कठिन परिश्रम की घड़ियाँ हैं,
नहीं कहीं कोई पथ दिखलाता।
घुप्प अँधेरों के चौराहे,
नहीं जानता, एक प्राकृतिक,
या भ्रम-इंगित कृत्रिम व्यवस्था।
कुछ भी हो लगता ऐसा है,
रूठ गया निष्कर्ष दिशा से,
या फिर सर धर हाथ बैठता,
गृहस्वामी गृह लुट जाने पर।
प्राणहीन हो गयी व्यवस्था,
जीवन है अब कहाँ उपस्थित,
कब औषधि उपचार करेगी?
शोषण-धारा बहे अनवरत,
कहीं मानसिक, कहीं आर्थिक,
दृढ़ इच्छा का नाविक बनकर,
चलें विरुद्ध बहें धारा के।
यदि विचार भी उठता मन में,
सोचो एक पल व्यग्रहीन हो,
नौकायें सब डूब रही हैं,
जो धारा के संग नहीं हैं
डूबे प्राणी, चीख प्रभावी,
असहायों का शैशव क्रन्दन,
भयाक्रान्त जन पर भविष्य में,
फिर यह गलती ना दोहरायें।
विषय दुःखप्रद, किन्तु बन रहे,
नित्य निरन्तर प्राणहीन जन,
धारा के अनुरूप बह रहे,
शंकित मन में, निज भविष्य प्रति।
सत्य यही है, फैल रही है,
कह दो कैसे बनी व्यवस्था?
कौन लाये संजीवनि औषधि,
लखन क्रोध से मूर्छित लेटा।
कब तक फैली चाटुकारिता,
मध्यम सुर में राग गढ़ेगी
स्याही चादर ओढ़ बिचारे,
सूर्योदय सब राह तक रहे
शक्तिहीन जन, प्राणहीन मन,
मर्यादा परिभाषित करने,
तत्पर मन से जुटे हुये सब,
आश्रय पाते थके हुये जन,
परिभाषित इस मर्यादा में,
जीवन जीभर जी लेने की,
आवश्यकता जानेगे कब,
कृत्रिम व्यवस्था में अपना भी,
समुचित योगदान अर्पित कर,
किन्नर सेना मन ही मन में,
बढ़ते बढ़ते हर जीवन में,
स्वप्न-दिवा सी फैल गयी है।
नहीं कहीं कोई पथ दिखलाता।
घुप्प अँधेरों के चौराहे,
नहीं जानता, एक प्राकृतिक,
या भ्रम-इंगित कृत्रिम व्यवस्था।
कुछ भी हो लगता ऐसा है,
रूठ गया निष्कर्ष दिशा से,
या फिर सर धर हाथ बैठता,
गृहस्वामी गृह लुट जाने पर।
प्राणहीन हो गयी व्यवस्था,
जीवन है अब कहाँ उपस्थित,
कब औषधि उपचार करेगी?
शोषण-धारा बहे अनवरत,
कहीं मानसिक, कहीं आर्थिक,
दृढ़ इच्छा का नाविक बनकर,
चलें विरुद्ध बहें धारा के।
यदि विचार भी उठता मन में,
सोचो एक पल व्यग्रहीन हो,
नौकायें सब डूब रही हैं,
जो धारा के संग नहीं हैं
डूबे प्राणी, चीख प्रभावी,
असहायों का शैशव क्रन्दन,
भयाक्रान्त जन पर भविष्य में,
फिर यह गलती ना दोहरायें।
विषय दुःखप्रद, किन्तु बन रहे,
नित्य निरन्तर प्राणहीन जन,
धारा के अनुरूप बह रहे,
शंकित मन में, निज भविष्य प्रति।
सत्य यही है, फैल रही है,
कह दो कैसे बनी व्यवस्था?
कौन लाये संजीवनि औषधि,
लखन क्रोध से मूर्छित लेटा।
कब तक फैली चाटुकारिता,
मध्यम सुर में राग गढ़ेगी
स्याही चादर ओढ़ बिचारे,
सूर्योदय सब राह तक रहे
शक्तिहीन जन, प्राणहीन मन,
मर्यादा परिभाषित करने,
तत्पर मन से जुटे हुये सब,
आश्रय पाते थके हुये जन,
परिभाषित इस मर्यादा में,
जीवन जीभर जी लेने की,
आवश्यकता जानेगे कब,
कृत्रिम व्यवस्था में अपना भी,
समुचित योगदान अर्पित कर,
किन्नर सेना मन ही मन में,
बढ़ते बढ़ते हर जीवन में,
स्वप्न-दिवा सी फैल गयी है।
बहुत ही सुन्दर कविता सर
ReplyDeleteएक हाहाकारी दशा दुर्दशा
ReplyDeleteमन को विकल ,व्यथित करती परिस्थितियां ....
ReplyDeleteशानदार रचना
ReplyDelete"विषय दुःखप्रद, किन्तु बन रहे,
ReplyDeleteनित्य निरन्तर प्राणहीन जन,
धारा के अनुरूप बह रहे,
शंकित मन में, निज भविष्य प्रति।
सत्य यही है, फैल रही है,
कह दो कैसे बनी व्यवस्था?"
...सत्य वचन महाराज !
जर जर होती व्यवस्था पर गहन अभिव्यक्ति ..
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर कविता ...गहन अभिव्यक्ति
ReplyDeleteदेश / समाज की वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार चिंतन !
ReplyDeleteशोषण-धारा बहे अनवरत,
ReplyDeleteकहीं मानसिक, कहीं आर्थिक,
दृढ़ इच्छा का नाविक बनकर,
चलें विरुद्ध बहें धारा के।
यह हाल सिर्फ देश का ही नहीं बल्कि विश्व का है ....आज चहुँ और मानव - मानव के खून का प्यासा बन चूका है ...सब व्यव्यस्थायें ध्वस्त हो चुकी हैं .....आपने बेहतरीन अंकन किया है इस रचना के माध्यम से ...!
बहुर पीड़ा लिए है. सुन्दर रचना.
ReplyDeleteबहुत कुछ सिखाती यह रचना ...
ReplyDeleteआभार आपका !
जीवन जीभर जी लेने की,
ReplyDeleteआवश्यकता जानेगे कब,
जीभर जीवन जीने की कला हर कोई नहीं जानता
मंजिल के लघु पथ कटान में
ReplyDeleteजीवन के सब सार बह गये
....................
हम नदिया की धार बह गये।
वाकई!!
ReplyDeleteअसहायों का शैशव क्रन्दन
घुटन भरा आक्रोश!!
कवि हृदय व्यथित कैसे न हो |
ReplyDeleteबस अब तो माया कलैंडर का ही एक मात्र सहारा बचा है :)
ReplyDeleteशक्तिहीन जन, प्राणहीन मन,
ReplyDeleteमर्यादा परिभाषित करने,
तत्पर मन से जुटे हुये सब,
आश्रय पाते थके हुये जन,
भावपूर्ण बढ़िया रचना ... आभार
(1) गूढ़ प्रश्न ।
ReplyDeleteसंजीवनी कहीं तो होगी, खड़ी व्यवस्था हो जाएगी ।
धरे हाथ पर हाथ रहे तो, दिशा स्वयं को भटकाएगी ।।
(2) संसय
लीक छोड़ कर वीर चले हैं, शंकाओं को दूर भगाते ।
झंझावातों में भी अपनी, करनी से इतिहास बनाते ।।
(3) आशा
सूरज निकले आसमान में, विश्वास-धूप चमकाए धरती ।
प्रकृति स्वयं में बड़ी नियामक, सब कुछ सही संतुलित करती ।।
(4)
नीति दोगली स्वार्थ सिद्धि में, वैसे हरदम लगी रही है ।
सच्चाई का जोर लगेगा, देखोगे सब सही सही है ।।
श्रद्धा तुम पहचान न पाए, एकलव्य की व्यथा लिखूंगा !
ReplyDeletesarthak aur gehan abhivyakti.....
ReplyDeleteसब प्रतीक्षित हैं ... सूर्योदय के लिए सबको अपने द्वार खोलने होंगे
ReplyDeleteGreat, Vyawastha Prakritik Kaise ho Is Krittim Sansaar Me ? Jaroor Iishwar ko Manav Bankar Is Dhara Me aana hi Hoga.....................
ReplyDeleteGAMBHEER CHINTAN KO AMANTRIT KARTI PRABHAVSHALI RACHNA.
ReplyDeleteपीड़ा और व्यावहारिकता का पुट लिए .... सुन्दर कविता ... भाव मय चिंतन ...
ReplyDeleteगहन भाव लिए उत्कृष्ट प्रस्तुति ... आभार
ReplyDeleteइस व्यवस्था पर कविता कैसे न हो..व्यथित मन शब्दों में उतर गया है.
ReplyDeleteकब तक फैली चाटुकारिता,
ReplyDeleteमध्यम सुर में राग गढ़ेगी
स्याही चादर ओढ़ बिचारे,
सूर्योदय सब राह तक रहे
प्रतीक्षारत हैं उस सूर्योदय की जब व्यवस्था में परिवर्तन होगा .... विचारणीय रचना
जीवन है अब कहाँ उपस्थित,
ReplyDeleteकब औषधि उपचार करेगी?
व्यथित मन से प्रतीक्षारत ही तो हैं सब!
सुन्दर कविता!
दुर्दशा सामने दिख रही है . सुँदर रचना
ReplyDeleteसदा की तरह और कवि के व्यक्तित्व की तरह ही प्रवाहमयी कविता।
ReplyDelete्गहन अभिव्यक्ति
ReplyDeleteसुन्दर कविता है प्रवीण जी.
ReplyDeleteव्यवस्था की दुर्दशा पर गहन अभिव्यक्ति...बहुत सुन्दर प्रवीण जी..आभार
ReplyDeleteकब तक फैली चाटुकारिता,
ReplyDeleteमध्यम सुर में राग गढ़ेगी
स्याही चादर ओढ़ बिचारे,
सूर्योदय सब राह तक रहे
आज तो सुंदर कविता लिख डाली प्रवीण जी. बधाई.
’कह दो कैसे बनी व्यवस्था,कौन लाए संजीवनि औषधि’
ReplyDeleteआज की चटकती व्यवस्था पर उठते अनेक प्रश्न चिन्ह--
सर जी अनुशासन ही देश को महान बनाता है ! संजय गाँधी की स्लोगन याद आ गयी !
ReplyDeleteआप 'जनाधारित' और 'जनोपयोगी' सेवाओं से जुडे हैं। ईश्वर करे, इस कविता में
ReplyDeleteव्यक्त यह जगपीडा, आपके काम-काज के माध्यम से लोगों का भला कर सके।
व्यवस्था में इतना कुछ बिखराव है कि सब अस्त-व्यस्त सा हो गया है। और आम जन के भीतर लावा भी नहीं फूट रहा।
ReplyDeleteकठिन परिश्रम की घड़ियाँ हैं,
ReplyDeleteनहीं कहीं कोई पथ दिखलाता।
घुप्प अँधेरों के चौराहे,
नहीं जानता, एक प्राकृतिक,
या भ्रम-इंगित कृत्रिम व्यवस्था।
कुछ भी हो लगता ऐसा है,
रूठ गया निष्कर्ष दिशा से,
........मैं जग पीड़ा लिए घूमता ...बहुत सुन्दर ,परिवेश प्रधान ,लचर व्यवस्था को फटकारती हुई रचना ,जन मन की पीड़ा से आप्लावित .
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 05 -07-2012 को यहाँ भी है
ReplyDelete.... आज की नयी पुरानी हलचल में .... अब राज़ छिपा कब तक रखे .
बहुत उम्दा अभिव्यक्ति,,,
ReplyDeleteMY RECENT POST...:चाय....
कब तक फैली चाटुकारिता,
ReplyDeleteमध्यम सुर में राग गढ़ेगी
स्याही चादर ओढ़ बिचारे,
सूर्योदय सब राह तक रहे
जब तक हम नही खडे होंगे इस व्यवस्था के विरुध्द । हालात का विशुध्द वर्णन ।
क्या दिग्भ्रमित होना ही नियति है
ReplyDeleteक्यों चुप से उत्तर ही परिणिति है...
.... :(
ReplyDeleteशोषण-धारा बहे अनवरत,
ReplyDeleteकहीं मानसिक, कहीं आर्थिक,
दृढ़ इच्छा का नाविक बनकर,
चलें विरुद्ध बहें धारा के।
...बहुत मर्मस्पर्शी उत्कृष्ट अभिव्यक्ति...
व्यवस्था (अव्यवस्था) को लेकर कुछ ऐसी ही चिंताएं सभी के मन में हैं साथी।
ReplyDeleteकृत्रिम व्यवस्था में अपना भी,
ReplyDeleteसमुचित योगदान अर्पित कर,
किन्नर सेना मन ही मन में,
बढ़ते बढ़ते हर जीवन में,
स्वप्न-दिवा सी फैल गयी है।'-
- यही तो रोना है ,जो थमने में नहीं आता !
:(
ReplyDeleteप्राणहीन हो गयी व्यवस्था,
ReplyDeleteजीवन है अब कहाँ उपस्थित,
कब औषधि उपचार करेगी?
व्यवस्था गत खामियों आम जन के निष्प्राण निर -उपाय जीवन का सच्चा दस्तावेज़ है यह रचना .
Very realistic creation.
ReplyDeleteगज़ब ही कर दिये...वाह!!
ReplyDelete---अतिसुन्दर ...अतिसुन्दर ..क्या बात है ...पांडे जी काव्य-कला में भी माहिर होते जा रहे हैं...
ReplyDelete---१६ मात्रिक पंक्तियाँ हैं ... कहीं कहीं मात्रा दोष है..अतः लयात्मकता में अवरोध आता है... कुछ को इंगित कर रहा हूँ ..
नहीं कहीं कोई पथ दिखलाता = १८ ...कहीं न कोई पथ दिखलाता = १६ मात्रा
सोचो एक पल व्यग्रहीन हो, = १७ ...एक = इक ...=१६ मात्रा
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