उर्वशी पढ़ने बैठा तो एक समस्या उठ खड़ी हुयी। पता नहीं, पर जब भी श्रृंगार के विषय पर उत्साह से लगता हूँ, कोई न कोई खटका लग जाता है, कामदेव का इस तरह कुपित होने का कारण समझ ही नहीं आता है। पिछले जन्मों में या तो किसी ऋषि रूप में कामदेव के प्रयासों को व्यर्थ किया होगा जो अभी तक बदला लिया जा रहा है, या तो इन्द्रलोक में ही साथ रहते रहते कोई प्रतिद्वन्दिता पनप गयी होगी , या तो उर्वशी ही कारण रही होगी। तप में विघ्न पहुँचाने, इन्द्र द्वारा भेजी अप्सराओं की सुन्दरता का उपहास उड़ाने के लिये ऋषि नरनारायण ने अपनी उरु (जाँघ) काट कर उन सबसे कई गुना अधिक सुन्दर उर्वशी को बना दिया था और उसे वापस इन्द्र को भेंट कर दिया था। तब से ही उर्वशी के पाठकों के लिये कामदेव ऐसे ही समस्या उत्पन्न कर रहे होंगे।
अथाह सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति उर्वशी की उत्पत्ति त्याग का एक उत्तर था, भोग के उपासकों के लिये। ऐसा उत्तर जिसका होना प्रश्न अधिक खड़ा कर जाता है, ऐसा उत्तर जिसको समझना त्याग और भोग के पारस्परिक संबंधों को जानने के लिये आवश्यक है। भोग में अधिक शक्ति है या त्याग में, भोग त्याग से सदा इतना सशंकित क्यों रहता है, त्याग भोग को व्यर्थ क्यों समझता है? भोगमयी प्रवृत्ति और त्यागमयी निवृत्ति के बीच सौन्दर्य किस रूप में प्रस्तुत होता है? एक के लिये सयत्न प्राप्त कर सर धरने की वस्तु, दूसरे के लिये जाँघ से निकाल कर भेंट कर देने की वस्तु।
काम कभी भी संस्कृति का त्यक्त विषय नहीं रहा है, सदा ही उपस्थित रहा है। उर्वशी का वर्णन वेदों में है, शतपथ ब्रह्नण में उल्लेख है, कालिदास का नाटक विक्रमोर्वशीयम् की कथावस्तु ही यही है, दिनकर का काव्य है उर्वशी, राजा रविवर्मा के चित्रों में छलकता है उर्वशी का सौन्दर्य, तमिल कहावतों का हिस्सा है उर्वशी। प्रेम पर एक विस्तृत अध्ययन है, उर्वशी का पाठ। नर क्या होता है और क्या चाहता है, नारी के सौन्दर्य का प्रवाह कितना गतिमय होता है, इसका व्याख्यान है उर्वशी।
बरस गयी बूँदें यदि बादल का स्वरूप बताने में सक्षम होतीं तो एक आलिंगन भी भोग के सिद्धान्त समझा जाता। भावनाओं का घुमड़ना, रह रह उमड़ना, विचारों के बवंडर कैसे समझ आयेंगे? भोग के विषय में हमारा शाब्दिक ज्ञान तो औरों की अभिव्यक्ति के सहारे ही सीखा गया है। अज्ञेय जैसा विदग्ध हो, आहुति बन प्रेम की ज्वाला में कूद कर सीखने का उपक्रम ही रहस्य उद्घाटित कर सकता है, त्याग और भोग के। जो न त्याग में डूबा, जो न भोग में डूबा, उसके लिये तो ये दोनों शब्द विलोम ही बने रहेंगे। जो न त्याग समझा, जो न भोग समझा, उसके लिये ये दोनों विषय शरीर से परे जा ही नहीं पाते हैं, शरीर का बिछुड़ना त्याग और शरीर का मिलना भोग।
समाज में व्याप्त, प्रेम की यही जड़वत समझ एक कारण रहा होगा, जिसने दिनकर को नर के भीतर एक और नर और नारी के भीतर एक और नारी की परिकल्पना प्रस्तुत करने को बाध्य किया होगा। संभवतः इसी बहाने हम कुछ और गहरा उतरेंगे, कुछ और गहरा जहाँ त्याग और भोग परस्पर विलोम शब्द नहीं होंगे, साथ साथ खड़े होंगे, क्षण में पृथक, क्षण में संयुक्त।
त्याग और भोग पृथक शब्द नहीं है, इसका भान ईशोपनिषद का दूसरा श्लोक पढ़ते ही हो गया था हमें, तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा, अर्थ कि उसका त्यागपूर्वक भोग करो। अध्यापक से समझाने के लिये कहा पर संतुष्टि भरा उत्तर नहीं मिला, मन में प्रश्न बना रहा, कोई उत्तर देने वाला ही नहीं मिला। कहते हैं कि प्रेम में भोग भी है, त्याग भी। इन दोनों का परस्पर संबंध जैसे जैसे खुलता जाता है, प्रेम परिष्कृत होता जाता है। ईश्वर करे, उर्वशी का पढ़ना प्रेम की उस अनसुलझी गुत्थी समझने का माध्यम बने।
पुस्तक पढ़कर स्वयं को थोड़ा और ढंग से समझ सकूँ, अपने संबंधों को ढंग से समझ लूँ, कौन तृषा उन्मुक्त सी घूम रही है, उसे संतुष्ट कर सकूँ। विद्वता पुस्तक से ही मिलती तो सब पढ़ पढ़ विद्वान हो गये होते। प्रेम विशेषज्ञ बनना किसी के मन में हो तो उन्हें मैल्कम ग्लैडवेल की "आउटफ्लायर" पढ़नी चाहिये। जिन्होंने भी अपने क्षेत्रों में सिद्धहस्तता प्राप्त की है, उन्होनें लगभग दस हजार घंटे अभ्यास में लगाये हैं, कोई भी उपलब्धि स्वतः नहीं मिलती है। बस ६६ मिनट प्रतिदिन दीजिये, अपने प्रेम को, आप २५ वर्ष के गृहस्थ जीवन में प्रेमसिद्ध हो जायेंगे। बस घंटा भर ही अपने प्रेम को दीजिये।
देखिये, त्याग और भोग की प्राथमिक भँवर में ही फँस गये और यह बताना भूल गये कि समस्या क्या आ गयी थी? हुआ यह कि उर्वशी के पहले २० पन्नों में ही लगभग २० शब्द ऐसे निकल आये जिनका अर्थ ही समझ नहीं आ रहा था, कोई शब्दकोष नहीं था और बार बार इण्टरनेट में ढूढ़ने से पढ़ने की तारतम्यता टूटती थी। अरविन्द मिश्र जी को समस्या बताई तो उन्होंने एक वृहत शब्दकोश भेज दिया, बनारस से बंगलुरु। हाथ में आ गया है, कल से पुनः उर्वशी के पन्नों में उतराने को मिलेगा, त्याग भोग के बीच कहीं पर।
अथाह सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति उर्वशी की उत्पत्ति त्याग का एक उत्तर था, भोग के उपासकों के लिये। ऐसा उत्तर जिसका होना प्रश्न अधिक खड़ा कर जाता है, ऐसा उत्तर जिसको समझना त्याग और भोग के पारस्परिक संबंधों को जानने के लिये आवश्यक है। भोग में अधिक शक्ति है या त्याग में, भोग त्याग से सदा इतना सशंकित क्यों रहता है, त्याग भोग को व्यर्थ क्यों समझता है? भोगमयी प्रवृत्ति और त्यागमयी निवृत्ति के बीच सौन्दर्य किस रूप में प्रस्तुत होता है? एक के लिये सयत्न प्राप्त कर सर धरने की वस्तु, दूसरे के लिये जाँघ से निकाल कर भेंट कर देने की वस्तु।
काम कभी भी संस्कृति का त्यक्त विषय नहीं रहा है, सदा ही उपस्थित रहा है। उर्वशी का वर्णन वेदों में है, शतपथ ब्रह्नण में उल्लेख है, कालिदास का नाटक विक्रमोर्वशीयम् की कथावस्तु ही यही है, दिनकर का काव्य है उर्वशी, राजा रविवर्मा के चित्रों में छलकता है उर्वशी का सौन्दर्य, तमिल कहावतों का हिस्सा है उर्वशी। प्रेम पर एक विस्तृत अध्ययन है, उर्वशी का पाठ। नर क्या होता है और क्या चाहता है, नारी के सौन्दर्य का प्रवाह कितना गतिमय होता है, इसका व्याख्यान है उर्वशी।
समाज में व्याप्त, प्रेम की यही जड़वत समझ एक कारण रहा होगा, जिसने दिनकर को नर के भीतर एक और नर और नारी के भीतर एक और नारी की परिकल्पना प्रस्तुत करने को बाध्य किया होगा। संभवतः इसी बहाने हम कुछ और गहरा उतरेंगे, कुछ और गहरा जहाँ त्याग और भोग परस्पर विलोम शब्द नहीं होंगे, साथ साथ खड़े होंगे, क्षण में पृथक, क्षण में संयुक्त।
त्याग और भोग पृथक शब्द नहीं है, इसका भान ईशोपनिषद का दूसरा श्लोक पढ़ते ही हो गया था हमें, तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा, अर्थ कि उसका त्यागपूर्वक भोग करो। अध्यापक से समझाने के लिये कहा पर संतुष्टि भरा उत्तर नहीं मिला, मन में प्रश्न बना रहा, कोई उत्तर देने वाला ही नहीं मिला। कहते हैं कि प्रेम में भोग भी है, त्याग भी। इन दोनों का परस्पर संबंध जैसे जैसे खुलता जाता है, प्रेम परिष्कृत होता जाता है। ईश्वर करे, उर्वशी का पढ़ना प्रेम की उस अनसुलझी गुत्थी समझने का माध्यम बने।
पुस्तक पढ़कर स्वयं को थोड़ा और ढंग से समझ सकूँ, अपने संबंधों को ढंग से समझ लूँ, कौन तृषा उन्मुक्त सी घूम रही है, उसे संतुष्ट कर सकूँ। विद्वता पुस्तक से ही मिलती तो सब पढ़ पढ़ विद्वान हो गये होते। प्रेम विशेषज्ञ बनना किसी के मन में हो तो उन्हें मैल्कम ग्लैडवेल की "आउटफ्लायर" पढ़नी चाहिये। जिन्होंने भी अपने क्षेत्रों में सिद्धहस्तता प्राप्त की है, उन्होनें लगभग दस हजार घंटे अभ्यास में लगाये हैं, कोई भी उपलब्धि स्वतः नहीं मिलती है। बस ६६ मिनट प्रतिदिन दीजिये, अपने प्रेम को, आप २५ वर्ष के गृहस्थ जीवन में प्रेमसिद्ध हो जायेंगे। बस घंटा भर ही अपने प्रेम को दीजिये।
देखिये, त्याग और भोग की प्राथमिक भँवर में ही फँस गये और यह बताना भूल गये कि समस्या क्या आ गयी थी? हुआ यह कि उर्वशी के पहले २० पन्नों में ही लगभग २० शब्द ऐसे निकल आये जिनका अर्थ ही समझ नहीं आ रहा था, कोई शब्दकोष नहीं था और बार बार इण्टरनेट में ढूढ़ने से पढ़ने की तारतम्यता टूटती थी। अरविन्द मिश्र जी को समस्या बताई तो उन्होंने एक वृहत शब्दकोश भेज दिया, बनारस से बंगलुरु। हाथ में आ गया है, कल से पुनः उर्वशी के पन्नों में उतराने को मिलेगा, त्याग भोग के बीच कहीं पर।
बस ६६ मिनट प्रतिदिन दीजिये, अपने प्रेम को, आप २५ वर्ष के गृहस्थ जीवन में प्रेमसिद्ध हो जायेंगे। बस घंटा भर ही अपने प्रेम को दीजिये।
ReplyDelete@
यही मूलमंत्र है इसमें सिद्ध होने का |
साधना सफल हो !
ReplyDelete'सरल विषय गूढ़ प्रस्तुति ' | परस्पर प्रेम ही उच्च कोटि की श्रेणी में आता है | इतिहास अथवा रचनाओं में सदैव एकंगे प्रेम का बखान किया गया है ,जो प्रेम की पराकाष्ठ तो वर्णित करता है पर परस्पर प्रेम को उस स्तर तक कभी नहीं ला पाया | सरल भाषा में प्रेम वो है जिसमें भाव समर्पण का हो परन्तु कामना बरसी हुई बूंदों के बादल की प्रकृति को उद्घाटित करने की हो |
ReplyDeleteसतत प्रयास से ही साधना सुफल और सफल होती है ...!!
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रयास .
कुछ भी हो ऐसी रचनाएँ पढ़ने का अपना अलग ही आनंद होता है ।
ReplyDeleteभोग और त्याग की सचमुच ऐसी प्रवेगमई धारा आपने शुरू में ही बहा दी कि समझ ही नहीं आया कि समस्या फिर क्या आयी ...? :-)
ReplyDeleteआप उर्वशी पढ़ रहे हैं -पुरु और उर्वशी संवाद मैंने महाभारत में पढ़ा है -सर्ग याद नहीं -अगर कोई गहन अध्ययन रत बन्धु बता सकें तो आभार होगा -महाभारत के पुरु -उर्वशी संवाद में मनुष्य की काम वेदना पर प्रहार किया गया है -श्रेष्ठ से श्रेष्ट जन काम पीड़ा के तहत बहुत ही कातर -दयनीय और उपहास के योग्य हो जाते हैं -इसी वृत्ति पर महाकाव्यकार ने राजा पुरुरवा और उर्वशी के संवाद -रूपक को सृजित किया है -
उर्वशी, पुरुरवा का राजयोचित काम धाम छोड़कर हरवक्त विषयासक्त बने रहने पर क्षुब्ध होकर उनके जमीर को ललकारती है -वह कहती है राजन आपकी तो स्थति एक कामुक गीदड़ से भी गयी गुज़री हो गयी है -आपको इस तरह की विषयासक्ति शोभा नहीं देती ...यह आख्यान पढने योग्य है -कहीं से जुगाडिये! मैं भी तनिक यादों को तरोताज़ा करना चाहता हूँ -
जाहिर है यह मूल स्रोत ही अनेक कवि साहित्यकारों को लुभाता रहा है -राष्ट्रकवि भी इसके व्यामोह में आये बिना नहीं रहे ...यह आख्यान है ही इतना उत्प्रेरक! मुझे तो लगता है बिना इस आख्यान को पढ़े इस भारत भूभागे और दिक्काले किसी भी बुद्धिजीवी की ज्ञान यात्रा पूरी ही नहीं हो सकती .....
पिता जी ने न जाने किस कवि -प्रेरणा से उर्वशी का ही उपहास अपनी इस प्रसिद्ध कविता में किया है -संभव है उर्वशी द्वारा पुरु का अत्यंत तिक्त कटुवचन में उपहास उनके पुरुष -कविमन को क्षुब्ध कर गया हो -
उर्वशी -डॉ.राजेन्द्र मिश्र
@अपरंच -
ReplyDeleteयह पोस्ट पढ़ते हुए राजा जनक -विदेह की याद भी हो आयी जिन्होंने भोग और योग को साध लिया था और दोनों में समभाव थे -त्याग के साथ भोग भी!कृष्ण भी इस विद्या में पारंगत थे ...... :-)
भोग और त्याग का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है ...बस संतुलन साधा जा सके !!
ReplyDeleteआपसे मिलूँगा तो और ज्ञान की बातें जानूंगा इस विषय पर..तब तक तो आप किताब पढ़ ही चुके होंगे, हम ले लेंगे :)
ReplyDeleteत्याग और भोग के बीच संतुलन ही सृष्टि के हित में है. अति कामवेग शिव के तीसरे नेत्र खुलने का कारण बन जाता है . अत्यंत प्रभावशाली आलेख .
ReplyDeleteगीत याद आ गया - संसार से भागे फिरते हो, भगवान को तुम क्या पाओगे। यह भोग भी एक तपस्या है तुम त्याग के मारे क्या जानो।
ReplyDeleteसच है इस संतुलन को पा जाएँ तो सभी का हित है...... वैचारिक आलेख....
ReplyDeleteउर्वशी की व्याख्या होती चले...
ReplyDeleteमेरी समझ के अनुसार भोग का मतलब भौतिक या शारीरिक मिलन से कहीं आगे की बात है जिसे हम त्यागकर भोगते हैं.त्याग में ही असल और चिरकालिक भोग होता है जिसे अकसर हम भुला देते हैं.
ReplyDelete...उर्वशी के बहाने कुछ हमें भी नया सीखने ,जानने को मिलेगा !
६६ मिनट रोज देना अधिक मुश्किल नहीं लगता !
ReplyDeleteआभार आपका !
ओह..
ReplyDeleteत्याग और भोग में संतुलन में ईमानदारी से संतुलन करने में सफल हो जाएं, जीवन भी कुछ हद तक सार्थक हो जाएं, पर आसान नहीं लगता
बहुत सुंदर लेख, कभी कभी ऐसे लेख पढने को मिलते हैं..
उत्कृष्ट लेखन ... आभार
ReplyDeleteएक नयी समीक्षा उभर कर आयेगी ...जीवन को एक नयी दृष्टि मिल जाएगी ......फिर या तो उर्वशी - उर्वशी रह जाएगी या ज्ञान और ज्योति बन कर हृदय के किसी कोने में समा जायेगी .....क्योँकि....दिनकर जी की उर्वशी काम और अध्यात्म का अद्भुत मिलन प्रस्तुत करती है ......!
ReplyDeleteत्याग और भोग के बीच संतुलन ही सृष्टि के हित में है इस संतुलन को पा जाएँ तो सभी का हित है...बहुत उत्कृष्ट और सशक्त लेख..आभार प्रवीण जी..
ReplyDeleteTRULY SAID "A MAN BECOMES NAUGHTY AFTER FORTY".
ReplyDeleteआपके यह लेख मुझे उर्वशी पढ़ने को प्रेरित कर रहे हैं .... शब्दकोश के हाथ आ जाने से आपका पढ़न सुचारु रूप से चलेगा और हम भी लाभान्वित होंगे .... अरविंद जी कि टिप्पणी ने और भी जिज्ञासा बढ़ा दी है ...
ReplyDeleteत्याग और भोग परस्पर विरोधी नहीं हैं ... बस संतुलन बनाने की कला आनी चाहिए ...
उर्वशी एक प्रेम काव्य है ....जो समझें वो भी प्रेम , ना समझें वो भी प्रेम -
ReplyDeleteजब से हम-तुम मिले, न जानें, क्या हो गया समय को,
लय होता जा रहा मरुदगति से अतीत-गह्वर में.
किन्तु, हाय, जब तुम्हें देख मैं सुरपुर को लौटी थी,
यही काल अजगर-समान प्राणों पर बैठ गया था.
उदित सूर्य नभ से जाने का नाम नहीं लेता था,
कल्प बिताये बिना न हटाती थीं वे काल-निशाएँ
कामद्रुम-तल पड़ी तड़पती रही तप्त फूलों पर;
पर, तुम आए नहीं कभ छिप कर भी सुधि लेने को.
निष्ठुर बन निश्चिन्त भोगते बैठे रहे महल में
सुख प्रताप का, यश का, जय का, कलियों का, फूलों का.
मिले, अंत में, तब, जब ललना की मर्याद गंवाकर
स्वर्ग-लोक को छोड़ भूमि पर स्वयं चली मैं आई.
उर्वशी एक अहर्निश वेगवती धार, जो वांछित रही , त्याग व भोग दोनों पक्षों को . वस्तुतः अध्यात्म से भौतिक विचार, एक दुसरे से कभी विरत नहीं हो सके /तथा कथित देवराज इन्द्र की सीढियाँ भी त्याग की भित्तियों से गुजरती हैं और मनीषियों का त्याग भोग से वंचित नहीं रहा , उरु से उर्वशी का निर्माण भोग के दर्शन की पराकाष्ठा है , अन्तर्निहित गुण समयानुसार प्रकट होते हैं , विद्वतजन इच्छानुसार ........./ जहाँ तक मैंने पाया है , त्याग और भोग एक दुसरे के पूरक तत्त्व हैं ,जो एक दुसरे को परिभाषित व विभाजित करते हैं ....... जरी रखिये उर्वशी का पढ़ना ..... कौन कहता है भारतीय साहित्य उबाऊं होते हैं .......उर्वशी आराध्ग्य न हो साध्य हो तो अच्छा ... बहुत -२ शुभकामनायें मिस्टर पांडे जी /
ReplyDeletemaine bhi urvashi padhne ki koshish ki thi aur mujhe bhi aap jaise samasya se do-char hona pada....lekin mujhe kisi arvind ji ki madad nahi mil payi so aaj bhi us pustak ko dekh aise hi wapis usi jagah par saja deti hun. mujhe bhi koi shabd-kosh bata de.
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति!
ReplyDeleteइस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (08-07-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
त्याग भोग के बीच कहीं पर,,,,,,
ReplyDeleteबहुत ही उत्कृष्ट और सशक्त आलेख..आभार प्रवीण जी..
एक वृहत शब्दकोश भेज दिया, बनारस से बंगलुरु?
ReplyDeleteकल से पुनः उर्वशी के पन्नों में
कोई भी उपलब्धि स्वतः नहीं मिलती :-)
काफी संवेदनशील विषय, सबसे आश्चर्यजनक था सूक्त, "त्यागपूर्वक भोग"..मैकाले ने गर हमारी शिक्षा पद्धति को बर्बाद नहीं किया होता, तो हमने न जाने कितने स्वर्णकाल देखे होते..
ReplyDeleteबिछुरत एक प्राण हरि लेही।मिलत एक दारुण दुःख देहि ।
ReplyDeleteउपजहिं एक संग जग माहिं । जलज जोंक जीमि गुन बिलगाहिं ॥
आपके इस खूबसूरत पोस्ट का एक कतरा हमने सहेज लिया है भारत और इंडिया के बीच पिसता हिंदुस्तान : ब्लॉग बुलेटिन के लिए, पाठक आपकी पोस्टों तक पहुंचें और आप उनकी पोस्टों तक, यही उद्देश्य है हमारा, उम्मीद है आपको निराशा नहीं होगी, टिप्पणी पर क्लिक करें और देखें … धन्यवाद !
ReplyDeleteआपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल कल रविवार को 08 -07-2012 को यहाँ भी है
ReplyDelete.... आज हलचल में .... आपातकालीन हलचल .
बरसों पहले एक दिगम्बर मुनिजी के व्याख्यान में एक वाक्य सुना था - गृहस्थ को जाने/समझे बिना सन्यास को नहीं समझा जा सकता।
ReplyDeleteत्याग और भोग में शरीर की भूमिका. लगता है उर्वशी प्रसंग आगे भी आयेगा इस भूमिका को परिभाषित करने में.
ReplyDeleteत्याग और भोग के बिच के फर्क को समझना
ReplyDeleteही सबके लिए हितकर है...
नाईस पोस्ट :-)
कुछ नई जानकारी मिली |
ReplyDeleteआशा
शानदार प्रस्तुति.आभार.
ReplyDeleteधिक्कार तुम्हे है तब मानव ||
आप तो घोर तपस्या में लीन हैं :) सफलता के लिए शुभकामनायें.
ReplyDeleteNice comment.....
Delete:)
ये जो आपने लिखा है न, बस छियासठ मिनट, इस 'बस' में बहुत गहराई छिपी है| ये बहुत कम भी है बहुत ज्यादा भी| त्यागपूर्वक भोग करना साधने में बहुत कठिन है|
ReplyDeleteआज आपकी इस पोस्ट ने हमे भी इसकिताब की और आकर्षित किया है मगर सोच रहें है की आप जैसे ज्ञानियों को इसे समझने में इतना तप करना पड़ रहा है तो शायद हम जैसों को तो इसका एक पन्ना भी समझ नहीं आएगा...:):)इसलिए आपकी इस तपस्या के लिए आपको शुभकामनायें आपकी पोस्ट से ही जानेगे इस प्र्स्तक के राज़।
ReplyDeleteजब तक भोग को पूरा भोग न लो. प्रेम को समझना बहुत कठिन है. प्रेम को समझे बिना त्याग को समझा नहीं जा सकता. कीचड के अंदर से ही कमल निकलता है , बूंदे गिरती है रूकती है ,कमल का फूल उन्हें आत्मसात नहीं करता. यही है त्याग. जो कुछ जिओ ,उसे पूरा जिओ, अधूरा नहीं. . . . . अच्छा लगा आपका लेख , कभी किसी मोड़ पर मुलाक़ात हो तो चर्चा अवश्य करना चाहूंगा. प्रेम ६० मिनट नहीं , २४ घंटे ,हर पल ,पल पल.
ReplyDeleteतेन त्यक्तेन भुञ्जीथा, अर्थ कि उसका त्यागपूर्वक भोग करो …………ये त्यागपूर्वक भोग का अर्थ ही तो गहन है ………जब इंसान मन से सब त्याग कर चुका होता है मगर क्योंकि समाज मे रह रहा है तो उसके कायदे भी तो मानने होते हैं और उसी के नियमानुसार भी चलना होता है तो जो कार्य करता है उसी के अनुरूप करता है मगर अन्दर से उसकी भोगवृत्ति खत्म हो चुकी होती है बस संसार मे रहने के लिये और चलाने के लिये वो उनका उपभोग करता प्रतीत होता है यही प्रवृत्ति त्यागपूर्वक भोग कहलाती है …………जितना मैने इस विषय मे जाना है वोही बतला रही हूँ तभी इस बारे मे कहा गया है या कहिये कबीर जी ने कहा है ………सच्चा त्याग कबीर का जो मन से दिया उतार ………बस वही है त्याग और उसके बाद जो भी कार्य किया जाये उसमे संलिप्तता नही होती तो वो भोग करते हुये भी भोगी नही कहलाता ।
ReplyDeleteदोनों अति के दो छोड़ हैं..इसमें आपका मझ्झम निकाय वाला आलेख सही व्याख्या दे देगा..
ReplyDeleteप्रवीण जी निःशब्द कर दिया आपके इस आलेख ने लोगों में उर्वशी पढने की जिज्ञासा अलग हो गई इतना पढने पर एक बात समझ में आई है की संतुलन ही सब समस्याओं का निवारण है बाकी आप आगे पढ़कर स्थिति स्पष्ट कीजिये सभी को इन्तजार होगा |
ReplyDeleteत्याग से से जोग और परित्याग हो भोग
ReplyDeleteयही जीवन का लक्ष्य होना चाहिए।
प्रवीण जी क्या ये रामधारी सिंह दिनकरकी लिखी उर्वशी है ....
ReplyDeleteपढ़ी तो मैंने भी थी शायद एम्.ए. में ...अभी भी पड़ी होगी कहीं ....
पर आपका अध्यन देख तो हमें और एक बाबा के आने की आशंका होने लगी है ....
आप तो सामान्य प्राणियों से ऊपर उठ गए ....
नमन गुरुदेव .....!!
बहुत खूब, सुन्दर .
Deleteमुझे चिन्तन को मजबूर करने का आभार आपका!!...
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति ..बधाई। मेरे नए पोस्ट "अतीत से वर्तमान तक का सफर" पर आपका स्वागत है। धन्यवाद।
ReplyDeleteAlways learn something new and good from your posts!
ReplyDeleteबहुत बढ़िया मनो -विश्लेषण .शुक्रिया .
ReplyDeleteबहुत सार्थक चिंतन..
ReplyDelete’उर्वशी’ पर आपकी गहन व्याख्या सराहनीय रही.भोग-त्याग के मोती को
ReplyDeleteआपने समुंद्र-मंथन से निकाल,शब्दों की माला में बखूबी पिरोया है.
वैसे तो,आस्तित्व-दो विरोधाभासों का एक होना ही है.
ओशो भी यही कहते हैं—विषयानंद व मुक्तानंद वस्तुतः एक ही हैं.
उर्वशी की रोचक व्याख्या. आनेवाली कड़ियों की प्रतीक्षा.
ReplyDelete"उद्घाटित" का मतलब बताइए पहले तो... नर क्या होता है और क्या चाहता है, नारी के सौन्दर्य का प्रवाह कितना गतिमय होता है, इसका व्याख्यान है उर्वशी।... यह बात सही है.. नर की चाहत और सौन्दर्य दोनों का होना बहुत ज़रूरी है.. नर की चाहत पूरी ज़िन्दगी बनी रहती है.. और नारी का सौन्दर्य एफेमेरल होता है.. रुकिए ज़रा एफेमेरल की हिंदी डिक्शनरी में देख लूँ... (हाँ! एफेमेरल की हिंदी क्षणभंगुर है.. मुझे तो क्षणभंगुर भी समझ में नहीं आया) अपने लिए कॉमन लैंग्वेज में मोमेंट्री भी सही है.. चलिए एक बात तो है कि मेरी हिंदी भी सही हो जाएगी इसी बहाने... थैंक्स फोर शेयरिंग... आय एन्जोयेड इट ... रीडिंग आउट... वंस अगेन थैंक्स..
ReplyDeleteत्याग और भोग के अंतर को समझना भले कष्टप्रद हो, प्रेम और त्याग तो कुछ आसान प्रतीत होता है.
ReplyDeleteब्लॉग पर पधारने और उत्साहवर्धन का धन्यवाद.स्नेह इसी तरह मिलता रहेगा , ऐसी अपेक्षा है .
ReplyDeleteआपकी हिन्दी और लेखन शैली से तो मैं बिलकुल प्रभावित हूँ...
ReplyDelete