सावन आया है, ग्रीष्म की पूर्ण तपन के बाद। कितनी घनी प्रतीक्षा, हर दिन की आस, कि आज बरसें शीतल फुहारें, कि आज टूटे तपन की श्रृंखला। पानी बरस रहा है, कहते हैं कि कम बरस रहा है, कारण पता नहीं, संभवतः मानसून का जोर कम चल रहा है। पता नहीं इस बार पर्याप्त रहेगा कि नहीं, पता नहीं कि इस बार फसल अच्छी होगी कि नहीं? फसल कम अच्छी हुयी तो अन्न की आपूर्ति कम होगी, माँग बनी रहेगी क्योंकि जनसंख्या की फसल तो किसी भी वर्ष विफल हुयी ही नहीं है। माँग और आपूर्ति का भारी अन्तर मँहगाई बढ़ायेगा, और तपन बढ़ेगी, ग्रीष्म की तपन से भी तपी, सावन पुनः प्रतीक्षित रहेगा।
बड़ा जटिल संबंध है, तपन का सावन से, सावन का जल से, जल का जन से और जन का तपन से। त्राहि त्राहि मच उठती है जब सावन रूठता है, हम असहाय बैठ जाते हैं, अर्थव्यवस्था के मानक असहाय बैठ जाते हैं, गरीबों के चूल्हे असहाय बैठ जाते हैं। बड़ा ही गहरा संबंध है, सावन की बूँदों में और हमारे आँखों और पसीने की बूँदों में। सावन की बूँदें या तो सागर को भरती हैं या पृथ्वी के गर्भ के जल स्रोत को, एक खारा एक मीठा। एक सीधा सा सिद्धान्त तय मान कर चलिये, आप सावन की बूँदों को जितना खारापन देते हैं, सावन की बूँदें आपको उतना ही खारापन वापस करती हैं, पसीने के रूप में, आँसू के रूप में। आप सावन की बूँदों को जितना मीठापन देंगे या कहें जितना उसे पृथ्वी के गर्भ में जाने देंगे, उतनी ही मिठास आपके जीवन में भी आयेगी।
पानी का चक्र बड़ा ही सरल और सुलझा है, पृथ्वी से जितना जल वाष्पित होता है, वह सारा जल पृथ्वी पर ही कहीं न कहीं जाकर बरस जाता है, आसमान अपने पास कुछ नहीं रखता है। ९० प्रतिशत से अधिक वाष्पन सागर से होता है, शेष दस प्रतिशत पृथ्वी के पेड़ पौधों, झील नदियों आदि से होता है। कुल वाष्पन का लगभग ७७ प्रतिशत सागर पर ही बरस जाता है, शेष २३ प्रतिशत हवाओं के माध्यम से जमीन पर बरसता है। यह बरसा हुआ जल पर्वतों पर बर्फ के रूप में, पृथ्वी के अन्दर भूगर्भ जल के रूप में, झीलों और तालाबों के रूप में एकत्र होता है, शेष नदियों की धाराओं के माध्यम से पुनः सागर में मिल जाता है। बर्फ के रूप में एकत्र जल भी नदियों को वर्ष भर पानी देता रहता है और अन्ततः सागर में मिल जाता है।
कुल मिलाकर हाथ में रहता है, भूगर्भ जल, झीलों का जल और नदियों का जल। नदियों के आसपास का सारा जल नदियों में ही आकर मिलता है। नदियों का जलग्रहण क्षेत्र बड़ा होता है और उसमें साधारणतया कोई झील आदि नहीं होती है। नदियों के दोनों ओर ४-५ किमी तक के क्षेत्र का भूगर्भ जल नदियों के द्वारा ही भरा जाता रहता है। यदि नदियाँ सूखेंगी या उनमें कम पानी रहेगा तो भूगर्भजल उतना ही नीचे चला जायेगा। झीलों और तालों का जलग्रहण क्षेत्र अधिक बड़ा नहीं होता है पर वह भौगोलिक रूप से अपने आसपास के क्षेत्रों की तुलना में सबसे नीचे होती हैं। झीलें भी भूगर्भजल को सतत भरती रहती हैं। जब बरसात में नदियों का जल बह जाता है, जब उपयोग में लाते लाते झील और ताल भी सूख जाते हैं, तब हमारे पास भूगर्भ जल का ही आश्रय होता है। यदि कहा जाये तो भूगर्भजल हमारे गाढ़े समय के लिये का जल है।
भूगर्भजल की उपलब्धता लगभग उतनी ही है जितने पृथ्वी के उपर जमे हुये हिमखण्ड, यही हमारी जमापूँजी है। सावन का जल आता है, बह जाता है, हम प्रयास कर उसे पूरा नहीं समेट पाते हैं। बाँध बनाते हैं, नहर निकालते हैं, खेतों को पहुँचाते हैं, फिर भी पर्याप्त नहीं पड़ पाता है वह सबके लिये, उन क्षेत्रों के लिये भी नहीं जो नदी के आसपास हैं। झीलें भरती हैं, कुछ महीनों में उनका भी जल स्तर नीचे आ जाता है, दैनिक उपयोग और सतत वाष्पन उन्हें भी सुखा देता है। तब शेष रहता है भूगर्भजल, जो कि पृथ्वी के अन्दर सदियों से एकत्र हो रहा है, जो कुँओं के माध्यम से हम तक आता है।
एक व्यापारी क्या करता है? जो संसाधन सबसे पहले उपस्थित रहते हैं और पहले विलुप्त होने वाले होते हैं, उनका समुचित उपयोग करता है, एक योग्य व्यापारी। जो संसाधन गाढ़े समय में काम आते हैं, उन्हें सोने की तरह सम्हाल कर रखता है और विपत्ति के समय ही उपयोग में लाता है। हर बार वह अपना संचय बढ़ाता रहता है औऱ अपने व्यापार का विस्तार भी करता रहता है।
हमें क्या हो गया है? जिन नदियों में जल बहना था, जिनका उपयोग पानी पीने और दैनिक आवश्यकताओं में अधिक करना था, वो आज सूख रही हैं। सारी की सारी मुख्य नदियाँ कृशकाय सी दिखती हैं, पता नहीं उनका जल कहाँ सोख लिया जाता है? जिन नहरों से जुड़कर खेती को पानी मिलता था, उन नहरों में इतनी मिट्टी जम गयी है कि वहाँ बच्चे क्रिकेट खेलते हैं। वर्षा के समय जल का प्रवाह हमसे सम्हाले नहीं सम्हलता है और सारा का सारा जल सागर में समा जाता है। नदियों के सूखने से आपपास के भूगर्भजल का स्तर सैकड़ों फीट नीचे चला गया है। यदि उन नदियों में कुछ बहता है तो वह शहरों और फैक्ट्रियों का मल बहता है, ऐसा कूड़ा कि देखकर मन पीड़ा से भर उठता है। जल के प्रवाह को हमने क्या से क्या कर दिया, इस प्रश्न का उत्तर अपनी संततियों को देना कठिन हो गया है हमें।
यदि झीलें ही बची रहती तब भी यत्र तत्र पानी एकत्र होकर भूगर्भजल को भरता रहता और अन्य कार्यों में भी उपयोग में आता। बंगलोर में कभी ४५० झीलें हुआ करती थीं, जनसंख्या के दवाब ने नगर के अन्दर भूमि के मूल्य अधाधुंध बढ़ा दिये और भूमि माफियाओं ने झीलें सुखा कर उस पर कब्जा करना प्रारम्भ कर दिया। अब ६०-७० ही झीलें शेष बची हैं और वे भी अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा में हैं। झीलें जो पूरे नगर के जल आवश्यकता पूरी करने में सक्षम थीं, आज अपने लिये भी जल नहीं जुटा पा रही हैं। नगर को कावेरी नदी का जल दिया जा रहा है, वह भी लगभग १०० किमी पंप करके। हर वर्ष झीलों में जल न आने से भूगर्भजल का स्तर १०० फीट से ५०० फीट तक जा चुका है। जिस नगर में पहले कहीं पानी भरता नहीं था, उस नगर को हर वर्षा के बाद सड़कों पर कीचड़ के अंबार सहने पड़ते हैं।
हर छोटे बड़े नगर की यही कहानी है, भूगर्भजल को हम प्राथमिक स्रोत मानकर बैठे हैं और पंप लगाकर अधाधुंध दोहन कर रहे हैं। जिन स्रोतों से उनमें पानी जाना था, उन्हें विधिवत सुखा रहे हैं और वर्षा की हर बूँद का संरक्षण जो हमारा कर्तव्य था, उसे व्यर्थ ही बह जाने दे रहे हैं।
यह कैसा पानी का व्यापार है? पानी की जो संस्कृति पनप रही है, उसे देखकर तो लगता है कि पानी भी उपभोग की वस्तु बन गयी है, जब तक उलीच सकें उलीच लें, आने वालों के लिये कुछ न छोड़ें। प्रकृति ने सदा ही कृपा बरसायी है, हमने उसे लूट में बदल दिया है। नदियाँ और जल के स्रोत जो हमारे आराध्य थे, इसलिये नहीं कि उनमें किसी देवी का वास है, इसलिये क्योंकि जल हमारे लिये जीवन का पर्याय है और जीवनदायिनी सदा ही आराध्य होती है।
पानी के व्यापार में हम हर बार प्रकृति के साथ छल करते हैं, अधिक रख लेते हैं, कम देते हैं, मूल्य न समझ व्यर्थ कर देते हैं। कभी प्रकृति ने छल किया तो हमारी सभ्यता जल के लिये युद्ध करते करते समाप्त हो जायेगी और हम पानी के व्यापार में सब लुटा बैठेंगे।
पानी का चक्र बड़ा ही सरल और सुलझा है, पृथ्वी से जितना जल वाष्पित होता है, वह सारा जल पृथ्वी पर ही कहीं न कहीं जाकर बरस जाता है, आसमान अपने पास कुछ नहीं रखता है। ९० प्रतिशत से अधिक वाष्पन सागर से होता है, शेष दस प्रतिशत पृथ्वी के पेड़ पौधों, झील नदियों आदि से होता है। कुल वाष्पन का लगभग ७७ प्रतिशत सागर पर ही बरस जाता है, शेष २३ प्रतिशत हवाओं के माध्यम से जमीन पर बरसता है। यह बरसा हुआ जल पर्वतों पर बर्फ के रूप में, पृथ्वी के अन्दर भूगर्भ जल के रूप में, झीलों और तालाबों के रूप में एकत्र होता है, शेष नदियों की धाराओं के माध्यम से पुनः सागर में मिल जाता है। बर्फ के रूप में एकत्र जल भी नदियों को वर्ष भर पानी देता रहता है और अन्ततः सागर में मिल जाता है।
कुल मिलाकर हाथ में रहता है, भूगर्भ जल, झीलों का जल और नदियों का जल। नदियों के आसपास का सारा जल नदियों में ही आकर मिलता है। नदियों का जलग्रहण क्षेत्र बड़ा होता है और उसमें साधारणतया कोई झील आदि नहीं होती है। नदियों के दोनों ओर ४-५ किमी तक के क्षेत्र का भूगर्भ जल नदियों के द्वारा ही भरा जाता रहता है। यदि नदियाँ सूखेंगी या उनमें कम पानी रहेगा तो भूगर्भजल उतना ही नीचे चला जायेगा। झीलों और तालों का जलग्रहण क्षेत्र अधिक बड़ा नहीं होता है पर वह भौगोलिक रूप से अपने आसपास के क्षेत्रों की तुलना में सबसे नीचे होती हैं। झीलें भी भूगर्भजल को सतत भरती रहती हैं। जब बरसात में नदियों का जल बह जाता है, जब उपयोग में लाते लाते झील और ताल भी सूख जाते हैं, तब हमारे पास भूगर्भ जल का ही आश्रय होता है। यदि कहा जाये तो भूगर्भजल हमारे गाढ़े समय के लिये का जल है।
भूगर्भजल की उपलब्धता लगभग उतनी ही है जितने पृथ्वी के उपर जमे हुये हिमखण्ड, यही हमारी जमापूँजी है। सावन का जल आता है, बह जाता है, हम प्रयास कर उसे पूरा नहीं समेट पाते हैं। बाँध बनाते हैं, नहर निकालते हैं, खेतों को पहुँचाते हैं, फिर भी पर्याप्त नहीं पड़ पाता है वह सबके लिये, उन क्षेत्रों के लिये भी नहीं जो नदी के आसपास हैं। झीलें भरती हैं, कुछ महीनों में उनका भी जल स्तर नीचे आ जाता है, दैनिक उपयोग और सतत वाष्पन उन्हें भी सुखा देता है। तब शेष रहता है भूगर्भजल, जो कि पृथ्वी के अन्दर सदियों से एकत्र हो रहा है, जो कुँओं के माध्यम से हम तक आता है।
एक व्यापारी क्या करता है? जो संसाधन सबसे पहले उपस्थित रहते हैं और पहले विलुप्त होने वाले होते हैं, उनका समुचित उपयोग करता है, एक योग्य व्यापारी। जो संसाधन गाढ़े समय में काम आते हैं, उन्हें सोने की तरह सम्हाल कर रखता है और विपत्ति के समय ही उपयोग में लाता है। हर बार वह अपना संचय बढ़ाता रहता है औऱ अपने व्यापार का विस्तार भी करता रहता है।
हमें क्या हो गया है? जिन नदियों में जल बहना था, जिनका उपयोग पानी पीने और दैनिक आवश्यकताओं में अधिक करना था, वो आज सूख रही हैं। सारी की सारी मुख्य नदियाँ कृशकाय सी दिखती हैं, पता नहीं उनका जल कहाँ सोख लिया जाता है? जिन नहरों से जुड़कर खेती को पानी मिलता था, उन नहरों में इतनी मिट्टी जम गयी है कि वहाँ बच्चे क्रिकेट खेलते हैं। वर्षा के समय जल का प्रवाह हमसे सम्हाले नहीं सम्हलता है और सारा का सारा जल सागर में समा जाता है। नदियों के सूखने से आपपास के भूगर्भजल का स्तर सैकड़ों फीट नीचे चला गया है। यदि उन नदियों में कुछ बहता है तो वह शहरों और फैक्ट्रियों का मल बहता है, ऐसा कूड़ा कि देखकर मन पीड़ा से भर उठता है। जल के प्रवाह को हमने क्या से क्या कर दिया, इस प्रश्न का उत्तर अपनी संततियों को देना कठिन हो गया है हमें।
यदि झीलें ही बची रहती तब भी यत्र तत्र पानी एकत्र होकर भूगर्भजल को भरता रहता और अन्य कार्यों में भी उपयोग में आता। बंगलोर में कभी ४५० झीलें हुआ करती थीं, जनसंख्या के दवाब ने नगर के अन्दर भूमि के मूल्य अधाधुंध बढ़ा दिये और भूमि माफियाओं ने झीलें सुखा कर उस पर कब्जा करना प्रारम्भ कर दिया। अब ६०-७० ही झीलें शेष बची हैं और वे भी अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा में हैं। झीलें जो पूरे नगर के जल आवश्यकता पूरी करने में सक्षम थीं, आज अपने लिये भी जल नहीं जुटा पा रही हैं। नगर को कावेरी नदी का जल दिया जा रहा है, वह भी लगभग १०० किमी पंप करके। हर वर्ष झीलों में जल न आने से भूगर्भजल का स्तर १०० फीट से ५०० फीट तक जा चुका है। जिस नगर में पहले कहीं पानी भरता नहीं था, उस नगर को हर वर्षा के बाद सड़कों पर कीचड़ के अंबार सहने पड़ते हैं।
हर छोटे बड़े नगर की यही कहानी है, भूगर्भजल को हम प्राथमिक स्रोत मानकर बैठे हैं और पंप लगाकर अधाधुंध दोहन कर रहे हैं। जिन स्रोतों से उनमें पानी जाना था, उन्हें विधिवत सुखा रहे हैं और वर्षा की हर बूँद का संरक्षण जो हमारा कर्तव्य था, उसे व्यर्थ ही बह जाने दे रहे हैं।
यह कैसा पानी का व्यापार है? पानी की जो संस्कृति पनप रही है, उसे देखकर तो लगता है कि पानी भी उपभोग की वस्तु बन गयी है, जब तक उलीच सकें उलीच लें, आने वालों के लिये कुछ न छोड़ें। प्रकृति ने सदा ही कृपा बरसायी है, हमने उसे लूट में बदल दिया है। नदियाँ और जल के स्रोत जो हमारे आराध्य थे, इसलिये नहीं कि उनमें किसी देवी का वास है, इसलिये क्योंकि जल हमारे लिये जीवन का पर्याय है और जीवनदायिनी सदा ही आराध्य होती है।
पानी के व्यापार में हम हर बार प्रकृति के साथ छल करते हैं, अधिक रख लेते हैं, कम देते हैं, मूल्य न समझ व्यर्थ कर देते हैं। कभी प्रकृति ने छल किया तो हमारी सभ्यता जल के लिये युद्ध करते करते समाप्त हो जायेगी और हम पानी के व्यापार में सब लुटा बैठेंगे।
जल को लेकर निश्चित ही बड़े संकट आसन्न हैं !
ReplyDeleteएस लालित्यभरे पोस्ट की जानकारियाँ आँखे खोलती हैं!
ReplyDeleteअब निसर्ग के मुफ्त अवयवों की भी व्यावसयिकता :-(
यही तो कलियुग का प्रभाव है, जब कलियुग अपने चरम पर होगा तब शायद हम यह लिख भी नहीं सकेंगे, माफ़िया इतना हावी होगा ।
ReplyDeleteभूजल के दोहन से भूजल का स्तर कम हो रहा है| नदियाँ प्रदूषित है उन्हें साफ करने के बहाने राजनेता,अफसर खूब धन कमा रहे है|
ReplyDeleteकभी हर स्टेशन,हर सड़क पर प्याऊ मिला करती थी,पर अब बोतल बंद पानी बेचने वाले नजर आते है, बस स्टेंड हो रेलवे स्टेशन या तो नल नहीं दिखते, दिखते है तो उनमे पानी नहीं आने दिया जाता और आता है तो पानी बेचने वाले उस नल को तोड़ देते है|
गांवों में जिस भाव दूध बिकता है स्टेशनों पर उस भाव पानी बिक रहा है|
वर्षा का अधिकांश पानी जब धरती में समाये तो भू जल का स्तर ऊंचा हो ,लेकिन इमारतों मे रेन हार्वेस्टिंग के लिये प्रावधान नहीं रखे जाते ,भू पर वनस्पतियों के बजाय सीमेंट का पक्कापन ,जो जल बरसता है नालियों में बह जाता है.और पृथ्वी से पानी उलीचे डाल रहे हैं लोग.इमारतों में छतों पर बरसता का पानी जमा होने के लिये टैंक बनवाना अनिवार्य कर दिया जाना चाहिये .
ReplyDeleteसार्थक दृष्टि और चिंतन.
ReplyDeleteचित्र, संभवतः 'आज भी खरे हैं तालाब' से लिया गया है.
यह चित्र अनुपम मिश्रजी के TED मैसूर के सम्बोधन के समय का है, आज भी खरे हैं तालाब पढ़ते हैं जाकर।
Deleteपानी की बर्वादी न रुकी तो अनिष्ट तय है ...
ReplyDeleteप्रवीण जी, आपने समस्या का चित्रण बखूबी किया है पर समस्या का हल क्या हो, हम लोग अपने-आपने स्तर पर क्या क्या कर सकते हैं इस बारे में भी एक पोस्ट लिखें.
ReplyDeleteलिखने की प्रक्रिया में हूँ..प्रेरित करने का आभार...
Deleteरहिमन पानी राखिये , बिन पानी सब सून |
ReplyDeleteSHAYAD IS LEKH KI UPYOGITA AAJ KE MODERN YUG ME SIRF PADHNE AUR CHARCHAON ME
ReplyDeleteSAMMALIT HONE TAK HI RAH GAYI HAI VARNA AAJ HAMARI PAVITRA EVAM POOJNIYA NADIYON KI YE DURDASHA NAHIN HOTI.
HAMARE BUJURGON NE HAR ANMOL VASTU KO DHARM SE JOD KAR ISEELIYE VYAKTA KIYA THA KI SAMBHAVATAH AANE WALE SAMAY ME BHAYGRAST HOKAR HI INSAAN INKA MULYA SAMJHEGA PAR AAJ KA INSAAN KOI NAITIK PAATH NAHIN PADHNA CHAHTA.
प्राकृतिक स्त्रोतों का अंधाधुंध दोहन और जलस्तर बढ़ाने के कारकों की अनदेखी ...दोहरी मार !
ReplyDeleteराजस्थान में पुराने मकानों में टाँके बनाये जाते थे , जिससे कि घर की छतो से बरसात का पानी इकठ्ठा किया जा सके . इन टांकों की चूना पुती दीवारें पानी को साफ़ शुद्ध रखती थी . अफ़सोस कि अब यहाँ भी इतना ध्यान नहीं रखा जाता !
आपकी बात अक्षरशः सत्य है, राजस्थान से पूरे देश को सीखना चाहिये। वहाँ जलस्थान देवस्थान से पवित्र और पूजनीय हैं।
Deleteगांधी शांति प्रतिष्ठान के श्री अनुपम मिश्र जी की शोधपूर्ण कृति "आज भी खरे हैं तालाब ..." में बड़े ही रोचक ढंग से पारंपरिक तालाबों की भूमिका की झलक मिलती है | राजस्थान के सुदूर क्षेत्रों में भी किस तरह से पानी को सँजो कर साल भर रखा जाता था, यह देखने को मिलेगा | तुम्हारी पोस्ट का चित्र भी ऐसी ही राजस्थानी बावड़ी का परिचय है | बहुत अच्छा लेख है...
ReplyDelete-- अनिल महाजन
यह चित्र अनुपम मिश्रजी के TED मैसूर के सम्बोधन के समय का है, आज भी खरे हैं तालाब पढ़ते हैं जाकर। अगला लेख राजस्थान में उपयोग में लाये जा रहे जल संरक्षण के उपायों पर होगा और अनुपम मिश्रजी के व्याख्यान से प्रेरित भी होगा।
Deleteचिंताजनक स्थिति है.
ReplyDeleteकहते हैं कि अगला युग पानी के लिए तरसेगा और युद्ध भी उसी के लिए होगा.
जल संरक्षण के उपाय खोजने होंगे और अमल में लेने होंगे.
आपको पढने के बाद एक अलग ही फील आती है.. औरा का बहुत फर्क पड़ता है... वाटर वेस्ट मैनेजमेंट पर मुझे यह आर्टिकल बहुत अच्छा लगा... इसका सौल्युशन एक और है कि हम अपनी सारी नदियों को एक पूल के थ्रू जोड़ दें.. और सारी नदियों का पानी एक फनल से पूरे देश में जाए.. तो काफी हद तक वेस्टेज को कंट्रोल किया जा सकता है.. यूरोपियन कंट्रीज़ में ऐसा करते हैं... और बीजेपी की गवर्नमेंट जब थी तो उनके मैनिफेस्टो में वाटर वेस्ट मैनेजमेंट के लिए .. यह भी एक प्रोपोज़ल था.. जो कि इम्प्लीमेंट नहीं हो पाया था..
ReplyDeleteआपको पढने के बाद एक अलग ही फील आती है.. औरा का बहुत फर्क पड़ता है... वाटर वेस्ट मैनेजमेंट पर मुझे यह आर्टिकल बहुत अच्छा लगा... इसका सौल्युशन एक और है कि हम अपनी सारी नदियों को एक पूल के थ्रू जोड़ दें.. और सारी नदियों का पानी एक फनल से पूरे देश में जाए.. तो काफी हद तक वेस्टेज को कंट्रोल किया जा सकता है.. यूरोपियन कंट्रीज़ में ऐसा करते हैं... और बीजेपी की गवर्नमेंट जब थी तो उनके मैनिफेस्टो में वाटर वेस्ट मैनेजमेंट के लिए .. यह भी एक प्रोपोज़ल था.. जो कि इम्प्लीमेंट नहीं हो पाया था..
ReplyDeleteअब भी चेतें तो बेहतर ..... अनुपमजी की इस किताब के विषय में बहुत सुना है | सच में प्राकृतिक जल स्रोतों को सहेजने का सद्प्रयास बहुत आवश्यक है | कभी कभी लगता है पीने को, जीने को जल ही न होगा तो हम जिन सुख सुविधाओं को जुटाने में लगे हैं उनका क्या अर्थ ..... स्थित यकीनन भयावह ही होगी
ReplyDelete*स्थिति
ReplyDeleteएक सीधा सा सिद्धान्त तय मान कर चलिये, आप सावन की बूँदों को जितना खारापन देते हैं, सावन की बूँदें आपको उतना ही खारापन वापस करती हैं, पसीने के रूप में, आँसू के रूप में। आप सावन की बूँदों को जितना मीठापन देंगे या कहें जितना उसे पृथ्वी के गर्भ में जाने देंगे, उतनी ही मिठास आपके जीवन में भी आयेगी।
ReplyDeleteबहुत अच्छी उत्तम बात कही है काफी जानकारियाँ दी हैं आपने बहुत गंभीर समस्या पर कलम चलाई है आपने, सच में अपना वर्तमान बनाने की खातिर आने वाली पीढ़ियों के लिए कुछ सोच ही नहीं रहे हैं कितने खुद गर्ज हो गए हैं हम बड़ी बड़ी इमारतों में स्वीमिंग पूल तो बनाने याद रहते हैं वर्षा जल संचयन के लिए याद नहीं रखते एक श्रेष्ठ आलेख के लिए बहुत बहुत बधाई
कभी प्रकृति ने छल किया तो हमारी सभ्यता जल के लिये युद्ध करते करते समाप्त हो जायेगी और हम पानी के व्यापार में सब लुटा बैठेंगे। अक्षरश: सही कहा है आपने इस आलेख हमेशा की तरह उत्कृष्ट प्रस्तुति ...आभार
ReplyDeleteसच है स्थिति विकट होती जारही है.हम अभी भी नही चेते तो बहुत मुश्किले उठानी पड़ सकती है..बहुत ही गहन समस्या पर आप ने अपनी कलम चलाई है.अब रुकनी नहीं चाहिए...आभार प्रवीण जी..
ReplyDeleteविचारणीय आलेख
ReplyDeleteघाटा भयानक होता जा रहा है
ReplyDeleteशहर से तालब विस्थापित हैं.. सडको कि किनारे जो गड्ढे होते थे वे सब गायब है... हर जगह कंक्रीट ही कंक्रीट है...ऐसे में... जल का स्तर कैसे बढे... समस्या जटिल से जटिलतम हो रही हैं.. और हम में दृढ इच्छाशक्ति की कमी है... व्यक्तिगत स्तर पर कुछ प्रयास तो हमें करने ही चाहिए....
ReplyDeleteआपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 12 -07-2012 को यहाँ भी है
ReplyDelete.... आज की नयी पुरानी हलचल में .... रात बरसता रहा चाँद बूंद बूंद .
पानी का चक्र तो अस्सन है पर तब तक जब तक मनुष्य बीच बीच में अपने नहीं चलाता (जो की वो कई सालों से करता आ रहा है) और इस चक्र कों तोड़ रहा है ...
ReplyDeleteआपकी पोस्ट मेरे लिए हमेशा ज्ञान-वर्धक होती है ....
ReplyDeleteआभार!
'पानी के व्यापार में हम हर बार प्रकृति के साथ छल करते हैं, अधिक रख लेते हैं, कम देते हैं, मूल्य न समझ व्यर्थ कर देते हैं।'
ReplyDeleteसत्य है!
हमारी सकारात्मक भूमिका अपेक्षित है!
क्या हो गया है हमें ..शायद हमारा पानी ही सूख गया है .प्रभावी आलेख .
ReplyDeleteअपने रिसोर्सेज का ही ठीक से इस्तेमाल करना हमें आता तो समस्या ही क्या थी.
ReplyDeleteप्रकृति ने सदा ही कृपा बरसायी है, हमने उसे लूट में बदल दिया है। नदियाँ और जल के स्रोत जो हमारे आराध्य थे, इसलिये नहीं कि उनमें किसी देवी का वास है, इसलिये क्योंकि जल हमारे लिये जीवन का पर्याय है और जीवनदायिनी सदा ही आराध्य होती है
ReplyDeleteएक सोच देता हुआ प्रबल ...सार्थक आलेख ...बिना सोचे समझे ही बढ़ रहे हैं ...
कुछ तो ऐसा करें कि जीवन सार्थक लगे ....!!
टिप्पणियां भी पढ़ीं |
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति |
बधाई स्वीकारें ||
सार्थक चिंतन...
ReplyDeleteपानी ही तो दौलत है
ReplyDeleteपानी सा धन भला कहां
जागृति प्रेरक आलेख!!
ReplyDeleteRaining in sea.
ReplyDeleteWhat a waste.
एक इंजिनीअर होने के नाते ... मैं यह कह सकता हूँ ... की हमलोग एक बहुत ही खतरनाक स्थिति की और जा रहे है
ReplyDeletebahut dukh hota hai jab me kankreet k janglon ko dekhti hun, aur builder log bade bekhauf ho kar dharti ka dohan kar imarte ki imarte khadi kar dete hain. prashasan unke liye koi rok koi kanoon nahi banata. soch kar dukh hota hai ki ek seema samapt ho jane k baad kya haal hoga ham logo ka?
ReplyDeletekayi baar shabdo se dusron k samaksh ye dukh prakat hua lekin yahi jawab mila ki iska koi aur alternate nahi hai. kya in logon k liye koi kanoon nahi ?
आपने पोस्ट लिखी ,हमने पढी , हमें पसंद आई , हमने उसे सहेज़ कर कुछ और मित्र पाठकों के लिए बुलेटिन के एक पन्ने पर पिरो दिया । आप भी आइए और मिलिए कुछ और पोस्टों से , इस टिप्पणी को क्लिक करके आप वहां पहुंच सकते हैं
ReplyDeletebahut hi sarthak lekh hai aapka jal ko agar hum na bacha paye to bahut pareshani ho jayegi aane wali gen..ko
ReplyDeleteसामयिक, विचारोत्तेजक और कुछ करने की कसमसाहट पैदा करनेवाली पोस्ट।
ReplyDeleteअभी दो नगरों (जिनमे से एक महानगर शिकागो )दूसरा ट्रेवर्स सिटी (मिशिगन राज्य )के भ्रमण से लौटा हूँ .पहले भी लेक टाहो(नेवादा और केलिफोर्निया राज्यों में विभाजित ) के दर्शन किए .इस मर्तबा लेक मिशिगन और लेक सुपीरियर (शिकागो )देखने उसके इतिहास को जानने का मौक़ा मिला .हिम नद (ग्लेशियर )की देन है लेक सुपीरियर .और मिशिगन राज्य तो झीलों का तोहफा लिए है ग्रेट मिशिगन लेक ही कनाडा और अमरीका के बुफालो में पहुँच नियाग्रा फाल कहलाती है .वहां भी इसके दर्शन किए है .वशीभूत हुए हैं अभि -भूत हुएँ हैं निर्मल जल और ज़िंदा पारि तन्त्र देख .
ReplyDeleteयहाँ देखने वाली बात है :लोग अपने इन जल स्रोतों को प्यार करते हैं .उतना ही अपनी नदियों को. शिकागो में शिकागो नदी की अलग अलग दिशाओं से आकर जहां तीनों धाराएं मिलती है वह स्थान भी उतना ही पारदर्शी पानी लिए है जैसा बोतलों में बंद मिनरल वाटर होता है .यह यहाँ का संगम है लेकिन इसकी पूजा नहीं हिफाज़त की जाती है और इसीलिए यहाँ झीलों का पारितन्त्र जीवित है ,बतियाता है हमसे .एक क्लाइम (जलवायु क्षेत्र )को बरकरार रखे हुए है .
हमने नदियों को भी गांधी बना दिया है .और आप जानते ही हैं भारत में गांधी किस काम आता है और कितने गांधी है यह भी बा -खूबी जानतें हैं आप .नदियों के गिर्द बसे नगर की इकोनोमी हमें चाहिए उनका पारितंत्र नहीं हरिद्वार से लेकर संगम (इलाहाबाद )तक गंगा का यही हाल है क्योंकि गंगा हमारे लिए पूज्य है .हम उसे प्यार नहीं करतें हैं .पूजते हैं .
मेरे अपने शहर बुलन्दशहर में एक लाल तालाब था अब वहां सब्जी मंडी है .तालाबों को बुलन्दशहर से लेकर बेंगलुरु तक रीयल -टार्स लील गये .
आपने इस ज्वलंत समस्या की और आंकड़ों के साथ ध्यान खींचा है .मुबारक .
पानी रे पानी ,,,,,,एक प्रेरक आलेख
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति,,,,
RECENT POST...: राजनीति,तेरे रूप अनेक,...
आपके श्रेष्ठ आलेखों में से एक है यह। आँखें खोलती, प्रेरित करती। इस लेख में अर्थशास्त्र भी है, वाणिज्य भी है और कवि हृदय के संवेदनशील उद्गार भी। अब इसकी दूसरी कड़ी भी लिखें..जल संरक्षण के उपाय।
ReplyDeleteजब राजशाही थी तब पानी की समुचित व्यवस्था की गयी थी लेकिन जैसे ही लोकतंत्र के नाम पर सरकारी तंत्र आया है तभी से केवल लूट पर ध्यान हैं, संचय पर नहीं।
ReplyDeleteप्रकृति का छल आसन्न ही है . जल का मूल्य चुकाने का समय आने ही वाला है वो भी विभीषिका का रूप में .
ReplyDeleteप्रकृति ने सबके लिए जीवन के साधन मुहैया कराएहइन यह तो हम मनुष्य ही हैं जो केवक स्वयं के बारे में ही सोचते हैं ॥आने वाली संततियों के बारे में नहीं ... प्रतिभा जी ने बहुत अच्छा सुझाव दिया है ... वाणी जी ने बताया कि राजस्थान में पानी को सरक्षित किया जाता था .... लेकिन आज वो भी देखने को नहीं मिलता .... काश हम आधुनिकता के नाम पर प्रकृति से खिलवाड़ न करें ... जागरूक करने वाला लेख
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteप्रकृति ने सबके लिए जीवन के साधन मुहैया कराए हैं यह तो हम मनुष्य ही हैं जो केवल स्वयं के बारे में ही सोचते हैं .... आने वाली संततियों के बारे में नहीं ... प्रतिभा जी ने बहुत अच्छा सुझाव दिया है ... वाणी जी ने बताया कि राजस्थान में पानी को सरक्षित किया जाता था .... लेकिन आज वो भी देखने को नहीं मिलता .... काश हम आधुनिकता के नाम पर प्रकृति से खिलवाड़ न करें ... जागरूक करने वाला लेख
ReplyDeleteReplyDelete
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ReplyDeleteजल ही जीवन है।
ReplyDeleteउर्मिला सिंहजी से ईमेल से प्राप्त
ReplyDeleteप्रकृति ने हमें भरपूर संसाधन दिये हैं,परंतु मानवीय नाकारात्मक प्रवृति के कारण हम उनका मूल्य नहीं समझ पा रहे हैं, साथ ही प्रकृति से कुछ सीख भी नहीं रहें है.निश्चय ही घातक परिणामों के लिये हमें तैयार रहना होगा.
साभार,एक ज्वलंत प्रश्न उठाने के लिये.
mera post Pallavi ne kar diya.... sayad isliye aapne delete maar diya:))
ReplyDeletemujhe jaisa yaad hai, yahi to likha tha :)
koi nahi sir!!!
जल ही जीवन है|
ReplyDeleteशायद लोग पानी के महत्त्व को भूल गए है..
इसलिए उसका दुरूपयोग कर रहे है...
गंभीर मुद्दा है यह..
While ecology of rural area is been destroyed in a planned way to sell later on Water, Medicines and all consumerism..
ReplyDeleteGovt just trust blindly the Western mode of development but not taken it fully..It initiated factories but is silence about waste treatment..
INDIA is on SELL, Pravin Bhai!
एक गंभीर मुद्दे पर बहुत सारगर्भित आलेख....अगर यही हालात रहे तो शायद विश्व पानी के लिये युद्ध के कगार पर न पहुँच जाए....
ReplyDeleteअच्छा है, घटते पानी को लेकर चिंता होनी ही चाहिए. औद्योगिक कचरा डालकर गंगाजल को गंदाजल बना दिया गया. फिर भी किसी को कोई चिंता नहीं.
ReplyDeleteबंगलोर में ३०० से अधिक झीलें विकास की भेंट चढ़ चुकी है. फिर भी जल संरक्षण के समुचित और पर्याप्त प्रयास नहीं हो रहे हैं.
जल है तो जीवन है। जीवन है तभी संसार के दूसरे उपभोग हैं।
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत लेखन है आपका। ऐसी शैली आज कल हिन्दी में दुर्लभ है। बनाए रखिए और लिखते रहिए। लेख प्रेरित करने वाले हैं। http://www.duniyan.blogspot.in मौका लगे तो अपने ब्लॉग पर भी एक नज़र दाल लीजिये।
ReplyDeleteइस पोस्ट को दुबारा पढ़ा। बहुत अच्छा लिखा है आपने।
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