिखने बैठते हैं तब शब्द और विचार कहाँ से आते हैं कुछ पता ही नहीं चलता। जब पूरा आलेख तैयार हो जाता है तब उसका स्वरूप देखकर आश्चर्य ही होता है।
ReplyDeleteवर्ड्स ईज़ द क्रियेशन ऑफ़ माइंड... वेनेवर वी रेड आउट द बुक्स और वॉटएवर... वी कंस्ट्रक्ट अ फ्रेम ऑफ़ सीन...इन आर माइंड.. वंस द फ्रेमिंग ईज़ डन.. न्यू इमेज ऑफ़ द वर्ड रिकमेंस...एंड दिस प्रोसेस कौंटीन्यूज़ इटरनली..... वैरी नाइज़ पोस्ट... थैंक्स फॉर शेयरिंग...
ReplyDeleteवर्ड्स ईज़ द क्रियेशन ऑफ़ माइंड... वेनेवर वी रेड आउट द बुक्स और वॉटएवर... वी कंस्ट्रक्ट अ फ्रेम ऑफ़ सीन...इन आर माइंड.. वंस द फ्रेमिंग ईज़ डन.. न्यू इमेज ऑफ़ द वर्ड रिकमेंस...एंड दिस प्रोसेस कौंटीन्यूज़ इटरनली..... वैरी नाइज़ पोस्ट... थैंक्स फॉर शेयरिंग...
ReplyDeleteविचार अपना रास्ता खोज ही लेते हैं ...
ReplyDeleteशुभकामनायें आपको !
बहुधा सृजनशीलता योग्यता से कहीं अच्छा लिखवा लेती है।
ReplyDeleteहाँ यही होता है....विचार प्रवाह कुछ यूँ बनता है की शब्द मिलते चले जाते हैं |
मन की आतप धरती का
ReplyDeleteजब पानी उड़ जाता है
बादल बन फिर वही
मन की धरती पर छा जाता है ।
अब यह बादल कहाँ बरसेंगे और क्या प्रभाव पड़ेगा यह लेखक के विचारों पर निर्भर है ॥बहुत अच्छा लेख
सच है प्रवीण जी साहित्य चित्रकला संगीत ये तीनों ही माध्यम है जिनसे हम अपने मनोभावो् को अभिव्यक्त कर सकते है ये तीनों ही कला सृजन का काम करते है..बहुत सशक्त और सार्थक विचारों से युक्त सुन्दर आलेख..
ReplyDeleteविचार तरंगित होते हैं ... शब्द खो जाते हैं , पर पतवार की पकड़ बनी रहती है
ReplyDeleteमेरा "टूथ-पेस्ट" तो दबाने से निकलता है | और यह दबाव सामाजिक , पारिवारिक , आर्थिक , भौतिक , बौद्धिक विषमताओं से उत्पन्न होता है |
ReplyDeleteविचार तो प्रवाहमान होते है , अभिव्यक्ति के कारण और कारक ढूंढ़ ही लेते है . बहुत सुँदर आलेख .
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और सार्थक आलेख है
ReplyDeleteआभार
विचारों के बादल जब मन में आ जाते है,
ReplyDeleteसृजनशीलता से लिखकर,मन की खुशिया पा जाते है,,,,,,,,
शायद इस चिंतन से हर रचनाकार रू ब रू होता है.लिखते समय विचार कहाँ से आ जाते हैं कई बार समझ में नहीं आता.
ReplyDeleteकई बार हम कुछ विचारों के एक-साथ आ जाने पर कई दिशाओं में भागने लगते हैं,लेकिन इन विचारों में जो प्रभावशाली होता है वह घोड़े की लगाम अपने हाथ में ले लेता है और हम अनायास उधर ही चल पड़ते हैं !
ReplyDeleteविचारों के बादल....बरसेंगे तो कुछ ऐसे ही....जैसे यहाँ....:))
ReplyDeleteसर जी शब्दों के खिलाडी , सृजन कर ही लेते है !वस् आकार की जरुरत होती है
ReplyDeleteसृजन के तीन अंग है, साहित्य, संगीत और कला....
ReplyDeleteआप के लेख में तीनो का ही सम्मिलन दिखता है सदा ...
इन बादलों का नियंता भी कोई और ही होता है .हमारी धरा को भी वही चुनता है..
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति!
ReplyDeleteइस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (15-07-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
बादल कैसे बनते हैं , इसका तो वैज्ञानिक प्रमाण है . वैचारिक बादल कैसे बनते हैं , यह तो कोई साहित्यकार / लेखक ही बता सकता है .
ReplyDeleteएक ब्लॉगर के साथ ऐसी सोच स्वाभाविक लगती है .
लिखना विचारों की घुमडन से छटनी करना एक अन्वेषण है .एक प्रोब है .जलवायु की तरह विचारों का ढांचा भी क्लिष्ट होता है दोनों की प्रागुक्ति मुश्किल होती है .बढ़िया विचार सरणी .
ReplyDeleteमेरे मित्र श्री विजय वाते की पंक्तियॉं मेरा काम करेंगी -
ReplyDeleteबात मेरी थी,
तुमने कही,
अच्छा लगा।
बहुत से ऐसे विचार जो कभी भी मन के विचरण में सक्रिय नहीं रहे, सहसा सामने आ जाते हैं, न जाने कहाँ से। एक के बाद एक सब बाहर आने लगते हैं, ऐसा लगता है कि सब बाहर आने की बाट जोह रहे थे, उन्हें बस अवसर की प्रतीक्षा थी। आपका लिखना उनकी मुक्ति का द्वार बन जाता है, आप माध्यम बन जाते हैं।..
ReplyDelete..बहुत कुछ ऐसा ही मैं भी महसूस करती हूँ ... ऑफिस,घर और बच्चों के बीच समय निकालकर इधर उघर किसी के घर आने-जाने का समय तो नहीं मिलता लेकिन एक घर से बाहर भी घर है इसका ख्याल हर समय मन में रहता है बस इसी के चलते थोडा-थोडा टुकड़ों-टुकड़ों में अपने मन की उमड़-घुमड़ को लिखकर अपने इस ब्लॉग घर की राह चलकर साथ चलने की कोशिश में रहती हूँ ..
बहुत बढ़िया अपने मन की सी प्रस्तुति!
यार !बस एक श्री जय शंकर प्रसाद जी की एक कविता याद आती है -
ReplyDeleteजो घनीभूत पीड़ा थी
मष्तिष्क में स्मृति सी छाई,
दुर्दिन में आंसू बनकर के
वो आज बरसने आई-
तात्पर्य की सृजनशीलता हमारे विचारों का प्रतिफल होता है , विचार मानवीय गुण हैं ,बस सकारात्मकता या फिर नकारात्मकता कितनी मात्रा में नियोजित हम कर पाए हैं ,अक्स या परिणाम बन नजर आता है ..सुन्दर लेख ,व शब्दांकन ...... शुभकामनायें पण्डे जी /
हाँ श्रीमान कभी -२ बुरा भी मान जाया करो मेरी टिप्पणियों का , वरना जो मन में आया कह दिया, जो अच्छा नहीं ....... /
Pandey ji......
ReplyDelete100% sahi baat hai..
प्रवीण जी आपके हर आलेख की तरह ही यह भी आपके गहन चिन्तन व अभिव्यक्ति की सफलता का परिचायक है । हाँ शब्द के मूर्त्त होने की बात समझ नही आई । अब तक तो यही जाना है कि साहित्य,संगीत,चित्रकला,मूर्त्तिकला व वास्तुकला में अभिव्यक्ति(सृजन)के साधन--शब्द,सुर,रंग,आदि क्रमशः अमूर्त्त से मूर्त्त होते जाते हैं ।
ReplyDeleteमन में तो सब के सब अमूर्त हैं। अभिव्यक्ति में शब्द संगीत और रंग से अधिक मूर्त हैं। शब्दों के अर्थ हमें ज्ञात हैं, संगीत और रंगों के अर्थ हमें समझने पड़ते हैं, क्रमशः अमूर्त होते जाते हैं।
Deleteविचारों के बादल बरसतें हैं गरजते नहीं ,कुहाँसा ज़रूर करतें हैं .
ReplyDeleteप्रवीण जी, आज तो सोच विचार में डुबो दिया आपने| इतने मुश्किल सवाल?
ReplyDeleteअंतःप्रेरणा अनायास जागती है -मानस में एकत्र होनेवाले तत्व-कण कब घनीभूत हो कर किस रूप में कहाँ बरसेंगे यह जानता है !
ReplyDeleteबिलकुल उन्ही बादलों जैसे, कब आये, बरसे और चले गए......
ReplyDeleteरसमय विश्लेषण.
ReplyDeleteBeautiful!!!
ReplyDelete’बहुधा स्रूजनशीलता योग्यता से कहीं अच्छा लिखवा लेती है’
ReplyDeleteस्रूजनशीलता की प्रकृया को आपने बखूबी प्रस्तुत किया है.
रचनाधर्मिता में एक सच्चाई निष्ठां और सहजता रहती है तो लेखन सार्थक हो जाता है.
ReplyDeleteबेहतरीन रचना
ReplyDeleteहमारे पास जो ऊपर की मंजिल में खाली स्थान है वहाँ आ जाते हैं कभी कभी उधार के विचार पर वो बादल नहीं होते लोटा भर होते हैं बस छिड़कने के लायक !!!!
विचारों का यही प्रवाह लेखन को नये आयाम देता है।
ReplyDeleteसहमत आपकी बात से .. कई बार शब्द अपने आप आने लगते हैं ... भाव व्यक्त करवा लेते हैं ...
ReplyDeleteयूं ही उमड़ते-घुमड़ते रहे बदरिया
ReplyDeleteKya Baat Hai.
ReplyDelete............
ये है- प्रसन्न यंत्र!
बीमार कर देते हैं खूबसूरत चेहरे...
आपकी बात से पूर्णत: सहमत ... हमेशा की तरह उत्कृष्ट प्रस्तुति...आभार
ReplyDeleteविचार ही मनुष्य को गतिशील बनाए रखते हैं आभार ..
ReplyDeleteविचार अपना रास्ता ढूंढ ही लेते है।
ReplyDeleteसुन्दर..बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteअत्यंत प्रभावी एवं सार्थक आलेख.....मन के भावों और शब्दों के बीच का सामंजस्य और संघर्ष ही सृजनशील प्राण का स्वाभाविक अंतर्द्वंद है....
ReplyDeleteहार्दिक आभार एवं शुभ कामनाएं पांडे जी
सादर !!!
ReplyDelete♥
बहुत सुंदर आलेख है प्रवीण जी !
भई, अपनी तो ज़िंदगी रमी है इनमें…
शब्द, स्वर और रंग बिल्कुल मेरे ही क्रम को आप द्वारा रेखांकित पा'कर अच्छा लगा ।
पहले मैं इस नाम से एक पत्रिका ही निकालने की सोचता था … फिर ब्लॉग बनाया तो इसी नाम से … आपका स्नेह-आशीर्वाद तो मिलता ही रहता है
शस्वरं को ।
शब्द स्वर रंग ही तो है
शस्वरं
:)
पुनः बधाई और आभार !
मंगलकामनाओं सहित…
-राजेन्द्र स्वर्णकार
शब्दों के बादल जाने कब कैसे बरसें ...
ReplyDeleteगहन चिंतन !
सृजक की सृजन कथा।
ReplyDeleteगेहूँ की फसल बोते लेते किसान के खेत में सहसा ही आम्र वृक्ष उग आए। किन्तु उपजाऊ भूमि और न्यूनाधिक श्रम तो किसान का ही है।
शुभकामनाएं!!
आकाश में काले काले बादल छाते हैं वैसे मन में विचारों का जमघट लगता है लख् से बिजली चमकती है वैसे आती है कल्पना और झरझर बारिश की तरह ही होता है सृजन ।
ReplyDeleteखरगोश का संगीत राग
ReplyDeleteरागेश्री पर आधारित है जो कि खमाज
थाट का सांध्यकालीन राग है, स्वरों में कोमल निशाद
और बाकी स्वर शुद्ध लगते हैं, पंचम इसमें
वर्जित है, पर हमने इसमें
अंत में पंचम का प्रयोग भी किया है,
जिससे इसमें राग बागेश्री भी झलकता है.
..
हमारी फिल्म का संगीत वेद नायेर ने
दिया है... वेद जी को अपने संगीत कि प्रेरणा जंगल में चिड़ियों कि चहचाहट से मिलती है.
..
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